Thursday, January 26, 2006

कैसा गणतंत्र, किसका गणतंत्र ?

कैसा गणतंत्र, किसका गणतत्र ?
26 जनवरी का दिन आया और चला भी गया । जगह-जगह तिरंगा लहराया गया । कुछ जगह बच्चे लाड साहबों के सामने बडे भोर से सांस्कृतिक कला प्रदर्शन के नाम पर कंपकपाती ठंड में कतारबद्ध खडे रहे । कुछ गलियों में मोहल्लों के धन्धेबाजों ने मिठाईयाँ भी बाँटीं । कहीं-कहीं शुतुरमुर्ग के अंदाज वाले बुद्धिजीवियों ने व्याख्यान रचाया । दूर-दराजों के एकाध गाँव में फीते फिर से काटे गये । नये जमाने के छोकरों ने कलर मोबाईल से sms भेजा । संगीत के दीवानों (?) ने दो-चार देशभक्ति के कैसेट और सीडी बजाकर डांस-वांस करके गणतंत्र का इजहार किया । देश भर के सारे सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों को पुरस्कार एवं प्रोत्साहन के नाम पर दोपहर वाले मध्यानः भोजन के चावल से ही काम चलाया गया । बस, इससे ज्यादा और कुछ नहीं हुआ संसार के सबसे बडे गणतांत्रिक देश भारत में । क्या इसी का नाम गणतंत्र है ?
     क्या आज देश का किसान चिन्तामुक्त था कि लहलहाते गेहूं के सूखते हुए खेत में पानी की कमी नहीं हुई ? क्या आज सारे के सारे बेरोजगारों के हाथ काम में जूटे हुए थे ? क्या आज कहीं कोई रिश्वत नहीं लेकर बकाया सरकारी काम पूरा कर दिखाया ? क्या किसी ने भी कोई दलाली नहीं की ? अपने शहीद पुरखों को याद करते हुए क्या किसी के आँख छलछला उठे ? क्या आज वर्दीधारियों ने अपनी वर्दी का दाग धो लिया ? क्या आज देश का जन-जन खुशी में मस्त था ? शायद सभी का उत्तर नहींमें ही मिलेगा । तब क्या हम सच्चे गणतंत्र प्राप्त कर चुके । नहीं ना । कैसे मिलेगा हमें सच्चा गणतंत्र ? हम आखिर कहाँ भटक गये ? हमारे रणवांकुरों की कुर्बानी क्या बेकार चली गयी ? हम किस आकाश में उड रहे हैं ? 5 दशक कैसे बीत गये हमारे हमें समझ ही नहीं आया । हमने चाहे जिस भी क्षेत्र में झंण्डे गाड दिये हों, अब भी भारत का आम आदमी जीवन की बुनियादी संसाधनों से दूर ही है । हमने केवल मूल्य बटोरना तो सीख लिया है इन वर्षों में पर मूल्य निभाना भूल गये । आखिर कहाँ चूक हो गई हमारे पुरखों से ? आखिर हम कहाँ जाकर ठहरने वाले हैं ? सोचें तो जरा ठंडे दिमाग से । विचार करके देखें तो भला तमाम संवेदना के साथ .......... । मैं सच ना कह रहा हूँ तो जरूर बतायें अपनी राय, मैं मानने को तैयार बैठा हूँ ।

Monday, January 16, 2006

मेरे प्रिय गीत (संदर्भ - पं. नरेन्द्र शर्मा)


संसार गीतविहीन कभी था ही नहीं । गीत वेदों से भी सयाना है । निराला जी ने कभी कहा था- “गीत मानव की मुक्ति-गाथा का प्रथम प्रणव है”। जो गाने-गुनगुनाने नहीं जानता या तो वह पाषाण है या फिर जीव होकर भी जीवनहीन है । मेरी माँ बताती है- जब मैं जनमा तो मेरे रोने में उन्हें गाने की अनुभूति हुई । शायद हर माँ को शिशु का प्रथम रूदन एक शाश्वत गान ही लगता है । जो भी हो, मैं बचपन में मेले-ठेले जाता था तो सबसे अधिक रूचने वाली बात गीत ही होता था । वे लोकगीत होते थे- राउतनाचा के गीत, रथयात्रा के गीत, डंडागीत, सुवागीत और भी न जाने कितने तरह के गीत । उन दिनों लगता था कि मेरा जनपद लोकगीतों का जनपद है । घर में महाभारत, रामचरित मानस, लक्ष्मीपुराण या फिर सत्यनारायण की कथा होती थी तो पंडित जी या मंडली गीत ही तो गाते थे । माँ जब पवित्र तिथियों में मंगला (दुर्गा देवी) की व्रत रखती थी तो उडिया में जो मंत्रपाठ करती थी वह गीत ही तो था । स्कूल में पढाई की शुरूवात गद्य से नहीं बल्कि पद्य यानी कि गीत से ही हुआ । शायद आप भी जानते हों इस गीत को । चलिए हम ही बताये देते हैं- ओणा मासी धम्म-धम्म, विद्या आये छम-छम । वह भी गीत ही था जो हमारे प्रायमरी स्कूल के गुरूजी हर नवप्रवेशी बच्चों को पहले दिन पढाते रहे यद्यपि यह गीत जैसा नहीं लगता किन्तु वे उसे ऐसे सिखाते थे कि मैं उसे गीत माने बिना नहीं रह सकता और यह गीत था- एक एक्कम एक, दो एक्कम दो , तीन एक्कम तीन, चार एक्कम चार.............. । शायद वे गद्य को पद्य बनाकर नहीं गाते तो शायद जाने कितने बच्चे आज भी अनपढ रह जाते ।
स्कूल की ईबारत सीखते-सीखते जाने कब मैं जन-गण-मन से लेकर वंदे मातरम् और युवा होने से पहले-पहले दुलहिन गावहु मंगलाचार या फिर हेरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाणे कोय आदि-आदि आत्मसात कर लिया पता ही नहीं चला । कुछ मन मचला तो किशोर दा के गीत भी मन को अतिशय भाने लगे और मैं भी गुनगुनाने लगा- जिंदगी के सफर में गूजर जाते हैं वे जो पल फिर नहीं आते । उन दिनों, जब प्रेम मन में अंगडाई लेने लगा और कभी तनहाई सताने लगी तो ये गीत भी खुब सुहाने लगे थेः
आज पुरानी राहों से कोई मुझे आवाज न दे
इस बीच कुछ-कुछ लिखने लगा । लघुकथायें लिखीं । कविता भी और आलेख भी । पर सच कहता हूँ मन तो गाना चाहता है । कविता, लघुकथा, आलेख, निबंध तो पढने की विधाएँ है । इन्हें थोडे न गाया जा सकता है । जीवन में पहली बार गीत लिखा । लगा मैं स्वर्गीय आनंद से भर उठा हूँ । गाकर सुनाया कवि मित्रों को तो मत पूछिए क्या हुआ । सबने गले से लगा लिया । कंठ तो ईश्वर से मिला ही है । लोग मंचों पर सुनाने का आग्रह करने लगा । तब से अब तक लगातार लिख रहा हूँ । क्या-क्या लिखा । कितना लिखा । कितना नाम कमाया और कितना दाम भी । उसकी चर्चा फिर कभी । आज तो बस मैं अपने उस प्रिय रचनाकार के गीत सुनाना चाहता हूँ जिनके बिना हिन्दी गीत-यात्रा अधूरी रह जाती ।
मेरे मन मानस मैं पैठे उस गीतकार का नाम है- पं.नरेन्द्र शर्मा । वे छायावाद काल के समापन के समय ही हिन्दी की दुनिया में प्रतिष्ठित हो चुके थे । इनके आरंभिक गीतों के केन्द्र में प्रेम हिलोरें मारता है । बाद के गीतों में लोक और परलोक के भी संदर्भ हैं । संयोग का उल्लास, मिलन की अभिलाषा, रूप की पिपासा, संयोग की विविध मनोदशायें तथा वियोग की पीडा नरेन्द्र शर्मा जी के गीतों का विषय है । वे केवल व्यक्तिवादी नहीं थे, उनमें सामाजिकता भी लबालब है । ऐसा कौन होगा जो हिन्दी का प्रख्यात टी.व्ही.सीरियल देखा हो और पंडित जी को न जानता हो । तो काहे की देरी । लीजिए ना उनके वे गीत जो मुझे बहुत पसन्द हैं-
एक...
तुम रत्न-दीप की रूप-शिखा

तुम दुबली-पतली दीपक की लौ-सी सुन्दर
मैं अंधकार
मैं दुर्निवार
मैं तुम्हें समेटे हूँ सौ-सौ बाहों में, मेरी ज्योति प्रखर
आपुलक गात में मलय-वात
मैं चिर-मिलनातु जन्मजात
तुम लज्जाधीर शरीर-प्राण
थर्-थर् कम्पित ज्यों स्वर्ण-पात
कँपती छायावत्, रात, काँपते तम प्रकाश अलिंगन भर
आँखे से ओझल ज्योति-पात्र
तुम गलित स्वर्ण की क्षीण धार
स्वर्गिक विभूति उतरीं भू पर
साकार हुई छवि निराकार
तुम स्वर्गंगा, मैं गंगाधर, उतरो, प्रियतर, सिर आँखों पर
नलकी में झलका अंगारक
बूँदों में गुरू-उसना तारक
शीतल शशि ज्वाला की लपटों से
वसन, दमकती द्युति चम्पक
तुम रत्न-दीप की रूप-शिखा, तन स्वर्ण प्रभा कुसुमित अम्बर
…………………
दो...
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे

आज से दो प्रेमयोगी अब वियोगी ही रहेगें
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।

आयगा मधुमास फिर भी, आयगी श्यामल घटा घिर
आँख बर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिर
प्राण तन से बिछुड कर कैसे मिलेंगे
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।

अब न रोना, व्यर्थ होगा हर घडी आँसू बहाना
आज से अपने वियोगी हृदय को हँसना सिखाना
अब आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे
न हँसने के लिए हम तुम मिलेंगे ।

आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारे
दूर होंगे पर सदा को ज्यों नदी के दो किनारे
सिन्धु-तट पर भी न जो दो मिल सकेंगे
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।

तट नही के, भग्न उर के दो विभागों के सदृश हैं
चीर जिनको विश्व की गति बह रही है, वे विवश हैं
एक अथ-इति पर न पथ में मिल सकेंगे
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।

यदि मुझे उस पार के भी मिलन का विश्वास होता
सत्य कहता हूँ न में असहाय या निरूपाय होता
जानता हूँ अब न हम तुम मिल सकेंगे
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।

आज तक किसका हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखा
कल्पना के मृदृल कर से मिटी किसकी भाग्य रेखा
अब कहां संभव कि हम फिर मिल सकेंगे
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।

आह, अंतिम रात वह, बैठी रही तुम पास मेरे
शीश कन्धे पर धरे, घन-कुन्तली से गाते घेरे
क्षीण स्वर में कहा था, अब कब मिलेंगे
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।

कब मिलेंगे ?पूछता जब विस्व से मैं विरह-कातर
कब मिलेंग ?गूँजते प्रतिध्वनि-निनादित व्योम-सागर
कब मिलेंगे प्रश्न उत्तर कब मिलेंगे ?
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।
…………………
तीन...
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर

शुन्य है तेरे लिए मधुमास के नभ की डगर
हिम तले जो खो गयी थीं, शीत के डर सो गयी थी
फिर जगी होगी नये अनुराग को लेकर लहर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर

बहुत दिन लोहित रहा नभ, बहुत दिन थी अवनि हतप्रभ
शुभ्र-पंखों की छटा भी देख लें अब नारि-नर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर

पक्ष अँधियारा जगत का, जब मनुज अघ में निरत था
हो चुका निःशेष, फैला फिर गगन में शुक्ल पर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर

विविधता के सत विमर्षों में उत्पछता रहा वर्षों
पर थका यह विश्व नव निष्कर्ष में जाये निखर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर

इन्द्र-धनु नभ-बीच खिल कर, शुभ्र हो सत-रंग मिलकर
गगन में छा जाय विद्युज्ज्योति के उद्दाम शर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर

शान्ति की सितपंख भाषा, बन जगत की नयी आशा
उड निराशा के गगन में, हंसमाला, तू निडर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर
.............................
(क्रमशः..... )

Sunday, January 15, 2006

साहित्य की दिशाएँ : आज की बात


साहित्य की दिशाएँ : आज की बात
"किधर जाओगे ?"
यह संकेत शिशु की ओर हो तो उसकी आँखे अपनी माँ को ढूँढती फिरेगीं । यही प्रश्न किसी किशोर से करें तो वह अपने सखाओं के शोरगुल से गूंजते क्रीडाँगन की बात करेगा । प्रश्न एक युवा के सम्मुख उछाले जाने पर उसका मन सबसे मधुर स्वप्न की ओर दौडने लगेगा । उत्तर किसी अधेड से अपेक्षित हो तो कदाचित् वह थके-मांदे स्वर में बोलना चाहेगा-“ बाल बच्चों वाला आदमी घर के अलावा और कहाँ जायेगा भाई ? ”
यदि प्रश्न किसी बूढे मानुष के लिए हो तो संभव है उसकी उकतायी हुई साँसे प्रतिध्वनित हों और वह अनंत की ओर निहारते हुए खो जाए ।
प्रश्न समान है । उत्तर असमान ।
असमान उत्तरों में भी एक साम्य है –समयबोध की अनुप्रेरणा । उत्तरों में स्पष्ट स्वरूपभिन्नता के बावजूद उनकी प्रकृति में दिशा का एकत्व है । साहित्य में भी यही होता है । उसकी दिशाएँ बदलती रहती हैं । दिशाओं में बदलाव भी उसके गंतव्य को नहीं बदल पाते । शायद यही साहित्य का शिवत्व है । यही उसकी सत्यता है और सुन्दरता भी । साहित्य स्वयं दिशा है । समय से आगे की दिशा । उसकी यही क्षमता उसे सर्वदा आदरणीय बनाये रखती है । उस आदरणीय भाव की गति में वर्तमान अपने अतीत और आगत की जमीन तक पहुँच सकता है । साहित्य को “सहित”भी कहा गया है । आखिर “सहित” का भाव क्या है । सहित यानी हित के साथ । जहाँ हित का भाव है वहाँ साहित्य है । साहित्य को इसलिए हितचिंतक या हित का अनुशंसक भी माना गया है । “सहित” में कई संकेत है- पहला यह कि साहित्यकार और उसके पाठक एक साथ गतिमान हो । रचनाकार का उद्यम लेखन होता है । सृजन होता है । दरअसल साहित्य रचनाकार के साथ पाठक या श्रोता की सहभागिता भी । दरअसल साहित्य भाव और भावार्थ की सहयात्रा भी है । शब्द कुछ और कहें अर्थ कुछ और निकाले जायें, इसे कोई साहित्य माने, कम से कम मुझ साहित्यानुरागी के गले तो नहीं उतरता । दरअसल साहित्य व्यष्टि को समष्टि के साथ लयबद्धता के लिए अनुप्रेरणा भी है । विश्व की सभी भाषाओं के पंडितों के निष्कर्षों को भी केन्द्रस्थ करके कहा जाय तो साहित्य वही, जो रस के सहित हो । रस होगा तो पाठक के चित्त में आकर्षण उपजेगा । रस होगा तो वह निश्चय ही आत्मीयता या अंतरंगता का बोध करायेगा । साहित्य को सहित का भाव माने में “सुहित” का भाव भी है । जो अनंतिम न हो, अंतिम हित हो । वही साहित्य का सत्य है ।
सत्य का चरित्र सार्वभौमिक होता है । वह किसी भी देश-काल-परिस्थिति में अपना चेहरा नहीं बदलता । साहित्य की इस सच्चाई के उजाले में अपने समय के साहित्य को देखना चाहता हूँ तो आँखें फटी की फटी रह जाती हैं । आश्चर्य मिश्रित हताशा से घिर-घिर उठता हूँ । मन में प्रश्न उभरता है-“साहित्य के इतने सारे सत्य कैसे हो सकते हैं? ऐसा सच भले ही आज के साहित्यकार का सच हो वह उस वृहत्तर समाज के पाठक का सच नही हो सकता जिसका हर काल में अपेक्षा की जाती है । वह भी ऐसा पाठक जिसे हम बडी उम्मीद के साथ देखा करते हैं कि वह साहित्य के साथ चले । साहित्यमयता के बीच रहे ।
आज जितने आंदोंलन और चर्चा साहित्य की दिशाओं को लेकर हो रही है शायद उतनी कभी नहीं हुई । कमोवेश यह बात सभी भारतीय भाषाओं के गाँव में लागू होती है किन्तु हिन्दी की दुनिया में तो यह उफान पर है । कोई कहता है कि साहित्य प्रतिबद्धता और संघर्ष का शास्त्र है । कोई कहता है- साहित्य में प्रतिबद्धता का अर्थ कविता के लिए कवि के मन के आवेग को एकरस बनाना । कुछ ऐसी भी घोषणाएँ सुनाई देती हैं कि साहित्य अत्यल्प और पलायनवादी लोगों का भ्रम है । इस वाग्विलास में क्षणिक आनंद तो है किन्तु आनंद का स्थायित्व नहीं है । ऐसे सार्वजनिक सरोकार रहित कार्य में व्यापक समाज का कल्याण-मार्ग नहीं दिखाई देता है । समीक्षकों के सौजन्य से पढने को मिलता है कि साहित्य की सही दिशा वही है जो वे कह रहे हैं । सिर्फ वही है । अन्यत्र कहीं नहीं वह दिशा । बडी हँसी आती है – साहित्य की इतनी सारी दिशाएँ कैसे हो सकती है ? वह भी सब के सब सही । इसका आशय तो यह भी हुआ कि अन्य दिशाएँ गलत हैं । ऐसे समीक्षकों को न्यायाधीश मानने से मन इंकार करने लगता है । समीक्षक साहित्य का वकील नहीं हो सकता है । उसे साहित्य का वादी या प्रतिवादी भी नहीं होना चाहिए । जब स्वयं साहित्य हर वाद को लाँघता चलता है तब उसका कोई वादी, प्रतिवादी, वकील या मुंशी कैसे हो सकता है ? साहित्य का श्रेष्ठ न्यायाधीश पाठक ही हो सकता है । क्या समीक्षकों के इस कृत्य को दलाली की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए ?
साहित्य के लिए प्रेरणा-दबाब चाहे जो भी हों, अंतिम रूप से उसकी दर दशा का वास्तविक उत्तरदायी साहित्यकार ही होता है । साहित्य के इस उत्तरदायित्व को मैं धर्म मानता हूँ । इसे कर्म मात्र कह देने से परिणाम की निश्चितता के लिए साहित्यकार को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता । साहित्य-सृजन को चाहे लाख मन की आवेगपूर्ण एवं निश्छल अभिव्यक्ति माने । साहित्यकार को चाहे पूर्ण स्वायत्तता क्यों न प्राप्त हो । उसे मानवीय दृष्टि की आपेक्षिक परिधि से विमुक्त नहीं किया जा सकता है । इसी चूक से साहित्य का बीज-तत्व अर्थात् सौंन्दर्य विनष्ट हो जाया करता है । साहित्य भावनाएँ मात्र नहीं है, अनुभव भी होता है । इसमें देह, मेधा, अनुभूति क्षमता, चितवृत्ति, संकेत, संकल्पनाएँ, स्वप्न सभी कुछ होता है, इस दुनिया और उस दुनिया से आगे का भी अनुराग सम्मिलित है । जब अनुभव ही अनुभाव बन जाते हैं, जब दर्शन और दर्शित एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं, तब-तब साहित्य संपूर्ण अस्तित्व का सृजन बन जाता है ।
रिल्के ने “सानेट टु आर्फियस तृतीय ” में लिखा हैः
कविता लिखना जैसा हमने-तुमने सीखा ऐसी चाहत या ऐसी इच्छा नहीं है जिसको पाया नहीं जा सकता । कविता लिखना जीवंत होना है ।
(कविता शब्द को हम यहाँ व्यापक अर्थ में साहित्य के लिए प्रयुक्त माने)
इस जीवंतता का अर्थ तन की जीवंतता नहीं मन की जीवंतता है जिस मन में पास-पडोस, राग-रंग, आचार-विचार, रीति-नीति, भक्ति-मुक्ति और इसकी स्मृति तथा स्वप्न बसे हुए होतेहैं । मन सर्वदा ऐसी शुभ संकल्पनाओं का अवगाहन करने बेचैन भटकता रहता है । इस जीवंतता में मात्र वयष्टि अर्थात् साहित्यकार का उसका अपना स्वार्थ ही नहीं उसके परमार्थ को भी देखा जाना चाहिए ।
इतना सब कुछ कहने के बाद मैं यह कतई नही कहना चाह रहा हूँ कि आज का उत्तरआधुनिक साहित्य दिशाहीनता का शिकार है । साहित्य से हर क्षण छोटी-छोटी किरणें फैलती रहती है । जुगनू की तरह । इनसे पूरी अमावस निशा का अंधियार तो नहीं मिटता पर जुगूर-जागर जरूर होता रहता है । समूचे अंधियार को धकलने के लिए प्रकाश का एक विशाल व अंतरहित स्त्रोत जरूरी होता है । यदि अंधकार से भरे रात के यात्री का काम जुगनूओं से भी चल जाता है तो आप और हम कौन होते हैं जो उसे एक मशाल या ज्योत थामने के लिए विवश कर दें । साहित्य में छोटी-मोटी किरणें हर क्षण विसर्जित भी होती रहती है । यदि वृहत्तर समाज को विभाजित करने वाले साहित्य में भी कुछ लोगों को अपनी दिशा देती है, तो दिखाई देती है । इसमें शेष बचे हुए लोगों के लिए कम गुंजाईस बनती हैः
कि दलितवाद से समाज के स्थापत्य में दरार पडने के खतरे हैं ।
कि स्त्री विमर्श से पुरूषवादी वर्चस्व को संकट का सामन करना पडेगा ।
कि यांत्रिकता से साहित्य और पाठक के सारे संबध खत्म हो जायेगें ।
संबंध शब्द से मेरा ध्यान उस समाज की ओर खींचा चला जा रहा है जो आज संक्रमण की चढती जवानी पर है । समाजों से दूरियां घटी है पर परस्पर शंका, अविश्वास एवं अलगाव का भाव बढा है । आतंकवाद, मानवबम, अस्थिरता के कुटनीतिक कुचेष्टाओं को इस श्रेणी में रखा जा सकता है । जीवन और सामाजिक मूल्यों में नाटकीय ढंग से उलटफेर हो रहे हैं । पुराने मूल्य विघटित हो रहे हैं और नये मूल्यों को पूर्णतः स्वीकृति नही मिल पा रही है । मध्य वर्ग अपने सांस्कृतिक पिछडेपन और नई जीवनशैलियों की लालसा में निरंतर संस्कृति-विहीनता की रसातल की ओर उन्मुख हुआ जाता है । क्रयशक्ति यद्दपि बढी है तथापि प्राथमिकताओं में साहित्य के लिए कोई खास स्पेस नहीं बचा है । इधर बहुराष्ट्रीय घरानों के षडयंत्र में विमूढ मध्यम वर्ग फंसता चला जा रहा है । अब वे गाँव, गली चौपाल, चौराहे रहे नहीं । वहाँ अब टूथपेस्ट से लेकर फेयर एंड लवली जैसे बाह्य सौन्दर्य के प्रसाधनों का बाजार सज चुका है । पूँजी पर केन्द्रित समाज अपने अंतरविरोधों के कारण संकट के माहौल में है । शायद कई तरह के तनावों की पृष्ठभूमि में यही है । लोक का त्याग आलोक का त्याग सिद्ध हो रहा है । यह संकट मात्र भारत या एशिया के देशों का नहीं बल्कि विश्वव्यापी बन चुका है ।
कुल मिलाकर आदमी उपभोक्ता बन चुका है । आदमी-आदमी के मध्य शाश्वत संबंधों को अब उपभोक्तावाद के व्यापारी अपनी तराजू पर तौलने की विश्वव्यापी हरकतें करने लगे हैं । साहित्य की समाप्ति जैसे नारे उछाल कर पूँजीवादी साजिशों के तहत विकासशील देशों के साहित्य और प्रकारांतर से संस्कृति में सेंध लगाने की कुचेष्टा को परखने के लिए आज किसी के पास इमानदारी शेष नहीं है । और फुर्सत तो है ही नहीं । ऐसी विडम्बनाओं के मध्य साहित्य की दिशा पर चर्चा करना जटिल हो सकता है पर असंभव नहीं ।
जब तक मानुषवृति जीवित रहेगी । जब तक मानुष में संवेदना का एकाध कतरा बचा रहेगा , उसे साहित्य के परिसर में लाया जा सकता है । साहित्य की किसी न किसी विधा में उसके अंतर्मन के शिव को जगाया जा सकता है । आज जब जीवन की बहुत सारी जरूरी चीजों को संगणक संगणित कर चुका है, साहित्य रचना के कार्य को उसके कब्जे में जाने से रोकना ही होगा । हाँ, संगणक के सहारे साहित्य को प्रसारित किया जा सके तो यह दीगर बात है । यह जोखिम और उत्साह साहित्यकार का है । किसी दूसरे का नहीं ।
वाक् मनुष्य का सर्वोच्च उपहार है । मनुष्य वाक् या शब्द में ही सुरक्षित है । उसका समूचा अस्तित्व शब्दों में ही है । शब्द नहीं तो एक तरह का शुन्य है मनुष्य के चारों ओर । साहित्य वाक् या वाणी की सर्वोच्च देन है । साहित्य स्वयं दिशा है । इस दिशा से ही हमारी दिशाएँ तय होती हैं । हम ही उसे गलत दिशा पर ले जाने के जिद में लग जायें, यह तो ठीक नहीं ।

Friday, January 13, 2006

गीतः गुजरे साल का बयान


मैं गुजर गया, मैं गुजर गया
यह शोर मेरी तो निन्दा है
क्योंकि, मुझमें मेरा अपना
इतिहास अभी तक जिन्दा है...

जो नहीं घुलाया जायेगा
दुनिया के साबुन-पानी से
फिर वक्त उसे दुहरायेगा
देखेंगे सब हैरानी से
यह बारह महिनों का जीवन-
मेरा, क्या एक परिन्दा है...

जो एक वर्ष हो जाने पर
कलेण्डर से उड जाता है
फिर नया रूप, उत्साह नया
लेकर क्या फिर ना आता है
माना कि नाम नया होता
पर वक्त वही कारिन्दा है...

घटनाएँ मुझमें घटती हैं
मुझमें, पर में क्या दोषी हूँ
ईमान-धरम से कहना तुम
मैं सही-विघ्नसंतोषी हूँ
मैं घरती पर घटने वाली
विपदाओं का ही पुलिन्दा हूँ...

मैं नहीं खुशी ना पीडा ही
मैं तो सपाट सा आँगन हूँ
तुम रंगोली से भरो उसे
यो शोणित से, मैं दामन हूँ
सारे सुख-दुख पलते मुझमें
मैं घटना नहीं चुनिन्दा हूँ ...

विचार-वीथी



प्रजातंत्रः राजनीतिक शत्रुता-पर्याय तथा सीमाएं


मुझे आज “प्रजातंत्रः राजनीतिक शत्रुता-तात्पर्य तथा सीमाएं” विषय पर कुछ कहना है । प्रजातंत्र और राजनीतिक शत्रुता एक दूसरे के संपूर्ण विरोधी अवधारणायें हैं । इन दोनों को एक साथ रखने के आग्रह का मतलब, न केवल राजनीति से उसकी आत्मा का अपहरण सोचना है बल्कि मानवीय मूल्य के विपरीत ध्रुव पर जा खडा होना भी है । प्रजातंत्र राज्य के नागरिकों के सम्यक विकास की सर्वोच्च राजनैतिक व्यवस्था का नाम है जबकी राजनीतिक शत्रुता सत्ता में अपने स्थायीकरण के लिए अमानवीय हरकतों की सीमा का स्पर्श । यह प्रकारांतर से उस कुटिल मनोदशा की उपज है जहाँ नागरिकता बोध और गरिमा के प्रति लापरवाही का घना कोहरा छाया होता है ।
प्रजातंत्र का संचालन राजनीतिक दलों द्वारा होता है । जाहिर है कि प्रजातंत्र राजनीतिक दलों के कंधों पर टिका हुआ एक पहाड है । यह एक ऐसा पहाड है जो जनता के स्वप्नों और उसकी अभिलाषाओं को साकार करने के उत्तरदायित्वों के भारी चट्टानों से बना है । प्रजातंत्र की अवधारणा को समझते हुए हम अक्सर भूल जाते हैं कि सरकार या व्यवस्था का सूत्र सत्ताधारी दल के हाथों होता है और वहाँ विपक्ष या अन्य राजनीतिक दलों की उपस्थिति का कोई औचित्य नहीं होता । दरअसल यहीं से पनपती है राजनीतिक शत्रुता की विषैली बेलें । यह सोच अपने अति पर राजनीतिक मूढता का प्रश्न भी बन जाती है । और इस अर्थ में यह प्रजातंत्र विरोधी कृत्य भी है ।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था की निरंतरता के लिए वैचारिक धरातल पर भिन्न चरित्र वाले राजनीतिक दलों को राजनैतिक, सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है । वस्तुतः प्रजातंत्र की सफलता, विशेषकर भारतीय प्रजातंत्र की, एक से अधिक दलों की उपस्थिति, सक्रियता और सार्थक हस्तक्षेप पर निर्भर करता है । सत्ताधारी दल तथा विपक्षी दल । इसमें हम विरोधी विचारधारा के संपोषक अन्य दलों को भी सम्मिलित कर सकते हैं । भारतीय प्रजातंत्र की सुदृढता के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुदलीय व्यवस्था और प्रतिपक्षीय प्रावधानों का चयन किया । शायद इसीलिए कि देश का संचालन पर्याप्त आलोचना के उपरांत निर्मित निष्कर्षों के आलोक में हो । बहुसंख्यक जनता द्वारा चयनित दल शासन करे तथा शेष जनता के प्रिय दल विपक्ष के गलियारों रहकर शासन को चूकने से रोकता रहे । यानी कि वह भी जनता के हितों के लिए अपनी क्रियाशीलता को सतत् बनाये रखे । प्रतिपक्ष में रहने वाले राजनीतिक दलों या उनके प्रतिनिधियों को खासा तबज्जो देने की मंशा भी यही सिद्ध करती है कि वह वहाँ उँघे नहीं अपितु सचेत रहे । सजग रहे । वह सशक्त विपक्ष के रूप में अपने दले के आदर्शों के अनुरूप जनता के हितों की रखवाली करता रहे । सीधे-सीधे कहें तो जनता द्वारा विपक्ष में धकेल दिया गया राजनीतिक दल भी प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि सत्ताधारी दल ।
जनविरोधी नीति, नियत और नियति के विरूद्ध संघर्ष की जिम्मेवारी विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं के हाथों सौपने का मतलब यह भी है कि हर हालत में जनता और उसके कल्याण के लिए स्वीकृत व्यवस्था तंत्र अर्थात् प्रजातंत्र की जमीन सदैव ठोस बनी रहे । दलों के बावजूद वहाँ दलदल न बन पडे । स्वस्थ आलोचना के साथ प्रजा के हितों के संरक्षण अर्थात् देश का सम्यक विकास । संपूर्ण अर्थों में प्रजातंत्र का संवर्धन । सत्ताधारी दल के अलावा अन्य राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति या समूल समाप्ति का सीधा मतलब तानाशाही को आमंत्रण होता है । तानाशाही को किसी भी व्यवस्था में जनता के विरुद्ध ही कहा गया है ।
कल्पना करें-एक ऐसे देश की जहाँ एक दलीय संचालन तंत्र हो । आप सोच सकते हैं- वहाँ कैसी-कैसी विषम परिस्थितियाँ निर्मित होंगी ? वहाँ सारे निर्णय वैसे ही होंगे जैसे सत्ताधारी दल चाहेगी । वहाँ जनता उसी मुकाम तक पहुँचेगी जहाँ तक सत्ताधीश चाहेंगे । उस तंत्र का सच और झूठ वही होगा जो सिर्फ शासक के श्रीमुख से निकलेगा । हम साफ-साफ कह सकते हैं कि ऐसे में वहाँ सिर्फ शासक ही रह जायेंगे । हम यह भी कह सकते हैं कि वहाँ सत्ताधारियों के मध्य आपसी वैचारिक मतभेद के बाद असहमति के स्वर मुखरित न हो सकेगें । ऐसी व्यवस्था वाले देश में अनुनय, विनय के अलावा ऐसा कोई प्रयास संभव नहीं हो सकेगा जो अपने ही दल के शीर्षस्थ निर्णायकों के जन विरोधी कदमों पर रोक लगा सके । सच तो यह भी है कि वहाँ सत्ता-संचालकों से असहमति के बाद जनहितैषियों के समक्ष ऐसा कोई सशक्त फोरम नहीं होगा जहाँ वे प्रतिगामी शक्तियों के विरूद्द अपनी आवाज बुलंद कर सकें । कुल मिलाकर देंखे तो यह या ऐसी स्थिति प्रजातंत्र की निरंतरता में खतरे की घंटी है । यहाँ सबसे बडी दिक्कत तो जनता के समक्ष उपस्थित होगी जहाँ वह अपने पहरूए चयन के समय विकल्पहीनता से जूझेगा ।
मैं जब ऐसी स्थिति की कल्पना करता हूँ तो सिहर उठता हूँ । जानते हैं क्यों ? वह इसलिए कि वहाँ सिर्फ सत्तावाद का जंगल ही होगा । वहाँ केवल सत्ता के भूखे भेडिये ही रह जायेंगे । सत्ता जनता के शोषण एवं दमन का पर्याय बन जायेगी । वहाँ राजनीति तो जरूर होगी पर राजनीतिक दल या उस दल के भीतर जैसी कोई आंतरिक प्रजातंत्र भी नहीं रह जायेगा । ऐसी व्यवस्था को हम चाहे कोई भी नाम क्यों न दे दें, उसे प्रजातंत्र तो नहीं कह सकते ना ।
इतनी लंबी पृष्ठभूमि गढकर मैं यही विचार संप्रषित करना चाह रहा हूँ कि प्रजातंत्र के अनिवार्य स्तम्भों में कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, सत्ताधारी राजनीतिक दल के साथ-साथ विपक्ष पर सुशोभित राजनीतिक दल भी महत्वपूर्ण है । यदि उसकी भूमिका प्रजातांत्रिक सुदृढता के लिए महत्वपूर्ण है तो उसका सम्मान भी उतना ही महत्वपूर्ण बन जाता है । और जो प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए कटिबद्ध हो, उससे मित्रभाव बनाये ऱखने में भले ही विपरीत विचारधाराओं के साथ समझौते जैसे कोई कलंक लगता हो, पर वह जनता और प्रकारांतर से प्रजातंत्र की रक्षा की दिशा में स्वस्थ राजनीतिक प्रतिबद्धता भी होगी । आलोचक को मित्र कहा गया है । एक सच्चे आलोचक के हाथों में एक सच्चा दर्पण भी होता है । राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के बहाने दर्पण को कुंठाग्रस्त होकर चकनाचूर तो हम कर सकते हैं पर वास्तविकता यह भी है कि दर्पण के हर टूकडों से दिखने वाली तस्वीर कभी नहीं बदलती है । किसी शायर ने टीक ही कहा हैः


आइने के सौ टूकडे करके हमने देखें है ।
सौ में भी तन्हा थे , एक में भी अकेले हैं ।


प्रतिपक्षी या राजनीतिक दल की महत्ता को प्रतिष्ठित करने के पीछे मेरा मंतव्य स्पष्ट है । और वह है- जनता के हितैषी चुनने के लिए बहुविकल्प की सुनिश्चितता । इसमें जनता की अनसुनी रह गई पुकारों, चीखों का अनुसमर्थन भी है । इसमें जनता को वैचारिक धरातल पर भिन्न-भिन्न आग्रहों के लिए कटिबद्ध जननायकों में से सर्वश्रेष्ठ को अपनाने का अवसर भी सम्मिलित है । जन विरोधी हरकतों पर लगाम पर विश्वास तो है ही इसमें । सबसे बडी उपलब्धि है सत्ता या शासन संचालकों द्वारा स्वयं को आत्ममुग्धता से बचाकर आत्मंथन के लिए प्रेरणास्पद वातावरण को प्रश्रय देना । क्या ये सारे कार्य अन्य राजनीतिक दल या दलों से रहित व्यवस्था में सभव है ? कतई नहीं । इसे मैं निष्कर्ष के रूप में इस तरह गिनाना चाहूँगाः-
1.प्रजातंत्र की जडों के सुदृढीकरण में विपक्ष की राजनीति और राजनीतिक दलों की सक्रियता सर्वोपरि है
2.सत्ताधारी दल के उत्कर्ष के लिए अन्य राजनीतिक दल की उपस्थिति और उस उपस्थिति को पडोसी भाव से देखना अपरिहार्य है ।
3.भिन्न-भिन्न विचारधारा वाले राजनीतिक दलों का अंतिम लक्ष्य जनता का हित होता है । इस रूप में दो राजनीतिक दल सहधर्मा भी होते हैं ।
अब यह स्वयंसिद्ध है कि प्रजातंत्र रूपी एक्सप्रेस ट्रेन की गति और परिचालन सत्ताधारी दल के हाथों सुनिश्चित होता है पर उस ट्रेन के ड्रायवर और गार्ड को कतई नहीं भूलना चाहिए गलत ट्रेक और खतरे की ओर ले जाने वाली ट्रेन को लालझंडी दिखाने वाले स्टेशन मास्टर और वैरियर पोस्ट के चौकीदार भी उसके गंतव्य तक पहुचने में सहायक हैं । दोनों का धर्म तो यहाँ एक ही है । कर्म की प्रकृति, स्थल और अवसर बदल जाने से मित्रता नहीं टूट जाती । मैं निजी तौर पर भी राजनीतिक दृष्टि से स्वस्थ दलों में परस्पर मित्रभाव की स्थापना को उचित मानता हूँ ।
प्रत्यक्ष रूप से अपनी बात रखने से पहले मैं एक प्रसंग रखना चाहता हूँ- यह प्रसंग प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी जी और प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये से जुडी हुआ है । मधुलिमये और श्रीमती गाँधी के बीच राजनीतिक विरोध की बात सभी जानते हैं । तब भी देखिये मधुलिमये के विचार-
“ इंदिरा जी के साथ हमारा विरोध रहा किन्तु 31 अक्टूबर 1984 को रात के सन्नाटे में मैं उनके अंगरक्षकों के विश्वासघात पर (जिन पर उनकी रक्षा की जिम्मेदारी थी) बडी देर सोचता रहा, और इंदिरा गाँधी के हश्र पर शोक में डूबा रहा । उस वक्त मैने धरती माँ से प्रार्थना की, हे उदार मुक्तहस्त माँ, तेरे सपूतों ने इन महान सभ्यताओं को जन्म देने के लिए कठिन परिश्रम किया । उन्होने आश्चर्यजनक वस्तुशिल्प स्मारक बनाए, मूर्तिकला की अद्भुत कृतियाँ दी, अद्विताय शक्ति और सौंदर्य से युक्त महान साहित्य दियता और सबसे ऊपर, सारी मानवता के कष्टों को झेलने वाले महान संत दिये । ओ माँ, तुम हिंसा और घृणा की बुराई को खत्म करके मानव-जाति के बीच सभ्य संवाद कब स्थापित करोगी । हमे इस शुभ परिणति के लिए कितनी लंबी प्रतीक्षा करनी पडेगी । ”
(इंदिरा गाँधीः जैसा मैने उन्हें देखा(मधुलिमये)
ऐसे न जाने कितने राजनीतिक प्रसंग हैं जो साबित करते हैं कि राजनीतिक दलों के मध्य मतभेद जरूर होता है पर मनभेद नहीं होता । भारतीय प्रजातंत्र की यात्रा को खासकर जब हम राजीव जी के बाद के समय को परखते हैं तो राजनीतिक शत्रुता की गंध तीव्रतर होती जान पडती है । केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस के अलावा अन्य दलों के उदय के साथ-साथ उनमें राजनीतिक दुश्मनी की कुंठा लगातार बढती चली गई है । इसका सबसे बडा नुकसान जनता, समाज, देश एवं समग्र विकास या भारतीय प्रजातंत्र को उठाना पडा है ।
यह सर्वविदित है कि भारतीय आजादी के पश्चात वाले दलों का जन्म ही सत्ता हथियाने के निहित संकल्पों के साथ हुआ है । राजनीतिक दृष्टि में धवलता के अभाव के कारण परस्पर विरोधी दलों के नेताओं के निजी जीवन पर मात्र कीचड उछालने की गलत परंपरा को प्रश्रय मिलता रहा है । बोफोर्स जैसे झूठे और भ्रामक मुद्दे, इंदिरा गाँधी के पीछे हाथ धोकर पड जाने, सोनिया जी को परदेशी कहने आदि को हम इसी श्रृंखला में पाते हैं । ऐसे वक्त हम यह भूल बैठते हैं कि जनता कुछ नहीं समझती । शायद यही वह कारण रहा है कि 1977 वाली जनता पार्टी की राजनीतिक दुर्भावना समझते जनता को देर न लगी और परिणाम स्वरूप वह दल सत्ता के गलियारे से लंबे अंतराल के लिए दूर हो गई । भारतीय शासन व्यवस्था पर गौर करें तो अधिकांश समय केन्द्र और राज्यों में दो अलग-अलग दलों का आधिपत्य रहा है । वैचारिक मतभिन्नता, फलस्वरूप राजनीतिक दुश्मनी के कारण ही केन्द्र और राज्य शासन के मध्य बेहत्तरीन तालमेल नहीं स्थापित हो पाता और वैकासिक कार्य लगातार पिछडते चले जाते हैं ।
प्रजातंत्र में राजनीतिक शत्रुता जैसे शब्दावली को पनपने देने की सभी संभावना, परिस्थितियों एवं कारणों पर विचार करें तो पता चलता है कि शत्रुता शब्द ही आपत्तिजनक है । अग्राह्य है । मानवीय उद्दात्तता के विरूद्द है । यह दोबारा कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों की सक्रियता एवं स्वस्थ प्रतियोगिता के लिए परस्पर विश्वास अत्यावश्यक है । दो या विभिन्न दलों के मध्य विद्यमान वैचारिक अंतर और जनता के प्रति निष्ठा के माध्यमों के मुख्य कारणों अर्थात् विचारधाराओं, योजना निर्धारण, क्रियान्वयन की तकनीक या शैलियों पर स्वस्थ मानसिकता से की गई टिप्पणी को नहीं नकारा जा सकता है । जाहिर है दलों का चरित्र मतभिन्नता पर ही निर्भर करता है । वहाँ समानता तो कतई सम्भव नहीं । परस्पर विरोधी प्रवृतियों के विरूद्ध प्रजातांत्रिक मार्गों एवं मूल्य आधारित प्रतिरोध को ही राजनीतिक शत्रुता के तात्पर्य में देखा जाना चाहिए । वस्तुतः “राजनीतिक शत्रुता” शब्द ही कुंठित मनोवृति की देन है । होना तो यह चाहिए कि इस भाव के लिए हम राजनीतिक द्वंद्व जैसा कोई शब्द ईजाद करें । इस शब्दावली में अमानवीय पदचाप सुनाई देती है जो समाज को प्रजातांत्रिक मूल्यों के विपरीत दिशा की ओर धकेलती चली जाती है ।
“राजनीतिक शत्रुता” को राजनीतिक मतभेद जैसे अर्थों में या आशयों में समझना समय की मांग है । मतभेद की हर बात जनता तक पहुँचाने के लिए विरोध की सभी गाँधीवादी तरीकों को हमें नही भूलना चाहिए । मतभेद जब मनभेद में तब्दील हो जाता है तो वह मार्ग गाँधी जी द्वारा बताये गये मार्ग के विरूद्ध हो जाता है । मतभेद प्रर्दशित करने के सभी अहिंसक तरीकों और कार्यक्रमों के अलावा जो भी होता है वह सत्ता प्राप्ति की दृष्टि से भले ही उचित हो किन्तु अक्सर ये खतरनाक एवं मूलतः अप्रजातांत्रिक ही सिद्ध होते हैं । नेहरू जी की बात मैं यहाँ उल्लेखित करना प्रासंगिक समझता हूँ ।
उन्होंने कहा था कि-
“ कभी-कभी यह कहा जाता है कि शांतिपूर्ण और लोकतंत्रीय तरीकों से प्रगति नहीं हो सकती । मैं इस बात को नहीं मानता । वास्तव में, भारत में आज यदि लोकतंत्रीय तरीकों को हटाने का कोई प्रयत्न किया गया, तो इससे सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा- और निकट भविष्य में तरक्की की सब सम्भावनाएं खत्म हो जाएंगी । ”
नेहरू के भाषण (प्रथम खंड, पृष्ठ-53)

यह आज स्मरण करने का समय है कि गाँधी ने मात्र शांतिपूर्वक राजनीतिक विरोध के उपायों को अपनाकर अंग्रजी सत्ता को ध्वस्त कर दिया । उन्होंने वे सारे रास्ते नहीं अपनाये जो आज की समकालीन भारतीय राजनीति में सघन हो चुकी है । आज हम तटस्थ मति से परीक्षण करें तो हमें राजनीतिक शत्रुता के नाना रूप नजर आते हैं । इसमें कुतर्क आधारित प्रेस विज्ञप्ति, अभद्र एवं अश्लील पर्चा वितरण, अपशब्दों से पगीं एवं मानवीय गरिमा को छिन्न-भिन्न करने वाले लच्छेदार भाषण, पूतला दहन, घृणित आलेख, पुस्तिका प्रकाशन व वितरण, निजी जीवन की गोपनीयता भंग करती टेलीफोन रिकार्डिंग तथा वीडियो निर्माण, अश्लील सीडी, कैसेट एवं एस.एम.एस का प्रयोग, षडयंत्र, पुलिस प्रताडना, फर्जी प्रकरण, बलात्कार, अपहरण, हत्या आदि शामिल हैं । 5वें-6वें दशक वाला विभिन्न दलों के मध्य स्थापित राजनीतिक सोहार्द अब कहीं नहीं दिखाई देता । राजनीतिक शत्रुता अव दिन-प्रतिदिन नया-नया और कुत्सित रूप धारण करती जा रही है । यह राजनीतिज्ञों के लिए सबसे बडी चिंता का विषय होना चाहिए । कम से कम राजनीतिक दलों के मध्य तो इस पर मीमांसा होनी ही चाहिए ।
वैसे इस समय का सबसे बडा संकट राजनीति में आदर्शों का लोप है । राजनीतिक शत्रुता को आज परिभाषित करने का सही समय है । ऐसे समय में जब हम समूचे विश्व में भारत को एक ताकतवर प्रजातंत्र के रूप में उभरना शेष है, राजनीतिक शत्रुता की सीमाओं को भी अंदरूनी और बाह्य संबंधों को आधार पर नये सिरे से तय किया जाना चाहिए । मेरा इशारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की ओर भी है । इसमें आप पूर्वी एशियायी देशों के साथ संबंधों को भी देख सकते हैं ।
अंत में सहज भाव से यह भी जोडना चाहूँगा कि राजनीतिक शत्रुता विपक्षी दलों के मध्य ही नहीं एक दल के अंतपुरों से भी मिटना चाहिए जिसके कारण कोई भी राजनीतिक दल अपनी संपूर्ण सामूहिक दक्षता एवं कौशल के बावजूद कुछ ही समय में सिमट कर हाशिए में धकेल दी जा सकती है । प्रजातंत्र दलों के मध्य भी जरूरी है और दल के मध्य में ।
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Thursday, January 12, 2006

बाल वाटिका ( मेरी बाल कविताओं की श्रृंखला )



मेरा प्यारा घर

एक छोटे से गाँव में
बादलों की छाँव में
मेरा प्यारा घर...


बूढे पर्वत के पीछे
घाटी में सबसे नीचे
दूर से आये नजर...


वनफूलों से गमकता
हरी किरनों से दमकता
स्वागत को तत्पर...


आँगन में तुलसी मैंया
पास बंधी श्यामा गैया
बाँचे तोता अक्षर...


पेड झूम, मुस्काते हैं
पंछी आपस में गाते हैं
आओ मीत इधर...


कभी तितलियों के फेरे
भौंरे आते शाम-सबेरे
यहाँ कहाँ मच्छर...


सपनों में नित आता है
अपने पास बुलाता है
परदेश रहा अगर...

Wednesday, January 11, 2006

बाल वाटिका ( मेरी बाल कविताओं की श्रृंखला )


अंगूरी लाल

अक्खड बातूनी अंगूरीलाल
करें बात-बात पर वे सौ सवाल .

हरदम अपनी हाँका करते
खूब तम्बाखू फांका करते
लोग उन्हें कहते- जी का जंजाल .

धंधा उनका टांग अडाना
हर किसी का मजाक उडाना
रहें रायपुर या फिर भोपाल .

गाते फिरते सिनेमा के गाने
मेहनत के डर से करते बहाने
घर-घाट का न रखते खयाल .

बाल वाटिका ( मेरी बाल कविताओं की श्रृंखला )


सोखा किसने पानी

नदी किनारे पेड साल का
उस पर बैठा पंडूक
सोखा किसने सारा पानी
कहता वह, सुन-सुन, रूक-रूक ।

नदी किनारे पेड नीम का
उस पर बैठी कोयल
सोखा किसने सारी पानी
कहता वह, हम तो घायल ।

नदी किनारे पेड आम का
उस पर बैठी मैना
सोखा किसने सारा पामी
कहती वह, मैं ना, मैं ना ।

नदी किनारे पेड पीपल का
उस पर बैठा तोता
सोखा किसने सारा पानी
कहता वह, काश न होता ।

नदी किनारे पेड ताड का
उस पर बैठा कौआ
सोखा किसने सारा पानी
कहता वह, आदम भैया ।

बाल वाटिका ( मेरी बाल कविताओं की श्रृंखला )




स्कूल में लग जाये ताला

अब से ऐसा ही हो जाये
भले किसी को पसंद न आये ...

स्कूल में लग जाये ताला
दें बस्तों को देश निकाला
होमवर्क जुर्म घोषित हो,
कोई परीक्षा ले न पाये ...

दिन भर केवल खेलें खेल
जो डाँटे उसको हो जेल
खट्टा-मीठा खारा-तीता,
जो चाहे जैसा वह खाये ...

हरदम चले हमारी सत्ता
हो दिल्ली चाहे कलकत्ता
हम मालिक अपनी मर्जी के,
हर गलती माँ-बाप को भाये ...

मौसी-मामी, नाना-नानी
रोज सुनायें नयी कहानी
हम पंछी हैं, हम तितली हैं,
गीत हमारा ही जग गाये ...


अब से ऐसा ही हो जाये
भले किसी को पंसद न आये ...

बाल वाटिका



4.चलो चलें अब झील पर...

टांग दे बस्ता कील पर ।
चलो चलें अब झाल पर

पकडें मछली बंसी डाल
सीपी-घोंघे रखें संभाल
नजर रहे पर, चील पर ।

जा बैठें फिर नाव में
घूमें पानी के गाँव में
नाविक काका की अपील पर ।

उतरे विदेशी पक्षी पहुना
खुश हैं कितने उमंग दुगुना ।
घर से सैकडों मील पर ।

00

Tuesday, January 10, 2006

मानोशी के गीत गाने के बहाने कविता की पडताल


20 सदी के उत्तरार्ध और 21 सदी के प्रवेश द्वार की तकनीक ने भाषा एवं साहित्य को भी ग्लोबल बना दिया है । अब वह दौर लद गया जब कोई अपने सद्यःजात गीत या कविता की पंक्तियों के लोक –विमोचन हेतु सबसे पहले अपने किसी रसिक मित्र या किसी साहित्यजीवी के पास जा पहुचता था । वह क्षण एक तरह से रचनाकार के आत्मसुख का प्रथम अवसर भी जुटाता था । इस अवसर को कोई रचनाकार शायद ही त्यागना चाहता था । इसे मैं प्रसव पश्चात हर्ष का अवसर भी मानता हूँ । इस सुख में नयी सृष्टि के गुण-अवगुण का अभिज्ञान भी एक नये आत्मविश्वास को जगाता था । साहित्य की क्रियाशील दुनिया में इसे अनिवार्य माना जाता था । जो भी हो, तत्पश्चात प्रारंभ होता था उस सद्यः जात रचना के प्रकाशन में गुणा-भाग का कर्म । कि रचना सहधर्मा संगी-साथियों के मध्य स्थापित हो ? कि वह किसी पत्र-पत्रिका में कैसे शब्दाकार ग्रहण कर सके ? फिर वह मंचो में भी कैसे स्थापित हो ? सृजन-कर्म की गति तेज है तो कुछ महीने या साल बाद कैसे वह पुस्तकाकार भी हो जावे ? कोई प्रतिष्टित सगोत्री या आलोचक उस पर आमुख भी कैसे रच दे ? रचनाकार का उद्वेग यहाँ भी विराम नहीं हो जाता । इसके बाद उस पर चर्चा-गोष्ठी, फिर दो-चार पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा की भी व्यग्रता होती थी। इन सभी मोडों से गुजर कर ही कोई सर्वमान्य रचनाकार के रूप में समादृत हो पाता था । वैसे एक सत्य तो यह भी है कि सर्वमान्य होना भी दृष्टि-सापेक्ष होता है ।
साहित्य, साहित्यकारों और साहित्यरसिकों का अब न वैसा दौर रहा न ही माहौल । यह तकनीक के संजाल में उलझी हुई नयी दुनिया की सीमा भी है । आज की दुनिया की सबसे बडी कमजोरी धैर्य का अभाव और तीव्रता है । यह तीव्रता जीवन के सभी कर्मों में झलक रहा है । अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की संप्राप्ति भी तीव्रता-बोध से बाधित है । प्रंसगवश मैं यह तुकबंदी कविता यहाँ रखना चाहता हूँ-
मनुष्य नयी सदी के गेट पर है ।
सब कुछ उसका नेट पर है ।।
इसके बावजूद अंतरजाल की उपस्थिति ने साहित्य के प्रसारण को कहीं अधिक संपोषित किया है । बिल्कुल नई शैली में ।
मूलतः साहित्य भी “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः” का विस्तार है । साहित्यकार यदि सच्चा है तो वह सरोकार रहित कदापि नहीं हो सकता है । जिस महाकवि तुलसी ने “स्वान्तः सुखाय ....... रघुनाथ गाथा” कह कर स्वयं को रचनाकार श्रेष्ठ होने के लेखकीय दंभ से मुक्त किया था, क्या उनके समक्ष तात्कालीन परिस्थियों की विद्रुपतायें मुहँ बायें नहीं खडी थी ? क्या उनकी रचनाधर्मिता में समूचे समाज में उज्जवलता की पुनरस्थापना की जद्दोजहद का दबाब सम्मिलित नहीं था ? बेशक था । आदि कवि वाल्मिकी की ओर निहार कर देखें । व्यथा या वेदना ही कविता की जन्मदात्री है । अन्यथा क्यों कर मिथुनरत क्रोंच के वध को देखकर एक डकैत मानव जीवन की उदात्तता के उत्कर्ष तक जा पहुँचता । क्यों कर वह अनपढ, गंवार या बनैला ईंसान शास्त्रीयता के लिए समूचे काव्य जगत् में वंदनीय हो जाता ।
मैं फिर अपने मूल स्वरों की ओर लौटाना चाहता हूँ कि अंतरजाल की उपस्थिति ने साहित्य की पहुंच को विस्तारित ही किया है । (मेरा निहितार्थ यहाँ भारतीय भाषा हिन्दी पर अभिकेंद्रित है । मैं अंतरजाल में लगातार अपनी शोध परियोजना के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पिछले 2 वर्षों से मौन साधना की शैली में भटकता रहा हूँ । यद्यपि अपने इस भटकन को मैं व्यक्तिगत स्तर पर सिंहावलोकन भी कहना चाहता हूँ और उसे कोई विहंगावलोकन का नाम देना भी चाहे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी । अंतरजाल पर अंग्रेजी की बाध्यता और भारतीय भाषाओं या लोकभाषाओं में संप्रेषण के अभाव व फोंट की असुविधा के कारण सबसे बडी हानि भारतीय साहित्य को उठाना पडा है जो वह अपने वामन स्वरूप को विराट आकार दे सकती थी । अब भारतीय भाषाओं या प्रत्यक्षतः कहें तो हिन्दी साहित्य का हस्तक्षेप लगातार नेट पर हो रहा है । मैं यहाँ अपनी बात इसी अवलोकन के आधार पर रखना चाह रहा हूँ)
हिन्दी के विविध बेबसाईट्स में या फिर ब्लॉगर्स के यहाँ एक तरह की साहित्यिक गंभीरता का अभाव है । यहाँ इसके कारणों की मीमांसा में जाना समय गंवाना होगा । मुद्दे की बात यह है कि कुछ ही साईट्स अंतरजाल पर हिन्दीखोजियों को गंभीर पाठ दे पाने में सक्षम हो सकी हैं । इस श्रृंखला में बेब दुनिया, अभिव्यिक्ति, ताप्ती आदि साईट्स तथा नारद, रचनाकार आदि ब्लॉग ही एक सचेत और गंभीर पाठक को अपनी ओर खेंच सकी हैं । उन्हें साधूवाद दिया ही जाना चाहिए । इसमें जाने कितने नाम, जाने कितनी रचनाएं प्रकारांतर से मुद्रित हैं । यहाँ भी जितने भी हिन्दी रचनाकार या उनकी रचनाएं एक जागरुक पाठक को चौंकाने में सक्षम हैं, उनमें मानोशी चटर्जी भी एक हैं । उनकी गीतों में एक विशिष्ट चमक है । यह चमक हिन्दी की शास्त्रीयता की चमक है । यह चमक हिन्दी की मूल प्रकृति और मूल प्रवृति की भी है । जब हम प्रकृति और प्रवृति की बात करते हैं तो हमारे समक्ष दो विरोधी ध्रुव भी आ डटते हैं । भारतीय काव्य में यह विरोधाभास कमोवेश कहीं नहीं झलकता है । जब हम भारतीय काव्य परंपरा की पडताल करते हैं तो कुछ अपवादों को छोडकर सर्वत्र प्रकृति और काव्यगत प्रवृति में द्वैत नहीं जान पडता । यह दीगर बात है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की कविताओं और गीतों में भी नागरिकता के अतिबोध, विश्व अर्थव्यवस्था में साम्राज्यवादी ताकतों के चौतरफा प्रभावों और धार्मिकता की लगातार बदलती परिभाषाओं के उहापोह के कारण यह साम्य बिखरता हुआ जान पडता है । इस सबके बावजूद सच तो यह है कि भारतीय कविता कभी भी अपने मूल प्रवृतियों से विलग नहीं हुई है । भारतीय कविता को जब हम भिन्न-भिन्न प्रवृतियों के आधार पर एक दूसरे से अलगाते होते हैं तब हम कविता का वर्गीकरण नहीं कर पा रहे होते हैं । दरअसल वह कविता का वर्गीकरण नहीं हो सकता । वह कविता के कालखंड का विभाजन भले ही हो । कविता कभी भी सामाजिकता से परे नहीं जा सकती है । कविता समाज की उपज होती है । वह समाज के लिए, समाज का और समाज द्वारा ही सृजित होती है । यह कविता का प्रजातांत्रिक स्वभाव भी है । कविता का एकमात्र लक्ष्य मन की उदात्तता है । मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा ही है कविता का चरम सरोकार । वह मात्र मन का उल्लास या विषाद नहीं है । उल्लास या विषाद के रुप में भी वह रचनाकार का निजी बोध का प्रतिफल नहीं । वह व्यापक समाज या विश्व को अपने मान बैठने के कर्तव्यबोध का परिणाम भी है । भक्तिकाल की जिन कविताओं या पदों को हम विशुद्ध धार्मिक मान बैठते हैं वह दरअसल तात्कालीन परिस्थितियों के दबाब से मुक्त होने का सामाजिक गीत था जिसमें शाश्वत अस्मिता से चूकते मनुष्य को नयी उर्जा मिली । ऐसे समय जब संपूर्ण समाज नायक विहीन हो चुका था, राम या कृष्ण का संपूर्ण कविता में छा जाना लाजिमी था । यही वे दो पूर्वज थे जिनको लेकर सारा समाज लगभग एकमत था । श्रद्धावनत था । वे पहले से भी स्मृतियों में रहते आये थे । राम या कृष्ण को हम सिर्फ भारतीय कविता के भक्तिकाल में नहीं देखते हैं । वे तो वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, उपनिषद्, निबंध आदि संस्कृत ग्रंथों तथा इससे भी कहीं ज्यादा लोक समाज की कथाओं, किवंदंतियों, हाना (कहावतों), प्रथाओं,परंपराओं के माध्यम से भारतीय मन में गहरे धंसे हुए थे । हिन्दी की रीतिकाल में, जिसे कुछ प्रगतिशील आलोचक रतिकाल भी कहते हैं, की कविताएं भी सिर्फ देह के इर्द-गिर्द नहीं भ्रमण करती वहाँ भी सर्वत्र एक शाश्वतिक मानवीय गरिमा और संज्ञान है । वीरगाथा काल को भी हम इसी तरह मात्र चारण या भाट कवियों का समय कहकर नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं । इस दौर में क्या राज्य की सर्वमान्यता, राजा (वे प्रजापालक भी थे) की सत्ता का नकार हो सकता था । क्या आज भी सयाने लोग समकालीन भारत पर ठंडी साँसे छोडते हुए नहीं कहा करते हैं कि इससे तो राजा का जमाना ही ठीक था । कहते हैं ना । आधुनिक काल की कविता में विशेष कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम वाले दौर में भारतीय कविता गुलामी से मुक्ति की कविता हो गई । वहाँ देश राग था । बलिदान की भावना थी । एक गरमाहट भी थी आजादी के लिए । क्या हम कविता के भावों के आधार पर ही कविता को भिन्न-भन्न प्रकृति का कह सकते हैं ? नहीं । कदापि नहीं । कवि होने का पहली शर्त है मन का द्वैध नहीं होना । सरल होना । तरल होना । जो सरल और तरल होगा निश्चित रूप से वह प्राकृतिक होगा । जहाँ सब कुछ स्मूथली चलता रहता है वही प्रकृति है । प्राकृतिक होना नियमित होना भी है । सूरज, चाँद, सितारे, जल, बादल, हवा वनस्पति पक्षी आदि सभी नियमित होते हैं । वहाँ जो भी होता है उसी रुप में होता है । न वहाँ राग होता है न ही विराग । यही कारण है कि प्रकृति अनिंद्य सुन्दर और अकृत्रिम होती है । कविता जहाँ भी कृत्रिम होती है वहाँ वह शब्दों का समूह तो जरूर रहती है पर कविता नहीं रह जाती है । प्रयोगवादी कविताओं को एक सरस पाठक कदाचित् इसी नजरिये से देखता है ।
इतनी लंबी-चौडी पडताल के बाद मै कहना चाहता हूँ कि मानसी चटर्जी की कविताएं (पाठक गण कृपया कविता को यहाँ व्यापक अर्थों में ग्रहण करें, कविता का मतबल गीत या कोई अन्य पद्य विधा नहीं होना नहीं होता है ) भारतीय कविताओं की परंपरा को संपोषित करने वाली कविताएं हैं । उनकी अंतरजाल पर विद्यमान कविताओं को परखने से पता चलता है कि उसमें हिन्दी कविताओं की मर्यादाओं का वही आग्रह है जो भारतीय परिवेश में रह कर रचे जाने वाली हिन्दी कविताओं में होता है । उन्होंने ऐसी एक भी कविता नहीं लिखी है जिसके आधार पर उन्हें प्रवासी कवि या उनकी कविता को प्रवासी कविता कह कर दोयम दर्जे की कविता घोषित कर दी जाय । वे अभी भी अपनी कविताओं (गीत या बाल कविता) में अपने मन की प्रकृति को बदल नहीं सकी हैं । सच्ची कविता कम से कम उसके रचयिता को तो मूल से कभी भी भरमने या भटकने नहीं देती । जिस स्थानीयता बोध को कविता के लिए कभी आवश्यक कहा गया था वही स्थानीयता का अभाव मानसी को हिन्दी की विधर्मी कविता रचने से भी बचाती चल रही है । परदेश में निवसती हुईं भी वे हिन्दी की मूल आत्मा को पकडी हुईं है । इसे चाहे कोई रूढ कविता कह ले, बासी कविता कह ले, मैं तो उसे हिन्दी को ताकत देने वाली कविता ही कहना चाहूँगा । वहाँ कथ्य या भाव का टटकापन भले ही न हो । भले ही वह स्वयं को कवि नही मानती हों । भले ही वे स्वयं को एक कवि के रूप में परिचित नहीं कराना चाहती हों उनमें कविता को नया मोड देने की दृष्टि तो लबालब है । यह उनके शिल्प, भाषा व प्रयुक्ति से पता चलता है ।
कहते हैं रचना में रचनाकार का परिवेश कहता है । मानसी की कविता में भी उनका परिवेश बतियाता है । पर यह परिवेश अब भी भारत या उनके मूल का है । भूगोल बदल जाने से मन को परिवेश नहीं बदल जाता । किसी रचनाकार के परदेशी हो जाने के बाद भी उसकी कविताओं का देशी बने रहना इस बात का प्रमाण है कि कविता कवि को निर्मूल नहीं होने देती । यदि वे निर्मूलन करने वाली कविता रचती तो ही ना उनमें विदेशी दृष्टि, दृश्य, मूल्य, मन, द्रव्य, परदेशी प्रकृति बोलती। घडी भर के लिए उन्हें परदेशी सभ्यता के सौंदर्य के रस को आत्मसात करने वाली कविता कह कर मानसी का पीठ थपथपा दिया जाता । कदाचित् उन्हें वैश्विक भावबोध का कवि भी मान लिया जाता पर सच मानिये ऐसे वक्त वे यदि अपने अंतस् की ओर निहारती तो स्वयं को अपनी जडों से कहीं दूर ही छिटकी पडी हुईं पाती । दरअसल होता क्या है, परिवेश भी एकाएक रचनाकार की कविता में (गद्य में भी) नहीं पैठ जाती । रचनाकार भी एकबारगी परिवेश के गोद में नहीं जा बैठता । सभ्यता, संस्कृति, भाषा, परंपरा, जीवन-शैली, मूल्य, दैनिक जीवन के परिदृश्यों, संकेतो, प्रतीकों, बिम्बों में समूची तब्दीली के बावजूद मानसी के हिन्दी मानस (वस्तुतः मनुष्य) में अपने मूल केन्द्र की परिक्रमा के लिए एक जिद्दीपन भी है । उनकी यही जिद्दी कविता गढते वक्त रूप एवं विषयवस्तु के चयन के समय उन्हें सीधे परदेश से अपने देश अपनी मिट्टी की ओर खेंच लेती है । इसे कवि के संस्कार की प्रतिबद्धता भी कहा जा सकता है । यहाँ संस्कार में भाषा द्वारा मनुष्य का रचाव भी सम्मिलित है । मनुष्य को होना उसके भाषा में होना होता है । कल्पना कीजिये कि आप भाषा विहीन हैं । सोचिये........................................................................................। शायद यह कहना बिषयांतर होना हो सकता है कि मनुष्य का अर्थ उसकी भाषा में ही खुलता है । वह उसकी कोई भी मातृभाषा क्यों न हो । एक मायने में मनुष्यता भाषा की उपज है । एक और अर्थ में भाषा मनुष्यता की फसल है ।
कितनी अजीब बात है यह कि मानसी की कविताओं में उनका देशीपन भी उन्हें विश्वबोध के समीप ला खडा करता है । स्वयं से दूर रह कर भी स्वयं को देखना भले ही उलटबांसी लगे पर यह मानसी की कविताओं की विशेषता है ।
उनकी कविताओं में वह सम्मोहन दिखायी देता हैं जिसके आग्रह में न केवल बाल पाठक बल्कि प्रौढता बोध वाला पाठक भी ऐसे बाल गीतों या शिशुगीतों को गुनगुनाने से स्वयं को रोक नहीं पाते ।
मैं कवि की एक रचना के उल्लेख के साथ अपनी बात की पुष्टि करना चाहता हूँ- कुहरे की एक झीनी चूनर ने ढका ज्यों पर्बत का बदनचंदा के मुख को चूम बदरी चली संग संग अपने सजनखेल ऐसे देख दबे पांव आयी लाज छू गयी मेरा भी तनआंखों के बिछौने में नींद लडती रही अपने आप सेमेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से
यहाँ कविता के समूचे बिम्ब पर जरा गौर से देखें । हो सकता है यह संयोगी-वियोगी चित्र विदेशी भूमि की ही अनुप्रेरक वस्तु हो और वह रचनाकार के मन में गहरे तक पैठ गया हो पर जब यह पीडा के बहाने एक स्पष्ट बिम्ब के रूप में मानसी की कविता के कथ्य को और अधिक सघन और सुघड बनाती है तो संपूर्णतः रचनाकार के मूल चरित्र के आधार पर अभिव्यक्त होती है । चूनर, चूनर का झीनी होना, चंदा का मुख चूमना, बदली का सजन के संग-संग चलना ये सब के सब भारतीय जीवन के सांस्कृतिक वस्तु हैं । इस कविता में (परिवेशजन्य)वे न तो अंग्रेजी सभ्यता के पांरपरिक बिम्ब का चयन करती हैं न हीं कहन या कथ्य की तीव्रता को सिद्ध करने के लिए अन्य भावभूमि अख्तियार करती हैं । जिस वेदना या विप्रलंभता को कवि यहाँ शब्दों में समोना चाहता है उसके लिए उसका इसी रूप में, इसी शैली में वर्णन वांछित है । जिसे कवि ने “ताप” कहा है उसकी अनुभूति बिना भारतीय हुए नहीं की जा सकती है । वह ऐसी ताप है जिसे पश्चिम देह का ताप ही मानती है । पश्चिम के लिए देह का ताप वर्ण्य है और हम पूरबी लोगों के लिए मन का ताप । वस्तुतः यह ताप तन का ताप ही नहीं है । यह मन का ताप ही है । इसे संताप कहना ही श्रेष्ठ कहना होगा । जिसकी आँच से स्वयं मन व्यथित है । शब्द बन्द हैं । अधर चुप हैं । वह बन्द शब्दों में फैले हुए भेद को कैसे भी बाँच सकता है । यहाँ प्रेम या प्रेमी के सानिध्य की बात करके भी हम कविता की इतिश्री नहीं कर सकते । इस प्रेम में एक सांस्कृतिक धरातल भी है जिसे समझने के लिए पूरब का मन होना जरूरी है । पश्चिम में प्रेम का मतलब देह है । सेक्स है । हमारे यहाँ प्रेम का जो अर्थ है वह यहाँ शुद्धतः व्यंजित हुआ है । जब हम मानसी की पंक्तियों को देखते हैं, उसके शब्दों पर गौर करते हैं तो वह अनुशासन और मर्यादा भी दिपदिपाने लगता है । नींद का सुबह सिरहाने बैठना, किरन चुनना, बाती, चुपचाप नियम से जलना । ये हिन्दी की बहुप्रयुक्त बिम्ब हैं जिसके बिना हिन्दी कविता का आस्वाद उनके विकल्प के रूप में नहीं जगा सकता । यदि कोई वैकलिपक बिंब रख भी दें तो वह सभी कोणों से अर्थ को नहीं खोल सकती । देखें कविता-

सुबह सिरहाने बैठ एक किरण चुनती है नींद नयन सेप्रतिदिन शाम की बाती भी जलती है चुपचाप नियम से उस सुबह से शाम तक के वही पुराने रंग ढंग मेंचुलबुलापन देख कर भी ढल गया सूरज चुपचाप सेमेरी व्यथा क्या समझेगा जो गुज़रा न हो उस ताप से

मानसी की कविताओं का मूल स्वर (टोन) अनुरागी मन की अनगिनत तस्वीरों का स्मरण है । उनकी कविताएं व्यथित मन का संबल बनना चाहती हैं। उनकी कविताओं में नैराश्य नहीं । न ही वे मात्र निराशा से जनमी रचनाएं हैं । वे कहती भी हैं-
लोग कमजोर समझ लेते हैं
दर्द आँखो में दिखाना नहीं ।
उनकी कविताओं का शिल्प अभी यद्यपि सध नहीं सका है । अभी उनकी कविताएं यद्यपि संप्रेषण के सभी औजारों से लैश भी नहीं हो सकी हैं । यहाँ जब मैं ऐसा कह रहा हूँ तो उन्हें कलावाद की ओर मोडना नहीं चाह रहा हूँ । लेकिन केवल शब्दों का ताना-बाना भी कविता नहीं है । कविता में एक सौंदर्य तो होता ही है और यह सौंदर्य आता है अभिव्यक्ति की वक्रता से या शिल्प की ताजगी से । अन्यथा बतकही भी एक कविता है । तथापि वे हिन्दी की संभावनापूर्ण रचनाकार हैं । शब्दों को पिरोने में एक जादूगर से कम नहीं हैं ने कवि के रूप में । प्रेम के प्रतीकों में जिस उद्दीपन, आलंबन, स्मरण का वे भाव जगाती हैं वह सिर्फ नारी मन को ही स्पर्श नहीं करता बल्कि पत्थर सा पुरूष मन भी पिघल-पिघल उठता है ।
हाल ही में उनकी एक कविता अंतरजाल पर सार्वजिनक हुई है-
तिनका-तिनका कर जो स्वप्न जोडे ।
इसे पढकर मुझे महादेवी वर्मा की कवितायें स्मरण हो आती हैं । जहाँ सिर्फ पीडा है । वेदना की पराकाष्ठा है । नारी मन की उदासियाँ हैं । पर इस सबके पीछे है वह रहस्यवाद जिसके मूल में है उस प्रिय से मिलन की तीव्रता जिसे हम बोलचाल में ईश्वर या पुरूष कहते हैं । महादेवी का विरह प्रकृति का विरह है पुरूष के नाम । वहाँ परम प्रकृति और पुरूष एक हो जाना चाहते हैं । कबीर के यहाँ भी यही भाव है । वे गाते हैं- राम मोर पीव मैं राम की बहुरिया । राम बडे मैं छुटक लहुरिया ।। मानसी जी की इस कविता में संचित स्मृतियों का एक बृहत्तर संसार है जहाँ बिलगाव की पीरा कुलबुला रही है। इस कविता में केन्द्रीय कथ्य का निर्वाह अंत तक नहीं हो सका है । वैसे इसे यों भी कह सकते हैं कि कई भाव-चित्र एक साथ आ धमकने से कविता भावों की कोलॉज की तरह बन पडी है । अब यह अलग बात है कि रचनाकार जो लिख दे वही उसके लिए श्रेष्ठ फार्म है पर यदि मुझे अनुमति होती या इस कविता को मुझे फिर से लिखने को कहा जाता तो मैं जो लिखता वह कुछ इस प्रकार होता –
तिनका-तिनका स्वप्न जोडे
हवा के इक झोंके ने तोडे
आँखों से बह निकला पानी
नहीं समझना हरदम दुख है
पीडा अनंत फिर ज्यों मृत्यु
आह, खोने में क्या सुख है

दंश सघन दर्द बहुत गहरा
हृदय में ज्यों आजन्म ठहरा
बिखरे ओस के कण में घुलकर
कभी एकांत में वह सम्मुख है
आह, खोने में क्या सुख है


स्पर्श से अगिन राग उठी थी
जाने कितना तब वही जली थी
हुई तब मद्धम ज्योत में तब्दील
स्मृतियों के आँगन खुब पली थी
बुझ गई लो, शांति क्या अद्भुत है
आह, खोने में क्या सुख है


उनकी बाल कविताओं पर कुछ भी नहीं कहना बेमानी होगी । यह हिन्दी वालों की कृतघ्नता ही है जो बाल कविताओं को दोयम दर्जे का लेखन माना जाता रहा है । जबकि हिन्दी में तुलसी, सुरदास से लेकर ईधर सुभद्रा कुमारी चौहान, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, जयपक्राश भारती, कन्हैयालाल नंदन, प्रकाश मनु, हरिकृष्ण देवसरे, शकुंतला सिरोठिया, नारायण लाल परमार, श्रीप्रसाद, डॉ.भैरुलाल गर्ग, रमेश दत्त दुबे, अहद प्रकाश, शंभुलाल शर्मा वसंत, चंपा मावले, डॉ.राष्ट्रबन्धु, प्रयाग शुक्ल, मालती वसंत, गिरीश पंकज, डॉ.सुरेन्द्र विक्रम, सनत, हेमंत चावडा और भी जाने कितने नामों (स्वयं को नहीं गिन रहा हूँ संकोचवश) को एक बाल साहित्यकार के रुप में जाना जाता है । उन्होंने पूरी तन्मयता एवं विश्वास के साथ हिन्द बाल साहित्य को समृद्ध किया है । कर रहे भी हैं । विश्व के वरिष्ठतम् कवि होकर भी स्वयं गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कई बाल उपन्यास एवं कहानियां रची थीं । एक बाल साहित्यकार के रूप में मानसी की तीन बाल कविताओं से ही मै गुजर पाया हूँ । उसमें से एक अनुवाद है । उन्हें पढकर आश्वस्ति मिलती है कि वे बाल कविताओं को अपना मुख्य विधा मान बना लें तो हिन्दी की एक बडी बाल साहित्यकार हो सकती हैं । इन कविताओं में गेयता है । बाल सुलभ भावभूमि का ज्ञान है उन्हें । सरस और सरल शब्दावली भी है उनके पास । इस दिशा में कुछ पंक्तियाँ शुभ-श्रीगणेश की ओर संकेत करती हैं, जैसे-
ले लेता हूं उसके लिये गुडिया
अपने लिये कोई किताब बढ़िया

या
चाहे धूप या हो बरसात
हरदम देती मेरा साथ
बाल कविता लिखने के कई खतरे भी हैं । उनमें से एक है तुक का सम्यक प्रयोग नहीं होना। भाव में अति आदर्श या भाषणबाजी होना । बाल सुलभ मन इसे तत्काल नकार देना चाहता है ।
अंतरजाल पर हिन्दी की रचनाएं तलाशने वालों को आने वाले दिनो में मानसी की और बेहत्तरीन कविताएं पढने का मिलेंगी । वे स्वयं को अतिक्रमित कर उत्कृष्ट रचनाओं से हिन्दी के संसार को समृद्ध करेंगी ।

Monday, January 09, 2006

परीक्षा का मतलब सिर्फ याद करना रह गया है ?

मैं सिर्फ अपनी बात कहना चाह रहा हूँ । मेरे तीन बच्चें हैं- प्रगति, प्रशांत और प्रतीक । वे तीनों पढाई में औसत दर्जे के विद्यार्थी हैं । साल भर स्कूल में जो पढाया जाता है, पढ लेते हैं । दो बच्चे ट्युशन भी पढते हैं-3-4 माह । मासिक मूल्याँकन में भी उत्तीर्ण हो जाया करते हैं । घर में उनकी मम्मी उन्हें हर दिन पढने को सचेत कराती भी रहती है । जैसे-जैसे परीक्षा का समय आता है, वे बडे भोर से जाग जाते हैं और अपना-अपना पाठ याद करते हैं । समय-सारिणी भी बनाते हैं पर उसका पूरा पालन शायद ही वे कर पाते हैं । मैं अपनी दुनिया में मगन रहता हूँ । बच्चों के बारे में माँ सबसे ज्यादा सतर्क जीव होती है । वह जाने क्या-क्या करती है । कभी याददाश्त बढाने के लिए बादाम घिसकर खिलाती है तो कभी बच्चों की अरुचि के बावजूद दूध में बोर्नबीटा नियमित देने पर विश्वास करती है । धार्मिक स्वभाव की माताएं सरस्वती या हनुमान जी के मूर्ति के सम्मुख पूजा करने की सलाह भी देती हैं । मेरी पत्नी परिश्रम को आधा ईश्वर मानती है । ऐसा नहीं है कि बच्चे सिर्फ देख कर ही सीखते हैं । ऐसा होता तो सारे के सारे बच्चे प्रतिभावान बच्चों को देखकर ही उनके मार्ग का अनुसरण कर लेते । शायद पढकर भी सभी बच्चे सीखते हैं । सच तो यह है कि बच्चा वही करता है जो वह करना चाहता है । जिसे करने में उसे मजा आता है । माहौल या पर्यावरण भी समूचे व्यक्तित्व का मूल नहीं हुआ करता । यह समाजशास्त्रीय सत्य भी है । कुछ तो जन्मजात गुण भी होते हैं । यहाँ हम वंशानुक्रम के सिद्धांतों या फिर शेक्सपियर की उक्ति का भी स्मरण कर सकते हैं । खैर........
परीक्षा सिर दर्द का पर्यायवाची भी है । जैसे-जैसे परीक्षा का समय नजदीक आता जाता है माता-पिता की चिंता भारत में गरीबी की तरह बढती जाती है । बच्चे भी प्रश्न-डायन के भय से तनाव-ग्रस्त होते चले जाते हैं । कुछ साल-भर अच्छी मेहनत नहीं कर पाने के कारण शार्टकट रास्ता भी अपनाने लगते हैं, जैसे कुंजी, गाईड का सहारा लेना । खाने-पीने में उनका मन कम होने लगता है । ठीक से नींद भी नहीं आती । पेट भी गडबड रहने लगता है । खेलना-कूदना लगभग बंद हो जाता है । भगवान तो है ना, ऐसे वाक्य उनके भी मस्तिष्क में उभरने लगता है । अधिकांश बच्चे रात-दिन रटने में संलग्न हो जाते हैं । स्कूल का पाठ उन्हें अन्य अपरिचित भाषा की तरह जटिल नजर आने लगता है । शिक्षक का चेहरा भी उन्हें किसी दुश्मन की भाँति दिखाई देता है । शिक्षक कहते हैं-“याद करो बच्चे” । माँ-बाप रट लगाये रहते हैं- “अब तो याद करलो बेटे”। पास-पडोस से भी स्वर गूँजने लगता है- “कैसे हो तुम लोग बच्चे, परीक्षा सर पर है और तुम हो कि पाठ याद ही नहीं कर रहे हो” । जिधर देखो-याद करो, याद करो, याद करो ।
क्या परीक्षा का मतलब सिर्फ याद करना रह गया है ? क्या वही बच्चा या विद्यार्थी प्रतिभावान् है जिसे रटने की विद्या आती है ? क्या स्मरण शक्ति ही मेधा का असली परिचय है ? क्या भारतीय परीक्षा पद्धति की यह सीमा है ? क्या आप भी सोचते हैं कि रटने की प्रवृति को बढावा देने वाली भारतीय परीक्षा पद्धति का कोई विकल्प जरूर हो सकता है ? आपके विचार जानने की प्रतीक्षा में......

Saturday, January 07, 2006

पेडः एक कविता


इस शजर के पास कोई भूलकर ना आयेगा
पेड से फल फूल हरी पत्तियाँ गायब हुई

Friday, January 06, 2006

महामृत्युन्जय शिव

।। ऊँ ।।
त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिम् पुष्टि वर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बंधनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।
(हम भगवान शंकर की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो संपूणर् जगत का पालन-पोषण कर रहे हैं । उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बन्धनों से मुक्त कर दें, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो जावे जिस प्रकार एक ककडी बेल में पक जाने के बाद उस बेल रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है उसी प्रकार हम भी इस संसार रूपी बेल में पक जाने के बाद जन्म-मृत्यु के बंधनों से सदैव के लिए मुक्त हो जाएँ और आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्याग कर आप में लीन हो जावें ।)

अंतरजाल में हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिये स्वैच्छिक अभियान

पिछले एक दशक से संस्था की चिन्ता एवं लक्ष्य में हिन्दी का विकास सबसे महत्वपूर्ण बिषय रहा है । संस्था ने पिछले 2 वर्षों में अपने राज्य के रचनाकारों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों की अंतरजाल(INTERNET) में उपस्थिति के अध्ययन के लिए लगातार मेहनत की । संस्था के सदस्यों ने जयप्रकाश मानस के संयोजन में इस दरमियान अंतरजाल पर लगभग 77000 बेबसाईट्स को खंगाला । अधुनातन एवं सभी सर्च इंजिनों का सहारा लिया गया । हमने पाया कि हम और हमारे विचारों को अंतरजाल में नहीं के बराबर जगह मिली है । यदि हम 2-4 जगह हैं तो भी अपनी भाषा में अभिव्यक्त नहीं हो पाये हैं । यानी कि वहाँ हिन्दी-छत्तीसगढी का चेहरा अंग्रेजी भाषा के दर्पण में दिखाई देता है ।
संस्था का अपना विश्वास रहा हैं कि प्रत्येक भाषा की अपनी मौलिक अस्मिता, संस्कृति और संस्कार होते हैं । प्रत्येक भाषा के अपने निजी शब्द होते हैं । उन प्रत्येक शब्दों का अपना विशिष्ट कौशल व आलोक-वलय होते हैं, जिसकी बराबरी अन्य भाषा के समांतर शब्द भी नहीं कर सकते हैं । अनुवाद में भी मूल रचना या भाव के साथ कहाँ न्याय हो पाता है ? जाहिर है हिन्दी या छत्तीसगढी की आत्मा तक पहुँच मार्ग अन्य कोई भाषा नहीं हो सकती है । इतर भारतीय भाषा तो हिन्दी के पाठकों को हिन्दी की जडों तक कतई नहीं पहुँचा सकती हैं ।
हमें यह देख कर बडा ही दुख होता था कि हिन्दी का अस्तित्व अंतरजाल में अत्यंत क्षीण है । जबकि इसे विश्व की दुसरी सबसे भाषा होने का गौरव प्राप्त है । हम झटपटाते रहे साथ ही शर्माते भी रहे कि हमारे अपने गृहराज्य छत्तीसगढ की स्थिति तो अत्यंत दयनीय है । ठीक विपरीत धुर्वों से हमारे राज्य के आई.टी. स्पेश्लिष्ट दावा करते हैं कि छत्तीसगढ में लगभग 33 हजार बेबसाईट्स बन चुके हैं । हम अपनी कमजोरी बखुबी समझते थे कि तकनीकी रूप से विकसित नहीं हो पाने के कारण यह सरल और संभव भी नहीं था कि अतंरजाल में हिन्दी ही हिन्दी नजर आये और उस मातृभाषा हिन्दी को अंतरजाल में विशेष रूप से प्रतिष्ठित कराने में छत्तीसगढ के लोगों को अव्वल होने का श्रेय जाय । जैसे कि हम अन्य क्षेत्र में अव्वल होने की बात छेडकर आत्ममुग्ध होते रहते हैं ।
कुछ दिन पहले की ही बात है-हमें पता चला कि अब यह तकनीक विकसित हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति अपनी बात इंटरनेट में और वह भी हिन्दी या छ्त्तीसगढी में रख सकता है । स्वयं को अभिव्यक्त कर सकता है । दुनिया के कोने-कोने तक अपनी बात नियमित रूप से पहुँचा सकता है । उस पर विश्व में कहीं भी बैठे पाठक, व्यक्ति की प्रतिक्रिया भी जान सकता है । यानी कि वह परस्पर संवाद भी कायम कर सकता है । अब हमारे पाँव अब जमीं पर नहीं थे । इस खुशी के लिए यहाँ हमारे साथी श्री अशोक शर्मा और श्रीमती अमिता शर्मा जी का जिक्र करना समीचीन होगा । हम "ब्लाग" जैसे जादूई चमत्कार का मंत्र पा चुके थे । हमने सबसे पहले अपना ब्लाग बनाया । हम तो देख कर ताज्जुब रह गये कि कुछ ही मिनटों में हम अपना साईट स्वयं गढ चुके हैं । हिन्दी के माध्यम से हम अब समूचे दुनिया तक अपनी बात रखने में सक्षम हो चुके हैं । दरअसल यह हमारा प्रयोग था कि इसमें कम्प्युटर और तकनीकी ज्ञान, कौशल की कितनी जरूरत है ? सच बतायें यह तो अल्लदीन का चिराग है भाई, उनके लिए जो हिन्दी में काम करते हैं । जो प्रोग्रामिंग नहीं जानते । न किसी फोंट का झगडा, न ही किसी लिपि का झंझट । न ही जेब काटने पर ही हिन्दी या छत्तीसगढी के सेवक सिद्ध हो पाने की विवशता । और क्या चाहिए- कम्प्युटर और इंटरनेट के एक सामान्य जानकार के लिए समूचे विश्व में छा जाने के लिए ?
अतंरजाल में हिन्दी की प्रतिष्ठा के लिए स्वैच्छिक अभियान-संस्था ने तय कर लिया है कि अब अंतरजाल में हिन्दी को प्रतिष्टित कराने में वह तब तक सतत् रूप प्रोत्साहन, प्रशिक्षण, अनुश्रवण कार्य करती रहेगी । जब तक हमारे अपने राज्य और राजधानी रायपुर का नाम भारत और शायद दुनिया के सबसे बडे हिन्दी चिट्ठाकारों का अड्डा के लिए न जाना जाय । निर्णयानुसार हम लगातार कार्यशालाओं (ऑफलाईन या ऑनलाईन) का आयोजन करते रहेंगे । जिसमें कोई भी बिना किसी फीस, बिना किसी शर्त्त के अपने स्वयं का बेवब्लाग या इंटरनेट डायरी तैयार कर सकता है ।
कार्यशालाओं में हम निम्नलिखित वर्ग को प्रथम चरण में सम्मिलित कर रहे हैं:-
1. पत्रकार
2. साहित्यकार,
3. शिक्षाविद् और शिक्षा-प्रशासक, शिक्षक
4. कॉलेज और स्कूल के विद्यार्थी
5. कैफे संचालक
6. बुद्धिजीवी (वकील,
चिकित्सक एवं अन्य)
7. जन सामान्य
संपर्क:-इच्छुक व्यक्ति संस्था के महासचिव (98262-48165)से संपर्क कर सकते हैं या फिर www.srijansamman.yahoo.co.in पर ई-मेल भेज सकते हैं ।
सुझाव आमंत्रित:-
आप में से कोई भी इस अभियान के संबंध में अपना सुझाव निसंकोच प्रदान कर सकता है । हम आपके स्वागत में पलक लगाये बैठे हैं ।
आईये, आप भी कुछ सोंचे इस दिशा में । क्या आपके शहर या राज्य में हिन्दी या मातृभाषा की सेवा के लिए इतना योगदान-समयदान नहीं दिया जा सकता है ?

Thursday, January 05, 2006

पश्चिम भौतिकता का शिकार है - प्रोफेसर लैंब

इन दिनों हवाई विश्विविद्यालय अमेरिका में धर्मशास्त्र के प्रोफेसर रामदास लैब छत्तीसगढ के जनपद में डेरा डाले हुए हैं । हमें पता चला । वे बच कैसे सकते थे। सृजन-सम्मान और वैभव प्रकाशन के न्यौता पर उन्होंने त्वरित 'हाँ' कह दिया, बडे ही सरल अंदाज में । चट व्याख्यान भी आयोजित हो गई । उन्होंने बडी ही चौकाने वाली बांते कहीं -
" हिन्दू धरम-ईसाई धर्म अलग-अलग नहीं हैं । ये सब एक ही ईश्वर की सत्ता पर आधारित हैं । सभी धर्मों में इतिहास, दंतकहानियाँ शामिल होती हैं । गायन, कीर्त्तन, मंचन के माध्यम से लोग ईश्वर की शक्ति को व्याख्यायित करते हैं और उसके प्रभाव को आत्मसात करते हैं । वेदों के इतिहास जानने की जब हम कोशिश करते हैं तब उनके लेखकों का काल वास्तव में ज्ञात नहीं होता है । इसे जानने के लिए वेदों की मौखिक परंपरा को जानना जरूरी है । वाचिक पंरपरा को पिछडा समझ कर हाशिये में रखना भूल होगी । वाचिकता की सबसे बडी ताकत लोक-आस्था है । शब्द में ही विश्वास है । प्रत्येक शब्द का अपना एक विश्वास सामर्थ्य है । जितनी लोक भाषायें है सबकी अपनी-अपनी भक्ति-शक्ति-अनुरक्ति पध्दति हैं । किसी भी लोकभाषा का लोप उसमें निहित रसायनों, विचारों का भी लोप है । यहूदी लोग समझते हैं कि ईश्वर हिब्रु भाषा में वार्तालाप करते हैं । इसी तरह मुसनमानों का विश्वास है कि पैगंबर अरबी भाषा में बांते करते हैं । "
जब मैंने अपनी जिज्ञासावश पश्चिम और पूर्व की सीमाओं और चारित्रिक विस्तार पर प्रश्न करता हूँ तो वे सकुचाते हुए कहते हैं -
" भारत की सबसे बडी न्यूनता अस्पृश्यता है । पश्चिम इससे मुक्त है । पश्चिम भौतिकता का शिकार है । यह सुखद है कि भारतीयता का मूल-स्वर आध्यात्मिकता है । यही पश्चिम की सीमा है ।" वे जब कहते हैं कि हैं कि पश्चिम ने कभी भी भारतीय जीवन-दर्शन को नहीं समझा । और समझा तो अपने समय के ज्ञान-दृष्टि से तो हम भारतीयों के लिये एक गहरी आश्वस्ति का पाठ मिल जाता है ।
क्या डॉ.सुधीर शर्मा, वैभव प्रकाशन को हम धन्यवाद नहीं दें जो यदि चाय का आग्रह नहीं करते तो प्रो. लैंब को यह कहते नहीं सुन पाते हम, कि नहीं भाई साहब, आज मंगलवार का व्रत है । यानी हनुमान जी के
नाम पर अमेरिकन बुद्धिजीवी का फलाहारी उपवास ।
मैं तो विदेशी काव्य के रसिक संतोष रंजन जी को भी यहाँ याद करना चाहता हूँ जो प्रो. लैंब से उगलवा ही लेते हैं - "बाइबिल के मूल और प्रचलित प्रतियों में पर्याप्त अंतर है ।" प्रो. लैंब को जब डॉ.शोभाकांत झा, बबन मिश्र, संजीव ठाकुर, डॉ. शलभ, गिरीश पंकज आदि प्रश्न करते हैं तो वे यह कहकर और भी चौंकाते हैं कि पश्चिम की दुनिया वालों की नजर में अब भारत अनपढ, गंवार नहीं रहा । वह आज भी वहाँ के युवाओं को जीवन-बोध की संस्कृति के लिए आकर्षण महाभूगोल है ।
जब लैब जैसा विदेशी विद्वान कबीर और राम को अपना आराध्य कवि मानने की चर्चा बडे सहज ढंग से झेड देते हैं, तब कैसे भला छत्तीसग़ढ के लोक-गौरव और देश में लोक-संगीत में कबीर की साक्षात तस्वीर खेंच देने वाले चित्रकार के रूप में प्रतिष्ठित भारती बन्धु का कंठ लैब को भी झूमने को मजबूर नहीं कर देता ।

“द सोल आफ लिलिथ ” (The soul of lilith)का हिन्दी रुपांतरण

सुधैव कुटुम्बकम् की पुरातन उक्ति को यदि सर्वाधिक सार्थकता किसी क्षेत्र में मिली है तो वह है साहित्य का गाँव, जहाँ से ज्ञान की सर-सरिताएं विश्व चेतना में जाने-अनजाने समाहित होती रहती हैं । 19 सदी में प्रख्यात ब्रिटिश लेखिका का सर्वाधिक चर्चित उपन्यास “द सोल आफ लिलिथ ” इसका एक जीवन्त उदाहरण है । यह उपन्यास हमें पारभौतिक जगत के रहस्यों से अवगत कराता हुआ, एक ओर गीता के कर्म-सिद्धांत तो दूसरी ओर आदि शंकर के अद्वैत की कुंजी पकडाता प्रतीत होता है ।

“द सोल आफ लिलिथ ” (The soul of lilith)का हिन्दी रुपांतरण किया है –रायपुर, छत्तीसगढ, भारत के कवि एवं केन्द्रीय सेवा के वरिष्ठ अधिकारी संतोष रंजन ने । वे अंग्रेजी, संस्कृत एवं हिन्दी के निष्णात रचनाकार हैं । अब तक दो गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं उनके । देश में अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए चर्चित राज्य स्तरीय लेखकों के संगठन “सृजन-सम्मान ” के प्रांतीय संयोजक भी हैं वे । उन्होंने अपने अनुवाद का शीर्षक रखा है स्वर्ग से आया गुलाब । खुशखबरी है यह हिन्दी के उन रसिक पाठकों के लिए जो ईमानदार अनुवाद की तलाश में भटकते रहते हैं । मैं मित्र होने के नाते एवं हिन्दी की दुनिया में रमे रहने वाले होने के नाते भी कह सकता हूँ कि द सोल आफ लिलिथ पूर्व और पश्चिम के सेतु का पुनरावलोकन करने की एक ऐतिहासिक कदम भी है । अब देखते हैं कि हिन्दी का पाठक समुदाय इस किताब को कैसे लेता है । क्या इस किताब को समूचे रुप में अंतरजाल में रखना चाहिए । जो भी हो मैं तो उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब प्रकाशक की कृपा दृष्टि की सीमा में वह भी समादृत हो जायेगा ।बात तो बहुत सी की जा सकती हैं किन्तु मुझे सबसे महत्वपूर्ण बात जो कहनी है वह है क्या आत्मा का पुनरावतरण होता है । क्या ईश्वर का अस्तित्व है । यदि हाँ तो पश्चिम की दुनिया मैं ईश्वर के प्रति इनता दुराग्रह क्यों है । खास कर भारतीय जीवन दर्शन को लेकर, जो आदिकाल से ही ईश्वरवाद, आत्मा की अवधारणा का संपोषक रहा है । मुझे नहीं पता आप क्या सोचते हैं ।

Wednesday, January 04, 2006

मानसी: आसमान

मानसी: आसमान

हिन्दी के ब्लागर्स अब पायेंगे पुरस्कार !

रायपुर । छत्तीसगढ की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संस्था सृजन सम्मान द्वारा हिन्दी भाषा के अंतरजाल में विकास हेतु अब सम्मान दिया जायेगा । इसके हकदार ब्लागर होंगे । वर्ष के सबसे उत्कृष्ट ब्लाग को संस्था के वार्षिक एवं अखिल भारतीय साहित्य महोत्सव में ५००० रुपए की नगद राशि, सम्मान पत्र, प्रतीक चिन्ह, शाल, श्रीफल, १००० रुपए की किताबें आदि अनेक भेंट प्रदान किये जायेंगे । संस्था द्वारा अब तक रचनात्मकता के २८ विधाओं पर क्रमशः 21हजार,10 हजार,05 हजार के पुरस्कार दिये जाते रहें हें । देश एवं विदेश के सभी ब्लागर्स, बेबसाइट संपादक अपनी प्रविष्टि के रुप में बायोडाटा, फोटो, साइट का एड्रेस, लिंक आदि जानकारी मेल पता के साथ संस्था के पता " जयप्रकाश मानस, महासचिव, सृजन सम्मान, एफ-३, छत्तीसगढ़ हायर सेकेण्डरी बोर्ड, आवासीय कालोनी, पेंशनवाडा, रायपुर, छत्तीसगढ़, भारत, ४९२००१ या
e-mail : srijansamman@yahoo.co.in या e-mail : rathjayprakash @gmail पर भेज सकतें हैं । अंतिम तिथि - 15 अगस्त 2006 तक भेज सकते हैं । विस्तृत जानकारी के लिए हमें मेल भी कर सकते हैं ।

जीवन क्या है ?


मैं जीवन को लेकर उहापोह मैं हूं । समझ नहीं पाया अब तक, जीवन को क्या नाम दूं ? इसे चाँदनी रात कहूँ या फिर अमावस की काली निशा ? कभी यह झरना सी खिलखिला उटती है, तो कभी रेगिस्तान सा उजाड नजर आती है ? कभी यह वनपाँखी बनकर गुनगुनाने लगती है तो कभी साँप बनकर डसने लगती है । सोचता हूँ तो लगता है यह उदासियाँ का दूसरा नाम है । कुछ ही घडी में यह मुस्कान बन जाती है । छूने को लपकता हूँ तो फूरर से उड जाती है मानो वह गौरेया हो । कभी कभी दूर जाने लगता हूँ तो वह मेला बनकर आवाज देने लगती है । कितने रंग हैं इसके ? कितने रूप हैं इसके ? जान नहीं पाया अब तक । फिर भी चाहता क्यों इसे बेइंतहा । फिर भी रहता हूँ क्यों उसी के में । उसी के आसपास । आपही कहें ना मुझे क्या मैं ही जीवन हूँ ? क्या जीवन में मेरी उपस्थिति है ? क्या दोनों अलग अलग हैं ? क्या हम दोनों एक हैं ?