Saturday, May 19, 2007

जगदीप डांगी के नाम एक पाती





सबसे पहले मेरी ईश्वर से अगर वो कहीं है तो यही शुभकामना है कि जगदीप में निहित दीप जलता रहे । और इस जहान को रोशन करता रहे ।

मित्र
दुर्गेश गुप्त से कल ही बातचीत हो रही थी । हिदीं के बढ़ते हुए कदमों को लेकर अपना-अपना अनुभव हम दोनों बखाने जा रहे थे । इस बखान में चिंताओं की लकीरें भी हम दोनों परस्पर देख रहे थे । जगदीप ड़ांगी का नाम उनकी जुबान पर आया तो मेरी जिज्ञासा एकबारगी बढ़ गयी । मैं उनके योगदान पर कुछ कहूँ गर्वोन्नत होकर, इससे पहले ही उन्होंने बड़े ही निराश स्वर में कहा – मानस, इन दिनों वे बड़ी हताशा और उपेक्षा-भाव से गुजर रहे हैं और हमें भी उनका वाकया सुनकर ऐसा लगना चाहिए। और सचमुच यह भाव बरबस अंतसः में तैरने लगता है - यह दुनिया जाने क्यों प्रतिभा का वास्तविक हक नहीं दिलाना चाहती । जाने क्यों रचयिता केवल धूलें फांकता है । गर्दिश में जन्मता है, गर्दिश के मध्य पलता है और गर्दिशों की पोटरी लादे चला जाता है ।

मैंने बहुत सुना था कि कंप्यूटर प्रौद्योगिकी को विकसित करने वालों को भारत सरकार और राज्य सरकारें जी खोलकर प्रोत्साहित कर रही हैं और इसी के बल पर वे दुनिया भर में अपनी साख बढ़ाना चाहती हैं । शायद मैंने बहुत ही गलत सुना था । आज मुझे ऐसा ही लगने लगा था । मन बड़ा ही खिन्न हो लगा । लगा कि आखिर क्योंकर जगदीप ने ऐसा अनुसंधान किया और अपने ईजाद से हिंदी-दुनिया के साथ-साथ प्रौद्योगिकी वालों को आश्चर्यचकित करने पर विवश कर दिया । क्या जरूरत थी भला उसे । आम हिंदुस्तानी युवाओं की तरह करता रहता मटरगश्ती, मोटर साइकिल में सवार, आंखों में रंगीन गॉगल चढ़ाये, एक हाथ में मोबाइल थामें, दूसरे में सिगरेट पकडे, इस गली से उस गली में । कभी सीटी बजाता । कभी किसी चिकनी गोरी को देखकर गुनगुनाने लगता – सुन, सुना, आती क्या खंड़ाला । चलती है क्या नौ से ग्यारह ।

ड़ांगी भैया, आप इस दुनिया को नहीं समझ सके, बस्स, आपसे यही और यहीं चुक हो गई । यह दुनिया आम को ही पंसद करती है । जहाँ कोई खास बना तो उसे भुलाने की कोशिश शुरू हो होती है । वह देखते ही देखते ईर्ष्या का पात्र बन जाता है। दुनिया को, पास-पड़ौस को आम आदमी चाहिए । खासकर राजनीतिक समाज में प्रभामंडल वाले लोग आम आदमी को प्यार करते हैं(दिखावा में सही), वह चाहते हैं कि वह मात्र आम आदमी बना रहे । आम आदमी की तरह जिये और आम आदमी की तरह गुजर जाये और वे खास बने रहें पीढ़ी-दर-पीढ़ी । आम आदमी ऐसे राज्यों में सिर्फ एक मतदाता होता है जिसे पांच साल में एक बार जहरीली शराब, एकाध साड़ी, कुछ रूपये देकर खरीद लिया जाये । यह आम आदमी यदि प्रतिभा के बल पर खास हो जायेगा तो उस समाज को परिवर्तित करना नहीं चाहेगा । अवश्य चाहेगा । और यही उनके भय का कारण है । हाँ, यदि किसी दल के झंडाबरदार रहते और संयोग से मक्खी भी मार लेते तो आपके राज्य की सरकार आपको शेरमार की उपाधि से विभूषित करती । आपको वज़ीफा मिलता । आपके बच्चों की परवरिश की चिंता की जाती । दवाई-दारू मुफ़्त में मिलता। अभी जिस हालात में आप हैं, वह दिन देखना ही नहीं पड़ता आपको । आपने अच्छा नहीं किया । करते रहते खेतों में निंदाई-गुड़ाई । जोतते रहते खेत । उगाते रहते घास । गाते-रहते मेड़ पर बैठे-बैठे कोई लोकगीत । देहाती क्यों नहीं बने रहे आप ? आपको क्यों ऐसा लगा कि ये सरकारें देहाती दुनिया के लोगों के किये-धरे पर विश्वास करते हैं । आपको जानना चाहिए कि उन्हें आधुनिक मूल्यों वाले लोग दुश्मन नज़र आते हैं । प्रगतिशील लोग कंम्युनिस्ट नज़र आते हैं । नवाचारी लोगों से उन्हें भय सताता है । वे उसकी लोकप्रियता से घबराते हैं । कहीं उनका साम्राज्य न ढह जाये । कहीं उनकी पदवी न झिन जाये । इस समाज की भाषा कैसे क्यों नहीं समझ सके आप.....

डांगी भैया, आप तो दुनिया की किसी भी परंपरा के बारे में नहीं जानते ना, काश, आप घुटने टेक कर मिमियाना जानते । घर-घर थैली पकड़कर जाते, जोर-जोर से चिल्लाते – दे दे बाबा, हिंदी के नाम पर,,,,,,,, हिंदी माता आपके बाल-बच्चों को खुश रखे । और ज़रा सी चालाकी आती तो किसी धन्ने सेठ की गद्दी के सामने दंडवत मुद्रा में लेट जाते और अनुमति पर अपने चीज़ों की नुमाइश करते । पर वाह, रे सरस्वती आपने इतनी भी बुद्दि नहीं दी सृजनकारों को...........।

मैं सुनकर भौचक रह गया हूँ कि आप इन दिनों गंभीर बीमारी के शिकार होकर अस्पताल की शरण जाने के लिए विवश हैं । शायद आपको मृत्यु का डर भी सता रहा हो । आपके सामने अंधेरा छाने लगा हो । आपके आँखों में आपके बच्चे अनाथ नजर आने लगे हों । बूढे माँ-बाप का उदास चेहरा आपके आँखों में बार-बार आँसू उडेल रहा हो । छूटता हुआ संसार आपको याद आ रहा हो । आपके मित्र आपको बुला रहे हों । बुला रहे हों वे झरने जहाँ आप घंटों बैठकर उसकी धारा को अपलक निहारा करते थे । वे नदियाँ जहाँ आप कभी सीपी ढूँढते फिरते थे और कभी कागज की नाव बनाकर बहाते रहते थे । आपको उस चिडिया का गीत भी सुनाई देता हो जो बड़े भोर से माँ को जगाने आ जाती थी कि जागो अम्मा, अपने लाड़ले जगदीप को जगाओ, उसे अभी बहुत काम करना है । वह सोता रहेगा तो दुनिया को नई चीज़ कौन देगा !

भैया जगदीप, आप मन ही मन अपनी शिक्षक को कोस रहे हों कि उसने आखिर क्यों ऐसी शिक्षा दी आपको । क्यों समाज के लिए कुछ करने की ईबारत आपने पढ़ी । अच्छा होता कि आप सिर्फ हस्ताक्षर करना ही सीख जाते । मूरख बने रहते ।

मुझे यह लिखते हुए बहुत ही क्षोभ हो रहा है कि मैं क्यों आपके लिए कुछ नहीं कर सकता । क्या करूँ, मैं भी तो तुम्हारी तरह फटेहाल हूँ । तुम तो जानते ही हो कि लेखक के पास कुछ भी नहीं होता । कुछ शब्द, कुछ पन्ने, कुछ विचार और एक कलम के अलावा । तुम बुद्धि से गढ़ते रहे और मैं मन से । पर दोनों का उद्देश्य एक ही है – भाषा की पूजा । भाषा की अर्चना । भाषा की अभ्यर्थना । दोंनो की दुनिया एक ही है । दुनिया के लोग एक जैसे हैं । तुम्हारा और मेरा समाज एक ही है, बड़ी बेमुरौव्वत दुनिया है यह !यहाँ किसे मतलब है भाषा से, भाषासेवियों से ?भाषा भी किस काम की चीज़ होती है ।

तुमने अच्छा नहीं किया अपनी नुमाइश करके, राजदरबार में । तुम कैसे भूल गये यह- वहाँ वही होता है जिसे उनके चाटूकार सलाहकार कहें । कौन-सी फाइल चलेगी, कौन-सी रेंगेगी और कौन-सी दौडेगी इन सबकी गति राजा थोड़े ना तय करता है । यह सब तो उनके कारिंदे करते हैं, जिनके दिल नहीं हुआ करता ।
हाँ, उनका उदर जरूर इतना बड़ा होता है कि जहाँ समूची दुनिया समा जाये । वहाँ कोट-टाई लगाये कुछ भारतीय अंगेज़ भी होते हैं । क्या इन ब्युरोक्रेस्ट के बारे में तुम्हें किसी ने नहीं बताया था, तुम भूलकर चले गये । क्यों राह देख रहे हो तुम उनके उत्तर का ? वे क्या तुम्हारे रिश्तेदार हैं । तुम तो उनकी भाषा पर ही आक्रमण करने वाली चीज़ बना कर बेचना चाहते हो । भाई कैसे वे इसे बिकने देंगे । वे क्यों चाहेंगे कि उनकी भाषा का साम्राज्य ही ढह जाये तुम्हारी खोज से । मुझे तुम्हारे पत्र को निहारने का मौका भी मिला, जो तुमने भाई दुर्गेश को लिखा है –

“नमस्कार, ई-मेल के लिये और बधाई भेजने के लिये आपका बहुत-बहुत धन्यवाद । ३ सेप्टेम्बर २००६ को मुख्यमन्त्री जी ने मुझे मुख्यमन्त्री निवास पर बुलाया था. श्री चौहान साहब मुझसे मिले और मुझे अपने कार्य के लिये बधाई दी। उस समय वहाँ पर मुख्यमन्त्री के सचिव श्री इकबाल सिंह वैश, श्री अनुराग जैन, श्री नीरज वशिष्ट आदि सहित और भी अधिकारी थे, मुख्यमन्त्री जी ने इन सभी को मेरा कार्य देख्नने को कहा और कहा की जो भी कुछ हो सके जगदीप के लिये करो। तभी मैंने सभी के समक्ष अपने सोफ़्ट्वेयर का प्रदर्शन किया सभी ने मेरे कार्य की तारीफ़ की और तभी श्री अनुराग जैन ने मुझे मुख्यमन्त्री फ़ेलोशिप देने की विधिवत घोषणा की और कागजी कार्यवाही भी की. फ़िर मुझे विज्ञान भवन लाया गया. जहाँ पर मैपकोस्ट (MAPCOST)के निदेशक डा. महेश शर्माजी से मुझे मिलाया गया। श्री शर्माजी ने मेरे सोफ़्ट्वेयर के परीक्षण के लिये एक चार सदसिय टीम गठित की इस टीम मैं चार कम्पूटर वैज्ञानिक थे. सभी ने मेरे सोफ़्टवेयर का परीक्षण किया और इस की रिपोर्ट ४ दिन के अन्दर मुख्यमन्त्री जी के सचिव श्री इकबाल सिंह वैश के नाम जारी की. यह रिपोर्ट मेरे और अपने प्रदेश के हित मैं थी जिसमे इन सोफ़्ट्वेयर्स की उपयोगिता को प्रदेश के स्कूलों, किसानों, और विभिन्न विभागों के उपयोग मैं आने से संबंधित थी. उस रिपोर्ट को मैंने भी देखा है. फिर हमारे जिला में सांसद का चुनाव आ गया और मुझसे कहा अभी आपके यहां आचार संहिता लगी है. इस लिये आपका काम बाद में होगा. काफी इंतजार के बाद फिर हमने जानना चाहा की हमारी फेलोशिप का क्या हुआ तो मुझे बताया गया की फेलोशिप देने की नीति पूर्व मुख्यमन्त्री श्री दिगविजय सिंह जी बन्द कर गये और इस गलत कथन से हम ह्तप्रभ रह गये। और आगे आजतक कुछ नहीं मिला।

तकदीर न हमारे साथ बहुत ही बेहूदा मजाक किया मेरा बचपन तो अस्पताल में ही गुजर गया और आज मैं बहुत ही खराब स्थिति में हूँ मेरी तवियत ठीक नहीं है मेरा इलाज भोपाल मेमोरियल में चल रहा है मेरी दोनो किडनी खराब बताई हैं मुझे क्रोनिक रीनल फ़ैलर बताया है अब पता नहीं मैं रहूँगा या नहीं । आप लोगों ने मुझे बहुत लाड प्यार मान सम्मान दिया इसके लिये सरकारी तंत्र से ज्यादा आपका आभारी हूँ । धन्यवाद



जगदीप


मैं उस पत्र को बार-बार बांच रहा हूँ जिसके हर शब्द नियति, नियत और नीतियों का पोल खोलती हैं । इसमें दुर्गेश जी की चिंता साफ-साफ झलकती है । जाने क्यों, पर मुझे लगता है इसमें मेरी चिंताएं भी समादृत हैं ।

प्रिय जगदीप जी,
बधाई । शीघ्र ही आपके समाचार को अपने जाल-स्थल पर जारी करूंगा । आपका म.प्र.शासन की स्कालर शिप का क्या रहा ?



-दुर्गेश गुप्त "राज"



Dear Sir,
नमस्कार, मेरे द्वारा निर्मित हिन्दी सोफ़्टवेयर अनुवादक और शब्दकोश के विन्डोज (९५/९८/एक्स-पी) आधारित परीक्षण संस्करण को डिजिट पत्रिका ने अपने अप्रैल-२००७ संस्करण की सी.डी. के साथ जारी कर दिये हैं। इस सूचना को अपने जाल-स्थल पर जारी करने की कृपा करें। धन्यवाद।



जगदीप दाँगी





अब कहने को मध्यप्रदेश या भारत सरकार भी कह सकती है कि उसने ना नहीं कहा है डांगी को । वह परीक्षण करवा रही है । भई वाह । क्या कहना इस प्रजातंत्र का । क्या कहना हमारे राजनीतिज्ञों का । बलिहारी जाना चाहते हैं हम हिदीं सेवी लोग उन नौकरशाहों पर जिनकी फाइलें चलती रहती है । भले ही आदमी उधर देह त्याग दे । उसे सम्मानित करने का औचित्य ही समाप्त हो जाये । मैं बीबीसी में छपे उस समाचार की ओर भी जनसंपर्क विभाग का ध्यान दिलाना चाहता हूँ आज से लगभग 2 साल पहले इशारा किया गया था कि डांगी ने बकायदा सरकारों से संपर्क किया है किन्तु कोई शुभ संकेत उधर से नहीं है । अब इसे राजकाज के लोग ही न पढ़े तो भला क्या किया जा सकता है ।
हे नेताओ ज़रा पढा करो ऐसे समाचारों को । हे अलालों, कुर्सीतोडू मोटें तोंद वाले बांचा करो कि क्या जनता चाह रही है । क्या छवि बन रही है आपकी इस देश में । बल्कि समूचे विश्व में । क्या डांगी के बहाने आप अपने को सुधार पायेंगे । अपनी गलती को सुधार पायेंगे । अभी भी देर नही हुआ है । या फिर वही जुमला उछालते रहेंगे कि लाखों आते रहते हैं ऐसे में तो हो गया राजकाज........। मैं हिदीं के नाम पर लाखों-करोड़ो डकार जाने वाले उन मठाधीशों को भी याद कराना चाहता हूँ कि आपको क्या हो गया है अब तक जो जगदीप डांगी जैसी प्रतिभा के पक्ष में दो लब्ज भी कहीं रख सकते ? कैसे भी रखो, दारू-मुर्गी उडाने से फुर्सत जो नहीं मिलती ।
हे शिविरबाज भाषासेवियों आपको क्या हुआ ? आप तो अपने भाषणों में खूब चीखते-चिल्लाते रहे हो । कि ये कर देंगे । वो कर देंगे ........
जगदीप शायद, देखना ये दुनिया वाले तुम्हारी बहुत बड़ाई करेंगे । 13-15 जुलाई को अमेरिका में 8 वे विश्व हिंदी सम्मेलन में तुम्हारी तारीफ़ में बड़े-बड़े कशीदे गढ़े जायेगें । पर तुम्हें इस वक्त याद करने वाला कोई नहीं होगा । और तो और तुम्हारे राज्य की सरकार भी कुछ हिंदी सेवियों (?) को अमेरिका भेजने पर लाखों लुटायेगी पर तुम्हारे सॉफ्टवेयर को रिकमंड नहीं करेगी । तुम इस पर भी आँसू कतई मत बहाना । आँसूओं को पी जाओ मेरे भाई । यही हमारी नियति है - इस महादेश में । यह तुम्हारे साथ ही नहीं हो रहा है । यह तो हिंदी के हर सेवक के साथ होता आ रहा है ।

जगदीप जी, मैं आपसे कभी नहीं मिला । नहीं देखा कभी सामने । फिर भी लगता है कि आप हमारे भीतर मौजूद हैं,मैं आपकी पीड़ा को पढ़ पा रहा हूँ । मेरी बैचेनी लगातार बढ़ती जा रही है । मन बड़ा व्याकुल है । कभी-कभी करता है नोंच डालूं नियति को । कभी मन करता है कि उन नीतियों के पन्ने ही जला डालूँ जो हमारे कल्याण के संबंध में होती ही नहीं है । और उस नीयत को दफन कर दूँ जो प्रजातांत्रिक देश में हमारे कर्णधारों को ले डु
बाने में कारण बना हुआ है जिससे हम प्रजाओं ने कभी भी अपने नाम खुशियाली का लिफाफा ही नहीं देख सके ।

मैं जानता हूँ कि हिंदी वाले भी ठीक वैसे हैं जैसे उनकी सरकारें, जैसे उनका समाज भी । पर उनमें अभी संवेदना शेष है । कोई न कोई हिंदी वाला हममें से आगे आयेगा और आपकी-हमारी आवाज़ सही लोगों तक
तक पहुँचायेगा । कोई ब्लॉगर भी हो सकता है और कोई पत्रकार भी । देखते हैं.... क्या करते हैं ये दुनिया वाले ......
यह ईमानदार प्रतिभा को ख़ारिज करने का दौर है । खासकर, वैसी प्रतिभा जिनपर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही । जिन्होंने अपने बलबुते पर अपनी जगह बनायी । अपनी प्रतिभा को निखारा । फिर वो चाहे साहित्य कला के क्षेत्र में हो या फिर नई तकनॉलाजी के क्षेत्र में हो । हमारे समाज का तथाकथित प्रभूवर्ग उस व़क्त तिलमिला जाता है जब वो देखता है कि आम सा दिखने वाला व्यक्ति यकायक खास कैसे हो गया । गोया प्रतिभा का ठेका प्रभूवर्ग ने ही ले रखा है । इन विसंगतियों के बावजूद समाज में प्रतिभा को समादृत करने वाले बहुत से लोग हैं जो हम जैसे चोट खाये लोगों पर मरहम की तरह लग जाते हैं । यह लड़ाई लम्बी है । शायद अंतहीन भी हो । लेकिन हमें मौर्चे पर डटे रहना है । हथियार के नाम पर हमारे पास हौसला है । सहनशक्ति है । मनुष्यता है । अहिंसा है । शब्द हैं जो अपनी धार बनाते रहते हैं । अरूण कमल की कविता है –

अपना क्या है इस दुनिया में
जो कुछ मिला उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार



तो हम लोग विचारों की धार लेकर के निर्मम प्रवृतियों को काटने की कोशिश कर रहे हैं । पता नहीं सफलता कब मिलेगी । फिलहाल युद्ध तो जारी है । मैं अपनी बात प्रख्यात कवि और व्यंगकार श्री गिरीश पंकज की ग़ज़लों के साथ शुरू करना चाहता हूँ क्योंकि यह हमारे वैचारिक संघर्ष का प्रस्थान बिन्दू है –

हो मुसीबत लाख पर यह ध्यान रखना तुम
मन को भीतर से बहुत बलवान रखना तुम

ज़िंदगी में कब कहाँ ये थम जाये
अधर पर बस हर घड़ी मुस्कान रखना तुम ।

मैं तो उन्हीं के शब्दों में यही कहना चाहता हूँ कि -

आपकी शुभकामनायें साथ है
क्या हुआ गर कुछ बलायें साथ हैं ।

हारने का अर्थ यह भी जानिये
जीत की संभावनाएं साथ हैं ।

इस अंधेरे को फ़तह कर लेंगे हम
रोशनी की कुछ कथाएं साथ हैं ।

तो यह जो विसंगतियों का, निर्ममता का, अमानवीय अंधेरा दीख रहा है उसके विरूद्ध हम विचारों की, सद्भावों की मशाल लेकर चल रहे हैं । देखना यह है कि मंज़िल हमें मिलती है या नहीं ....... । इस बेहद कठिन समय में हम एक दूसरे के दर्द को बाँट रहे हैं । मतलब यह है कि पीड़ा के पर्वत को हँसते हुए काट रहे हैं । शायद यही जीवन हैं । और अब तो लगता है हम सृजनशील लोगों के हिस्से में यह दर्द, यह पीड़ा विरासत में मिली है । इसे ढ़ोना है । लेकिन बिना किसी दुर्भावना के । क्योंकि फिर एक शायर की पंक्तियाँ –

उनका जो काम है वो अहलेसियासत जाने
मेरा पैगाम मोहब्ब्त है जहाँ तक पहुँचे ।


(जगदीप डांगी के बारे में और भी बहुत कुछ जानने के लिए लॉगआन करें wwww.srijangatha.com )