tag:blogger.com,1999:blog-203674152024-03-07T12:22:26.357-08:00जयप्रकाश मानसअपने बारे में :- हिन्दी के प्रजातंत्र का एक अदना-सा सिपाही । हिन्दी से लेता है। हिन्दी को हिन्दी में लौटाता है । उसका अपना क्या है ? जो भी है, हिन्दी का है ।जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.comBlogger87125tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-9689199725979913972011-10-12T03:34:00.000-07:002011-10-12T03:46:21.976-07:00ब्लॉगरों का अभिवादनइधर बहुत दिन हुए, अपने ब्लॉग पर कुछ टांक ही नहीं सका था । नौकरी की आपाधापी, घरुकाम-काम और साहित्यिक आयोजनों में उलझे रहने के कारण शायद 7 अप्रैल 2010 के बाद आज फिर इधर आने का एकाएक मन हो आया ।<br /><br />इस एक साल से अधिक अवधि में ना जाने कितने नये मित्र ब्लॉगिंग से जुड़ चुके होंगे जिन्हें मुझे पढ़ना चाहिए । ब्लॉगिंग पर तो भाई रवीन्द्र प्रभात की नयी किताब <a href="http://www.srijangatha.com/Pustkayan-9-Oct-2011"><span style="font-weight: bold;">हिंदी</span></a><span style="font-weight: bold;"><a href="http://www.srijangatha.com/Pustkayan-9-Oct-2011"> ब्लॉगिंग का इतिहास</a> </span>भी छपकर आ चुकी है । शायद वे मुझे अपनी किताब रवाना भी कर चुके हैं - जैसा कि उन्होंने अपने ईमेल से सूचित भी किया है । देखते हैं क्या इतिहास लिखे हैं । पर इस वक्त उनको तहेदिल से बधाई ।<br /><br />मुझे खुशी है कि छत्तीसगढ़ के जिन मित्रों और पत्रकारों के लिए मैंने वर्षों पहले पहल की थी कि वे ब्लॉग लिखने की ओर प्रवृत्त हों और बहुत अनमने मन से वे कार्यशाला में जुड़े थे, उनमें से कई आज छत्तीसगढ़ के प्रमुख ब्लॉगर बन चुके हैं और बाकायदा अभिव्यक्ति की प्रजातांत्रिकता को रेखांकित कर रहे हैं । और सिर्फ इतना ही नहीं वे स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर जम कर बहस कर रहे हैं । प्रायोजित प्रचार का जमकर विरोध भी कर रहे हैं । ऐसे सभी मित्रों को मेरा अभिवादन । उन सभी ब्लॉगरों को भी नये सिरे से प्रणाम जिनसे मैं बहुत दिन तक दूर रहा । चलिए अब प्रयास करते हैं आपसे नियमित मिलें । आप सभी को पढ़ें । स्वागतम...जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-16129677015482419102010-04-07T21:42:00.000-07:002010-04-07T21:45:37.661-07:00क्या प्रजातांत्रिक संवेदना का अंत हो चुका है<span style="font-size:100%;"><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0P8puoll-cCuXATqA46Sz-3rFBaS0Ugo7L8GBT4E6a3vBZ8p0d4mC2mQtq0pwARUx8KJJfPRU_FIEREdrYELJNX5mjyuH8GGrDV0dDh9_BITUqCC4wK_LGM5OkNepkY0gLf1f/s1600/dantewada+attack.jpg"><img style="float: right; margin: 0pt 0pt 10px 10px; cursor: pointer; width: 320px; height: 180px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg0P8puoll-cCuXATqA46Sz-3rFBaS0Ugo7L8GBT4E6a3vBZ8p0d4mC2mQtq0pwARUx8KJJfPRU_FIEREdrYELJNX5mjyuH8GGrDV0dDh9_BITUqCC4wK_LGM5OkNepkY0gLf1f/s320/dantewada+attack.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5457622992573579122" border="0" /></a><br /></span><p class="MsoNormal" style="text-indent: 0.5in; line-height: normal; text-align: justify;"><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" ><br /></span></p><div style="text-align: justify;"> </div><p class="MsoNormal" style="text-indent: 0.5in; line-height: normal; text-align: justify;"><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" >सुकमा के चिंतलनार जंगल में जो जवान बर्बरतापूर्वक मारे गये - शोषक नहीं थे</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >, <span lang="HI">बुर्जुआ नहीं थे</span>, <span lang="HI">पूँजीवादी नहीं थे । जानलेवा संकट की संपूर्ण संभावना के बाद भी जानबूझकर सीआरपीएफ की नौकरी में थे । ताकि देश में शांति और अमनचैन की निरंतरता बनी रहे । ताकि ख़ुशहाली का वातावरण बना रहे । ताकि आम आदमी अपनी गणतांत्रिक अधिकारों का उपयोग कर सके । उन्होंने बंदूक और बारूद की नौकरी का वरण इसलिए भी किया था ताकि उनके ग़रीब माँ-बाप की माली हालत सुधर सके । घर बैठी जवान बहनों के हाथों मेंहदी रच सके । रतौंदी से ग्रस्त बीमार बूढ़ी दादी का ईलाज हो सके । पूरे परिवार को दो वक़्त की रोटी नसीब हो सके। ये जवान कुछ दिन पहले तक जाने कहाँ-कहाँ किस किस आपदा से जूझ रहे थे पर कुछ दिन से वे आदिवासी जनता को आततायी माओवादियों से मुक्त करने के लिए बस्तर के जंगल-नदी-पहाड़ में भटकते-भटकते दिन-रात एक किये हुए थे । सच यही है कि अब इन 76 जवानों की केवल लाशें ही उनके घरों को लौटेगीं । वे कभी अपने गाँव नहीं लौट पायेंगे । और साबित हो चुका सबसे बड़ा सच अब यही है कि वे सारे के सारे हमारे प्रदेश के आदिवासी अंचलों में खो चुकी खुशहाली को बहाल करने के लिए कटिबद्ध थे। फिर भी</span>, <span lang="HI">हम हैं कि</span>, <span lang="HI">खून से लथपथ जवानों के चेहरे और उनके परिजनों के दुख पर आदतन मसखरी कर रहे हैं । </span></span></p><div style="text-align: justify;"> </div><p class="MsoNormal" style="text-indent: 0.5in; line-height: normal; text-align: justify;"><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" >यह हमारी कैसी संवेदना है कि इस महाहमले को भी स्थानीय मुद्दा मानकर व्यक्तिगत कुंठाओं के शिकार होकर तंत्र की मीनमेख निकाल रहे हैं। नागरिक सुरक्षा तंत्र से जुड़ी सुनी-सुनायी बातों पर चुटकियाँ लेकर उनके हौसलों को खंरोचने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं । कोई कहता है कि राज्य और नागरिक सुरक्षा तंत्र के प्रमुख को इस्तीफ़ा दे दिया जाना चाहिए । जैसे कहनेवाला बस्तर के खूंखार परिस्थितियों से पूरी तरह वाक़िफ़ हैं । जैसे वह छापामार युद्धकला में प्रवीण है । धन्य है ऐसी मानसिकता को जो अपने आँगन से फूल चोरी रोक नहीं सकता और पुलिस पर सारा दोष मढ़ देता है, वह एकाएक गुरिल्ला युद्ध की सफलता और असफलता के बारे में जान गँवाने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के नाम पर वाक्-वीर बनकर सामरिक टिप्पणी करने लगता है । जैसे मुख्यमंत्री, गृहमंत्री या डीपीजी ने ही इस महाहत्या की साजिश रची हो । जैसे उनकी किसी निजी चूक से इस कायराना वारदात का अवसर नक्सलियों को मिल गया हो । कोई नहीं कहता - प्रजातंत्र के इन हत्यारों से स्थायी रूप से निपटने के लिए उसे क्या त्याग करना चाहिए </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > क्या संकल्प लेना चाहिए </span><span style="font-size:100%;">?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > यह जागरूक नागरिक होने की भूमिका से बचकर औरों को कीचड़ उछालने जैसा हरक़त नहीं तो और क्या है </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > यह अनपढ़ प्रादेशिक चेतना का प्रमाण नहीं तो और क्या है </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > इधऱ पड़ोस में 76 जवान बेटे मारे जाते हैं और उधर बुद्धिजीवी किताबी दुनिया में सिर खपाये रात गुज़ार देते हैं । पढ़े लिखे</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >, <span lang="HI">वकील और न्यायप्रिय लोग इस घटना के टीव्ही फुटेज़ देखने को ही अपना परम कर्तव्य मान लेते हैं । उद्योगपति</span>,<span lang="HI"> व्यापारी</span>, <span lang="HI">अफ़सर</span>, <span lang="HI">चिकित्सक</span>, <span lang="HI">अध्यापक</span>, <span lang="HI">इंजीनियर आदि नक्सली वारदात की दुखदायी सूचना का दर्द ठड़ी बीयर्स के गिलास टकराकर मिटा देते हैं । सारी दुनिया को अपने सिर पर उठा लेनेवाले मानवाधिकारवादी ऐसे मौक़े पर तो गायब ही हो जाते हैं । किसी की आँखों में आँसू नहीं छलकता । देश की सुरक्षा के लिए जान पर खेल जानेवाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए हम एक मौमबत्ती भी जुटाना उचित नहीं समझते । शायद इसलिए कि मारे जाने वाले शहरी नहीं है । शायद ऐसा होता तो हममें से कुछ शहरी आयोजक 9-11 की तरह राजधानी के लोगों को जोड़कर श्रद्धांजलि देने से पहले फोटोग्राफर को ज़रूर याद कर लेते । मरा तो गाँव का बेटा है ना । मरा भी वह दंतेवाड़ा के जंगल में थोड़े ना है । गाँव जंगल से हमें क्या लेना-देना </span>? </span></p><div style="text-align: justify;"> </div><p class="MsoNormal" style="text-indent: 0.5in; line-height: normal; text-align: justify;"><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" >क्या इतने अंसवेदन हो गये हैं हम</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > </span><span style="font-size:100%;">?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > कहीं हम मृतक के भूगोल के हिसाब से अपनी सहानुभुति तय तो नहीं करने लगे हैं </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > हममें से कोई प्रश्न नहीं करता - आख़िर इन कायराने हमलों से डेमोक्रेसी को बचाने में वह क्या योगदान दे सकता है </span><span style="font-size:100%;">?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > क्या सारी कुर्बानी नौकरी पेशा वाले जवान ही देंगे </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > क्या सारे समाज को सुरक्षित रखने की अंतिम भूमिका पुलिस</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >,<span lang="HI"> सेना और पैरामिलेट्री फोर्स का ही है </span></span><span style="font-size:100%;">?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > यदि हम ऐसा सोचते हैं तो हम तदर्थवादी सोच के शिकार हो चुके हैं । हम असरकारी लोग अपने घरों में बैठे-बैठे कोला-कोला की चुस्की लेते रहें और सरकारी सिपाही हमारे दुश्मनों से लड़ते-लड़ते अपनी जान गँवाता रहे </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > क्या हम अपने नागरिक बोध से पल्ला झाड़ चुके हैं </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > दंतेवाड़ा का हमला</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >, <span lang="HI">सिर्फ़ हमारी पुलिस और अर्धसैनिक बलों को हतोत्साहित करने का संकेत नहीं</span>,<span lang="HI"> यह समूची भारतीयता</span>, <span lang="HI">व्यवस्था और नागरिकता पर हमला है । यह हमला छत्तीसगढ़ के नक्सलविरोधी अभियानों को चुनौती नहीं</span>, <span lang="HI">बल्कि उस देश को नेस्तनाबूद करने नापाक इरादों का परिणाम है</span>, <span lang="HI">जो एक सुपरिभाषित जंनतंत्र को बचाने के लिए जूझ रहा है । यह नक्सलियों का सिपाहियों से मुठभेड़ नहीं</span>,<span lang="HI"> माओवाद का जनतंत्र से मुठभेड है। </span></span></p><div style="text-align: justify;"> </div><p class="MsoNormal" style="text-indent: 0.5in; line-height: normal; text-align: justify;"><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" >ऐसे संकटकालीन समय में होना तो यह चाहिए कि लोग अपने एसी रूम छोड़कर निकल पड़ते । कोई घायल सिपाही की सेवा के लिए उद्यत रहता तो कोई उनके घर बार के लोगों को ढ़ाढस बंधाने के लिए । हर किसी के चेहरे पर हिंसावादियों के ख़िलाफ़ एक आक्रोश होता</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >, <span lang="HI">और छाती तनी हुई और गलियों में ख़ूनी इरादों से लड़ने का संकल्प गूँज उठता । सभी एक दिन की कमाई का कुछ अंश ऐसे शहीद जवान के परिजनों के लिए स्वेच्छा से भेजने को लालायित हो उठता । हर जवान के सीने में नक्सलवादियों के द्वारा जनता</span>,<span lang="HI"> जनआस्था</span>,<span lang="HI"> जनतंत्र के विरूद्ध झेड़े गये युद्ध के विरूद्ध एक नैतिक गुस्सा फूट पड़ता । और यह गुस्सा तब तक नहीं थमता जब तक ऐसे विध्वंसक तत्वों से छत्तीसगढ़ मुक्त नहीं हो जाता, सारे नक्सलप्रभावित राज्य मुक्त नहीं हो जाते । आख़िर ऐसा क्यों नहीं होता है </span></span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > क्या अब हमारा समाज अब ऐसा नहीं रहा </span><span style=";font-family:";font-size:100%;" >?</span><span style=";font-family:";font-size:100%;" lang="HI" > क्या हम सारे के सारे माओवादी और नक्सलवादियों से सहमत हैं । क्या प्रजातांत्रिक संवेदना का अंत हो चुका है हमारे प्रदेश से । क्या हम ऐसे ही भारतीय नागरिक हैं </span><span style="font-size:100%;">?</span></p><div style="text-align: justify;"><span style="font-size:100%;"><br /></span></div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-35626610088015172682010-01-25T00:23:00.000-08:002010-01-25T00:24:25.196-08:00छत्तीसगढ़िया ब्लॉगर्स मीट के पार्श्व से<div align="justify"><br />छत्तीसगढ़िया लोग भी अब संगठित होने लगे हैं । कम से कम यहाँ के ब्लॉगरों ने तो यह कर दिखाया है कल । पर, जैसा कि प्रेस क्लब के अध्यक्ष और अमीर धरती गरीब लोग के ब्लॉगर श्री अनिल पुसदकर जी कल जिस तरह मोबाइल पर बता रहे थे वह चिंताजनक और ब्लॉगर्स के ख़िलाफ़ एक षडयंत्र से कम नहीं । </div><div align="justify"><br />वे बता रहे थे कि राज्य के कुछ कथित बड़े लोगों को इस मीट से सिर्फ़ इसलिए आपत्ति थी कि इसमें राज्य की ग़लत छवि प्रस्तुत करने वालों के विरोध में सब ब्लॉगर्स एक जूट होकर उनकी छवि नेट पर कहीं धूमिल न कर दें । शायद इसलिए उन्होंने इस मीट को बदनाम करने, कुछ ब्लॉगर्स को भड़काने, मीट से दूर रहने का लुकाछिपी खेल भी खेला हो । </div><div align="justify"><br />मैं नहीं जानता ये कौन लोग हैं किन्तु अनिल जी के अनुसार यह कार्य बखूबी किया है - कुछ लोंगों ने । शायद वे लोग ऐसे खेमे थे जो पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के विवाद पसंद वकील शांत भूषण द्वारा मीडिया और नक्सलवाद से जूझ रहे पुलिस के ख़िलाफ़ दिये गये बयान से स्वयं को भी जोड़कर देख रहे हैं । कोई अपराध बोध भी उन्हें कुछ करने को उकसा रहा हो । उन्होंने इसके पहले दिन साहित्यकारों की हुई प्रेस क्लब की बैठक को भी प्रायोजित करके बदनाम करने की कोशिश की थी । जैसे वे साहित्यकारों के पंजीयक हों, उनके पास जो रजिस्ट्रेशन न कराये वह साहित्यकार नहीं हो सकता । जैसे वे पत्रकारिता के अधिनायक हैं, उनकी अनुमति के बग़ैर पत्रकार कुछ भी नहीं कर सकता ।<br /><span></span></div><div align="justify">विश्वास है जो ब्लॉगर्स ऐसी परिस्थितियों से गुज़रे होंगे वे उनका चेहरा ज़रूर उजागर करेंगे । </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-37006969169998198612010-01-24T00:38:00.000-08:002010-01-24T00:42:45.476-08:00छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर्स मित्रों के नाम<div align="justify">यह खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर रायपुर प्रेस क्लब में एकजूट हो रहे हैं । दुःख इस बात का है कि मैं शरीक नहीं हो पा रहा हूँ । ज़रा सा क्षोभ भी है कि चार आंगुल पेट की चिंता के लिए हम नौकरीपेशावालों को क्या क्या नहीं करना पड़ता है!<br /><br />इस समय मेरा दिल वहाँ पहुँच गया है जब हम मैं या एकाध और कोई राज्य से पहले-पहल ब्लॉगिंग को समझ कर लिखना शुरू कर रहे थे । तब सोचा भी नहीं था कि छत्तीसगढ़ जैसे आधुनिक संचार की कम संसाधनवाले प्रदेश से एक समय यानी आज 70-80 नियमित ब्लॉगर्स देश-दुनिया को अपनी अभिव्यक्ति से परिचय करा रहे होंगे । मुझे याद आता है कि तब मैं और श्री शर्मा जी प्रेस से जुड़े लोगों, पत्रकारों, लेखकों, विद्यार्थियों को कैसे इस विधा और तकनीक से जोड़ा जाय, इसी उधेडबुन में लगे रहते थे । खुशी होती है कि आज बहुत सारे लोग जुड़ चुके हैं । यह दीगर बात है कि तब हमारी कार्यशालाओं को लोग बड़ी अजीब दृष्टि से देखते थे । तकनीक से डरनेवाले आज के पत्रकार भी बड़े सकारात्मक दृष्टि से नहीं देख रहे थे । ख़ैर... तब की बात का आज कोई मतलब नहीं...<br /><br />कल अनिल पुसदकर भी बता रहे थे और मेरी भी उसमें सहमति है कि हम छत्तीसगढ़ के चिट्ठाकारों का एक संयुक्त ब्लॉग होना चाहिए, ताकि हम सब एकजुट हो सकें, एक साथ हमारे लेखन और हमारी आवाज़ को हम मज़बूत बना सके ।<br /><br />जो इंटरनेट पर लंबे समय से हैं और जो अपनी बिना अंधराज्यवाद से ग्रसित होकर अपनी पवित्र अस्मिता के बारे में चिंतित होते हैं, ऐसे ब्लॉगर्स के लिए यह समय आ गया है कि वे उन पृष्ठों को भी खंगालें, जहाँ हमारे राज्य की चेतनहीनता, धीरता का मज़ाक़ उड़ाया गया है । मैं दावे और अनुभव के साथ यह बात दोहराना चाहूँगा कि देश ही नहीं सारी दुनिया में बस्तर की सुरते हाल, आदिवासी की पीड़ा को लेकर जिस तरह राजनीति की गई है वह हमारी काहिली का भी परिणाम है । ब्लॉगों में जो बस्तर के आदिवासियों के आंदोलन सलवा जुडूम को सारी दुनिया में आदिवासियों के विरूद्ध आदिवासियों को लड़ाने का मुहिम सिद्ध कर दिया गया है । जैसे बस्तर का आदिवासी प्रतिरोध करना जानता ही नहीं । आख़िर ये कौन लोग हैं ? और इनकी टिप्पणी से अंततः और आख़िर किसे फ़ायदा और किसे नुकसान हुआ या होगा, यह भी हमें समझना होगा । इसका मतलब नहीं कि हम राज्याश्रित होकर राज्य केंद्रित विचारों के अनुगामी बने । लेकिन सोचिए, कैसे बस्तर के आदिवासियों को लेकर देश-दुनिया के ब्लॉगरों ने टाका टिप्पणी की, किन्तु हम छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर्स लगभग चुप रहे । शायद इसलिए कि हम ऐसे मुद्दों से डायरेक्ट प्रभावित नहीं होते । कहने का आशय कि हम वास्तविकता के पक्ष में अपनी अभिव्यक्ति को कमजोर ही साबित करते रहे । मुद्दे तो बहुत हैं किन्तु उन पर चर्चा फिर कभी...<br /><br />मित्रो, अब जबकि ब्लॉगिंग नागरिक पत्रकारिता का रूप धारण करता चला जा रहा है क्यों न हम राज्य की प्रभुता, अस्मिता, नागरिकता, स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा को धूमिल करनेवालों के ख़िलाफ़ भी एकजूट हों । </div><div align="justify"><br />मैं यहाँ पुनः अनिल जी की पहल की प्रशंसा करते हुए पुनः यह दोहराना चाहूँगा कि समाज को तोड़ने की हद तक जाने वाले हितनिष्ठ आपको दिग्भ्रमित करेंगे । आपको बरगलायें, जैसे कि कल प्रेस क्लब द्वारा आयोजित संगोष्ठी को कुछ लोग प्रायोजित करार देकर अपनी भड़ास मिटा रहे हैं । ऐसे लोगों को भी पहचानिए जो आज की ब्लॉगर्स बैठक को भी प्रायोजित बताकर आपकी दिशा मोड़ना चाह रहे हैं । इन सफ़ेद पोशी अपराधियों का मुखौटा उतार फेंकिए... ऐसे अंसतुष्ट लोगों को जो चाहते हैं कि वे ही राज्य का भाग्य लेखक हैं, वे ही चिंतक हैं, वे ही लेखक, पत्रकार, वकील, बुद्धिजीवी हैं और उनकी ही तूती बोलती रहेगी... क्या आप ऐसे विघ्नसंतोषियों से घबरायेंगे.... नहीं.... शायद नहीं.... । </div><div align="justify"></div><div align="justify"></div><br /><br />ब्लॉगर्स की यह बैठक न केवल राज्य की अस्मिता वरन् राज्य की नागरिक पत्रकारिता और हिन्दी की श्रीवृद्धि की दिशा में किये जा रहे तकनीकी प्रयासों को भी रेखांकित करेगी, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ...जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-45288976086042239502010-01-22T02:02:00.000-08:002010-01-22T02:16:45.049-08:00निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है – पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह<div><br /><span style="color:#330099;"><span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixBtNBqW5ykSqmiVk3SiI35IKdqGwRLU03G2WSftJ4F8hv_KBfQxqq17OCn_W2BzNTF9vqcFW55q1Jtnj7QSmYvQyXgY1bX0peEuoFgiOnGq6yLosQg5fAdRpBfW1B3upTFZFJ/s1600-h/ramesh+chandra+shah.jpg"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 120px; FLOAT: right; HEIGHT: 117px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429505934367515938" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixBtNBqW5ykSqmiVk3SiI35IKdqGwRLU03G2WSftJ4F8hv_KBfQxqq17OCn_W2BzNTF9vqcFW55q1Jtnj7QSmYvQyXgY1bX0peEuoFgiOnGq6yLosQg5fAdRpBfW1B3upTFZFJ/s320/ramesh+chandra+shah.jpg" /></a>पद्मश्री</span> रमेश चन्द्र शाह आधुनिक कविता, विचार और आलोचना के जाने-माने हस्ताक्षर हैं । भोपाल निवासी और शिक्षाविद् श्री शाह ने ललित निबंध की परंपरा को भी जीवंत बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । यह दीगर बात है कि वे ललित निबंध को ‘व्यक्ति-व्यंजक निबंध’ के नाम से संबोधते हैं । मैंने ललित निबंध के विद्यार्थी के रूप में कुछ वर्ष पहले उनसे बातचीत की थी । ललित निबंध को लेकर मन में आते कई जिज्ञासाओं के बारे में देखें वे क्या कहते हैः-</span> <em><span style="color:#3333ff;">मानस </span></em><br /><div align="justify"><span style="color:#ff0000;"><strong></strong></span></div><br /><div align="justify"><span style="color:#ff0000;"><strong><span style="font-size:+0;"></span></strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#ff0000;"><strong><span style="font-size:+0;"></span></strong></span></div><br /><div align="justify"><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - आपकी रचनाधर्मिता का प्रेरक तत्व क्या है ? ललित निबंध के साथ कई विडम्बनाएँ रही हैं- अल्पसंख्यक पाठक, प्रकाशन हेतु पत्रिका संपादक का अपना पूर्वाग्रह, समीक्षकों एवं कतिपय महापुरुष साहित्यकारों की घनघोर उपेक्षा । इतनी सारी चुनौतियों के बावजूद आप ललित निबंध से कैसे जुड़े ?<br /></strong></span>शाह जी - लेखक के लिए अनुकूल परिवेश का कोई महत्त्व नहीं है । लिखना उसके लिए साँस लेने की तरह अनिवार्य है । यह विधा मेरे निकट की मुझे लगी – अपने स्वभाव के अनुकूल । मेरे व्यक्तित्व और मस्तिष्क के एक हिस्से की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य । इसलिए स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से ही मैंने निबंध लिखना शुरु किया । एक पारिस्थितिक पहलु यह भी, कि पहले ‘आधार’ पत्रिका के संपादक रामावतार चेतन और तत्पश्चात ज्ञानोदय के संपादक रमेश बक्षी मेरे निबंधों के बड़े गुणग्राही प्रशंसक थे । वे बड़े आग्रह और सुझ-बूझ के साथ मेरी रचनाएं बुलाते और छापते थे । बदरीनाथ कपूर सरीखे वैयाकरण और शब्दकोशकार ने नितांत अपनी रीझ-बूझ के कारण मेरा निबंध-संग्रह छापने की पहल की । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - आप जिस साँस्कृतिक चेतना को अपना प्रतिपाद्य बनाते हैं वे लोक, आंचलिकता या लोक धर्म के विषय हैं । आप अपने ललित निबंधों को अन्य ललित निबंधकारों से कैसे भिन्न देखते हैं ? इन दिनों आप नया क्या रच रहे हैं ?<br /></strong></span>शाह जी - यह प्रश्न लेखक से नहीं, पाठकों, समीक्षकों से पूछना चाहिए । अपनी रचना के बारे में स्वचेतन होना, अपनी भिन्नता और विशिष्टता बताना बहुत बेतुका और असम्यक लगता है लेखक को । निबंध विधा पर मैंने अलग से अपनी समझ बताई है एक लेख में । वह देख लें । मन की निर्बंध उड़ान, बुद्धि का भी क्रीड़ाभाव, अपने को ही कौतुकी और जिज्ञासु ढंग से देखने-परखने की टेब ने मेरे निबंध लिखवाये होंगे । पहला ही जो निबंध लिखा, उसका नाम था ‘चौंथी प्याली की महक’ जो ‘चाय’ पर है पर विषय निमित्त मात्र हैः व्यक्ति-चेतना का, व्यक्तित्व का प्रकाशन ही प्रेरक बनता है । पर वह आत्म-रति नहीं, आत्म-क्रीड़ा भी आत्मन्वेषण, आत्म-जिज्ञासा की प्रेरणा से है । प्रामाणिक ज्ञान किसी चीज़ का होता है ? प्रत्यक्षतः उसका जिसे ‘मैं’ कहते हैं । विषय-ज्ञान, वस्तु-ज्ञान उसी की अपेक्षा में, उसी के जरिये हो, तो कैसा ? यही मूल-प्रेरणा है निबंध की । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - ललित निबंध को आप किन शब्दों में परिभाषित करना चाहेंगे ? कोई इसे व्यक्तिव्यंजक निबंध कहता है, कोई रम्य रचना । आपका व्यक्तिगत अभिमत क्या है ?<br /></strong></span>शाह जी - सभी विशेषण अपने-अपने ढंग से सही हैं । मैं आत्म-निबंध कहता हूँ । अंग्रेज़ी ‘पर्सनल एस्से’ की उपलब्धियाँ और उनके प्रति विशेष प्रारंभिक राग-बंध के कारण । मेरे निबंध ‘पर्सनल एस्से’ के ही क़रीब होंगे । पर, हिंदी में ललित निबंध नाम चला तो उसका अपना अर्थ और प्रयोजन है । उसके सबसे श्रेष्ठ उद्भावक और ‘प्रैक्टीशनर’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पं. विद्यानिवास मिश्र हैं – इसमंब भी संदेह नहीं । स्वभावगत नज़दीकी और रुचि के हिसाब से बालमुकुंद गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र और बाबू गुलाबराय ज्यादा आकर्षित करते रहे थे शुरूआत में । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - निबंध और ललित निबंध के मध्य आप विभाजन की कैसी रेखा खींचना चाहेंगे ?<br /></strong></span>शाह जी - जहाँ ललित ज्यादा, निबंध कम होगा, वही निबंध कमज़ोर होगा । वैसे अर्थगंभीर, अर्थगौरव वाले निबंध भी निबंध ही होते हैं । आलोचना भी तो शोधग्रंथ की तरह, ... ग्रंथ रूप हो सकती है लेकिन कई तरह अहम् आलोचना निबंधकार प्रकटी है । .... अपने गंभीर विचारों के कारण भी एक प्रकार की अनासक्त संबंध-वृत्ति दर्शित होती है । </div><br /><div align="justify"><br /><strong><span style="color:#ff0000;">मानस - ललित निबंधकार होना नास्टेलजिक होना भी होता है । प्रगतिकामी (?) आलोचकों के प्रश्न पर आपका जबाब क्या होगा ?</span></strong><br />शाह जी - ‘पर्सनल एस्से’ में ‘आत्म’ अतीतोन्मुखी भी हो सकती है – पर किसी आत्म-सत्य की निर्वैयक्तिक गहराई और अर्थवत्ता की खोज में । ‘नास्टेलजिक’ से ऋणात्मक टिप्पणी उस पर लागू नहीं होती । </div><br /><div align="justify"><br /><strong><span style="color:#ff0000;">मानस - ललित निबंध के विकासक्रम के बारे में आपकी राय क्या है ?</span></strong><br />शाह जी - उपर्युक्त उत्तरों में इसका उत्तर निहित है, बाबू गुलाबराय और मेरे निबंध आत्मनिबंध कहे जा सकते हैं सामान्यतः । ललित निबंध का ..... आरंभ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के हाथों हुआ । पं. विद्यानिवास में वे संभावनाएं और विवृत हुई – बल्कि पार ... निचुड़ गई । ... में ललित निबंध का एक और आत्मचेतन मोड़ परिलक्षित हुआ । संस्कृतियों के द्वंद्व का अधिक इंटैलैक्चुअली अवेयर चित्रण । ये तीन ललित निबंधकार ललित निबंध के तीन आरोह हैं । कुबेरनाथ राय उसकी सांस्कृतिक डिबेट वाले पक्ष को मज़बूती से पकड़ते और तार्किक परिणति पर पहुँचा देते हैं । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - संस्कृत के कुछ श्लोक, लोक के कुछ छंद, ग्राम्य-स्मरण, कुछ निजी या आत्मीय प्रसंग, कुछ सरल उद्धरण और कुछ सरस उदाहरण के संग्रह-संयोजन को ललित निबंध का फ़ार्मूला बनाने के आरोप लगते रहे हैं, क्या इनके अलावा ललित निबंध रचा जा सकता है ?<br /></strong></span>शाह जी - फ़ार्मूला वाले आरोप में दम तो है, जिस आसानी से साथ जिस तरह ललित निबंध लिखे जाते रहे हैं, इन उपादानों के सहारे, उसे देखते हुए यह ग़लत नहीं है । ‘बगैर’ वाली बात अप्रासंगिक है । निबंध स्वयं इन उपादानों के साथ और बग़ैर भी खड़ा रह सकता है । </div><br /><div align="justify"><br /><strong><span style="color:#ff0000;">मानस - ललित निबंध एक स्वतंत्र विधा है पर इसमें काव्य की विभिन्न विधाओं की उपस्थिति संभव है । यह ललित निबंध का सामर्थ्य है या भटकाव ?</span></strong><br />शाह जी - इधर ललित निबंधों में कविता लगातार आ रही है । चाहे उदाहरण के बहाने या चाहे प्रासंगिक कारणों से । इससे ललित निबंध के गद्यगीत में तब्दील होने का संकट नहीं उत्पन्न होता ? फालतू कविताई – मात्र भावुकता के तहत कई बार दीखती है । वह भटकाव ही है – निबंध की अपनी ज़मीन नहीं । अब यूँ तो निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है । पर वह गद्यगीत न हो जाय । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - ललित निबंधों में विभिन्न विधाओं के समन्वय की सहमति के बाद भी गुलाबराय, दिनकर, विनोबा भावे, वियोगी हरि आदि के निबंध का जिक्र सामान्यतः क्यों नहीं होता ?</strong></span><br />शाह जी - जिक्र होना चाहिए । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - ललित निबंधों के मूल विषयों में लोक भी है । फिर ललित निबंधकारों के यहाँ व्यंग्य को लेकर कोई परहेज भी नहीं, ऐसे में क्या लोक-यथार्थ को व्यंग्य विधा में अभिव्यक्त करने वाले य़था- परसाई, शरद जोशी आदि की रचनाओं को इस परिधि में नहीं समेटा जा सकता है ?</strong></span><br />शाह जी - परसाई के निबंध शुरूआत में ललित निबंध ही थे – जैसे ‘सफेद बाल’ शीर्षक निबंध, उन्होंने ललित निबंध वाले दौर से लौटकर फिर से प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुंद गुप्त के निबंध का मेल कराया था । बाद में वे अलग से व्यंग्य नाम की विधा के लेखक बन गए । श्रीलाल शुक्ल ने भी इस तरह से निबंध लिखे हैं । व्यंग्य समूची रचना में रची-बसी एक वृत्ति है । व्यंग्य अपने आप में कोई विधा नहीं । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - ललित निबंधकार की सामान्य रचना प्रक्रिया पर आपकी टिप्पणी क्या होगी ? इसमें हिन्दी समाज, उसकी संस्कृति, उसकी विकृति या नित बदलती दुनिया की क्या भूमिका होती है ? क्या इस रचना प्रक्रिया को हम रमेशचन्द्र शाह (आपकी) की रचना प्रक्रिया मान सकते हैं, या आपकी रचना प्रक्रिया कुछ भिन्न है ?</strong></span><br />शाह जी - चाहें तो मान सकते हैं । मानने के लिए आप मेरे निबंधों पर कैसा क्या लिखेंगे इससे आपकी विवेक-बुद्धि और रीझ-बुझ का पता चलेगा । सामान्यीकरण वास्तविक रस-दर्शन और रीझ-बूझ की जगह नहीं ले सकता । वैसे उपरी बात ग़लत नहीं है । वह मेरे नए निबंधों ‘हिंदी की दुनिया में’ के मूल्याँकन और समझ में सहायक हो सकती है । आप इस दृष्टि से उसकी विवेचना कर देखें । आपको स्वयं इस प्रश्न का सर्वोच्च उत्तर मिल जाएगा । </div><br /><div align="justify"><br /><strong><span style="color:#ff0000;">मानस - ललित निबंधकारों की आज की पीढ़ी को कैसे मापना चाहेंगे ?</span></strong><br />शाह जी - ख़ुद निबंधकार होते हुए इस बारे में कुछ कहना उचित न होगा । दुर्भाग्यवश आज की कविता के ही तर्ज पर नए ललित निबंधकार भी ‘परस्पर अहोध्वनिः’ वाले ही दीखते हैं । कोई स्वतंत्र विवेक और रीझ-बूझ के साथ इस विधा के प्रयोक्ताओं को किए-धरे की जाँचता-परखता नहीं । अग्रजों के साथ ही वैसा प्रेरक संबंध बन पाता है । सबको हड़बड़ी है अपने को जमाने की । कई लोग अच्छा लिख रहे हैं । पर लीक से हटकर काम बहुत कम है । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - ललित निबंधों में आत्मपरकता क्या नास्टेल्जिया नहीं है ?</strong></span><br />शाह जी - इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ । आत्मपरक तो निबंध होगा ही । ... नहीं होते हैं जहाँ महज़ नास्टेल्जिया और आत्म-रति, आत्म-चर्चा प्रेरक होती है । अज्ञेय (बुद्धिचलन) को पढ़ा है ? उन्हें व्यक्ति कहके सबसे ज्यादा लांछित किया जाता रहा है उनके द्वारा जो अपने को बड़ा .... समझते हैं । .... है उल्टा, ये तथाकथित वस्तुबंदी ही हिंदी के सर्वाधिक राग-द्वेष प्रेरित सर्वाधिक आत्म-रति से सिकुड़े हुए लोग हैं । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - ललित निबंध पर आरोप है कि उसकी प्रकृति हिन्दूवादी है । प्रगतिशील (?) विविध जुमलों से खिल्ली उड़ाते हैं ? आप उन्हें कैसे निरुत्तर करना चाहेंगे ?</strong></span><br />शाह जी - यह मूर्खतापूर्ण अनर्गल आरोप वही लगा सकते हैं जो आत्महीन, आत्मद्रोही और अंततः देशद्रोही हैं । </div><br /><div align="justify"><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>मानस - ऐसे समय में जब उत्तरआधुनिकता के संजालों से सारे समाज के साथ पढ़ा-लिखा तबका भी निरंतर फँसता चला जा रहा है, उधर साहित्यिक कर्म के लिए चुनौतियाँ भी जटिलतम होती चली जा रही हैं, अल्पसंख्यक रचनाकारों की इस पवित्र विधा के भविष्य को लेकर क्या किया जा सकता है ?</strong></span><br />शाह जी - अज्ञेय ने ‘आलोचक राष्ट्र के निर्माता’ की चुनौती सामने रखी थी 1945 में । वह चुनौती जहाँ की तहाँ है । उसका सम्मान और सत्कार करिए । ‘अल्पसंख्यक’ वाद के चक्कर में मत पड़िए । इसने वैसे ही हमारी राजनीति का सत्यानाश कर रक्खा है । कृपया साहित्य में इस तरह की शब्दावली से परहेज़ बरतिये । </div></div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-78446829509705159772010-01-22T01:59:00.000-08:002010-01-22T02:02:04.429-08:00तालिबान<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvXc7GTwKASx8xQNSS7YQpxhCxqTm3PBKUDrKQl1MNtsyek9N7gY0XiLMgWrF8BTJL_Kka4w1lVZPfZWwRyPDKvqFjhZjLkjvoT_OFbicqtvSW8u4SHqc1fbczyMwk-Z2rXIf-/s1600-h/taliban.jpg"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 135px; DISPLAY: block; HEIGHT: 89px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429502297535117362" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvXc7GTwKASx8xQNSS7YQpxhCxqTm3PBKUDrKQl1MNtsyek9N7gY0XiLMgWrF8BTJL_Kka4w1lVZPfZWwRyPDKvqFjhZjLkjvoT_OFbicqtvSW8u4SHqc1fbczyMwk-Z2rXIf-/s320/taliban.jpg" /></a><br /><div><br />कोई दलील नहीं<br />कोई अपील नहीं<br />कोई गवाह नहीं<br />कोई वक़ील नहीं<br />वहाँ सिर्फ़ मौत है<br /><br />कोई इंसान नहीं<br />कोई ईमान नहीं<br />कोई पहचान नहीं<br />कोई विहान नहीं<br />वहाँ सिर्फ़ मौत है<br /><br />वहाँ सिर्फ़ मौत है<br />वहाँ सिर्फ़ धर्म है<br />धर्म को मानिए<br />या फिर<br />बेमौत मरिए </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-60916120079653266832010-01-22T01:55:00.000-08:002010-01-22T01:59:24.443-08:00अन्न-पूजा<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisi0zB6N-uQSTje6q9Dc-O9ALZokt5lC86UIXZfIrqpPW9aJsy5xJoYk9ZAC3jXmlpF9kMNLXFn-XvNz8DvCnYDjfbpn7MQrEMsw82BnmY_jp4eHd-5UZqyKHB375H0uKDvjTI/s1600-h/srijangatha.jpg"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 240px; DISPLAY: block; HEIGHT: 240px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5429501532868170642" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEisi0zB6N-uQSTje6q9Dc-O9ALZokt5lC86UIXZfIrqpPW9aJsy5xJoYk9ZAC3jXmlpF9kMNLXFn-XvNz8DvCnYDjfbpn7MQrEMsw82BnmY_jp4eHd-5UZqyKHB375H0uKDvjTI/s320/srijangatha.jpg" /></a><br /><div>अन्न-पूजा<br />जो खेत नहीं जोत सकते<br />जो बीज नहीं बो सकते<br />जो रतजगा नहीं कर सकते<br />जो खलिहान की उदासी नहीं देख सकते<br />उनकी थालियों के इर्द-गिर्द<br />अगर<br />महक रहा है अन्न<br />तो यह<br />उनकी चुकायी क़ीमत की बदौलत नहीं<br />सिर्फ़ एक उसकी कृपा है<br />जो अन्न की पूजा करता है </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-30492675982222308212010-01-14T09:29:00.000-08:002010-01-14T09:37:06.317-08:00इंडिया टुडे ने याद किया<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6x9aWW0HjBmiMAakRkwQobHYvamVY8-XDHjPPcnPLi9hn4gSBdklm4sZmD3JZ-MXow2DmjPUSWoQurFLRZ80gZuvRceQm1bcBaU4NY-eW0r0-UQW4Is4DR7txonVsNXWOCNr3/s1600-h/vishwa+ranjan.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5426650511298259410" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 166px; CURSOR: hand; HEIGHT: 240px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6x9aWW0HjBmiMAakRkwQobHYvamVY8-XDHjPPcnPLi9hn4gSBdklm4sZmD3JZ-MXow2DmjPUSWoQurFLRZ80gZuvRceQm1bcBaU4NY-eW0r0-UQW4Is4DR7txonVsNXWOCNr3/s320/vishwa+ranjan.JPG" border="0" /></a><br /><div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;">इंडिया टुडे पढ़नेवालों के लिए तो नहीं किन्तु उनके लिए जो इंडिया टुडे नहीं पढ़ते या नहीं पढ़ पाते सिर्फ़ उनके लिए । मोह नहीं किन्तु जो छापा है इंडिया टुडे ने अपने 20 जनवरी, 2010 के अंक में उसे पाठकों के समक्ष रखने में क्या बुराई है ! तो लीजिए..... </span></strong></div><br /><div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;"><span class=""></span></span></strong></div><br /><div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;">नया समय, नए संदर्भ</span></strong><br /><span style="color:#ff0000;">बृजबाला सिंह</span><br />यह पुस्तक विश्वरंजन के साहित्यिक मन का दर्पण है । इसमें चुनी हुई 48 कविताएँ, आलेख, समीक्षा, डायरी तथा महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं, जिनमें उनका रचनाकार निरंतर गंभीर बना रहता है, जयप्रकाश मानस के संपादन कौशल का नमूना वह ‘पुरोवाक्’ है, जिसमें उन्होंने विश्वरंजन के सर्जक को परिभाषित ही नहीं बल्कि उदाहरण के साथ विश्लेषित भी किया है । पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन के लिए रचनाकर्म एक साधना है, जो सृजन संघर्ष की गलियों में चल रही पूरी की जाती है । वे नहीं मानते कि कविता लिखना कोई सहज कार्य है । </div><br /><div align="justify"><br />मानस ने विश्वरंजन की सृजनद-शक्ति एवं क्षमता में गहराई तथा विस्तार, दोनों देखा है: “विश्वरंजन की कविता नए समय, नए संदर्भों की कविता है, नई मात्र इस अर्थ में नहीं कि व नई विषयवस्तु, नए काव्य-प्रक्षेत्रों तक अपनी पहुँच को सिद्ध करती है, नई इस अर्थ में भी कि वे बासी होते मनुष्य को नई गरिमा और नई दृष्टि देती हैं (वजूद में हर समय बासी होने का डर रहता है )। शब्दों के मौन में अर्थ की नई वृष्टि करती हैं । नई सृष्टि का ख़ाका रचती हैं । साधारण मनुष्य के समय, समाज और संकटों की पहचान कराती हैं । उनकी कविता भयावह दृश्यों के बीच जान-बूझकर ओढ़ी गई चुप्पी को खरोंचते हुए हुए इंसान को सतर्क कराती है । इस मानवीय उद्यम की लय में कवि का मन पास-पड़ौस में तितर-बितर पड़े शब्दों को नए सिरे से ढूँढता है । उन्हें झाड़ता-पोछता है । नए संदर्भों के बरक्स ऐसे चित-परिचित शब्द स्वमेव ताजगी से भर उठते हैं । कवि का यही अर्थागम-सिद्धि कविता में विन्यस्त शब्दों को नई चमक से लैस कर देती है । जाहिर है, इस चमत्कृति में केवल कवि मन ही नहीं, मेधा की भी भूमिका उल्लेखनीय है।” </div><br /><div align="justify"><br />संग्रह की कविताओं में ‘भारत माता की जय’, ‘क्रांति की बातें मत करो’, के साथ-साथ बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कई कविताएँ हैं जिनमें बाज़ार का प्रयोग व्यंग्य एवं विस्तार लिये हुए है – ‘बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कुछ कविताएँ’, ‘बाज़ार की मार और आज का आदमी’, ‘तलाश बाज़ार से बाहर निकल आने की’....., ‘बाज़ार के खिलाफ जंग का पहला ऐलान’, ‘बाज़ार से लड़ना एक अनिवार्य हिमाकत है’, ‘बाज़ार वह मन है’….., जैसी कई कविताओं को संग्रहीत करके मानस ने विश्वरंजन के कविमन की उन तहों का पर्दाफाश किया है जिनमें सदियों से चले आ रहे बाज़ार का समापन हुआ है । बाज़ार जिसमें कभी एक वर्ग बिकता था, आज हर आदमी बिक रहा है, बहुत सस्ता । विश्वरंजन मानते हैं है कि अब बाज़ार से लड़ना ज़रूरी हो गया है क्योंकि आदमी अब बाज़ार की मार सहने में असमर्थता महसूसस करने लगा है । वह बाज़ार से निकलने का रास्ता खोज रहा है । कवि को पता है कि बाज़ार से लड़ना आसान नहीं है । लेकिन उम्मीद की किरण शेष है : बाज़ारी ख़ौफ़ और आतंक के कोहरे से लिपटे रहने के बावजूद सूरज से दोस्ती करने की कर रहे हैं बदस्तूर कोशिश और इसी कोशिश में शायद छुपा हो बाहर निकल आने का कोई रास्ता । विश्वरंजन को आत्मविश्लेषण का कवि मानते हैं मानस । </div><br /><div align="justify"><br />संग्रह में साहब को केंद्र में रखकर भी बहुत सी कविताएँ हैं – ‘साहब सब जगह होता है’, ‘साहब का भी एक साहब होता है’, ‘साहब की एक मेमसाहब होती है’.... ‘कलेक्टर साहब और क्लबघर’ आदि । यहाँ भूखे लोगों की आँखों में जमी चुप्पी देखी जा सकती है । समय से पहले मुरझाने का अफ़सोस है । बचपन की दीवाली की यादें हैं तो एक बेहत्तर इंसान का स्वप्न है । </div><br /><div align="justify"><br />विश्वरंजन ने कबीर को पहला क्रांतिकारी और सेक्युलर कवि माना है । उन्हें फ़िराक़ की शायरी में सदियों की आवाज़ सुनाई देती है । वे कलाकार हैं, आधुनिक कला को समझने की ज़िद है उनमें: यह कठिन काम है । कलाकृतियों, चित्रकला, पेंटिग्ज के पास जाना ही पड़ेगा आपको उनमें डूबने-उतराने के लिए । एक लेख में विश्वरंजन की अधूरी काव्य-यात्रा का वृत्तांत है । वे कविता के विषय से अधिक कविता की भाषा पर बल देते हैं । मैंने हमेशा यह कोशिश की है कि मैं अपने ‘मैनरिज्म’ में क़ैद होके न रह जाऊँ । मैं यह हमेशा यह पाता हूँ जब एक ख़ास ‘मैनरिज़्म’ ‘रेटॉरिक’ या ‘फॉर्म’ मुझे बाँधने लगती है, मेरे अंदर कविता मौन होने लगती है । क्योंकि मैं पैंटिग भी करता हूँ, मैं पैंटिग की ओर बढ़ जाता हूँ । जब पुनः कविता में लौटता हूँ, चाहता हूँ कि अंदाज़े-बयां बदला हुआ हो । मानस ने विश्वरंजन पर एकाग्र इस पुस्तक का संपादन करके पाठकों की अतिशय सहायता की है, विशेषकर उस दौर में जबकि गढ़ी जा रही है नए शब्दों को, अर्थों को चमका कर / कविता की पहली पंक्ति ।<br /><br /><span style="color:#ff0000;">कृति- <span style="color:#000066;">एक नई पूरी सुबह (विश्वरंजन पर एकाग्र)<br /></span>संपादक- <span style="color:#000066;">जयप्रकाश मानस<br /></span>प्रकाशक- <span style="color:#000066;">यश प्रकाशन, नई दिल्ली</span><br />मूल्य – </span><span style="color:#000066;">395 रुपये </span></div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-34192528130065842712009-12-08T03:08:00.000-08:002009-12-08T03:13:59.772-08:00माओवादी कार्पोरेट नेटवर्क के बंधुआ मजदूर<div align="justify">इधर प्रजातंत्र को जड़ से ध्वस्त करने के लिए उद्यत नक्सलियों से निपटने के लिए केंद्र और राज्यों का संयुक्त अभियान यानी आपरेशन ग्रीन हंट शुरू ही नहीं हुआ है, उधर नक्सलियों के प्रकारांतर से हिमायती दिल्ली में चीखने-चिल्लाने लगे हैं कि देश को युद्ध की विभीषिका में झोंका जा रहा है । इन अनर्गल प्रलापियों में शामिल हैं – अरुंधति राय, सरोज गिरी, गौतम नवलखा, बी.डी.शर्मा, वरवर राव, प्रो.जगमोहन, पी.ए. सेबास्टैन, हरीश धवन जैसे अनेक जाने-माने लोग और पीयूसीएल, पीयुडीआर, भाकपा माले (लिबरेशन), आरडीएफ़ जैसे अनेक संगठन । </div><div align="justify"><br />बार-बार झूठ को दोहरा कर सच का आभास कराने में प्रवीण इन संगठनों और बुद्धिजीवियों की बात पर विश्वास करें तो भारतीय राजसत्ता द्वारा 1 नवंबर, 2009 से जनता के खिलाफ शुरू हो चुके इस युद्ध के कई हफ्ते बीत चुके हैं। और तो और, इस युद्ध में मारे जानेवाले आदिवासियों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ रही है । उसी तरह जलाये गये गाँवों, विस्थापितों, घायलों और गिरफ्तार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है । नक्सली-दुष्प्रचार की हद देखिए कि इनके अनुसार संयुक्त दल ने वायुसेना के हेलिकॉप्टरों और अमेरिकी खुफिया सैटेलाइटों की मदद से सेना के शीर्ष अधिकारियों के नेतृत्व में दंडकारण्य और इसके आसपास के इलाकों में ऑपरेशन शुरू कर दिया है । इतना ही नहीं, नवंबर के मध्य में 12 से अधिक गाँव पूरी तरह मिटा दिये गये, उनके निवासियों को जंगल में और अधिक भीतर शरण लेने पर मजबूर किया गया । दंडकारण्य में दो अलग-अलग और उड़ीसा में एक जनसंहार की घटनाएँ सामने आयीं, जिनमें 17 से अधिक आदिवासी सरकारी सैन्य बलों द्वारा मारे गये । जबकि दंडकारण्य यानी बस्तर में ऐसा इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कुछ भी नहीं हुआ है। </div><div align="justify"><br />पिछले ही दिनों, 4 दिसम्बर, 2009 को इस फोरम की बकायदा दिल्ली में बैठक हुई जिसमें कहा गया कि यह युद्ध कॉरपोरेट्स की तरफ से उनके फायदे के लिए भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के जीवन को निशाना बनाते हुए लड़ा जा रहा है । विश्वव्यापी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था अभी 1929 के बाद से सबसे गंभीर संकट झेल रही है, अपनी सभी निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को मंदी के दलदल में और गहरे तक डुबोते हुए । सैन्य औद्योगिक तंत्र-जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और भारत के बड़े व्यावसायिक हित हैं - युद्ध चाह रहा है । यानी यह तथाकथित युद्ध ख़िलाफ कॉरपोरेट्स करवा रहे हैं । </div><div align="justify"><br />यह किसी से नहीं छिपा है कि आपरेशन ग्रीन हंट जिसे कथित मानवाधिकार बुद्धिजीवी आदिवासी नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध परिभाषित कर रहे हैं, मूलतः आदिवासी इलाकों को नक्सली विध्वंस, उत्पात और हिंसा से मुक्त करने का अभियान है । यह अभियान सीधे-सीधे उन अराजकतावादी ताकतों के विरुद्ध है जो प्रजातांत्रिक विकास-प्रक्रिया, संविधान, चुनाव आधारित प्रतिनिधित्व प्रणाली, न्याय व्यवस्था और कार्यपालिका को पिछले कई वर्षों से खुली चुनौती दे रहे हैं । यह अभियान उनके ख़िलाफ़ है जो बम, बंदूक और बारूद को अंतिम विकास का औजार मानते हैं। यह अभियान उनके ख़िलाफ़ है, जो आदिवासी और तुलनात्मक रूप से वंचित और आदिवासियों के रहवासी क्षेत्रों के सार्वजनिक संसाधनों का लगातार विनाश कर रहे हैं । यह अभियान उनके ख़िलाफ़ हैं, जो ऐसे जनपदों में अपनी स्थायी रणनीति के तहत संचालित जनयुद्ध के विरूद्ध आदिवासियों को मर-खप जाने के लिए विवश कर रहे हैं । यह अभियान उनके ख़िलाफ़ है जिनका बातचीत पर किंचित विश्वास नहीं है और जो मात्र हिंसा और आंतक के सहारे अपनी सिद्धि की रोमानी सपने में जी रहे हैं । और यह सब पिछले 4 दशकों की नक्सली गतिविधि से स्वतः प्रमाणित हो चुका है । </div><div align="justify"><br />नक्सलियों का मूल उद्देश्य देश में माओवादी शासन पद्धति की स्थापना है, वंचितजनों के अधिकारों की बहाली नहीं। यदि वे वचिंतजनों या आदिवासियों के हित में संघर्ष कर रहे होते तो नक्सलियों के हाथों मारे जानेवालों में आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक नहीं होती । अब तक किसी जनपद में माओवादी विकास के उपक्रम में कोई रोल मॉडल दृश्यमान होता, जिसे प्रजातांत्रिक विकास के विकल्प के रूप में सार्वजनिक स्वीकृति मिल चुकी होती । यदि वे मन, कर्म और वचन से बस्तर के हितैषी होते तो उनके विरोध में कोई ‘सलवा जुडूम’ जैसा किसी प्रतिरोधी आंदोलन का सूत्रपात ही नहीं हुआ होता । प्रजातंत्र में जनअधिकारों की बहाली, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए लामबंद पहल की पूरी छूट है । कानून और संवैधानिक प्रावधान भी इससे सहमत हैं किन्तु हिंसक रास्तों के सहारे सारे समाज को अशांत और भयग्रस्त बना देने की अनुमति कैसे चंद बुद्धिजीवियों या किसी हिंसक संगठन को दी जा सकती है ? </div><div align="justify"> </div><div align="justify"><span style="font-size:+0;"></span></div><div align="justify">आज नक्सली आंतक के पर्याय बन चुके हैं । आज नक्सली स्वयं को विकास-विरोधी साबित कर चुके हैं । ऐसी परिस्थितियों में आदिवासी क्षेत्रों में शांति-बहाली का कौन-सा रास्ता शेष बचा है ये बुद्धिजीवी बताने में पूर्णतः असमर्थ हैं । दरअसल ये बुद्धिजीवी एकतरफा मानवाधिकार के हिमायती हैं – जिन्हें सिर्फ़ नक्सलियों का ही अधिकार दिखता है, जिसे वे आदिवासी के अधिकार के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आख़िर इन आदिवासियों को नक्सली नेताओं ने पिछले 40 वर्षों में बुनियादी हक के लिए प्रचलित व्यवस्था के ख़िलाफ़ सिर्फ़ हिंसात्मक, आंतककारी और विध्वसक संघर्ष का विकल्प ही क्यों कर सुझाया ? अपने प्रभाव क्षेत्र में पले-बढ़े और युवा हो चुके वनपुत्रों को नक्सलियों ने कृषक, कारीगर, कलाकार, मास्टर, डाक्टर, मिनिस्टर बनाने के बजाय सशस्त्र सैनिक में क्यों तब्दील कर दिया ? इन्हें क्योंकर गुरिल्ला ट्रेनिंग दी गई ? क्या नक्सली आदिवासियों की एक समूची पीढ़ी को भविष्य में आदिवासी भाई की ही हत्या के लिए पूर्व नियोजित तरीके से तैयार नहीं कर रहे थे ? उन्हें नक्सलियों ने विकास के लिए संघर्ष के सर्वमान्य चेतनात्मक और सभ्य तरीकों से आख़िर क्यों नहीं जोड़ा ? और शांतिपूर्ण जीवन शैली और ऐतिहासिक रूप से धीमी प्रगति पर विश्वास करने वाली वन विश्वासी आदिवासी इसी नक्सलवादी जिद्दी के कारण आत्महंता दौर से गुजरने के लिए विवश कर दिया गया है । इन सारे प्रश्नों के कोड़े भी ऐसे बुद्धिजीवियों की पीठ पर बरसाने जाने चाहिए, जो देश में भ्रम का धंधा करते हैं । </div><div align="justify"><br />इन बुद्धिजीवियों में से शायद ही किसी ने पिछले 2-3 दशकों में ऐसी कोई अपील, विचार समक्ष प्रस्तु किये है, जिसमें नक्सलवादियों का रूझान हिंसामुक्त एवं ध्वंसमुक्त संघर्ष की ओर विकसित हो सके । इन्हें और इनकी प्रगतिशील विचारों के अंतर्द्वंद्व को साफ़ साफ़ पहचाना जा सकता है – ये वही हैं जो आदिवासियों द्वारा संचालित सलवा जुडूम को हिंसक किन्तु कथित आदिवासियों द्वारा संचालित नक्सवादी हिंसा को कल्याणकारी सिद्ध करते फिरते हैं । ऐसे बुद्धिजीवियों से देश और समाज को कम खतरा नहीं जो बुद्धि का व्यवसाय करते हैं। इन बुद्धिजीवियों की हरकतों, बयानों, विचारों और आलेखों का विश्लेषण किया जाये तो ये माओवादी कार्पोरेट नेटवर्क के बंधुआ मजदूर की तरह दिखाई देते हैं, जो दंतेवाड़ा से दिल्ली और कांकेर से कनाड़ा तक फैले हुए हैं, और जिनका एकमात्र पेशा नक्सलवादियों के पक्ष और व्यवस्था के विपक्ष में वैचारिक वातावरण तैयार करना है । </div><div align="justify"> </div><div align="justify"></div><div align="justify"><span style="font-size:0;"></span></div><div align="justify">कम से कम छत्तीसगढ़ के लोगों को बुद्धिजीविता के ऐसे तिलिस्मी रहस्यों के बारे में सोचना ही होगा अन्यथा भविष्य उन्हें माफ नहीं करेगा । </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-87329303361277970462009-11-05T19:10:00.000-08:002009-11-05T19:15:10.892-08:00पापा ! नक्सली सचमुच बदमाश हैं<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhx62DJ1EcA6BWwUhaw-D-HpSQSNzLAGQwroujfc3lz2uLCDXqOrw25jZTgpVzk8WgD4w7BfrVQb7x4fv10RBI7nuDRLGjzpVjVlg3sgyJpHqrxxOx86BbwilprYqzPDC1PtjDE/s1600-h/naxal_violence_20091003.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 214px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhx62DJ1EcA6BWwUhaw-D-HpSQSNzLAGQwroujfc3lz2uLCDXqOrw25jZTgpVzk8WgD4w7BfrVQb7x4fv10RBI7nuDRLGjzpVjVlg3sgyJpHqrxxOx86BbwilprYqzPDC1PtjDE/s320/naxal_violence_20091003.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5400823474765214610" /></a><br /><br /><br /><strong>राज्योत्सव में टंगे कुछ चित्रों के बहाने </strong><br /><br />कई बार शब्दों का अपना जादू नहीं चल पाता । वे अपने भीतर समाये हुए अर्थों को भावक या मनुष्य के मस्तिष्क तक पहुँचा नहीं पाते । पूरी पंक्तियाँ साधारणीकरण की शिकार हो जाया करती हैं । विचार के गर्भ तक पहुँचते-पहुँचते हम बोर हो उठते हैं या फिर उन मुद्रित पृष्ठों या अंशों से पिंड ही छुडा लेते हैं । शाब्दिक संचार की अधिकांश विधायें और उनके रचयिता शायद इसीलिए हमें भोथरे और प्रभावहीन लगते हैं । शायद यह भी एक कारण है जिससे छपे हुए शब्दों का असर और वास्तविक असर पाठक या भावक तक संप्रेषित हो ही नहीं पाता । पर चित्र बहुधा यथार्थ की नींव और उसके समग्र परिसर तक एक ही दृष्टि में ले पहुँचाते हैं । चित्र मस्तिष्क की ग्रहणशीलता को भी बहुआयामी बना देते हैं । शायद यही कारण था जब मेरे छोटे बेटे जो 7वीं क्लास का छात्र है ने उस चित्र देखकर मुझसे कहा था – पापा, नक्सली सचमुच बुरे हैं ! मैंने देखा उसके चेहरे पर अजीब-सी उदासी और भय की लहरें उठ रही हैं । <br /><br />यूं तो समाचार पत्रों, टीव्ही एवं अन्य माध्यमों से संसूचित होती अपनी माँ के स्वर में स्वर मिलाते हुए वह भी मुझसे कहता रहता है – पापा, पुलिस की नौकरी में क्यों चले गये ? वह भी डीजीपी के स्टाफ़ में । कभी किसी नक्सली ने मार दिया तो ? तब मैं उन्हें समझाता कि पुलिस में मेरा काम बिलकुल अलग ढ़ग का है, मारने-मरने का नहीं, और वे निराश होकर लगभग चुप हो जाते हैं । ऐसा वे तब-तब कहते हैं, जब किसी माध्यम से उन्हें नक्सलियों के सबसे बड़े शत्रुओं की सूची में छत्तीसगढ़ के डीजीपी श्री विश्वरंजन का नाम पढ़ने को मिलता है या नक्सली मुठभेड में पुलिसवालों के मारे जाने की ख़बरें छपती हैं । पर आज वे दोनों मेरा हौसला बढ़ा रहे थे । उनके चेहरे के भावों से मुझे स्पष्ट लग रहा था जैसे वे मुझसे कह रहे हों – आप बहुत सही हैं । जैसे वे कह रहे हों कि नक्सलियों के खिलाफ़ नहीं जाना कम से कम एक लेखक के लिए तो बेईमानी है । फिर आपको तो सरकार शासकीय सेवा के लिए अच्छी खासी तनख्वाह और सुविधा भी देती है । क्या सचमुच ये चित्र इतने ताकतवर हैं ? <br /><br />वाकई, ये तस्वीर बहुत ताकतवर हैं । राज्योत्सव में पुलिस विभाग के पंडाल पर लगे इन तस्वीरों को देखकर ऐसा कौन होगा जो करुणा और आक्रोश से न भर उठे । निहत्थों आदिवासियों की जघन्य हत्या से करुणा और गरीब, असहाय, कमज़ोर और दलित आदिवासियों की कथित हितनिष्ठता के नाम पर क्रांति की भ्रांति फैलाने वालों की असलियत जानकर यदि मन आक्रोश से भर उठता है यहाँ कलाकर्म की सार्थकता स्वयं सिद्ध हो जाती है । इन चित्रों में नक्सलवाद की दरिंदगी जीवंत हो उठती है । नक्सलियों के आदिवासी प्रेम और उनके हक़ के लिए कथित जद्दोजहद की पोल खुल जाती है । ये तस्वीरें चीख-चीख कर कह रही हैं कि नक्सली प्रजा और प्रजातंत्र के सबसे बड़े बैरी हैं। न इनके मन में आदिवासियों के प्रति रहम है, न उनके प्रति विश्वास और पक्षधऱता । ये तस्वीर गवाही देती हैं कि नक्सलियों का मानवीय मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है । वे किसी भी कोण से बुनियादी सुविधाओं से वंचित आदिजनों के हितचंतक नहीं हैं । वे सिर्फ़ और सिर्फ़ दिग्भ्रमित हो चुके और रोमानी कल्पनाओं में डूबते उतराते ऐसे दिग्भ्रमित समूह हैं, जिनके जीवन में सिर्फ़ हिंसा ही सबसे कारगर साधन है । नक्सली यद्यपि अपने पक्ष में समर्थन बटोरने के लिए यथास्थितिवादी, यानी भ्रष्ट, निरंकुश व्यवस्थावादियों और उनके तंत्र की न्यूनता गिनाते हैं किन्तु वे मूलतः इन तत्वों से भी कहीं अधिक निर्मम और निरर्थक हैं । जिस विचारधारा में हिंसा प्रवाहित होती हो वह कहीं से भी सर्वनिष्ठ नहीं हो सकती । जिन विचारों की में जड़ों में हिंसा और आतंक का खाद डाला जाता हो उससे मीठे फल की प्राप्ति सर्वथा असंभव है । हिंसा से व्यक्तिगत स्वार्थ तो साधे जा सकते हैं सर्वहारा और समूचे समाज को उसका खोया हुआ वास्तविक हक नहीं दिलाया जा सकता है । हिंसक साधनों से अर्जित व्यवस्था अपने हितों के लिए भविष्य में सदैव अहिंसक बनी रहे, इसकी कोई गांरटी नहीं ले सकता है । स्वयं नक्सली भी नहीं, जिनका लक्ष्य ही फिलहाल हिंसात्मक वातावरण से निजी धनार्जन है । <br /><br />मुझे लगा कि शायद मैं अति भावुक हूँ, फिर इन दिनों पुलिस की चाकरी भी कर रहा हूँ । शायद जनता कुछ और सोचती हो । क्यों ना पूछ लिया जाये इन तस्वीरों से गुज़रनेवालों आम जनों से कि वे क्या सोचते हैं ? मैं अब दर्शकों की भीड़ के बीच हूँ, उनके रियेक्शन जानने की कोशिश में। सत्तर-पहचहत्तर साल की एक ग्रामीण महिला जो अपने पोते की अगूँली थामे इन तस्वीरों को निहार रही है, कहती है – आई ददा, अब्बर अलकरहा मारे हे रोगहा । रक्सा हो गीन हें रे मुरहा मन । दूर प्रदेश बिहार, पटना से आयी सुशिक्षित महिला प्रियंका दुबे अपने पति से कह रही है – जो केवल मारधाड़ कर सकते हैं उनकी सोच नहीं हो सकती । जिनकी सोच नहीं हो सकती, वे भला मानव कैसे हो सकते हैं । मेरे पास खड़े हैं अब रायपुर, डब्ल्यू आर एस कॉलोनी के सुदीप्तो चोटर्जी । उनके चेहरे की नाराजगी साफ-साफ पढ़ी जा सकती है – वे लगभग बड़बड़ा से उठे हैं – नक्सली माओवादी होंगे ऐसा कहीं से भी नहीं लगता । माओ ने कभी यह नहीं कहा था कि गरीबों को मारो । ये केवल अपराधी हैं । सीपत की अरुणा शास्त्री गुस्से में कहती हैं – धिक्कार है ऐसे मानवाधिकारवादियों को जो मारनेवालों के नाम पर रोटी का बंदोबस्त करते हैं और मरनेवालों के लिए उफ तक नहीं कह सकते । मानवाधिकार को भी जब बुद्धिजीवी रोजी-रोटी का ज़रिया बना लें तो भगवान ही बचाये ऐसे बुद्धिजीवियों से देश को। इन चित्रों के बीच जो स्लोगन लिखा गया है – वह सबसे ख़तरनाक प्रश्न है – यह सब आपके साथ भी हो सकता है । सचमुच ये चित्र सवाल कर रहे हैं कि वास्तव में हम किधर हैं - प्रजातंत्र की ओर या नक्सलवाद की ओर ? <br /><br />नक्सलवाद बुद्धि की भ्रांति हैं । यह एक अमूर्त और असंभाव्य फैंटेसी के अलावा कुछ भी नही हैं। समानता और अधिकार के लिए इसे क्रांति कहना क्रांति की तौहीनी है । ये तस्वीर सिहरन पैदा करते हैं । कंपा देनेवाले ये तस्वीर कुछ प्रश्न भी छोड़ते हैं कि क्या समाज में संवेदनशीलता जगाने का काम भी पुलिस करेगी, सरकार करेगी ? क्या अब समाज में ऐसे लोग बिलकुल नहीं बचे जो सच को उजागर करें, जनता का मार्ग प्रशस्त करें । क्या सबकुछ भोथरे हो चुके राजनीतिज्ञों और राजनीतिक विचारों के आधार पर जनता की कथित सेवा करनेवाली पार्टियों के भरोसे छोड़ दिया जाये ? इन चित्रों में कई प्रश्न निहित हैं – आख़िर वह क्या कारण है जो मीडिया इन तस्वीरों को जनता या पाठक के सामने लाने से कतराती है ? यदि पुलिस द्वारा चलायी गयी गोली अनैतिक है तो नक्सलियों द्वारा चलायी गई गोली भी अनैतिक है । यदि कोई यह भी कहे कि बस्तर को पुलिस की कोई ज़रूरत नही है तो उसे यह भी कहना होगा कि बस्तर को किसी नक्सलियों की भी ज़रूरत नहीं । <br />भय और जुगुप्सा जगानेवाली उन चित्रों को हमारे कलाकार कब तक अपना विषय नहीं बनायेंगे जो प्रजातंत्र को धीरे-धीरे गर्त की ओर ढकेल रहे हैं ? करुणा के बिंब कब उतारेंगे हमारे साहित्यकार तब जब बस्तर पर सारे आदिवासी मारे जा चुके होंगे ? जो भी हो, पुलिस विभाग और पुलिस मंहानिदेशक श्री विश्वरंजन को लेकर मुख्यमंत्री द्वारा की गई टिप्पणी फिर से सार्थक हो उठती है कि जी, वे शस्त्र से भी लडेंगे और शास्त्र से भी ।जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-72700380971562113742009-10-14T23:15:00.000-07:002009-10-14T23:22:28.777-07:00केदारनाथ सिंह और चंद्रकात एकाग्र हेतु रचना आमंत्रण<div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgebjTu6RsHK9t90gWGMrm_sXLnddYkFFhqmf7LtEMk1h2yW-ti-D-hBAxDwigLhgNiTbqElT_TqKebWe446JPwOVScWYUIifj5ViXKOyT6LqN_Ix1J-_qKybYOewjrgZt3RGOe/s1600-h/ke.jpg"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 105px; FLOAT: right; HEIGHT: 104px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5392707417138219586" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgebjTu6RsHK9t90gWGMrm_sXLnddYkFFhqmf7LtEMk1h2yW-ti-D-hBAxDwigLhgNiTbqElT_TqKebWe446JPwOVScWYUIifj5ViXKOyT6LqN_Ix1J-_qKybYOewjrgZt3RGOe/s320/ke.jpg" /></a>
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<br /></div><div align="justify">प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा हिन्दी के प्रमुख आलोचक, कवि एवं नाटककार तथा मुक्तिबोध के मित्र प्रमोद वर्मा समग्र के सफलतम् प्रकाशन के बाद अपने समय के दो महत्वपूर्ण और सर्वमान्य कवि श्री केदारनाथ सिंह और श्री चन्द्रकांत देवताले पर केंद्रित पृथक-पृथक ‘एकाग्र’ प्रकाशन किया जा रहा है ।
<br /></div><p align="left"><span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8f7eY2oQKTslH_PZWk0nA7AY8ACYuoCjnRsQ_cXdZ8rLUGaTy9FkNFM-l_hpJO2GACmqAfIF-7PfCv55IzI9GE7J1SCd05BjK49zkqmcVUNmaBHwPNf0t0tsKRqYd3TQpdQXx/s1600-h/chandrakant.jpg"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 75px; FLOAT: right; HEIGHT: 110px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5392707424198896258" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8f7eY2oQKTslH_PZWk0nA7AY8ACYuoCjnRsQ_cXdZ8rLUGaTy9FkNFM-l_hpJO2GACmqAfIF-7PfCv55IzI9GE7J1SCd05BjK49zkqmcVUNmaBHwPNf0t0tsKRqYd3TQpdQXx/s320/chandrakant.jpg" /></a>प्रमोद</span> वर्मा स्मृति संस्थान के बैनर तले यह एक ऐसा आत्मीय प्रकाशन होगा जिसमें श्री केदारनाथ सिंह और श्री चंद्रकांत का आत्मवृत, कविताएँ, आलेख, साक्षात्कार, संस्मरण, रेखाचित्र, चित्र, पत्रावली, प्रमुख अवसरों पर दिये गये व्याख्यान, प्रमुख आलोचकों की समीक्षात्मक टिप्पणियाँ आदि समादृत होंगी ।
<br /></p><div align="justify">उक्त दोनों विशिष्ट कृतियों का संपादन संस्थान के अध्यक्ष और कवि श्री विश्वरंजन द्वारा किया जा रहा है । श्री केदारनाथ सिंह और श्री चंद्रकांत देवताले जी के रचनात्मक जीवन और कर्म के कई पहलुओं के वाकिफ़ रचनकारों, आलोचकों से उनके उल्लेखनीय प्रसंग – संस्मरण, कुछ पत्राचार और फोटो आमंत्रित किया गया है । रचनाकार हमें विशिष्ट साहित्यिक पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित सामग्री की फ़ोटोकॉपी भेज कर भी सहयोग कर सकते हैं ।
<br /></div><div align="justify">रचनाकारों से आग्रह है कि वे अपनी महत्वपूर्ण सामग्री एक माह के भीतर भेज सकें तो किताबों के प्रकाशन में विशेष सुविधा होगी ।
<br /></div><div> </div><div align="justify">रचनाओं की प्रतीक्षा होगी – इस पते पर – श्री विश्वरंजन, सी-2/15, शांति नगर, आफ़िसर्स कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़ – 492001, दूरभाष – 99815-51000, <a href="mailto:ई-मेल-srijan2samman@gmail.com"></span>-मेल-srijan2samman@gmail.com</a></div>
<br />जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-63983288274389502102009-09-24T17:24:00.000-07:002009-09-24T17:27:41.117-07:00रंगवार्ता<span class="Apple-style-span" style="font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; color: rgb(51, 51, 51); line-height: 15px; "><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;"><a href="http://www.rangvarta.com/index1.htm">रंगवार्ता</a> से गुज़रने का मौका आज मिला । यहाँ पहुँचने का एक अपना आनंद है । खा़सकर जो कला की दुनिया को जानना समझना चाहते हैं । देश विदेश की कला केंद्रों की जानकारी घर बैठे एकत्र की जा सकती है । यह वास्तव में विवध कलाओं की मासिक जानकारी उपलब्ध कराने वाली साइट है । हिन्दी में भी सुचनायें दी जाती हैं यहाँ । रंगवार्ता आपके सुझावों, सूचनाओं, रंग-गतिविधियों, समाचारों और आलेखों का भी स्वागत करने वाली मासिक पत्रिका है । आप को चिढ़ इसी बात की हो सकती है कि यहाँ प्रवेशांक ही उपलब्ध है । शेष खुद जान जायें । हो सके तो रंगवार्ता के संपादक को सुझाव दें कि वे सारे अंकों के लिए कुछ जुगाड़ बिठायें ना !</span></span>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-58448989333056685652009-09-04T23:24:00.000-07:002009-09-05T00:44:21.665-07:00फोंट परिवर्तक<div align="justify"><span style="color:#333333;">नीचे बहुत से फाँट परिवर्तकों के लिंक दिए गए हैं। ये सभी जावास्क्रिप्ट में हैं। </span><a href="http://groups.google.com/group/technical-hindi/files"><span style="color:#333333;">वैज्ञानिक एवम तकनीकी हिन्दी समूह</span></a><span style="color:#333333;"> पर जाकर इन्हें डाउनलोड करके अपने डेस्कटाप पर भी चलाया जा सकता है।</span></div><span class=""></span><br />जिस परिवर्तक को चलाना चाहते हैं उसके लिंक पर क्लिक कीजिये:<br /><span class=""></span><br /><span style="color:#cc0000;"><strong>पुराने फाँट से यूनीकोड में परिवर्तन</strong></span><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Agra%20font%20to%20unicode%20converter03.htm?gda=_Po7JFUAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDTMymhiY64dhI2-SXYY7FBmVzRkmFDkGeo6y_qvW06eVCJfD2mxLR9nxgrT1qeWLuU" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Agra font to unicode converter03</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/chanakya_to_Unicode_converter09.htm?gda=JcMt21UAAACQH9vJztoMqnBOz3Z4MVUznbA0CzCUxPuN0yoBgNF65HWu076yxvF_W6EA8GSdU9BWl3efyUZRxrf8RtOlPXv7EGGQLbzfxuHVcykv6EqzCxrtYix3qocOGWUY90Yyf_g" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Chanakya to Unicode converter09</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/DV-YogeshEN-to-Unicode%20converter06.htm?gda=R0ncIlcAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDQz5NmkNhZOSfJhTb7LhMmafjc_DCiJBsqv7ye1paGTTXyIaq1fqizPL6hbAEWC6L8" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">DV-YogeshEN-to-Unicode converter06</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/DVB-YogeshEN-to-Unicode%20converter02.htm?gda=og2A_VgAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDRPKsfoCtEePXpl1uo7Q3R0nmNm3IE8RbzAlfsW1BOIN5GMIsvyFbtvllv6M0r5usw" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">DVB-YogeshEN-to-Unicode converter02</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/DVBW-YogeshEN-to-Unicode%20converter02.htm?gda=UtsinVkAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDSiNF3E3ry0IwVP0M2JTHnEigW0RzwvsUyt4Ew7m4YLx9nXdmO7H8Danu7HSqjWq5I" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">DVBW-YogeshEN-to-Unicode converter02</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/HTChanakya-to-Unicode%20converter07.htm?gda=VulBalYAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDSBWNqZrGgaGFb4VBrU9RvZ4DTwGKTe1bw6qyuAMO5NYEjds-Zlbr_JFoKd_g78fpk" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">HTChanakya-to-Unicode converter07</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/krutidev010-to-Unicode+converter06.htm?gda=0bIbmFgAAACQH9vJztoMqnBOz3Z4MVUzx-vDAnrr49tKGhmdNuxsTboZ4o-WvKgOEoPehLypc4l6eQgAa26nF-cEh1SaXVPhQSUx-b5VnCskJ7iVMxldMBo1YHcDYvgcK1MwRk9oTs4" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Krutidev010-to-Unicode converter06</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/sanskrit99%20to%20unicode%20converter15.htm?gda=nJzpoVYAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDT54eRQL6h_r_EYXAppjEm_4DTwGKTe1bw6qyuAMO5NYIDHTBBevHxUc-WalIAHt1c" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Sanskrit99 to unicode converter15</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/shivaji%20to%20unicode%20converter05.htm?gda=fAj5s1MAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDRiUqmkFS1E8bR4M-IxSdZzE9psU2GeYcE07pRuDQBI3XWAgwrScEnwmEDnhwPN5kg" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Shivaji to unicode converter05</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Shree%20Lipi%20to%20Unicode%20Converter-13.htm?gda=EWhzZlcAAADLLxwiyJVzSsNogh2ef09AKA-7TkgDPzm_CCjnV7J5smG1qiJ7UbTIup-M2XPURDQxkKsUG7jR9uFhE81OuYv_w0f9uxNkJ0LLV6nzfLe_QUxhlD96lMGBonSgm6LSR8Y"><span style="color:#333333;">श्री-लिपि से यूनिकोड</span> </a><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span><br /><strong><span style="color:#cc0000;">यूनीकोड से पुराने फाँट में परिवर्तन :</span></strong><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode%20to%20Agra%20font%20converter03.htm?gda=Rdwvr1UAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDRyIMmqRzAgGY8hGKiDSbsel06niSHuH92NBruh7cXqPyJfD2mxLR9nxgrT1qeWLuU" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode to Agra font converter03</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode-to-Chanakya%20converter06.htm?gda=fXYb8FQAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDSOsjP-cacjTZiu-URVZ6bbo5EjkSIer9RDG1PBRguEUa0BJaInI1wn9_NKRkGsSYo" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode-to-Chanakya converter06</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode-to-DV-YogeshEN%20converter03.htm?gda=fWQa91cAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDQUq7zm0P9cum4OvBnqHj6U5CsxHp6lsTsUbbvZ1BVL62PThFaRR7QhCbx21HSOiLQ" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode-to-DV-YogeshEN converter03</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode-to-DVB-YogeshEN%20converter02.htm?gda=r_NtcVgAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDTeemhbw0CYGB9E4uPDNxEHT1HtIrLmzq10HbiJ9BOyA5GMIsvyFbtvllv6M0r5usw" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode-to-DVB-YogeshEN converter02</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode-to-DVBW-YogeshEN%20converter02.htm?gda=Uurf9FkAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDQCt1JBJrOR87M5GHUpmWSh8-21XZT7EUAMsG3AaMivXtnXdmO7H8Danu7HSqjWq5I" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode-to-DVBW-YogeshEN converter02</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode-to-HTChanakya%20converter02.htm?gda=-ZsHalYAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDTTspNoNGHOk8C9GQu6-EX87dtd0U2rrfA6CjILn4IS_5WXse60fooJchUGVndMq2M" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode-to-HTChanakya converter02</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode-to-krutidev010+converter05.htm?gda=jrqWKlgAAACvU6A81ce-VK-7mMsEVyXzn0H4aNSO1k4L8_jiRKAPPlFpn2p4dqFyrBv_aLL4HyMGsoK730gK0BvsdXSMEmptQSUx-b5VnCskJ7iVMxldMBo1YHcDYvgcK1MwRk9oTs4" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode-to-Krutidev010 converter05</span></a><br /><a href="http://technical-hindi.googlegroups.com/web/Unicode-to-sanskrit99%20converter07.htm?gda=Knneu1YAAADFzj7hE3Qcqf4oDej1ouvbHKGi2pC0qpLk3vvdBFl7XWG1qiJ7UbTIup-M2XPURDQIci8xZwIa0ibY0TYzz9S0JBTwtLSzdXPRxsuvmK4ONEjds-Zlbr_JFoKd_g78fpk" target="_blank" rel="nofollow"><span style="color:#333333;">Unicode-to-sanskrit99 converter07</span></a>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-54931346563414646482009-08-06T05:41:00.000-07:002009-08-06T06:13:29.958-07:00एक खुला खत<div align="justify">आशुतोष जी, आप इतने असंतोष क्यों है ?</div><div align="justify"><br />आशुतोष कुमार नामक किसी पत्रकार या लेखक द्वारा जनसत्ता में प्रकाशित लेख ( प्रख्यात कवि आलोचक श्री अशोक बाजपेयी के जनसत्ता 19 जुलाई, 2009 के अंक में कभी-कभार में प्रकाशित आलेख ‘सहचर की याद’ के एक वाक्य को बीज वाक्य बनाकर लिखे गये ) ‘<a href="http://dakhalkiduniya.blogspot.com/2009/08/blog-post_03.html">यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है</a>’ पढ़कर जाने क्यों, पर मुझे माओ-त्से-तुंग की ही याद हो आई जिन्होंने कभी घिसे पिटे पार्टी लेखन करनेवाले अपने साथियों से ही कहा था – </div><div align="justify"><br /><strong><span style="color:#cc0000;">“सर्वहारा वर्ग का सबसे तीक्ष्ण और सबसे कारगर हथियार है उसका गंभीर और जुझारू वैज्ञानिक रवैया । कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे लोगों को डराने धमकाने के भरोसे जीवित नहीं रहती, बल्कि मार्क्सवाद लेनिनवाद के सत्य के भरोसे जीवित रहती है, तथ्यों के ज़रिए सत्य की तलाश करने के भरोसे और विज्ञान के भरोसे जीवित रहती है । इस बात को बताने की ज़रूरत नहीं है कि पाखंड का सहारा लेकर अपने लिए शोहरत और ओहदा हासिल करने का विचार तो और भी घृणास्पद है । ”</span></strong></div><strong><span style="color:#cc0000;"><div align="justify"><br /></span></strong>वैसे उन्होंने ऐसे लेखकों पर कई आरोप लगाये थे – कि ऐसा लेखक अक्सर खोखले शब्दजाल से पन्ने भरता जाता है । कि वह जनता को जानबूझकर डराने धमकाने के लिए ख़ास अंदाज अख्तियार करता है, यह बेहद ख़राब क़िस्म के ज़हर से भरा होता है । कि उसमें उत्तरदायित्व की भावना का अभाव होता है, वह जहाँ भी जन्म लेता है जनता को नुकसान पहुँचाता है और उसके प्रसार से देश बरबाद हो जायेगा और जनता तबाह हो जायेगी। </div><div align="justify"><br />रूस या चीन में तो नहीं पता नहीं किन्तु मार्क्स और लेनिन के भारतीय चेले अभी भी यही कर रहे हैं और इस अनुक्रम में आशुतोष कुमार के लेख का जो रहस्यवाद है वह भी यही साबित करने का अर्थहीन, भ्रामक और सफ़ेद झूठ का दुर्गंध फैलाता कुप्रयास है । कुछ अर्थों में कुंद और जड़ मानसिकता का परिचायक भी । </div><div align="justify"><br />पूछें कैसे ? वह ऐसे कि न तो लेख के लेखक को “सलवा-जुडूम” की वास्तविकता का पता है न उसके इतिहास का । शब्द के भाषा-वैज्ञानिक मतलब और निहितार्थ जानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । यदि उन्हें सलवा जुडूम का जन्म किन कारणों से हुआ इसकी सही जानकारी रहती तो वे अपने लेख का शीर्षक “<a href="http://dakhalkiduniya.blogspot.com/2009/08/blog-post_03.html">यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है</a>” देने का दुस्साहस भी नहीं कर पाते । मुश्किल यह है कि सलवा जुडूम के बिषय में या तो वे उन मित्रों की बातों पर भरोसा कर के लिखते हैं जो नक्सलियों से नज़दीकी रिश्ता रखते हैं या फिर उन लोगों पर भरोसा करते हैं जो बस्तर का 4-5 दिन का दौरा कर अपने को बस्तर की समस्याओं के विशेषज्ञ मानने लगते हैं । </div><div align="justify"><br /> लेखक सर्वथा भूल जाता है कि कहीं वह ऐसा करके करोड़ों आदिवासियों की उस जन-भावना और विद्रोह को भी झूठ साबित करने की बौद्धिक चेष्टा तो नहीं कर रहा हैं जिसमें उनकी आज़ादी निहित है ? लेख की भाषा और संवेदना के आरपार देखने से यह प्रमाणित हो जाता है कि वह उस शुक की मानिंद सुनी-सुनायी या रटी-रटायी बातें की कह रहा है जो उसके अलावा कुछ भी नहीं जानता और सच तो यह भी है कि तोता जिस भाषा में बोलता है उसका मानवीय आशय भी कभी नहीं बूझ पाता । </div><div align="justify"><br />अब बस्तर के आदिवासी ऐसे सुव्यवस्थित प्रचार या संचार तंत्र से संपन्न तो नहीं जो ऐसे लेखकों को यह बता सके कि हे भले मानस, तुमने हमें इतना गया-बीता कैसे मान लिया कि छद्म हिमायती बनकर और अंततः हमारे ही तन, मन और जीवन के शोषक सिद्ध होनेवाले नक्सलियों के ख़िलाफ़ हम एकजूट भी नहीं हो सकते ? आशुतोष जैसे लेखक-पत्रकारों को यह कतई नहीं पता कि सलवा जुडूम उस सलाहकार खरगोश से अपने से दूर रहने की अपीलयुक्त विद्रोह है जो अपने भीतर बाघनखा छुपाकर आदिवासियों के बीच वर्षों से कथित हितैषी बनकर बस्तर की सारी हरियारी को चट कर जाना चाहता था । आशुतोष जैसे लेखकों के मुताबिक असलियत जानकर भी यदि बस्तर के कुछ भागों में आदिवासी नक्सलियों का साथ दे रहा है तो वह उनके आतंक और तानाशाही और बंदूक के डर के कारण ही ऐसा कर रहा है, नेक नीयत से उपजे नक्सलियों के विश्वास के कारण नहीं । जिसे आदिवासी आततायियों से मुक्ति मानता है उसे ही अपने लालचपूर्ण और छद्म स्वप्नों की पूर्ति के लिए किसी विचारधारा का कोई लेखक गलत बताता है या उसे प्रायोजित करार देकर भर्त्सना करता है तो वह आदिवासियों को गालियाँ ही दे रहा होता है । </div><div align="justify"><br />यहाँ यह भी बताना लाजिमी होगा कि लेखक को यह भी नहीं पता कि माओवाद या नक्सलवाद के भौतिक जीवन के सिद्धांत और दर्शन से आदिवासियों का मूलतः कोई लेना देना नहीं क्योंकि वह भी तो नहीं जानते कि यह दर्शन उसके विकास का अंतिम और कारगर शास्त्र है । लेखक को यह भी नहीं पता कि सलवा जुडूम उन सीधे-सादे आदिवासियों की शांतिपूर्ण जीवन की आज़ादी की गुहार है, जिसमें तथाकथित विकास एक लघु अवधारणा है । विकास का मतलब आदिवासी के लिए अशांति, हिंसा और दबाब भी कतई नहीं है । वह जल, जंगल और ज़मीन पर निर्द्वंद्व अधिकार भी यदि चाहता है तो किसी नुमाइंदे के घूरते हुए और लगभग क्रूर दिशाबोधों के बीच नहीं । </div><div align="justify"><br />यदि यह मान भी लिया जाये कि नक्सलवाद अपने मूल निहितार्थों में आदिवासियों, दलितों, पीड़ितों के लिए सुखद स्वप्नों को साकार करने का संघर्ष था और प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ख़ामियों से निपटने के लिए कथित विकल्प भी, जिसके फाँसे में आकर आदिवासियों के भी स्वप्न जाग उठे तो भी उसे हिंसक संघर्ष और अंततः आत्मघातकता में न कभी विश्वास था न कोई जातीय अभिरूचि । जिसे आधुनिक सिद्धांतकार शास्त्रीय मानवीय विकास कहते हैं उस पर तो आदिवासी का कोई लगाव भी नहीं रहा है । </div><div align="justify"><br />भूले-भटके और जानलेवा दबाबों के मध्य यदि वह नक्सलियों के साथ है तो यह उसकी विवशता है परिनिष्ठित आस्था और वैचारिक निर्णय तो कदापि नहीं। उसे यह कहाँ पता था कि कभी हित-प्रीत का मोहजाल फैलानेवाला शिकारी उसकी ही बेटी-बहनों की अस्मतें लूटने पर आमादा हो जायेगा । उसके ही अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर देगा । प्रचलित और संभावित विकास के मार्ग पर ही काँटे बिछा देगा । उसके ही धर्म-कर्म और परंपरा के खंडन की शर्त पर विकास का मंत्र रटायेगा । जीवन-लक्ष्यों की ग़लत परिभाषा को सर्वोच्च और अंतिम बनाने पर उतारू होकर उसे जबरन बंदूक थामने को विवश करेगा कि जब तक प्रजातंत्र को नहीं उखाड़ फेंकोगे – तुम्हारे विकास का सूरज उगेगा ही नहीं । पर आदिवासियों का विश्वास कभी नहीं रहा । यह दिल्ली में रहकर नहीं समझा जा सकता । वर्षों बस्तर के आदिवासियों के बीच रहने के बावजूद बैरियर एल्विन भी पूरी तरह से आदिवासियों को नहीं समझ पाये, आशुतोष कैसे समझ गये ? </div><div align="justify"><br />वैसे भी हिंसा के लिए प्रजातंत्र में कोई जगह नहीं है । हिंसा से प्राप्त लक्ष्य या राज्य व्यवस्था में इसकी कोई गारंटी नहीं कि वह फिर से हिंसक न हो उठे । जो आदिवासी पिछले चार-पाँच दशकों से इस दर्शन पर विश्वास करते रहे हैं वे भी अब जान चुके हैं कि उनके हितैषी बनने का स्वांग भरनेवाले नक्सलियों के पास विकास के नाम पर वर्तमान पीढ़ी के लिए तथाकथित शहीद होने के हसीन सपनों के अतिरिक्त कुछ भी नही है । </div><div align="justify"><br /> सलवा जुडूम मूलतः उस शोषणकारी साधनों और हिंसा के बल पर आधारित अंध व गैरजनतांत्रिक राजनीतिक दर्शन की जड़मति तंत्र से मुक्ति का आंदोलन है । वहाँ, जैसा कि समझाया जाता रहा है कि वह आदिवासियों के विरूद्ध आदिवासियों का सरकार समर्थित दमनात्मक मुव्हमेंट है, एक सफेद झूठ के अलावा कुछ भी नहीं । सच्चाई यही है कि इसके पूर्व 9 वें दशक में बस्तर में नक्सलियों ख़िलाफ़ आदिवासी एकजूट होकर आंदोलन कर चुके हैं । और सच्चाई यह भी कि तब नक्सलियों के विरूद्ध आदिवासियों का वह आक्रोश उस झूठे समझौते के शब्दजाल पर थमा था जिसमें नक्सलियों द्वारा आदिवासियों के ख़िलाफ़ किसी रणनीति की मनाही की स्वीकृति केंद्र में थी । परन्तु आदिवासियों के गाँव लौटते ही उनके करीब 300 नेताओं की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी । </div><div align="justify"><br />महत्वपूर्ण यह नहीं कि सलवा जुडूम आदिवासी अपनी अस्मिता के रक्षार्थ क्यों न चलाये और उसे हर जनतांत्रिक सरकारें अपने सुरक्षात्मक घटकों के सहारे क्यों न सहारा दे । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस समय आख़िर सलवा जुडूम का विरोध कौन लोग कर रहे हैं ? </div><div align="justify"><br />सलवा जुडूम का मतलब आदिवासी इलाकों से नक्सवादियों से अलगाव का विनम्र प्रार्थना है । एक शांतिपूर्ण अपील है कि भाई, बस अब बंद करें । हमें ऐसे पहरुए नहीं चाहिए जो हमें हिंसक बनाने पर आमादा है । जो हमें ही अपनी हिंसा का शिकार बना रहा हो । कि हमें ऐसा विकास भी नही चाहिए जिसके मूल में सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंसा है या फिर विध्वंस ही विध्वंस है । बस्तर का आदिवासी भी यह भली भाँति जानता है कि वहाँ मारा जानेवाला केवल आदिवासी है । चाहे वह किसी की गोली से मरे । </div><div align="justify"><br />सलवा जुडूम का विरोध दरअसल नक्सली ही कर रहे हैं जो नहीं चाहते कि नक्सलियों के गढ़ बस्तर से उन्हें पलायन करना पड़े । यहाँ यह बताना लाजिमी होगा कि अबूझमाड़ आज माओवादी रंगरुटों को प्रशिक्षित करने का एशिया और संभवतः विश्व के सबसे सुरक्षित ट्रेंनिंग सेंटर में से एक है । दरअसल अब तक चाहे जिस किसी भी कारण से हो, आदिवासियों की दबाबपूर्ण सहानुभूति नक्सलवाद पर थी जिसके सहारे नक्सली बस्तर जैसे गरीब और जंगली क्षेत्र में अपने पाँव पसारते रहे । यदि वही आदिवासी उनका विरोध करें, तो यह सिर्फ़ माओवादियों के लिए हानिप्रद है । यह माओवादी तथा उनके समर्थक कैसे बर्दास्त कर सकते हैं ? </div><div align="justify"><br />सलवा जुडूम को आदिवासियों का दमनकारी सरकारी प्रयास निरूपित करने वाले लेखक अक्सर यह जानबूझ कर छूपा जाते हैं कि आख़िर नक्सलवाद का एकमात्र साधन भी हिंसा, आंतक और आदिवासियों सहित शासकीय तंत्र का दमन और विरोध ही तो है । जो यह कहते हैं कि सलवा जुडूम आदिवासियों के दमन की प्रविधि है वे एक तरह से यह भी कहते होते हैं कि बस्तर के आदिवासी नक्सलियों का विरोध न करें, आम जन को नक्सलियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का कोई हक नहीं है, बुद्धिजीवी उनके प्रतिरोध में न लिखें, भले ही वे उनके हाथों लगातार मारे जाते रहें । </div><div align="justify"><br />यानी नक्सलियों की कार्यवाही अहिंसक है और आदिवासियों की कार्यवाही हिंसक ! कितना हास्यास्पद तर्क है । ऐसा दोहरा मापदंड कैसे चलेगा ? सलवा जुडूम का विरोध तभी ठीक हो सकता है जब नक्सली हिंसा त्याग दें । वे अहिंसक हुए बिना यदि सलवा जुडूम को हिंसा का साधन कहें तो यह पाँचवी पास वाले विद्यार्थी के गले भी उतरने से रहा । सलवा जुडूम के विरोध का मतलब न केवल आदिवासी प्रतिरोध का दमन है अपितु वह उस उस आदिवासी जनमत का भी विरोध है जिसके सहारे 11-11 विधायक विधान सभा में उनकी आवाज बने हुए हैं। यदि ऐसा न होता तो ऐसे नक्सली कम से कम एक विधायक तो अपनी ओर से आदिवासियों के हित के लिए विधानसभा पहुँचा चुके होते । हम सभी जानते हैं कि वे उस विकास के पक्षधर नहीं है जो निर्वाचित प्रतिनिधि के हाथों संपन्न हो । वे यह भी नहीं चाहते कि चुनाव में आदिवासी अपनी प्रतिभागिता रेखांकित करे । यानी कि सभी प्रजातांत्रिक मूल्यों, तकनीकियों और सहारों से वह दूर रहे । इसका आशय तो यही हुआ कि नक्सलवाद मूलतः प्रजा विरोधी अवधारणा है । प्रजातंत्र विरोधी अवधारणा है । </div><div align="justify"><br />यदि नक्सलवाद प्रजातंत्र के विरोध में है तो ऐसा कौन सा शासन तंत्र होगा जो उसके लिए संवेदनशील होगा ? उसे मुख्य धारा में लाने की कोशिश करेगा ? उससे संवाद कायम करेगा ? और ऐसा किस मुँह से कहा जा सकता है कि बंदूक के साथ चर्चा करे सरकार ? बंदूक साथ रखकर चर्चा केवल गुंडे, मवाली, डाकू ही करते हैं । सरकारें नहीं । यदि सरकारें यही करने को बाध्य की जाती है तो वह खुद प्रजातंत्र विरोधी साबित होती है । ऐसी स्थिति में यदि आदिवासियों के प्रजातांत्रिक उपायों को कोई भी सरकार अपना समर्थन नहीं देगी तो वह क्या करेगी। वह दमित लोगों के साथ रहेगी या दमनकारियों के साथ ? वह बहुसंख्यक जनता के साथ रहेगी या अल्पसंख्यक नक्सलवादियों के साथ ? </div><div align="justify"><br />छत्तीसगढ़ की सरकार और पुलिस यदि हिंसा के साये में जीने के लिए संशकित हो चुके 2 करोड़ से अधिक जनता के लिए जूझ रही है तो एक प्रजातांत्रिक उत्तरदायित्वों के दबाब में । यदि यही तानाशाही है तो उन 50 हजार नक्सली हिंसवादियों की गतिविधियों को क्या कहा जायेगा ? यह भी लेखकों को समझना होगा और तय भी करना होगा कि क्या वे ऐसी व्यवस्था दे सकेंगे जिसमें पुलिस की कोई आवश्यकता न हो इसलिए केवल सलवा जुडूम की आलोचना करना और सलवा जुडूम जैसे गांधीवादी मार्गों के लिए विवश हुए आदिवासियों की ओर से कहने के समय मौन साध जाना प्रजातांत्रिक दृष्टि से नक्सली होना ही है क्योंकि नक्सली यही कर रहे हैं। नक्सली केवल हिंसक होना नहीं हिंसक विचारों का अनुसमर्थन करना भी है । यदि ऐसे लेखक जो सलवा जुडूम को आदिवासियों का दमन निरूपित करते नहीं थकते तो उन्हें एकाध बार यह कहते हुए भी सुना जाना चाहिए कि प्रजातंत्र में हिंसा, दमन, आतंक के सहारे आदिवासियों का कौन सा भला नक्सली करने जा रहे हैं ? ऐसे लेखकों को इसलिए भी नक्सलवादी माना जाना चाहिए क्योंकि वे अपने विचारों से अंततः खूनी संघर्ष को प्रोत्साहित कर रहे हैं । यदि उनकी बौद्धिकता में नौकरी पेशावाले पुलिस द्वारा हिंसक नक्सलियों का दमन ही मानवाधिकार का प्रश्न है और आदिवासियों की निर्मम हत्या और शोषण नक्सलवादियों की राजनीतिक संघर्ष का परिणाम है तो भी ऐसे लेखकों को इसी श्रेणी में रखने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए । </div><div align="justify"><br />सच्चा लेखक अंधा नहीं होता । काना नहीं होता । उसे सबकुछ दिखाई देनी चाहिए । यदि वह वही देखता है जिसे किसी खास गुट के द्वारा दिखाया जा रहा हो तो वह निश्चित रूप से अविश्वसनीय है । </div><div align="justify"><br />यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि सलवा जुडूम का विरोध करने वाले और आदिवासियों के हितचिंतक बने बैठे ऐसे लेखकों ने कभी भी उन मौत के सौदागर बने नक्सलियों का कभी विरोध नहीं किया जो सलवा जुडूम से पहले भी आदिवासियों की जघन्य हत्या के बल और आंतक पर प्रजातंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा थे । तब शायद ही किसी ऐसे लेखक ने आदिवासियों के नक्सलियों द्वारा किये जा रहे मानवाधिकारों के हनन का प्रश्न उठाया हो । कभी इसे लेकर दुबले हुए हों । ऐसे लेखक को क्योंकर नक्सलवादी नहीं कहा जा सकता जो पुलिस को इंसान नहीं मानते, जो मौत के घाट उतारे जाने के लिए ही विवश नहीं है । जिस लेखन में नक्सलियो की गोली से मारे जाने वाले पुलिस के लिए कोई जगह न हो किन्तु पुलिस की गोली से मारे जाने वाले दुर्दांत नक्सलियों के लिए आँसूओं का विशाल भूगोल हो उसे नक्सली न माना जाये तो क्या माना जाये । </div><div align="justify"><br />यदि लेखक के अनुसार अप्रैल, 2008 में 'सलवा-जुडूम' के सन्दर्भ में छत्तीसगढ़ की सरकार से सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: 'यह सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का सवाल है। आप किसी भी नागरिक को हथियार थमाकर यह नहीं कह सकते कि जाओ, हत्याएँ करो! आप 'भारतीय दंड संहिता' की धारा 302 के तहत अपराध के उत्प्रेरक ठहराये जायेंगे।' तो इसका लेखक को सर्वोच्च न्यायालय के उस मार्गदर्शी राय का आशय यह भी नहीं लेना चाहिए कि बस्तर में नक्सलवाद से संत्रस्त आदिवासी अपनी आत्मरक्षा भी न करें । उनकी गोलियों के सामने अपने बहु-बेटियों, भाई-बेटों को केवल खड़ा करता चला जाये । यानी चुपचाप नक्सवाद के सामने अपने घुटने टेक दें । </div><div align="justify"><br />सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शी राय, जिसे न्यायलयीन शब्दावली में आबीटर-डिक्टा कहा जाता है वह जजमेंट नहीं होता और वह प्रकरण अभी भी न्यायालय में विचाराधीन है यह नक्सली तथा उनके समर्थक बुद्धिजीवी तथा लेखक भली-भाँति जानते हैं । इसी प्रकार यह भी झूठा प्रचार किया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने विनायक सेन को इसलिये bail पर छोड़ दिया गया क्योंकि सेन के खिलाफ़ कोई केस नहीं बनता, जबकि हक़ीक़त यह है कि आज भी सत्र न्यायालय में विनायक सेन के ख़िलाफ़ केस चल रहा है । यह तो कानून पढ़नेवाला विद्यार्थी भी जानता है कि bail देने का तात्पर्य यह नहीं कि केस ही नहीं बनता । यह सब प्रचारित कर माओवादी समर्थक सभी को गुमराह करने में लगे हुए हैं । </div><div align="justify"><br />ऐसे न्यायलीन दिशाबोधों में सिर्फ अपने मतलब की सिद्धि से नाच उठने वालों को क्या बस्तर का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? आदिवासियों का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? मानवता का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? प्रजातंत्र का हितैषी माना जा सकता है ? विकास का रास्ता तलाशनेवाला लेखक माना जा सकता है ? प्रजातंत्र की ख़ामियों के बरक्स विकास की कथित नयी दृष्टि देनेवाला लेखक माना जा सकता है ? प्रश्न यह भी कि इसका उत्तर क्या सिर्फ़ सरकारे देंगी, पुलिस ही देगी ? जनता नहीं देगी ? ऐसे लेखक नहीं देंगे? ऐसे मानवाधिकारवादी नहीं देगें ? यदि जनता के तथाकथित सरोकारों से जुड़े ऐसे लेखक सुरदासीय तत्ववेत्ता बने रहने चाहते हैं तो यह भी स्पष्ट है कि वे लेखक नहीं कलंक हैं । जन सरोकारों के समर्थन में उत्तेजित होकर उठ खड़े होने वाली एकांगी प्रतिबद्धता से वास्तविक जनविकास असंभव है । न प्रजातंत्र में, और माओवाद में तो संभव भी नहीं है । यदि ऐसा होता तो माओ लेखकों से यह न कहते किः- </div><div align="justify"><br /><strong><span style="color:#cc0000;">“सभी प्रकार की वस्तुओं पर सूक्ष्म रूप से ध्यान दो, उनका ज्यादा से ज्यादा निरीक्षण करो, और अगर आपने थोड़ा बहुत निरीक्षण किया है, तो उनके बारे में मत लिखो”</span></strong></div><div align="justify"><br />असल सवाल सिर्फ यही नहीं है कि क्या किसी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य को 'सलवा-जुडूम 'जैसा अभियान चलाने का हक़ दिया जा सकता है?असल सवाल यह भी है कि क्या संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों की निरंतरता में अभियान कौन चलायेगा ? क्या नक्सली छत्तीसगढ़ में ऐसा कर रहे हैं जिनके लिए उन्हें राज्य सरकार द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए और उनकी ऐसी संदिग्ध गतिविधियों को संवैधानिक लोकतंत्र के लिए मान्य किया जाना चाहिए ? यदि लेखकों के पास इसका उत्तर नहीं है तो वे स्वयं समझ सकते हैं कि वे किसके भाड़े पर ऐसा लिख रहे हैं ? और ऐसे लेखन का अंततः प्रभाव प्रजातंत्र में किस ओर हो सकता है ? क्या नक्सलवादी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य तंत्र को संपुष्ट कर रहे हैं ? यदि वे नहीं कर रहे हैं तो भी क्या नक्सलवादियों के जुल्म से निपटने के लिए आदिवासियों के साथ खड़े नहीं होना चाहिए ? और इस रूप में ऐसे लेखकों उस राज्य सरकारों पर भी विश्वास करना होगा जो संवैधानिक लोकतंत्र की परिधि में रहकर कार्य कर रही है । और वह इसलिए कि वे एकतरफ़ा संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों, कानूनों, हकों का लाभ नहीं उठा सकते, उसका दंभ भी नहीं भर सकते । </div><div align="justify"><br />न केवल विश्वरंजन के मुताबिक़ बल्कि 2 करोड़ जनता की दृष्टि में 'सलवा-जुडूम' के आलोचक वे नक्सली हैं, जिन्होंने तमाम मानवाधिकार संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों और जनतांत्रिक आन्दोलनों में घुसपैठ कर ली है। या यदि विशुद्ध हथियारबंद नक्सली नहीं भी हैं, तो उन्हें 'लोजिस्टिक सपोर्ट' देनेवाले हैं। संगी-साथी हैं- जैसे बिनायक सेन। विनायक सेन यदि नक्सलियों के हमदर्द नहीं होते तो उनकी जमानत पर रिहाई में समूचे बस्तर में नक्सलियों द्वारा हर्षोल्लास भरा त्यौहार जैसा माहौल नहीं मनाया जाता । इतना ही नहीं, वे कभी न कभी उन आदिवासियों के लिए भी दो आँसू ज़रूर जुटा लिये होते जिनके वे हितैषी होने का अंतरराष्ट्रीय प्रचार करते रहे हैं । </div><div align="justify"><br />'तहलका' (अँग्रेज़ी) के जिस कथित ताज़ा अंक में उन आदिवासी युवतियों के विस्तृत बयान का जिक्र करते हुए लेखक ने उनके साथ 'ख़ास पुलिस अफ़सरों'(एसपीओज़) व आम पुलिस की मदद से नृशंस बलात्कार का सवाल खड़ा किया है । इसके संबंध में लेखक की जानकारी मूलतः एकांगी और अपूर्ण है । एकांगी इसलिए कि संवैधानिक नियमों, कानूनों के तहत लगभग सभी दोषी सिद्ध हुए तत्वों को दंडित करने क प्रक्रिया जारी है । और यह बिजली के किसी स्वीच को दबाने से संभव नहीं है । जहाँ तक ऐसे नृशंस बलात्कार का सवाल है वह नक्सलियों द्वारा किये जा रहे यौन शोषण के सामने कुछ भी नहीं है । ऐसे लेखकों के समक्ष एक घटना का जिक्र करना लाजिमी होगा जिसमें नक्सलियों के यौन शोषण से प्रताड़ित और गर्भवती आदिवासी महिला ने इसलिए अपने बच्चे को जन्म देने से इंकार कर दिया क्योंकि वह अपने बेटे को नक्सली का बेटा नहीं साबित करना चाहती थी । न केवल आदिवासियों बल्कि संपूर्ण मानवता के हिमायती लेखक ऐसी घटनाओं के दौरान कहाँ चले जाते हैं, समझ से परे नहीं हैं । </div><div align="justify"><br />लेखक का लगता है किसी भी संवैधानिक तंत्र पर कोई विश्वास नहीं है । और नक्सकलियों की भी नीति है कि किसी भी डेमोक्रेटिक युनिट पर विश्वास न करो किन्तु ज़रूरत और समय की नज़ाकत के मुताबिक उनकी ताकतों का सहारा लो और कमजोरियों पर प्रहार करो । ठीक उसी तरह जिस तरह लेखक ने संवैधानिक तंत्र की दुहाई भी दिया है ठीक दूसरी ओर छत्तीसगढ़ पुलिस और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' की जाँच टीम को भी प्रश्नांकित किया है । अब नक्सलियो के सिद्धांतो, रणनीतियों के सदृश कोई लेखक भी अपने तर्कों की पुष्टि करे तो उसे क्योंकर नक्सलियों या नक्सलवाद का संरक्षक लेखक नहीं कहा जाना चाहिए ? </div><div align="justify"><br />अब ऐसे लेखकों के बारे में क्या कहा जाय जो 'फ़ोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डॉक्युमेंटेशन एंड एडवोकेसी' के उसके अध्ययन की फाईंडिंग को अपने पक्ष में प्रस्तुत करके कहे कि केवल दंतेवाड़ा के दक्षिणी ज़िले में 'सलवा-जुडूम' ने बारह हज़ार नाबालिग़ बच्चों का इस्तेमाल किया है और जो यह जानबूझकर नहीं कहता कि नक्सलियों ने बस्तर, राजनांदगाँव सहित अन्य प्रभावी क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार से नाबालिक बच्चों को घर से हकाल कर उनके हाथों बंदूक या एके राइफल थमा दिया है । लेखक को केवल वही वेबसाइट दिखाई देती हैं जो उनके पक्ष में हों, वे उन वेबसाइटों को नहीं देखते जो उनकी धज्जी उड़ाने के लिए काफी हैं । मैं इंटरनेट तकनीकी से पूर्णतः अनभिज्ञ ऐसे लेखक के प्रति क्या कहूँ तो विकीपीडिया को सर्वाधिक प्रमाणित मानते हैं । उन्हें यह नहीं पता कि यह ऐसी साइट है जिसे स्वयं पाठक ही रचता है । बहरहाल, उन्हीं के द्वारा उठाये गये मुद्दों के अनुक्रम में कहें तो 'सलवा-जुडूम' के चलते दहशत में जीनेवाले आदिवासियों की आबादी कम-से-कम डेढ़ लाख है। एक झूठ है । सच तो ऐसे लेखक भी जानते हैं कि उन्हें सलवा जुडूम की स्थिति तक लाचार बनाने नक्सलियों के कारण सारा बस्तर लगभग निर्वासित है, सांसत में है । </div><div align="justify"><br />चलें लेखक महोदय के अनुसार मान भी लें कि आदिवासी बड़े पूँजीवादी ताकतों के हाथों अपनी ज़मीन को बिकने से बचाने के लिए लड़ रहे हैं और ऐसे में जब उनकी सहानुभूति अर्जित करने के लिए नक्सली कूद पड़ते हैं तो आदिवासी उनका क्या करें ? यानी कि नक्सलियों के दबाब और पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत आदिवासी को उकसाकर और उन्हें आगे रखकर उन्हें हिंसक होने पर उतारू बना दिये जायें । इसका एक मतलब यह भी है कि प्रशासन जब कानून और व्यवस्था को अधिनियमित बनाये रखने के लिए कड़ाई करे तो उसे नक्सली आदिवासियों के दमन और मानवाधिकार का मुद्दा बनाकार भी उछाल सकें । यानी कि नक्सलियों के दोनों हाथों में लड्डू होना चाहिए । उस लेखक की वह मानसिकता और एकांगी जीवन दर्शन भी अमान्य किया जाना चाहिए जिसमें वह राज्य के बरक्स आदिवासियों को हिंसा का सहारा लेने को समुचित करार दे किन्तु यदि आदिवासी ही जब ऐसे नक्सलियों के बंदूक, बम, लैड माईन्स से मरता चला जाये या उनके आंतक, शोषण से त्रस्त होकर सलवा जुडूम के रूप में एकजूट तक न हो सके । क्योंकि उससे आदिवासी की ही हानि है । लेखक का यह कितना हास्यास्पद तर्क है कि गाँधीजी के अनुसार विराट हिंसा के सामने आत्मरक्षा के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़े तो अनुचित नहीं । लेखक को यह कब समझ में आयेगा कि नक्सलियों द्वारा निहत्थे आदिवासियों की हत्या, नवजात बच्चों का कत्ल, जवान महिलाओं का यौन शोषण, उन्हें बरगला कर माओवादी बनाना भी एक वही हिंसा है जो गांधीजी के अनुसार अमानवीय है और इस नाते वर्जनीय व निंदनीय भी । लेखक का ध्यान उधर कब तक जानेवाला है समझ से परे है । </div><div align="justify"><br />लेखक के ऐसे कुतर्क आश्रित अर्थशास्त्रीय चिंतन को पढ़कर शर्म आना लगता है जिसमें नक्सलियों द्वारा अवैध रूप से की जा रही उगाही, व्यापारियों से नियमित वसूली, आदिवासियों की शारीरिक और आर्थिक शोषण, अवैध तरीकों से खरीदे जा रहे शस्त्रों पर होनेवाले व्यय को खर्च नहीं माना जाता और ऐसे नक्सलियों से स्वयं को बचाने के लिए आदिवासियों द्वारा लगाये जाने वाले गुहार यानी सलवा जूडूम के एसपोज, विशेष सुरक्षा अधिकारी पर होनेवाले व्यय पर आपत्ति जताती जाती है । अर्थात् लेखक को इस बात की तनिक चिंता नहीं कि नक्सली किस तरह वैश्विक चैनलों से जूडकर अवैध अस्त्र-शस्त्र इकट्ठा कर रहा है । ऐसा लेखकीय द्वैध लेखक होने की बुनियादी गरिमा को ही ध्वस्त कर देता है जिसमें लेखक की यह बात समझ से परे है - सरकारी धन के व्यय पर सामाजिक आडिट की व्यवस्था हो पर नक्सलियों द्वारा स्थापित समानांतर अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ कुछ हो चाहे न हो । </div><div align="justify"><br />जो प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान और उसके पदाधिकारियों द्वारा आयोजित (10-11 जुलाई, 2009, रायपुर) राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी को राज्य सत्ता का आयोजन कहते हैं उन्हें हम यह चेताना चाहेंगे कि वे उन साहित्यकारों का अपमान कर रहे हैं जिनके बारे में वे जानते तक नहीं, और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय सृजनरत हैं । लेखक को यह गर्वोत्ति शोभा नहीं देती कि वे ही सरोकारी लेखन से जुड़े हैं शेष सब भोथरे हैं । यह लेखक का बौनापन है कि वे उसकी आलोचना करें जिसके बारे में बके जा रहे हैं उन्हें न तो साम्यवाद से कोई विशेष लेना देना है न ही गांधीवाद से । उन्हें न तो माकपा पर विश्वास है न ही भाजपा या फिर कांग्रेस आदि किसी राजनीतिक विचारधारा से । सिर्फ़ समवाय संस्कृति और साहित्य के लिए । ऐसे आग उगलनेवाले साहित्यकार को कोई अधिकार नहीं कि वे किसी अन्य संस्था पर कीचड़ उछालें । कीचड़ पर पैर डालने से कीचड़ ख़ुद की क़मीज की सुफैदी को भी मैला कर देता है यह भूलाना एक लेखक के लिए कम से कम अधर्म है । अनैतिकता है । अमर्यादित चेष्टा है । शायद ऐसे टेबिल राइटिंग करनेवाले ऐसे पत्रकारनुमा लेखकों को यह भी नहीं पता होता कि उनसे हजारों, सैकड़ो कोसों दूर का साहित्यकार किस मानसिकता का है, किन विचारों का है, किसके पक्ष में है और किसके विरोध में है । जो लोग ऐसा सोचते हैं वे लोग यह भी तय मानते हैं कि लेखन सिर्फ़ विचार है । वह किसी एक वर्ग या समुदाय की हितों के प्रति प्रतिबद्धता है । शेष जाये भाड़ में..... । शेष को हाशिए में रखकर निष्कर्ष देनेवाले को तानाशाह कहा जाता रहा है यह भी कौन याद कराये ऐसे पार्टीलेखकों को ।<br /><br />यह आशुतोष जैसे दूरदर्शक लेखक का दोष नहीं है जो न तो विश्वरंजन के बारे में जानते हैं न ही बस्तर के बारे में, सलवा जूडूम के बारे में तो कतई नहीं जानते । शायद वे इसीलिए प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष (न तो स्वयंभू, न ही राज्य सरकार के किसी किसी विभाग द्वारा बिठाये गये, बल्कि राज्य के लगभग सभी बड़े साहित्यकारों की कार्यकारिणी द्वारा चयनित ) के बारे में अनर्गल प्रलाप करते हुए उन्हें पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़ से जोड़ देते हैं । चीज़ों को मिक्सअप करके देखना शायद उनके लिए अपनी बात मनवाने का सरलीकरण जैसा है । </div><div align="justify"><br />आशुतोष की यह दोष तो माफ करने योग्य भी है कि वे सलवा जुडूम के रणनीतिकार के बारे में जानते ही नहीं तो क्यों न विश्वरंजन या किसी को भी कुछ भी अनाप शनाप गाली न बक दें । क्योंकि उन्हें नक्सलियों के स्थानीय हितचिंकतों द्वारा जैसा सिखाया-पढ़ाया जा रहा है वह वैसे ही तो बोलेंगे । जो भी हो, आशुतोष जैसे लेखक की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि वे कम से कम यह सच तो स्वीकार करते ही हैं कि विश्वरंजन केवल पुलिस अधिकारी नहीं है, एक विचारवान लेखक भी हैं, जिनकी प्रजातंत्र को बचाने के लिए लेखन पर गहरी आस्था भी है । यह तो ठीक है कि किन्तु आशुतोष जैसे दया के पात्र लेखक को जाने क्यों, मुक्तिबोध के परम मित्र और सच्चे अर्थों में उन्हें मुक्तिबोध बनाने वाले आलोचक प्रमोद वर्मा, उनके नाम पर बनने वाले संस्थान, उनके पदाधिकारी साहित्यकारों, अपने पूर्वजों को याद करने के संघर्ष और आस्था और उनके नाम से होनेवाले साहित्यिक आयोजन से एलर्जी है, जो उसकी कुढ़कर निंदारस ले रहे हैं । शायद इसलिए कि वे या उनके मति से जो हो वही साहित्यिक है शेष असाहित्यिक । वे ही मनुष्य और उसकी संस्कृति के संरक्षक हैं शेष अमनुष्य और संस्कृति-भक्षक । यार अपनी दुकान पर विश्वास करो ना, क्यों दूसरे की समृद्धि देखकर अपनी नींद खराब करते हैं । फिर न तो आपको बुलाया गया है न कभी बुलाने के योग्य आप हो पायेंगे, क्योंकि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के आयोजन में आप जैसे कुंठित और कथित लेखकों के लिए कोई जगह है भी नहीं । हाँ आप चाहें तो जिसको भड़का सकते हैं, भड़काते रहें । हम अशोक बाजपेयी की दिल्ली से यदि दिल्ली दर्प दमन जैसा कोई काम कर रहे हैं तो आपको अपनी दिल्लीवाली किले को और अधिक मजबूत बनाने की दिशा में लगना चाहिए न कि खिसियानी बिल्ली की तरह खम्भा नोंचना चाहिए । यदि आपको माओ भाते हैं तो गाते रहिए । व्यक्तिगत आपेक्ष क्यों लगाते हैं संस्था पर । किसी राज्य पर । किसी राज्य की आस्था पर । लेखकों की निजी अवधारणाओं पर । </div><div align="justify"><br />आप अपने सामान्य ज्ञान को जरा दुरुस्त करने के अंहकार से मुक्त हों तो बताऊँ कि महानुभाव, सलवा जुडूम की शुरुआत और विस्तार के समय विश्वरंजन न तो राज्य में पदस्थ थे न ही वे पुलिस महानिदेशक थे । इसलिए वे इसके रणनीतिकार भी नहीं है । जैसे आपको सलवा जूडूम में बुराई दिखती है और विश्वरंजन को अच्छाई तो यह निजी आप लोगों का विचार है । आप बस्तर के निवासी या राज्य के निवासी तो है नहीं कि पूरी तरह जान सकें कि आप जिस गिलास को देख रहे हैं वह आधा खाली है या आधा भरा हुआ । आइये दो चार साल बस्तर या छत्तीसगढ़ का निवासी बनकर देखिए, फिर बस्तर की किसी चीज़ पर बकिये.... । आपको किसी ने दूरवाला ढोल पकड़ा दिया तो उस पर मत जाइये कि वही सुहावन लगेगा । </div><div align="justify"><br />यह तो हमें आपसे ही पता चला कि आप जैसे लोग हिन्दी के बड़े कवि-लेखकों को समारोहों में जय-जयकार करने के लिए बुलाते हैं । अब मै आपकी मूर्खता पर क्या कहूँ कि जब आप आयोजन में ही नहीं कि किसने किसके सूर में किसे लांछित करने के लिए सुर मिलायेंगे । लगता है आप माओवादियों से अधिक कुंठित हो चुके हैं जो यह कह रहा है कि विश्वरंजन को अपनी रणनीति की कामयाबी पर गर्व क्यों न होगा! आप ईर्ष्यालु टाइप के इंसान हैं जो हमें यानी कि संस्थान के सभी पदाधिकारियों को मूर्ख और स्वयं को परम विद्वान और परम दृष्टा समझते हैं । </div><div align="justify"><br />मूझे आपकी टिप्पणी पर तरस आता है कि साहित्यिक संस्थान के अध्यक्ष के कर्मक्षेत्र में पुलिस प्रमुख हो जाने मात्र हो जाने से संस्थान पुलिस प्रमुख का दलाल हो जाता है । राज्य का दलाल हो जाता है । जिस कोकिया भय से आप दुबले हुए जा रहे हैं। इसका मतलब तो यही हुआ कि यदि आप किसी लेखक संगठन के प्रमुख हों और आपको कोढ़ है तो सभी को कोढ़ हो जायेगा । क्या आप बताना चाहेंगे कि आपके ऐसे कितने मित्र पुलिस या सेना में नहीं है और जो पुलिस या सेना के कथित अत्याचार से अधिक अत्याचार अपने पत्नी, परिवार, समाज, देश के साथ कर रहे हैं । क्या आप यह भी बताना चाहेंगे कि आपके ऐसे कितने मित्र लेखक पुलिस में हैं जिन्हें पुलिस में नहीं होना चाहिए तो क्या आपने उनसे इस्तीफा लिवाया ? या वे इस्तीफा देंगे ।<br /><br />मित्र औरों पर थूकना छोड़ो, अपना काम देखो, आपका हम साहित्यकारों पर यह इल्जाम किसी भी कोण से फबता नहीं है । फिर आप कब से हमारे विरोधी हो गये जिसकी पाइप लाइन काटने के लिए राज्य के हम साहित्यकार सांस्कृतिक सलवा जूडूम चला रहे हैं । और आपको कैसे पता चल गया कि अमूक हमारा सहयोगी है, इसका मतलब तो यह भी हुआ कि वह आपका विरोधी है । और आपका काम केवल विरोध करना ही है । अपने खोल से बाहर निकलिए, दुनिया को देखिये, दुनिया की गति को देखिये, यदि दुनिया की गति को नहीं देखेंगे तो पिछड़ जायेंगे, क्योंकि यदि आपके जीवन मे गति ही नहीं रह जायेगी तो फिर वहाँ क्या बचेगा । माओवादी के देश में भी गति को पकड़ी जा रही है और आप हैं कि वही पुराना राग अलापे जा रहे है......</div><div align="justify"><br /> </div><div align="justify"> </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-69890982698790620992009-07-16T01:54:00.000-07:002009-07-16T02:14:32.488-07:00आलोचक श्री पंकज चतुर्वेदी को खुला पत्र<div align="justify">प्रिय पंकज चतुर्वेदी जी,<br /><br />आपका ई-पत्र, जो प्रमोद वर्मा संस्थान के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन के नाम संबोधित है, उन तक पहुँच दी गई है । मैं आपको उनकी ओर से नहीं अपितु निहायत निजी तौर पर अपनी ओर से ( संस्थान के कार्यकारी निदेशक होने के नाते भी ) आपके पत्र के परिप्रेक्ष्य में कुछ बातों को स्पष्ट करना चाहूँगा । शायद शेयर करना भी होगा यह । </div><div align="justify"><br />जैसा कि आपने भी लिखा है कि <strong><span style="color:#ff0000;">“आप (यानी विश्वरंजन) सार्थक तथा उदात्त चिन्ताओं से प्रेरित होकर यह अहम् संगोष्ठी करा रहे हैं ।” </span></strong>इसमें न तो किसी को कोई शक़ था, न है, न रहेगा । संस्थान की ऐसी चिंताओं के पीछे उनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता भी रही है और भविष्य में भी रहेगी । वैसे अब तो आयोजन संपन्न हो चुका है और उसके सार्थक निष्कर्षों की अनुगूंज लेकर देश और छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार जा चुके हैं। </div><div align="justify"><br />आपने अपने संस्थान की ऐसी सोच और दृष्टि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है, यह कहकर कि आप जैसे अदना लेखक को इसमें आमंत्रित करने लायक समझा गया, हम आपके प्रति और आपके द्वारा उन चिंताओं के सहकार बनने हेतु रायपुर आने के लिए कराये गये रिज़र्वेशन्स (किन्तु रायपुर नहीं आने के बावजूद) में लगे श्रम, समय और संभावित जद्दोजहद के लिए आभार प्रकट करते हैं । </div><div align="justify"><br />आभार इसलिए कि आप भी संस्थान (और संस्थान के अध्यक्ष होने के नाते निजी तौर पर विश्वरंजन जी सहित संस्था के सभी हम सदस्यों ) की चिंताओं से सहमत हो चुके थे और देश के एक क्रियाशील युवा आलोचक होने के नाते संगोष्ठी (10-11 जुलाई, 2009, रायपुर) में आने की पूरी तैयारी कर चुके थे । जिसका ज़िक्र आप आयोजन के कुछ दिन पहले तक मोबाइल पर होती रही चर्चा के दरमियां भी करते रहे थे । इसका एक मतलब हम क्या यह भी नहीं निकाल सकते कि चर्चा के दौर तक आपको ऐसी कोई जानकारी नहीं थी कि आपको आमंत्रित करनेवाले विश्वरंजन वही हैं जिनके बारे में आपको अब ऐसा लिखना पड़ रहा है कि....</div><div align="justify"><br />जैसा कि आपने उक्त पत्र में लिखा है कि –<span style="color:#ff0000;"><strong> “6 जुलाई, 2009 को सहसा मेरी नज़र हिन्दी पाक्षिक 'द पब्लिक एजेंडा' के 8 जुलाई, 2009 के पृ. सं. 13 पर छतीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक के तौर पर प्रकाशित आपके ( विश्वरंजन) साक्षात्कार पर गयी और इसे पढ़कर मैं इतना विचलित हुआ कि मुझे उपर्युक्त संगोष्ठी में हिस्सेदारी करने का अपना फ़ैसला रद्द करना पड़ा और रायपुर आने के अपने रेलवे रेज़र्वेशन्स भी। कृपया इस असहयोग के लिए मुझे क्षमा करेंगे और मेरी वैचारिक असहमति को हरगिज़ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं ग्रहण करेंगे !”</strong></span></div><div align="justify"><br />चूँकि प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में आपके आमंत्रण, आगमन की सुनिश्चितता और लगातार संपर्क के मध्य विश्वरंजन नहीं अपितु सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही था, विश्वरंजन ( सामान्य विश्वरंजन या पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ) कदापि नहीं । ऐसा मैं इसलिए भी कह पा रहा हूँ क्योंकि आपके नाम का सुझाव मैंने ही दिया था । मुझे नहीं पता कि इससे पहले विश्वरंजन आपके आलोचक को जानते रहे हैं । पर इतना तो है कि आपके नाम को प्रस्तावित वक्ता के रूप में रखने के बाद से आपके आलोचक होने से परिचित हो चुके थे । </div><div align="justify"><br />अतः पुनः निजी तौर पर मैं (आपकी विनम्र भाषा में ही एक अदना लेखक होने और संस्थान के कार्यकारी निदेशक होने के नाते भी ) आपके इस तरह विचलित होने पर यही कहना चाहूँगा कि आपका असहयोग विश्वरंजन के प्रति ही नहीं है, उस समूचे संस्थान के प्रति है, उन सारे सदस्यों की उस आस्था के प्रति भी असहयोग है जिसमें आपको एक नीर-क्षीर विवेक कर्म वाले आलोचक मानने की निर्मल भावना भी सम्मिलित है । दरअसल आपका यह असहयोग उस विश्वरंजन के प्रति नहीं है जो एक इंसान है, संवेदनशील कवि है, देश का प्रतिष्ठित ईमानदार पुलिस अधिकारी है, फ़िराक गोरखपुरी का नाती है, प्रमोद वर्मा जैसे बड़े आलोचक और कवि का मित्र है और लगभग शिष्य भी और इतना ही नहीं ऐसे भूलने-भूलानेवाले दौर में अपने पूर्वजों, इतिहासपुरुषों को याद करने की जद्दोजहद और चुनौती से मुठभेड़ करनेवाले भी । </div><div align="justify"><br />दरअसल आपका यह असहयोग उस “सलवा जुडूम” के प्रति है, जिसकी एकांगी तस्वीर आप तक पहुँचायी गयी है या आप उसका वही मायने समझते हैं या समझना चाहते हैं और जैसा कि आपने लिखा भी है - 'सलवा जुडूम' सरीखी सरकार द्वारा संरक्षित, पोषित और संचालित, साधनहीन, विपन्न और अत्यंत सामान्य मानवाधिकारों से भी महरूम आदिवासियों का दमन करनेवाली संस्था का बेझिझक और सम्पूर्ण समर्थन करते हैं, जो मेरे जैसे लोगों के लिए एक बहुत तकलीफ़देह मामला है ।” </div><div align="justify"><br />क्षमा करें चतुर्वेदीजी, यह सर्वथा झूठ और भ्रामक धारणा है जो प्रायोजित तौर पर सारे देश और दुनिया में फैलाया गया है । आप स्वयं समझ सकते हैं - बार-बार बोला गया झूठ अंततः सत्य में तब्दील हो जाता है पर वह सत्य तो होता नहीं है । यह हमारे राज्य की माटी के प्रति भी अपराध है । हमारे लोगों के विचारों का भी दमन है । और यह दमन है तो वह भी हिटलरी वृति है । विचारों की हत्या को मैं और शायद आप भी इसी तरह देखते होंगे....</div><div align="justify"><br />ऐसा वे लोग कहते हैं जिन्हें बस्तर के आदिवासियों के जीवन-संघर्ष का इतिहास मालूम नहीं है, जिन्हें आदिवासियों का आक्रोश पसंद नहीं है, जिन्हें उनके वास्तविक शोषकों का वास्तविक चेहरा दिखाई नहीं देता, जिन्हें माओवादी नक्सलियों की धूर्ततापूर्ण संवेदना और सहानुभूति से मतिभ्रष्ट और अब संत्रस्त आदिवासियों की नयी उम्मीद पर विश्वास नहीं है । यदि आप और हम नक्सलवाद के मूल में आदिवासियों, दलितो, ग़रीबों के विकास की धीमी गति, प्रशासनिक भ्रष्ट्राचरण, आसराहीन व्यवस्था को मानते हैं तब तो इन नक्सलियों द्वारा पिछले 30-40 वर्षों में बस्तर या अन्यत्र कहीं के भी ऐसी अविकसित, पिछड़े, दलित, दमित, शोषित जनता के विकास के लिए वह सब देखते जैसा कि माओ ने देखा था या मार्क्स ने । क्या आपके पास ऐसा कोई उदाहरण है जिसे देखकर आप संतोष व्यक्त कर सकें कि प्रजातंत्र का विकल्प बनने की दक्षता माओवाद में है ? या वे उनके वास्तविक हितैषी थे, हमदर्द थे । यदि ऐसा होता तो निश्चित रूप से ऐसे माओवादियों द्वारा बस्तर में आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल बनवाये जाते, शौचालय बनाये जाते, अस्पताल बनाये जाते, दुर्गम गाँवों तक पहुँचने के लिए रास्ते बनाये जाते, उनके लिए उनक वनोपज का विपणन किया जाता, उनकी मज़दूरी का वास्तविक भूगतान कराया जाता आदि-आदि.... नक्सलवाद यदि शोषितों, पीड़ितों, दलितों, वंचितों के लिए है तो भी उनके लिए नक्सलवादियों या उनके अनुयायियों, बौद्धिकों ने इस दिशा में क्या-क्या किया है, इसका हिसाब क्या नहीं माँगा जाना चाहिए ? </div><div align="justify"><br />मैं नहीं जानता कि आप सलवा-जुड़ूम के बारे में कितना जानते हैं, कितना जानने की चेष्टा करते रहे हैं और कितना जानने की चेष्टा भविष्य में करते रहेंगे और जानने के बाद भी किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के संजाल से स्वयं को मुक्त भी नहीं करना चाहेंगे, यद्यपि जिसकी संभावना शून्य भी हो सकती है । </div><div align="justify"><br />मित्रवर, ( संबोधन की ऐसी अनुमति तो आप शायद दे ही सकते हैं) सलवा जुड़ूम साधनहीन, विपन्न अत्यंत सामान्य मानवाधिकारों से भी महरूम आदिवासियों का दमन करनेवाली संस्था नहीं बल्कि आदिवासियों द्वारा उन्हें छलपूर्वक पहले हितैषी बनाने और एक निश्चित अवधि के बाद अब उनपर उन्हीं के द्वारा होनेवाले अत्याचार, अनाचार से मुक्ति का आंदोलन है । धोख़ेबाज़ मित्रों के ख़िलाफ़ आक्रोश है । शांतिपूर्ण जीवन की माँग है । इसकी शुरुआत दंतेवाड़ा के आदिवासी सरपंच, जनप्रतिनिधि और सामान्य नागरिकों, युवाओं ने की थी कि उन्हें शांति चाहिए, मुक्ति चाहिए । आख़िर किससे ? आख़िर किसलिए ?<br />सिर्फ़ और सिर्फ़ उनसे मुक्ति का जनांदोलन है, जो नक्सली उनका शोषण करते हैं, जो नक्सली उनकी माँ-बहिन की सरे आम इज्जत लूटते हैं, जो नक्सली उनके देवी-देवताओं, उनकी प्रथा-परंपराओं, निजी मान्यताओं, जीवन-दर्शन की निंदा करते हैं, जो नक्सली उनसे बेगारी कराते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों की पाठशाला, चिकित्सालय, पंचायत भवन को ध्वस्त कर देते हैं, जो नक्सली उनके ग्राम में बनने वाली सड़क को खोद कर रास्ता उन्हें चारों ओर से बंद कर देते हैं, जो नक्सली उन्हें प्रजात्रांतिक तरीक़े से सत्ता में भागीदार बनने से वंचित करते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों तक रोशनी पहुँचानेवाले बिजली टॉवर और टॉवर उड़ा देते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों में होनेवाले विकास कार्यों का विरोध करते हैं, जो नक्सली ऐसे क्षेत्रों में पदस्थ सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों से अपने कथित क्रांतिकारी आंदोलन के लिए चंदा लेते हैं, जो नक्सली बड़े पूँजीपतियों को बस्तर में व्यापार करने देने के लिए मासिक उगाही पर परमिट जारी करते हैं, जो नक्सली जंगल के ठेकेदारों से थैली लेकर अपनी जेबें भरते हैं, जो नक्सली सबसे पहले उन्हें प्रचलित प्रजातांत्रिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ दूसरी व्यवस्था (जाने कौन सी ?) को सर्वोच्च और अंतिम बताते हैं, व्यवस्थागत ख़ामियों के ख़िलाफ़ भड़काकर अंतिम रूप से सिर्फ़ हिंसा या ख़ूनी क्रांति से आज़ादी के लिए संघर्ष का पाठ पढ़ाते हैं, जो नक्सली उन्हें गाँव से हकालकर पुलिस और अर्धसैनिक बल से युद्ध या मुठभेड़ के समय आगे करके स्वयं को सुरक्षित रखते हैं, जो नक्सली अपने संघम् सदस्यों ( ग्रास रूट पर माओवादी हिंसक गतिविधियों को संचालित करने वाले कार्यकर्ता ) की मृत्यु पर भाड़े के बुद्धिजीवियों से देश-विदेश में मानवाधिकार का मुद्दा उछलवाते है किन्तु निरीह, निर्दोष और निरपराध आदिवासियों के मारे जाने पर पूर्णतः चुप्पी साध लेते हैं, जो नक्सली अपनी बात नहीं माननेवाले ग्रामवासियों को बीच बर्बरतापूर्वक बस्ती में गला रेत देते हैं, जो नक्सली भारतीय कानून का विरोध करते हैं दूसरी ओर एकतरफ़ा मानवाधिकार के नाम पर व्यवस्था के अंगों को बदनाम करने के लिए उसी कोर्ट का शरण लेते हैं, जो नक्सली चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका से अवैध अस्त्र और शस्त्र इकट्ठा करते हैं, जो नक्सली बड़ी मात्रा में जाली नोट और मादक द्रव्यों से भारी भरकम राशि इकट्ठा करते हैं, जो नक्सली चित्त और पट्ट दोनों को अपना मानते हैं । </div><div align="justify"><br />चतुर्वेदी जी, सलवा जुडूम वर्तमान सरकार की कोई योजना नहीं है, उसे किसी भी विभाग की कल्याणकारी योजना में सम्मिलित नहीं किया गया है जिसके लिए कोई शासकीय या गैर शासकीय अधिकारी अमला का प्रावधान रखा गया हो, कोई शासकीय बजट आबंटन रखा गया हो । आप एक सरकारी आदमी होने के नाते इतना तो जानते ही होंगे कि बिना योजना, बिना अमले, बिना बजट के कुछ भी काम सरकार में संभव नहीं होता । </div><div align="justify"><br />आप भारी ग़लतफ़हमी के शिकार हैं कि सलवा जुडूम सरकारी योजना है जिसे माओवादियों ने निपटने के लिए राज्य सरकार ने शुरू किया है । भाई मेरे, इसे न तो किसी राज्य सरकार ने शुरू किया है, न तो पुलिस मुखिया होने के नाते विश्वरंजन ने और न ही किसी अन्य ने । काश, देश की बड़ी-बड़ी राजधानियों में बैठे-बैठे लाखों-करोड़ों का अनुदान झपटनेवाले और जनपक्षधर होने का स्वांग भरनेवाले ऐसे समाजसेवी कभी बस्तर में ऐसी जनचेतना फैलाये होते, जिससे उन्हें आततायी के विरूद्ध उठ खड़े होने की हिम्मत जागती । काश, स्वयं बस्तर में रहकर आदिवासियों के जागरण का बीड़ा उठानेवाले स्वयंसेवी संस्थायें ऐसा कुछ कर पातीं जिससे नक्सली उनके नेता नहीं बन पाते और आज ऐसी नौबत भी नहीं आती । आप इससे तो सहमत होंगे । माना कि पचास-साठ साल से सारी प्रजातांत्रिक सरकारें बस्तर के विकास में निकम्मी साबित हुईं और उधर आदिवासियों में भी अपने विकास, अधिकार के प्रति जागरूक नहीं थी कि वे सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पाते ।<br /><br />यदि आप माओवाद को विकासहीनता से उबरने का क्रांतिकारी रास्ता मानते हैं तो आपको यह भी गारंटी लेनी होगी कि कहीं आप तो उसके मार्ग में रोड़ा नहीं अटका रहे हैं । आप उसके विकास के कितने आयामों पर संघर्षरत हैं, यह भी देखना होगा और इसे कौन देखेगा ? अंततः वही आदिवासी जनता ना !, यदि ऐसा हो सका होता तो बस्तर के आदिवासी आज निश्चित रूप से अपने विकास के उस पायदान पर खड़े हुए होते, जिसकी अपेक्षा माओवादी विचार पर विश्वास करनेवाले आज कर रहे हैं । और संभव है वहाँ के माओवादी आदिवासी विधानसभा, जिला पंचायत, ग्राम पंचायत आदि गणत्रांतिक संस्थाओं में पहुँचकर विकास के पुरोधा भी बन चुके होते । बस्तर का विकास रच रहे होते । </div><div align="justify"><br />क्या, उन्होंने बस्तर के आदिवासियों को सत्ता में भागीदारी का पाठ पढ़ाया ? माओवादियों ने ऐसा कभी नहीं किया । दरअसल यह उनका लक्ष्य ही नहीं है । कानू सान्याल के शब्दों में कहें तो नक्सलवाद पूरी तरह दिशाभ्रष्ट हो चुका है, वह हिंसक और विध्वंसक हो चुका है, ऐसा उनका सपना नहीं था, जो जनविरोधी हो उसे क्योंकर नक्सलवादी माना जाये । दरअसल माओवाद का लक्ष्य प्रचलित प्रजात्रांतिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनआक्रोश पैदा करना, उस जनआक्रोश के सहारे जनतांत्रिक अंगों को अनुपयुक्त साबित करना और हिंसक लोगों के सहारे माओवादी शासन स्थापित करना है । </div><div align="justify"><br />आपने तो सुन ही रखा होगा कि बस्तर में माओवादियों की पृथक सरकार है जो जैसा चाहे वैसा निर्णय लेती है । यदि आप उनके अनुयायी हैं तो आपको जान की मोहलत । यदि आप उनसे सहमत नहीं है तो बीच बाज़ार आपकी गला रेंत दिया जायेगा । भोले-भाले आदिवासियों को बंदूक पकड़ाकर ऐसे माओवादी कौन-सी प्रजात्रांतिक गतिविधियाँ संचालित कर रहे हैं बस्तर में ? आपने भी सुना होगा कि अब तो हद पार करके बस्तर के आदिवासियों के छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में हथियार थमाया जा रहा है । जिन परिवारों से एक बच्चा नहीं दिया जा रहा है उन्हें माओवादी सरे आम पिट रहे हैं, हत्या कर रहे हैं । आप बताना चाहेंगे ये कौन-सा समाज गढ़ना चाहते हैं ? आप बताना चाहेंगे ये दुनिया को किधर ले जाना चाहते हैं ? क्या आप यह भी बताना चाहेंगे इसमें किसी भी प्रकार का मानवाधिकार का हनन नहीं होता ? यदि आप जैसे आलोचक के पास इसका उत्तर नहीं है तो इस महादेश के ऐसे समय, परिस्थिति का मूल्याँकन कौन कर पायेगा ? </div><div align="justify"><br />चतुर्वेदी जी, बस्तर में सलवा-जुडूम भोले-भाले आदिवासियों के उस विचार का समर्थन है जिसमें माओवादी और बर्बर हो चुके नक्सलियों से मुक्ति और शांतिपूर्ण जीवन की आंकाक्षा निहित है । यदि आपके पास भी कोई किसी आततायी से निपटने के लिए मदद माँगने आये तो ज़ाहिर है आप भी मदद करेंगे । बस्तर में आदिवासी पिछले कई दशाब्द से नक्सलियों से त्रस्त हैं । आप इतना तो जानते हैं । नहीं जानते तो मुझे माफ़ करें । मैं उस नैतिकता की भी याद दिलाना चाहूँगा जिसे न आप-हम छोड़ सकते हैं और जिसे हर सरकारों को याद रखना चाहिए । क्या कोई सरकार इतना अनैतिक हो जाये कि वह हिंसा के ख़िलाफ़ मदद माँगनेवाले निहत्थे के साथ खड़ा भी न हो सके, उन्हें मदद भी न करे और उस मदद में राज्य पुलिस का मुखिया होने के नाते विश्वरंजन का समर्थन हो तो उसे बुरा मान लिया जाये । और मित्र, यदि सीधे-सरल आदिवासी अकारण जान लेनेवाली नक्सली तानाशाही के ख़िलाफ़ हथियार पकड़कर भी उठ खड़े हों तो आप या हम कौन होते हैं जो उन्हें ऐसा करने से रोकें ? बस्तर के आदिवासी नक्सलियों को खदेड़ना चाह रहे हैं, आदिवासियों को नहीं । यदि ऐसे नक्सली आदिवासी हैं तो यह उनका दोष है । आप अपने भाई के हत्यारा हो जाने पर माफ़ कर सकते हैं, दोबारा हत्या करने पर मुँह छुपा सकते हैं किन्तु पता चला कि वह आपको ही हत्या करने के लिए उतारू हो जाये तब आप क्या करेंगे ? आदिवासी यदि सलवा जुडूम के माध्यम से नक्सलियों से कह रहा है कि बस्स, बहुत हो चुका, हमें आपकी भी व्यवस्था नहीं चाहिए तो उसे ऐसा कहने का अधिकार है । इस अधिकार से उसे वंचित करने नीयतवालों को क्या कहा जाये, यह आप ठंडे मन से सोचें तो आपकी आत्मा अवश्य उसका जवाब दे देगी......</div><div align="justify"><br />सलवा जुडूम को आदिवासियों के ख़िलाफ़ अभियान मान बैठने या मनवाये जाने के निहितार्थों और ख़तरों को भी हमें समझना होगा जैसा कि छद्म मानवाधिकारवादी इन दिनों करते देखे जा रहे हैं । क्या आप यह भी जानना नहीं चाहेंगे कि सलवा जुडूम का प्रतिरोध आख़िरकार क्यों किया जा रहा है ? किन लोगों के द्वारा किया जा रहा है और इससे उन्हें क्या मिलनेवाला है ? सलवा जुडूम का विरोध बस्तर के आदिवासी नहीं कर रहे हैं । सलवा जुडूम का विरोध दरअसल उन बुद्धिजीवियों के द्वारा भी नहीं किया जा रहा है जो हर उस आदिवासी के मानवाधिकार के हनन पर भी आँसू बहाते हैं या संघर्ष करते रहे हैं । यदि मानवाधिकार सच्चाई है और समय की माँग है, मनुष्य को मनुष्य की तरह जीने का वातावरण देने का मुद्दा है तो आख़िर वे बस्तर उन निरीह आदिवासियों की आवाज़ क्योंकर नहीं बनते, जो माओवादियों के हाथों अपनी जान गँवाने को लाचार हैं? क्या माओवादियों की बस्तर राजनीतिक तानाशाही, निर्मम हत्या, लूटपाट, बलात्कार, सार्वजनिक तंत्र का सत्यानाश पर किसी प्रकार का कोई भी मानवाधिकार नहीं बनता । माओवादी हिंसा करें तो वह सामाजिक क्रांति है और आदिवासी उनसे बचने के लिए आंदोलन करें तो वह मानवाधिकार का प्रश्न है, ऐसा कैसे हो सकता है ? सलवा जुडूम के विरोध के पीछे दरअसल वह रणनीति है जिसमें माओवादियों के किलों, गढ़ों, परकोटों की चूलें हिल चुकी हैं । आप जानते ही हैं, वे बस्तर में इन्हीं आदिवासियों के सहारे अपना पैर जमाये हुए हैं । और शायद इसलिए कि आदिवासियों को बड़ी सरलता से पटाया जा सकता है, आसानी से उनके आक्रोश को हवा दी जा सकती है ।<br /><br />आदिम युग से अबतक शोषक और शोषित दो स्थितियाँ हैं, जिनका लाभ उठाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों की ज़मात आज शीर्ष पर हैं। मानवाधिकार की चर्चा इस जमात का एक प्रिय अस्त्र है । मेरी इस बात की पुष्टि विश्व के घटनाक्रम कर चुके हैं, मैं नहीं । </div><div align="justify"><br />पंकजजी, यदि माओवादियों, नक्सलवादियों की ऐसी गतिविधियों पर आप जैसे लेखक-आलोचक को भी सहानुभूति है तो इस देश को अब भगवान ही बचायेगा । </div><div align="justify"><br />आपने विश्वरंजनजी को प्रेषित पत्र में लिखा है कि <span style="color:#ff0000;"><strong>उन्होंने (विश्वरंजन) कहा है --"इस समय बस्तर में हम पूरे ज़ोर-शोर से माओवादियों से लड़ रहे हैं। "सवाल है कि ये 'माओवादी' कौन हैं ? क्या ये वही आदिवासी नहीं हैं, जिन्हें माओवादी बताकर हाल ही में पश्चिम बंगाल पुलिस ने लालगढ़ में न सिर्फ़ उन पर अत्याचार किये हैं; बल्कि बकौल मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी, "उनकी हत्याएँ भी की हैं। "बहरहाल,आपने अपने इस साक्षात्कार में यह आत्मविश्वास भी व्यक्त किया है कि "उनके ख़िलाफ़ पुलिस ही लड़ेगी और अंत में जीतेगी। " तो महोदय, पुलिस के आख़िरकार जीत जाने में भला किसको संशय हो सकता है ? कुछ ही समय पहले दिवंगत हुए महान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने कभी अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "हमारे देश का सबसे शक्तिशाली आदमी पुलिस कांस्टेबल होता है। "फिर जहाँ पूरे देश की पुलिस लालगढ़ से छत्तीसगढ़ तक आदिवासियों के बेरहम दमन में शामिल हो; वहाँ उसके अकूत पराक्रम की तो केवल कल्पना की जा सकती है ! इस अद्भुत बल-विक्रम का एक सुबूत पेश करते हुए आपने कहा है --"उत्तर छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को खदेड़ दिया गया है ।"गौरतलब है कि आपने यह नहीं बताया कि ऐसे लोगों को खदेड़कर पहुँचाया कहाँ गया है ! दूसरे शब्दों में, उनके पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ?</strong></span></div><div align="justify"><br />मैं समझता हूँ कि शायद अब आपको बताने की ज़रूरत नहीं कि बस्तर के माओवादी कौन हैं, फिर भी मैं जितना राज्य को समझता हूँ, आदिवासियों को समझता हूँ और राज्य की नक्सली अभियान के बारे में जानता हूँ – बस्तर के माओवादी वे नहीं हैं जैसा आप समझते हैं या जैसा आपको समझाया जा रहा है, बस्तर के आदिवासी मूलतः माओवादी हो ही नहीं सकते । मित्र, आज से 30-40 के पहले के बस्तर के बारे में कल्पना करें । जिन्हें अपने घने जंगल, अपनी खेत-ख़ार, अपनी नदियों, घाटियों, अपने पेड़-पौधों से अधिक कुछ भी नहीं पता, दरअसल वही उनकी पाठशाला था, और वही उनका जीवन, अर्थव्यवस्था और सबकुछ । जो दिन भर मछली पकड़ने, वनोपज संग्रहित करने, चिड़िया मारने और थोड़ी मोड़ी खेती-बारी करने के बाद रात को मंद पीकर उन्मुक्त होकर जीते थे । अर्थात् जिनके लिए जंल, जंगल और ज़मीन के अलावा बाक़ी सब अकारज़ लगता था । न पढ़ाई-लिखाई से मतलब न ही नये ज़माने की तालीम और तकनीक से । क्या आप सोच सकते हैं कि उन्हें तब माओ और उसके सत्ता प्राप्ति के क्रांतिकारी विचारों के बारे में पता लग चुका था और वे माओवादी रास्तों से अपना विकास करने के लिए अग्रगामी हो चुके थे ? या आप या हमारे जैसे किसी क्रांतिकारी विचारकों से प्रभावित होने की उनमें सोच थी ? ना, ना, ऐसा कहना ग़लत होगा । ऐसा कहना आदिवासी को गाली देना भी होगा । तो भाई मेरे, बस्तर में माओवाद के संस्थापक या प्रचारक आदिवासी नहीं बल्कि वे बाहरी लोग थे जो प्रजातंत्र से रुष्ट थे, जिनका भारतीय शासन प्रणाली पर विश्वास उठ चुका था, जो ख़ूनी क्रांति पर विश्वास करते थे । ऐसे लोग आन्ध्रप्रदेश या पड़ोसी जिलों से पलायन करनेवाले माओवादी हैं जिन्हें बस्तर का भूगोल, वहाँ से सीधे-सादे आदिवासी, तात्कालीन वन अधिनियम की कमज़ोरियाँ आदि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कहीं अधिक सकारात्मक थीं । और आज की स्थिति में कहें तो उसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली । </div><div align="justify"><br />हुआ क्या कि उन्होंने वर्षों तक स्वयं का चेहरा ग्रामवासियों के हितैषी के रूप में बनाये रखा । उनका विश्वास जीतने की कोशिश की कि वे ही उनके हमदर्द हैं । ऐसे समय वे जंगल ठेकेदारों से उनकी मज़दूरी, तेंदूपत्ता तुड़वाई का सही दर दिलाने के लिए आवाज़ भी उठाते रहे । सरकारी ख़ासकर वन अधिकारियों की कमज़ोरियों को प्रचारित करते रहे, आदि-आदि । बात यहाँ तक होती तो ऐसे माओवादियों को वे या आप या हम आज भी वनबंधुओं का मसीहा की तरह देखते । पर दरअसल उनका ऐसा लक्ष्य ही नहीं था । उनका लक्ष्य तो वर्तमान शासन प्रणाली को ध्वस्त करना और दिल्ली के लाल किले में लाल झंडा फहराना है । आदिवासी का हित तो बहाना मात्र है । आदिवासियों का विश्वास जीतने के बाद ये माओवादी उनमें धीरे-धीरे ऐसे तंत्र का पाठ पढ़ाने लगे दूसरी ओर ऐसे आदिवासियों के मन में व्यवस्था के प्रति आग भरने लगे और धीरे-धीरे ऐसे आदिवासियों के हाथों बंदूक, ए.के.47 पकड़वा दिया कि लो, सारे तंत्र को उखाड़ फेंको और चारों तरफ़ लाल झंडा फहरा दो । यह ठीक है कि उनके सम्मुख प्रजातंत्र पर विश्वास का पाठ पढ़ानेवाला कोई तंत्र नहीं था, और न ही उनके स्वयं के जनप्रतिनिधि भी इस कथित जनाक्रोश का निराकरण नहीं कर सके । दूसरे शब्दों में इसे यूँ भी कहा जा सकता है, उनके भीतर से चुने गये सांसद, विधायक या कोई ऐसा जनप्रतिनिधि भी उभर कर न आ सका जो उन्हें उनके स्वप्नों को पूरा कर सके । </div><div align="justify"><br />आपने जानना चाहा है कि <strong><span style="color:#ff0000;">उनकी (माओवादियों) विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है?</span></strong></div><div align="justify"><br />काश, ऐसा होता और माओवादियों की विचारधारा को उसकी नैतिकता, पवित्रता और विश्वसनीयता के साथ जनता की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त होता । यह एक भ्रामक तथ्य है कि जनता को उसका समर्थन प्राप्त है । जिसे आप जनता कहते हैं और वास्तविक में वह जनता ही है तो वह किसी भी हालत में हिंसा पर विश्वास करनेवाले माओवादियों पर कदाचित् विश्वास नहीं करेगी । जनता ने और कम से कम भारतीय जनता ने हिंसा की बुनियाद पर खड़े होनेवाले दर्शन और विचारधारा को कभी समर्थन नहीं दिया है । इतिहास के पन्नों से उदाहरण ढूँढकर आपके समक्ष गिनाने की ज़रूरत शायद न हो। अयोध्या में जब विवादित ढाँचा ढ़हाया गया तब क्या देश की बहुसंख्यक जनता ने विरोध नहीं किया ? क्या गोधरा में दंगाइयों ने जनता का विश्वास और स्नेह अर्जित किया ? आदि..आदि...</div><div align="justify"><br />आपने संस्थान के ई-मेल से भेजे अपने विरोध पत्र में ( संस्थान के अध्यक्ष नहीं डीजीपी विश्वरंजन से ) जानना चाहा है कि <strong><span style="color:#ff0000;">"उत्तर छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को खदेड़ दिया गया है ।" गौरतलब है कि आपने यह नहीं बताया कि ऐसे लोगों को खदेड़कर पहुँचाया कहाँ गया है ! दूसरे शब्दों में, उनके पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ? </span></strong></div><div align="justify"><br />आपके उपर्युक्त प्रश्न में उपयोग किये शब्दावली और उसके केंद्रीय आशय का एक मतलब यह भी हो सकता है कि शायद आप नक्सलियों के हमदर्द हैं, या उनके प्रवक्ता हैं या फिर आप नक्सली दर्शन या विचारों के अनुयायी आलोचक । क्योंकि आपने किसी साहित्यिक संगठन को प्रश्नांकित किया है कि नक्सलियों के पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ? आपके इन शब्दों में यह भी बू आ रही है कि आप प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान को फासिस्ट संगठन मान रहे हैं । यह सर्वथा भूल और भ्रम है । साहित्यिक संगठन विशुद्धतः साहित्यिक कार्य करती हैं, किन्तु अमानवीय, अतिवाद, अत्याचार पर भी प्रश्न उठाती हैं । दशाब्दियों से नक्सलियों के हिंसात्मक आंतक से जूझ रहे राज्य की साहित्यिक संगठन होने के नाते हम आपसे सच्चाई को अधिक नज़दीक से जान देख रहे हैं । हम ऐसे प्रश्न किसी से नहीं करते जो हमें अमानवीय, अत्याचारी, तानाशाही, दमनकारी और राष्ट्रद्रोही, राज्यद्रोही साबित कर दे, क्योंकि हम यह बख़ूबी जानते हैं कि कम से कम बस्तर और राज्य में हिंसा का तांडव फैलानेवाला नक्सलवाद वही नक्सलवाद नहीं है जिसकी चारू मजूमदार ने नींव रखी थी । ये विशुद्धतः आदिवासी, ग़रीब, दलित, दमित विरोधी हैं । ये भटके हुए तानाशाह हैं जिन्हें सिर्फ़ बंदूक की गोली से हर समस्या का हल दिखाई देता है । जो सिर्फ़ बंदूक की भाषा समझते हैं । मैं आपसे पूछता हूँ, आप तो एक लेखक हैं, किसी महाविद्यालय में सैकड़ों युवाओं को हिन्दी की शिक्षा देते हैं । हिन्दी की शिक्षा में क्या निर्दोष, निरपराध, असहायों के स्वप्नों को साकार करने के नाम से उन्हीं की निर्मम हत्या और शोषण की छूट भी शामिल है ? यदि आप ऐसा पाठ पढ़ाते हैं तो हम आपके बारे में क्या कह सकते हैं ? यदि आप यह पूछते कि नक्सलियों द्वारा मारे गये निहत्थे आदिवासी के बच्चों का क्या हो रहा है, उसकी विधवा अब कैसी जी रही है, तो छत्तीसगढ़ की माटी को, छत्तीसगढ़ की मनीषा को, छत्तीसगढ़ की हमारे जैसे साहित्यिक संगठनों को बल मिलता कि कोई तो है जो हमारे दुख को समझ पा रहा है ? अब आप ही बतायें चतुर्वेदीजी, हम ऐसे नक्सलियों की चिन्ता क्यों करें जिन्होंने राज्य की शांति छीन ली, जिसने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया, जिसने राज्य के सैकड़ों आदिवासियों और पुलिस को मौत के घाट उतार दिया । <strong><span style="color:#ff0000;">(आपका यह ई-पत्र जब मैंने देखा उसके कुछ ही घंटे पहले 29 पुलिस कर्मी सहित राजनांदगाँव के पुलिस अधीक्षक श्री चौबे, विनोद कुमार को गुरिल्ले नक्सलवादियों द्वारा मौत के घाट उतारा जा चुका था और मैं सदमें में था, समूचा राज्य सदमें में था ) </span></strong>क्या आप आदिवासी और पुलिस को भिन्न भिन्न नज़र से देखते हैं । यानी की आदिवासी की मौत, मौत और पुलिस की मौत सिर्फ ड्यूटी । प्रातः स्मरणीय विष्णु प्रभाकर ने भले ही हवलदार को ताकतवर बताया हो किन्तु उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि नक्सलवाद राज्य या राष्ट्र के लिए समुचित विचारधारा है । उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि राज्य की बुनियाद हिंसा से रखी जानी चाहिए । उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि एक हवलदार यदि देश, राज्य, समाज के जान-माल की सुरक्षा के लिए लड़ते-लड़ते मारा जाये तो वह भी ठीक वैसा ही आंतककारी है जैसा कोई सामान्य हवलदार कोई असामाजिक कृत्य कर बैठता है । मुझे आपको यह स्मरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि विष्णु प्रभाकर हिंसा के नहीं, अंहिसा के पुजारी थे, माओ के नहीं, गांधी के अनुयायी थे । आप अपने तर्क के बहाने नक्सलवादियों को प्रतिष्ठित कराकर विष्णु प्रभाकरजी की स्वर्गीय आत्मा को क्यों दुख पहुँचाना चाहते थे, मेरी समझ से बाहर है । </div><div align="justify"><br />अब आते हैं आपके मूल प्रश्न के उत्तर ढूँढने की दिशा की ओर । ऐसे अहिंसा विरोधी, जनविरोधी, समाजविरोधी, राज्य विरोधी, देशविरोधी, संस्कृति विरोधी व्यक्ति या संगठन के पुनर्वास की चिंता किसे करनी चाहिए ? यदि आप इसके उत्तर में राज्य सरकार या केंद्र सरकार की ओर टुकटुकी लगाकर देख रहे हैं तो ग़लत देख रहे हैं । यह किसने आपको कह दिया है कि ऐसे नक्सली पुनर्वास चाहते हैं ? हथियार डालकर समर्पण चाहते हैं । राज्य के नागरिक होकर मुख्यधारा में रहने की कामना करते हैं । आपको बख़ूबी याद होगा – जिन डकैतों ने जयप्रकाश नारायण की बात मानी और हिंसा, अराजकता का रास्ता छोड़ा वे आज ख़ुशहाल जीवन बसर कर रहे हैं । मैं आपसे ही चाहूँगा कि ( क्योंकि लगता है आपको नक्सलियों के प्रति हमदर्दी है ) कभी आप भी ऐसी पहल करें ना, जिससे समूचे नक्सली नहीं तो कम से कम दो चार नक्सली ही सही, हथियार डालकर वार्तालाप के लिए आगे आयें, तब मैं और हम सभी पदाधिकारी अवश्य विश्वरंजनजी (संस्थान के अध्यक्ष नहीं, डीजीपी विश्वरंजन) को निवेदन करेंगे कि वे उनके पुनर्वास की पहल करें । </div><div align="justify"><br /> आपको पता हो या नहीं, मैं नहीं जानता किन्तु मुझे अच्छी तरह से प्रशासकीय और संवैधानिक प्रक्रिया की जानकारी है कि डकैत, गैंगस्टर, दस्यु, नक्सली आदि के पुनर्वास का विषय किसी डीजीपी या पुलिस का काम नहीं है । पुलिस का काम है शांति और सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखना । यह दीगर बात है कि इस राज्य के पुलिस महानिदेशकों, मंत्रियों, मुख्यमंत्री ने बातचीत की पहल ज़रूर की होगी किन्तु मेरी अधिकतम् जानकारी के अनुसार आज तक कभी भी इन नक्सलियों ने हाँ नहीं भरी । वे बिना हथियार डाले यदि बातचीत की बात सिर्फ़ प्रेस विज्ञप्तियों में करते हैं तो यह फ़र्जीवाडा है, धोख़ा है । इस धोख़े का जोख़िम न तो राज्य उठा सकता है, न पुलिस, न हम और न ही आप । सैकड़ों निरीह आदिवासी जनता की मौत को भूलकर यदि आप-हम यदि सिर्फ़ नक्सलियों के पुनर्वास की चिंता में पतले हुए जा रहे हैं तो इस देश का भगवान ही मालिक है । </div><div align="justify"><br />मैं आपको इस तथ्य और प्रक्रिया की ओर भी इशारा करना चाहूँगा कि पुनर्वास उसका होता है जिसे ज़रूरत होती है । आप यह कैसे मान बैठे कि नक्सलियों को पुनर्वास चाहिए ? यह आपको किस माओवादी नेता ने कह दिया कि वे पुनर्वास चाहते हैं ? भाई मेरे, वे प्रजातंत्र की हत्या चाहते हैं और उसके बाद जो बचे-खुचे रहेंगे उनका पुनर्वास चाहते हैं । यदि आप इसी पुनर्वास की चाहत रखते हैं तो मैं आपसे क्या कहूँ ? मैं तो अब तक यही समझता आ रहा हूँ कि शोषकों का पुनर्वास नहीं होता, शोषितों का पुनर्वास होता है । यदि आप शोषकों का ही पुनर्वास कर नक्सली समस्या का हल देखते हैं तो धन्य है आपके ऐसे विचार...</div><div align="justify"><br />वैसे आपके सामान्य ज्ञान की सीमा को बढ़ाने के लिए मैं यह भी बताना प्रांसगिक समझता हूँ कि इस राज्य में भी नक्सलियों के पुनर्वास हेतु पहल होती रही है कि वे पहले बातचीत को तैयार हों । संवाद कायम करें । इस दिशा में राज्य सरकार के अलावा रविशंकर महराज ने भी हाल में ही पहल की थी । पर उनकी तरफ से कुछ भी आवाज़ नहीं आयी । खैर...</div><div align="justify"><br />आपने विश्वरंजन के साक्षात्कार का वास्ता दिया है कि <span style="color:#ff0000;"><strong>'सलवा जुडूम' का साथ देते हुए आप ( डीजीपी विश्वरंजन ) कहते हैं कि "इसके ख़िलाफ़ जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, उसके लिए माओवादियों को दाद देनी चाहिए।" दिलचस्प है कि फिर आप यह भी जोड़ते हैं--' सलवा जुडूम' माओवादियों के ख़िलाफ़ जनता की बगावत है।' सवाल है कि अगर यह सच है, तो उनकी विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है ? हम हिंसा के रास्ते के हामी नहीं हैं, लेकिन जिनसे उनका सब-कुछ छीन लिया गया हो, कई बार हथियार उठाना उनके लिए अपने वुजूद की रक्षा का आख़िरी उपाय होता है। दूसरे, जिनकी जीवन-स्थितियों में बदलाव और बेहतरी के सारे राजनीतिक रास्ते इस व्यवस्था में सदियों से बंद रहे आते हों और जिनके खुलने की कोई उम्मीद उन्हें आज भी----आज़ादी मिलने के साठ बरस बाद भी---नज़र न आती हो, वे आखिर क्या करें, कहाँ जायें, कैसे जियें, इस निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय कैसे माँगें ? </strong></span></div><div align="justify"><br />सलवा जुडूम को साथ देना जनतांत्रिक मुद्दों के साथ रहना है । उस निरीह और असहाय आदिवासी का साथ देना है माओवादी के ख़ौफ़ से जिनका बस्तर में जीना दूभर हो चुका है । सलवा जुडूम का विरोध करना प्रकारांतर से माओवादियों का, नक्सलियों का साथ देना है, हत्यारों का साथ देना है । लुटेरों का साथ देना है, देशद्रोहियों का साथ देना है । संविधानविरोधियों का साथ देना है । आपने डीजीपी विश्वरंजन से (अध्यक्ष विश्वरंजन के बहाने) जानना चाहा है कि <span style="color:#ff0000;"><strong>सलवा जुडूम' माओवादियों के ख़िलाफ़ जनता की बगावत है तो उनकी विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है ? </strong></span></div><div align="justify"><br />आपको नहीं लगता कि आप दो अलग-अलग और विरोधी चीज़ों को एकसाथ घालमेल करके व्याख्यायित कर रहे हैं ? वैसे आपको इसका उत्तर पूर्वांश में मिल चुका है फिर भी एक बार और जान लीजिए कि जिसे आप जनता की सहानुभूति और समर्थन कह रहे हैं वह अर्धसत्य है, भ्रामक है । बंदूक की नाल कनपटी पर अड़ाकर मैं भी आपको हाँकने लगूँ तो आप भी मेरी बात करने लगेंगे । जिसे आप सहानुभूति कह रहे हैं वह भ्रम है, यह सहानुभूति नहीं मौत की भय से उपजा दबाब है, वह तैयार की गई फौज की विवशता है जहाँ अब वह दोनों तरह से खाई से घिर चुका है । दबाबपूर्वक नक्सली बनने या नक्सलियों को मदद पहुँचाने के कारण वह समाज में संदेहास्पद हो चुका है और व्यवस्था की नज़रों में भी । यदि आप उन्हें मूलतः माओवादी मानते हैं और उन्हें माओवादियों-नक्सवादियों का अनुयायी भी कहते हैं तो भूल है । </div><div align="justify"><br />मैं आपसे ही प्रश्न करना चाहूँगा - आप क्यों माओवादी नहीं बने, हथियार नहीं थामा, कलम को अपनाया ? शायद इसलिए कि आपको यह रास्ता उचित नहीं प्रतीत होता । शायद इसलिए भी कि आपको अभी जनतंत्र पर भरोसा है । शायद आप यह भी जानते हैं कि माओवाद जो हिंसा के रास्ते जन-समस्याओं का हल ढूँढता है मूलतः और अंततः अमानवीय और अतिवादी धारणा है जहाँ समतामूलक समाज और स्वतंत्रता आधारित समाज व्यवस्था की कोई संभावना नहीं । आपके पास किसी माओवादी देश में भारतीय प्रजातंत्र जैसी किसी व्यवस्था की सूचना या अनुभव है तो मुझे ज़रूर बतायें जो नागरिकों की भारत जैसी स्वतंत्रता की गारंटी देता है । शायद आप आप इतने शिक्षित तो हैं ही कि माओवादी हिंसा और हिंसा के बल पर नये तंत्र की स्थापना में किसी कलुषता की गारंटी नहीं ले सकते । जिसका बुनियाद ही हिंसा हो, उससे मानवता, समानता, उदारता और स्वतंत्रता की अपेक्षा नहीं की जा सकती है । </div><div align="justify"><br />मित्रवर, आप यह भी देख लें कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप उन आदिवासियों को माओवादियों के चंगुल से मुक्त ही नहीं करना चाहते जो फिलहाल भूलवश और प्राणभय से उनके साथ थे और अब उनकी असलियत जानकर उनसे मुक्ति चाह रहे हैं । यदि आप माओवादियों के प्रति आदिवासियों की सहानुभूति की निरंतर अपेक्षा की वकालत करते हैं तो कदाचित् आप इन आदिवासियों को प्रायश्चित करने का मौक़ा भी नहीं देना चाहते हैं । आपको शायद यह भी नहीं पता है कि बस्तर के सैकड़ों आदिवासी स्वस्फूर्त होकर और नक्सलियों का साथ ताउम्र के लिए छोड़कर उनके हिंसा से बस्तर को मुक्त बनाने के लिए हथियार डाल चुके हैं और एक स्वस्थ जीवन जी रहे हैं । और सिर्फ़ इतना ही नहीं वे हिंसा के ख़िलाफ़ जूझने और नागरिक जीवन को व्यवस्थित बनाने में व्यवस्था, प्रशासन और पुलिस को मदद कर रहे हैं । इन्हें आप क्या कहेंगे - भगोडे माओवादी या भारतीय प्रजातांत्रिक नागरिक?</div><div align="justify"><br />आपने लिखा है कि <span style="color:#ff0000;"><strong>जिनका सब-कुछ छीन लिया गया हो, कई बार हथियार उठाना उनके लिए अपने वजूद की रक्षा का आख़िरी उपाय होता है। दूसरे, जिनकी जीवन-स्थितियों में बदलाव और बेहतरी के सारे राजनीतिक रास्ते इस व्यवस्था में सदियों से बंद रहे आते हों और जिनके खुलने की कोई उम्मीद उन्हें आज भी----आज़ादी मिलने के साठ बरस बाद भी---नज़र न आती हो, वे आखिर क्या करें, कहाँ जायें, कैसे जियें, इस निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय कैसे माँगें ? इसका साफ़-साफ़ मतलब है कि आप हिंसा, हथियार, हत्या की अनुमति भी प्रजातंत्र में देने के पक्षधर हैं । फिर यदि सलवा-जुडूम के लोग नक्सली हिंसा के ख़िलाफ़ हथियार उठा लें तो उसे कैसे ग़लत कह रहे हैं ?</strong></span> </div><div align="justify"><br />क्या आपने कभी हथियार उठाया है, क्या कभी आप हथियार जुटाने की जद्दोजहद की है, क्या आपने किसी निहत्थे को मारा है या कभी किसी निहत्थे को मारने की कोशिश करेंगे ? नहीं ना ! मैं जानता हूँ शायद आप ऐसा नहीं करेंगे । </div><div align="justify"><br />चतुर्वेदी जी, ये हिंसक माओवादी-नक्सलवादी निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय माँग रहे होते और उनसे नहीं मिल रहा होता तो कहीं ना कहीं आपके शब्दों में निज़ाम चलानेवाले अर्थात् मंत्री, सांसद, विधायक, जिला पंचायत सदस्य मारे जा रहे होते । दरअसल माओवादी ग़रीब और आदिवासियों के अधिकार और न्याय के लिए लड़ते होते तो इस तरह निहत्थे आदिवासियों को जबरन माओवादी वेशभूषा पहनाकर गुरिल्ला ट्रेनिंग नहीं दे रहे होते, उन्हें संघम सदस्य बनाकर मुठभेड़ में उन्हें आगे रखकर इस तरह मरवा नहीं रहे होते । आपको क्या पता कि लूटने, माल असबाब लूटने, पुलिस और अर्धसैनिक बल से लड़ने के वक्त बंदूक की नोक पर ऐसे सीधे-सरल और शांतिप्रिय आदिवासी युवक और गाँववालों को आगे रखा जाता है और वह भी सिर्फ़ लाठी, टँगिया और भाला आदि पकड़वाकर ताकि यदि मारे जायें तो सिर्फ़ ये ही मारे जायें और नक्सली कमांडर सदैव बचे रहें । </div><div align="justify"><br />आपको यह तो पता है ही जिस लालगढ़ की आप बात कर रहे हैं वहाँ भी नागरिकों की आड़ में माओवादी हिंसा पर उतर आये थे और समानांतर व्यवस्था के लिए नापाक और नाकामयाब हरक़त कर रहे थे । शायद आपको यह भी नहीं पता कि वे ऐसे आदिवासी नागरिकों को सिर्फ़ इसलिए अपने गुरिल्ला युद्ध में आगे करके रखते हैं ताकि ये पुलिस की ग़ल्ती से मारे जायें तो वे बड़े आराम से बोटी फेंककर पाले गये अपने कुत्तों से भौकवा सकें कि ये लो, पुलिस मानवाधिकार का हनन कर रही है । </div><div align="justify"><br />तो मित्रवर, आप यह भी जानने की कोशिश करें कि वे ऐसा करके उस बल को ही हतोत्साहित करते होते हैं जो सुदूर और दुर्गम जंगलों में भी घुसकर हिंसक माओवादियों और नक्सलवादियों से आदिवासियों को बचा रहे होते हैं । और यदि आप माओ को ठीक से पढ़े हैं तो यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा है कि विरोधियों के ख़िलाफ़ हर समय दुष्प्रचार होता रहे ताकि सामान्य जन के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता रहे । </div><div align="justify"><br />क्या आपके मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि ये माओवादी क्योंकर चुनाव में भाग नहीं लेते ? उल्टा चुनाव का बहिष्कार करते हैं । चुनाव में व्होट देनेवाले आदिवासी मतदाता के ख़िलाफ़ फ़रमान जारी करते हैं कि ख़बरदार जो किसी ने मतदान किया तो, गला रेंत दी जायेगी और मुंडी पेड़ में टाँग दी जायेगी । इसे आप क्या तानाशाही नहीं कहेंगे ? इसे आप क्या नादिरशाही नहीं कहेंगे ? यदि चुनाव जीतकर सत्ता में आने वाले अत्याचार करते हैं तो ये जनता की कौन-सी भलाई कर रहे होते हैं ? जिसे अपने नेता को चुनने का ही अधिकार छीन लिया जाये वह क्या करेगा आख़िर ? यह माओवादियों की उस रणनीति का हिस्सा है जिसमें वे जनता को चुनाव से वंचित रखते हुए विकल्पहीन बनाते हैं और सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दबाब में पंगु, भयग्रस्त बनाकर रखते हैं । यदि ये जनता को चुनने का अधिकार देते और सचमुच उन्हें ही चुना जाता तो आप कह सकते हैं कि आदिवासी या जनता माओवादियों की लिए सहानुभूति या संवेदना रखते हैं। चलिए, एक ही उदाहरण आपके लिए ज़रूरी होगा । पिछले यानी 2008 में विधानसभा का चुनाव हुआ तो बस्तर में सारे के सारे यानी 11 सीटों पर वे ही जीते जिन पर बस्तर के आदिवासियों का विश्वास था । घोर नक्सल प्रभावित जिले बीजापुर में भी माओवादी समर्थक जीत नहीं सके । यहाँ तक कि सलवा जुडूम के प्रणेता और कांग्रेसी विधायक भी हार गये । जाहिर है जनता ने उनकी कुछ कमज़ोरी पकड़ ली थी । और तो और माओवादियों से हमदर्दी रखनेवाले पार्टी सीपीआई के नेता मनीष कुंजाम और उनकी पार्टी पर भी बस्तर के आदिवासियों ने कोई भरोसा नहीं किया । क्या यह माओवादियों को समझ में नहीं आता कि बस्तर की जनता किससे सहानुभूति रखती है ? यदि सलवा जुडूम आदिवासियों का आवाज़ और सलवा जुडूम बैस कैंप आश्रय-स्थल नहीं होता तो क्योंकर बस्तर के सारे आदिवासी मिलकर सलवा जुडूम को समर्थन देनेवाले सरकार के झोली में सारे व्होट डाल देते ? क्या इसका उत्तर आपके पास है ? कभी मिले तो ज़रूर बताइयेगा हमें भी ? </div><div align="justify"><br />आपने अपने पत्र मे आगे यह भी लिखा है कि <span style="color:#ff0000;"><strong>जहाँ (यानी पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में ) पूरी दुनिया ने देखा है- सरकारें चाहे जो कहती रहें कि हथियार कथित माओवादियों ने नहीं, बल्कि निरीह आदिवासियों ने उठाये हुए थे, भले उस सबका अंत उनके निर्मम और अप्रत्याशित पुलिस दमन में ही हुआ है। यह सब तब हो रहा है और लगातार हो रहा है, जब दुनिया भर के सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और प्रतिबद्ध राजनीतिग्य एक आवाज़ में यह माँग कर रहे हैं कि इन सभी समस्याओं को राजनीतिक समाधान की ज़रूरत है और यह किइस सन्दर्भ में राजनीतिक प्रक्रिया को अपनाने का कोई भी मानवीय विकल्प न है, न हो सकता है। इसके विपरीत, आप कहते हैं किपहले उन्हें "हथियार शासन को सौंपने होंगे, तभी कोई बातचीत संभव है।"</strong></span> <strong><span style="color:#ff0000;">सवाल है कि जब उनके पास ये हथियार नहीं थे, तब उनकी समस्याओं का कौन-सा राजनीतिक हल तलाशा गया और जहाँ-जहाँ इन हथियारों और हथियार उठानेवालों को आपके ही शब्दों में कहूँ, तो "खदेड़" दिया गया है । </span></strong></div><div align="justify"><br />तो पंडितजी, जब आप हथियार उठाये रखियेगा तो बातचीत कैसे होगी ? आपका तर्क ही कमाल का है नक्सली बंदूक की नली के सहारे बातचीत करें और हमें यह छूट उन्हें देनी चाहिए ? </div><div align="justify"><br />आपने श्री विश्वरजन को यह भी लिखा है कि <span style="color:#ff0000;"><strong>आपके ( विश्वरंजन ) राज्य छत्तीसगढ़ में तो आलम यह है कि बक़ौल गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, "सरकार और माओवादियों की लड़ाई में आदिवासी मारे जा रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं । हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए, जिसकी पहल न राज्य कर रहा है, न माओवादी। " 'द पब्लिक एजेंडा' के कार्यालय संवाददाता ( दिल्ली ) अजय प्रकाश के अनुसार - "हिमांशु कुमार की यही साफ़गोई उनके लिए घातक साबित हुई है और दंतेवाड़ा प्रशासन ने 17 मई, 2009 को उनका आश्रम ढहा दिया . दंतेवाड़ा से लौटकर सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय बताते हैं, 'हिमांशु के बारे में पूरा क्षेत्र जानता है कि 'सलवा जुडूम' अभियान से विस्थापित और उजड़े आदिवासियों के पुनर्वास जैसा महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं। लेकिन सरकार हिमांशु को माओवादियों का शुभचिन्तक बताकर दंतेवाड़ा से खदेड़ने की फ़िराक़ में है। "</strong></span></div><div align="justify"><span style="color:#ff0000;"><strong><br /></strong></span>इस पर मैं यही कहना चाहूँगा कि मुझे किसी भी गांधीवादी पर कोई संदेह नहीं है फिर भी आप जिन्हें गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं उनसे यह तो पूछिए कि जिस बस्तर में माओवादियों द्वारा किसी भी प्रकार के सरकारी सेवकों के आवागमन सहित उनके सरकारी कार्यों पर रोक लगा दी गयी हो, सरकारी कामकाज पर ऐतराज हो, सरकारी कार्यों को ध्वस्त किया जा रहो हो और ऐसा करने पर सरकारी कारिंदों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है, वे कैसे और किस तरह जंगली इलाकों में अपने पैठ बना सके ? क्या सचमुच माओवादी ऐसे गांधीवादी एनजीओ के भक्त हो चुके हैं ? क्या सचमुच उन्हें अहिंसा पर विश्वास हो गया है ? यदि माओवादी या नक्सलवादी गांधीवाद पर विश्वास करते हैं तो फिर क्योंकर हथियार से सारी समस्याओं का हल ढूँढते हैं ? गांधी तो ऐसे हल पर विश्वास नहीं रखते थे । वे तो सिर्फ़ साध्य ही नहीं साधन की पवित्रता पर भी विश्वास रखते थे । रही बात श्री हिमांशु कुमार को खदेड़ने की तो यह कर्तव्य राजस्व विभाग वाले निभा रहे हैं क्योंकि उन्होंने सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमित किया था । मै समझता हूँ आप भी अपनी ज़मीन पर बेजाकब्ज़ा करनेवाले को प्यार नहीं करेंगे, उसके विरूद्ध कोर्ट जायेंगे या और कुछ करेंगे... बेजाकब्जा करना कौन-सा गांधीवाद है ? ज़रा कभी आप उनसे पूछें तो । </div><div align="justify"><br />मैं छत्तीसगढ़ में रहता हूँ । बस्तर मुख्यालय तक भी यदा-कदा आता जाता रहता हूँ । राज्य के लगभग अख़बार पढ़ता रहता हूँ । मुझे अब तक नहीं पता कि जिस हिमांशु कुमार का जिक्र कर रहे हैं उन्होंने कभी बस्तर के दंतेवाड़ा में रहकर कभी हिंसा का विरोध किया या माओवादियों को समझाया या फिर हिंसावादियों के ख़िलाफ़ गांधी की तरह आदिवासियों को लामबंद किया हो । कभी आपने सुना या कोई रिपोर्ट या समाचार कहीं छपा हो तो मुझे भी अवश्य भेजें ताकि मैं उन्हें आपकी तरह गांधीवादी कार्यकर्ता मान सकूँ । उनके दंतेवाड़ा में रहते दर्जनों- सैकड़ों आदिवासी माओवादी हिंसा के भेंट चढ़ चुके हैं। उन्होंने कब और किस अख़बार में माओवादियों या नक्सलवादियों की ऐसी जघन्य अपराध और हिंसात्मक गतिविधियों की निंदा की है ? ज़रा उन्हें पूछकर भी देखना चाहिए आपको और हमको भी । </div><div align="justify"><br />जैसा कि स्वयं हिमांशु कुमार स्वीकारते हैं कि सरकार और माओवादियों की लड़ाई में आदिवासी मारे जा रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं । हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए, जिसकी पहल न राज्य कर रहा है, न माओवादी।</div><div align="justify"><br />तो आप एक सच तो जान ही गये होंगे कि माओवादियों को बातचीत के ज़रिए किसी भी प्रकार का हल निकालने की कोई ग़रज नहीं है । जहाँ तक सरकार का प्रश्न है वह उन माओवादियों से लड़ रही है जो हिंसक है, विकास विरोधी है, विकासरोधी है, विकास कार्य के विध्वंसक हैं और यह कोई भी सरकार करती है । यदि यह नेपाल जैसे माओवादियों के देश में भी होगा तो वे भी ऐसा ही करेंगे जैसा छत्तीसगढ़ की सरकार कर रही है । छत्तीसगढ़ की सरकार सिर्फ़ उन माओवादियों के लिए आँसू नहीं बहा सकती जो केवल हिंसा और विध्वंस पर विश्वास रखते हैं और किसी भी गणतांत्रिक प्रक्रिया का पूरजोर और हिंसात्मक विरोध करते हैं । आप यह कदापि न भूलें कि माओवादियों का एकमात्र लक्ष्य गणतंत्र को उखाड़ फेंकना है, इसके अलावा कुछ भी नहीं और छत्तीसगढ़ में (दिल्ली में भी) जनता द्वारा चुनी गयी गणतांत्रिक सरकारें हैं जो किसी भी क़ीमत पर गणतंत्र को नेस्तनाबूत करनेवाले संघ, समुदाय, संस्थान या संगठन का समर्थन नहीं कर सकती । पुलिस का काम गणतंत्र को सुचारू पूर्वक चलाने के लिए कानून और व्यवस्था को बनाये रखना है । दुर्भाग्य से माओवाद जैसे युद्ध से राज्य सरकारें ही जूझ रही हैं । क्या ऐसे में पुलिस को वे हाथ पर हाथ धरे रहने के लिए छोड़ दें ? </div><div align="justify"><br />तथाकथित गांधीवादी हिमांशु कुमार और आपको भी शायद नहीं पता कि कब कब सरकार ने बातचीत का प्रस्ताव दिया है – हिंसक हो चुके माओवादियों को ? यह अख़बार या मीडिया में देने की बात नहीं है और माओवादी भी फ]र्जी प्रस्ताव देते हैं कि वे हिंसा का मार्ग भुलकर वास्तविक रूप से मुख्यधारा में जुड़ने के लिए बातचीत पर तैयार हैं । दरअसल वे ऐसा तब-तब करते हैं जब-जब उन्हें लगता है कि अब संभलने के लिए, अपने पलटन को सुरक्षित रखने या सही जगह तक पहुँचाने के लिए ऐसा ज़रूरी हो । यह उनकी रणनीतिक हिस्सा ही होता है । </div><div align="justify"><br />आपने यह भी रेखांकित किया है कि <strong><span style="color:#ff6666;"><span style="color:#ff0000;">"खदेड़ना" छत्तीसगढ़ पुलिस-प्रशासन का तकियाकलाम बन गया है, उसकी केन्द्रीय रणनीति । हिटलर के 'फ़ाइनल सॉल्यूशन' की तरह । उसका कहना था कि 'जो लोग तुम्हें पसंद न हों, उन्हें ख़त्म कर दो ।' यहाँ यह कहा जा रहा है कि जो लोग तुम्हारे आड़े आते हों, उन्हें "खदेड़" दो ! हालत यह है कि अगर कोई गाँधीवादी भी आपसे असहमत है, तो आपके मुताबिक़ वह "माओवादी" है !</span> </span></strong></div><div align="justify"><br />आप तो जान ही चुके हैं कि छत्तीसगढ़ पुलिस-प्रशासन माओवादी या हिंसावादियों को खदेड़ रही है । उसे हर उस हिंसावादियों को खदेड़ना होगा क्योंकि वह जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की अनुगामी है । वह हिंसक लोगों को अपने गोद में तो नहीं ना बैठा सकती है । डेमोक्रेसी में यह सब नहीं चलता । आप भी वह करते हैं जिसके लिए आपको जनता द्वारा चुनी हुई सरकार से तनख्वाह मिलती है । भाईजी, आपको जो पाठ्यक्रम दिया गया है आप वही पढ़ाते हैं अपने महाविद्यालय में। मुझे जैसा काम दिया है मेरे सरकारी विभाग ने, मैं वही काम करता हूँ। अब आप हम इस डेमोक्रेसी में वह तो नहीं कर सकते जिससे स्वयं डेमोक्रेसी ही उखड़ने लगे । यदि हम ऐसा करेंगे और तब हमें कोई खदेड़ेगा तो इसमें जनहित में कोई बुराई नहीं है । डेमोक्रेसी अधिकार है तो कर्तव्य भी है । यह हमें नहीं भूलना चाहिए ।<br />आपने सौ फ़ीसदी झूठ लिखा है कि <span style="color:#ff0000;"><strong>छत्तीसगढ़ में जो सरकार के बताये रास्ते पर बिना कुछ सोचे-समझे नहीं चल रहा है; वह इन दिनों माओवादी या नक्सली के तौर पर 'ब्रांडेड' किये जाने, पुलिस उत्पीड़न झेलने, वहाँ से बेदख़ल किये जाने या "खदेड़" दिये जाने और सज़ा भुगतने को अभिशप्त है।</strong></span></div><div align="justify"><br />ऐसा मैं इसलिए आपको बता पा रहा हूँ क्योंकि यहाँ भी प्रजातंत्र है। यहाँ भी विपक्षी दल है । यहाँ भी मीडिया है । यहाँ भी लेखक और पत्रकार हैं । यहाँ भी जागरूक लोग हैं । यदि आपका आरोप सच होता तो उसे हम भी पढ़ते, देखते और समझते । आप हमें इतना मूर्ख और नादान तो ना समझें । कभी आपने विनोद कुमार शुक्ल से जानना चाहा कि क्या सचमुच ऐसा यहाँ हो रहा है । उनको तो आप जानते ही होंगे । पुलिस ने सिर्फ़ उन माओवादियों, नक्सलियों को पकड़ा है जो हिंसक, विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त पाये गये हैं । और ऐसा करना जनता के लिए, जनतंत्र में लाजिमी भी है । जो आदिवासियों को जो ज़बरदस्ती से माओवादी बनाना चाहे, मना करने पर उसकी हत्या कर दे उसे ऐसी कौन सी व्यवस्था होगी जो ब्रांडेड न करे । क्षमा करें, हत्यारों को फूल माला नहीं पहनाया जा सकता । उन्हें मंच पर बैठाकर उनकी विरुदावली नहीं गायी जा सकती । उनके लिए हथकड़ी और जेल ही ज़रूरी चीज़ है । केवल वे ही राज्य के नागरिक नहीं हैं, और भी सीधे-सादे लोग राज्य मे रहते हैं यह हमें कभी नहीं भूलना चाहिए । </div><div align="justify"><br />आप इसे ट्रेजेडी बताते हुए उदाहरण के रूप में <span style="color:#ff0000;"><strong>डॉ. बिनायक सेन का नाम लेते हैं, जो एक डॉक्टर के नाते छत्तीसगढ़ की आम जनता, ख़ास तौर पर वहाँ के आदिवासियों की चिकित्सा-सेवा में संलग्न थे। लेकिन प्रशासन और पुलिस ने उन पर नक्सलियों और माओवादियों का साथ देने का इल्ज़ाम मढ़ते हुए उन्हें जेल पहुँचा दिया। क़रीब तीन साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें यह कहते हुए रिहा किया कि उनके खिलाफ़ कोई सुबूत नहीं पाये गये । मगर यह फ़ैसला आने तक एक निर्दोष और जन-सेवी डॉक्टर 3 साल जेल की सज़ा काट चुका था। इससे पुलिस-प्रशासन की अपरिमित दमनकारी ताक़त की कल्पना ही की जा सकती है । </strong></span></div><div align="justify"><br />किसी व्यक्ति के चिकित्सक होने और उसके समाजसेवी होने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी न रहेगी । इस राज्य में ऐसे कई चिकित्सक हैं जो डॉ. विनायक सेन की तरह सामाजिक सेवा कर रहे हैं । आदिवासियों की चिकित्सा-सेवा में वे संलग्न वे अकेले नहीं हैं । कुछ तो डॉ. विनायक सेन से भी अधिक सामाजिक भाव से अपनी जगह बिना किसी प्रचार के लगे हुए हैं । जहाँ तक उन्हें प्रशासन और पुलिस द्वारा जेल पहुँचाने का प्रश्न है उन्हें (राज्य में प्रकाशित सभी प्रमुख समाचार पत्रों के अनुसार ) जेल में निरूद्ध नक्सली एवं जेल से बाहर भी नक्सलियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने में लिप्त पाया गया है । </div><div align="justify"><br />उपर्युक्तानुसार दिनांक 2 अगस्त, 2007 को सक्षम न्यायालय में प्रकरण (क्रमांक 1335/07) की चालान प्रस्तुत की गई है । वर्तमान में यह प्रकरण न्यायालय में प्रचलित है जिसमें गवाहों की पेशी लगातार ली जा रही है । </div><div align="justify"><br /><strong><span style="color:#3333ff;">यह आपको किसने बता दिया है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया है ?</span></strong> <strong><span style="color:#3333ff;">इतना तो झूठ मत फैलाइये उनके पक्ष में । उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ जमानत पर छोड़ा गया है । न तो उन पर चलनेवाले केश समाप्त किये गये हैं न ही उनके आरोपों को शिथिल किया गया है । न ही अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं है । कोर्ट का फ़ैसला आ जाने दीजिए, तब आप बड़ी दमदारी से कह सकते हैं कि लो, ये देखो, छत्तीसगढ़ पुलिस की करतूत..... मैं समझ नहीं पा रहा हूँ आप अभी से क्यों न्यायालय का काम भी अपने हाथों लेना चाह रहे हैं ? </span></strong></div><div align="justify"><br />आपने श्री विश्वरंजनजी को यह भी लिखा है कि - <span style="color:#ff0000;"><strong>मुझे यह पता चला है कि आप कविता भी लिखते हैं । इसलिए मेरी यह जिज्ञासा है कि अपने इस क़िस्म के सरकारी काम और कवि-कर्म के बीच क्या आपको कोई यातनाप्रद द्वंद्व महसूस नहीं होता या कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई अंतर्विरोध या द्वंद्व हो ही नहीं ?</strong></span></div><div align="justify"><br />इस प्रश्न का जवाब तो वे ही दे सकते हैं किन्तु मैं जितना उनके बारे में जानता हूँ वही बता सकता हूँ और वह यह कि वे कविता लिखते हैं और बखूबी लिखते हैं । वे हमारी दृष्टि से हिन्दी के समकालीन कवियों में महत्वपूर्ण हैं । विश्वविख्यात शायर और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फ़िराक़ गोरखपुरी के नाती होने के नाते उतने ही देशप्रेमी और देशभक्ति से ओतप्रोत भी हैं । तीन-तीन चार-चार किताबें छप चुकी हैं उनकी । केदारनाथ सिंह जैसे बड़े कवि उन्हें चाहते हैं । खैर... उनके मन में भी माओवादियों और नक्सलवादियों के प्रति पूरी हमदर्दी है बशर्ते कि वे हिंसा त्यागें । प्रजातंत्र की व्यवस्था को स्वीकार करें । आदिवासियों को प्रताड़ित न करें । </div><div align="justify"><br />आपके ई-पत्र में उल्लेखित है कि<span style="color:#ff0000;"><strong> श्री प्रमोद वर्मा, जिनके नाम पर यह आयोजन हो रहा है और पुरस्कार बाँटे जा रहे हैं - पहला सवाल तो यह है कि अगर वे कहीं हैं, तो उन्हें कैसा लग रहा होगा ? दूसरी बात यह कि उपर्युक्त सरकारी कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए ही क्या यह आयोजन नहीं किया जा रहा है ? कैसी विडम्बना है कि आपने इस संगोष्ठी में "आलोचना का प्रजातंत्र "शीर्षक एक पूरा सत्र ही रखा हुआ है; जबकि आपके निज़ाम में न आलोचना की कोई वास्तविक गुंजाइश है और न निरीह प्रजा की ही कोई सुनवाई ! यह भी कोई महज़ संयोग नहीं कि पुरस्कृत और उपकृत करने के लिए आपने आलोचकों को ही निशाना बनाया; जिससे 'आलोचना' का रहा-सहा साहस, संवेदनशीलता, मूल्यनिष्ठता, प्रश्नाकुलता और विवेक का भी अपहरण किया जा सके और उसे निष्प्रभ एवं निस्तेज बनाया जा सके ! </strong></span></div><div align="justify"><br />छीः छीः । आपने यह कैसे सोच लिया कि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान किसी डीजीपी का संस्थान है या राज्य शासन का संस्थान है। वह जनतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास रखनेवाले साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों का आत्मीय संगठन है जिसके वे अध्यक्ष हैं । अध्यक्ष इसलिए नहीं कि वे राज्य के डीजीपी हैं । अध्यक्ष इसलिए क्योंकि वे प्रमोद जी के परम साहित्यिक मित्र हैं और लगभग एक शिष्य भी । एक अच्छे विचारक, लेखक, फोटोग्राफर, चित्रकार और चिंतक भी हैं । उन्होंन कभी अतिवाद का समर्थन नहीं किया है । प्रमोद वर्मा ने भी कभी अतिवाद का समर्थन नहीं किया हालांकि वे घोर प्रगतिशीलता और जनवादिता के समर्थक रहे हैं । </div><div align="justify"><br />आप प्रमोद वर्मा के बारे में कितना जानते हैं, यह मैं नहीं जानता पर मैं उस प्रमोद वर्मा को जानता हूँ जो मुक्तिबोध, परसाई, श्रीकांत वर्मा प्रभृति बड़े रचनाकारों के आलोचक, कवि, नाटककार मित्र थे और हमारे शहर रायगढ़ के नामी शिक्षाविद् भी । उन्होंने कभी भी विचारों के किलेबंदी को नहीं स्वीकारा । मार्क्सवादी सौंदर्य दृष्टि रखते हुए भी वे विशुद्ध देशीयता को खारिज़ नहीं किया करते थे । वे ऐसे माओवादी और नक्सलवादी हिंसा के पूर्णतः विरोधी थे जो ग़लत साधन से सत्ता प्राप्ति का पक्षधर हो । प्रमोद जी को आप और आप जैसे आलोचक तो जाने कब के बिसार चुके थे । यह तो विश्वरंजनजी ही हैं जिनके बल पर उनकी स्मृति में दो दिवसीय आलोचना संगोष्ठी संभव हो सका । </div><div align="justify"><br />यह मूर्खतापूर्ण टिप्पणी और शंका है कि उनके द्वारा सरकारी कृत्यों को ढंकने के लिए यह (यानी 10-11 जुलाई, 2009 को संपन्न) आयोजन किया जा रहा था । आपने यह कैसे तय कर लिया कि देश का एक ईमानदार अधिकारी और प्रख्यात कवि का नाती ऐसा कर सकता है । ढोंग तो कोई माओवादी ही कर सकता है । कोई नक्सलवादी ही कर सकता है जो धनपिसासु और सुविधाभोगी को रुपया खिलाकर अपने पक्ष में और मानवाधिकार की आड़ में लेख लिखवा रहा है, समाचार छपवा रहा है । </div><div align="justify"><br />यदि आपकी कुंशका आधारहीन नहीं होती तो श्री अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, शिवकुमार मिश्र, प्रभाकर श्रोत्रिय, ए. अरविंदाक्षन, नंदकिशोर आचार्य, एकान्त श्रीवास्तव, खगेन्द्र ठाकुर, रमेश दवे, कमला प्रसाद, डॉ. श्याम सुंदर दुबे, डॉ. श्रीराम परिहार, भगवान सिंह, कृष्णमोहन, देवेन्द्र दीपक, डॉ. रंजना अरगड़े, मुक्ता, अरुण शीतांश, ओम भारती, अशोक माहेश्वरी प्रभृति देश के विद्वान साहित्यकार और राज्य से विनोद कुमार शुक्ल, प्रभात त्रिपाठी, रमाकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, रवि श्रीवास्तव, कमलेश्वर, विनोद साव, शरद कोकास, डॉ. बलदेव, डॉ. बिहारीलाल साहू, नंदकिशोर तिवारी, श्यामलाल चतुर्वेदी, जया जादवानी, वंदना केंगरानी, जैसे लेखक, कवि और सारे राज्य से कई साहित्यकार नहीं आते । तो भाई ख़ामखां मतिभ्रम का शिकार मत होवें । </div><div align="justify"><br />अब आपको यह तो बताने या जताने की ज़रूरत तो नहीं पड़ेगी कि इनमें से कई तो प्रगतिशील है और कुछ जनवादी । फिर इन्हें या किसी को भी किसी भी सत्र में कुछ भी बोलने से रोका गया होता तो आपकी बात सही साबित होती और आप जैसे जागरूक आलोचक तक यह बात पहुँच भी गयी होती । यह विश्वरंजन नामक पुलिस महानिदेशक का विशुद्धतः निजी आयोजन होता तो उसकी कुशंसा सिर्फ़ आपको ही नहीं, इन सारे महत्वपूर्ण लेखकों को भी होती, जैसा कि भूले से भी नहीं हुई । </div><div align="justify"><br />आपको अब मै किन शब्दों में और कैसे क्या-क्या बताऊँ कि इन लोगों को पुलिस के डंडे के बल पर पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने नहीं बुलवाया गया था और न ही ये यहाँ उनसे क़दमताल मिलाने आ गये थे बल्कि संस्थान के अध्यक्ष विश्वरंजन ने आमंत्रित किया था । भगवान बचाये ऐसी धारणा से....<br />कहीं आप श्रीभगवान सिंह या श्री कृष्ण मोहन को सम्मान दिये जाने के विरोध में तो ऐसा नहीं कह रहे हैं । शायद नहीं ना, जिनका चयन आदरणीय केदारनाथ सिंह, डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, डॉ. धनंजय वर्मा ने किया था ( न कि विश्ररंजन ने सिर्फ़) ।</div><div align="justify"><br />मुझे तो आपका पत्र पढ़कर यह भी शक़ होने लगा है कि कहीं आप बिलावजह तिल का ताड़ बनाने के आदि भी तो नहीं, और आपने रायपुर वाले आयोजन में नहीं आने का कोई फौरी बहाना गढ़ लिया हो । क्योंकि आप तो उन सारे राज्य में साहित्यिक सम्मेलनों में जाते हैं जिनकी सरकारें माओवादी हिंसा और नक्सलवाद का विरोध करती हैं और जहाँ बहुत सारे शासकीय अधिकारी ऐसे आयोजनों को अंजाम देते हैं । ख़ैर... मुझे आपके पत्र के बहाने कुछ सत्यों को बताने का मौक़ा मिला.. इसलिए मैं भी आपके ई-पत्र के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा । </div><div align="justify"><br />आपने हमारे संस्था के अध्यक्ष को प्रेषित अपने ई-पत्र को सार्वजनिक कर दिया है अतः मैं भी अपने इस ई-पत्र को सार्वजनिक करने बाध्य हूँ । पर इसके लिए आपसे क्षमा भी चाहता हूँ । देखें, कब मिलना होता है आपसे ? </div><div align="justify"> </div><div align="right"><span style="color:#cc0000;">आपका अपना<br />जयप्रकाश मानस<br />कार्यकारी निदेशक<br />प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़<br /> </span></div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com21tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-48806289780192640702009-07-08T18:40:00.000-07:002009-07-08T18:49:42.433-07:00छत्तीसगढ़ में ब्लॉगरों की संगोष्ठी कलकल 10 जुलाई को रायपुर में ब्लॉगर्स भी दो दिवसीय राष्ट्रीय आलोचना समारोह के बहाने शरीक हो रहे हैं । उनके बीच रहेंगे - देश और प्रदेश के नामी साहित्यकार ।<br /><span class=""></span><br />क्या आप भी पधार रहे हैं ?<br /><span class=""></span><br /><a href="http://srijansamman.blogspot.com/2009/07/blog-post.html"><span style="color:#cc0000;">विस्तृत जानकारी यहाँ देखें </span></a>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-39827867531800320692009-07-06T19:55:00.000-07:002009-07-06T20:04:59.782-07:00“वग़ैरह” के भीतर और बाहर<div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;">प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष</span></strong><br />हमारे बौद्धिक प्रवर कनक तिवारी जी का छत्तीसगढ़ में प्रकाशित लेख (29 जून, 2009) पढ़कर मुझे भी कुछ कहने का अवसर मिल रहा है । आपने प्रमोद वर्मा पर सोलह आने सच लिखा है कि हम सबने और सरकार ने भी उन्हें लगभग बिसार दिया था । उन पर आगामी 10-11 जून को होने वाला विशालकाय आयोजन विश्वरंजन के बग़ैर नहीं हो सकता आदि-आदि । उसके लिए आपको और विश्वरंजन दोनों को ही साधुवाद। आपको इसलिए क्योंकि आप बहुधा बड़ी ताक़त के गिरेबां में भी झाँकने का हौसला रखते हैं । इस लेख में आपने उन चरित्रों को धोया है जो साहित्य के अंतःपुर को संचालित करने का दंभ भरते हैं । विश्वरंजन को इसलिए कि वे सचमुच बिना लाभ-हानि के बड़ा काम करने का सपना देखते हैं । वह भी छत्तीसगढ़ का मूल निवासी हुए बिना । यह उनकी छत्तीसगढ़ के साहित्यिक बिरादरी के प्रति असीम स्नेह भी है । क्योंकि वे स्थानीयता को नहीं जीते, वे सदैव एक राष्ट्रीय मन से सोचते हैं । और यदि ऐसा वे सोचते हैं तो उसके पीछे उनके नाना फ़िराक़ और गुरुतुल्य प्रमोद जी का जीवन और पाठ भी होता है । </div><div align="justify"><br />मुझे विनम्र भाव से आज आपके “वग़ैरह” शब्द के बहाने कुछ कहना है। यह ‘वग़ैरह’ क्या बहुत ही सिमटा और सिकुड़ा हुआ नहीं है । इसे क्या विस्तारित करने की ज़रूरत नहीं है । प्रमोदजी सचमुच तेज़-तर्रार लेखक थे, इस हद तक कि लेखक होने के नाते अपने स्वाभाविक आकांक्षाओं और लाभों की परवाह भी नहीं किया करते थे। चिकनी चुपड़ी बातों से उन्हें साफ़ परहेज़ था । एक हद तक मुँहफट । शायद इसलिए भी कि वे उस सूची में स्वयं को समादृत होने का सपना नहीं पालते थे जो दो-चार बार देश की कथित बड़ी पत्रिकाओं में छप जाने के बाद स्वयं को बड़े लेखकों में शुमार किये जाने का मुगालता पाले रहते हैं । वे किसी लेखक के टूटपुँजिए आलोचकों के लेखे से सूचीबद्ध होने के सख़्त ख़िलाफ़ थे । वे स्वयं अत्यधिक आत्मसजग और आत्मसम्मानी थे किन्तु इस तरह नहीं कि लोग उनकी चर्चा संबंधित विधा, प्रवृत्ति, दृष्टि, भूगोल आदि के बहाने किया करें और वे अमरत्व प्राप्त कर लें । ऐसा अमूमन औसत दर्ज़े का लेखक सोचता है । यह दीग़र बात है कि नामों को शुमार करने-करानेवालों की मंडली साहित्य की दुनिया में सदैव उपस्थित रही है जो ‘तू मेरा पूँछ सँवार- मैं तेरा सँवारूँगा’ के एजेंडे पर काम करती हैं । ऐसी मंडली के लोग अन्य को ‘वग़ैरह’ के खाँचे में डालकर मुदित हुआ करते हैं। कि उन्होंने फलां को निपटा दिया । इस लेख में आपका आशय यह कदापि नहीं कि आप अपने पसंद के लेखकों के अलावा शेष को “वगैरह” की निकृष्ट कोटि में रखना चाहते हों । न ही आपका ऐसा स्वभाव रहा है । सच तो यह भी है कि लेख का मुद्दा छत्तीसगढ़ के साहित्येतिहास लेखन भी नहीं है । आप अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के बावजूद प्रमोदजी को लगातार याद कर रहे हैं यह प्रमोदजी की आत्मा के लिए भी बड़ी बात है । आप तो जानते हैं प्रमोद जी आत्मा और परमात्मा को भी मानते थे । वे वैसा मार्क्सवादी नहीं थे जो ईश्वर की मौत के बाद ही विचारों के गटर में पालथी मारके आसन जमाना चाहता है । </div><div align="justify"><br />चूँकि आपका लेख बहुत बड़ा है इसलिए उसमें ‘वग़ैरह’ के पहले और कुछ नामों को प्रवेश देने की गुंजाईश बनती थी । यह जो ‘वग़ैरह’ शब्द है अपनी बारी से पहले आ गया है । शायद अनाधिकृत चेष्टा करते हुए । कुछ शब्द होते ही हैं ऐसे जो बलात् प्रवेश कर जाते हैं हमारे जेहन में । ऐसे शब्द कईयों को चुभते हैं । मनुष्य जीवन-भर इस दर्द से उबर नहीं पाता । शायद प्रमोदजी को भी इसी तरह ‘वगैरह’ की परिधि में डाल दिया था कुछ हितनिष्ठों ने । आज भी उन्हें कुछ ऐसी नज़रों से देखते हैं । दूर क्यों जायें अपने छत्तीसगढ़ में ही । आप जब प्रसंगवश छत्तीसगढ़ के लेखक बिरादरी की चर्चा कर ही दिये हैं तो मैं इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उस ‘वगैरह’ शब्द को कुछ हद तक अनावृत करना चाहता हूँ जो मुझे नहीं पर उन लोगों को चुभ सकता है जो ‘वगैरह’ के भीतर नहीं बल्कि बड़े दमदारी से खड़े हैं । एकाध को उनकी ठोस शिनाख्तगी नहीं दिखाई देती तो उसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता । </div><div align="justify"><span class=""></span> </div><div align="justify">तो कनक भैया, ‘वगैरह’ शब्द को साफ़ तौर पर खोलने की गुंजाइस 100 प्रतिशत हैं । हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है किन्तु इस ‘वगैरह’ में वे भी हैं जिन्हें शायद हमें पढ़ना चाहिए । यह बिलकुल अलग बात है कि आप-हम सबको नहीं पढ़ सकते । और हम अकसर स्वरूचि व्यंजन की तरह लेखकों को बड़ा या छोटा साबित करते रहते हैं । मैं यहाँ आपको खंडित करना नहीं चाह रहा । ऐसा मेरा किसी भी कोण से लक्ष्य नहीं है किन्तु कनकजी कदाचित् हम लेखकों के इतिहास लेखन की यही प्रवृत्ति अन्य माहिर-जाहिर लेखकों के मन में चूभती भी है । कहें कैसे ? छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो और भी ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें साहित्य के पवित्र मनवाले पाठकों को जानना चाहिए – जैसे डॉ. शोभाकांत झा, बख्शीजी के बाद ललित निबंध को संभाले हुए हैं। छः उत्कृष्ट किताबें दे चुके हैं हिन्दी के ललित संसार को । जैसे डॉ. बलदेव, ये न होते तो शायद मुकुटधर पांडेय का वैसा मूल्यांकन नहीं हुआ होता, जैसा कि हो सका । जैसे जगदलपुर के लाला जगदलपुरी बिलासपुर के पालेश्वर शर्मा और नंदकिशोर तिवारी। क्या उनके लोक-लेखन को एकबारगी बिसारा जा सकता है । जैसे हरि ठाकुर, नारायण लाल परमार, आनंदी सहाय शुक्ल, नरेन्द्र श्रीवास्तव, शंकर सक्सेना, डॉ. चित्तरंजन कर, डॉ. अजय पाठक गीत के लघु हस्ताक्षर तो हैं नहीं जिन्हें हिन्दीवालों को पढ़ना ही नहीं चाहिए । इन्होंने हिन्दी गीतों की युगीन प्रवृत्तियों को लाँघने की चेष्टा की है । शंकर सक्सेना तो नवगीत दशक के विश्वसनीय सर्जकों में आदरणीय हैं । बस्तीवासी अष्टभुजा शुक्ल के जिन पदों को हम कविता का नया शिल्प मान रहे हैं वैसा तो जाने कबसे आनंदीजी लिख गये हैं। मुस्तफ़ा, काविश हैदरी, मुमताज़, रज़ा हैदरी, नीलू मेघ, अब्दूल सलाम कौसर की ग़ज़लों के बारे में आप क्या कहेंगे? एकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, वंदना केंगरानी, वसंत त्रिपाठी, कमलेश्वर, विजय सिंह, रजत कृष्ण, मांझी अनंत, हरकिशोर दास, संजीव बख्शी, रमेश अनुपम, देवांशु पाल, बी.एल.पाल की कविता-कर्म को ‘वगैरह’ में नहीं रखा जाना चाहिए । जो गुरुदेव काश्यप चौबे की कविता के बारे में नहीं जानता वह छत्तीसगढ़ की कविता के बारे में आखिर कितना जानता है या जानना चाहता है । विभू खरे, देवेश दत्त मिश्र, अख्तर अली के नाटकों को कैसे भूला दिया जा सकता है ?</div><div align="justify"><br />स्नेहलता मोहनीश, आनंद बहादुर सिंह, विनोद मिश्र, एस. अहमद भी टक्कर के कथाकार हैं यह कौन बतायेगा ? राम पटवा, हेमंत चावड़ा, सरोज मिश्र, डॉ. महेन्द्र ठाकुर, डॉ. राजेन्द्र सोनी की लघुकथाओं को शायद बड़े लोग नहीं पढ़ते । अजी, राम पटवा वही जिसकी लघुकथायें विष्णु प्रभाकर जैसे वंदनीय रचनाकार को जीवन के अंतिम क्षणों में आत्मकथा लिखते समय भी याद आती रहीं । महेन्द्र, राजेन्द्र और सरोज का मतलब कम लोग जानना चाहते हैं कि ये लघुकथा को हिन्दी में स्थापित करनेवाले कद्दावर रचनाकार हैं । विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुव पांडेय, गिरीश पंकज के व्यंग्य के बग़ैर परसाई, जोशी श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य-परंपरा आगे नहीं बढ़ती । यह भी हम नहीं जानते तो हमारा छत्तीसगढ़ के साहित्य के बारे में जानना अल्प जानना होगा । </div><div align="justify"><span class=""></span> </div><div align="justify">केवल कथा और कविता ही साहित्य की विधा और उसके रचनाकार ही रचनाकार नहीं कहलाते । सुधीर भाई केवल प्रकाशक का व्यवसायी दिल रखते तो यूँ ही देखते-देखते 300 किताबें नहीं छप जातीं । प्रभात त्रिपाठी बिलकुल ठीक ही कहते हैं – राष्ट्रीय स्तर-वस्तर कुछ नहीं होता । ख़ासकर तब जब आप ऐसी पत्रिकाओं में छपकर स्वयं को राष्ट्रीय हुआ देखने लगते हैं जो किसी किसी वाद, गुट, विचार और निजी कुंठाओं से परिचालित होती है । दिल्ली, मुंबई से छप जाना और वहीं के किसी कथित आलोचकों की याद में आ जाने से कोई बड़ा नहीं हो जाता, न मैं न तुम न और कोई । वह भी ऐसे दौर में जब साहित्य को चलानेवाले लोग बाज़ारवादी मन-बुद्धि से सोचते हों । छत्तीसगढ़ के कितने ऐसे लेखक हैं जिन्हें उनका पड़ोसी उन्हें एक लेखक के रूप में भी जानता है । अब तुम ही देखो – तुमने विश्वरंजन के पत्र को छत्तीसगढ़ के 500 लोगों तक पहुँचाया और उसमें से कितने लोगों ने प्रमोद जी पर आलेख दिये? कितनों ने उनके पत्र की फोटो काफी उपलब्ध कराया? कितने लोगों ने मूर्ख की तरह यह नहीं कहा कि ये प्रमोद वर्मा थे कौन ? तुम तो जान चुके हो कि जिसे तुमने बड़ा लेखक मानने का भ्रम पाले हुए थे उसी ने तुम्हें कह दिया कि वह प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में श्रोत्रा की हैसियत से आयेगा किन्तु प्रमोदजी पर साधिकार बोलने की दक्षता-संपन्न होने के बाद भी नहीं बोलेगा । क्यों नहीं बोलेगा भई ? उसकी मर्जी। मानस, तुम यह भी जानते हो कि जो ‘वगैरह’ होते हैं वे ही ऐसे बड़े आयोजनों को अमली जामा पहनाने में सबसे पहले आते हैं । तो केवल सूचीबद्ध बड़े साहित्यकारों को बड़े साहित्यकार कभी मत मानो। इसकी याद कराने की शायद ज़रूरत नही कि नाम बड़े और दर्शन छोटे । यह दीगर बात है कि वे “बड़े” साहित्यकार भी हो सकते हैं । सबको साथ लेकर चल सकते हैं। प्रमोद जी के साथ यही हुआ, उनके जाने के बार उन्हें बड़े साहित्यकारों ने इसलिए बिसार दिया क्योंकि उन्हें याद करने पर कोई रिटर्न नहीं आनेवाला । यानी हानि का व्यापार । तुम तो उनके शुक्रगुज़ार बनो जिन्होंने पहले ही पत्र पर प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शरीक होने की उत्साहवर्धक सहमति दे दी और जो प्रमोद जी के लिए सारा-धंधा पानी छोड़कर चले आ रहे हैं ।<br /> </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-56109490197915374182009-07-06T06:12:00.000-07:002009-07-06T06:18:33.786-07:00प्रमोद वर्मा, विश्वरंजन और कुछ लोग<div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;">प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष</span></strong> </div><div align="justify"><br /> ‘कुछ लोग’ प्रमोद वर्मा को नहीं जानते । ‘कुछ लोग’ यह भी नहीं जानते कि हर कोई प्रमोद वर्मा को नहीं जान सकता । वैसे ‘कुछ लोग’ स्वयं के बारे में भी नहीं जान पाते । बात ऐसे ‘कुछ लोगों’ की नहीं हो रही है । बात उनकी होनी चाहिए जो लोग प्रमोद वर्मा को कुछ-कुछ जानते हैं, उनके कुछ अनजाने को भी स्वयं और समूची दुनिया के लिए जानना ज़रूरी समझते हैं। विश्वरंजन उन कुछ लोगों में अव्वल हैं जो प्रमोदजी को जानने-समझने और समझाने के लिए मूर्खतापूर्ण आरोपों, कुढ़ों, फब्तियों की संभावना का आंकलन किये ब़गैर कठिन धर्मनिर्वहन में लगे हैं । निहायत संवेदनशील जो ठहरे । </div><div align="justify"><br />कठिन इसलिए कि कुछ लोगों के मुताबिक उन्हें सिर्फ़ पुलिस महानिदेशक होना चाहिए । आत्मावान् मनुष्य नहीं । विचारवान् नहीं । उन्हें संस्कृति-वंस्कृति से कोई लेना-देना नहीं चाहिए। मैं उनसे पूछता हूँ – हुजूर, मुझे क्यों धंसा दिया आपने समारोह के संयोजन में? जब आप जैसे बड़े आदमी को राज्य के पालनहार और जिम्मेदार क़िस्म के ‘कुछ लोग’ यहाँ तक कह देते हैं कि विश्वरंजन प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष नहीं बन सकते तो वे हमारे जैसे कीडे-मकोड़े (सामान्य आदमी)को किस तरह निपटाने की सोच रहे होंगे ? जैसे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान उनकी अपनी सरकारी बपौती है जहाँ वे जिसे चाहे उसे बैठायें । प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान कोई राजनीतिक पद तो है नहीं कि उस पर शीर्षस्थ राजनेता के पिछलग्गू को ही बिठाया जाय । उन्हें कौन समझाये कि यह देश और राज्य के साहित्यकारों की साहित्यिक संस्था है जिसमें विश्वरंजन अपने सभी सदस्यों के आग्रह पर वह गैरराजनीतिक, गैरलाभकारी पद का गुरुत्तर भार स्वीकार किये हैं । शायद इसलिए कि वे प्रमोदजी को गुरुतुल्य मानते रहे हैं । शायद इसलिए कि उनमें फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर और स्वतंत्रताकामी सपूत का ख़ून भी दौड़ता है । शायद इसलिए भी कि वे राज्य को विचारवान, गुणवान और सुसंस्कृत बनाने का सपना भी देखते हैं । शायद इसलिए कि वे और अफसरों की तरह सिर्फ अपनी हेकड़ी में मरना नहीं चाहते । यह बिलकुल दीगर बात है कि ऐसे ‘कुछ लोग’ अक्सर किसी कुंठा का शिकार होकर उलजूलूल बकते रहते हैं और राजनीति में यह सब चलता भी रहता है । </div><div align="justify"><br />वैसे ऐसे ‘कुछ लोगों’ को अपने ही राज्य के नियम-क़ायदों का ज्ञान नहीं होता कि उनका कोई भी अधिकारी कला, साहित्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास से संबंधित वह सभी कार्य कर सकता है जो राज्य की संप्रभुता को चुनौती न देता हो । ‘कुछ लोग’ यहाँ तक कहते पाये जा सकते हैं कि आप अपनी ज़मीर को छोड़कर आयोजन के बहाने रुपया बटोर रहे हैं और कुछ हिस्सा मुझे भी दे रहे हैं । भई क्या बात है, जैसे जीवन-भर पुलिस विभाग में रहते हुए विश्वरंजन को कुछ नहीं मिला....तो चले साहित्य के बहाने पैसा कमाने । जैसे विश्वरंजन किसी भूखमर्रे किसिम के मेट्रिक पास नेता है जो बड़ा से बड़ा राजनीतिक पद पाजाने के बाद भी चंदा दलाली से ज्यादा नहीं सोच सकता । तौबा-तौबा। कुछ तो लिहाज़ करो फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर और संग्राम सेनानी के संस्कारवान नाती पर.....</div><div align="justify"><br />विश्वरंजन कुछ नहीं कहते, सिर्फ मुस्काते देते हैं- जैसे उनकी मुस्कान में ये सारे भाव-उत्तर छुपे हुए हों कि मानस, ऐसे ‘कुछ लोग’ जो कम पढ़ लिखे होते हैं, जीवन-भर यही काम करते रहते हैं । और ऐसे लोग सिर्फ राजनीति में नहीं साहित्य में भी होते हैं । तुम और हम और बहुत सारे लोग भी ऐसे ‘कुछ लोगों’ जैसे नहीं होते । शायद इसलिए प्रमोदजी जैसे विभूतियों पर कुछ होने की पहल हो पाती है । </div><div align="justify"><br />प्रमोदजी ऐसे ‘कुछ लोग’ की चिंता नहीं किया करते थे । वे जानते थे कि समाज में ‘कुछ लोग’ ऐसे होते ही हैं जो वे कुछ करें तो ठीक । दूसरा कुछ करे तो गलत । ऐसे लोग जीवन भर विघ्नसंतोषी बने रहते हैं । दरअसल ऐसे लोग ऐसे मौकों पर अपनी विशेषज्ञता प्रतिपादित करने के लिए जुमले उछालते हैं । ताकि आप उन्हें मनायें तुलसीदास की पंक्ति को याद करते हुए – प्रथमहू बंदऊँ खल के चरना । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो बड़े बड़े लेख लिख सकते हैं परन्तु दिये गये विषय पर लिखने में उन्हें नानी याद आ जाती है । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जिन्हें लगता है कि वे प्रमोदजी जैसे छोटे साहित्यकार पर लिखकर अपने बडप्पन को छोटा करने का ख़तरा नहीं उठा सकते । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो आपके हर कामों में मीन-मेख निकालकर ऐसे आयोजनों में आपकी अस्थिपंजर एक कर देते हैं । कुछ नहीं मिला तो प्रूफ की ओर इशारा करके आपके निष्कलुष श्रम पर ऊँगलियाँ उठा देते हैं । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो भीतर से तो ऐसे पवित्र आयोजनों से जुड़े होते हैं किन्तु आपको पता ही नहीं लगता कि वे अपना मूल्य कब और कैसे आपसे वसूल लेते हैं । </div><div align="justify"><br />साहित्यवाले भी समाज से आते हैं । जैसा समाज वैसे ही उसके साहित्यकार । किस-किस पर रोयें ? किस किसकी कितनी परवाह करें । परवाह करेंगे तो राज्यहित में ऐसे काम नहीं कर सकते । चलिए... चलते-चलते भैया परदेशीराम वर्मा जी के उस आलेख की भी चर्चा कर लेते हैं जिसका देह संपूर्ण पवित्र है किन्तु उसमें धड़ लगा है वह निहायत अपवित्र है यानी उनके शब्दों में जी हाँ, वे प्रमोद वर्मा को नहीं जानते । केवल उनकी पूजा करते हैं । भई बिना जाने कोई किसी की पूजा भला क्योंकर करेंगा ? लेख में मेरा जिक्र करके उन्होंने कुछ पर्दादारी कर दी है । उसका रहस्य खोल देते हैं । हाँ, मुझे उन्होंने कहा था कि वे प्रमोद वर्मा को नहीं जानते पर उन पर केंद्रित इस आयोजन में ज़रूर आयेंगे । तब मैंने यह भी कहा था कि आप आ रहे हैं यही प्रमोद जी को जानना है । मैंने यह भी कहा था कि कुछ लोग आपको और कुछ लोग मुझे भी नहीं जानते जिसके लिए हम जिंदगी भर लगे रहते हैं कि लोग हमें जाने । उस समय संस्थान के अध्यक्ष भी विश्वरंजनजी भी साथ थे । बात तो हुई छत्तीसगढ़ी में पर विश्वरंजन जी सब समझ रहे थे । उन्होंने सहर्ष आयोजन में पधारने की स्वीकृति भी दी थी कि वे ज़रूर प्रमोदजी पर बोलेंगे । इसके पहले भी सुधीर शर्मा ने बताया था कि इस आयोजन को लेकर परदेशीराम वर्मा का कहना है कि उन्हें सिर्फ संवाद में रखा गया है जबकि उन्हें अच्छे आसंदी में रखे जाने की उम्मीद थी । मैंने मित्रों की चर्चा में बिना किसी पाप के अशोक सिंघई जी को कह दिया जो संस्थान के उपाध्यक्ष हैं कि वे उन्हें मनालें । तो उन्होंने उसी तरह परदेशीजी को हड़का दिया जैसे एक मित्र को दूसरा मित्र हड़का देता है और दोनों एक दूसरे को ऐसे तो कई बार हड़का चुके होंगे । इसके कुछ ही दिन बात मुझे परदेशीजी का पत्र मिल गया कि उन दिनों जब प्रमोद जी पर केंद्रित आयोजन हो रहा होगा वे अन्यत्र व्यस्त रहेंगे अतः अपनी शुभकामनायें ही भेज सकते हैं । अब मैं तय ही नहीं कर पा रहा हूँ कि ऐसी शुभकामनाओं का क्या उपयोग किया जाये ? आपमें से किसी को इसका दिव्यज्ञान तो कृपया मुझे अवश्य सूचित करें ।</div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-29457357661291784262009-05-23T01:09:00.000-07:002009-05-23T01:15:32.477-07:00कहीं आप भी जुगुल किशोर तो नहीं बन रहे है<div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;">किस्सा-ए-सायबर अपराध</span></strong><br /> आप यदि मोबाइल यूजर्स हैं या फिर इंटरनेट यूजर्स तो आपके जुगुल किशोर बनने की संभावना बढ़ जाती है । तब शायद आप भी किसी ईनाम, लाटरी, पुरस्कार वाले मैसेज या ई-मेल के झाँसे में लाखों रूपये गँवा बैंठे और तब तक पुलिस को न बतायें जब तक आपको कोई वास्तविक ईनाम, पुरस्कार या लाटरी न मिले यानी कि चारों तरफ से अँधेरा घिरने लगे, आँखें भर आये, घर-बार और मित्रों में आपकी लालच पर लानत मिलने लगे । आप सावधान रहें - कहीं कोई आपको जुगुल किशोर बनाने का षडयंत्र तो नहीं कर रहा है .....</div><div align="justify"> </div><div align="justify">कहानी कुछ इस प्रकार की है । 13 मार्च, 2009 को जुगुल किशोर सिंह, वल्द श्री सत्यपाल सिंह, निवासी 1/c, विश्रामपुर, जिला कोरिया के मोबाइल नं. 99266-72062 पर आइडिया टावर से एक मैसेज आया कि वे आइडिया सिम खरीदने में लाटरी आपके नाम निकलने पर 4 लाख यूएस डालर जीत चुके हैं । इस संबंध में एक ई-मेल श्री सिंह के मोबाइल पर भेजा गया था, जिसके झांसे पर आकर जुगुल किशोर ने मोबाइल नंबर सहित तुरंत अपना जवाब भेज दिया । </div><div align="justify"><br />इसके बाद नेट बेस्ट बैंक यूके के डायरेक्टर Mr. John Bosco Bmegine द्वारा जुगुल किशोर से उसके पुरस्कार की राशि पार्सल से भेजने हेतु पार्सल खर्चा के रूप में 12,760 रुपये की माँग की गई । इस पर श्री किशोर द्वारा मि. जान द्वारा बताये गये एकाउंट नम्बर पर उतनी राशि भेज दी गई । इसके 3 दिन बाद दूसरे व्यक्ति Mr. Johnwhite ने मो. नं. 9873194018 से उसे सूचित किया कि वह पार्सलमैन बनकर भारत आया है तथा कस्टम ड्यूटी क्लियरेंस करने हेतु उसे 2.04 लाख रूपये अलग-अलग एकाउंट नम्बर पर जमा कराने होंगे । इस पर पुनः श्री किशोर द्वारा बताये गये एकाउंट पर 2.04 लाख रूपये जमा कर दिया गया । रुपये जमा होने पर श्री किशोर को पार्सल डिलेवरी लेने हेतु दिल्ली बुलाया गया । श्री किशोर अपने बड़े पुत्र के साथ जब दिल्ली पहुँचे तब उन्हें Mr. Ienis Barister नामक एक नाईजीरियन व्यक्ति मिला जिसने उक्त पार्सल खोलकर दिखाया । उसमें एक काला रंग का यूएस डालर पैक था । उसने श्री सिंह से कहा कि असली रूप में यूएस डालर बनाने हेतु एक केमिकल ज़रूरी है, जिसे खरीदने पर करीब 15 लाख रूपये खर्च होंगे । इसके लिए उसने आईसीआईसीआई, एसबीआई, एक्सिस बैंक के 32 विभिन्न बैंक एकाउंट्स में जमा करने हेतु कहा । विश्वास दिलाने के लिए उसने दो काला रंग के डालर को सेम्पल केमिकल से असली डालर बनाकर बताया । श्री जुगुल किशोर और उसके पुत्र को विश्वास हो जाने पर उन्होंने अपने परिचितों से सहयोग लेकर 15 लाख रूपये बताये गये खातों में जमा कर दिया । इस पर बंद बोतल में उन्हें केमिकल दिया गया जो कुछ घंटो के बाद ही स्वतः टूट गया । इसी तरह तथाकथित Mr. Jenis Barister द्वारा बार-बार केमिकल देने के नाम पर और-और रूपयों की माँग की जाती रही जिसपर जुगुल किशोर द्वारा कुल 18 लाख रूपये देने के बाद भी काला रंगवाला डालर असली डालर में तब्दील नहीं हो सका । इस बीच संबंधितों के द्वारा असली डालर बनाने के नाम पर अधिक रूपयों की माँग की जाती रही । </div><div align="justify"><br />अंततः परेशान होकर जुगुल किशोर ने थाना छत्तीसगढ़, कोरिया जिला अंतर्गत विश्रामपुर थाना में 15 मई, 2009 को एफआईआर दर्ज कराया गया । पुलिस द्वारा अपराध क्रमांक 95/09 के तहत आईपीसी धारा 420 के तहत मर्ग कायम किया गया । पुलिस महानिदेशक एवं पुलिस अधीक्षक से मार्गदर्शन लेकर एक विशेष टीम गठित की गई जिसमें प्रभारी एएसआई प्रइमन तिवारी, फिरोज खान को दिल्ली रवाना किया गया । दिल्ली स्थित अंतरराज्यीय अपराध सेल से मिलकर मोबाइल नं. 987319401 धारक को लोकेशन पता किया गया । वह दिल्ली के मोहम्मद पुरा इलाके पर लगातार बना रहना पाया गया । पुलिस दल द्वारा जब जुगुल किशोर के साथ मोहम्मदपुरा इलाके में पतासाजी करने पर मकान नं. एफ-129 में तीन नाईजीरियन नागरिक मिले, जिन्हें देखते ही जुगुल किशोर द्वारा पहचान लिया गया और पंचनामा कर सेलेस्टिन आकोजी, युगोरजी यूजीन, चुकुम निकोलस नामक उन तीनों लाटरी अपराधियों को आईपीसी की धारा 91 के तहत नोटिस देकर उपस्थित कराया गया जिस पर तीनों ने ही लाटरी द्वारा अवैध तरीके से रूपये वसूलने का अपराध स्वीकार कर लिया गया । पुलिस द्वारा इसके साथ ही अपराध में उपयोग में लाये गये कई मोबाइल, कंप्यूटर लैपटाप, पहचान पत्र, पासपोर्ट जप्त कर लिया गया है किन्तु रकम की बरामदगी नहीं हो पाई है । रकम के बारे में आरोपियों द्वारा किसी अन्य व्यक्ति जेनिस द्वारा केन्या लेकर भाग जाने की बात बतायी गयी है । अब बचने के लिए पकड़ाये गये आरोपियों का कहना है कि वे लोग मात्र मोहरा हैं । किन्तु पुलिस द्वारा अपराध विवेचन के दौरान धारा 120 (बी), 34 जोड़कर संबंधित बैंको में संपर्क कर रूपये बरामदगी का प्रयास तेज कर दिया गया है । </div><div align="justify"> </div><div align="justify">पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने राज्य के नागरिकों को सचेत कराया है कि मोबाइल, इंटरनेट ई-मेल के माध्यम से आने वाले संदेशों का विश्वास करके किसी विदेशी लाटरी, ईनाम के लालच में जुगुल किशोर की तरह लाखों रुपये न गँवा बैठे । उन्होंने कहा है कि बड़ी संख्या में विदेशी सायबर अपराधी देश में सक्रिय हैं जो कम पढ़े लिखे और ई-मेल, मोबाइल यूजर्स का पता लगाकर उन्हें ठगने के कई तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं । जी, हाँ छत्तीसगढ़, विश्रामपुर का जुगुल किशोर ऐसे ही सायबर अपराध का शिकार हुआ था, जिसमें लिप्त नाईजीरियन अपराधियों को छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा पकड़ लिया गया है । उन्होंने अपील की है कि ई-मेल या मोबाइल संदेश से अचानक मिले ऐसे किसी ईनाम, पुरस्कार के लालच या झाँसे में ना आयें एवं ऐसे संदेहास्पद ई-मेल एवं मोबाइल संदेश आने पर वस्तुस्थिति नजदीक के पुलिस थाने में या पुलिस मुख्यालय के ई-मेल prodgpcg@gmail.com पर सूचित करें ताकि ऐसे लोगों, संस्थाओं का परीक्षण कर ऐसे ठगी से बचाने में सहयोग किया जा सके ।<br /> </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-35736128909987787502009-04-03T04:22:00.000-07:002009-04-03T04:35:33.005-07:00आयोग नक्सलियों के ख़िलाफ़ कब कार्यवाही करेगा ?<div align="justify">व्यवस्थित, पारदर्शी और शांतिपूर्ण चुनाव के लिए चुनाव आयोग बड़े से बड़े नेताओं की ऊँचाई नापने में कोई कोताही नहीं कर रहा है । जिलों में हिंसा, आंतक, अशांति फैलाने वालों को जेलों में ठूँसा जा चुका है या उन्हें दबाकर रखा जा रहा है । राज्यों के ऐसे डीजीपी, सचिवों, कलेक्टरों, पुलिस अधीक्षकों सहित छोटे-बड़े शासकीय कर्मचारियों पर भी आदर्श आचरण संहिता के नाम पर गाज गिराने में भी वह कहाँ चूक रहा है, जो उसके ही अस्थायी अंग हैं और जिसके बग़ैर उसका चुनाव कराना भी संभव नहीं । क्योंकि वह ऐसे किसी स्थायी और बृहत अमले का स्वामी तो होता नहीं, जो राज्यों में चुनाव करा सके। इस दिशा से सोचें तो उसकी भूमिका चुनाव की सफलता के लिए काबिले तारीफ़ भी है, किन्तु दूसरी ओर एक सच यह भी है कि नक्सली बेलगाम होकर चुनाव आयोग के मूल आत्मा पर पलीते लगा रहे हैं । इस पर आयोग की कोई विशेष कार्रवाई अब तक परिलक्षित नहीं हो रही है । जबकि न केवल बस्तर अपितु देश के कई राज्यों में वे चुनाव प्रक्रिया को तहस-नहस करन पर तुले हुए हैं । नक्सलियों की ये गतिविधियों क्या दृष्टि से परे हैं ? क्या इससे चुनाव आयोग के मूल उद्देश्य बाधित नहीं हो रहें हैं ? क्या इससे नक्सली इलाकों में आदर्श आचरण संहिता का मायने रह जाता है ? क्या ऐसे में चुनाव की असंदिग्धता बरक़रार मानी जा सकती है ? इन प्रश्नों से चुनाव आयोग को आज नही तो कल मुठभेड़ करना ही होगा । </div><br /><div align="justify"><br />स्थानीय जनपद बस्तर की बात करें तो वह नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के फरमानों से सहमा-सहमा है । वे गाँव-गलियों में धमकी भरे पोस्टर चिपका रहे हैं। सड़कों पर हिंसक शब्दावली से ओतप्रोत चेतावनी के बैनर टाँग रहे हैं । जनता को व्होट देने पर हिंसा की धमकी दे रहे हैं। चुनाव पूर्व से ही सड़क-यात्रा को बाधित कर रहे हैं । लोकतंत्र को फ़र्जी क़रार दे रहे हैं । वे बार-बार यही दुहरा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में भाग लेने वाला हर राजनैतिक दल और उनका मैनिफ़ेस्टो जन-विरोधी है । चुनाव का विरोध करने के मतलब में चुनाव आयोग का विरोध भी सम्मिलित है और इसके लिए वे चुनाव आयोग के समक्ष भारी समस्या खड़ी करने वाले हैं । यदि उनके प्रवक्ताओं की विज्ञप्तियों और संवाददाताओं को दिये गये साक्षात्कारों के मजमून पर ग़ौर करें तो वे लोकसभा चुनाव के दिन बस्तर में भारी हिंसा और आंतक फैलाने वाले हैं । इससे पोलिंग पार्टियाँ भी सशंकित है । यह दूसरी बात है कि पुलिस और अद्धसैनिक बल इनसे निपटने के लिए कटिबद्ध है । फिर भी, देश के कई राज्यों में अंगद की तरह पाँव जमा चुके और हर बार ऐन चुनाव के वक़्त भारतीय चुनाव आयोग के निर्देशों की धज्जी उड़ाने वाले ऐसे तत्वों पर आयोग किस तरह लगाम कसने वाला है, अनुत्तरित प्रश्न है । प्रश्न यह भी उठता है कि इन्हें चुनाव पूर्व वह कैसे हतोत्साहित करना चाहता है ताकि जनता निर्भय होकर मतदान कर सके ? राजनीतिक दल जान जोख़िम में डाले प्रचार कर सकें, अपना एजेंडा बता सकें । यदि ऐसे क्षेत्रों में राजनीतिक दल सहित प्रतिनिधियों को जाने का वातावरण ही न मिल सके, जनता वोट ही न डाल सके तो यह केवल आकस्मिक व्याधि नहीं । इसका भी निदान केंद्रीय निर्वाचन आयोग को ढूँढना होगा । इससे जूझने के लिए उसे अतिरिक्त तैयारियाँ और रणनीति भी ईजाद करनी होगी । इन संदिग्ध और जटिल स्थितियों को कैसे आदर्श आचरण संहिता से परे रखा जा सकता है ? </div><br /><div align="justify"><br />नक्सली इलाकों में आदर्श आचरण संहिता का प्रश्न केवल बस्तर या सरगुजा का प्रश्न नहीं है । यह छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल सहित देश के कई राज्यों का प्रश्न है । चुनाव के समय मतदान बहिष्कार, नक्सली आंतक और हिंसा व्यापक तौर पर कई प्रदेशों की समस्या के रूप में स्थायी रूप धारण कर चुका है। इसके निदान के लिए राज्यों में उनसे जूझने की स्थायी रणनीतिकारों यानी पुलिस बल के मुखियाओं का समादर भी चुनाव आयोग को करना चाहिए । उनके अनुभवों का भी व्यवाहारिक उपयोग होना चाहिए । क्योंकि चुनाव आयोग मात्र दो या तीन माह के लिए सशक्त होता है । और इन दौरान सारे राज्य का प्रशासन तंत्र भी अस्थायी तौर पर उसके अधीन होता है तब उसे सिर्फ़ निजी अस्मिता के दंभ त्याग कर राज्य स्तर के ऐसे अनुभवी पुलिस बल की मंशा पर निर्द्वंद्व होकर विचार करना चाहिए । जैसा कि हम देख चुके हैं कि छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की आनुभविक रणनीति और नक्सली अंचलों के पुलिस अधीक्षकों के प्रस्तावों पर पिछला विधान सभा चुनाव पिछले कई चुनावों से कम बाधाओं के साथ निपटा था । किन्तु सामान्य-सी सलाहात्मक टिप्पणी पर पुलिस महानिदेशक को आयोग द्वारा खारिज करने की चेष्टा कहीं न कहीं राज्य स्तरीय कर्मियों के मनोबल को भी प्रभावित करती है । यह नक्सली आंतक के परिप्रेक्ष्य में चुनाव आयोग का स्वस्थ निर्णय नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि चुनाव पूर्व भी ऐसे नक्सली तत्वों से निपटने में वास्तविक रूप से राज्यों का यही पुलिस बल ही अधिक सतर्क और कौशलपूर्ण कार्रवाई करता है । </div><br /><div align="justify"><br />आज नहीं तो कल केंद्रीय निर्वाचन आयोग को देश भर में फैल चुके नक्सलियों द्वारा चुनाव बहिष्कार, हिंसात्मक आंतक के कारण राजनीतिक दलों और जनता के अधिकारों के हनन पर रोक लगाने के लिए आदर्श आचरण संहिता को संशोधित और कड़ा करना ही पड़ेगा और उसके प्रतिफल में नक्सली इलाकों में चुनाव प्रक्रिया की सफलता के लिए विशेष क़दम भी उठाने होंगे । जिसमें स्थानीय परिस्थितियों से निपटने वाले विशेषज्ञों की रायों को विशेष तवज्जों देना होगा । आयोग सामान्य तौर पर मौखिक और लिखित टिप्पणियों पर प्रतिबंध लगाने में अवश्य सफल हुआ है, जिसमें राजनेता, अफ़सर और कर्मचारी सम्मिलित हैं किन्तु नक्सली हिंसा और चुनाव विरोधी एवं हिंसक गतिविधियों पर लगाम कसने में वह अब भी असमर्थ है। और ऐसा कौन नागरिक है जो मौत की शर्त पर भी प्रजातंत्र के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए मतदान करना चाहेगा ? ऐसा कौन राजनीतिक दल होगा जो मौत की परवाह नहीं करके चुनाव कैन्वासिंग करेगा ? ऐसा कौन शासकीय कर्मी होगा जो ऐसे क्षेत्रों में चुनाव कराने में झिझकेगा नहीं ? ऐसा कौन चुनाव प्रेक्षक होगा जो ऐसे धूर नक्सली इलाकों का मुआयना कर सकेगा ? तब ऐसी दुःसह परिस्थितियों में ऐसे क्षेत्रों में चुनाव और आयोग की उपस्थिति का कोई मायने नहीं रह जाता है । यह कमज़ोरी तब तक ठीक नहीं हो सकती, जब तक आयोग राज्य प्रशासन के पदों पर कार्यरत और चुनावी परिस्थितियों में प्रतिनियुक्त आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञों को ठीक से संबोधित न करे । इस संबोधन में समन्वय, परस्पर विश्वास और स्थानीय परिस्थतियों अनुसार नक्सली विपदाओं से जूझने के अनुभवों का आत्मसातीकरण को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए । क्योंकि अंततः यही स्थानीय पुलिस बल के पास नक्सलवाद से निपटने का गुर होता है और दीर्घ अनुभव भी । वे नक्सलियो की हर चाल को बखूबी समझते हैं । वे उनके सारे किलों, गढ़ों के बारे में जानते-समझते हैं । </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-27473701481389779862009-03-26T05:23:00.000-07:002009-03-26T05:26:12.346-07:00।। नक्सलियों के बयानों के पीछे की वास्तविकता ।।<div align="justify"></div><p align="justify"><br />हाल ही में नक्सलियों ने जनता-सरकार की माँग की है । किससे की है ? क्या सरकार से की है? यदि वह माँग सरकार से है तो प्रश्न उठता है कि सरकार तो नक्सल विरोधी है । भविष्य की हर सरकारें चाहे उस सरकार को कोई भी दल संचालित करे, नक्सलविरोधी भी होगी । क्योंकि नक्सलवाद का रास्ता प्रजातंत्र की पतन की ओर ले जाता है । और कैसे कोई भी दल स्वयं प्रजातंत्र को ध्वस्त करने की गतिविधियों का अनुमोदन कर सकती है ! क्योंकि ग़रीबी, शोषण, उत्पीड़न व भेदभाव मिटाने के नाम पर भी ख़ूनी हिंसा के समर्थन का साफ़ मतलब अमानवीय, असंवैधानिक और दूसरी तरह का दमन भी हो सकता है । यही अंतिम विकल्प तो नहीं । हिंसा, भय, आंतक के सहारे यदि सामाजिक क्रांति हो सकती है तो उसकी आवाज जनता से आनी चाहिए । जाहिर है यह आवाज़ जनता की ओर से नहीं, नक्सलियों की ओर से आ रही है जिन्होंने बस्तर में अब तक ऐसा कोई जनप्रिय कार्य नहीं किया जिससे बल पर उसका कोई सदस्य प्रजातांत्रिक तरीके से सरकार के किसी घटक के सदस्य बन पाता । यदि वे वास्तव में जनता की सरकार के स्वप्नाकांक्षी होते तो ऐसी कौन सी शक्ति है जो उन्हें जनता का व्होट पाने से रोक सकती है । इसका साफ मतलब है कि न वे जनता के लिए हैं, न वे जनता हैं, न वे जनता द्वारा संचालित व्यवस्था के पक्षधर हैं । ‘जनता की सरकार’ की आवाज़ आड़ मात्र है ठीक जैसा वे पहले जनता की पक्षधरता की धूर्त चालों के सहारे बस्तर के भोली-भाली जनता के बीच पैठ बनाकर अब अपने असली एंजेंडे पर उतर आये हैं । दरअसल जनता उनके एंजेडे में ही नहीं है । वे स्वयं भी जानते हैं कि कोई भी प्रजातांत्रिक सरकार नक्सलियों की खूनी क्रांति पर विश्वास नहीं करती । कर ही नहीं सकती। </p><p align="justify"><br />ऐन चुनाव के समय उनका ‘जनता की सरकार’ की माँग करना जनता को दिग्भ्रमित करना है । मतदाता की सोच को प्रभावित करना है । दरअसल नक्सलियों के दो रूप हैं । एक स्वांग के भीतर वे जनता के पक्ष में बात करते हैं दूसरी स्वांग में वे ठीक जनता के ख़िलाफ़ कार्यवाही करते हैं । चुनाव का बहिष्कार जैसा उनका ऐलान ऐसे स्वांगों का नमूना है । वे जानते हैं कि प्रजातंत्र का प्रवेश-द्वार चुनाव है। और चुनाव में यदि वे हिस्सा लेंगे तो उन्हें प्रजातंत्र पर विश्वास जताना पड़ेगा, जैसा कि उनका लक्ष्य ही नहीं है, सो वे चुनाव बहिष्कार की बात करते हैं । और इस चुनाव बहिष्कार के बहाने हिंसक गतिविधियों का सहारा लेकर प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विरूद्ध जनता के मन में अविश्वास भरते हैं । चुनाव के अधिकार से वंचित करते हैं । यानी कि वे सिर्फ यही दबाब बनाने की कोशिश करते हैं कि जनता के लिए मात्र नक्सलवाद ही एकमात्र उपाय है । क्या सामाजिक बदलाव के विरूद्ध यह नादिरशाही और मध्ययुगीन कार्रवाई या सिद्धांत नहीं है ? </p><p align="justify"><br />नक्सली प्रवक्ता के तर्कों को परखें तो देश की पार्टियों की घोषणा पत्र झूठे हैं । ठीक है, यदि देश के मौजूदा राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में धोखे-ही-धोखें तो उनके घोषणा पत्र में क्या है ? उनका अतीत का प्रदर्शन क्या है ? उनके पार ऐसी कौन-सी नैतिक दृष्टि है जिसका कायल होकर जनता उन्हें चुने । भय और हिंसा के हिमायती नक्सलियों को अपने जनहितैषी कार्यों की सूची जारी करनी चाहिए कि उन्होंने अमूक स्कूल की मरम्मत की । अमूक तालाब की सफ़ाई की । अमूक को अस्पताल पहुँचाया । सच तो यह है कि वे विकास के मायने को ही झूठलाते हैं । ऐसे दलों द्वारा किये गये विकास को ही ध्वंस करते हैं । वे जिस शोषण की बात करते हैं उसी शोषण की गंगा को वे भी आगे बढ़ाते हैं । एक अनुमान के अनुसार केवल बस्तर के नक्सली प्रतिवर्ष 200 करोड़ की उगाही अवैध तरीकों से भय और आंतक के बल पर करते हैं । वे यदि कहते हैं कि देश को पूँजीवादी और साम्राज्यवादी चला रहे हैं तो फिर वे क्या कर रहे हैं ? लूट तो आख़िर लूट ही है, चाहे कोई भी क्यों न लूटे । क्या वे भूखे को अन्नदान, वस्त्रहीन को वस्त्रदान और आवासहीन को आवासदान दे रहे हैं ? वे स्वयं जब समूचे बस्तर में अपना अनैतिक साम्राज्यवाद विकसित कर रहे हैं तो उनका किसी अन्य राजनैतिक दल को नकारना पूर्णतः दोगले चरित्र का ही परिचायक है । नक्सलियों की मान्यता कितना हास्यास्पद है कि यदि वोट देना अधिकार है तो नहीं दिये जाने का भी अधिकार मिलना चाहिए । यानी कि जनता किसी को न चुने । तो फिर कौन उसका प्रतिनिधित्व करेगा ? कौन उसकी आवाज़ बनेगा ? यानी नक्सलियों के अनुसार जनता नेतृत्वविहीन रहे । ठीक वन्य जीव की तरह विचरणशील । यानी पशुता की ओर समाज चले जाये । जनता बिना सांवैधानिक अंगों के अपना राज कैसे कर सकती है । ऐसा तो तब ही संभव था जब वह जंगल युग में रहता था । क्या ऐसी स्थिति को अराजक नहीं कहेंगे । यदि ऐसी अराजक स्थिति का निर्माण ही विकास का आधार है, यदि यही शोषणहीनता, उत्पीड़नहीनता व भेदभाव के विसर्जन का मूलमंत्र है तो उनके सिद्धांत और दर्शन दोनों अबूझे है, झूठे है । भविष्य की शायद ही कोई पीढ़ी जनता के रूप में इस पर विश्वास करे । सभ्यता के इस मुकाम पर अराजकता किसी भी कीमत पर अब जीवन का मर्म नहीं हो सकता । वह जीवन का रहस्य कभी था ही नहीं । यदि नक्सलवाद यही कहता है तो इसका साफ मतलब है कि नक्सलपंथी अराजक हैं । क्या जनता को जंगली-सभ्यता की ओऱ लेजाना ही उनका ध्येय है ? </p><p align="justify"><br />नक्सली तर्क गढ़ते हैं, थोथी सहानुभूति पाने के लिए, कि वोट नहीं देने पर अर्धसैनिक बल और पुलिस मतदाता का दमन करते हैं । वे यह क्यों भूल जाते हैं कि वे भी दमन के सहारे ही मतदाता को मतदान करने से रोकते हैं । बस्तर का तो यही इतिहास रहा है । चुनावों में सारे देश की यही तस्वीर रही है । उनका यह कहना भी फर्जी है कि जनता को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ देने का वादा करने वाली सरकारें केवल वोट के लिए राजनीति करती हैं, जबकि वे इसके पीछे अपनी जेबें भरते हैं । आख़िर एक भ्रष्ट राजनीतिक की तरह वे भी यही भ्रष्ट तरीके अपना रहे हैं लगातार । क्या वे अपने लक्ष्यों के लिए पूर्णतः नैतिक बने हुए हैं । जो हिंसक होगा, आतंककारी होगा उसका लक्ष्य नैतिक हो ही नही सकता । नक्सलियों का हालिया बयान इतना द्वंद्व भरा है कि कोई ही उस पर शायद विश्वास करे । क्योंकि वे जनता की सरकार की माँग भी करते हैं । यानी उनकी मांग का एक हिस्से में सरकार नामक अवधारणा भी है औऱ वे उस सरकार के चयन के लिए बाधा भी खड़ा करते हैं । कितनी दोगली दृष्टि और सोच है नक्सलवादी वैकासिक सिद्धांतों का । </p><p align="justify"><br />नक्सलवाद का सारा ढाँचा असत्य, हिंसा, आंतक, धन, भ्रष्टता पर टिका हुआ है जहाँ उनके कथोपकथनों की कोई विश्वसनीयता नहीं है । एक और उदाहरण हाल का ही देखें - कुछ दिन पहले बस्तर के नक्सलियों ने कहा कि वे सरकार से बातचीत के लिए तैयार हैं । किसने, किसने कहा ? किसी को भी समझ में नहीं आया । वस्तुत यह बात सिर्फ़ मीडिया के श्रीमुख से ही आयी थी । वस्तुतः न नक्सलियों के प्रवक्ता ने मुख्यमंत्री से कहा, न राज्यपाल से न ही गृहमंत्री या पुलिस महानिदेशक या गृह सचिव से । उनकी ओर से किसी भी उचित स्तर तक न कोई पत्र आया था न ही टेलिफ़ोन-मोबाइल । यह एक सच है । दूसरा सच यह है कि ठीक उसी दरमियान नक्सली लगातार आदिवासियों को अपनी गोलियों का शिकार बनाकर मौत के घाट उतार रहे थे । प्रश्न उठता है कि वे मीडिया का सहारा लेकर ऐसा क्यों कर रहे थे ? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जिसने बयान दिया था वह अधिकृत था । क्या वह सारे नक्सलियों का नेतृत्वकर्ता था ? माओवादी रणनीति के तहत वे ऐसा तब-तब करते हैं जब किसी स्तर पर कमजोर पड़ रहे होते हैं । यह एक तरह का सरकार, पुलिस बल का ध्यान बाँटने की कला है । ताकि रणनीतिकार को सुरक्षित बने रहकर हिंसक क्रांति जारी रखने का मौक़ा मिल जाये । यह दूसरे मायने में जनता की झूठी सहानुभूति प्राप्त करने का भी उद्योग है कि जनता राजनेताओं पर शंका-कुशंसा करने कि – देखिये राजनेता भी उसकी सुनवायी नहीं कर रहे । उनका सारा सिद्धांत झूठ और फरेब पर टिका है क्योंकि वे एक ओर प्रजातंत्र का विरोध करते हैं दूसरी ओर उसकी सारी इकाईयों की ताकतों का सहारा भी लेते हैं । सलवा जुडूम के विरोध में कोर्ट का सहारा लेना भी उनकी इसी धूर्तता का नमूना है । </p><p align="justify"><br />क्या अब वह समय नहीं आया है कि ऐसे भ्रमों, भ्र्रांतियों, फर्जी आचरणों का प्रकाशन ही न हो और इसके लिए मीडिया को भी खासतौर पर सोचना होगा कि उनकी किन मुद्दों तक जनता की पहुँच हो, और किन तक नहीं । विज्ञप्तियो के सहारे जनता का कल्याण करने की ऐसी बुद्धिवादी कोशिशों को कब तक आख़िर जायज ठहराया जायेगा । ऐसी गतिविधियों को भी प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिए प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए । जो संगठन प्रजातंत्र में प्रतिबंधित हो उसकी आवाज को प्रचारित करना भी प्रतिबंधित होना चाहिए । इसे अभिव्यक्ति के नाम पर मान्यता देना प्रजातंत्र को ध्वस्त करने की संभावनाओं को भी तवज्जो देना होगा ।<br /></p>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-87655557402602123452009-03-20T21:40:00.000-07:002009-03-20T21:45:40.377-07:00क्या नेशनल बुक ट्रस्ट में कुनबाबाद चलता है ?<div align="center"><strong><span style="color:#ff0000;">( एक दिवसीय साहित्य महोत्सव पर निजी टिप्पणी )</span></strong></div><div align="justify"><span class=""></span> </div><div align="justify">हमें किसी पर ऐसी टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है, जब तक हम वैसी हरक़त करने की समस्त संभावनाओं से ख़ुद को मुक्त न कर लें । वैसे यह बड़ा जोख़िम भरा उद्यम है - एक साधना की तरह, यह हम बख़ूबी जानते हैं, फिर भी आज कुछ ऐसा हमारे समक्ष आ खड़ा हुआ है जिससे किसी बड़ी हस्ती पर भी अँगुली उठाने की सदाशयपूर्ण हिमाक़त का परहेज हम नहीं कर पा रहे हैं । और सच तो यह है कि ऐसा न करने से प्रायश्चित के किसी दलदल से भी हमें गुज़रना होगा, जैसा कि हम नहीं चाहते और शायद आप भी इन हालातों में ऐसा नहीं करना करना चाहेंगे और अपने चेतनात्मक ऊर्जा को प्रखऱ करना चाहेंगे । सो इसे आप अपनी संवेदना को हमारे साथ रखकर ही समझ सकते हैं । </div><div align="justify"><br />जी हाँ, नेशनल बुक ट्रस्ट नामक अखिल भारतीय संस्था का चरित्र भी कुछ-कुछ ऐसा ही परिवर्तित होता जा रहा है जिसे देखकर कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति कह सकता है कि उनकी चदरिया पर भी दाग़ दिखने लगा है । यह दाग़ सतर्कता के अभाव का है । यह दाग़ हड़बड़ी का है । यह दाग़ छत्तीसगढ़ को ज़रा आलसी और अनभिव्यक्त प्रवृति का मान लेने के कारण से है । आप के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि आख़िर माज़रा क्या है ? क्या कर डाला दिल्ली के नेशनल बुक ट्रस्ट ने । </div><div align="justify"><br />तो जनाब, लीजिए आप भी जान लीजिए । नेशनल बुक ट्र्स्ट वाले यहाँ पधार रहे हैं । ‘वाले’ का मतलब नई दिल्ली स्थित इस ट्रस्ट के मुख्य संपादक और संयुक्त निदेशक डॉ. बलदेव सिंह मदान (और संभवतः उसके एक और कारिंदे लालित्य ललित) वैसे मैं इस दोनों को पढ़ चुका हूँ । बड़े ही सक्रिय रचनाधर्मी हैं । इनके ट्रस्ट में विराजने से देशभर में पाठकीय संस्कृति से जुड़ी ऐसी गतिविधियाँ तेज़ ही हुई हैं । तो ये महानुभाव अपने मुख्यालय, दिल्ली से साहित्यकारों की खेप लेकर रायपुर में एक दिवसीय साहित्य महोत्सव कर रहे हैं । यह महोत्सव है 22 मार्च, 2009 को । ‘विनीत’ बनकर कार्ड बाँट रहे हैं – ट्रस्ट के डॉ. बलदेव सिंह बद्दन औऱ छत्तीसगढ़ राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के मंत्री डॉ. सुधीर शर्मा । </div><div align="justify"><br />इस साहित्य महोत्सव के आमंत्रण-पत्र का सिंहावलोकन करें तो आपको नहीं लगेगा कि रायपुर या छत्तीसगढ़ में देश के वरिष्ठ साहित्यकार रहते हैं । वैसे यह निमंत्रण पत्र रायपुर से छापा गया है । दरअसल दिल्ली सदैव छोटी राजधानियों पर हावी होना चाहती है । दरअसल वह इसलिए अन्य प्रदेशों की राजधानी में दिल्ली वाले साहित्यकारों को लाकर ट्रस्ट की ओर से पुस्तक संस्कृति को विकसित करने का श्रम करती रहती है । वह जताना चाहता है कि दिल्ली के साहित्यकारों से बड़ा कोई नहीं है । सो, उन्हीं के दिशाबोध में पुस्तकों की अहमियत पर देश में चर्चा होगी । हाँ, मेरे जैसे कुछ छुटभैय्ये साहित्यकारों को ऐसी कार्यशालाओं - साहित्य महोत्सवों में अवश्य शामिल कर लिया जाता है जो चुपचाप उनकी बड़ी-बड़ी बातों को शिष्य-भाव से सुनने का धैर्य रखें । शायद इसलिए भी कि ऐसे साहित्यकारों की ट्रस्ट से जान-पहिचान है । शेष जायें रद्दी की टोकरी में । उन्हें पहचानने की जहमत क्यों उठाये ट्रस्ट । किन्तु क्या ऐसे स्थानीय आयोजकों या समन्वयक संस्थाओं को यह नहीं देखना चाहिए कि छोटी-छोटी जगहों पर भी ख्यातिनाम और बड़े-बड़े साहित्यकार रहते हैं ? और जिन्हें एकदम से ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए । </div><div align="justify"><br />ट्रस्ट को बकायदा अधिकार है कि वह ऐसे साहित्य महोत्सव में किसे अधिक वेटेज दे और उन्हें किस भूमिका में रखे पर उसे देश की राष्ट्रीय स्तर की बड़ी साहित्यिक नेतृत्वकर्ता होने के कारण क्या यह भी खयाल नहीं रखना चाहिए कि ऐसे अवसरों पर ऐसे जनपदों के वरिष्ठ रचनाकारों को भी याद किया जाय । इस आयोजन में छत्तीसगढ़ के समक्ष जिन्हें बड़े साहित्यकार के रूप में आमंत्रित किया गया है उनमें विष्णु नागर, रामशरण जोशी, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, डॉ. हरीश नवल, राम दरश मिश्र, महीप सिंह, रमेश उपाध्याय, अमरेंद्र मिश्र, गंगाप्रसाद विमल आदि दिल्ली के हैं । देश के अन्य राजधानियों से जिन्हें विशेष ज्ञान प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया है उनमें जयपुर से डॉ. के.के.रत्तू और भोपाल से ज्ञान चतुर्वेदी व जब्बार ढाँकवाला। इस संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में स्थानीय प्रदेश के होने के कारण जिन साहित्यकारों को सम्मिलित किया गया है उनमें जो भी हों, विनोद कुमार शुक्ल जैसा देश का महत्वपूर्ण कवि और उपन्यासकार गायब हैं । और इतना ही नहीं, स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, प्रभात त्रिपाठी, डॉ. रमेश चन्द्र मेहरोत्रा, गुरुदेव काश्यप, बच्चू जांजगिरी, रमाकांत श्रीवास्तव, राजेन्द्र मिश्र, ड़ॉ. बलदेव, ललित सुरजन, डॉ. सुशील त्रिवेदी, विश्वरंजन, चितरंजन खेतान, डॉ, इंदिरा मिश्र, प्रभाकर चौबे, कनक तिवारी, राजेश्वर दयाल सक्सेना, जया जादवानी, सुभाष मिश्र, आनंद हर्षुल, कैलाश वनवासी, महावीर अग्रवाल, रवि श्रीवास्तव, डॉ. उषा आठले, बबन मिश्र, सतीश जायसवाल, परितोष चक्रवर्ती, अशोक सिंघई, संजीव बख्शी, दिवाकर मुक्तिबोध, श्यामलाल चतुर्वेदी, डॉ. प्रेम दुबे, विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुवन पाडेय, मुमताज, डॉ. शोभाकांत झा, डॉ. श्यामसुंदर त्रिपाठी, राजकमल नायक, मिर्जा मसूद, काविश हैदरी, डॉ. विनय पाठक, डॉ. अजय पाठक, राजेश गनोदवाले, प्रभृति देश में छत्तीसगढ़ का विशेष औऱ उज्ज्वल प्रतिनिधित्व करने वाले नामी-गिरामी कवि, कथाकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, आलोचक, नाटककार, भाषाविद्, समीक्षक एक सिरे से गायब हैं । ( यहाँ मेरा उद्देश्य नाम गिनाना नहीं है) यदि इन्हें ट्रस्ट से जोड़ने की कोशिश की हो तो यह बात यहीं समाप्त हो जाती है । यदि ट्रस्ट और स्थानीय संयोजकों के अनुसार मान भी लें जैसा कि ट्रस्ट ‘इलेक्ट्रानिक युग में पुस्तक की भूमिका’ पर चिंतित होकर उसमें छत्तीसगढ़ के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों, कलाकारों को अपने साथ लेकर देश को चिंतनशील बनाना चाहती है तो भी ऐसे मर्ज की यह आधाशीशी इलाज जैसा है क्योंकि विमर्श की विषय-वस्तु का दूसरा हिस्सा है – इलेक्ट्रानिक युग । अच्छा होता कि इसमें ट्रस्ट इलेक्ट्रानिकी युग से जुड़े अर्थात् टी.व्ही. फ़िल्म, फोटो पत्रकारिता, वेब मीडिया जैसे पोर्टल, वेबसाइट, ब्लॉग से जुड़े और उसके प्रभावों-दुष्प्रभावों के जानकारों को भी जोड़ते, जैसा कि नहीं किया गया है । वेबसाइटों, ब्लॉगों, सिटीजन जर्मलिज्म और संचार माध्यमों से जुड़े अन्य विशेषज्ञों को बुलाते । इसका आशय यह कदापि नहीं कि जो इस विमर्श पर वाद-विवाद-संवाद करने के लिए ट्रस्ट द्वारा आमंत्रित किये गये हैं वे निहायत अपरिचित और हमारे बैरी हैं । वे सारे-के-सारे ज्ञानी-ध्यानी हैं- अपने-अपने क्षेत्रो से मित्र-वर्ग से भी हैं फिर भी संगोष्ठी में मुद्रित नामों की सूची से ट्रस्ट के कुनवाई या अलाली चरित्र भी झलक मारने लगता है । कुनबाई इसलिए कि यहाँ वे ही विशेष भूमिका में बुलाये गये हैं जो इनकी मित्र मंडली से आते हैं या जिनकी किताबें ये छाप चुके हैं । अलाली इसलिए कि ट्रस्ट के पास समय नहीं है इतना कि वे मार्च में अपना बजट खर्चने से पहले बारीकी से राज्य के साहित्यकारों की सूची का परीक्षण कर सकें । सो स्थानीय मित्रों के सहारा लेना उनकी विवशता भी है । अब ऐसे में 3 परिवारों के 6 साहित्यमनीषियों को ट्रस्ट द्वारा विषय-विशेषज्ञ मान लेने के अलावा कोई शार्ट कट रास्ता उनके पास शायद नहीं बचता । इस निमंत्रण पत्र को ग़ौर से देखिये तो आपको पता चल जायेगा कि कैसे 3 साहित्यकारों के 6 सदस्य विशेष सूचीबद्ध हैं । यह दीगर बात है कि ये अपनी रचनात्मकता के लिए भी इधर जाने पहचाने जा रहे हैं । किन्तु क्या प्रजातांत्रिक तौर पर तय करके इनकी जगह तीन ऐसे लोगों को ट्रस्ट नहीं जोड़ सकता था जो किसी अन्य परिवारों से हों । जो भी हो ट्रस्ट को ऐसी हडबडियों से बचना चाहिए । क्योंकि छत्तीसगढ़ में अनेकों ऐसी संस्थायें हैं जो कुनबाई संस्कृति से मुक्त हैं और उनकी रचनात्मकता भी । ट्रस्ट द्वारा तैयार की गई सूची में यदि राज्य के सभी प्रकाशकों, साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाओं के संपादकों का नाम भी रहता तो बात दूसरी थी । न यहाँ पुस्तक प्रकाशन से जुड़े कुछ और लोगों को याद गया है न सांस्कृतिक हस्तक्षेप करने वाली पहचान यात्रा, अक्षर पर्व, नये पाठक, सापेक्ष, परस्पर, सूत्र, पाठ, सर्वनाम, नई दिशायें, नारी का संबल जैसी लघु पत्रिकाओं और सृजनगाथा, छत्तीसगढ़, रविवार, उदंती, जैसी इंटरनेटीय पत्रिकाओं के संपादकों औऱ अन्य किसी ब्लॉगर को भी । यदि ट्रस्ट के इस अभियानात्मक संगोष्ठियों को निरक्षरता उन्मूलन के कोण से भी देखें तो साक्षरता और सतत् शिक्षा के अभियान से जुड़े विशेषज्ञों को भी बिसारना नहीं था । पता नहीं, जिनके जीवन में पुस्तक की भूमिका है उन और वैसे संभावित कितने पाठकों को दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए ट्रस्ट ने बुलाया है ? और यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह ट्रस्ट को कम-से-कम नहीं फबता है कि वह सिर्फ़ कुछ साहित्यकारो को इकट्ठा करके ऐसी जुगाली करे । यह विमर्श चूँकि राजधानी के ठाठ-बाठ वाले होटल में हो रहा है, ऐसे में यह कम ही उम्मीद की जा सकती है कि वहाँ ऐसे बुद्धिजीवियो को सुनने कोई आम आदमी पहुँचेगा भी, जिसमें पाठक होने की चेतना संभावित है । और जिसके लिए यह सारा तामझाम हो रहा है । स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी तो कतई नहीं । फिर मार्च महीने में ऐसी राष्ट्रीय संगोष्ठियों का औचित्य खानापूर्ति मात्र है जिसके नाम पर निर्धारित बजट है और जिन्हें ट्रस्ट को खर्च करना ही है । </div><div align="justify"><br />मेरे एक साहित्यिक मित्र का कहना है कि यह तो सब जगह होता है । सारे साहित्यिक अनुष्ठानों में ऐसे कुनबेवाद का पताका फहराया जाता है । मित्र पर मैं तरस खाता हूँ और कहता हूँ कि कम-से-कम नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं को तो डेमोक्रेटिक और विश्वसनीय सोच विकसित करना चाहिए जिनके जिम्मे न केवल हिंदी अपितु भारतीय भाषाओं और उनके साहित्यिक प्रकाशन का गुरूत्तर उत्तरदायित्व है । वैसे स्थानीय संयोजकों विशेष कर गिरीश पंकज जी को धन्यवाद कि उन्होंने ट्रस्ट को छत्तीसगढ़ के राजधानी पहुँचने हेतु प्रेरित तो किया, भले ही इस आयोजन को पारिवारिक मोह से बचाने में वे सफल नहीं सके । अब मित्रश्रेष्ठ हैं, हितैषी हैं तो इतनी छूट दी ही जा सकती है । लेकिन यदि यह नाम स्वयं ट्रस्ट ने तय किया है तो ऐसे में देश में बौद्धिक विमर्शों के जरिये सामाजिक क्रांति लाने वालों की सिर्फ़ जय हो ही कही जा सकती है । </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-35219346835640335882009-02-10T05:30:00.000-08:002009-02-10T05:42:29.275-08:00नहीं रहे कवि सुदीप बेनर्जी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4Pyrx1KneWvuOqrV4u-OJqxuAw39O19Liqgor5PyRf78xQFw07UP23xyZYqRPqb33I8XcEFJETEh_r5pcUUeQpk36Ayhg9pD2dTEZ_7wOqVCG6Bc9sN6Fk4qF0WrmZyffxubc/s1600-h/untitled.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5301163533593659938" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 200px; CURSOR: hand; HEIGHT: 150px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg4Pyrx1KneWvuOqrV4u-OJqxuAw39O19Liqgor5PyRf78xQFw07UP23xyZYqRPqb33I8XcEFJETEh_r5pcUUeQpk36Ayhg9pD2dTEZ_7wOqVCG6Bc9sN6Fk4qF0WrmZyffxubc/s320/untitled.bmp" border="0" /></a><br /><br /><div align="justify">मेरे लिए यह दुखद सूचना है कि कविता के वरिष्ठ हस्ताक्षर और पूर्व संवदेशनशील प्रशासक श्री सुदीप बेनर्जी का आज दिल्ली में निधन हो गया । उनका जन्म <span style="color:#000000;">जन्म: 16 अक्टूबर 1945 को मध्यप्रदेश के इंदौर में हुआ था । वे मध्यप्रदेश कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे । वे राष्ट्रीय साक्षरता मिशन दिल्ली सहित शिक्षा मंत्रालय के कई पदों में कार्यरत रहे । उन्होंने साक्षरता अभियान को संस्कृतिकर्मियों का आंदोलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी । वे बड़े संवेदनशील कवि और अपने मातहतों को गंभीरता से सुनने वाले प्रशासक थे ।<br /><br />उनकी कुछ प्रमुखकृतियाँ हैं शब गश्त(1980), जख्मों के कई नाम (1992), इतने गुमान(1997) आदि । उनकी कमी हमें सालती रहेगी । ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें ।<br /></div></span>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-23025076672450794582008-11-26T21:20:00.000-08:002008-11-26T21:33:04.343-08:00सिपाही क्यों नहीं लिख सकता कविता ?<div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;"><span class=""></span></span></strong></div><div align="justify"><strong><span style="color:#cc0000;">भाग-</span></strong></div><div align="justify">कई बार लगता है कि उन लोगों की कोई नोटिस नहीं लेना चाहिए जो ये नहीं समझते कि वे कह क्या रहें है ? कर क्या रहे हैं ? क्यों कह रहे हैं ? क्यों कर रहे हैं । उनके ऐसे करने का क्या अंजाम हो सकता है । ऐसे लोगों को कई बार मन और मनीषा दोनों ही नकार देती है कि कौन उलझे मूर्खों से । शास्त्रों में भी कहा गया है कि उपेक्षा सबसे बड़ा अपमान है । पर यहाँ प्रसंग अपमान का नहीं है । न ही किसी के अपमान या निंदा मेरा उद्देश्य भी । वैसे ऐसे लोग सर्वथा इतने अंहकारी होते हैं कि उन्हें ऐसा करने, कहने से नहीं रोका जा सकता । दरअसल वे ऐसा इसलिए नहीं करते, कहते या लिखते क्योंकि वे ऐसा कहने का अधिकार रखते हैं या उनमें इतनी नैतिक शक्ति होती है कि ऐसा वास्तविक में कर सके । ऐसे लोग दरअसल अपने मन की क्षुद्रताओं के शिकार होते हैं । सच कहें तो ऐसे लोगों के पास आईना ही नहीं होता, जिसे हम ज़मीर कहते हैं । जिस पर किसी दार्शनिक ने भी कहा है कि औरों के साथ वही करें, जो आप अपने लिए सह्य मान सकते हैं । और यह सब एक पढ़ा-लिखा आदमी, जिसे सभ्य, विचारवान, आदि संज्ञाओं से भी विभूषित कर सकते हैं, जानता भी है; पर अपने जीवन में उतारता भी नहीं है । तो आख़िर ऐसे लोगों को मूर्ख, अहंकारी, शैतान की श्रेणी में क्यों ना रखा जाये । वैसे अनौचित्य कहने, करने, लिखने और कुछ हद तक जीने वालों से यह दुनिया पटी पड़ी है ।<br /><br />उडिया भाषा में एक कहावत चलता है – जाणू जाणू न जाणू रे अजणा । मतलब इसका यही है कि जानबूझकर भी नहीं जानना । शायद इन्हीं लोगों के लिए हमारी संस्कृति में पशु शब्द प्रयुक्ति की पंरपरा है । पशु के पास चेतना नहीं होती । अन्यथा वह सब कुछ होती है जो मनुष्य के पास होती है । चेतना के कारण ही मनुष्य पशु से भिन्न है ।<br /><br />पर यहाँ तो प्रसंग कुछ अलग है । उसे बिना नोटिस लिये भी ठीक किया जा सकता है । उपेक्षा करके । पर उसकी उपेक्षा उस तरह की नहीं होगी जैसै हम कभी-कभी अपने किसी अल्पबुद्धि वाले भाई, बहुत छोटे बेटे या मूढ़ मित्र की उपेक्षा इसलिए कर देते हैं कि उसे मौक़ा देखकर कभी भी ठीक किया जा सकता है ।<br /><br />तो आइये आपको प्रसंग के मूल में ले चलूँ जिसमें राज्य के किसी युवा नागरिक को किसी व्यक्ति की स्वीकृति कवि के रूप में नहीं चाहिए । उस नागरिक को सिर्फ़ एक सिपाही चाहिए । यानी कि कोई सिपाही है और कविता लिखता है तो उससे उसकी कोई दिलचस्पी नहीं । इतना ही नहीं उसे इतना अंहकार है कि वह उसकी कविता कर्म पर बड़े ही अपमान जनक ढंग से कवितायी (?) शिल्प में लिखता भी है कि वह उसे कवि के रूप में अपना नहीं सकता । वह एक सिपाही के बतौर ही उसे अपना सकता है । </div><div align="justify"><br />आप भी शायद ऐसे अनर्गल, बेबुनियाद पर बसर करने वाले वाक्-वीर जिसे अपनी अल्पज्ञता पर भी लाज न आये पर तरस खायें । यदि आप उन महानुभाव जैसे ही हों तो मुझे आपसे कोई अपेक्षा नहीं । </div><div align="justify"><br />पर मैं जानता हूँ कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति इतना अनपढ़ नहीं, इतना विवेकहीन नहीं जो यह कह दे कि सिपाही को कविता नहीं लिखना चाहिए । कविता के लिए व्यवसाय निर्धारण की यह कौन-सी मनुस्मृति है जो यह घोषित कर दे कि अमूक को कविता नहीं लिखना चाहिए और अमूक को लिखना चाहिए । दरअसल यह मध्यकालीन मानसिकता का परिचायक है जिससे हमारा अंतःकरण मुक्त ही नहीं हो सका है या नहीं होना चाहता है । </div><div align="justify"><br />ऐसा उद्-घोष करने वाला युवा चाहता है कि ऐसा सिपाही कितना बड़ा कवि क्यों ना हो, कितनी सार्थक रचना क्यों ना करता हो, मानवता की कितनी गंभीर लड़ाई लड़ता क्यों ना हो रचनात्मक स्तर पर, किन्तु ऐसे रूप में उसे समाज नहीं स्वीकार सकता । भई क्यों नहीं स्वीकार सकता ? क्या सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगाया है ? क्या आपके संविधान में उसकी मनाही है ? क्या उस सिपाही का मन नहीं है ? क्या कानून के पास हृदय ख़रीदने की औका़त है ? क्या उस सिपाही के चौबीसों घंटे सिर्फ़ और सिर्फ़ आप जैसे सिरफिरे और नासमझ युवाओं की हरकतों पर निगरानी रखने और उसे रोकने के लिए हैं ? और यदि ऐसा है तो फिर आप कब यह भी ना कह दें कि उस सिपाही को मुक्त हवा में साँस नहीं लेना चाहिए । स्वप्न नहीं देखना चाहिए । यथार्थ को चुपचाप आँखें बचाकर नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए या उसके विरूद्ध संघर्ष नहीं करना चाहिए । जैसे संघर्ष मन से नहीं केवल लाठी, बल्लम, भाला, त्रिशुल, बम, बारूद या तोप से ही किया जाना चाहिए.... । और यदि संघर्ष की यही परिभाषा सर्वमान्य है तो फिर आख़िर क्यों ऐसे अस्त्र-शस्त्र के रहते मानव संघर्ष पर विराम नहीं लगता, नहीं लग सका ? </div><div align="justify"></div><div align="justify">आप सोच रहे होंगे कि आख़िर किसने कह दिया कि सिपाही नहीं लिख सकता कविता... फिलहाल तो इतने पर बात ख़तम करना चाहता हूँ बाक़ी अगली बार...</div><div align="justify"></div><div align="justify">क्रमशः......</div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-20367415.post-54450303954921839672008-11-25T01:15:00.000-08:002008-11-25T01:24:57.387-08:00नक्सलवादी हथियार पाते कहाँ से हैं ?<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI817SI4UlodMAiAUV8swDI78yH_aazk4Q-iFGkjo2IpvVtQipUh5Uhge0yeTqWnehMLp-FjzanUpZLW7hKN6r9H_Oz8JZm4_P-dewcQteywBPkjQ9S3IwwtIPWybbjfVsPFom/s1600-h/phpThumb_generated_thumbnailjpg.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5272522616363236786" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 100px; CURSOR: hand; HEIGHT: 133px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI817SI4UlodMAiAUV8swDI78yH_aazk4Q-iFGkjo2IpvVtQipUh5Uhge0yeTqWnehMLp-FjzanUpZLW7hKN6r9H_Oz8JZm4_P-dewcQteywBPkjQ9S3IwwtIPWybbjfVsPFom/s320/phpThumb_generated_thumbnailjpg.jpg" border="0" /></a><br /><div align="justify">हमारे एक मित्र हैं - चाँद शुक्ला । कोपेनहेगन, डेनमार्क में रहते हैं । वैसे वे कपूरथला के रहने वाले हैं । काम तो एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का करते हैं पर मैं उस चाँद शुक्ला की बात कर रहा हूँ जो हदियाबादी के नाम से लिखते-पढ़ते हैं । दरअसल वे नहीं चाहते कि लोग उन्हें एक व्यापारी के रूप में जाने । उनकी पहचान विश्व समाज को जोड़ने वाले एक संयोजक के रूप में है । अनकेता मे एकता को वे इंटरनेट के माध्यम से सिद्ध कर रहे हैं । वे रचनात्मकता को उसके आक्षरिक रूप में नहीं वरन् उसके ध्वनि रूपों के वैश्विक प्रचार और संस्थापना में संलग्न हैं – <a href="http://www.radiosabrang.com/"><strong>रेडियो संबरंग के माध्यम से</strong></a> । शायद इस विश्वास के साथ ही कि शब्द ध्वनिमयता के साथ ही अर्थवान है और यह एक हद तक सच भी है । लिखे हुए अक्षर निर्जीव होते हैं, निराकार होते हैं । उनका रूप, सौंदर्य और प्रभाव तभी स्पष्ट होता है जब वे उच्चरित होते हैं, ध्वनिमय होते हैं। क्योंकि शब्दों का किताबों, कागजों पर होना एक तरह से शब्दों का सुषुप्तावस्था में होना है । शब्द तभी जागते हैं जब वे व्यवहार में आते हैं । शब्दों का फूल ध्वनि का साथ पाकर ही फूलता है । आप भी उनके <a href="http://www.radiosabrang.com/"><strong>जाल स्थल</strong></a> से कभी गुज़रें हों । न गुज़रें तो अभी जा सकते हैं - <a href="http://www.radiosabrang.com/"><strong>www.radiosabrang.com/</strong></a> </div><br /><div align="justify"><br />मित्र के बारे मे और कुछ कहूँ तो यही कि वे सन् १९९५ में डेनमार्क शांति संस्थान द्वारा सम्मानित किये जा चुके हैं । सन् २००० में जर्मनी के रेडियो प्रसारक संस्था ने 'हेंस ग्रेट बेंच' नाम पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है उन्हें । शेरो-शायरी के शौक और जादुई आवाज़ होने के कारण पिछ्ले पन्द्रह वर्षों से स्वतंत्र प्रसार माध्यम 'रेडियो सबरंग' में मानद निदेशक के पद पर आसीन हैं। आल वर्ल्ड कम्युनिटी रेडियो ब्राडकास्टर कनाडा (AMARIK) के सदस्य हैं । </div><br /><div align="justify"><br />तो शुक्ला जी बड़ी बेचैनी के साथ मुझे पूछ रहे थे – आख़िर छत्तीसगढ़ सहित देश भर में हिंसा का तांडव मचानेवाले नक्सलवाद हथियार पाते कहाँ से हैं ? </div><br /><div align="justify"><br />मैंने कहा – शुक्लाजी, इस पर मतभेद हो सकता है । मेरी बात पक्षधरों को हज़म नहीं हो सकती । कदाचित् कुछ इसे मानवाधिकार पर भी हमला घोषित कर दें । क्योंकि अब तक का जो इतिहास रहा है उससे साफ़ जाहिर है कि ये सैकड़ों मौतों पर आँसू बहाना तक नहीं जानते, पर नक्सली हिंसा से जूझने वाली व्यवस्था की जाने-अनजाने घटना पर सारी दुनिया में हो-हल्ला मचा देते हैं । दरअसल वे मानवाधिकारवादी हैं ही नहीं । वे मूलतः नक्सलवाद के छद्म प्रचारक और हितैषी भर हैं । यह दीगर बात है कि उन्हें प्रजातंत्र में भारी ख़ामी दिखाई देती है, और जो इतने बड़े देश में संभव नहीं कि सभी तरफ़ प्रजातंत्र के सारे अंग सुचारू रूप से काम करें ही । पर क्या प्रजातंत्र के ख़ात्मे की शर्त पर नक्सलवाद के पक्ष मे भी खड़ा हुआ जा सकता है, जो पता नहीं कितने वास्तविक नक्सलियों का संगठन है और कितने केवल हिंसक आंतक फैलाने वाले गुंडों का । चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने भी शायद यह कभी नहीं कहा था कि जिसके लिए नक्सलवाद है उन्हीं निर्दोषों को ही मौत के घाट उतार दिया जाय । जी, नहीं.... </div><br /><div align="justify"><br />चारू मजूमदार का नाम लेते ही चाँद जी को वह घटना याद आ गई । </div><br /><div align="justify">उन्होंने बताया – यही कोई 70 वें दशक की बात होगी । उन दिनों हम सेल्समैनशीप का काम किया करते थे । स्कूलों, कालेजों को किताबें पहुँचाया करते थे । एक दफ़ा उधमपुर के काठिया या साम्बा नामक जगह पर हम ठहरे थे । किसी धर्मशाला में । हम जब धर्मशाला के भीतर बने मंदिर या पानी भरने के लिए या फिर प्रांगण में इधर-उधर आते-जाते तो हमें धर्मशाला मे ठहरे हुए और लोगों से बतियाने, उनसे जान-पहचान बनाने का मौक़ा मिल जाता था । </div><br /><div align="justify"><br />यूँ ही एक दिन जनाब मिल गये । पतला छरहरा बदन । आँखों में चमक । व्यक्तित्व से बांग्ला कल्चर से अनुप्राणित । हमने हाय-हैलो की । उन्होंने पूछने पर बताया कि वे पटना के हैं । मेरी जिज्ञासा बढ़ गई – पर आप की भाषा तो बाँग्ला लगती है ? इस पर उन्होंने कहा – हाँ मुझे बाँग्ला भी थोड़ी-थोड़ी आती है । आप करते क्या हैं ? कुछ नहीं यूँ ही घूम-फिर रहे हैं । बात आयी गई हो गई । एक दिन धर्मशाला में अचानक सर्चिंग में पुलिस आ धमकी । मै और मेरे साथी भौचक्के रह गए थे । माज़रा क्या है ? सबसे पहले पुलिस ने मुझे ही तहकीकात के लिए धर लिया । मैंने उन्हें साफ़-साफ़ बताया – भाई साहब, हम ठहरे किताबों के सप्लायर । क्या जाने कि वो कौन थे, क्या करते थे, किससे मिलते थे ? हाँ एक बार उनसे यहीं हाय-हैलो हो गई थी, बस्स । किसी तरह पुलिस से पिंड छुड़ाया ।<br /></div><br /><div align="justify">दरअसल वे उसी जनाब को तलाश रहे थे जिससे हम मिल चुके थे । वो धर्मशाला के रजिस्टर मे नाम, पता बदलकर ठहरे हुए थे । बाद में पुलिस को पता चला कि दस्तखत और किसी का नहीं चारू मजूमदार का ही है । वे चारू मजूमदार थे । </div><br /><div align="justify"><br />बहरहाल......चाँद जी बता रहे थे कि वे देखने से न खूँखार नज़र आते थे न ही मनुष्यता के विरूद्ध किसी अभियान को संचालित करने वाले की तरह । उनके आँखों में एक गहराई नज़र आती थी, कुछ सपने नज़र भी हों जैसे, दलित, दमित, ग़रीब और कमज़ोर लोगों के लिए । और आज जो इनके चेले भारत को ध्वस्त करने पर तुले हुए हैं...... विश्वास नहीं होता । </div><br /><div align="justify"><br />तो चाँद जी के मूल प्रश्न पर आते हैं – आख़िर ये हथियार कहाँ से पाते हैं ?<br />अब मैं ठहरा अदना-सा लेखक । जो दिख जाता है । उसे देख लेते हैं, पर कभी-कभी उसे भी देखने की चेष्टा कर लेते हैं जो दिखाई नहीं दे रहा हो, पर वह ज़रूर हो कहीं न कहीं । आज का नक्सलवाद एक तरह का आंतकवाद है । उद्देश्य है इनका – सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली पर कब्जा करना। जैसे पिछले दिनों नेपाल की राजधानी में माओवादियों ने कब्जा किया । माओवाद हिंसक क्रांति के रास्ते पर चलकर व्यवस्था में तब्दीली लाने वाली कोई विचारधारा(?) है । तो भारत और ख़ासकर छत्तीसगढ़ में नक्सलवादियों को जो हथियार, धन और उन्नत प्रौद्योगिकी की उपलब्धता है वह कई रास्तों से मिल रहा है । </div><br /><div align="justify"><br />नक्सली बड़े व्यापारियों, नेताओं, अफ़सरों से धन की उगाही करते हैं, बदले मे उनकी जान बख्सते हैं और उनके ऐसे क्षेत्रों में व्यापारिक आवाज़ाही को खुली छूट देते हैं । यानी कि भ्रष्टों की सहायता से ये शक्ति संचित करते हैं । यानी कि इन्हें प्रजातंत्र की सबसे बड़ी बुराई भ्रष्ट्राचार से तो घनघोर शिकायत है पर स्वयं ऐसा करने में कोई परहेज नहीं है । बस्तर में तेंदू पत्ते के व्यापारियों, जंगल ठेकेदारों, परिवहन मालिकों से यदा-कदा ऐसी शिकायतें मीडिया के माध्यम से आती ही रहती हैं । जहाँ तक इन क्षेत्रों के नेताओं के भयवश चंदा की बातें हैं वह भी दबी जुबां मे सुनी जा सकती है । पहले आंध्रप्रदेश में भी यही हुआ करता था । जान से बड़ी जनता प्यारी नहीं होती । चाहे वह जननेता ही क्यों न हो । वैसे यह कहकर मैं ऐसे जननायकों को समर्थन नहीं दे रहा, ऐसी हरक़तों को वाज़िब नहीं ठहरा रहा हूँ । </div><br /><div align="justify"><br />नक्सलवाद भारत में आंतकवाद का घरेलू संस्करण है, जिसकी जड़ें देश-विदेश तक भी फैल चुकी हैं । यह ऐसे सिरफिरे लोगों तक आंतक पर विश्वास करने वाले लोग, संगठनों की पहुँच हो सकती है जिसे नकारा नहीं जा सकता है । अभी कुछ दिन पहले कश्मीर के मामले में नक्सलवादियों का बयान आया था कि वे वहाँ अपनी भूमिका के लिए तैयार हैं । यानी कि देश और समाज में अस्थिरता फैलाने वाले कई संगठनों के उद्देश्य और नक्सलवाद के उद्देश्यों में चूँकि अब साम्यता है तो जाहिर है इनके बीच आवाज़ाही भी हो । </div><br /><div align="justify"><br />नेपाल से लेकर बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और अब तमिलनाडू और कर्नाटक में भी जो गतिविधियाँ देखी जा रही है उससे लगता है कि यह क्षेत्र नक्सलवाद यानी प्रजातंत्र विरोधियों का एक गलियारा जैसा बन चुका है जो धूर श्रीलंका तक चला जाता है । इसमे लिट्टे जैसे संगठनों की भूमिका को भी पृथक नहीं किया जा सकता । फिर नेपाल और चीन के बीच बढ़ते संबंधों को कैसे नकारा जा सकता है और क्या नेपाल में जो माओवादी सरकार की स्थापना हुई, हज़ारों निसहाय और निरपराध जनता की मौतों के बाद, उसमें क्या चीन की कोई भूमिका नहीं है ? ऐसे मे यह कहने से कोई गुरेज़ नहीं कि इन गलियारों के बीच ऐसे देशों और ऐसी शक्तियों के परस्पर समर्थन न मिल रहा हो । </div><br /><div align="justify"><br />जहाँ तक छत्तीसगढ़ के बस्तर का परिदृश्य है वहाँ नक्सलवादियों द्वारा लूट-पाट, वसूली और हत्या आम बात हो गई है । पुलिस थाने पर भी जब-जब आक्रमण हुए हैं तब-तब ख़बर आई है कि वहाँ से बड़ी संख्या में हथियार लूटे लिये गये । </div><br /><div align="justify"><br />प्रश्न यह उठता है कि इनके पास उन्नत हथियार कैसे पहुँच रहे हैं - जाहिर है जहाँ और जो इन हथियारों को उपयोग मे लाते हैं वे ही उसे इन तक पहुँचा रहे हैं या इन तक नक्सलियो की पहुँच बराबर बनी हुई है । कहीं ना कहीं प्रजातांत्रिक निष्ठा के अभाव में उन्हें नेताओं, नागरिकों, नौकरशाहों, पुलिस बल की कमी और कमजोरियों का सहारा मिल रहा हो । </div><br /><div align="justify"><br />देश-विदेश के आंतकवादी और देश में अस्थिरता फैलानी वाली ताक़तों के साथ इनके संबंधों की पुख्ता सबूत भले ही न मिले हों, जिस तरह से भारतीय नक्सलवाद में उन्नत हथियारों, उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग होने लगा है उससे देखकर कहा जा सकता है कि बांग्लादेश, चीन, नेपाल, श्रीलंका और भी अन्य अंहकारी देशों की सहायता इन तक निश्चय ही पहुँच रही है । पिछले दिनो एक ख़बर आयी थी कि नक्सलवादियों के पास देश-विदेश के दो नम्बर की अकूत दौलत इकट्ठा हो चुकी है। इसमे कोई आश्चर्य की बात नहीं । </div><br /><div align="justify"><br />ऐसे क्षेत्रों में अराजक भ्रष्ट्राचार, बेरोज़गारी, जननायकों की लापरवाही, प्रजातांत्रिक इकाइयों की लेकूना, सरकारी कर्मचारियों का आंतक, दमनात्मक कार्यवाही, शोषण तो बहाना है । दरअसल माओवादी कार्यवाहियों या नक्सलवादियों की ऐसी हिंसक गतिविधियों के मूल मे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रजातंत्र को जड़ से उखाड़ फेंकना है । ग़रीबों, आदिवासियों, अहसायों, शोषित किसानों के हित की बात या उनके विकास के नाम पर जनयुद्ध तो बहाना है, आड़ है ताकि ऐसे क्षेत्रों में अल्प शिक्षित, अशिक्षित, बेरोज़गार, किसानो, आदिवासियों के भीतर पैठ बनी रहे और वे उन्हें अपना हथियार बनाते रहें । यदि ऐसा नहीं होता तो कम से कम बस्तर में इनका कोई न कोई ऐसा कम्यून ज़रूर होता जहाँ आदिवासी बेहिचक आसरा पाता । उस पर आस्था जताता । विकसित होता । यदि ऐसा नहीं होता तो नक्सलवादी भोले-भाले आदिवासियों को मौत के घाट नहीं उतारा करते । यदि ऐसा नहीं होता तो इन्फ्रांस्ट्रक्चर को ही नेस्तनाबूद करके ये नक्सलवादी ख़ुश नहीं होते । यहाँ यह सबसे बड़ी चिंता की बात है कि ऐसे नक्सलवाद का शिकार मूलतः ग़रीब, आदिवासी, कमज़ोर और दलित व्यक्ति ही हो रहा है न कि भ्रष्ट नेता, भ्रष्ट उद्योगपति, शोषक ज़मींदार, निरंकुश नौकरशाह । इसका मतलब यह क्यों नहीं हो सकता कि नक्सलवाद को अपने मूल उद्देश्यो से कुछ भी नही लेना-देना है । इसका मतलब यही है कि नक्सलवाद सिर्फ़ आतंकवाद है जिसका लक्ष्य प्रजातांत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करना है । और कुछ नहीं.. </div>जयप्रकाश मानसhttp://www.blogger.com/profile/16792869521782040232noreply@blogger.com7