Wednesday, October 12, 2011

ब्लॉगरों का अभिवादन

इधर बहुत दिन हुए, अपने ब्लॉग पर कुछ टांक ही नहीं सका था । नौकरी की आपाधापी, घरुकाम-काम और साहित्यिक आयोजनों में उलझे रहने के कारण शायद 7 अप्रैल 2010 के बाद आज फिर इधर आने का एकाएक मन हो आया ।

इस एक साल से अधिक अवधि में ना जाने कितने नये मित्र ब्लॉगिंग से जुड़ चुके होंगे जिन्हें मुझे पढ़ना चाहिए । ब्लॉगिंग पर तो भाई रवीन्द्र प्रभात की नयी किताब हिंदी ब्लॉगिंग का इतिहास भी छपकर आ चुकी है । शायद वे मुझे अपनी किताब रवाना भी कर चुके हैं - जैसा कि उन्होंने अपने ईमेल से सूचित भी किया है । देखते हैं क्या इतिहास लिखे हैं । पर इस वक्त उनको तहेदिल से बधाई ।

मुझे खुशी है कि छत्तीसगढ़ के जिन मित्रों और पत्रकारों के लिए मैंने वर्षों पहले पहल की थी कि वे ब्लॉग लिखने की ओर प्रवृत्त हों और बहुत अनमने मन से वे कार्यशाला में जुड़े थे, उनमें से कई आज छत्तीसगढ़ के प्रमुख ब्लॉगर बन चुके हैं और बाकायदा अभिव्यक्ति की प्रजातांत्रिकता को रेखांकित कर रहे हैं । और सिर्फ इतना ही नहीं वे स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर जम कर बहस कर रहे हैं । प्रायोजित प्रचार का जमकर विरोध भी कर रहे हैं । ऐसे सभी मित्रों को मेरा अभिवादन । उन सभी ब्लॉगरों को भी नये सिरे से प्रणाम जिनसे मैं बहुत दिन तक दूर रहा । चलिए अब प्रयास करते हैं आपसे नियमित मिलें । आप सभी को पढ़ें । स्वागतम...

Wednesday, April 07, 2010

क्या प्रजातांत्रिक संवेदना का अंत हो चुका है



सुकमा के चिंतलनार जंगल में जो जवान बर्बरतापूर्वक मारे गये - शोषक नहीं थे, बुर्जुआ नहीं थे, पूँजीवादी नहीं थे । जानलेवा संकट की संपूर्ण संभावना के बाद भी जानबूझकर सीआरपीएफ की नौकरी में थे । ताकि देश में शांति और अमनचैन की निरंतरता बनी रहे । ताकि ख़ुशहाली का वातावरण बना रहे । ताकि आम आदमी अपनी गणतांत्रिक अधिकारों का उपयोग कर सके । उन्होंने बंदूक और बारूद की नौकरी का वरण इसलिए भी किया था ताकि उनके ग़रीब माँ-बाप की माली हालत सुधर सके । घर बैठी जवान बहनों के हाथों मेंहदी रच सके । रतौंदी से ग्रस्त बीमार बूढ़ी दादी का ईलाज हो सके । पूरे परिवार को दो वक़्त की रोटी नसीब हो सके। ये जवान कुछ दिन पहले तक जाने कहाँ-कहाँ किस किस आपदा से जूझ रहे थे पर कुछ दिन से वे आदिवासी जनता को आततायी माओवादियों से मुक्त करने के लिए बस्तर के जंगल-नदी-पहाड़ में भटकते-भटकते दिन-रात एक किये हुए थे । सच यही है कि अब इन 76 जवानों की केवल लाशें ही उनके घरों को लौटेगीं । वे कभी अपने गाँव नहीं लौट पायेंगे । और साबित हो चुका सबसे बड़ा सच अब यही है कि वे सारे के सारे हमारे प्रदेश के आदिवासी अंचलों में खो चुकी खुशहाली को बहाल करने के लिए कटिबद्ध थे। फिर भी, हम हैं कि, खून से लथपथ जवानों के चेहरे और उनके परिजनों के दुख पर आदतन मसखरी कर रहे हैं ।

यह हमारी कैसी संवेदना है कि इस महाहमले को भी स्थानीय मुद्दा मानकर व्यक्तिगत कुंठाओं के शिकार होकर तंत्र की मीनमेख निकाल रहे हैं। नागरिक सुरक्षा तंत्र से जुड़ी सुनी-सुनायी बातों पर चुटकियाँ लेकर उनके हौसलों को खंरोचने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं । कोई कहता है कि राज्य और नागरिक सुरक्षा तंत्र के प्रमुख को इस्तीफ़ा दे दिया जाना चाहिए । जैसे कहनेवाला बस्तर के खूंखार परिस्थितियों से पूरी तरह वाक़िफ़ हैं । जैसे वह छापामार युद्धकला में प्रवीण है । धन्य है ऐसी मानसिकता को जो अपने आँगन से फूल चोरी रोक नहीं सकता और पुलिस पर सारा दोष मढ़ देता है, वह एकाएक गुरिल्ला युद्ध की सफलता और असफलता के बारे में जान गँवाने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के नाम पर वाक्-वीर बनकर सामरिक टिप्पणी करने लगता है । जैसे मुख्यमंत्री, गृहमंत्री या डीपीजी ने ही इस महाहत्या की साजिश रची हो । जैसे उनकी किसी निजी चूक से इस कायराना वारदात का अवसर नक्सलियों को मिल गया हो । कोई नहीं कहता - प्रजातंत्र के इन हत्यारों से स्थायी रूप से निपटने के लिए उसे क्या त्याग करना चाहिए ? क्या संकल्प लेना चाहिए ? यह जागरूक नागरिक होने की भूमिका से बचकर औरों को कीचड़ उछालने जैसा हरक़त नहीं तो और क्या है ? यह अनपढ़ प्रादेशिक चेतना का प्रमाण नहीं तो और क्या है ? इधऱ पड़ोस में 76 जवान बेटे मारे जाते हैं और उधर बुद्धिजीवी किताबी दुनिया में सिर खपाये रात गुज़ार देते हैं । पढ़े लिखे, वकील और न्यायप्रिय लोग इस घटना के टीव्ही फुटेज़ देखने को ही अपना परम कर्तव्य मान लेते हैं । उद्योगपति, व्यापारी, अफ़सर, चिकित्सक, अध्यापक, इंजीनियर आदि नक्सली वारदात की दुखदायी सूचना का दर्द ठड़ी बीयर्स के गिलास टकराकर मिटा देते हैं । सारी दुनिया को अपने सिर पर उठा लेनेवाले मानवाधिकारवादी ऐसे मौक़े पर तो गायब ही हो जाते हैं । किसी की आँखों में आँसू नहीं छलकता । देश की सुरक्षा के लिए जान पर खेल जानेवाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए हम एक मौमबत्ती भी जुटाना उचित नहीं समझते । शायद इसलिए कि मारे जाने वाले शहरी नहीं है । शायद ऐसा होता तो हममें से कुछ शहरी आयोजक 9-11 की तरह राजधानी के लोगों को जोड़कर श्रद्धांजलि देने से पहले फोटोग्राफर को ज़रूर याद कर लेते । मरा तो गाँव का बेटा है ना । मरा भी वह दंतेवाड़ा के जंगल में थोड़े ना है । गाँव जंगल से हमें क्या लेना-देना ?

क्या इतने अंसवेदन हो गये हैं हम ? कहीं हम मृतक के भूगोल के हिसाब से अपनी सहानुभुति तय तो नहीं करने लगे हैं ? हममें से कोई प्रश्न नहीं करता - आख़िर इन कायराने हमलों से डेमोक्रेसी को बचाने में वह क्या योगदान दे सकता है ? क्या सारी कुर्बानी नौकरी पेशा वाले जवान ही देंगे ? क्या सारे समाज को सुरक्षित रखने की अंतिम भूमिका पुलिस, सेना और पैरामिलेट्री फोर्स का ही है ? यदि हम ऐसा सोचते हैं तो हम तदर्थवादी सोच के शिकार हो चुके हैं । हम असरकारी लोग अपने घरों में बैठे-बैठे कोला-कोला की चुस्की लेते रहें और सरकारी सिपाही हमारे दुश्मनों से लड़ते-लड़ते अपनी जान गँवाता रहे ? क्या हम अपने नागरिक बोध से पल्ला झाड़ चुके हैं ? दंतेवाड़ा का हमला, सिर्फ़ हमारी पुलिस और अर्धसैनिक बलों को हतोत्साहित करने का संकेत नहीं, यह समूची भारतीयता, व्यवस्था और नागरिकता पर हमला है । यह हमला छत्तीसगढ़ के नक्सलविरोधी अभियानों को चुनौती नहीं, बल्कि उस देश को नेस्तनाबूद करने नापाक इरादों का परिणाम है, जो एक सुपरिभाषित जंनतंत्र को बचाने के लिए जूझ रहा है । यह नक्सलियों का सिपाहियों से मुठभेड़ नहीं, माओवाद का जनतंत्र से मुठभेड है।

ऐसे संकटकालीन समय में होना तो यह चाहिए कि लोग अपने एसी रूम छोड़कर निकल पड़ते । कोई घायल सिपाही की सेवा के लिए उद्यत रहता तो कोई उनके घर बार के लोगों को ढ़ाढस बंधाने के लिए । हर किसी के चेहरे पर हिंसावादियों के ख़िलाफ़ एक आक्रोश होता, और छाती तनी हुई और गलियों में ख़ूनी इरादों से लड़ने का संकल्प गूँज उठता । सभी एक दिन की कमाई का कुछ अंश ऐसे शहीद जवान के परिजनों के लिए स्वेच्छा से भेजने को लालायित हो उठता । हर जवान के सीने में नक्सलवादियों के द्वारा जनता, जनआस्था, जनतंत्र के विरूद्ध झेड़े गये युद्ध के विरूद्ध एक नैतिक गुस्सा फूट पड़ता । और यह गुस्सा तब तक नहीं थमता जब तक ऐसे विध्वंसक तत्वों से छत्तीसगढ़ मुक्त नहीं हो जाता, सारे नक्सलप्रभावित राज्य मुक्त नहीं हो जाते । आख़िर ऐसा क्यों नहीं होता है ? क्या अब हमारा समाज अब ऐसा नहीं रहा ? क्या हम सारे के सारे माओवादी और नक्सलवादियों से सहमत हैं । क्या प्रजातांत्रिक संवेदना का अंत हो चुका है हमारे प्रदेश से । क्या हम ऐसे ही भारतीय नागरिक हैं ?


Monday, January 25, 2010

छत्तीसगढ़िया ब्लॉगर्स मीट के पार्श्व से


छत्तीसगढ़िया लोग भी अब संगठित होने लगे हैं । कम से कम यहाँ के ब्लॉगरों ने तो यह कर दिखाया है कल । पर, जैसा कि प्रेस क्लब के अध्यक्ष और अमीर धरती गरीब लोग के ब्लॉगर श्री अनिल पुसदकर जी कल जिस तरह मोबाइल पर बता रहे थे वह चिंताजनक और ब्लॉगर्स के ख़िलाफ़ एक षडयंत्र से कम नहीं ।

वे बता रहे थे कि राज्य के कुछ कथित बड़े लोगों को इस मीट से सिर्फ़ इसलिए आपत्ति थी कि इसमें राज्य की ग़लत छवि प्रस्तुत करने वालों के विरोध में सब ब्लॉगर्स एक जूट होकर उनकी छवि नेट पर कहीं धूमिल न कर दें । शायद इसलिए उन्होंने इस मीट को बदनाम करने, कुछ ब्लॉगर्स को भड़काने, मीट से दूर रहने का लुकाछिपी खेल भी खेला हो ।

मैं नहीं जानता ये कौन लोग हैं किन्तु अनिल जी के अनुसार यह कार्य बखूबी किया है - कुछ लोंगों ने । शायद वे लोग ऐसे खेमे थे जो पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के विवाद पसंद वकील शांत भूषण द्वारा मीडिया और नक्सलवाद से जूझ रहे पुलिस के ख़िलाफ़ दिये गये बयान से स्वयं को भी जोड़कर देख रहे हैं । कोई अपराध बोध भी उन्हें कुछ करने को उकसा रहा हो । उन्होंने इसके पहले दिन साहित्यकारों की हुई प्रेस क्लब की बैठक को भी प्रायोजित करके बदनाम करने की कोशिश की थी । जैसे वे साहित्यकारों के पंजीयक हों, उनके पास जो रजिस्ट्रेशन न कराये वह साहित्यकार नहीं हो सकता । जैसे वे पत्रकारिता के अधिनायक हैं, उनकी अनुमति के बग़ैर पत्रकार कुछ भी नहीं कर सकता ।
विश्वास है जो ब्लॉगर्स ऐसी परिस्थितियों से गुज़रे होंगे वे उनका चेहरा ज़रूर उजागर करेंगे ।