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Friday, January 22, 2010

निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है – पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह


पद्मश्री रमेश चन्द्र शाह आधुनिक कविता, विचार और आलोचना के जाने-माने हस्ताक्षर हैं । भोपाल निवासी और शिक्षाविद् श्री शाह ने ललित निबंध की परंपरा को भी जीवंत बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । यह दीगर बात है कि वे ललित निबंध को ‘व्यक्ति-व्यंजक निबंध’ के नाम से संबोधते हैं । मैंने ललित निबंध के विद्यार्थी के रूप में कुछ वर्ष पहले उनसे बातचीत की थी । ललित निबंध को लेकर मन में आते कई जिज्ञासाओं के बारे में देखें वे क्या कहते हैः- मानस


मानस - आपकी रचनाधर्मिता का प्रेरक तत्व क्या है ? ललित निबंध के साथ कई विडम्बनाएँ रही हैं- अल्पसंख्यक पाठक, प्रकाशन हेतु पत्रिका संपादक का अपना पूर्वाग्रह, समीक्षकों एवं कतिपय महापुरुष साहित्यकारों की घनघोर उपेक्षा । इतनी सारी चुनौतियों के बावजूद आप ललित निबंध से कैसे जुड़े ?
शाह जी - लेखक के लिए अनुकूल परिवेश का कोई महत्त्व नहीं है । लिखना उसके लिए साँस लेने की तरह अनिवार्य है । यह विधा मेरे निकट की मुझे लगी – अपने स्वभाव के अनुकूल । मेरे व्यक्तित्व और मस्तिष्क के एक हिस्से की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य । इसलिए स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से ही मैंने निबंध लिखना शुरु किया । एक पारिस्थितिक पहलु यह भी, कि पहले ‘आधार’ पत्रिका के संपादक रामावतार चेतन और तत्पश्चात ज्ञानोदय के संपादक रमेश बक्षी मेरे निबंधों के बड़े गुणग्राही प्रशंसक थे । वे बड़े आग्रह और सुझ-बूझ के साथ मेरी रचनाएं बुलाते और छापते थे । बदरीनाथ कपूर सरीखे वैयाकरण और शब्दकोशकार ने नितांत अपनी रीझ-बूझ के कारण मेरा निबंध-संग्रह छापने की पहल की ।


मानस - आप जिस साँस्कृतिक चेतना को अपना प्रतिपाद्य बनाते हैं वे लोक, आंचलिकता या लोक धर्म के विषय हैं । आप अपने ललित निबंधों को अन्य ललित निबंधकारों से कैसे भिन्न देखते हैं ? इन दिनों आप नया क्या रच रहे हैं ?
शाह जी - यह प्रश्न लेखक से नहीं, पाठकों, समीक्षकों से पूछना चाहिए । अपनी रचना के बारे में स्वचेतन होना, अपनी भिन्नता और विशिष्टता बताना बहुत बेतुका और असम्यक लगता है लेखक को । निबंध विधा पर मैंने अलग से अपनी समझ बताई है एक लेख में । वह देख लें । मन की निर्बंध उड़ान, बुद्धि का भी क्रीड़ाभाव, अपने को ही कौतुकी और जिज्ञासु ढंग से देखने-परखने की टेब ने मेरे निबंध लिखवाये होंगे । पहला ही जो निबंध लिखा, उसका नाम था ‘चौंथी प्याली की महक’ जो ‘चाय’ पर है पर विषय निमित्त मात्र हैः व्यक्ति-चेतना का, व्यक्तित्व का प्रकाशन ही प्रेरक बनता है । पर वह आत्म-रति नहीं, आत्म-क्रीड़ा भी आत्मन्वेषण, आत्म-जिज्ञासा की प्रेरणा से है । प्रामाणिक ज्ञान किसी चीज़ का होता है ? प्रत्यक्षतः उसका जिसे ‘मैं’ कहते हैं । विषय-ज्ञान, वस्तु-ज्ञान उसी की अपेक्षा में, उसी के जरिये हो, तो कैसा ? यही मूल-प्रेरणा है निबंध की ।


मानस - ललित निबंध को आप किन शब्दों में परिभाषित करना चाहेंगे ? कोई इसे व्यक्तिव्यंजक निबंध कहता है, कोई रम्य रचना । आपका व्यक्तिगत अभिमत क्या है ?
शाह जी - सभी विशेषण अपने-अपने ढंग से सही हैं । मैं आत्म-निबंध कहता हूँ । अंग्रेज़ी ‘पर्सनल एस्से’ की उपलब्धियाँ और उनके प्रति विशेष प्रारंभिक राग-बंध के कारण । मेरे निबंध ‘पर्सनल एस्से’ के ही क़रीब होंगे । पर, हिंदी में ललित निबंध नाम चला तो उसका अपना अर्थ और प्रयोजन है । उसके सबसे श्रेष्ठ उद्भावक और ‘प्रैक्टीशनर’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पं. विद्यानिवास मिश्र हैं – इसमंब भी संदेह नहीं । स्वभावगत नज़दीकी और रुचि के हिसाब से बालमुकुंद गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र और बाबू गुलाबराय ज्यादा आकर्षित करते रहे थे शुरूआत में ।


मानस - निबंध और ललित निबंध के मध्य आप विभाजन की कैसी रेखा खींचना चाहेंगे ?
शाह जी - जहाँ ललित ज्यादा, निबंध कम होगा, वही निबंध कमज़ोर होगा । वैसे अर्थगंभीर, अर्थगौरव वाले निबंध भी निबंध ही होते हैं । आलोचना भी तो शोधग्रंथ की तरह, ... ग्रंथ रूप हो सकती है लेकिन कई तरह अहम् आलोचना निबंधकार प्रकटी है । .... अपने गंभीर विचारों के कारण भी एक प्रकार की अनासक्त संबंध-वृत्ति दर्शित होती है ।


मानस - ललित निबंधकार होना नास्टेलजिक होना भी होता है । प्रगतिकामी (?) आलोचकों के प्रश्न पर आपका जबाब क्या होगा ?
शाह जी - ‘पर्सनल एस्से’ में ‘आत्म’ अतीतोन्मुखी भी हो सकती है – पर किसी आत्म-सत्य की निर्वैयक्तिक गहराई और अर्थवत्ता की खोज में । ‘नास्टेलजिक’ से ऋणात्मक टिप्पणी उस पर लागू नहीं होती ।


मानस - ललित निबंध के विकासक्रम के बारे में आपकी राय क्या है ?
शाह जी - उपर्युक्त उत्तरों में इसका उत्तर निहित है, बाबू गुलाबराय और मेरे निबंध आत्मनिबंध कहे जा सकते हैं सामान्यतः । ललित निबंध का ..... आरंभ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के हाथों हुआ । पं. विद्यानिवास में वे संभावनाएं और विवृत हुई – बल्कि पार ... निचुड़ गई । ... में ललित निबंध का एक और आत्मचेतन मोड़ परिलक्षित हुआ । संस्कृतियों के द्वंद्व का अधिक इंटैलैक्चुअली अवेयर चित्रण । ये तीन ललित निबंधकार ललित निबंध के तीन आरोह हैं । कुबेरनाथ राय उसकी सांस्कृतिक डिबेट वाले पक्ष को मज़बूती से पकड़ते और तार्किक परिणति पर पहुँचा देते हैं ।


मानस - संस्कृत के कुछ श्लोक, लोक के कुछ छंद, ग्राम्य-स्मरण, कुछ निजी या आत्मीय प्रसंग, कुछ सरल उद्धरण और कुछ सरस उदाहरण के संग्रह-संयोजन को ललित निबंध का फ़ार्मूला बनाने के आरोप लगते रहे हैं, क्या इनके अलावा ललित निबंध रचा जा सकता है ?
शाह जी - फ़ार्मूला वाले आरोप में दम तो है, जिस आसानी से साथ जिस तरह ललित निबंध लिखे जाते रहे हैं, इन उपादानों के सहारे, उसे देखते हुए यह ग़लत नहीं है । ‘बगैर’ वाली बात अप्रासंगिक है । निबंध स्वयं इन उपादानों के साथ और बग़ैर भी खड़ा रह सकता है ।


मानस - ललित निबंध एक स्वतंत्र विधा है पर इसमें काव्य की विभिन्न विधाओं की उपस्थिति संभव है । यह ललित निबंध का सामर्थ्य है या भटकाव ?
शाह जी - इधर ललित निबंधों में कविता लगातार आ रही है । चाहे उदाहरण के बहाने या चाहे प्रासंगिक कारणों से । इससे ललित निबंध के गद्यगीत में तब्दील होने का संकट नहीं उत्पन्न होता ? फालतू कविताई – मात्र भावुकता के तहत कई बार दीखती है । वह भटकाव ही है – निबंध की अपनी ज़मीन नहीं । अब यूँ तो निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है । पर वह गद्यगीत न हो जाय ।


मानस - ललित निबंधों में विभिन्न विधाओं के समन्वय की सहमति के बाद भी गुलाबराय, दिनकर, विनोबा भावे, वियोगी हरि आदि के निबंध का जिक्र सामान्यतः क्यों नहीं होता ?
शाह जी - जिक्र होना चाहिए ।


मानस - ललित निबंधों के मूल विषयों में लोक भी है । फिर ललित निबंधकारों के यहाँ व्यंग्य को लेकर कोई परहेज भी नहीं, ऐसे में क्या लोक-यथार्थ को व्यंग्य विधा में अभिव्यक्त करने वाले य़था- परसाई, शरद जोशी आदि की रचनाओं को इस परिधि में नहीं समेटा जा सकता है ?
शाह जी - परसाई के निबंध शुरूआत में ललित निबंध ही थे – जैसे ‘सफेद बाल’ शीर्षक निबंध, उन्होंने ललित निबंध वाले दौर से लौटकर फिर से प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुंद गुप्त के निबंध का मेल कराया था । बाद में वे अलग से व्यंग्य नाम की विधा के लेखक बन गए । श्रीलाल शुक्ल ने भी इस तरह से निबंध लिखे हैं । व्यंग्य समूची रचना में रची-बसी एक वृत्ति है । व्यंग्य अपने आप में कोई विधा नहीं ।


मानस - ललित निबंधकार की सामान्य रचना प्रक्रिया पर आपकी टिप्पणी क्या होगी ? इसमें हिन्दी समाज, उसकी संस्कृति, उसकी विकृति या नित बदलती दुनिया की क्या भूमिका होती है ? क्या इस रचना प्रक्रिया को हम रमेशचन्द्र शाह (आपकी) की रचना प्रक्रिया मान सकते हैं, या आपकी रचना प्रक्रिया कुछ भिन्न है ?
शाह जी - चाहें तो मान सकते हैं । मानने के लिए आप मेरे निबंधों पर कैसा क्या लिखेंगे इससे आपकी विवेक-बुद्धि और रीझ-बुझ का पता चलेगा । सामान्यीकरण वास्तविक रस-दर्शन और रीझ-बूझ की जगह नहीं ले सकता । वैसे उपरी बात ग़लत नहीं है । वह मेरे नए निबंधों ‘हिंदी की दुनिया में’ के मूल्याँकन और समझ में सहायक हो सकती है । आप इस दृष्टि से उसकी विवेचना कर देखें । आपको स्वयं इस प्रश्न का सर्वोच्च उत्तर मिल जाएगा ।


मानस - ललित निबंधकारों की आज की पीढ़ी को कैसे मापना चाहेंगे ?
शाह जी - ख़ुद निबंधकार होते हुए इस बारे में कुछ कहना उचित न होगा । दुर्भाग्यवश आज की कविता के ही तर्ज पर नए ललित निबंधकार भी ‘परस्पर अहोध्वनिः’ वाले ही दीखते हैं । कोई स्वतंत्र विवेक और रीझ-बूझ के साथ इस विधा के प्रयोक्ताओं को किए-धरे की जाँचता-परखता नहीं । अग्रजों के साथ ही वैसा प्रेरक संबंध बन पाता है । सबको हड़बड़ी है अपने को जमाने की । कई लोग अच्छा लिख रहे हैं । पर लीक से हटकर काम बहुत कम है ।


मानस - ललित निबंधों में आत्मपरकता क्या नास्टेल्जिया नहीं है ?
शाह जी - इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ । आत्मपरक तो निबंध होगा ही । ... नहीं होते हैं जहाँ महज़ नास्टेल्जिया और आत्म-रति, आत्म-चर्चा प्रेरक होती है । अज्ञेय (बुद्धिचलन) को पढ़ा है ? उन्हें व्यक्ति कहके सबसे ज्यादा लांछित किया जाता रहा है उनके द्वारा जो अपने को बड़ा .... समझते हैं । .... है उल्टा, ये तथाकथित वस्तुबंदी ही हिंदी के सर्वाधिक राग-द्वेष प्रेरित सर्वाधिक आत्म-रति से सिकुड़े हुए लोग हैं ।


मानस - ललित निबंध पर आरोप है कि उसकी प्रकृति हिन्दूवादी है । प्रगतिशील (?) विविध जुमलों से खिल्ली उड़ाते हैं ? आप उन्हें कैसे निरुत्तर करना चाहेंगे ?
शाह जी - यह मूर्खतापूर्ण अनर्गल आरोप वही लगा सकते हैं जो आत्महीन, आत्मद्रोही और अंततः देशद्रोही हैं ।


मानस - ऐसे समय में जब उत्तरआधुनिकता के संजालों से सारे समाज के साथ पढ़ा-लिखा तबका भी निरंतर फँसता चला जा रहा है, उधर साहित्यिक कर्म के लिए चुनौतियाँ भी जटिलतम होती चली जा रही हैं, अल्पसंख्यक रचनाकारों की इस पवित्र विधा के भविष्य को लेकर क्या किया जा सकता है ?
शाह जी - अज्ञेय ने ‘आलोचक राष्ट्र के निर्माता’ की चुनौती सामने रखी थी 1945 में । वह चुनौती जहाँ की तहाँ है । उसका सम्मान और सत्कार करिए । ‘अल्पसंख्यक’ वाद के चक्कर में मत पड़िए । इसने वैसे ही हमारी राजनीति का सत्यानाश कर रक्खा है । कृपया साहित्य में इस तरह की शब्दावली से परहेज़ बरतिये ।

Saturday, June 14, 2008

पश्चिम में अब रेडियो अधिक रेडियो कल भी था, कल भी रहेगा -अंबरीन हसनात

रेडियो सलाम नमस्ते की वाइस प्रेसिडेंट से बातचीत
(सहयोग- आदित्य प्रकाश सिंह)


1. अमेरिका जैसे पश्चिमी माहौल वाले देश में हिंदी रेडियो (रेडियो सलाम नमस्ते)लांच करने के पीछे आपकी सोच क्या थी ? इसके मूल में व्यावसायिकता थी या हिंदी का विस्तार या वैश्विक अनुसमर्थन या कुछ और ही ?
- रेडियो सलाम नमस्ते के लांच का मुख्य कारण डैलास की कंप्यूनिटी में एकता पैदा करना था और साथ ही साथ हम यह भी चाहते थे कि देश से दूर परदेश में रहने वाले देशी जनता के पाश उनकी तफ़रीह(मनोरंजन) का कोई सामान मुहैया किया जा सके । हमारा मकसद था कि दक्षिण एशियायी इस चैनल के ज़रिये अपनी भाषा सुन सकें और हिंदुस्तानी संगीत के ज़रिये अपनी संस्कृति को याद रखें । ये और बात है कि समुदाय और स्थानीय व्यावसाय का समर्थन और हमारी टीम उन तक मेहनत की वज़ह से हमे ना सिर्फ़ वित्तीय कामयाबी मिली बल्कि अंतरराष्ट्रीय शोहरत भी मिली ।


2. अमेरिका से वैश्विक रेडियो लांच करते वक्त रेडियो के समक्ष विद्यमान चुनौतियों को आपने किस तरह मूल्याँकित किया ?
-किभी भी नये व्यवसाय की तरह रेडियो सलाम नमस्ते को भी बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा । मसला न सिर्फ पैसों का था बल्कि अच्छी कला का भी था । क्योंकि डैलास में रहने वाले ज्यादातर देशी युनाइटेड़ स्टेट्स में काम की तलाश में आते हैं । सभी की पृष्ठभूमि गैरमनोरंजनात्मक क्षेत्र से होता है जिसकी वज़ह से अच्छे कलाकार की कमी बहुत ज्यादा महसूस होती है । कहने का आशय स्तरीय और योग्य कलावंतों को प्राथमिक दौर में तलाशना हमारे लिए दुष्कर कार्य था । इन कलावंतों की पहचान और संपर्क साधने की बात भी थी । इसके अलावा सिर्फ चंद लोगों के साथ इतनी बड़े व्यवसाय की बुनियाद रखना नामुमकिन नहीं लेकिन मुश्किल ज़रूर है । आप स्वयं समझ सकते हैं कि हिंदी रेडियो की उपलब्धता और आम हिंदीभाषियों में उसकी पहुँच बनाने में हमें किन-किन रास्तों से गुजरना पड़ा होगा । ऊपर से कानूनी औपचारिकताओं और मापदंड़ो में भी हमें खरा उतरना पड़ा होगा, पर हम ने हिम्मत नहीं हारी और अपने काम में ड़टे रहे ।


3. रेडियो सलाम नमस्ते की रणनीतियों में रेडियो की वापसी और उसकी प्रतिष्ठा जैसे उद्देश्यों को कैसे तरजीह दिया जा रहा है ?
- सलाम नमस्ते की शुरुवात प्रकारांतर से रेडियो की वापसी ही है । अमेरिका और पश्चिमी देशों में लोग टी.व्ही. से लगभग उबने लगे हैं । उन्हें अब टी.व्ही चिढाने-सा लगा है । रेडियो वहाँ पहले से था पर एक दौर ऐसा आया था जब ये इलेक्ट्रानिक मीडिया एक तरह से रेडियो को लीलने लगा था । शहरी वातावरण से रेडियो एक प्रकार से गायब होने लगा था किंतु अब रेडियो अधिक विश्वसनीय और दोस्ताना लगने लगा है । फिर से । यह मनोवैज्ञानिक रूप से सच है कि रेडियो के प्रति आम परिवार में जितना चिढ़ नहीं है उतना चिढ़ टी.व्ही के प्रति है। ऐसी परिस्थिति में रेडियो सलाम नमस्ते से यदि किसी तरह रेडियो की वापसी जैसी कोई स्थिति बनती है तो यह एक योगदान हो सकता है । हम रेडियो को पुनरप्रतिष्टित करने के लिए ही इसे इंटरनेट पर ऑनलाइन भी रख रहे हैं ताकि यह विश्व के श्रोताओं तक रेडियो के रूप में अलख जगा सके । एफ.एम. पर तो यह है ही । हम आने वाले दिनों में कुछ ऐसे खास आयोजन भी करने वाले हैं, रणनीतिपूर्वक ताकि लोगों में रेडियो के प्रति आस्था बढ़े ।


4. रेडियो सलाम नमस्ते को बहुभाषीय चैनल बनाने के पीछे कौन-सा लक्ष्यबोध है ?
- जैसा कि आप हमारे रेडियो के नाम से ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह रेडियो किसी एक मजहब या जात को प्रमोट नहीं करता बल्कि यह परदेश में रहने वाले तमाम साउथ एशियन (देशी) लोगों के लिए है । हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में कुल मिलाकर तकरीबन 25 भाषायें बोली जाती हैं और हमारे खयाल में ये बहुत जरूरी है कि हम ज्यादा से ज्यादा इन भाषाओं को प्रमोट करें । वर्ना कहीं ऐसा न हो कि देश से बाहर लेने वाले नयी नस्ल कहीं अपनी पहचान ना खो दे । चैनल को बहुभाषीय स्तर पर प्रतिष्टित करने के मूल में भाषायी विभिन्नताओं के खतरों को शिथिल करने की जद्दोजहद भी है ताकि भाषायें सेतु बने, उन्हें लेकर मन मे भेद न रहे । वैश्वीकरण के इस दौर में एक ही भाषा अर्थात् अंग्रेजी के वर्चस्ववादी दीवारों के बीच भारतीय भाषाओं को वैश्विक परिवेश में ढालने की पहल के रूप में भी रेडियो सलाम नमस्ते को देखा जा सकता है किन्तु इसका दावा करना हमारे लिए अविनम्र कदम भी हो सकता है सो हम इसे भविष्य में आंकना चाहेंगे । अभी इसे दृढ़ता से कहना अवैज्ञानिक और अतिशयोक्ति होगी ।

5. रेडियो में हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं और लोकभाषाओं को वैश्विक बनाया जा सकता है ? इसकी संभावना को आप कैसे आंकते हैं ।
- हिंदी, ऊर्दू, पंजाबी और बहुत सी दूसरी भाषायें अब मुख्यधारा में भी पहचानी जाने लगी हैं और एक साउथ एशियन मीडिया चैनल होने की वजह से ये हमारा फ़र्ज है कि हम इन भाषाओं का प्रचार करें और इन्हें लाइम लाइट में लें । भारतीय भाषायें ही नहीं विश्व की कई भाषायें व्यवहार के अभाव में काल के गर्त में जा चुकी हैं । यह सभी को विदित है । आज जिस तरह की भाषायी राजनीति विश्व-बाजार में अपनी ताकतों का विस्तार कर रही है वह कम खतरनाक नहीं । यह प्रकारांतर से किसी एक भाषा की दुनिया को गढ़ने जैसा कदम साबित होने वाला है । क्या इसे अन्य भाषा की समाप्ति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए । सच कहें तो यह मनुष्यता के कई शैळियों के ध्वस्तीकरण की चालाकियाँ हैं । ऐसे संकटों का जो मूल्याँकन कर सकेगा जाहिर है कि वह क्योंकर अन्य प्रिय और समृद्ध किन्तु कमजोर पड़ती भाषाओं को विश्व फलक पर लाने का जोखिम नहीं उठायेगा । भाषायी विविधिता को बचाये बिना वैश्वीकरण बेकार है । यह ज्ञान, तकनीकी, विरासत, संस्कृति की विविधता को भी खत्म करने जैसा हो सकता है । अब जबकि वैश्वीकरण में भी गुजांयस है - खासकर सूचना और संचार की प्रविधियों में, जहाँ प्रिय और स्थानीय भाषाओं को विस्तारित करना ज्यादा कठिन नहीं तो रेडियो सलाम नमस्ते जैसे प्रयासों से विभिन्न संस्कृतियों, अभिरुचियों और मन की संवेदना को बचाया जा सकता है । और जाहिर है भाषाएं इनके मूल में हैं । आप इंटरनेट को ऐसी सकारात्मक दिशा में देख सकते हैं ।


6. क्या पश्चिम और खासकर अमेरिका में रेडियो की वापसी हो रही है ? क्या रेडियो की वापसी पूर्णतः संभव है ? क्या आपकी कोई खास कार्ययोजना है ?
- इसमें कोई शक नहीं है कि एफ.एम के आने से रेडियो बहुत तरक्की कर रहा है और हम चाहते हैं कि बढिया कार्यक्रम के ज़रिये हम उसे बहुत आगे ले जायें । हमारी आशा है कि ऊपरवाले की दया से और हमारे सुनने वालों की मदद से हम ज्लद ही युएसए के कई दूसरे शहरों तक पहुँच जायेंगे और वह दिन दूर नहीं जब रेडियो सलाम नमस्ते का नाम दुनिया के दूसरे देशों में भी सुना जा सकेगा ।


7. अत्याधुनिक तकनालॉजी वाले वैश्विक परिवेश में जहाँ बहुवैकल्पिक मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं रेडियो के प्रति विभिन्न वर्ग के श्रोताओं का रूझान कैसा है ? अंतरजाल यानी इंटरनेट की भूमिका इसमें किस तरह उपयोगी साबित हो रही है ? विस्तार से बताना चाहेंगे ।
- आज के दौर में जब बच्चे-बूढ़े और ज़वान सभी कंप्यूटर का इस्तेमाल आसानी से कर लेते हैं.... हमारी ऑनलाइन ब्राडकास्टिंग की वज़ह से सिर्फ युएसए की दूसरी स्टेट के श्रोता ही नहीं बल्कि दुनिया के कई दूसरे देशों में हमें सुना जाता है । हमारी ऑनलाइन सर्विस के ज़रिये लोग डैलास या न्यूयार्क में बैठे-बैठे गीतों के माध्यमस अपने मुहब्बत भरे संदेश भारत में रहने वाले अपने परिवार तक पहुँचा सकते हैं ।
हमारी ऑनलाइन सर्विस को सभी सुनने वाले बहुत पसंद करते हैं क्योंकि इसके ज़रिये रेडियो की कवायद नहीं होती, यदि उनके पास इंटरनेट की सुविधा है तो वे आसानी से सलाम रेडियो नमस्ते का मजा ले सकते हैं ।


8. हिंदी के वैश्वीकरण में रेडियो की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ? इस दिशा में सरकार, समाज और मीडियाकर्मियों से कैसी अपेक्षा करते हैं ?

- हमारा मकसद है कि हम भारतीय भाषाओं और संस्कृति को जितना हो सके उन्नत बनायें क्योंकि अमेरिका में पलने वाली इस नयी नस्ल के लिए अपनी बुनियाद अपने जड़ों की पहचान कराना बहुत जरूरी है ।
मानस जी, जहाँ तक हिंदी के वैश्वीकरण का प्रश्न है और इसमें रेडियो की भूमिका मूल्याँकन है उसे लेकर मेरे मन में सकारात्मक विचार हैं । हिंदी का वैश्वीकरण में रेडियो बहुत रसमय और आकर्षक श्रव्य माध्यम है । इस में आप कई ऐसे रेडियो का नाम जानते हैं ही हैं जिनके हिंदी प्रसारण समूचे दुनिया में प्रसिद्ध हैं । यह केवल समाचारों या मनोरंजनात्मक चीजों का ही प्रसारण नहीं है अपितु हिंदी की ताकत और उसमें विद्यमान शक्ति और संस्कृति का भी प्रसारण है । हिंदी के वैश्वीकरण में जैसा कि हम सभी जानते हैं आज इंटरनेट सबसे कारगर भूमिका में है और जिसके माध्यम से हिंदी भाषा, साहित्य, गीत, संगीत, संस्कृति, आदि समूचे विश्व के लिए एक क्लिक पर उपलब्ध होने लगा है । ऑनलाइन पाठ्य सामग्री और ऑनलाइन दूरदर्शन के बनिस्पत रेडियो या ऑनलाइन रेडियो ऐसा घटक है जिसे किसी अन्य कार्य के मध्य भी सुन सकते हैं । रेडियो का आँख मूँदकर श्रवण भी अपनी ज़मीन की पहुँच सुलभ बना देता है । यहाँ श्रोताओं का भावबोध कहीं अधिक कारगर हो उठता है । संक्षेप में कहें तो रेडियो हिंदी सहित अन्य भाषाओं की वैश्विक स्थापना के लिए अतिमहत्वपूर्ण तकनीक है । जाहिर है विश्व बाजार में ऐसे रेडियो चैनलों की स्थापना को लेकर संबंधित देशों को अधिक उदार होना होगा ताकि उस देश के विविध भाषाभाषियों के लिए मनोरंजन सह ज्ञान का श्रव्य साधन भी उपलब्ध हो । विदेशों में भाषिक आधार पर गठित हिंदीभाषी संगठनों को भी जागरूकता का परिचय देना होगा । इसमें संस्कृतियों के संरक्षण का पाठ भी है । मीडियाकर्मियों को ऐसे कला माध्यमों को सकारात्मक दृष्टि से स्वीकारना चाहिए । खासकर उन्हें जो दृश्य माध्यमों के ग्लैमर और नोटों की वर्षा में नहा रहे हैं । यह दृश्य माध्यमों की विकृतियों से भाषायी समाज या समुदाय को बचाने जैसी भी उदारता होगी और इसकी जरूरत मैं समझती हूँ इस समय अधिक है ।


9. भारतीय रेडियो चैनलों के बारे में आप क्या सोचते हैं ? इस दिशा में सुधार के कदम किस तरह उठाये जा सकते हैं ? खासकर सरकारी नीतियों में किस तरह अधिकर खुलापन लाया जा सकता है ?
- युएसए में ज्यादा देशी रेडियो चैनल्स लोग शौकिया शुरू करते हैं, बिना किसी योजना के । ना उनके पास सही वित्तीय समर्थन होती है ना ही अच्छे कलाकार, जिस वज़ह से सुनने वाले उनकी मेहनता का उतना फायदा नहीं उठा सकते और निम्न व्यावसायिक योजना के कारण से उनका व्यापार या स्टेशन आखिर कार बंद हो जाता है ।
मैंने सुना है कि भारत में भी स्थानीय स्तर पर रेडियो चैनलों की स्थापना पर जोर दिया जा रहा है । और वहाँ नीतिगत उदारता भी है । रेडियो चैनलों की शुरुआत के लिए कानून यदि अधिक प्रजातांत्रिक और सरल हों तो भारत जैसे देश के लिए यह सुखद होगा । भारत की सांस्कृतिक और भाषायी विविधिता के संरक्षण के लिए भी यह एक कारगर कदम होगा । सामुदायिक रेडियो का विस्तार ग्रामीणों के उत्थान के लिए आवश्यक है । इस दिशा में भी वहाँ निर्णय लिया जाना चाहिए । रेडियो चैनलों की स्थापना के लिए प्रारंभिक शुल्क को किस तरह कम किया जाना चाहिए यह भी सोचने का विषय हो सकता है ताकि एक घराने के स्थान पर कुछ क्रियाशील समूह भी ऐसे रेडियो स्टेशनों की शुरुआत करने की हिम्मत जुटा सकें ।


10. अन्य सभी माध्यमों के बीच रेडियो अपना भविष्य किस तरह निर्धारित करेगा ?
- टी.व्ही. का मजा उठाने के लिए देखने वाले को सब काम छोड़कर एक जगह बैठना होता है जबकि रेडियो के लिए सिर्फ कान दरकार है । जिसकी वज़ह से रेडियो हर जगह लोगों के साथ रहता है । आजकल की तेज रफ़्तार ज़िंदगी में लोगों के पास वक्त कम होता जा रहा है और वा कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा हासिल कर लेना चाहात है और इसी वज़ह से रेडियो मनोरंजन अधिक सुविधाकारी है । दूसरा यह के टी.व्ही. पर आये दिन नये कार्यक्रम और नये कलाकार आते हैं जिनके साथ देखने वाले का कोई संबंध नहीं बन पाता जबकि रेडियो के प्रस्तोता का अपने सुनने वाले से आवाज़ का एक अनदेखा पर बहुत ही करीब का रिश्ता होता है । सो हमें टी.व्ही. चैनल्स से कोई डर नहीं.... रेडियो कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा । सलाम नमस्ते ।