Thursday, March 26, 2009

।। नक्सलियों के बयानों के पीछे की वास्तविकता ।।


हाल ही में नक्सलियों ने जनता-सरकार की माँग की है । किससे की है ? क्या सरकार से की है? यदि वह माँग सरकार से है तो प्रश्न उठता है कि सरकार तो नक्सल विरोधी है । भविष्य की हर सरकारें चाहे उस सरकार को कोई भी दल संचालित करे, नक्सलविरोधी भी होगी । क्योंकि नक्सलवाद का रास्ता प्रजातंत्र की पतन की ओर ले जाता है । और कैसे कोई भी दल स्वयं प्रजातंत्र को ध्वस्त करने की गतिविधियों का अनुमोदन कर सकती है ! क्योंकि ग़रीबी, शोषण, उत्पीड़न व भेदभाव मिटाने के नाम पर भी ख़ूनी हिंसा के समर्थन का साफ़ मतलब अमानवीय, असंवैधानिक और दूसरी तरह का दमन भी हो सकता है । यही अंतिम विकल्प तो नहीं । हिंसा, भय, आंतक के सहारे यदि सामाजिक क्रांति हो सकती है तो उसकी आवाज जनता से आनी चाहिए । जाहिर है यह आवाज़ जनता की ओर से नहीं, नक्सलियों की ओर से आ रही है जिन्होंने बस्तर में अब तक ऐसा कोई जनप्रिय कार्य नहीं किया जिससे बल पर उसका कोई सदस्य प्रजातांत्रिक तरीके से सरकार के किसी घटक के सदस्य बन पाता । यदि वे वास्तव में जनता की सरकार के स्वप्नाकांक्षी होते तो ऐसी कौन सी शक्ति है जो उन्हें जनता का व्होट पाने से रोक सकती है । इसका साफ मतलब है कि न वे जनता के लिए हैं, न वे जनता हैं, न वे जनता द्वारा संचालित व्यवस्था के पक्षधर हैं । ‘जनता की सरकार’ की आवाज़ आड़ मात्र है ठीक जैसा वे पहले जनता की पक्षधरता की धूर्त चालों के सहारे बस्तर के भोली-भाली जनता के बीच पैठ बनाकर अब अपने असली एंजेंडे पर उतर आये हैं । दरअसल जनता उनके एंजेडे में ही नहीं है । वे स्वयं भी जानते हैं कि कोई भी प्रजातांत्रिक सरकार नक्सलियों की खूनी क्रांति पर विश्वास नहीं करती । कर ही नहीं सकती।


ऐन चुनाव के समय उनका ‘जनता की सरकार’ की माँग करना जनता को दिग्भ्रमित करना है । मतदाता की सोच को प्रभावित करना है । दरअसल नक्सलियों के दो रूप हैं । एक स्वांग के भीतर वे जनता के पक्ष में बात करते हैं दूसरी स्वांग में वे ठीक जनता के ख़िलाफ़ कार्यवाही करते हैं । चुनाव का बहिष्कार जैसा उनका ऐलान ऐसे स्वांगों का नमूना है । वे जानते हैं कि प्रजातंत्र का प्रवेश-द्वार चुनाव है। और चुनाव में यदि वे हिस्सा लेंगे तो उन्हें प्रजातंत्र पर विश्वास जताना पड़ेगा, जैसा कि उनका लक्ष्य ही नहीं है, सो वे चुनाव बहिष्कार की बात करते हैं । और इस चुनाव बहिष्कार के बहाने हिंसक गतिविधियों का सहारा लेकर प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विरूद्ध जनता के मन में अविश्वास भरते हैं । चुनाव के अधिकार से वंचित करते हैं । यानी कि वे सिर्फ यही दबाब बनाने की कोशिश करते हैं कि जनता के लिए मात्र नक्सलवाद ही एकमात्र उपाय है । क्या सामाजिक बदलाव के विरूद्ध यह नादिरशाही और मध्ययुगीन कार्रवाई या सिद्धांत नहीं है ?


नक्सली प्रवक्ता के तर्कों को परखें तो देश की पार्टियों की घोषणा पत्र झूठे हैं । ठीक है, यदि देश के मौजूदा राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में धोखे-ही-धोखें तो उनके घोषणा पत्र में क्या है ? उनका अतीत का प्रदर्शन क्या है ? उनके पार ऐसी कौन-सी नैतिक दृष्टि है जिसका कायल होकर जनता उन्हें चुने । भय और हिंसा के हिमायती नक्सलियों को अपने जनहितैषी कार्यों की सूची जारी करनी चाहिए कि उन्होंने अमूक स्कूल की मरम्मत की । अमूक तालाब की सफ़ाई की । अमूक को अस्पताल पहुँचाया । सच तो यह है कि वे विकास के मायने को ही झूठलाते हैं । ऐसे दलों द्वारा किये गये विकास को ही ध्वंस करते हैं । वे जिस शोषण की बात करते हैं उसी शोषण की गंगा को वे भी आगे बढ़ाते हैं । एक अनुमान के अनुसार केवल बस्तर के नक्सली प्रतिवर्ष 200 करोड़ की उगाही अवैध तरीकों से भय और आंतक के बल पर करते हैं । वे यदि कहते हैं कि देश को पूँजीवादी और साम्राज्यवादी चला रहे हैं तो फिर वे क्या कर रहे हैं ? लूट तो आख़िर लूट ही है, चाहे कोई भी क्यों न लूटे । क्या वे भूखे को अन्नदान, वस्त्रहीन को वस्त्रदान और आवासहीन को आवासदान दे रहे हैं ? वे स्वयं जब समूचे बस्तर में अपना अनैतिक साम्राज्यवाद विकसित कर रहे हैं तो उनका किसी अन्य राजनैतिक दल को नकारना पूर्णतः दोगले चरित्र का ही परिचायक है । नक्सलियों की मान्यता कितना हास्यास्पद है कि यदि वोट देना अधिकार है तो नहीं दिये जाने का भी अधिकार मिलना चाहिए । यानी कि जनता किसी को न चुने । तो फिर कौन उसका प्रतिनिधित्व करेगा ? कौन उसकी आवाज़ बनेगा ? यानी नक्सलियों के अनुसार जनता नेतृत्वविहीन रहे । ठीक वन्य जीव की तरह विचरणशील । यानी पशुता की ओर समाज चले जाये । जनता बिना सांवैधानिक अंगों के अपना राज कैसे कर सकती है । ऐसा तो तब ही संभव था जब वह जंगल युग में रहता था । क्या ऐसी स्थिति को अराजक नहीं कहेंगे । यदि ऐसी अराजक स्थिति का निर्माण ही विकास का आधार है, यदि यही शोषणहीनता, उत्पीड़नहीनता व भेदभाव के विसर्जन का मूलमंत्र है तो उनके सिद्धांत और दर्शन दोनों अबूझे है, झूठे है । भविष्य की शायद ही कोई पीढ़ी जनता के रूप में इस पर विश्वास करे । सभ्यता के इस मुकाम पर अराजकता किसी भी कीमत पर अब जीवन का मर्म नहीं हो सकता । वह जीवन का रहस्य कभी था ही नहीं । यदि नक्सलवाद यही कहता है तो इसका साफ मतलब है कि नक्सलपंथी अराजक हैं । क्या जनता को जंगली-सभ्यता की ओऱ लेजाना ही उनका ध्येय है ?


नक्सली तर्क गढ़ते हैं, थोथी सहानुभूति पाने के लिए, कि वोट नहीं देने पर अर्धसैनिक बल और पुलिस मतदाता का दमन करते हैं । वे यह क्यों भूल जाते हैं कि वे भी दमन के सहारे ही मतदाता को मतदान करने से रोकते हैं । बस्तर का तो यही इतिहास रहा है । चुनावों में सारे देश की यही तस्वीर रही है । उनका यह कहना भी फर्जी है कि जनता को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ देने का वादा करने वाली सरकारें केवल वोट के लिए राजनीति करती हैं, जबकि वे इसके पीछे अपनी जेबें भरते हैं । आख़िर एक भ्रष्ट राजनीतिक की तरह वे भी यही भ्रष्ट तरीके अपना रहे हैं लगातार । क्या वे अपने लक्ष्यों के लिए पूर्णतः नैतिक बने हुए हैं । जो हिंसक होगा, आतंककारी होगा उसका लक्ष्य नैतिक हो ही नही सकता । नक्सलियों का हालिया बयान इतना द्वंद्व भरा है कि कोई ही उस पर शायद विश्वास करे । क्योंकि वे जनता की सरकार की माँग भी करते हैं । यानी उनकी मांग का एक हिस्से में सरकार नामक अवधारणा भी है औऱ वे उस सरकार के चयन के लिए बाधा भी खड़ा करते हैं । कितनी दोगली दृष्टि और सोच है नक्सलवादी वैकासिक सिद्धांतों का ।


नक्सलवाद का सारा ढाँचा असत्य, हिंसा, आंतक, धन, भ्रष्टता पर टिका हुआ है जहाँ उनके कथोपकथनों की कोई विश्वसनीयता नहीं है । एक और उदाहरण हाल का ही देखें - कुछ दिन पहले बस्तर के नक्सलियों ने कहा कि वे सरकार से बातचीत के लिए तैयार हैं । किसने, किसने कहा ? किसी को भी समझ में नहीं आया । वस्तुत यह बात सिर्फ़ मीडिया के श्रीमुख से ही आयी थी । वस्तुतः न नक्सलियों के प्रवक्ता ने मुख्यमंत्री से कहा, न राज्यपाल से न ही गृहमंत्री या पुलिस महानिदेशक या गृह सचिव से । उनकी ओर से किसी भी उचित स्तर तक न कोई पत्र आया था न ही टेलिफ़ोन-मोबाइल । यह एक सच है । दूसरा सच यह है कि ठीक उसी दरमियान नक्सली लगातार आदिवासियों को अपनी गोलियों का शिकार बनाकर मौत के घाट उतार रहे थे । प्रश्न उठता है कि वे मीडिया का सहारा लेकर ऐसा क्यों कर रहे थे ? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जिसने बयान दिया था वह अधिकृत था । क्या वह सारे नक्सलियों का नेतृत्वकर्ता था ? माओवादी रणनीति के तहत वे ऐसा तब-तब करते हैं जब किसी स्तर पर कमजोर पड़ रहे होते हैं । यह एक तरह का सरकार, पुलिस बल का ध्यान बाँटने की कला है । ताकि रणनीतिकार को सुरक्षित बने रहकर हिंसक क्रांति जारी रखने का मौक़ा मिल जाये । यह दूसरे मायने में जनता की झूठी सहानुभूति प्राप्त करने का भी उद्योग है कि जनता राजनेताओं पर शंका-कुशंसा करने कि – देखिये राजनेता भी उसकी सुनवायी नहीं कर रहे । उनका सारा सिद्धांत झूठ और फरेब पर टिका है क्योंकि वे एक ओर प्रजातंत्र का विरोध करते हैं दूसरी ओर उसकी सारी इकाईयों की ताकतों का सहारा भी लेते हैं । सलवा जुडूम के विरोध में कोर्ट का सहारा लेना भी उनकी इसी धूर्तता का नमूना है ।


क्या अब वह समय नहीं आया है कि ऐसे भ्रमों, भ्र्रांतियों, फर्जी आचरणों का प्रकाशन ही न हो और इसके लिए मीडिया को भी खासतौर पर सोचना होगा कि उनकी किन मुद्दों तक जनता की पहुँच हो, और किन तक नहीं । विज्ञप्तियो के सहारे जनता का कल्याण करने की ऐसी बुद्धिवादी कोशिशों को कब तक आख़िर जायज ठहराया जायेगा । ऐसी गतिविधियों को भी प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिए प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए । जो संगठन प्रजातंत्र में प्रतिबंधित हो उसकी आवाज को प्रचारित करना भी प्रतिबंधित होना चाहिए । इसे अभिव्यक्ति के नाम पर मान्यता देना प्रजातंत्र को ध्वस्त करने की संभावनाओं को भी तवज्जो देना होगा ।

Friday, March 20, 2009

क्या नेशनल बुक ट्रस्ट में कुनबाबाद चलता है ?

( एक दिवसीय साहित्य महोत्सव पर निजी टिप्पणी )
हमें किसी पर ऐसी टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है, जब तक हम वैसी हरक़त करने की समस्त संभावनाओं से ख़ुद को मुक्त न कर लें । वैसे यह बड़ा जोख़िम भरा उद्यम है - एक साधना की तरह, यह हम बख़ूबी जानते हैं, फिर भी आज कुछ ऐसा हमारे समक्ष आ खड़ा हुआ है जिससे किसी बड़ी हस्ती पर भी अँगुली उठाने की सदाशयपूर्ण हिमाक़त का परहेज हम नहीं कर पा रहे हैं । और सच तो यह है कि ऐसा न करने से प्रायश्चित के किसी दलदल से भी हमें गुज़रना होगा, जैसा कि हम नहीं चाहते और शायद आप भी इन हालातों में ऐसा नहीं करना करना चाहेंगे और अपने चेतनात्मक ऊर्जा को प्रखऱ करना चाहेंगे । सो इसे आप अपनी संवेदना को हमारे साथ रखकर ही समझ सकते हैं ।

जी हाँ, नेशनल बुक ट्रस्ट नामक अखिल भारतीय संस्था का चरित्र भी कुछ-कुछ ऐसा ही परिवर्तित होता जा रहा है जिसे देखकर कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति कह सकता है कि उनकी चदरिया पर भी दाग़ दिखने लगा है । यह दाग़ सतर्कता के अभाव का है । यह दाग़ हड़बड़ी का है । यह दाग़ छत्तीसगढ़ को ज़रा आलसी और अनभिव्यक्त प्रवृति का मान लेने के कारण से है । आप के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि आख़िर माज़रा क्या है ? क्या कर डाला दिल्ली के नेशनल बुक ट्रस्ट ने ।

तो जनाब, लीजिए आप भी जान लीजिए । नेशनल बुक ट्र्स्ट वाले यहाँ पधार रहे हैं । ‘वाले’ का मतलब नई दिल्ली स्थित इस ट्रस्ट के मुख्य संपादक और संयुक्त निदेशक डॉ. बलदेव सिंह मदान (और संभवतः उसके एक और कारिंदे लालित्य ललित) वैसे मैं इस दोनों को पढ़ चुका हूँ । बड़े ही सक्रिय रचनाधर्मी हैं । इनके ट्रस्ट में विराजने से देशभर में पाठकीय संस्कृति से जुड़ी ऐसी गतिविधियाँ तेज़ ही हुई हैं । तो ये महानुभाव अपने मुख्यालय, दिल्ली से साहित्यकारों की खेप लेकर रायपुर में एक दिवसीय साहित्य महोत्सव कर रहे हैं । यह महोत्सव है 22 मार्च, 2009 को । ‘विनीत’ बनकर कार्ड बाँट रहे हैं – ट्रस्ट के डॉ. बलदेव सिंह बद्दन औऱ छत्तीसगढ़ राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के मंत्री डॉ. सुधीर शर्मा ।

इस साहित्य महोत्सव के आमंत्रण-पत्र का सिंहावलोकन करें तो आपको नहीं लगेगा कि रायपुर या छत्तीसगढ़ में देश के वरिष्ठ साहित्यकार रहते हैं । वैसे यह निमंत्रण पत्र रायपुर से छापा गया है । दरअसल दिल्ली सदैव छोटी राजधानियों पर हावी होना चाहती है । दरअसल वह इसलिए अन्य प्रदेशों की राजधानी में दिल्ली वाले साहित्यकारों को लाकर ट्रस्ट की ओर से पुस्तक संस्कृति को विकसित करने का श्रम करती रहती है । वह जताना चाहता है कि दिल्ली के साहित्यकारों से बड़ा कोई नहीं है । सो, उन्हीं के दिशाबोध में पुस्तकों की अहमियत पर देश में चर्चा होगी । हाँ, मेरे जैसे कुछ छुटभैय्ये साहित्यकारों को ऐसी कार्यशालाओं - साहित्य महोत्सवों में अवश्य शामिल कर लिया जाता है जो चुपचाप उनकी बड़ी-बड़ी बातों को शिष्य-भाव से सुनने का धैर्य रखें । शायद इसलिए भी कि ऐसे साहित्यकारों की ट्रस्ट से जान-पहिचान है । शेष जायें रद्दी की टोकरी में । उन्हें पहचानने की जहमत क्यों उठाये ट्रस्ट । किन्तु क्या ऐसे स्थानीय आयोजकों या समन्वयक संस्थाओं को यह नहीं देखना चाहिए कि छोटी-छोटी जगहों पर भी ख्यातिनाम और बड़े-बड़े साहित्यकार रहते हैं ? और जिन्हें एकदम से ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए ।

ट्रस्ट को बकायदा अधिकार है कि वह ऐसे साहित्य महोत्सव में किसे अधिक वेटेज दे और उन्हें किस भूमिका में रखे पर उसे देश की राष्ट्रीय स्तर की बड़ी साहित्यिक नेतृत्वकर्ता होने के कारण क्या यह भी खयाल नहीं रखना चाहिए कि ऐसे अवसरों पर ऐसे जनपदों के वरिष्ठ रचनाकारों को भी याद किया जाय । इस आयोजन में छत्तीसगढ़ के समक्ष जिन्हें बड़े साहित्यकार के रूप में आमंत्रित किया गया है उनमें विष्णु नागर, रामशरण जोशी, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, डॉ. हरीश नवल, राम दरश मिश्र, महीप सिंह, रमेश उपाध्याय, अमरेंद्र मिश्र, गंगाप्रसाद विमल आदि दिल्ली के हैं । देश के अन्य राजधानियों से जिन्हें विशेष ज्ञान प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया है उनमें जयपुर से डॉ. के.के.रत्तू और भोपाल से ज्ञान चतुर्वेदी व जब्बार ढाँकवाला। इस संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में स्थानीय प्रदेश के होने के कारण जिन साहित्यकारों को सम्मिलित किया गया है उनमें जो भी हों, विनोद कुमार शुक्ल जैसा देश का महत्वपूर्ण कवि और उपन्यासकार गायब हैं । और इतना ही नहीं, स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, प्रभात त्रिपाठी, डॉ. रमेश चन्द्र मेहरोत्रा, गुरुदेव काश्यप, बच्चू जांजगिरी, रमाकांत श्रीवास्तव, राजेन्द्र मिश्र, ड़ॉ. बलदेव, ललित सुरजन, डॉ. सुशील त्रिवेदी, विश्वरंजन, चितरंजन खेतान, डॉ, इंदिरा मिश्र, प्रभाकर चौबे, कनक तिवारी, राजेश्वर दयाल सक्सेना, जया जादवानी, सुभाष मिश्र, आनंद हर्षुल, कैलाश वनवासी, महावीर अग्रवाल, रवि श्रीवास्तव, डॉ. उषा आठले, बबन मिश्र, सतीश जायसवाल, परितोष चक्रवर्ती, अशोक सिंघई, संजीव बख्शी, दिवाकर मुक्तिबोध, श्यामलाल चतुर्वेदी, डॉ. प्रेम दुबे, विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुवन पाडेय, मुमताज, डॉ. शोभाकांत झा, डॉ. श्यामसुंदर त्रिपाठी, राजकमल नायक, मिर्जा मसूद, काविश हैदरी, डॉ. विनय पाठक, डॉ. अजय पाठक, राजेश गनोदवाले, प्रभृति देश में छत्तीसगढ़ का विशेष औऱ उज्ज्वल प्रतिनिधित्व करने वाले नामी-गिरामी कवि, कथाकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, आलोचक, नाटककार, भाषाविद्, समीक्षक एक सिरे से गायब हैं । ( यहाँ मेरा उद्देश्य नाम गिनाना नहीं है) यदि इन्हें ट्रस्ट से जोड़ने की कोशिश की हो तो यह बात यहीं समाप्त हो जाती है । यदि ट्रस्ट और स्थानीय संयोजकों के अनुसार मान भी लें जैसा कि ट्रस्ट ‘इलेक्ट्रानिक युग में पुस्तक की भूमिका’ पर चिंतित होकर उसमें छत्तीसगढ़ के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों, कलाकारों को अपने साथ लेकर देश को चिंतनशील बनाना चाहती है तो भी ऐसे मर्ज की यह आधाशीशी इलाज जैसा है क्योंकि विमर्श की विषय-वस्तु का दूसरा हिस्सा है – इलेक्ट्रानिक युग । अच्छा होता कि इसमें ट्रस्ट इलेक्ट्रानिकी युग से जुड़े अर्थात् टी.व्ही. फ़िल्म, फोटो पत्रकारिता, वेब मीडिया जैसे पोर्टल, वेबसाइट, ब्लॉग से जुड़े और उसके प्रभावों-दुष्प्रभावों के जानकारों को भी जोड़ते, जैसा कि नहीं किया गया है । वेबसाइटों, ब्लॉगों, सिटीजन जर्मलिज्म और संचार माध्यमों से जुड़े अन्य विशेषज्ञों को बुलाते । इसका आशय यह कदापि नहीं कि जो इस विमर्श पर वाद-विवाद-संवाद करने के लिए ट्रस्ट द्वारा आमंत्रित किये गये हैं वे निहायत अपरिचित और हमारे बैरी हैं । वे सारे-के-सारे ज्ञानी-ध्यानी हैं- अपने-अपने क्षेत्रो से मित्र-वर्ग से भी हैं फिर भी संगोष्ठी में मुद्रित नामों की सूची से ट्रस्ट के कुनवाई या अलाली चरित्र भी झलक मारने लगता है । कुनबाई इसलिए कि यहाँ वे ही विशेष भूमिका में बुलाये गये हैं जो इनकी मित्र मंडली से आते हैं या जिनकी किताबें ये छाप चुके हैं । अलाली इसलिए कि ट्रस्ट के पास समय नहीं है इतना कि वे मार्च में अपना बजट खर्चने से पहले बारीकी से राज्य के साहित्यकारों की सूची का परीक्षण कर सकें । सो स्थानीय मित्रों के सहारा लेना उनकी विवशता भी है । अब ऐसे में 3 परिवारों के 6 साहित्यमनीषियों को ट्रस्ट द्वारा विषय-विशेषज्ञ मान लेने के अलावा कोई शार्ट कट रास्ता उनके पास शायद नहीं बचता । इस निमंत्रण पत्र को ग़ौर से देखिये तो आपको पता चल जायेगा कि कैसे 3 साहित्यकारों के 6 सदस्य विशेष सूचीबद्ध हैं । यह दीगर बात है कि ये अपनी रचनात्मकता के लिए भी इधर जाने पहचाने जा रहे हैं । किन्तु क्या प्रजातांत्रिक तौर पर तय करके इनकी जगह तीन ऐसे लोगों को ट्रस्ट नहीं जोड़ सकता था जो किसी अन्य परिवारों से हों । जो भी हो ट्रस्ट को ऐसी हडबडियों से बचना चाहिए । क्योंकि छत्तीसगढ़ में अनेकों ऐसी संस्थायें हैं जो कुनबाई संस्कृति से मुक्त हैं और उनकी रचनात्मकता भी । ट्रस्ट द्वारा तैयार की गई सूची में यदि राज्य के सभी प्रकाशकों, साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाओं के संपादकों का नाम भी रहता तो बात दूसरी थी । न यहाँ पुस्तक प्रकाशन से जुड़े कुछ और लोगों को याद गया है न सांस्कृतिक हस्तक्षेप करने वाली पहचान यात्रा, अक्षर पर्व, नये पाठक, सापेक्ष, परस्पर, सूत्र, पाठ, सर्वनाम, नई दिशायें, नारी का संबल जैसी लघु पत्रिकाओं और सृजनगाथा, छत्तीसगढ़, रविवार, उदंती, जैसी इंटरनेटीय पत्रिकाओं के संपादकों औऱ अन्य किसी ब्लॉगर को भी । यदि ट्रस्ट के इस अभियानात्मक संगोष्ठियों को निरक्षरता उन्मूलन के कोण से भी देखें तो साक्षरता और सतत् शिक्षा के अभियान से जुड़े विशेषज्ञों को भी बिसारना नहीं था । पता नहीं, जिनके जीवन में पुस्तक की भूमिका है उन और वैसे संभावित कितने पाठकों को दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए ट्रस्ट ने बुलाया है ? और यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह ट्रस्ट को कम-से-कम नहीं फबता है कि वह सिर्फ़ कुछ साहित्यकारो को इकट्ठा करके ऐसी जुगाली करे । यह विमर्श चूँकि राजधानी के ठाठ-बाठ वाले होटल में हो रहा है, ऐसे में यह कम ही उम्मीद की जा सकती है कि वहाँ ऐसे बुद्धिजीवियो को सुनने कोई आम आदमी पहुँचेगा भी, जिसमें पाठक होने की चेतना संभावित है । और जिसके लिए यह सारा तामझाम हो रहा है । स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी तो कतई नहीं । फिर मार्च महीने में ऐसी राष्ट्रीय संगोष्ठियों का औचित्य खानापूर्ति मात्र है जिसके नाम पर निर्धारित बजट है और जिन्हें ट्रस्ट को खर्च करना ही है ।

मेरे एक साहित्यिक मित्र का कहना है कि यह तो सब जगह होता है । सारे साहित्यिक अनुष्ठानों में ऐसे कुनबेवाद का पताका फहराया जाता है । मित्र पर मैं तरस खाता हूँ और कहता हूँ कि कम-से-कम नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं को तो डेमोक्रेटिक और विश्वसनीय सोच विकसित करना चाहिए जिनके जिम्मे न केवल हिंदी अपितु भारतीय भाषाओं और उनके साहित्यिक प्रकाशन का गुरूत्तर उत्तरदायित्व है । वैसे स्थानीय संयोजकों विशेष कर गिरीश पंकज जी को धन्यवाद कि उन्होंने ट्रस्ट को छत्तीसगढ़ के राजधानी पहुँचने हेतु प्रेरित तो किया, भले ही इस आयोजन को पारिवारिक मोह से बचाने में वे सफल नहीं सके । अब मित्रश्रेष्ठ हैं, हितैषी हैं तो इतनी छूट दी ही जा सकती है । लेकिन यदि यह नाम स्वयं ट्रस्ट ने तय किया है तो ऐसे में देश में बौद्धिक विमर्शों के जरिये सामाजिक क्रांति लाने वालों की सिर्फ़ जय हो ही कही जा सकती है ।