Tuesday, June 17, 2008

‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है’

‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है ।’ मेरे ऊपर एक साथ चिट्ठाकार न भड़कें । यह मेरी टिप्पणी नहीं है । यह टिप्पणी है देश के प्रख्यात वामपंथी आलोचक आदरणीय नामवर सिंह की । आप पूछेंगे – यह उन्होंने कब कहा ? भई कल ही कहा । कहाँ कहा ? छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की एक पत्रकार वार्ता में कहा । क्यों कहा ? यह आप भी पता कर सकते हैं अपने मन-मनीषा पर केंद्रित होकर । वैसे इसका जवाब मन नहीं दे सकेगा । मन से पूछेंगे तो वह शायद आपको उकसाने की स्थिति तक ले पहुँचाये । हिंदी ब्लॉग के दीवाने तो उग्र भी हो सकते हैं । कुछ इसे बुद्धि का अजीर्ण निरूपित कर सकते हैं या फिर कुछ अति उत्साही और नामवर सिंह जी के बारे में खास तौर पर नही जाननेवाले, यह भी कह सकते हैं कि सिरफ़िरे के मुँह कौन लगे ? हम तो अपनी छंद, लय और ताल में इसी तरह चिट्टाकारी का गुणानुवाद करते रहेंगे । अंतरजाल पर हिंदी की अभिव्यक्ति की नदी को लबालब बनाये रखेंगे । चाहे उसका पानी मटमैटा या खर-पतवार सहित ही क्यों न रहे !


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को गुरु माननेवाले और हिंदी भाषा की जीवंत आलोचना के लिए प्रसिद्ध नामवर सिंह जी इन दिनों रायपुर प्रवास पर हैं । केवल दो दिनों के लिए । यानी कल का दिन वे बीता चुके हैं और एक दिन यानी आज वे अपने समय के एक बड़े कवि मुक्तिबोध, गजानन माधव के बड़े चिरंजीव दिवाकर मुक्तिबोध (जो दैनिक भास्कर, रायपुर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं) की किताब (शायद टिप्पणी और आलेख संग्रह) को लोकार्पित करने का पवित्र और आशीर्वादात्मक कार्य संपन्न करेंगे ।


मैं नहीं जानता कि हमारे ब्लॉगर्स बंधु उन्हें कितना गभीर लेंगे ? पर उनके निहितार्थ को एकदम ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता । मुझे लगता है, जब वे ऐसा सोचते हैं तो सारे भारत और उसके वर्तमान की स्थिति का मुआयना भी उनकी बुद्धि करती है । क्योंकि आलोचक मन से कम बुद्धि और तर्क से अधिक उवाचते हैं । और इस सोच या इस सोच से उत्पन निर्णय में हमारे देश के अनपढ़, अल्पपढ और ग़रीब, किसान, मज़दूर, कारीगर आदि आमजन भी उन्हें दिखाई देते हैं जिनमें से आधे लोग तो आज भी निरक्षर हैं । उनके गाँवों और कस्बों की हालत किसी से नहीं छिपी है । कहीं बिजली नहीं है, कहीं टेलिफ़ोन नहीं है । कहीं यह दोनों है तो उनके पास कंप्यूटर ख़रीदने की ताक़त ही नहीं है । यदि यह सब भी है तो उन्हें यह नही पता कि कंप्यूटर में वह ब्लॉग भी लिख सकता है । यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या ब्लॉग लेखन ज़रूरी है सबके लिए ? अभिव्यक्ति के साथ अनभिव्यक्ति भी बहुत ज़रूरी है । कम से कम अंतरजाल पर । आख़िर गोपनता भी कई बार लाज़िमी होती है । वैसे भी बड़ा से बड़ा अभिव्यक्तिवादी समाज सब कुछ कहना नहीं चाहता । ऐसे सभ्य (?) समाजों का भी इतिहास गवाह रहा है कि वहाँ कुछ ही लोग अभिव्यक्ति के अधिकार को बनाये रखते हैं या फिर उसे बहाल करने के लिए संघर्षरत रहते हैं । हर कोई बोलता नही है । हर कोई लिखता नही है । कुछ लोग बिना कहे भी देश को आगे बढ़ाते रहते हैं । मानव समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हैं ।


यूँ भी ब्लॉग लेखन पढ़े-लिखे और तकनीक से परिचित (और दक्ष भी ) तथा साधन संपन्न लोगों के वश की बात है, जिसके पास इतना समय भी हो कि वह ऐसा लिख सके । यदि उसके पास सारी योग्यतायें हैं तो भी क्या ज़रूरी कि उसकी अवस्था यानी कि आयु ऐसा करने में साथ दे । आख़िर जीने की दृष्टि और सृष्टि उम्र से भी तय होती है । फिर मानसिकता भी तो कोई चीज़ होती है मनुष्य के उद्यमों में । यह वास्तविकता है कि हमारी पुरानी पीढ़ी लेखन के नये तकनीक के बजाय पांरपरिक तरीकों पर अधिक विश्वास करती है । नामवर पुरानी पीढ़ी के दिग्गज हैं । वे प्रौढ़तम अवस्था मे है इन दिनों । तो वे अपने प्रौढ़तम विचार के लिए पूर्णतः स्वतंत्र हैं ।

देश के युवा ब्लॉगरों को तनिक भी दुखी नहीं होना चाहिए कि नामवर उनके सपनों पर तुषारापात करनेवाले हैं । या फिर वे युवा विरोधी हैं । यह उनकी कथनी का विरोधाभास नहीं जो वे स्वयं स्वीकारते हैं और इस स्वीकारोक्ति में उच्चारते हैं कि नई पीढ़ी पर उन्हें भरोसा है । वे इसी प्रसंग में जन-जन की आवाज़ के लिए हिंदी अख़बारों को ही सक्षम बताते हैं । उनकी माने तो हिंदी साहित्यकारों या अध्यापकों की बनाई भाषा नहीं है । यह अख़बारों की बनाई गई है । और अख़बारनवीसी को सुधारने के भरोसेमंद कार्यकर्ता के रूप में वे युवाओं की ओर

जिस इंटरनेट पर आज का युवा अधिक आश्रित और विश्वास करता है, वह युवा (और कुछ प्रौढ़ और कुछ बूढ़े-सयाने भी) ब्लॉग लेखन पर भी विश्वास करता नज़र आ रहा है । ब्लॉग इंटरनेट का उत्पाद है । वह उसका भूगोल भी है । भूगोल को विस्तारित करते रहने वाला अधियानकवादी ताक़त भी है । मुझे यह कहना यहाँ प्रांसगिक लगता है कि ब्लॉग एक तरह का पत्रकारिता भी है या बन रहा है । इंटरनेट आधारित पत्रकारिता । इंटरनेट और हिंदी पत्रकारिता पर चिंतित दिखाई देनेवाले नामवर सिंह यह भी कहते हैं कि अँगरेज़ी अख़बार और इंटरनेट की नकल ने पत्रकारों की नौकरी को ख़तरे में डाल दिया है । बात में काफ़ी दम है ।

नामवर जब पत्रकारों को संबोधते हैं कि क्षेत्रीय अख़बारों में आंचलिकता का रंग झलकना चाहिए तब आज के हिंदी चिट्ठाकारों को भी उस संबोधन के समक्ष स्वयं को खड़ा देखना चाहिए और उसे अपने लिए कारगर मानना चाहिए । आख़िर हिंदी के सारे चिट्ठाकार दिल्ली या मुंबई के तो हैं नहीं कि एक ही मुहावरा, एक ही भाषा में अपनी बात रखें । हिंदी तो कई अंचलों और कई बोलियों से मिलकर अपनी प्रवहमानता को निरंतर बनाती है । वही असली मानकता भी है कि एक जैसी हिंदी सर्वत्र संभव भी नहीं है । न भारत में न विश्न में । स्थानीयता का संपुट न हो तो आपका अपने कहने के लिए आपकी भाषा में नया क्या होता है ? भाषा बासी लगती है या फिर अनुदित या फिर रटी-रटायी । यही विविधता ही तो हिंदी और हिंदुस्तान का चरित्र है जो हम सबको तथाकथित वैश्वीकरण के सैकड़ो-हजारों वर्ष पहले से ही सच्ची वैश्किता का पाठ सिखाता रहा है, जिसे हम वधुधैव कुटुम्बकम् जैसे पवित्र मंत्रों के रूप में जानते-मानते रहे हैं ।

आज की वैश्वकिता ( उपनिवेशवादी, बाज़ारवादी, अधिनायकवादी) के समक्ष अपने होने को बचाये रखने के लिए आंचलिकता को बचाये रखना सबसे बड़ी चुनौती है । यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो हमारे होने पर ही संदेह उत्पन्न हो सकता है । हमारी पहचान गुम हो सकती है । हमारी भाषा की हत्या हो सकती है । हमारी संस्कृति को आत्महत्या करना पड़ सकता है । और इस हत्या और आत्महत्या में हिंदी के चिट्ठाकारों के लिए नामवर का यह संदेश या संकेत एक पवित्र पाठ भी हो सकता है । यानी कि यह हिंदी ब्लॉग की भाषा का बाईबिल हो सकता है ।

जो अपने ब्ल़ॉग लेखन को अपनी पत्रकारिता का हिस्सा मानते हैं उन्हें नामवर सिंह की इस बात पर गौर करना ही चाहिए कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा उस क्षेत्र के अनुसार होनी चाहिए, जो भाषा वहाँ बोली जाती है । जैसे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी की मिठास रहे, बुंदेलखंड में बुंदेलखंडी । यही हिंदी पत्रकारिता है । यह ऐतिहासिक सच है कि यही पत्रकारिता परतंत्रता से मुक्ति पाने के आंदोलन में आम जनता को राजनीति का प्रशिक्षण देती थी । आज भी जिस तरह से पश्चिमी दुनिया की धूर्तता वैश्वीकरण के बहाने भारतीयता को लीलने की फ़िराक मे है, आंचलिकता या स्थानीयता का संबल ही उसके प्रतिरोध का कारगर हथियार हो सकता है ।

अब मानना, नहीं मानना हम निरंकुश चिट्ठाकारों के ऊपर है ।

जो स्कूल में नहीं होते वे सिर्फ़ बाल मज़दूर होते हैं


हम कभी गंभीर नही रहे कि हर बच्चा पाठशाला में रहे । शिक्षा के लगभग सभी संकल्पों, मसविदों, प्रस्तावों, आयोगों ने हर कोण से सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा को अपरिहार्य माना फिर भी 6 से 14 वर्ष आयु समूह के सभी बच्चों की अनिवार्य दाखिले को अब तक सुनिश्चित नहीं सके हैं । वस्तुतः हम बच्चों की शाला से अंतरंगता के निहितार्थों को कई दशक बाद भी अपनी मनीषा में प्रतिष्ठित नहीं कर सके हैं । अपनी नपुंसक काहिली के दबाब में हम नैतिक उत्तरदायित्वों को तंत्र के मत्थे जड़ देते हैं । इस ‘हम’ में सिर्फ़ अनपढ़ और गरीब जनता ही नहीं, बल्कि हितनिष्ठ प्रभु वर्ग, बासी विचारों के उबटन में मुग्ध बुद्धिजीवी, सुस्त शिक्षाशास्त्री, पश्चिम दुनिया की योजनाओं के दीवाने रणनीतिकार, केवल सनसनीखेज़ तलाशती मीडिया और धोखेबाज राजनीतिक समूह भी हैं । सिंहावलोकन करें तो ये सारे यही पाठ पढ़ाते दिखाई देते हैं कि हम सिर्फ़ अपनी गरीबी को नियति मानकर व्यवस्था से चिढ़ना सीखें या फिर थकहार कर संकटमोचन चालीसा का पाठ करें पर स्वयं कुछ न करें ।गोया त्रासद अशिक्षा के रावणों और कंसो से मुक्ति के लिए सिर्फ अवध या मथुरा के ईश्वरों और उनके क्षत्रपों की ओर टकटकी लगाकर निहारना ही अंतिम रास्ता हो । यह प्राथमिक शिक्षा के प्रजातांत्रिकीकरण में यथास्थितिवादिता और वर्चस्ववादिता का स्थायी संस्कार नहीं तो और क्या है ?


वैसे सरकारी पहल पर संपूर्ण दाख़िला हेतु बकायदा हरसाल जून-जुलाई माह में शाला-प्रवेशोत्सवी सज-धज होती है । ऐसे उत्सवों की दाल में नये सीखों का तड़का मारा जाता है । उसमें अनुप्रयोगों का नया मिर्च-मशाला भी डाला जाता है । अचेतन और सुस्त मानसिकता वाले राजनीतिक गलियारों में सभी के लिए शिक्षा की राजनीतिक प्रतिबद्धता का स्मरण कराया जाता है । अन्य दैनंदिन औपचारिकताओं के बीच स्पेस निकालकर शिक्षा-तंत्र इसे एक अभियान का रूप देता है । तंत्र मानती है कि पालकों और स्वयं बच्चों से संपर्क और प्रेरणा के बल पर उन्हें शाला से जोड़ा जा सकता है या फिर वे शाला त्यागे बिना किसी कक्षा की संपूर्ण शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं । वैसे शालाप्रवेशोत्सव से एक औपचारिक वातावरण तो निर्मित होता है किन्तु यह सरकारी रूप में होता है असरकारी रूप में नही । फिर भी कुछ बच्चों को पाठशाला-परिसर में दाख़िल कराने से हम हर साल चुक ही जाते हैं । आख़िरकार ये कुछ, जो कुछेक नहीं बल्कि लाखों में होते हैं घुमा-फिराकर बालश्रमजनित कार्यों में धकेल दिये जाते हैं । क्योंकि ऐसे अल्पकालिक अभियान उत्सवी-दृष्टि या फिर तदर्थवाद के शिकार हो जाते हैं । यहाँ जोर आँकड़ों पर होता है वास्तविक उद्देश्यों पर नहीं । यह हमारे दर्जसंख्या वृद्धि अभियानों की वास्तविकता है।
हम अपने नौनिहालों की अशिक्षा के महाप्रश्नों लिए सुने-सुनाये और गैर परीक्षित तर्कों का सहारा लेकर अपना पिंड छूडा लेते हैं । यह हमारी नागरिकता के हीन बोध और विचारहीनता का ही तक़ाजा है कि गरीबी, शैक्षणिक साधनों के अभावों को ही अपनी अशिक्षा के कारणों में तलाशते हैं । यह सरासर झूठ है कि गरीबी प्राथमिक शिक्षा को हतोत्साहित करती है । कोई गरीब माँ-बाप नहीं चाहता कि उसके बच्चे उसकी पीड़ाओं और दंशो का उत्तराधिकारी बनें । वह इसीलिए शिक्षा को अपनी स्थिति को पलटने का अस्त्र मानता है । माहौल मिलने पर गरीब से गरीब माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए अनेक त्याग करने को तत्पर रहता है । फिर ऐसा कौन बच्चा होगा जो अपने साथियों को स्कूल में जाते देखकर भी बकरी चराने जाने, मालिक के घर में नौकरी करने की ज़िद करेगा । अपने लिए श्रेयस्कर मानेगा । शायद कोई नहीं । वह मजबूर नहीं होता । पालक, मालिक और समाज तीनों मिलकर उसे मजबूर बना देते हैं । वह बाल मजदूर बन जाता है । ऐसे लोग उसके बालश्रम को गरीबी निवारण में योगदान मानते हैं । ऐसे वक्त क्या वे एक बच्चे के भविष्य की समस्था संभावनाओं का रास्ता नहीं रोकते होते हैं ?


प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता के पीछे न तो परिवार और ग़रीबी की कड़वी सच्चाई है न ही परिवार के अर्थोपाजन में बच्चों की बांछित सहभागिता का प्रश्न कि ऐसे बच्चे चाहकर भी शाला से नहीं जुड़ सकते । शिक्षा के प्रति अभिभावकीय उदासीनता, शिक्षा तंत्र की कुव्यवस्था, रोजी-रोजगार में शिक्षा की असंगतता और असमर्थता आदि सारे तर्क भी अबोध और रटे-रटाये हैं जो हमारी नकारात्क मानसिकता की ग्रहणशीलता के परिचायक हैं जिससे शत-प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को हम हस्तगत नही कर पाये हैं ।


जो बच्चे स्कूल से बाहर होते हैं वे कुल मिलाकर बालश्रमिक ही होते हैं । चाहे वे वेतन हीन या परिवारिक कार्यों में हाथ बटायें या फिर किसी कठिन या सरल कार्य से रोजी अर्जित करें । ये भविष्य के गरीब ही होते हैं । हर तरह का बाल श्रम बच्चे के संपूर्ण विकास तथा बढ़ोतरी को नुकसान पहुँचाता है । किसी भी तरह के बालश्रम का समर्थन प्राथमिक शिक्षा के व्यापीकरण का विरोध ही है । बालश्रम का संपूर्ण उन्मूलन ही प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण का मूल रास्ता है । बालश्रमिकों के नाम पर पृथक और समानांतर परियोजना भी इसका विकल्प नहीं है । ऐसा माने बिना सभी बच्चों को पाठशाला के रास्ते पर नहीं लाया जा सकता । यदि यह सच नहीं होता तो रंगारेड्डी और आंधप्रदेश के हजारों गाँवों में इस दर्शन के सहारे शत-प्रतिशत बच्चों को शाला में लाया नही जा सकता और न ही वे निरंतर आगे की कक्षाओं में जाते । छत्तीसगढ़ भी यदि वास्तव में अपने सारे बच्चों को स्कूल में देखना चाहता है तो क्या उसे एम.वी. फाउंडेशन की उस रणनीति पर फिर से विचार नहीं करना चाहिए जिसे वह अराजक मानने का भूल कर चुका है पर जिसे मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु दिल से अपनाकर अधिक से अधिक बच्चों को पाठशाला तक पहुँचा चुके हैं ?

Saturday, June 14, 2008

पश्चिम में अब रेडियो अधिक रेडियो कल भी था, कल भी रहेगा -अंबरीन हसनात

रेडियो सलाम नमस्ते की वाइस प्रेसिडेंट से बातचीत
(सहयोग- आदित्य प्रकाश सिंह)


1. अमेरिका जैसे पश्चिमी माहौल वाले देश में हिंदी रेडियो (रेडियो सलाम नमस्ते)लांच करने के पीछे आपकी सोच क्या थी ? इसके मूल में व्यावसायिकता थी या हिंदी का विस्तार या वैश्विक अनुसमर्थन या कुछ और ही ?
- रेडियो सलाम नमस्ते के लांच का मुख्य कारण डैलास की कंप्यूनिटी में एकता पैदा करना था और साथ ही साथ हम यह भी चाहते थे कि देश से दूर परदेश में रहने वाले देशी जनता के पाश उनकी तफ़रीह(मनोरंजन) का कोई सामान मुहैया किया जा सके । हमारा मकसद था कि दक्षिण एशियायी इस चैनल के ज़रिये अपनी भाषा सुन सकें और हिंदुस्तानी संगीत के ज़रिये अपनी संस्कृति को याद रखें । ये और बात है कि समुदाय और स्थानीय व्यावसाय का समर्थन और हमारी टीम उन तक मेहनत की वज़ह से हमे ना सिर्फ़ वित्तीय कामयाबी मिली बल्कि अंतरराष्ट्रीय शोहरत भी मिली ।


2. अमेरिका से वैश्विक रेडियो लांच करते वक्त रेडियो के समक्ष विद्यमान चुनौतियों को आपने किस तरह मूल्याँकित किया ?
-किभी भी नये व्यवसाय की तरह रेडियो सलाम नमस्ते को भी बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा । मसला न सिर्फ पैसों का था बल्कि अच्छी कला का भी था । क्योंकि डैलास में रहने वाले ज्यादातर देशी युनाइटेड़ स्टेट्स में काम की तलाश में आते हैं । सभी की पृष्ठभूमि गैरमनोरंजनात्मक क्षेत्र से होता है जिसकी वज़ह से अच्छे कलाकार की कमी बहुत ज्यादा महसूस होती है । कहने का आशय स्तरीय और योग्य कलावंतों को प्राथमिक दौर में तलाशना हमारे लिए दुष्कर कार्य था । इन कलावंतों की पहचान और संपर्क साधने की बात भी थी । इसके अलावा सिर्फ चंद लोगों के साथ इतनी बड़े व्यवसाय की बुनियाद रखना नामुमकिन नहीं लेकिन मुश्किल ज़रूर है । आप स्वयं समझ सकते हैं कि हिंदी रेडियो की उपलब्धता और आम हिंदीभाषियों में उसकी पहुँच बनाने में हमें किन-किन रास्तों से गुजरना पड़ा होगा । ऊपर से कानूनी औपचारिकताओं और मापदंड़ो में भी हमें खरा उतरना पड़ा होगा, पर हम ने हिम्मत नहीं हारी और अपने काम में ड़टे रहे ।


3. रेडियो सलाम नमस्ते की रणनीतियों में रेडियो की वापसी और उसकी प्रतिष्ठा जैसे उद्देश्यों को कैसे तरजीह दिया जा रहा है ?
- सलाम नमस्ते की शुरुवात प्रकारांतर से रेडियो की वापसी ही है । अमेरिका और पश्चिमी देशों में लोग टी.व्ही. से लगभग उबने लगे हैं । उन्हें अब टी.व्ही चिढाने-सा लगा है । रेडियो वहाँ पहले से था पर एक दौर ऐसा आया था जब ये इलेक्ट्रानिक मीडिया एक तरह से रेडियो को लीलने लगा था । शहरी वातावरण से रेडियो एक प्रकार से गायब होने लगा था किंतु अब रेडियो अधिक विश्वसनीय और दोस्ताना लगने लगा है । फिर से । यह मनोवैज्ञानिक रूप से सच है कि रेडियो के प्रति आम परिवार में जितना चिढ़ नहीं है उतना चिढ़ टी.व्ही के प्रति है। ऐसी परिस्थिति में रेडियो सलाम नमस्ते से यदि किसी तरह रेडियो की वापसी जैसी कोई स्थिति बनती है तो यह एक योगदान हो सकता है । हम रेडियो को पुनरप्रतिष्टित करने के लिए ही इसे इंटरनेट पर ऑनलाइन भी रख रहे हैं ताकि यह विश्व के श्रोताओं तक रेडियो के रूप में अलख जगा सके । एफ.एम. पर तो यह है ही । हम आने वाले दिनों में कुछ ऐसे खास आयोजन भी करने वाले हैं, रणनीतिपूर्वक ताकि लोगों में रेडियो के प्रति आस्था बढ़े ।


4. रेडियो सलाम नमस्ते को बहुभाषीय चैनल बनाने के पीछे कौन-सा लक्ष्यबोध है ?
- जैसा कि आप हमारे रेडियो के नाम से ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह रेडियो किसी एक मजहब या जात को प्रमोट नहीं करता बल्कि यह परदेश में रहने वाले तमाम साउथ एशियन (देशी) लोगों के लिए है । हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में कुल मिलाकर तकरीबन 25 भाषायें बोली जाती हैं और हमारे खयाल में ये बहुत जरूरी है कि हम ज्यादा से ज्यादा इन भाषाओं को प्रमोट करें । वर्ना कहीं ऐसा न हो कि देश से बाहर लेने वाले नयी नस्ल कहीं अपनी पहचान ना खो दे । चैनल को बहुभाषीय स्तर पर प्रतिष्टित करने के मूल में भाषायी विभिन्नताओं के खतरों को शिथिल करने की जद्दोजहद भी है ताकि भाषायें सेतु बने, उन्हें लेकर मन मे भेद न रहे । वैश्वीकरण के इस दौर में एक ही भाषा अर्थात् अंग्रेजी के वर्चस्ववादी दीवारों के बीच भारतीय भाषाओं को वैश्विक परिवेश में ढालने की पहल के रूप में भी रेडियो सलाम नमस्ते को देखा जा सकता है किन्तु इसका दावा करना हमारे लिए अविनम्र कदम भी हो सकता है सो हम इसे भविष्य में आंकना चाहेंगे । अभी इसे दृढ़ता से कहना अवैज्ञानिक और अतिशयोक्ति होगी ।

5. रेडियो में हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं और लोकभाषाओं को वैश्विक बनाया जा सकता है ? इसकी संभावना को आप कैसे आंकते हैं ।
- हिंदी, ऊर्दू, पंजाबी और बहुत सी दूसरी भाषायें अब मुख्यधारा में भी पहचानी जाने लगी हैं और एक साउथ एशियन मीडिया चैनल होने की वजह से ये हमारा फ़र्ज है कि हम इन भाषाओं का प्रचार करें और इन्हें लाइम लाइट में लें । भारतीय भाषायें ही नहीं विश्व की कई भाषायें व्यवहार के अभाव में काल के गर्त में जा चुकी हैं । यह सभी को विदित है । आज जिस तरह की भाषायी राजनीति विश्व-बाजार में अपनी ताकतों का विस्तार कर रही है वह कम खतरनाक नहीं । यह प्रकारांतर से किसी एक भाषा की दुनिया को गढ़ने जैसा कदम साबित होने वाला है । क्या इसे अन्य भाषा की समाप्ति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए । सच कहें तो यह मनुष्यता के कई शैळियों के ध्वस्तीकरण की चालाकियाँ हैं । ऐसे संकटों का जो मूल्याँकन कर सकेगा जाहिर है कि वह क्योंकर अन्य प्रिय और समृद्ध किन्तु कमजोर पड़ती भाषाओं को विश्व फलक पर लाने का जोखिम नहीं उठायेगा । भाषायी विविधिता को बचाये बिना वैश्वीकरण बेकार है । यह ज्ञान, तकनीकी, विरासत, संस्कृति की विविधता को भी खत्म करने जैसा हो सकता है । अब जबकि वैश्वीकरण में भी गुजांयस है - खासकर सूचना और संचार की प्रविधियों में, जहाँ प्रिय और स्थानीय भाषाओं को विस्तारित करना ज्यादा कठिन नहीं तो रेडियो सलाम नमस्ते जैसे प्रयासों से विभिन्न संस्कृतियों, अभिरुचियों और मन की संवेदना को बचाया जा सकता है । और जाहिर है भाषाएं इनके मूल में हैं । आप इंटरनेट को ऐसी सकारात्मक दिशा में देख सकते हैं ।


6. क्या पश्चिम और खासकर अमेरिका में रेडियो की वापसी हो रही है ? क्या रेडियो की वापसी पूर्णतः संभव है ? क्या आपकी कोई खास कार्ययोजना है ?
- इसमें कोई शक नहीं है कि एफ.एम के आने से रेडियो बहुत तरक्की कर रहा है और हम चाहते हैं कि बढिया कार्यक्रम के ज़रिये हम उसे बहुत आगे ले जायें । हमारी आशा है कि ऊपरवाले की दया से और हमारे सुनने वालों की मदद से हम ज्लद ही युएसए के कई दूसरे शहरों तक पहुँच जायेंगे और वह दिन दूर नहीं जब रेडियो सलाम नमस्ते का नाम दुनिया के दूसरे देशों में भी सुना जा सकेगा ।


7. अत्याधुनिक तकनालॉजी वाले वैश्विक परिवेश में जहाँ बहुवैकल्पिक मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं रेडियो के प्रति विभिन्न वर्ग के श्रोताओं का रूझान कैसा है ? अंतरजाल यानी इंटरनेट की भूमिका इसमें किस तरह उपयोगी साबित हो रही है ? विस्तार से बताना चाहेंगे ।
- आज के दौर में जब बच्चे-बूढ़े और ज़वान सभी कंप्यूटर का इस्तेमाल आसानी से कर लेते हैं.... हमारी ऑनलाइन ब्राडकास्टिंग की वज़ह से सिर्फ युएसए की दूसरी स्टेट के श्रोता ही नहीं बल्कि दुनिया के कई दूसरे देशों में हमें सुना जाता है । हमारी ऑनलाइन सर्विस के ज़रिये लोग डैलास या न्यूयार्क में बैठे-बैठे गीतों के माध्यमस अपने मुहब्बत भरे संदेश भारत में रहने वाले अपने परिवार तक पहुँचा सकते हैं ।
हमारी ऑनलाइन सर्विस को सभी सुनने वाले बहुत पसंद करते हैं क्योंकि इसके ज़रिये रेडियो की कवायद नहीं होती, यदि उनके पास इंटरनेट की सुविधा है तो वे आसानी से सलाम रेडियो नमस्ते का मजा ले सकते हैं ।


8. हिंदी के वैश्वीकरण में रेडियो की भूमिका को आप किस तरह देखते हैं ? इस दिशा में सरकार, समाज और मीडियाकर्मियों से कैसी अपेक्षा करते हैं ?

- हमारा मकसद है कि हम भारतीय भाषाओं और संस्कृति को जितना हो सके उन्नत बनायें क्योंकि अमेरिका में पलने वाली इस नयी नस्ल के लिए अपनी बुनियाद अपने जड़ों की पहचान कराना बहुत जरूरी है ।
मानस जी, जहाँ तक हिंदी के वैश्वीकरण का प्रश्न है और इसमें रेडियो की भूमिका मूल्याँकन है उसे लेकर मेरे मन में सकारात्मक विचार हैं । हिंदी का वैश्वीकरण में रेडियो बहुत रसमय और आकर्षक श्रव्य माध्यम है । इस में आप कई ऐसे रेडियो का नाम जानते हैं ही हैं जिनके हिंदी प्रसारण समूचे दुनिया में प्रसिद्ध हैं । यह केवल समाचारों या मनोरंजनात्मक चीजों का ही प्रसारण नहीं है अपितु हिंदी की ताकत और उसमें विद्यमान शक्ति और संस्कृति का भी प्रसारण है । हिंदी के वैश्वीकरण में जैसा कि हम सभी जानते हैं आज इंटरनेट सबसे कारगर भूमिका में है और जिसके माध्यम से हिंदी भाषा, साहित्य, गीत, संगीत, संस्कृति, आदि समूचे विश्व के लिए एक क्लिक पर उपलब्ध होने लगा है । ऑनलाइन पाठ्य सामग्री और ऑनलाइन दूरदर्शन के बनिस्पत रेडियो या ऑनलाइन रेडियो ऐसा घटक है जिसे किसी अन्य कार्य के मध्य भी सुन सकते हैं । रेडियो का आँख मूँदकर श्रवण भी अपनी ज़मीन की पहुँच सुलभ बना देता है । यहाँ श्रोताओं का भावबोध कहीं अधिक कारगर हो उठता है । संक्षेप में कहें तो रेडियो हिंदी सहित अन्य भाषाओं की वैश्विक स्थापना के लिए अतिमहत्वपूर्ण तकनीक है । जाहिर है विश्व बाजार में ऐसे रेडियो चैनलों की स्थापना को लेकर संबंधित देशों को अधिक उदार होना होगा ताकि उस देश के विविध भाषाभाषियों के लिए मनोरंजन सह ज्ञान का श्रव्य साधन भी उपलब्ध हो । विदेशों में भाषिक आधार पर गठित हिंदीभाषी संगठनों को भी जागरूकता का परिचय देना होगा । इसमें संस्कृतियों के संरक्षण का पाठ भी है । मीडियाकर्मियों को ऐसे कला माध्यमों को सकारात्मक दृष्टि से स्वीकारना चाहिए । खासकर उन्हें जो दृश्य माध्यमों के ग्लैमर और नोटों की वर्षा में नहा रहे हैं । यह दृश्य माध्यमों की विकृतियों से भाषायी समाज या समुदाय को बचाने जैसी भी उदारता होगी और इसकी जरूरत मैं समझती हूँ इस समय अधिक है ।


9. भारतीय रेडियो चैनलों के बारे में आप क्या सोचते हैं ? इस दिशा में सुधार के कदम किस तरह उठाये जा सकते हैं ? खासकर सरकारी नीतियों में किस तरह अधिकर खुलापन लाया जा सकता है ?
- युएसए में ज्यादा देशी रेडियो चैनल्स लोग शौकिया शुरू करते हैं, बिना किसी योजना के । ना उनके पास सही वित्तीय समर्थन होती है ना ही अच्छे कलाकार, जिस वज़ह से सुनने वाले उनकी मेहनता का उतना फायदा नहीं उठा सकते और निम्न व्यावसायिक योजना के कारण से उनका व्यापार या स्टेशन आखिर कार बंद हो जाता है ।
मैंने सुना है कि भारत में भी स्थानीय स्तर पर रेडियो चैनलों की स्थापना पर जोर दिया जा रहा है । और वहाँ नीतिगत उदारता भी है । रेडियो चैनलों की शुरुआत के लिए कानून यदि अधिक प्रजातांत्रिक और सरल हों तो भारत जैसे देश के लिए यह सुखद होगा । भारत की सांस्कृतिक और भाषायी विविधिता के संरक्षण के लिए भी यह एक कारगर कदम होगा । सामुदायिक रेडियो का विस्तार ग्रामीणों के उत्थान के लिए आवश्यक है । इस दिशा में भी वहाँ निर्णय लिया जाना चाहिए । रेडियो चैनलों की स्थापना के लिए प्रारंभिक शुल्क को किस तरह कम किया जाना चाहिए यह भी सोचने का विषय हो सकता है ताकि एक घराने के स्थान पर कुछ क्रियाशील समूह भी ऐसे रेडियो स्टेशनों की शुरुआत करने की हिम्मत जुटा सकें ।


10. अन्य सभी माध्यमों के बीच रेडियो अपना भविष्य किस तरह निर्धारित करेगा ?
- टी.व्ही. का मजा उठाने के लिए देखने वाले को सब काम छोड़कर एक जगह बैठना होता है जबकि रेडियो के लिए सिर्फ कान दरकार है । जिसकी वज़ह से रेडियो हर जगह लोगों के साथ रहता है । आजकल की तेज रफ़्तार ज़िंदगी में लोगों के पास वक्त कम होता जा रहा है और वा कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा हासिल कर लेना चाहात है और इसी वज़ह से रेडियो मनोरंजन अधिक सुविधाकारी है । दूसरा यह के टी.व्ही. पर आये दिन नये कार्यक्रम और नये कलाकार आते हैं जिनके साथ देखने वाले का कोई संबंध नहीं बन पाता जबकि रेडियो के प्रस्तोता का अपने सुनने वाले से आवाज़ का एक अनदेखा पर बहुत ही करीब का रिश्ता होता है । सो हमें टी.व्ही. चैनल्स से कोई डर नहीं.... रेडियो कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा । सलाम नमस्ते ।

Tuesday, June 10, 2008

सबरंग में कौन

11 जून व्यस्ततम दिनों में से एक निकला ।
आदित्य जी का ई-पत्र आया है और फोन भी । ई-पत्र ज़रा विलंब से पढ़ सका । यानी आज । क्योंकि कल दिन भर दिल्ली से प्रकाशित सोपान नामक मासिक पत्रिका से जुड़े मित्र उमाशंकर मिश्रा के साथ लगा रहा । सोपान ग्रामीण विकास की मीमांसा करने वाली स्वयंसेवी संगठन की पत्रिका है । पठनीयता भी है उसमें । बायलैग्वल है – हिंदी और अँगरेज़ी में छपती है । उमा बता रहे थे अब उड़िया भाषा में भी वह पढ़ी जा सकेगी । जेट्रोफा की खेती को लेकर जिस तरह का शोषण और लूट हुआ है भारतीय किसानों की वह सरकारी नीति के दोगलेपन की चुगली तो करती ही है । इस माह के अंक में उसकी परत दर परत पड़ताल की गई है । मित्र को धन्यवाद जो उसने पत्रिका की एक प्रति मुझे भी भेंट की और कुछ लिखने का आग्रह किया । मानसून आ धमका है शायद इधऱ । फुहार की भाषा से तो यही लग रहा था । मित्र आया तो मुझे स्कूटी में बैठकर शहर घूमने और भींगने का आनंद भी मिल गया । शुक्र है कि सर्दी नहीं लगी । मित्र सलवा जुडूम यानी नक्सलवाद के खिलाफ बस्तर मे चल रहे आंदोलन (आदिवासियों के द्वारा) का जायजा लेना चाहते हैं । बस्तर जाने की भी उनकी इच्छा है । वैसे तो बस्तर मे पत्रकारों को नक्सली नहीं सताते । पर क्या पता कब क्या हो जाये । उनकी इच्छा थी कि मैं भी साथ चलूँ । पर... कल रायगढ़ जाना है ।


अथ आदित्य उबाच.....
लिखते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तक जायेगी..... । भई क्यों नही जायेगी ? और क्यों नहीं जाना चाहिए ? बात इसीलिए तो की जाती है कि वह कहीं तो जाये । मैं उनके पत्र में खो जाता हूँ.....
आज से १० वर्ष पहले एक भारतवासी उच्च शिक्षा हेतु अमेरिका आया था, यहाँ आकर उसे लगा उसकी हर तमन्नाएँ पूरी हो जायेगी और जुट गया सपनों को पूरा करने में । फिर भी भीड़ मे कहीं ना अपने को अकेला महसूस कर रहा था । आख़िर मिल गयी एक सुनने एवं समझनेवाली एक रूसी बाला । चढ़ गया प्रेम रंग और चल पड़ी जीवन की नौका । बड़े गर्व से यात्रा कर आया भारत । साथ मे रूसी पत्नी जो थी । पाँच वर्षों मे एक पुत्र की प्राप्ति हुई साथ-साथ रूसी बाला को ग्रीन कार्ड भी मिल गया । ग्रीन कार्ड प्राप्त होते गोरी के नखरे शुरू हो गए, भारतीय भोजन, मित्र, संगीत सब उसे अब सरदर्द साबित होने लगे । बेचारा भारतवासी असमंजस मे आ गया, उसके सारे भारतीय मित्रों पर रोक लग गयी, अपने ही घर में चावल-दाल-सब्जी तक पकाने की मनाही ।पूजा-पाठ के सामान सब गराज मे रख दिए गए ।
भारतीय होने के नाते उसने लाख कोशिश की पर कोहरा और घना होता चला गया । आख़िर वही हुआ जिसका डर था तलाक-डिवोर्स ।


आज स्थिति यह है कि अपने ही पुत्र को कोर्ट के आदेशानुसार मात्र शनि एवं रविवार रख पाता है । पुत्र जोशुआ सोम से शुक्र अपनी मम्मी के साथ रूसी जीवन जीता है और फिर शनि-रवि टूटी-फूटी हिन्दी में अपने भारतवासी पिता के साथ ।
सचमुच अमेरिका मे विविधताओं की कमी नही ....................


आख़िर भारतवासी की माँ भी अमेरिका अपने पौत्र को देखने पहुंची , कहते है भाषा एवं माँ -निश्छल होती है । अपने पौत्र का अभिनन्दन तिलक-टीके से किया पर रूसी बाला को यह भी एक जादू-टोना का तिल्स्सम सा लगा भारतीय संस्कृति की हर परम्परा दिन ब दिन अस्वीकार कर कर दी गयी और रूसी बाला का स्वार्थ से भरा चेहरा साफ दिखने लगा । अमेरिका मे ऐसी घटनाएँ ही भारतवंशियों के मन मे कई संशय भरे प्रश्न खड़ा कर देते हैं ।


आज इतना ही फिर कभी.....अमेरिका की विविध तावों पर कुछ न कुछ लिख भेजा करूंगा ।
अब इस यथार्थ को लेकर कुछ प्रश्न भी न उठें तो बात भी कैसे दूर तक गई । इस वक्त मन में बहुत उमड़न-घुमड़न है ।


सबरंग पर पूर्णिमा दीदी...
आदित्य जी का आग्रह है कि मैं रेडियो सबरंग पर पूर्णिमा वर्मन की गुच्छा गुलमोहर का पारूल की आवाज़ मी एक बार सुने । वे पूर्णिमाजी का टेलिफून नम्बर भी चाहते हैं । बतियाने के बड़े विश्वासी जो हैं आदित्य । अब मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि दीदी संपूर्णतः अंतर्मुखी हैं । विदेश में भी रहकर भारतीयता को दिल से जीती हैं । हमारे जैसे फटीचर भाई को भला कैसे फोन नम्बर दे सकती हैं । वैसे दीदी जब शादी होकर चली जाती है ससुराल तो वह भाईयों की नही रह जाती । दोस्तों की नहीं रह जाती । कई बार वह अपने माँ-बाप की भी नही रह जाती । वह अपने नये परिवार के आदर्शों और मूल्यों पर स्वयं को अधिनियंत्रित करती है । चाहे दुख से या फिर चाहे निजी संस्कारों या इच्छा से । कई बार फोन नम्बर देना भी सिरदर्द साबित हो जाता है । फिर दीदी का बड़ा काम है हिंदी अंतरजाल पर । रात दिन लगी रहती हैं । वैसे मैं आदित्यजी को यह बताना चाहूँगा कि दीदी पहले मुझसे बहुत सारी रचनात्मक बातें कर लेती थी । पर पता नहीं क्यों अब चुप्पी साध ली हैं । मुझे लगता है यह तब से हुआ जब से मैं सृजनगाथा के संपादन में व्यस्त रहने लगा । खैर...

Sunday, June 08, 2008

रसास्वाद और पाठ का पर्याप्त आग्रह

जब तक हिंदी के प्राध्यापकों ने अपने उत्तरदायित्वों को संपूर्ण रचनात्मकता के साथ निभाया तब तक हिंदी आलोचना गतिमान बनी रही । उसे ठोस ज़मीन मिलती रही । वहाँ सबकी खोज-खबर होती रही । सबकी धुलाई-पोंछाई होती रही । तब वहाँ केवल शास्त्रीयता का आग्रह नहीं था अपितु नये विकल्पों की मीमांसा भी हो रही थी । इतिहास में इसकी संपूर्ण गवाहियाँ हैं । नये काव्य और इसी तरह भाँति-भाँति के आंदोलनों से आलोचना का सूत्र उसकी मुट्ठी की पकड़ से बाहर होता चला गया । इसमें विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा में डिग्री की अपरिहार्यता और उसके अर्थलाभ से जुड़ते चले जाने का घटाटोप भी कम उत्तरदायी नहीं । धीरे-धीरे आलोचना प्राध्यापकों के हाथ से रचनाकारों के कब्जे में जाने लगा ।

रचनाकारों के आलोचक हो जाने से हिंदी आलोचना को नया आयाम तो मिला किन्तु वह गुटनिरपेक्ष नहीं रह सकी । वह निजी मुगालतों के फिलसन की शिकार होने लगी । रातों-रात अखिल भारतीय बनने-बनाने का गोरखधंधा चल निकला । इस दरमियान आयातित विचारों के बादलों की गड़गड़ाहट से भी हिंदी आलोचना की शास्त्रीयता और गतिमयता भोथरी होती रही । भले ही साहित्य को परखने के नये-नये सौदंर्यशास्त्रों से लेखकों-पाठकों का परिचय हुआ किन्तु इन्हीं कारणों से जो सबसे बड़ी हानि हुई, वह है – केवल चित-परिचित या समानधर्मा रचनाकारों की ‘पूँछ-परख’ । यह ‘पूछ-परख’ भी होती तो कदाचित् नयी पीढ़ी के रचनाकारों को एक आश्वस्ति मिलती । आज भी हिंदी की दुनिया में इसी दौर की नदी अबाधता के साथ बहे जा रही है। ऐसे दौर में जब पद्मश्री मुकुटधर पांडेय को छायावाद के जनक के रूप में स्थापित करने का संघर्ष और उसमें सफल हाने वाले आलोचक (शिक्षाविद्) डॉ. बलदेव का बिना किसी वादाग्रह के डॉ. जे.आर.सोनी जैसे रचनाकार के समग्र (अब तक लिखे गये) के आधार पर उनके व्यक्तित्व का परीक्षण हमारे सम्मुख आता है तो वह सुखद क्षणों का अवसर मुहैया कराता जान पड़ता है ।

इधर आधुनिक छत्तीसगढ़ी लेखन में श्री सोनीजी प्रमुख कथाकारों में गिने जाते हैं । यों तो छत्तीसगढ़ी में लिखे गये उपन्यासों को उँगलियों में गिना जा सकता है किन्तु चंद्रकला, पछतावा और उढ़रिया उपन्यासों के कथ्य पारंपरिक विषयवस्तुओं को तोड़ते हैं । वे समकालीन यथार्थ और संघर्ष के मध्य नये पाठ की तरह हैं । बलदेव जी इन उपन्यासों को नये आस्वाद के साथ पढ़ने के सारे संकेतों को यहाँ बड़ी सरलता से जुटाते जान पड़ते हैं । चंदकला को आंचलिक उपन्यास की तरह पढ़ा जाय तो उसे छत्तीसगढ़ के समकालीन जीवन की गंभीर पड़ताल भी कहा जा सकता है । कथासंग्रह मितान, नगमत, नीरा और रंग-झांझर भी हमे निहायत यथार्थ की ओर ले जाती हैं । यहाँ जो भी कथायें हैं वे अपनी सादगी में पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम हैं । यह दीगर बात है कि शिल्प को ही कहानी मानने के आदी हो चुके समकालीन पाठकों को यहाँ निराशा हो सकती है । सोनी जी अपने व्यक्तित्व से दूर कभी नहीं जाते । यहाँ भी उनका व्यक्तित्व उनकी रचनाओं के साथ पूर्ण सामंजस्यता बने हुए है । ऐसा कम होता है कि दोनों मे एकाकार हो । कृतिलेखक बलदेव को नये पाठक इस समीक्षा के लिए भी याद रखना चाहेंगे ।
मैं निजी तौर पर सोनीजी को उनकी यात्राप्रियता के लिए भी जानता हूँ । यात्रा को वे पर्यटन नहीं अपितु नये अनुभव की यात्रा के रूप मे देखते रहे हैं । वे चीज़ों को उसके आरपार देखने के प्रयास मे सफल रहे हैं । यद्यपि उनकी जटिलता और संश्लिष्टता उतना सरल नही है जैसा हम देखने के आदी हैं । मैं स्वयं मारीशस को छोड़कर इंग्लैंड और श्रीलंका की साहित्यिक यात्रा में उनके साथ रहा हूँ । इस बीच उनके व्यक्तित्व को गहरे से समझने का मुझे भी बड़ा मौका मिला है । मॉरीशस, श्रीलंका और इंग्लैड पर लिखी गई उनकी किताबें सामान्य से सामान्य पाठकों के लिए भी सांस्कृतिक यात्रा का सुखद आस्वाद जुटाती हैं । डॉ. बलदेव की माने तो कई बार वे सूचनाओं के संकलक जैसा भी ज़रूर दिख पड़ते हैं पर इसकी भी महत्ता ऐसी किताबों के बहाने साबित तो हो ही जाया करती हैं । बलदेव जी ने उनकी काव्यात्मक संस्मरणों का विशद अनुशीलन किया है इस किताब में ।
वे देश-परदेश सर्वत्र और सर्वदा जे.आर.सोनी बने रहते हैं । वे कभी भी अपने होने को द्विविधा के पचड़े में नहीं उलझाते । उनका लोकधर्मी व्यक्तित्व कभी भी पराये आलोक की चकाचौंध में नहीं उलझ सकता । उनकी सात्विकता उनके व्यक्तित्व की निशानी है । बाह्याभ्यंतर से वे सात्विक हैं । इसलिए दलित लेखन के बाद भी वे दलितों के समय-सम्यक आक्रोश को तवज्जो नही देते । खासकर अपनी लेखनी में । उनके पात्र सदैव मर्यादा और समाज-सम्यक विकास के लिए निजी संघर्ष को वरेण्य मानते हैं । उनके सहयोगी स्वभाव का भी विशद उल्लेखीकरण भी इस कृति को पठनीय बनाता है । पठनीय इसलिए कि सोनी जी जातिवादी मानसिकता के लेखक नहीं । वे मनुष्यता के लेखक हैं । इसलिए वे निजी जीवन में भी लेखकों, कलाकारों, सहकर्मियों और ज़रूरतमंदों के सहयोग मे आगे देखे जाते हैं ।
यूँ तो जातिगत चेतना के कोण से देखने वालों को सोनीजी का अब तक का लेखन वंचितों को समर्पित प्रतीत होगा । इसके बावजूद उनमें वह पूर्वाग्रह नहीं है जिससे साहित्य का मूल मापंदड़ खंडित होता है । साहित्य निहायत निजी नहीं होता । साहित्य बहुजन के लिए भी नहीं होता । उससे भी बढ़कर वह सबका होता है । यही उसका होना है । साहित्य यानी सहित । सहित भाव ही साहित्य का प्रजातंत्र है । भले ही वह अपने में संपूर्णः न हो । भले ही उसमें सबके स्वप्नों की सरंक्षण-क्षमता न हो । पर उसमें यदि किसी का भी अवमानना है तो वह सहित भाव दूरी बनानेवाला शब्दों का भूसा के अलावा कुछ नहीं । कृतिकार ने जगह-जगह यह सिद्ध किया है कि निजी आक्रोश तो जैसे उनके(सोनीजी) यहाँ मिलता ही नहीं । भले ही दलित आलोचकों को इसमें निराशा हो सकती है कि सोनीजी एक बड़े दलित लेखक बनते-बनते चुके जा रहे हैं पर उनका दलित चिंतन इससे कहीं भी भोथरा नहीं होता, बल्कि वे भारतीय जीवन पंरपरा की वैचारिक ज़मीन और सामाजिक यथार्थ के पहाड़ दोनों को नाप कर निष्कर्ष देते हैं । यही उनका रचनात्मक संघर्ष भी है । डा. बलदेव कहते हैं – ‘’डॉ. सोनी ने किसी को गुरू नहीं बनाया, वे तो जन्मजात गुरू घासीदास के शिष्य हैं ।‘’ हिंदी में दलित लेखन को हम बाबा अंबेडेकर के विचारों से अनुकूलन करते चलते हैं । यह अनुकूलन दलितों, वंचितों, पिछड़ों और सताये गये लोगों को एक गहरी आत्मीयता और आत्मविश्वास भी उपलब्ध कराता है । पर कहीं न कहीं किसी वाद की ओर भी धकेलता है । सोनी जी का दलित चिंतन इस मायने में भी भिन्न और नये आलोक के साथ निरंतर बना रहा है कि उनके लेखन में गैर दलित साहित्यकारों, आलोचकों, और पाठकों के लिए भी रसास्वाद और पाठ का पर्याप्त आग्रह है । हो भी क्यों नहीं । वे मूलतः संत प्रकृति के हैं । हृदय में वैष्णवता को बिठाये बगैर एक सफल लेखक होना कठिन है और सतनाम के गायक गुरूघासीदासजी के सिद्धांतों, आदर्शों, जीवन-दर्शन को विस्तार देने वाले श्री सोनी वैसा चाह कर भी नहीं कर सकते जो भारतीय समाज की विश्वव्यापी छवि को ध्वस्त करे ।

उनके लेखन में आम आदमी तो सर्वत्र है - अपने दुःख दैन्यता के साथ । पर उसके साथ संपूर्ण समाज भी है जिसका हृदय परिवर्तन ज़रूरी है (जिसमें लेखक को सफल माना जा सकता है) न कि उसके खिलाफ विष-वमन और डॉ. सोनी इस मायने में मुख्यधारा के लेखक हैं । उनकी किताबों (सतनाम के अनुयायी, सतनाम की दार्शनिक पृष्ठभूमि और गुरू घासीदास की अमर कथाएँ) में वर्णित गुरू केवल सतनामी समाज का मार्गदर्शक नहीं । वह संपूर्ण मानवता का हितैषी हैं । डॉ. बलदेव ने इस बहाने सोनी जी की दृष्टि, नैतिकता, विचारधारा की परिपक्वता को तराशा है । किसी लेखक को जानने के लिए बलदेव जी की यह आलोचना पद्धति शुष्कता में भी वर्षा की रिमझिम फुहार की मानिंद है ।

डॉ. बलदेव ने बबूल की छाँव और मोंगरा के फूल (काव्यकृतियाँ) की मींमासा बड़ी बारीक नज़रों से की है । मीमांसाका से सहमति देते हुए निजी तौर पर मै भी इतना ही कहना चाहूँगा कि सोनीजी का काव्याकार उनके गद्यकार से पिछड़ता जान पड़ता है । हो सकता है कि सोनी जी का निजी जीवन प्रशासनिक आपाधापी में गद्यमयता के बीच गुजरने के कारण जीवन के लय, छंद और गति के मध्य सामंजस्य न बैठा पा रहा हो । हो तो यह भी सकता है कि गद्य ही उनका प्रिय माध्यम है । पर अल्प समय में उनका विपुल लेखन बड़ों-बड़ों के लिए इर्ष्या का विषय भी हो सकता है ।

डॉ. बलदेव द्वारा डॉ. जे. आर. सोनी जी पर केंद्रित यह किताब साहित्यानुरागियों के लिए पठनीय, शोध-छात्रों के लिए मार्गदर्शीय, सतनाम अनुयायियों के लिए संग्रहणीय और विमर्शवादियों के लिए विचारणीय है । विश्वास है छत्तीसगढ़ी साहित्य की दिशा को तराशने में संलग्न डॉ. बलदेव और स्वयं डॉ. जे.आर.सोनी की साधना से भविष्य में कुछ और भी सार्थक, और भी महत्वपूर्ण मिल सकेगा । फिलहाल मेरे निजी विचार ऐसे हैं, इत्यलम् नहीं ।

Friday, June 06, 2008

अमेरिका में सामाजिकता निश्चित नहीं ?

फिलहाल अमेरिकन समाज में सामाजिक संबंधों की हालात पर अंतिम निष्कर्ष निकालना कठिन हो गया है । ख़ासकर स्त्री-पुरुष संबंधों पर मुझे दो-दो राय और दो तरह की राय मिली हैं । यह दीगर बात है कि दोनों एक दूसरे को तीर्यक रेखा पर नही काटती पर कहीं न कहीं दोनों की राय से मुझे लगता है अब विवेक का सहारा लेना पड़ेगा । अमेरिका में प्रवासी जीवन बिताना बहुत कठिन लगता है । सामाजिक भविष्य वहाँ कितना सुरक्षित है, कहा नहीं जा सकता । उत्तरआधुनिकता वहाँ से कब की गुज़र चुकी है । अब लोग उससे आगे के जीवन-दर्शन पर केंद्रित हैं या उसकी तलाश में हैं । मैं ठहरा भारतीय जिसे अभी-अभी चार-छः साल हुए उत्तरआधुनिकता के बारे में पढ़ने-सुनने को मिल रहा है । वह भी मात्र साहित्य में । मैं समझ नहीं पाता कि उत्तरआधुनिकता के बाद कौन सा समय आयेगा ? क्या उत्तर-उत्तर आधुनिक समय आयेगा !

मेरे आसपास तो ठीक तरह से आधुनिक समय भी नहीं आ सका है तब कब वहाँ उत्तर आधुनिक समय आयेगा । आज भी लोग और समाज सामाजिक मूल्यों पर जीते हैं । केवल आधुनिक कहलाने की गरज़ से ही कुछ पारिवारिक संबंधों और दैहिक संबंधों के बारे में उन्मुक्त जीवन को तरजीह देते हैं । वैसे उन्हें भी इसका सच्चा अनुयायी नहीं माना जा सकता है । क्योंकि वे अपने एकांत क्षण में एक माता-पिता के रूप में अपराध-बोध से गुज़रते हैं । प्रेम-विवाह मूलतः शहर का रोग है । अइसमे सहशिक्षा का भी योगदान है । समलैंगिकता अभी बहुत दूर है भारत से । जबकि अमेरिका में यह कानूनी रूप धारण करता जा रहा है । दैहिक सुख के पीछे विपर्यय आकर्षण है । इसमें पुरुष और स्त्री की अनिवार्यता है । किसी भी दर्शन के नाम पर उसे हम भारतीय शायद ही समर्थन दें । विवाह को हम एक संस्कार मानते हैं । प्रेम विवाह को भी हम भले ही असामाजिक दृष्टि से लेते हैं पर वैदिक काल और उसके बाद भी ऋषि पंरपरा में उसके चिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं ।

आदित्यजी ने लिखा है-
जय प्रकाश,
चलिए मन के अवकाश मे अच्छी बातें कर लेते हैं, आख़िर ब्लॉग का सदुपयोग तो हो रहा
लावण्या जी मुझसे ज़्यादा अनुभवी हैं अत: उनकी हर बात का स्वागत है वैसे अमेरिका कि या किसी देश कि बातें तो हरि अनंत ,हरि कथा अनंता .... जैसी है ?

मैं जब नया-नया अमेरिका मे अपनी पुत्री का स्कूल मे नामांकन कराने गया था तो ऑफ़िस में
पूछा गया कि - आप किस तरह के पिता है ? प्रश्न मेरे लिए अटपटा था । फिर उन्होंने पूछा कि -
१.आप नैचुरल पिता है या
२.सौतेले या
३.गोद लिए हुए ?
एक भारतीय के लिए आप स्वयं सोचें क्या मन :स्थिति होती होगी

यहाँ अमेरिकन मित्रों को एक बार भारतीय शादी की विडियो दिखाई थी, लड़की को फूलों से सजे बिस्तर पर शरमाई-सी बैठी देख सभी ने पूछा कि -क्या लड़की इस शादी से खुश नही ? क्यों चुप सी बैठी है ?
इसे क्यों फूलों के पिंजरे मे बंद कर रखा है ? कौन समझाए इन्हें शर्म-लज्जा कि बात ।

चलिए बातें बहुत है, क्रमश: .......... मंगल कामनाओं के साथ
आदित्य प्रकाश
डैलास

और उधर लावण्याजी का अभिमत है -
अमरीका हो या भारत, एक ही बात हम किसी भी विषय के बारे में नहीं कह सकते ! हर विषय के अपवाद हमेशा ही रहते हैं --अमरीका मेँ कई तरह की विडम्बनाएँ, विषमताएँ, कठिनाइयाँ, यहाँ के रोज के जीवन का हिस्सा हैं – सुख-सुविधा, आधुनिकता के साथ-साथ एकाकीपन, विलुप्त होते पारिवारिक रिश्ते, एक खालीपन, हिंसा, अत्याधिक खुलेपन से उत्पन्न होते टकराव्, व्याभिचार, समलैंगिक संबंध, शराब्, नशीले पदार्थों का सेवन, समाज के लिये, भविष्य के लिये क्या लायें गेये सोचनेवाली बात है"....

यहाँ सामाजिक विषमताएँ ऐसी हो चलीं हैं जिनसे ये एक डर लग रहा है की तथाकथित सामाजिक व साँस्कृतिक मूल्यों का क्या होगा ?
लावण्या जी से विस्तार से पूछना ही पड़ेगा कि वे निजी तौर पर क्या परिवर्तन देख चुकी हैं ? आगे किस तरह का समाज वहाँ विकसित हो रहा है ? क्या इस अनिश्चितता की आँधी में सब कुछ उड़ जायेगा ? भारतीयता भी ? जो अभी वहाँ गर्व से कह पाते है कि वे अमेरिका में भी रहकर मन और आत्मा से भारतीय बने हुए हैं.....

कामचोर इसे ना पढ़ें..

कर्मण्यता वाले मुद्दे मे कुछ अन्य प्रसंगों पर लावण्या दीदी सहमत नहीं है । वैसे उनकी असहमति से भी सहमत हुआ जा सकता है और माना भी जा सकता है कि अमरीका एक ऐसा देश है जहाँ के लोगों कार्यक्षमता, सफलता, इच्छाओँ को पूरा करने, ज़िंदगी को अपने तरीके से जीने की कोई सीमा ही नहीँ । वे अमेरिकन शादी के अन्य पहलूओं पर भी जैसे समलैंगिक विवाह पर भी ध्यान बंटाना चाहती हैं । मैं उस पर भी चर्चा करना चाह रहा था । खासकर भारतीय मूल के परिवारों में युवक-युवतियों की मानसिकता पर..


इस बीच यानी पिछले दो तीन दिनों में चाहकर भी उनसे इस मुद्दे पर विमर्श नहीं कर सका । पर करूँगा ज़रूर । फ़िलहाल तो सुधीर नारायण शास्त्री जी को बधाई देने का मन कर रहा है । सुनेंगे तो आप भी उन्हें तहेदिल से बधाई दिये बिना नहीं रहेंगे । हाँ, बहानेबोजों, कामचोरों, सुस्त लोगों को इससे ज़रूर अरुचि हो सकती है । हो भी क्यों नहीं –

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम
दास मलूका कह गये सबके दाता राम ।

..... पर शास्त्रीजी ने इसे पलटकर रख दिया है । वे कभी भी दाता राम के भरोसे नहीं रहे जबकि वे स्थायी रोजगार पर थे । रोज काम किया । पूरे समय काम किया । हरदम काम किया । बिना थके, बिना रुके । ऐसे ही लोगों के लिए गीता में ‘कर्मयोगी’ प्रयुक्त हुआ है । कृष्ण भी यही चाहते थे कि हर मनुष्य कर्मयोगी बने । जिसे जो भूमिका मिली है उसी को संपूर्णतः जीना ही कर्मयोग है । इस कर्मयोग को शास्त्रीजी ने अपनी कठिन साधना और अटूट विश्वास से साबित कर दिखाया है ।


अलाल सरकारी कर्मियों, नौकरशाहों, अंधे राजनेताओं पर खिसियाते-खिसियाते थक जाने वाले समय में मेरे लिए यह ठीक उसी तरह है जैसे भरी दोपहरी वाली यात्रा में कोई झरना दिख गया हो । शांत, स्निग्ध जल से आपुरित ।

ऐसे किसी कर्मयोगी के बारे में मैंने आज तक नहीं सुना जो जीवन भर नौकरी करता रहे और एक भी दिन अवकाश पर भी न देखा जाय । इस नेक ख़बर के अनुसार बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग [बेस्ट] की समिति के पूर्व सचिव सुधीर नारायण शास्त्री ऐसे ही एक सरकारी कर्मचारी रहे हैं, जिनका नाम छुट्टियाँ न लेने के लिए गिनीज बुक आफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स के लिए प्रस्तावित किया जा रहा है।


हो सकता है कि इस समाचार से बहुत सारे भारतीय सहमत न हों और वे यह कहते हुए देखे जायँ कि हूँह – यह तो रिकार्ड के नाम पर किया गया काम है । परंतु इसे मात्र रिकार्ड बनाने की गरज़ से देखा जाना कर्मयोग की तौहीनी होगी । यह कर्मनिष्ठा है जिसकी आज भारत को महती ज़रूरत है । इसके बग़ैर उन्नति के शिखरों को स्पर्श करना कठिन होगा । हर स्तर पर ।

शास्त्री 1977 से बेस्ट की सेवा में आये । एक नवंबर, 1990 को बेस्ट समिति के सचिव का पदभार ग्रहण करने के बाद से अपने अवकाश ग्रहण की तारीख के बीच उन्होंने रविवार के अलावा सिर्फ़ एक अवकाश लिया। वह भी तब जब वे बीमारी के कारण वह चलने-फिरने की स्थिति में भी नहीं थे।

अपने संपूर्ण कार्यकाल के दौरान वह प्रतिदिन 12 से 14 घंटे काम करने के लिए जाने जाते हैं। बधाई और प्रणाम उनकी पत्नी शैलजाजी को भी जिन्होंने काम के प्रति अपनी पति की प्रतिबद्धता को देखते हुए उन्हें छुट्टी लेने के लिए कभी अपने किसी दबाव के घेरे में नहीं लिया ।


शायद ही कोई कामकाजी पति इतना भाग्यशाली होगा जिसकी पत्नि शैलजाजी की तरह नाज़ नखरा न करती हो । गलती से ऐसे जोड़े यदि अपने गाँव शहर से दूर किसी सेवा या नौकरी में हों तो पूछिए मत । ऐसे परिवारों में आये दिन किसी न किसी नये जगह की सैर के लिए विवाद होता रहता है । छुट्टी के दिन बाज़ार की सैर । पार्क की सैर । मीनाबाज़ार की घुमाई । पति की कर्मठता जाये भाड़ में । कार्यालय का काम जाये भाड़ में । आम आदमी जाये भाड़ में ।
जो भी हो यह कामचोर लोगों के लिए पढ़ने योग्य नहीं है ।
शास्त्री जी आपको मैं नमन करता हूँ । शत्-शत् नमन ।

Tuesday, June 03, 2008

अमेरिका में घास छिलते हैं आदित्यजी

अंतरजाल यानी नयी दुनिया रचने का तकनीक
अंतरजाल को लेकर भले ही पुरानी पीढ़ी लाख कुढ़ती रहे । भले ही जड़वादी मानसिकता के शिकार यानी पुरातनपंथी उसे लाखों कोसते रहें कि उससे मानवीय संबंधों की शुचिता बाधित होगी, आदि-आदि; पर अंतरजाल है बड़े ही काम की चीज़ । वह संबंधों की नयी दुनिया रचने का भी कामयाब तकनीक है । वह ऐसी जादुई बस्ती है जहाँ बेघरबार ठिकाना ढूँढ़ सकते हैं । भले ही वह फैंटेसी जैसा क्यों ना हो, वहाँ अज्ञात और अपरिचित से भी मिलने-बतियाने का वर्चुअल स्पेस है । उसे सिर्फ़ कुंठित और दैहिक बोधों के फ़िलॉल्सपी झाड़कर एकबारगी ख़ारिज़ करना बेमानी होगा । और माना कि वहाँ ऐसा होता भी है तो उसमें स्वयं अंतरजाल का कम, ऐसे लोगों की रूचि और आदत का दोष अधिक माना जाना चाहिए । शुक्लता और कृष्णता कहाँ नहीं है । प्रकृति में भी । चयन का विवेक तो मनुष्य को ही जगाना पड़ेगा । सो इसी कथित विवेक के चलते वर्षों पहले एक दिन हम दोनों टकरा गये और आज आत्मीयता को स्पर्श करते संबंध पर दोनों का विश्वास है । मेरे ई-मित्र को आप आदित्य प्रकाश सिंह के नाम से जान सकते हैं ।


आदित्य पिछले डेढ़ दशक से युएसए के डैलास में रहते हैं । उत्तरप्रदेश स्थायी ठीयां । वे रेडियो सलाम नमस्ते में हिंदी साहित्य से जुड़े कार्यक्रमों के संयोजक हैं । यदि मेरा अनुमान सच है तो यह काम वे शौंकिया तौर पर करते हैं । वैसे पेशे से वे वैज्ञानिक हैं । नेपाल में बड़े बिगड़ैलों को महाविद्यालय में हिंदी पढ़ा चुके हैं । कितना कहूँ उनके बारे में...बड़े ही रोचक और दोस्ती जोड़ू आदमी हैं भाई ।

अंतरजाल के माध्यम से दुनिया भर के कवियों से स्वयं पहल करके बतियाते रहते हैं । कुशल-क्षेम के प्रश्चात जब वे फ़ोन पर ही बानगी की पेशकश करते हैं तो ऐसा कोई कवि नहीं होता जो वहीं मोबाइल या फोन पर न शुरू हो जाय । अमुमन इसी की फ़िराक में ही तो रहता है कवि । पर यदि आप उन्हें प्रवासी जानकर ठग या उलझा नहीं सकते । दूसरों की उत्कृष्ट रचना भी नहीं पढ़ सकते । बड़ों-बड़ों की कविता याद है उन्हें । लगे हाथ वे भी अपनी कविता भी सुना देते हैं । वैसे उनकी अपनी कविता क्या है, जानना चाहेंगे आप ? चलव मैंहीच हा बताये देत हंव (चलिएमैं ही बताये देता हूँ) - रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, पंत, निराला, जाने कितने नामवरों की कवितायें उन्हें मुखाग्र हैं । दरअसल यही वे कवि हैं जो प्रत्येक भारतीय के उसके अपने कवि हैं । और उनकी कविताएँ एक गंभीर पाठक की भी कविताएँ...


तो.....मैं ठहरा अल्प-मुद्राधारी । चाहकर भी उनसे दूरभाष पर बात नहीं कर पाता । वे ही फ़ोनवा खटखटाते हैं । वैसे मैं फिलहाल यहाँ न तो अंतरजाल पर कुछ बकबास करने वाला हूँ न ही मित्र के बारे में लिखने बैठा हूँ । दरअसल मैं मित्र के बहाने कुछ ख़ास बात रखना चाह रहा हूँ - कि हम भारतीय कितने अलाल हैं ? कि हम भारतीयों में स्वयंसेवा के प्रति कितनी लापरवाही है ? कि हम दैनिक-वृतियों में निजी स्तर पर कितने सक्रिय रहते हैं ?

अमेरिका में घास छिलते हैं आदित्यजी
मूल बात की ओर आपको ले चलूँ तो......परसों भोर से उनका मोबाइल बज उठा – का हो, गुडाकेश, का करत बानी ? वे बता रहे थे – अभी-अभी लॉन का घास छिलकर वे सुस्ता रहे हैं, सोचा आपकी ख़बर ले लूँ, याद से गायब जो नहीं होते हैं ।
मैंने कहा – आप का कह रहे हैं ?
हाँ भाई, मैं घास ही छिल रहा था । - मैं ज़रा आश्चर्य के घेरे में स्वयं को पा रहा था -
मुहावरा फरमा रहे हैं क्या ?
अरे नहीं भई...

वे बोलने लगे – मानस जी, यहाँ हर कोई अपने बँगलों में लॉन की सफाई करता है । यह नित्य-प्रति का कार्य है । और इसमें बुराई भी नहीं....मन भी बहल जाता है... प्रकृति का स्पर्श भी हो जाता है और ज़रा व्यायाम भी । इसमें अमीर से अमीर आदमी भी संकोच नहीं करता....और यही वह सभ्यता है जो अमेरिका को अमेरिका बनाता है । लोग अपने छोटे-छोटे काम स्वयं किया करते हैं । हमें भी अपना देश बहुत पसंद है पर यही वो बात है जिससे अमेरिका हमे अपनी ओर खींचे रखता है और भारत की जीवन-शैली देखकर मन भर जाता है....

अब मेरी बारी थी – ....और हमारे यहाँ घास मज़दूर काटते हैं । चाहे वो लॉन का हो या फिर खेत का । कितना अजीब है कि यहाँ घास काटना छोटा काम माना जाता है । दरअसल घास भारतीय मन में भरा पड़ा है । जो छँटने का नाम ही नहीं लेती । जब घास छँट जाये तो हम भी अमेरिकनों की तरह समृद्ध हो सकते हैं । पर जाने कब छँटेगी यह घास.....


मानस जी, आप भी जानते हैं... भारत में जब कभी बाढ़, भूकंप, महामारी, सूखा आदि आपदायें आती हैं तो आपको छोटे-छोटे बच्च आगे बढ़कर सेवा करते दिखाई नहीं देंगे । अमेरिका में स्कूली बच्चे सहित हर उम्र के लोग आपातकालीन स्थिति में स्वयं बिना किसी अपील, बिना किसी प्रेरणा, बिना किसी राजनीति, बिना किसी स्वार्थ के सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं । भारतीयों ने साधारण जीवन में ऐसा करना सीखा ही नहीं है । उन्हें हम सिखाते ही नहीं । हम जाति, मजहब, धरम, वर्ग, योग्यता, रंग-रूप आदि के आधार पर ही मित्रधर्म निभाने की बात करते हैं । जिस परमार्थ की हम भारतीय बार-बार दुहाई देते हैं वह हमारा दंभ है । दरअसल हम स्वार्थ से उबर ही नही पाये हैं । हम भारतीय मनुष्य को मनुष्यता के नाम पर नहीं उसकी निजी विशिष्टताओं के आधार पर देखते हैं । और यही वह बुराई है जिससे भारतीयों में आपसी सद्भाव भी कम है । कभी मुंबई दहक उठता है और कभी गुजरात ।


मैं मन ही मन सोच रहा था कि अब तो हमारे स्कूलों में भी व्यावहारिक शिक्षा का पाठ मृतप्रायः है । मुझे याद आ रहा था कि कैसे हमें गुरूजी कक्षा से बाहर क्यारियों में फूल उगाना सिखाते थे, छोटी-मोटी खेती कराते थे, गाँव भर में घूम-घूम कर चावल इक्कठा करवाते थे और उसे किसी गरीब बच्चे को भी दिलाते थे । आज तो सामुदायिक भावना के नाम पर स्कूल में सिर्फ खेलकूद ही है जिसे हम सामुदायिक भावना की शिक्षा कह सकते हैं । धीरे-धीरे हमने सब कुछ खत्म कर दिया और आज तो स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए भी समाज को मध्यान्ह भोजन का लालच देना पड़ रहा है । क्या हो गया समाज को ? क्या हो गया लोगों को ? यह कैसा समय आ गया है हमारे देश में......


अब तो निजी स्तर पर ही ऐसी कोशिशें की जा सकती हैं । निरर्थक लाज तजकर । अपनी ऐंठ छोड़कर । हम जितने आत्मनिर्भर होगें । विकास का रास्ता उतना ही साफ़ होता चला जायेगा । ऐसे समय जो सबसे ज़्यादा याद आते हैं – उनमें गाँधीजी अव्वल हैं । वे यही तो कहा करते थे । वे दक्षिण अफ्रीका में जब तक रहे अपने लैट्रीन रूम की सफ़ाई स्वयं करते रहे । बा ने आपत्ति जताया – यह आप क्या रहे हैं ? तब गांधीजी ने उन्हें समझाया था कि बा जो अपनी गंदगी धो नहीं सकता वह औरों की गंदगी कैसे धो सकता है ।


अमेरिका में हिंदी पढ़ाये 5000 डॉलर पायें
ऐसा हो ही नहीं सकता कि आदित्य बातचीत करें और उस दरमियान मधुशाला की पंक्तियाँ न कहें । भले ही मधुशाला के रचनाकार बच्चनजी पर तत्समय और आज भी आलोचकों की ओर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने युवा-पीढ़ी को शराबखोरी की ओर धकेला गया, सच तो यह भी है कि मधुशाला की हर पंक्ति किसी न किसी जीवन-दृष्टि का रहस्य खोलती हैं और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं –

बैर कराती मंदिर मस्ज़िद मेल कराती मधुशाला ।

बात हम अमेरिका में हिंदी की नौकरी की करने वाले थे । आदित्य ने मुझे समझाइस दी कि मैं अमेरिकन दूतावास को निवेदन करूँ कि वे जो मुझे ग्रीन कार्ड देना चाहते हैं उसे नियमित रूप से बाद में विचार करने की श्रेणी में रख दें । क्योंकि अभी अमेरिका में स्थायी रूप से नहीं रह पाने का मतलब फिर कभी नहीं रहने की संभावना का क्षीण होना नहीं है । इसका मतलब कि जब मैं चाहूँ वहाँ आ सकूँ । उनका सुझाव है - मैं चाहूँ तो इसी वीज़ा का फ़ायदा उठाकर अभी अमेरिका में रह सकता हूँ और मुझे हिंदी पढ़ाने के लिए 5000 अमेरिकन डॉलर प्रतिमाह युनिवर्सिटिज दे सकती हैं । वे चाहते हैं कि टैक्सॉस, ऑस्टिन या हार्वर्ड आदि में से किसी को अपना बायोडेटा भेज दूँ । वे मदद भी कर देंगे ।


पाँच साल में तीन शादियाँ
आदित्य बता रहे थे कि यहाँ सभी नौकरी अस्थायी होती हैं पर यहाँ काम या जॉब का अभाव नहीं रहता । वे चाहते हैं कि मुझे विचार करना ही चाहिए...

आदित्य फिर बताते हैं – मानसजी, अमेरिका ऐसा देश है जहाँ जॉब और संबंधों में स्थायी गारंटी कभी नहीं होती । यह अमेरिकनों की आदत भी है । यानी कि सब कुछ अनिश्चित । कम से कम भारतीय मानसिकता में तो ऐसी स्थितियो को अनिश्चित माना जाता है ।

अब वे मुझे पारिवारिक संबंधों की ओर ले चल रहे थे जो पश्चिमी सभ्यता में आम है – वे जहाँ सेवा देते हैं, एक 52 वर्षीया महिला भी है । वह अब तक 3-3 शादियाँ कर चुकी है । इसमें से तीसरी शादी हाल ही में संपन्न हुआ है । माँ जिंदा है । पिछले दिनों वह भी बिगड़ी हुईं थीं । यहाँ क्लब में आते-जाते भी प्यार हो जाता है । यहाँ प्यार का मतलब देहसुख है । भारत जैसा स्थायी भाव कहाँ इसमें ।

मैंने पूछा भाई जी, वहाँ प्रवासी भारतीयों पर इसका क्या प्रभाव हो रहा है ?

- भारतीय लोग ऐसे संबंधों पर कम विश्वास करते हैं । हाँ कुछ पंजाबी ऐसी शादियों में विश्वास करने लगे हैं.... खरबूजे को देखकर कब तक खरबूजा रंग नहीं बदलेगा... आप ही बताइये ना... हम भारतीय खरबूजा जल्दी रंग नहीं बदलेगा... विश्वास किया जाना चाहिए ।

दिनकर और ज्ञान प्रकाश की कविता
वे आगे कहने लगे – मैं सदैव सुंदर बातों के लिए ही चिंता करता हूँ और उसी उद्यम में लगा रहता हूँ ।
‘बड़ा ज्ञान वही जिसमें व्यर्थ की चिंता न हो । बड़ा आदमी वही जो जीवन भर काम करे । बड़ी कविता वही जो मनुष्य आदि भूमि को सुंदर बना दे ।’ - दिनकर की पंक्तियाँ मेरे कानों में विदेशी भूमि से साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी । आदित्य जी एक दूसरी कविता को लेकर जारी थे...

बंशी की सुरीली आवाज़ दूर से आ रही
कर्ण कुट में मधुर सी लगती
प्रेम भाव जगा रही
सर उठा कर गगन से ताल मिला रही

यह उनके बड़े भाई ज्ञान प्रकाश जी की कविता है जो लंदन मानचेस्टर में 30 वर्षों से चिकित्सक हैं और मन से कवि । खाली रहते हैं तो कवितायी कर लेते हैं । यह उनके बचपन की आदत है । आदित्य बता रहे थे – पहले बड़े भाई ने लिखा था – शांत भाव जगा रही । किशन महराज ने कहाकि शांत भाव को प्रेम भाव कर दो । कविता पूरी मुकम्मल हो जायेगी ।


अरूण प्रकाश जी को बधाई
सच ही है जिस व्यक्ति कें कंधे पर भार हो वही खुशनसीब है । वैसे अब आदित्यजी के सोने का समय हो रहा है पर कुछ खुशख़बरी देना शेष है सो बता रहे हैं -

अमेरिका के हिन्दी प्रेमियों, हिन्दी संस्थानों, प्राथमिक हिन्दी के शिक्षकों एवं हिन्दी के छात्रों को वर्षों से जिस पाठ्य पुस्तक और अभ्यास पुस्तिका की अभिलाषा और आवश्यकता थी, वह पूरी हुई है । 490 पेजों की पूरी तरह रंगीन और दफ्ती की बाइंडिंग की यह पुस्तक और इसके साथ सीडी पर अभ्यास एवं चित्र शब्दावली अब आपके हाथों में है। वर्षों की मेहनत और व्यक्तिगत धन से यह सम्भव हुआ है। आपसे अनुरोध है कि इसको अपनाएं। यह आपको जून में उपलब्ध होगी। दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी सीखने के लिए यह पुस्तक अन्य भाषाओं की पुस्तकों के स्तर की है। इस पुस्तक की सामग्री तैयार करने में हिन्दी के वरिष्ठ विद्वान और शिक्षक डाक्टर हर्मन वान ओल्फेंन की महत्त्वपूर्ण सहायता प्राप्त है। क़ीमत 40 डॉलर, अभ्यास पुस्तिका 5 डॉलर और चित्र शब्दावली सीडी की क़ीमत 10 डॉलर है। पूरे सेट की कीमत 50 डॉलर है।

पुस्तक के चित्र कितने सुंदर हैं सचमुच--- अरुण प्रकाशजी आपको कोटिशः बधाई ।