Thursday, August 06, 2009

एक खुला खत

आशुतोष जी, आप इतने असंतोष क्यों है ?

आशुतोष कुमार नामक किसी पत्रकार या लेखक द्वारा जनसत्ता में प्रकाशित लेख ( प्रख्यात कवि आलोचक श्री अशोक बाजपेयी के जनसत्ता 19 जुलाई, 2009 के अंक में कभी-कभार में प्रकाशित आलेख ‘सहचर की याद’ के एक वाक्य को बीज वाक्य बनाकर लिखे गये ) ‘यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है’ पढ़कर जाने क्यों, पर मुझे माओ-त्से-तुंग की ही याद हो आई जिन्होंने कभी घिसे पिटे पार्टी लेखन करनेवाले अपने साथियों से ही कहा था –

“सर्वहारा वर्ग का सबसे तीक्ष्ण और सबसे कारगर हथियार है उसका गंभीर और जुझारू वैज्ञानिक रवैया । कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे लोगों को डराने धमकाने के भरोसे जीवित नहीं रहती, बल्कि मार्क्सवाद लेनिनवाद के सत्य के भरोसे जीवित रहती है, तथ्यों के ज़रिए सत्य की तलाश करने के भरोसे और विज्ञान के भरोसे जीवित रहती है । इस बात को बताने की ज़रूरत नहीं है कि पाखंड का सहारा लेकर अपने लिए शोहरत और ओहदा हासिल करने का विचार तो और भी घृणास्पद है । ”

वैसे उन्होंने ऐसे लेखकों पर कई आरोप लगाये थे – कि ऐसा लेखक अक्सर खोखले शब्दजाल से पन्ने भरता जाता है । कि वह जनता को जानबूझकर डराने धमकाने के लिए ख़ास अंदाज अख्तियार करता है, यह बेहद ख़राब क़िस्म के ज़हर से भरा होता है । कि उसमें उत्तरदायित्व की भावना का अभाव होता है, वह जहाँ भी जन्म लेता है जनता को नुकसान पहुँचाता है और उसके प्रसार से देश बरबाद हो जायेगा और जनता तबाह हो जायेगी।

रूस या चीन में तो नहीं पता नहीं किन्तु मार्क्स और लेनिन के भारतीय चेले अभी भी यही कर रहे हैं और इस अनुक्रम में आशुतोष कुमार के लेख का जो रहस्यवाद है वह भी यही साबित करने का अर्थहीन, भ्रामक और सफ़ेद झूठ का दुर्गंध फैलाता कुप्रयास है । कुछ अर्थों में कुंद और जड़ मानसिकता का परिचायक भी ।

पूछें कैसे ? वह ऐसे कि न तो लेख के लेखक को “सलवा-जुडूम” की वास्तविकता का पता है न उसके इतिहास का । शब्द के भाषा-वैज्ञानिक मतलब और निहितार्थ जानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । यदि उन्हें सलवा जुडूम का जन्म किन कारणों से हुआ इसकी सही जानकारी रहती तो वे अपने लेख का शीर्षक “यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है” देने का दुस्साहस भी नहीं कर पाते । मुश्किल यह है कि सलवा जुडूम के बिषय में या तो वे उन मित्रों की बातों पर भरोसा कर के लिखते हैं जो नक्सलियों से नज़दीकी रिश्ता रखते हैं या फिर उन लोगों पर भरोसा करते हैं जो बस्तर का 4-5 दिन का दौरा कर अपने को बस्तर की समस्याओं के विशेषज्ञ मानने लगते हैं ।

लेखक सर्वथा भूल जाता है कि कहीं वह ऐसा करके करोड़ों आदिवासियों की उस जन-भावना और विद्रोह को भी झूठ साबित करने की बौद्धिक चेष्टा तो नहीं कर रहा हैं जिसमें उनकी आज़ादी निहित है ? लेख की भाषा और संवेदना के आरपार देखने से यह प्रमाणित हो जाता है कि वह उस शुक की मानिंद सुनी-सुनायी या रटी-रटायी बातें की कह रहा है जो उसके अलावा कुछ भी नहीं जानता और सच तो यह भी है कि तोता जिस भाषा में बोलता है उसका मानवीय आशय भी कभी नहीं बूझ पाता ।

अब बस्तर के आदिवासी ऐसे सुव्यवस्थित प्रचार या संचार तंत्र से संपन्न तो नहीं जो ऐसे लेखकों को यह बता सके कि हे भले मानस, तुमने हमें इतना गया-बीता कैसे मान लिया कि छद्म हिमायती बनकर और अंततः हमारे ही तन, मन और जीवन के शोषक सिद्ध होनेवाले नक्सलियों के ख़िलाफ़ हम एकजूट भी नहीं हो सकते ? आशुतोष जैसे लेखक-पत्रकारों को यह कतई नहीं पता कि सलवा जुडूम उस सलाहकार खरगोश से अपने से दूर रहने की अपीलयुक्त विद्रोह है जो अपने भीतर बाघनखा छुपाकर आदिवासियों के बीच वर्षों से कथित हितैषी बनकर बस्तर की सारी हरियारी को चट कर जाना चाहता था । आशुतोष जैसे लेखकों के मुताबिक असलियत जानकर भी यदि बस्तर के कुछ भागों में आदिवासी नक्सलियों का साथ दे रहा है तो वह उनके आतंक और तानाशाही और बंदूक के डर के कारण ही ऐसा कर रहा है, नेक नीयत से उपजे नक्सलियों के विश्वास के कारण नहीं । जिसे आदिवासी आततायियों से मुक्ति मानता है उसे ही अपने लालचपूर्ण और छद्म स्वप्नों की पूर्ति के लिए किसी विचारधारा का कोई लेखक गलत बताता है या उसे प्रायोजित करार देकर भर्त्सना करता है तो वह आदिवासियों को गालियाँ ही दे रहा होता है ।

यहाँ यह भी बताना लाजिमी होगा कि लेखक को यह भी नहीं पता कि माओवाद या नक्सलवाद के भौतिक जीवन के सिद्धांत और दर्शन से आदिवासियों का मूलतः कोई लेना देना नहीं क्योंकि वह भी तो नहीं जानते कि यह दर्शन उसके विकास का अंतिम और कारगर शास्त्र है । लेखक को यह भी नहीं पता कि सलवा जुडूम उन सीधे-सादे आदिवासियों की शांतिपूर्ण जीवन की आज़ादी की गुहार है, जिसमें तथाकथित विकास एक लघु अवधारणा है । विकास का मतलब आदिवासी के लिए अशांति, हिंसा और दबाब भी कतई नहीं है । वह जल, जंगल और ज़मीन पर निर्द्वंद्व अधिकार भी यदि चाहता है तो किसी नुमाइंदे के घूरते हुए और लगभग क्रूर दिशाबोधों के बीच नहीं ।

यदि यह मान भी लिया जाये कि नक्सलवाद अपने मूल निहितार्थों में आदिवासियों, दलितों, पीड़ितों के लिए सुखद स्वप्नों को साकार करने का संघर्ष था और प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ख़ामियों से निपटने के लिए कथित विकल्प भी, जिसके फाँसे में आकर आदिवासियों के भी स्वप्न जाग उठे तो भी उसे हिंसक संघर्ष और अंततः आत्मघातकता में न कभी विश्वास था न कोई जातीय अभिरूचि । जिसे आधुनिक सिद्धांतकार शास्त्रीय मानवीय विकास कहते हैं उस पर तो आदिवासी का कोई लगाव भी नहीं रहा है ।

भूले-भटके और जानलेवा दबाबों के मध्य यदि वह नक्सलियों के साथ है तो यह उसकी विवशता है परिनिष्ठित आस्था और वैचारिक निर्णय तो कदापि नहीं। उसे यह कहाँ पता था कि कभी हित-प्रीत का मोहजाल फैलानेवाला शिकारी उसकी ही बेटी-बहनों की अस्मतें लूटने पर आमादा हो जायेगा । उसके ही अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर देगा । प्रचलित और संभावित विकास के मार्ग पर ही काँटे बिछा देगा । उसके ही धर्म-कर्म और परंपरा के खंडन की शर्त पर विकास का मंत्र रटायेगा । जीवन-लक्ष्यों की ग़लत परिभाषा को सर्वोच्च और अंतिम बनाने पर उतारू होकर उसे जबरन बंदूक थामने को विवश करेगा कि जब तक प्रजातंत्र को नहीं उखाड़ फेंकोगे – तुम्हारे विकास का सूरज उगेगा ही नहीं । पर आदिवासियों का विश्वास कभी नहीं रहा । यह दिल्ली में रहकर नहीं समझा जा सकता । वर्षों बस्तर के आदिवासियों के बीच रहने के बावजूद बैरियर एल्विन भी पूरी तरह से आदिवासियों को नहीं समझ पाये, आशुतोष कैसे समझ गये ?

वैसे भी हिंसा के लिए प्रजातंत्र में कोई जगह नहीं है । हिंसा से प्राप्त लक्ष्य या राज्य व्यवस्था में इसकी कोई गारंटी नहीं कि वह फिर से हिंसक न हो उठे । जो आदिवासी पिछले चार-पाँच दशकों से इस दर्शन पर विश्वास करते रहे हैं वे भी अब जान चुके हैं कि उनके हितैषी बनने का स्वांग भरनेवाले नक्सलियों के पास विकास के नाम पर वर्तमान पीढ़ी के लिए तथाकथित शहीद होने के हसीन सपनों के अतिरिक्त कुछ भी नही है ।

सलवा जुडूम मूलतः उस शोषणकारी साधनों और हिंसा के बल पर आधारित अंध व गैरजनतांत्रिक राजनीतिक दर्शन की जड़मति तंत्र से मुक्ति का आंदोलन है । वहाँ, जैसा कि समझाया जाता रहा है कि वह आदिवासियों के विरूद्ध आदिवासियों का सरकार समर्थित दमनात्मक मुव्हमेंट है, एक सफेद झूठ के अलावा कुछ भी नहीं । सच्चाई यही है कि इसके पूर्व 9 वें दशक में बस्तर में नक्सलियों ख़िलाफ़ आदिवासी एकजूट होकर आंदोलन कर चुके हैं । और सच्चाई यह भी कि तब नक्सलियों के विरूद्ध आदिवासियों का वह आक्रोश उस झूठे समझौते के शब्दजाल पर थमा था जिसमें नक्सलियों द्वारा आदिवासियों के ख़िलाफ़ किसी रणनीति की मनाही की स्वीकृति केंद्र में थी । परन्तु आदिवासियों के गाँव लौटते ही उनके करीब 300 नेताओं की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी ।

महत्वपूर्ण यह नहीं कि सलवा जुडूम आदिवासी अपनी अस्मिता के रक्षार्थ क्यों न चलाये और उसे हर जनतांत्रिक सरकारें अपने सुरक्षात्मक घटकों के सहारे क्यों न सहारा दे । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस समय आख़िर सलवा जुडूम का विरोध कौन लोग कर रहे हैं ?

सलवा जुडूम का मतलब आदिवासी इलाकों से नक्सवादियों से अलगाव का विनम्र प्रार्थना है । एक शांतिपूर्ण अपील है कि भाई, बस अब बंद करें । हमें ऐसे पहरुए नहीं चाहिए जो हमें हिंसक बनाने पर आमादा है । जो हमें ही अपनी हिंसा का शिकार बना रहा हो । कि हमें ऐसा विकास भी नही चाहिए जिसके मूल में सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंसा है या फिर विध्वंस ही विध्वंस है । बस्तर का आदिवासी भी यह भली भाँति जानता है कि वहाँ मारा जानेवाला केवल आदिवासी है । चाहे वह किसी की गोली से मरे ।

सलवा जुडूम का विरोध दरअसल नक्सली ही कर रहे हैं जो नहीं चाहते कि नक्सलियों के गढ़ बस्तर से उन्हें पलायन करना पड़े । यहाँ यह बताना लाजिमी होगा कि अबूझमाड़ आज माओवादी रंगरुटों को प्रशिक्षित करने का एशिया और संभवतः विश्व के सबसे सुरक्षित ट्रेंनिंग सेंटर में से एक है । दरअसल अब तक चाहे जिस किसी भी कारण से हो, आदिवासियों की दबाबपूर्ण सहानुभूति नक्सलवाद पर थी जिसके सहारे नक्सली बस्तर जैसे गरीब और जंगली क्षेत्र में अपने पाँव पसारते रहे । यदि वही आदिवासी उनका विरोध करें, तो यह सिर्फ़ माओवादियों के लिए हानिप्रद है । यह माओवादी तथा उनके समर्थक कैसे बर्दास्त कर सकते हैं ?

सलवा जुडूम को आदिवासियों का दमनकारी सरकारी प्रयास निरूपित करने वाले लेखक अक्सर यह जानबूझ कर छूपा जाते हैं कि आख़िर नक्सलवाद का एकमात्र साधन भी हिंसा, आंतक और आदिवासियों सहित शासकीय तंत्र का दमन और विरोध ही तो है । जो यह कहते हैं कि सलवा जुडूम आदिवासियों के दमन की प्रविधि है वे एक तरह से यह भी कहते होते हैं कि बस्तर के आदिवासी नक्सलियों का विरोध न करें, आम जन को नक्सलियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का कोई हक नहीं है, बुद्धिजीवी उनके प्रतिरोध में न लिखें, भले ही वे उनके हाथों लगातार मारे जाते रहें ।

यानी नक्सलियों की कार्यवाही अहिंसक है और आदिवासियों की कार्यवाही हिंसक ! कितना हास्यास्पद तर्क है । ऐसा दोहरा मापदंड कैसे चलेगा ? सलवा जुडूम का विरोध तभी ठीक हो सकता है जब नक्सली हिंसा त्याग दें । वे अहिंसक हुए बिना यदि सलवा जुडूम को हिंसा का साधन कहें तो यह पाँचवी पास वाले विद्यार्थी के गले भी उतरने से रहा । सलवा जुडूम के विरोध का मतलब न केवल आदिवासी प्रतिरोध का दमन है अपितु वह उस उस आदिवासी जनमत का भी विरोध है जिसके सहारे 11-11 विधायक विधान सभा में उनकी आवाज बने हुए हैं। यदि ऐसा न होता तो ऐसे नक्सली कम से कम एक विधायक तो अपनी ओर से आदिवासियों के हित के लिए विधानसभा पहुँचा चुके होते । हम सभी जानते हैं कि वे उस विकास के पक्षधर नहीं है जो निर्वाचित प्रतिनिधि के हाथों संपन्न हो । वे यह भी नहीं चाहते कि चुनाव में आदिवासी अपनी प्रतिभागिता रेखांकित करे । यानी कि सभी प्रजातांत्रिक मूल्यों, तकनीकियों और सहारों से वह दूर रहे । इसका आशय तो यही हुआ कि नक्सलवाद मूलतः प्रजा विरोधी अवधारणा है । प्रजातंत्र विरोधी अवधारणा है ।

यदि नक्सलवाद प्रजातंत्र के विरोध में है तो ऐसा कौन सा शासन तंत्र होगा जो उसके लिए संवेदनशील होगा ? उसे मुख्य धारा में लाने की कोशिश करेगा ? उससे संवाद कायम करेगा ? और ऐसा किस मुँह से कहा जा सकता है कि बंदूक के साथ चर्चा करे सरकार ? बंदूक साथ रखकर चर्चा केवल गुंडे, मवाली, डाकू ही करते हैं । सरकारें नहीं । यदि सरकारें यही करने को बाध्य की जाती है तो वह खुद प्रजातंत्र विरोधी साबित होती है । ऐसी स्थिति में यदि आदिवासियों के प्रजातांत्रिक उपायों को कोई भी सरकार अपना समर्थन नहीं देगी तो वह क्या करेगी। वह दमित लोगों के साथ रहेगी या दमनकारियों के साथ ? वह बहुसंख्यक जनता के साथ रहेगी या अल्पसंख्यक नक्सलवादियों के साथ ?

छत्तीसगढ़ की सरकार और पुलिस यदि हिंसा के साये में जीने के लिए संशकित हो चुके 2 करोड़ से अधिक जनता के लिए जूझ रही है तो एक प्रजातांत्रिक उत्तरदायित्वों के दबाब में । यदि यही तानाशाही है तो उन 50 हजार नक्सली हिंसवादियों की गतिविधियों को क्या कहा जायेगा ? यह भी लेखकों को समझना होगा और तय भी करना होगा कि क्या वे ऐसी व्यवस्था दे सकेंगे जिसमें पुलिस की कोई आवश्यकता न हो इसलिए केवल सलवा जुडूम की आलोचना करना और सलवा जुडूम जैसे गांधीवादी मार्गों के लिए विवश हुए आदिवासियों की ओर से कहने के समय मौन साध जाना प्रजातांत्रिक दृष्टि से नक्सली होना ही है क्योंकि नक्सली यही कर रहे हैं। नक्सली केवल हिंसक होना नहीं हिंसक विचारों का अनुसमर्थन करना भी है । यदि ऐसे लेखक जो सलवा जुडूम को आदिवासियों का दमन निरूपित करते नहीं थकते तो उन्हें एकाध बार यह कहते हुए भी सुना जाना चाहिए कि प्रजातंत्र में हिंसा, दमन, आतंक के सहारे आदिवासियों का कौन सा भला नक्सली करने जा रहे हैं ? ऐसे लेखकों को इसलिए भी नक्सलवादी माना जाना चाहिए क्योंकि वे अपने विचारों से अंततः खूनी संघर्ष को प्रोत्साहित कर रहे हैं । यदि उनकी बौद्धिकता में नौकरी पेशावाले पुलिस द्वारा हिंसक नक्सलियों का दमन ही मानवाधिकार का प्रश्न है और आदिवासियों की निर्मम हत्या और शोषण नक्सलवादियों की राजनीतिक संघर्ष का परिणाम है तो भी ऐसे लेखकों को इसी श्रेणी में रखने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए ।

सच्चा लेखक अंधा नहीं होता । काना नहीं होता । उसे सबकुछ दिखाई देनी चाहिए । यदि वह वही देखता है जिसे किसी खास गुट के द्वारा दिखाया जा रहा हो तो वह निश्चित रूप से अविश्वसनीय है ।

यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि सलवा जुडूम का विरोध करने वाले और आदिवासियों के हितचिंतक बने बैठे ऐसे लेखकों ने कभी भी उन मौत के सौदागर बने नक्सलियों का कभी विरोध नहीं किया जो सलवा जुडूम से पहले भी आदिवासियों की जघन्य हत्या के बल और आंतक पर प्रजातंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा थे । तब शायद ही किसी ऐसे लेखक ने आदिवासियों के नक्सलियों द्वारा किये जा रहे मानवाधिकारों के हनन का प्रश्न उठाया हो । कभी इसे लेकर दुबले हुए हों । ऐसे लेखक को क्योंकर नक्सलवादी नहीं कहा जा सकता जो पुलिस को इंसान नहीं मानते, जो मौत के घाट उतारे जाने के लिए ही विवश नहीं है । जिस लेखन में नक्सलियो की गोली से मारे जाने वाले पुलिस के लिए कोई जगह न हो किन्तु पुलिस की गोली से मारे जाने वाले दुर्दांत नक्सलियों के लिए आँसूओं का विशाल भूगोल हो उसे नक्सली न माना जाये तो क्या माना जाये ।

यदि लेखक के अनुसार अप्रैल, 2008 में 'सलवा-जुडूम' के सन्दर्भ में छत्तीसगढ़ की सरकार से सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: 'यह सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का सवाल है। आप किसी भी नागरिक को हथियार थमाकर यह नहीं कह सकते कि जाओ, हत्याएँ करो! आप 'भारतीय दंड संहिता' की धारा 302 के तहत अपराध के उत्प्रेरक ठहराये जायेंगे।' तो इसका लेखक को सर्वोच्च न्यायालय के उस मार्गदर्शी राय का आशय यह भी नहीं लेना चाहिए कि बस्तर में नक्सलवाद से संत्रस्त आदिवासी अपनी आत्मरक्षा भी न करें । उनकी गोलियों के सामने अपने बहु-बेटियों, भाई-बेटों को केवल खड़ा करता चला जाये । यानी चुपचाप नक्सवाद के सामने अपने घुटने टेक दें ।

सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शी राय, जिसे न्यायलयीन शब्दावली में आबीटर-डिक्टा कहा जाता है वह जजमेंट नहीं होता और वह प्रकरण अभी भी न्यायालय में विचाराधीन है यह नक्सली तथा उनके समर्थक बुद्धिजीवी तथा लेखक भली-भाँति जानते हैं । इसी प्रकार यह भी झूठा प्रचार किया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने विनायक सेन को इसलिये bail पर छोड़ दिया गया क्योंकि सेन के खिलाफ़ कोई केस नहीं बनता, जबकि हक़ीक़त यह है कि आज भी सत्र न्यायालय में विनायक सेन के ख़िलाफ़ केस चल रहा है । यह तो कानून पढ़नेवाला विद्यार्थी भी जानता है कि bail देने का तात्पर्य यह नहीं कि केस ही नहीं बनता । यह सब प्रचारित कर माओवादी समर्थक सभी को गुमराह करने में लगे हुए हैं ।

ऐसे न्यायलीन दिशाबोधों में सिर्फ अपने मतलब की सिद्धि से नाच उठने वालों को क्या बस्तर का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? आदिवासियों का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? मानवता का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? प्रजातंत्र का हितैषी माना जा सकता है ? विकास का रास्ता तलाशनेवाला लेखक माना जा सकता है ? प्रजातंत्र की ख़ामियों के बरक्स विकास की कथित नयी दृष्टि देनेवाला लेखक माना जा सकता है ? प्रश्न यह भी कि इसका उत्तर क्या सिर्फ़ सरकारे देंगी, पुलिस ही देगी ? जनता नहीं देगी ? ऐसे लेखक नहीं देंगे? ऐसे मानवाधिकारवादी नहीं देगें ? यदि जनता के तथाकथित सरोकारों से जुड़े ऐसे लेखक सुरदासीय तत्ववेत्ता बने रहने चाहते हैं तो यह भी स्पष्ट है कि वे लेखक नहीं कलंक हैं । जन सरोकारों के समर्थन में उत्तेजित होकर उठ खड़े होने वाली एकांगी प्रतिबद्धता से वास्तविक जनविकास असंभव है । न प्रजातंत्र में, और माओवाद में तो संभव भी नहीं है । यदि ऐसा होता तो माओ लेखकों से यह न कहते किः-

“सभी प्रकार की वस्तुओं पर सूक्ष्म रूप से ध्यान दो, उनका ज्यादा से ज्यादा निरीक्षण करो, और अगर आपने थोड़ा बहुत निरीक्षण किया है, तो उनके बारे में मत लिखो”

असल सवाल सिर्फ यही नहीं है कि क्या किसी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य को 'सलवा-जुडूम 'जैसा अभियान चलाने का हक़ दिया जा सकता है?असल सवाल यह भी है कि क्या संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों की निरंतरता में अभियान कौन चलायेगा ? क्या नक्सली छत्तीसगढ़ में ऐसा कर रहे हैं जिनके लिए उन्हें राज्य सरकार द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए और उनकी ऐसी संदिग्ध गतिविधियों को संवैधानिक लोकतंत्र के लिए मान्य किया जाना चाहिए ? यदि लेखकों के पास इसका उत्तर नहीं है तो वे स्वयं समझ सकते हैं कि वे किसके भाड़े पर ऐसा लिख रहे हैं ? और ऐसे लेखन का अंततः प्रभाव प्रजातंत्र में किस ओर हो सकता है ? क्या नक्सलवादी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य तंत्र को संपुष्ट कर रहे हैं ? यदि वे नहीं कर रहे हैं तो भी क्या नक्सलवादियों के जुल्म से निपटने के लिए आदिवासियों के साथ खड़े नहीं होना चाहिए ? और इस रूप में ऐसे लेखकों उस राज्य सरकारों पर भी विश्वास करना होगा जो संवैधानिक लोकतंत्र की परिधि में रहकर कार्य कर रही है । और वह इसलिए कि वे एकतरफ़ा संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों, कानूनों, हकों का लाभ नहीं उठा सकते, उसका दंभ भी नहीं भर सकते ।

न केवल विश्वरंजन के मुताबिक़ बल्कि 2 करोड़ जनता की दृष्टि में 'सलवा-जुडूम' के आलोचक वे नक्सली हैं, जिन्होंने तमाम मानवाधिकार संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों और जनतांत्रिक आन्दोलनों में घुसपैठ कर ली है। या यदि विशुद्ध हथियारबंद नक्सली नहीं भी हैं, तो उन्हें 'लोजिस्टिक सपोर्ट' देनेवाले हैं। संगी-साथी हैं- जैसे बिनायक सेन। विनायक सेन यदि नक्सलियों के हमदर्द नहीं होते तो उनकी जमानत पर रिहाई में समूचे बस्तर में नक्सलियों द्वारा हर्षोल्लास भरा त्यौहार जैसा माहौल नहीं मनाया जाता । इतना ही नहीं, वे कभी न कभी उन आदिवासियों के लिए भी दो आँसू ज़रूर जुटा लिये होते जिनके वे हितैषी होने का अंतरराष्ट्रीय प्रचार करते रहे हैं ।

'तहलका' (अँग्रेज़ी) के जिस कथित ताज़ा अंक में उन आदिवासी युवतियों के विस्तृत बयान का जिक्र करते हुए लेखक ने उनके साथ 'ख़ास पुलिस अफ़सरों'(एसपीओज़) व आम पुलिस की मदद से नृशंस बलात्कार का सवाल खड़ा किया है । इसके संबंध में लेखक की जानकारी मूलतः एकांगी और अपूर्ण है । एकांगी इसलिए कि संवैधानिक नियमों, कानूनों के तहत लगभग सभी दोषी सिद्ध हुए तत्वों को दंडित करने क प्रक्रिया जारी है । और यह बिजली के किसी स्वीच को दबाने से संभव नहीं है । जहाँ तक ऐसे नृशंस बलात्कार का सवाल है वह नक्सलियों द्वारा किये जा रहे यौन शोषण के सामने कुछ भी नहीं है । ऐसे लेखकों के समक्ष एक घटना का जिक्र करना लाजिमी होगा जिसमें नक्सलियों के यौन शोषण से प्रताड़ित और गर्भवती आदिवासी महिला ने इसलिए अपने बच्चे को जन्म देने से इंकार कर दिया क्योंकि वह अपने बेटे को नक्सली का बेटा नहीं साबित करना चाहती थी । न केवल आदिवासियों बल्कि संपूर्ण मानवता के हिमायती लेखक ऐसी घटनाओं के दौरान कहाँ चले जाते हैं, समझ से परे नहीं हैं ।

लेखक का लगता है किसी भी संवैधानिक तंत्र पर कोई विश्वास नहीं है । और नक्सकलियों की भी नीति है कि किसी भी डेमोक्रेटिक युनिट पर विश्वास न करो किन्तु ज़रूरत और समय की नज़ाकत के मुताबिक उनकी ताकतों का सहारा लो और कमजोरियों पर प्रहार करो । ठीक उसी तरह जिस तरह लेखक ने संवैधानिक तंत्र की दुहाई भी दिया है ठीक दूसरी ओर छत्तीसगढ़ पुलिस और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' की जाँच टीम को भी प्रश्नांकित किया है । अब नक्सलियो के सिद्धांतो, रणनीतियों के सदृश कोई लेखक भी अपने तर्कों की पुष्टि करे तो उसे क्योंकर नक्सलियों या नक्सलवाद का संरक्षक लेखक नहीं कहा जाना चाहिए ?

अब ऐसे लेखकों के बारे में क्या कहा जाय जो 'फ़ोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डॉक्युमेंटेशन एंड एडवोकेसी' के उसके अध्ययन की फाईंडिंग को अपने पक्ष में प्रस्तुत करके कहे कि केवल दंतेवाड़ा के दक्षिणी ज़िले में 'सलवा-जुडूम' ने बारह हज़ार नाबालिग़ बच्चों का इस्तेमाल किया है और जो यह जानबूझकर नहीं कहता कि नक्सलियों ने बस्तर, राजनांदगाँव सहित अन्य प्रभावी क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार से नाबालिक बच्चों को घर से हकाल कर उनके हाथों बंदूक या एके राइफल थमा दिया है । लेखक को केवल वही वेबसाइट दिखाई देती हैं जो उनके पक्ष में हों, वे उन वेबसाइटों को नहीं देखते जो उनकी धज्जी उड़ाने के लिए काफी हैं । मैं इंटरनेट तकनीकी से पूर्णतः अनभिज्ञ ऐसे लेखक के प्रति क्या कहूँ तो विकीपीडिया को सर्वाधिक प्रमाणित मानते हैं । उन्हें यह नहीं पता कि यह ऐसी साइट है जिसे स्वयं पाठक ही रचता है । बहरहाल, उन्हीं के द्वारा उठाये गये मुद्दों के अनुक्रम में कहें तो 'सलवा-जुडूम' के चलते दहशत में जीनेवाले आदिवासियों की आबादी कम-से-कम डेढ़ लाख है। एक झूठ है । सच तो ऐसे लेखक भी जानते हैं कि उन्हें सलवा जुडूम की स्थिति तक लाचार बनाने नक्सलियों के कारण सारा बस्तर लगभग निर्वासित है, सांसत में है ।

चलें लेखक महोदय के अनुसार मान भी लें कि आदिवासी बड़े पूँजीवादी ताकतों के हाथों अपनी ज़मीन को बिकने से बचाने के लिए लड़ रहे हैं और ऐसे में जब उनकी सहानुभूति अर्जित करने के लिए नक्सली कूद पड़ते हैं तो आदिवासी उनका क्या करें ? यानी कि नक्सलियों के दबाब और पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत आदिवासी को उकसाकर और उन्हें आगे रखकर उन्हें हिंसक होने पर उतारू बना दिये जायें । इसका एक मतलब यह भी है कि प्रशासन जब कानून और व्यवस्था को अधिनियमित बनाये रखने के लिए कड़ाई करे तो उसे नक्सली आदिवासियों के दमन और मानवाधिकार का मुद्दा बनाकार भी उछाल सकें । यानी कि नक्सलियों के दोनों हाथों में लड्डू होना चाहिए । उस लेखक की वह मानसिकता और एकांगी जीवन दर्शन भी अमान्य किया जाना चाहिए जिसमें वह राज्य के बरक्स आदिवासियों को हिंसा का सहारा लेने को समुचित करार दे किन्तु यदि आदिवासी ही जब ऐसे नक्सलियों के बंदूक, बम, लैड माईन्स से मरता चला जाये या उनके आंतक, शोषण से त्रस्त होकर सलवा जुडूम के रूप में एकजूट तक न हो सके । क्योंकि उससे आदिवासी की ही हानि है । लेखक का यह कितना हास्यास्पद तर्क है कि गाँधीजी के अनुसार विराट हिंसा के सामने आत्मरक्षा के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़े तो अनुचित नहीं । लेखक को यह कब समझ में आयेगा कि नक्सलियों द्वारा निहत्थे आदिवासियों की हत्या, नवजात बच्चों का कत्ल, जवान महिलाओं का यौन शोषण, उन्हें बरगला कर माओवादी बनाना भी एक वही हिंसा है जो गांधीजी के अनुसार अमानवीय है और इस नाते वर्जनीय व निंदनीय भी । लेखक का ध्यान उधर कब तक जानेवाला है समझ से परे है ।

लेखक के ऐसे कुतर्क आश्रित अर्थशास्त्रीय चिंतन को पढ़कर शर्म आना लगता है जिसमें नक्सलियों द्वारा अवैध रूप से की जा रही उगाही, व्यापारियों से नियमित वसूली, आदिवासियों की शारीरिक और आर्थिक शोषण, अवैध तरीकों से खरीदे जा रहे शस्त्रों पर होनेवाले व्यय को खर्च नहीं माना जाता और ऐसे नक्सलियों से स्वयं को बचाने के लिए आदिवासियों द्वारा लगाये जाने वाले गुहार यानी सलवा जूडूम के एसपोज, विशेष सुरक्षा अधिकारी पर होनेवाले व्यय पर आपत्ति जताती जाती है । अर्थात् लेखक को इस बात की तनिक चिंता नहीं कि नक्सली किस तरह वैश्विक चैनलों से जूडकर अवैध अस्त्र-शस्त्र इकट्ठा कर रहा है । ऐसा लेखकीय द्वैध लेखक होने की बुनियादी गरिमा को ही ध्वस्त कर देता है जिसमें लेखक की यह बात समझ से परे है - सरकारी धन के व्यय पर सामाजिक आडिट की व्यवस्था हो पर नक्सलियों द्वारा स्थापित समानांतर अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ कुछ हो चाहे न हो ।

जो प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान और उसके पदाधिकारियों द्वारा आयोजित (10-11 जुलाई, 2009, रायपुर) राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी को राज्य सत्ता का आयोजन कहते हैं उन्हें हम यह चेताना चाहेंगे कि वे उन साहित्यकारों का अपमान कर रहे हैं जिनके बारे में वे जानते तक नहीं, और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय सृजनरत हैं । लेखक को यह गर्वोत्ति शोभा नहीं देती कि वे ही सरोकारी लेखन से जुड़े हैं शेष सब भोथरे हैं । यह लेखक का बौनापन है कि वे उसकी आलोचना करें जिसके बारे में बके जा रहे हैं उन्हें न तो साम्यवाद से कोई विशेष लेना देना है न ही गांधीवाद से । उन्हें न तो माकपा पर विश्वास है न ही भाजपा या फिर कांग्रेस आदि किसी राजनीतिक विचारधारा से । सिर्फ़ समवाय संस्कृति और साहित्य के लिए । ऐसे आग उगलनेवाले साहित्यकार को कोई अधिकार नहीं कि वे किसी अन्य संस्था पर कीचड़ उछालें । कीचड़ पर पैर डालने से कीचड़ ख़ुद की क़मीज की सुफैदी को भी मैला कर देता है यह भूलाना एक लेखक के लिए कम से कम अधर्म है । अनैतिकता है । अमर्यादित चेष्टा है । शायद ऐसे टेबिल राइटिंग करनेवाले ऐसे पत्रकारनुमा लेखकों को यह भी नहीं पता होता कि उनसे हजारों, सैकड़ो कोसों दूर का साहित्यकार किस मानसिकता का है, किन विचारों का है, किसके पक्ष में है और किसके विरोध में है । जो लोग ऐसा सोचते हैं वे लोग यह भी तय मानते हैं कि लेखन सिर्फ़ विचार है । वह किसी एक वर्ग या समुदाय की हितों के प्रति प्रतिबद्धता है । शेष जाये भाड़ में..... । शेष को हाशिए में रखकर निष्कर्ष देनेवाले को तानाशाह कहा जाता रहा है यह भी कौन याद कराये ऐसे पार्टीलेखकों को ।

यह आशुतोष जैसे दूरदर्शक लेखक का दोष नहीं है जो न तो विश्वरंजन के बारे में जानते हैं न ही बस्तर के बारे में, सलवा जूडूम के बारे में तो कतई नहीं जानते । शायद वे इसीलिए प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष (न तो स्वयंभू, न ही राज्य सरकार के किसी किसी विभाग द्वारा बिठाये गये, बल्कि राज्य के लगभग सभी बड़े साहित्यकारों की कार्यकारिणी द्वारा चयनित ) के बारे में अनर्गल प्रलाप करते हुए उन्हें पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़ से जोड़ देते हैं । चीज़ों को मिक्सअप करके देखना शायद उनके लिए अपनी बात मनवाने का सरलीकरण जैसा है ।

आशुतोष की यह दोष तो माफ करने योग्य भी है कि वे सलवा जुडूम के रणनीतिकार के बारे में जानते ही नहीं तो क्यों न विश्वरंजन या किसी को भी कुछ भी अनाप शनाप गाली न बक दें । क्योंकि उन्हें नक्सलियों के स्थानीय हितचिंकतों द्वारा जैसा सिखाया-पढ़ाया जा रहा है वह वैसे ही तो बोलेंगे । जो भी हो, आशुतोष जैसे लेखक की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि वे कम से कम यह सच तो स्वीकार करते ही हैं कि विश्वरंजन केवल पुलिस अधिकारी नहीं है, एक विचारवान लेखक भी हैं, जिनकी प्रजातंत्र को बचाने के लिए लेखन पर गहरी आस्था भी है । यह तो ठीक है कि किन्तु आशुतोष जैसे दया के पात्र लेखक को जाने क्यों, मुक्तिबोध के परम मित्र और सच्चे अर्थों में उन्हें मुक्तिबोध बनाने वाले आलोचक प्रमोद वर्मा, उनके नाम पर बनने वाले संस्थान, उनके पदाधिकारी साहित्यकारों, अपने पूर्वजों को याद करने के संघर्ष और आस्था और उनके नाम से होनेवाले साहित्यिक आयोजन से एलर्जी है, जो उसकी कुढ़कर निंदारस ले रहे हैं । शायद इसलिए कि वे या उनके मति से जो हो वही साहित्यिक है शेष असाहित्यिक । वे ही मनुष्य और उसकी संस्कृति के संरक्षक हैं शेष अमनुष्य और संस्कृति-भक्षक । यार अपनी दुकान पर विश्वास करो ना, क्यों दूसरे की समृद्धि देखकर अपनी नींद खराब करते हैं । फिर न तो आपको बुलाया गया है न कभी बुलाने के योग्य आप हो पायेंगे, क्योंकि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के आयोजन में आप जैसे कुंठित और कथित लेखकों के लिए कोई जगह है भी नहीं । हाँ आप चाहें तो जिसको भड़का सकते हैं, भड़काते रहें । हम अशोक बाजपेयी की दिल्ली से यदि दिल्ली दर्प दमन जैसा कोई काम कर रहे हैं तो आपको अपनी दिल्लीवाली किले को और अधिक मजबूत बनाने की दिशा में लगना चाहिए न कि खिसियानी बिल्ली की तरह खम्भा नोंचना चाहिए । यदि आपको माओ भाते हैं तो गाते रहिए । व्यक्तिगत आपेक्ष क्यों लगाते हैं संस्था पर । किसी राज्य पर । किसी राज्य की आस्था पर । लेखकों की निजी अवधारणाओं पर ।

आप अपने सामान्य ज्ञान को जरा दुरुस्त करने के अंहकार से मुक्त हों तो बताऊँ कि महानुभाव, सलवा जुडूम की शुरुआत और विस्तार के समय विश्वरंजन न तो राज्य में पदस्थ थे न ही वे पुलिस महानिदेशक थे । इसलिए वे इसके रणनीतिकार भी नहीं है । जैसे आपको सलवा जूडूम में बुराई दिखती है और विश्वरंजन को अच्छाई तो यह निजी आप लोगों का विचार है । आप बस्तर के निवासी या राज्य के निवासी तो है नहीं कि पूरी तरह जान सकें कि आप जिस गिलास को देख रहे हैं वह आधा खाली है या आधा भरा हुआ । आइये दो चार साल बस्तर या छत्तीसगढ़ का निवासी बनकर देखिए, फिर बस्तर की किसी चीज़ पर बकिये.... । आपको किसी ने दूरवाला ढोल पकड़ा दिया तो उस पर मत जाइये कि वही सुहावन लगेगा ।

यह तो हमें आपसे ही पता चला कि आप जैसे लोग हिन्दी के बड़े कवि-लेखकों को समारोहों में जय-जयकार करने के लिए बुलाते हैं । अब मै आपकी मूर्खता पर क्या कहूँ कि जब आप आयोजन में ही नहीं कि किसने किसके सूर में किसे लांछित करने के लिए सुर मिलायेंगे । लगता है आप माओवादियों से अधिक कुंठित हो चुके हैं जो यह कह रहा है कि विश्वरंजन को अपनी रणनीति की कामयाबी पर गर्व क्यों न होगा! आप ईर्ष्यालु टाइप के इंसान हैं जो हमें यानी कि संस्थान के सभी पदाधिकारियों को मूर्ख और स्वयं को परम विद्वान और परम दृष्टा समझते हैं ।

मूझे आपकी टिप्पणी पर तरस आता है कि साहित्यिक संस्थान के अध्यक्ष के कर्मक्षेत्र में पुलिस प्रमुख हो जाने मात्र हो जाने से संस्थान पुलिस प्रमुख का दलाल हो जाता है । राज्य का दलाल हो जाता है । जिस कोकिया भय से आप दुबले हुए जा रहे हैं। इसका मतलब तो यही हुआ कि यदि आप किसी लेखक संगठन के प्रमुख हों और आपको कोढ़ है तो सभी को कोढ़ हो जायेगा । क्या आप बताना चाहेंगे कि आपके ऐसे कितने मित्र पुलिस या सेना में नहीं है और जो पुलिस या सेना के कथित अत्याचार से अधिक अत्याचार अपने पत्नी, परिवार, समाज, देश के साथ कर रहे हैं । क्या आप यह भी बताना चाहेंगे कि आपके ऐसे कितने मित्र लेखक पुलिस में हैं जिन्हें पुलिस में नहीं होना चाहिए तो क्या आपने उनसे इस्तीफा लिवाया ? या वे इस्तीफा देंगे ।

मित्र औरों पर थूकना छोड़ो, अपना काम देखो, आपका हम साहित्यकारों पर यह इल्जाम किसी भी कोण से फबता नहीं है । फिर आप कब से हमारे विरोधी हो गये जिसकी पाइप लाइन काटने के लिए राज्य के हम साहित्यकार सांस्कृतिक सलवा जूडूम चला रहे हैं । और आपको कैसे पता चल गया कि अमूक हमारा सहयोगी है, इसका मतलब तो यह भी हुआ कि वह आपका विरोधी है । और आपका काम केवल विरोध करना ही है । अपने खोल से बाहर निकलिए, दुनिया को देखिये, दुनिया की गति को देखिये, यदि दुनिया की गति को नहीं देखेंगे तो पिछड़ जायेंगे, क्योंकि यदि आपके जीवन मे गति ही नहीं रह जायेगी तो फिर वहाँ क्या बचेगा । माओवादी के देश में भी गति को पकड़ी जा रही है और आप हैं कि वही पुराना राग अलापे जा रहे है......