इन दिनों हवाई विश्विविद्यालय अमेरिका में धर्मशास्त्र के प्रोफेसर रामदास लैब छत्तीसगढ के जनपद में डेरा डाले हुए हैं । हमें पता चला । वे बच कैसे सकते थे। सृजन-सम्मान और वैभव प्रकाशन के न्यौता पर उन्होंने त्वरित 'हाँ' कह दिया, बडे ही सरल अंदाज में । चट व्याख्यान भी आयोजित हो गई । उन्होंने बडी ही चौकाने वाली बांते कहीं -
" हिन्दू धरम-ईसाई धर्म अलग-अलग नहीं हैं । ये सब एक ही ईश्वर की सत्ता पर आधारित हैं । सभी धर्मों में इतिहास, दंतकहानियाँ शामिल होती हैं । गायन, कीर्त्तन, मंचन के माध्यम से लोग ईश्वर की शक्ति को व्याख्यायित करते हैं और उसके प्रभाव को आत्मसात करते हैं । वेदों के इतिहास जानने की जब हम कोशिश करते हैं तब उनके लेखकों का काल वास्तव में ज्ञात नहीं होता है । इसे जानने के लिए वेदों की मौखिक परंपरा को जानना जरूरी है । वाचिक पंरपरा को पिछडा समझ कर हाशिये में रखना भूल होगी । वाचिकता की सबसे बडी ताकत लोक-आस्था है । शब्द में ही विश्वास है । प्रत्येक शब्द का अपना एक विश्वास सामर्थ्य है । जितनी लोक भाषायें है सबकी अपनी-अपनी भक्ति-शक्ति-अनुरक्ति पध्दति हैं । किसी भी लोकभाषा का लोप उसमें निहित रसायनों, विचारों का भी लोप है । यहूदी लोग समझते हैं कि ईश्वर हिब्रु भाषा में वार्तालाप करते हैं । इसी तरह मुसनमानों का विश्वास है कि पैगंबर अरबी भाषा में बांते करते हैं । "
जब मैंने अपनी जिज्ञासावश पश्चिम और पूर्व की सीमाओं और चारित्रिक विस्तार पर प्रश्न करता हूँ तो वे सकुचाते हुए कहते हैं -
" भारत की सबसे बडी न्यूनता अस्पृश्यता है । पश्चिम इससे मुक्त है । पश्चिम भौतिकता का शिकार है । यह सुखद है कि भारतीयता का मूल-स्वर आध्यात्मिकता है । यही पश्चिम की सीमा है ।" वे जब कहते हैं कि हैं कि पश्चिम ने कभी भी भारतीय जीवन-दर्शन को नहीं समझा । और समझा तो अपने समय के ज्ञान-दृष्टि से तो हम भारतीयों के लिये एक गहरी आश्वस्ति का पाठ मिल जाता है ।
क्या डॉ.सुधीर शर्मा, वैभव प्रकाशन को हम धन्यवाद नहीं दें जो यदि चाय का आग्रह नहीं करते तो प्रो. लैंब को यह कहते नहीं सुन पाते हम, कि नहीं भाई साहब, आज मंगलवार का व्रत है । यानी हनुमान जी के नाम पर अमेरिकन बुद्धिजीवी का फलाहारी उपवास ।
मैं तो विदेशी काव्य के रसिक संतोष रंजन जी को भी यहाँ याद करना चाहता हूँ जो प्रो. लैंब से उगलवा ही लेते हैं - "बाइबिल के मूल और प्रचलित प्रतियों में पर्याप्त अंतर है ।" प्रो. लैंब को जब डॉ.शोभाकांत झा, बबन मिश्र, संजीव ठाकुर, डॉ. शलभ, गिरीश पंकज आदि प्रश्न करते हैं तो वे यह कहकर और भी चौंकाते हैं कि पश्चिम की दुनिया वालों की नजर में अब भारत अनपढ, गंवार नहीं रहा । वह आज भी वहाँ के युवाओं को जीवन-बोध की संस्कृति के लिए आकर्षण महाभूगोल है ।
जब लैब जैसा विदेशी विद्वान कबीर और राम को अपना आराध्य कवि मानने की चर्चा बडे सहज ढंग से झेड देते हैं, तब कैसे भला छत्तीसग़ढ के लोक-गौरव और देश में लोक-संगीत में कबीर की साक्षात तस्वीर खेंच देने वाले चित्रकार के रूप में प्रतिष्ठित भारती बन्धु का कंठ लैब को भी झूमने को मजबूर नहीं कर देता ।
" हिन्दू धरम-ईसाई धर्म अलग-अलग नहीं हैं । ये सब एक ही ईश्वर की सत्ता पर आधारित हैं । सभी धर्मों में इतिहास, दंतकहानियाँ शामिल होती हैं । गायन, कीर्त्तन, मंचन के माध्यम से लोग ईश्वर की शक्ति को व्याख्यायित करते हैं और उसके प्रभाव को आत्मसात करते हैं । वेदों के इतिहास जानने की जब हम कोशिश करते हैं तब उनके लेखकों का काल वास्तव में ज्ञात नहीं होता है । इसे जानने के लिए वेदों की मौखिक परंपरा को जानना जरूरी है । वाचिक पंरपरा को पिछडा समझ कर हाशिये में रखना भूल होगी । वाचिकता की सबसे बडी ताकत लोक-आस्था है । शब्द में ही विश्वास है । प्रत्येक शब्द का अपना एक विश्वास सामर्थ्य है । जितनी लोक भाषायें है सबकी अपनी-अपनी भक्ति-शक्ति-अनुरक्ति पध्दति हैं । किसी भी लोकभाषा का लोप उसमें निहित रसायनों, विचारों का भी लोप है । यहूदी लोग समझते हैं कि ईश्वर हिब्रु भाषा में वार्तालाप करते हैं । इसी तरह मुसनमानों का विश्वास है कि पैगंबर अरबी भाषा में बांते करते हैं । "
जब मैंने अपनी जिज्ञासावश पश्चिम और पूर्व की सीमाओं और चारित्रिक विस्तार पर प्रश्न करता हूँ तो वे सकुचाते हुए कहते हैं -
" भारत की सबसे बडी न्यूनता अस्पृश्यता है । पश्चिम इससे मुक्त है । पश्चिम भौतिकता का शिकार है । यह सुखद है कि भारतीयता का मूल-स्वर आध्यात्मिकता है । यही पश्चिम की सीमा है ।" वे जब कहते हैं कि हैं कि पश्चिम ने कभी भी भारतीय जीवन-दर्शन को नहीं समझा । और समझा तो अपने समय के ज्ञान-दृष्टि से तो हम भारतीयों के लिये एक गहरी आश्वस्ति का पाठ मिल जाता है ।
क्या डॉ.सुधीर शर्मा, वैभव प्रकाशन को हम धन्यवाद नहीं दें जो यदि चाय का आग्रह नहीं करते तो प्रो. लैंब को यह कहते नहीं सुन पाते हम, कि नहीं भाई साहब, आज मंगलवार का व्रत है । यानी हनुमान जी के नाम पर अमेरिकन बुद्धिजीवी का फलाहारी उपवास ।
मैं तो विदेशी काव्य के रसिक संतोष रंजन जी को भी यहाँ याद करना चाहता हूँ जो प्रो. लैंब से उगलवा ही लेते हैं - "बाइबिल के मूल और प्रचलित प्रतियों में पर्याप्त अंतर है ।" प्रो. लैंब को जब डॉ.शोभाकांत झा, बबन मिश्र, संजीव ठाकुर, डॉ. शलभ, गिरीश पंकज आदि प्रश्न करते हैं तो वे यह कहकर और भी चौंकाते हैं कि पश्चिम की दुनिया वालों की नजर में अब भारत अनपढ, गंवार नहीं रहा । वह आज भी वहाँ के युवाओं को जीवन-बोध की संस्कृति के लिए आकर्षण महाभूगोल है ।
जब लैब जैसा विदेशी विद्वान कबीर और राम को अपना आराध्य कवि मानने की चर्चा बडे सहज ढंग से झेड देते हैं, तब कैसे भला छत्तीसग़ढ के लोक-गौरव और देश में लोक-संगीत में कबीर की साक्षात तस्वीर खेंच देने वाले चित्रकार के रूप में प्रतिष्ठित भारती बन्धु का कंठ लैब को भी झूमने को मजबूर नहीं कर देता ।
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