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Friday, April 03, 2009

आयोग नक्सलियों के ख़िलाफ़ कब कार्यवाही करेगा ?

व्यवस्थित, पारदर्शी और शांतिपूर्ण चुनाव के लिए चुनाव आयोग बड़े से बड़े नेताओं की ऊँचाई नापने में कोई कोताही नहीं कर रहा है । जिलों में हिंसा, आंतक, अशांति फैलाने वालों को जेलों में ठूँसा जा चुका है या उन्हें दबाकर रखा जा रहा है । राज्यों के ऐसे डीजीपी, सचिवों, कलेक्टरों, पुलिस अधीक्षकों सहित छोटे-बड़े शासकीय कर्मचारियों पर भी आदर्श आचरण संहिता के नाम पर गाज गिराने में भी वह कहाँ चूक रहा है, जो उसके ही अस्थायी अंग हैं और जिसके बग़ैर उसका चुनाव कराना भी संभव नहीं । क्योंकि वह ऐसे किसी स्थायी और बृहत अमले का स्वामी तो होता नहीं, जो राज्यों में चुनाव करा सके। इस दिशा से सोचें तो उसकी भूमिका चुनाव की सफलता के लिए काबिले तारीफ़ भी है, किन्तु दूसरी ओर एक सच यह भी है कि नक्सली बेलगाम होकर चुनाव आयोग के मूल आत्मा पर पलीते लगा रहे हैं । इस पर आयोग की कोई विशेष कार्रवाई अब तक परिलक्षित नहीं हो रही है । जबकि न केवल बस्तर अपितु देश के कई राज्यों में वे चुनाव प्रक्रिया को तहस-नहस करन पर तुले हुए हैं । नक्सलियों की ये गतिविधियों क्या दृष्टि से परे हैं ? क्या इससे चुनाव आयोग के मूल उद्देश्य बाधित नहीं हो रहें हैं ? क्या इससे नक्सली इलाकों में आदर्श आचरण संहिता का मायने रह जाता है ? क्या ऐसे में चुनाव की असंदिग्धता बरक़रार मानी जा सकती है ? इन प्रश्नों से चुनाव आयोग को आज नही तो कल मुठभेड़ करना ही होगा ।


स्थानीय जनपद बस्तर की बात करें तो वह नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के फरमानों से सहमा-सहमा है । वे गाँव-गलियों में धमकी भरे पोस्टर चिपका रहे हैं। सड़कों पर हिंसक शब्दावली से ओतप्रोत चेतावनी के बैनर टाँग रहे हैं । जनता को व्होट देने पर हिंसा की धमकी दे रहे हैं। चुनाव पूर्व से ही सड़क-यात्रा को बाधित कर रहे हैं । लोकतंत्र को फ़र्जी क़रार दे रहे हैं । वे बार-बार यही दुहरा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में भाग लेने वाला हर राजनैतिक दल और उनका मैनिफ़ेस्टो जन-विरोधी है । चुनाव का विरोध करने के मतलब में चुनाव आयोग का विरोध भी सम्मिलित है और इसके लिए वे चुनाव आयोग के समक्ष भारी समस्या खड़ी करने वाले हैं । यदि उनके प्रवक्ताओं की विज्ञप्तियों और संवाददाताओं को दिये गये साक्षात्कारों के मजमून पर ग़ौर करें तो वे लोकसभा चुनाव के दिन बस्तर में भारी हिंसा और आंतक फैलाने वाले हैं । इससे पोलिंग पार्टियाँ भी सशंकित है । यह दूसरी बात है कि पुलिस और अद्धसैनिक बल इनसे निपटने के लिए कटिबद्ध है । फिर भी, देश के कई राज्यों में अंगद की तरह पाँव जमा चुके और हर बार ऐन चुनाव के वक़्त भारतीय चुनाव आयोग के निर्देशों की धज्जी उड़ाने वाले ऐसे तत्वों पर आयोग किस तरह लगाम कसने वाला है, अनुत्तरित प्रश्न है । प्रश्न यह भी उठता है कि इन्हें चुनाव पूर्व वह कैसे हतोत्साहित करना चाहता है ताकि जनता निर्भय होकर मतदान कर सके ? राजनीतिक दल जान जोख़िम में डाले प्रचार कर सकें, अपना एजेंडा बता सकें । यदि ऐसे क्षेत्रों में राजनीतिक दल सहित प्रतिनिधियों को जाने का वातावरण ही न मिल सके, जनता वोट ही न डाल सके तो यह केवल आकस्मिक व्याधि नहीं । इसका भी निदान केंद्रीय निर्वाचन आयोग को ढूँढना होगा । इससे जूझने के लिए उसे अतिरिक्त तैयारियाँ और रणनीति भी ईजाद करनी होगी । इन संदिग्ध और जटिल स्थितियों को कैसे आदर्श आचरण संहिता से परे रखा जा सकता है ?


नक्सली इलाकों में आदर्श आचरण संहिता का प्रश्न केवल बस्तर या सरगुजा का प्रश्न नहीं है । यह छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल सहित देश के कई राज्यों का प्रश्न है । चुनाव के समय मतदान बहिष्कार, नक्सली आंतक और हिंसा व्यापक तौर पर कई प्रदेशों की समस्या के रूप में स्थायी रूप धारण कर चुका है। इसके निदान के लिए राज्यों में उनसे जूझने की स्थायी रणनीतिकारों यानी पुलिस बल के मुखियाओं का समादर भी चुनाव आयोग को करना चाहिए । उनके अनुभवों का भी व्यवाहारिक उपयोग होना चाहिए । क्योंकि चुनाव आयोग मात्र दो या तीन माह के लिए सशक्त होता है । और इन दौरान सारे राज्य का प्रशासन तंत्र भी अस्थायी तौर पर उसके अधीन होता है तब उसे सिर्फ़ निजी अस्मिता के दंभ त्याग कर राज्य स्तर के ऐसे अनुभवी पुलिस बल की मंशा पर निर्द्वंद्व होकर विचार करना चाहिए । जैसा कि हम देख चुके हैं कि छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की आनुभविक रणनीति और नक्सली अंचलों के पुलिस अधीक्षकों के प्रस्तावों पर पिछला विधान सभा चुनाव पिछले कई चुनावों से कम बाधाओं के साथ निपटा था । किन्तु सामान्य-सी सलाहात्मक टिप्पणी पर पुलिस महानिदेशक को आयोग द्वारा खारिज करने की चेष्टा कहीं न कहीं राज्य स्तरीय कर्मियों के मनोबल को भी प्रभावित करती है । यह नक्सली आंतक के परिप्रेक्ष्य में चुनाव आयोग का स्वस्थ निर्णय नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि चुनाव पूर्व भी ऐसे नक्सली तत्वों से निपटने में वास्तविक रूप से राज्यों का यही पुलिस बल ही अधिक सतर्क और कौशलपूर्ण कार्रवाई करता है ।


आज नहीं तो कल केंद्रीय निर्वाचन आयोग को देश भर में फैल चुके नक्सलियों द्वारा चुनाव बहिष्कार, हिंसात्मक आंतक के कारण राजनीतिक दलों और जनता के अधिकारों के हनन पर रोक लगाने के लिए आदर्श आचरण संहिता को संशोधित और कड़ा करना ही पड़ेगा और उसके प्रतिफल में नक्सली इलाकों में चुनाव प्रक्रिया की सफलता के लिए विशेष क़दम भी उठाने होंगे । जिसमें स्थानीय परिस्थितियों से निपटने वाले विशेषज्ञों की रायों को विशेष तवज्जों देना होगा । आयोग सामान्य तौर पर मौखिक और लिखित टिप्पणियों पर प्रतिबंध लगाने में अवश्य सफल हुआ है, जिसमें राजनेता, अफ़सर और कर्मचारी सम्मिलित हैं किन्तु नक्सली हिंसा और चुनाव विरोधी एवं हिंसक गतिविधियों पर लगाम कसने में वह अब भी असमर्थ है। और ऐसा कौन नागरिक है जो मौत की शर्त पर भी प्रजातंत्र के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए मतदान करना चाहेगा ? ऐसा कौन राजनीतिक दल होगा जो मौत की परवाह नहीं करके चुनाव कैन्वासिंग करेगा ? ऐसा कौन शासकीय कर्मी होगा जो ऐसे क्षेत्रों में चुनाव कराने में झिझकेगा नहीं ? ऐसा कौन चुनाव प्रेक्षक होगा जो ऐसे धूर नक्सली इलाकों का मुआयना कर सकेगा ? तब ऐसी दुःसह परिस्थितियों में ऐसे क्षेत्रों में चुनाव और आयोग की उपस्थिति का कोई मायने नहीं रह जाता है । यह कमज़ोरी तब तक ठीक नहीं हो सकती, जब तक आयोग राज्य प्रशासन के पदों पर कार्यरत और चुनावी परिस्थितियों में प्रतिनियुक्त आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञों को ठीक से संबोधित न करे । इस संबोधन में समन्वय, परस्पर विश्वास और स्थानीय परिस्थतियों अनुसार नक्सली विपदाओं से जूझने के अनुभवों का आत्मसातीकरण को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए । क्योंकि अंततः यही स्थानीय पुलिस बल के पास नक्सलवाद से निपटने का गुर होता है और दीर्घ अनुभव भी । वे नक्सलियो की हर चाल को बखूबी समझते हैं । वे उनके सारे किलों, गढ़ों के बारे में जानते-समझते हैं ।

Thursday, March 26, 2009

।। नक्सलियों के बयानों के पीछे की वास्तविकता ।।


हाल ही में नक्सलियों ने जनता-सरकार की माँग की है । किससे की है ? क्या सरकार से की है? यदि वह माँग सरकार से है तो प्रश्न उठता है कि सरकार तो नक्सल विरोधी है । भविष्य की हर सरकारें चाहे उस सरकार को कोई भी दल संचालित करे, नक्सलविरोधी भी होगी । क्योंकि नक्सलवाद का रास्ता प्रजातंत्र की पतन की ओर ले जाता है । और कैसे कोई भी दल स्वयं प्रजातंत्र को ध्वस्त करने की गतिविधियों का अनुमोदन कर सकती है ! क्योंकि ग़रीबी, शोषण, उत्पीड़न व भेदभाव मिटाने के नाम पर भी ख़ूनी हिंसा के समर्थन का साफ़ मतलब अमानवीय, असंवैधानिक और दूसरी तरह का दमन भी हो सकता है । यही अंतिम विकल्प तो नहीं । हिंसा, भय, आंतक के सहारे यदि सामाजिक क्रांति हो सकती है तो उसकी आवाज जनता से आनी चाहिए । जाहिर है यह आवाज़ जनता की ओर से नहीं, नक्सलियों की ओर से आ रही है जिन्होंने बस्तर में अब तक ऐसा कोई जनप्रिय कार्य नहीं किया जिससे बल पर उसका कोई सदस्य प्रजातांत्रिक तरीके से सरकार के किसी घटक के सदस्य बन पाता । यदि वे वास्तव में जनता की सरकार के स्वप्नाकांक्षी होते तो ऐसी कौन सी शक्ति है जो उन्हें जनता का व्होट पाने से रोक सकती है । इसका साफ मतलब है कि न वे जनता के लिए हैं, न वे जनता हैं, न वे जनता द्वारा संचालित व्यवस्था के पक्षधर हैं । ‘जनता की सरकार’ की आवाज़ आड़ मात्र है ठीक जैसा वे पहले जनता की पक्षधरता की धूर्त चालों के सहारे बस्तर के भोली-भाली जनता के बीच पैठ बनाकर अब अपने असली एंजेंडे पर उतर आये हैं । दरअसल जनता उनके एंजेडे में ही नहीं है । वे स्वयं भी जानते हैं कि कोई भी प्रजातांत्रिक सरकार नक्सलियों की खूनी क्रांति पर विश्वास नहीं करती । कर ही नहीं सकती।


ऐन चुनाव के समय उनका ‘जनता की सरकार’ की माँग करना जनता को दिग्भ्रमित करना है । मतदाता की सोच को प्रभावित करना है । दरअसल नक्सलियों के दो रूप हैं । एक स्वांग के भीतर वे जनता के पक्ष में बात करते हैं दूसरी स्वांग में वे ठीक जनता के ख़िलाफ़ कार्यवाही करते हैं । चुनाव का बहिष्कार जैसा उनका ऐलान ऐसे स्वांगों का नमूना है । वे जानते हैं कि प्रजातंत्र का प्रवेश-द्वार चुनाव है। और चुनाव में यदि वे हिस्सा लेंगे तो उन्हें प्रजातंत्र पर विश्वास जताना पड़ेगा, जैसा कि उनका लक्ष्य ही नहीं है, सो वे चुनाव बहिष्कार की बात करते हैं । और इस चुनाव बहिष्कार के बहाने हिंसक गतिविधियों का सहारा लेकर प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विरूद्ध जनता के मन में अविश्वास भरते हैं । चुनाव के अधिकार से वंचित करते हैं । यानी कि वे सिर्फ यही दबाब बनाने की कोशिश करते हैं कि जनता के लिए मात्र नक्सलवाद ही एकमात्र उपाय है । क्या सामाजिक बदलाव के विरूद्ध यह नादिरशाही और मध्ययुगीन कार्रवाई या सिद्धांत नहीं है ?


नक्सली प्रवक्ता के तर्कों को परखें तो देश की पार्टियों की घोषणा पत्र झूठे हैं । ठीक है, यदि देश के मौजूदा राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र में धोखे-ही-धोखें तो उनके घोषणा पत्र में क्या है ? उनका अतीत का प्रदर्शन क्या है ? उनके पार ऐसी कौन-सी नैतिक दृष्टि है जिसका कायल होकर जनता उन्हें चुने । भय और हिंसा के हिमायती नक्सलियों को अपने जनहितैषी कार्यों की सूची जारी करनी चाहिए कि उन्होंने अमूक स्कूल की मरम्मत की । अमूक तालाब की सफ़ाई की । अमूक को अस्पताल पहुँचाया । सच तो यह है कि वे विकास के मायने को ही झूठलाते हैं । ऐसे दलों द्वारा किये गये विकास को ही ध्वंस करते हैं । वे जिस शोषण की बात करते हैं उसी शोषण की गंगा को वे भी आगे बढ़ाते हैं । एक अनुमान के अनुसार केवल बस्तर के नक्सली प्रतिवर्ष 200 करोड़ की उगाही अवैध तरीकों से भय और आंतक के बल पर करते हैं । वे यदि कहते हैं कि देश को पूँजीवादी और साम्राज्यवादी चला रहे हैं तो फिर वे क्या कर रहे हैं ? लूट तो आख़िर लूट ही है, चाहे कोई भी क्यों न लूटे । क्या वे भूखे को अन्नदान, वस्त्रहीन को वस्त्रदान और आवासहीन को आवासदान दे रहे हैं ? वे स्वयं जब समूचे बस्तर में अपना अनैतिक साम्राज्यवाद विकसित कर रहे हैं तो उनका किसी अन्य राजनैतिक दल को नकारना पूर्णतः दोगले चरित्र का ही परिचायक है । नक्सलियों की मान्यता कितना हास्यास्पद है कि यदि वोट देना अधिकार है तो नहीं दिये जाने का भी अधिकार मिलना चाहिए । यानी कि जनता किसी को न चुने । तो फिर कौन उसका प्रतिनिधित्व करेगा ? कौन उसकी आवाज़ बनेगा ? यानी नक्सलियों के अनुसार जनता नेतृत्वविहीन रहे । ठीक वन्य जीव की तरह विचरणशील । यानी पशुता की ओर समाज चले जाये । जनता बिना सांवैधानिक अंगों के अपना राज कैसे कर सकती है । ऐसा तो तब ही संभव था जब वह जंगल युग में रहता था । क्या ऐसी स्थिति को अराजक नहीं कहेंगे । यदि ऐसी अराजक स्थिति का निर्माण ही विकास का आधार है, यदि यही शोषणहीनता, उत्पीड़नहीनता व भेदभाव के विसर्जन का मूलमंत्र है तो उनके सिद्धांत और दर्शन दोनों अबूझे है, झूठे है । भविष्य की शायद ही कोई पीढ़ी जनता के रूप में इस पर विश्वास करे । सभ्यता के इस मुकाम पर अराजकता किसी भी कीमत पर अब जीवन का मर्म नहीं हो सकता । वह जीवन का रहस्य कभी था ही नहीं । यदि नक्सलवाद यही कहता है तो इसका साफ मतलब है कि नक्सलपंथी अराजक हैं । क्या जनता को जंगली-सभ्यता की ओऱ लेजाना ही उनका ध्येय है ?


नक्सली तर्क गढ़ते हैं, थोथी सहानुभूति पाने के लिए, कि वोट नहीं देने पर अर्धसैनिक बल और पुलिस मतदाता का दमन करते हैं । वे यह क्यों भूल जाते हैं कि वे भी दमन के सहारे ही मतदाता को मतदान करने से रोकते हैं । बस्तर का तो यही इतिहास रहा है । चुनावों में सारे देश की यही तस्वीर रही है । उनका यह कहना भी फर्जी है कि जनता को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ देने का वादा करने वाली सरकारें केवल वोट के लिए राजनीति करती हैं, जबकि वे इसके पीछे अपनी जेबें भरते हैं । आख़िर एक भ्रष्ट राजनीतिक की तरह वे भी यही भ्रष्ट तरीके अपना रहे हैं लगातार । क्या वे अपने लक्ष्यों के लिए पूर्णतः नैतिक बने हुए हैं । जो हिंसक होगा, आतंककारी होगा उसका लक्ष्य नैतिक हो ही नही सकता । नक्सलियों का हालिया बयान इतना द्वंद्व भरा है कि कोई ही उस पर शायद विश्वास करे । क्योंकि वे जनता की सरकार की माँग भी करते हैं । यानी उनकी मांग का एक हिस्से में सरकार नामक अवधारणा भी है औऱ वे उस सरकार के चयन के लिए बाधा भी खड़ा करते हैं । कितनी दोगली दृष्टि और सोच है नक्सलवादी वैकासिक सिद्धांतों का ।


नक्सलवाद का सारा ढाँचा असत्य, हिंसा, आंतक, धन, भ्रष्टता पर टिका हुआ है जहाँ उनके कथोपकथनों की कोई विश्वसनीयता नहीं है । एक और उदाहरण हाल का ही देखें - कुछ दिन पहले बस्तर के नक्सलियों ने कहा कि वे सरकार से बातचीत के लिए तैयार हैं । किसने, किसने कहा ? किसी को भी समझ में नहीं आया । वस्तुत यह बात सिर्फ़ मीडिया के श्रीमुख से ही आयी थी । वस्तुतः न नक्सलियों के प्रवक्ता ने मुख्यमंत्री से कहा, न राज्यपाल से न ही गृहमंत्री या पुलिस महानिदेशक या गृह सचिव से । उनकी ओर से किसी भी उचित स्तर तक न कोई पत्र आया था न ही टेलिफ़ोन-मोबाइल । यह एक सच है । दूसरा सच यह है कि ठीक उसी दरमियान नक्सली लगातार आदिवासियों को अपनी गोलियों का शिकार बनाकर मौत के घाट उतार रहे थे । प्रश्न उठता है कि वे मीडिया का सहारा लेकर ऐसा क्यों कर रहे थे ? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जिसने बयान दिया था वह अधिकृत था । क्या वह सारे नक्सलियों का नेतृत्वकर्ता था ? माओवादी रणनीति के तहत वे ऐसा तब-तब करते हैं जब किसी स्तर पर कमजोर पड़ रहे होते हैं । यह एक तरह का सरकार, पुलिस बल का ध्यान बाँटने की कला है । ताकि रणनीतिकार को सुरक्षित बने रहकर हिंसक क्रांति जारी रखने का मौक़ा मिल जाये । यह दूसरे मायने में जनता की झूठी सहानुभूति प्राप्त करने का भी उद्योग है कि जनता राजनेताओं पर शंका-कुशंसा करने कि – देखिये राजनेता भी उसकी सुनवायी नहीं कर रहे । उनका सारा सिद्धांत झूठ और फरेब पर टिका है क्योंकि वे एक ओर प्रजातंत्र का विरोध करते हैं दूसरी ओर उसकी सारी इकाईयों की ताकतों का सहारा भी लेते हैं । सलवा जुडूम के विरोध में कोर्ट का सहारा लेना भी उनकी इसी धूर्तता का नमूना है ।


क्या अब वह समय नहीं आया है कि ऐसे भ्रमों, भ्र्रांतियों, फर्जी आचरणों का प्रकाशन ही न हो और इसके लिए मीडिया को भी खासतौर पर सोचना होगा कि उनकी किन मुद्दों तक जनता की पहुँच हो, और किन तक नहीं । विज्ञप्तियो के सहारे जनता का कल्याण करने की ऐसी बुद्धिवादी कोशिशों को कब तक आख़िर जायज ठहराया जायेगा । ऐसी गतिविधियों को भी प्रजातंत्र की सुरक्षा के लिए प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए । जो संगठन प्रजातंत्र में प्रतिबंधित हो उसकी आवाज को प्रचारित करना भी प्रतिबंधित होना चाहिए । इसे अभिव्यक्ति के नाम पर मान्यता देना प्रजातंत्र को ध्वस्त करने की संभावनाओं को भी तवज्जो देना होगा ।

Thursday, May 08, 2008

बस्तर में जलाये गये घरों की राख को देखकर


(संदर्भः बस्तर में नक्सलपंथियों के द्वारा टेंटतराई में घर जलाने की घटना )


दिनाँक - 7 मई, 2008


नक्सलवाद यानी नव-शोषकों का राजनीतिक लिप्सागत विध्वंस । नक्सलवाद यानी आत्महंताओं का व्यवसाय । उसका मूल-यथार्थ प्रजातंत्र की विफलताओं की शिनाख्तगी में कतई नहीं खुलता । अपने संपूर्ण अर्थों में वह विकास का नहीं, प्रजातंत्रिक कमियों की आड़ में प्रजा-विनाश का हथियार है । वह प्रजातंत्र की अड़चनों के बरक्स कथित वैकल्पिक व्यवस्था के लिए हिंसात्मक सोच मात्र है । आज के नक्सलवाद का सिर्फ़ यही मायने हो सकता है । कम से कम यह छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का सच तो है ही । नक्सलवाद के पक्ष में भले ही कुतर्कों के लाख पहाड़ खड़े कर दिये जायें, वे और उसके संकुल के पैरवीकार भले ही विश्व को समझाने के लाखों पाठ रच डालें, फिलहाल नक्सलवाद की संपुष्टि हिंसा और मानव अधिकार के संपूर्ण ध्वस्तीकरण में हो रही है । दंतेवाड़ा के टेटतराई गाँव में बीते दिन जो घटा है, उससे साबित हो गया है कि नक्सलवादियों का लक्ष्य टूटे, बिखरे, उखड़े और कराहते लोगों के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई नहीं केवल मूढ़ हिंसात्मक प्रतिशोध, अपने वर्चस्ववादी कुविचारों को मारकाट के बल पर सत्य साबित करना है । उनका एकमात्र लक्ष्य प्रजातंत्र के सुघड़ आवासों को मटियामेट करना है


पिछले दिनों ऐर्राबोर थाना क्षेत्र के टेटतराई गाँव में 150 वर्दीधारी क्षुब्ध नक्सली जा धमके । गनीमत कि ग्रामीण आदिवासियों को पहले घरों से बाहर हँकाला गया फिर उनमें आग लगा दी गई । देखते ही देखते 40 से अधिक घर स्वाहा हो गये । निर्दोष, निरीह और बूढ़े आदिवासी सजल आँखों से अपने आशियानों को धू-धू करके जलते देखते रहे । राहत कैंपों में रहते-रहते उन्हें अपने घर-कुरिया की याद जो खींच ले आयी थी । वे दो-चार दिन देखभाल कर सलवा जुडूम कैंप लौट जाने के लिए वहाँ पहुँचे थे । उन्हें क्या पता था कि नक्सली खौफ़ पैदा करने की दुष्कर्म-निरंतरता में वहाँ एकाएक आ धमकेंगे । वे न तो उनका प्रतिरोध कर सके, न विनती । करते भी कैसे ? नक्सलियों के कान जो नहीं होते । कभी गरीब, पीड़ित, आदिवासियों और शोषितों को आँखों का तारा कहने वाले नक्सली अब चक्षुविहीन जो हो चुके हैं । दरअसल वे हैं ही हृदयरहित । आदिम और धूल-धुसरित प्राचीन पत्थरों की मानिंद । फिर भी उनके बुदबुदाते होंठों से धन्यवाद ज्ञापन के शब्द ही फूटे - हे आँगादेव! आशियाने जल गये तो क्या हुआ, जान तो बच गई । अब इन बूढ़े आदिवासियों की आँखों में राख और सिर्फ राख की ढेरियों का एक दुःस्वपन ही शेष रह गया है जिसकी कचोट वे ताउम्र झेलते रहने विवश हैं । हाँ, जिन घरों के इर्द-गिर्द कभी आदिम जिंदगी खिलखिलाती थी अब वहाँ राख ही तो बिखरा पड़ा है जिसे बस्तर की हवायें चारों ओर उड़ा-उड़ाकर कलुषित मनुष्य का मुँह चिढ़ा रही हैं ।



वहाँ केवल घर ही नहीं जला । सरल आदिजनों का सरल-तरल मन भी जल गया । घर तो दूसरा भी गढ़ लिया जायेगा । पर पहले घर की बेशर्म दुष्स्मृतियाँ पीछा नहीं छोडेंगी अब कभी । उन्हें एक-एक कर याद आता रहेगा – नींव खोदते समय का आदिम गीत । वर्षा-शीत-घाम को झेलने वाले घास-फूँस को काट-छाँट कर जुटाने का श्रम । छप्पर-छाजन में हाथ बटाते बीबी-बच्चों के चेहरों पर लुढ़कते पसीने की चमकती बूँदें । कोने में कुलदेवता के ऊपर सजे हुए अक्षत और जंगली फूल । दीवालों पर सजीं धान-बालियों की झालरें । पूरखों की माखुर डिब्बी । चोंगी सुपचाने का चकमक पत्थर । इर्द-गिर्द दाना चुगती उन्मुक्त मुर्गियाँ । घर के पिछवाड़े में मेमनों की कुलाँचे । प्रियतम से पहली बार मिलने का अवसर देने और जीवन-भर साथ निभाने के संकल्पों का पाठ पढ़ाने वाला वह पवित्र ठौर घोटूल । क्या वे दीवार में तब्दील होते मिट्टी के प्रत्येक लोंदे पर अपनी हाथों के निशान को भुला सकेंगे? क्या वे घर रचने की आश्वस्ति का चरम उमंग भूला सकेंगें ? कुरिया का जलना एक संपूर्ण संसार का जल जाना भी है । कैसे कह दें कि उनका घर केवल जंगल, झाड़ी, नदी, पहाड़ ही थे ? कैसे कह दें कि उनका घर, घर के भीतर नहीं था, घर के द्वार से बाहर ही शुरू होती थी उनकी दुनिया । उनका घर सभ्य दुनिया की नज़रों में केवल घास-फूँस से निर्मित कुरिया था, पर वही उनका राजप्रासाद था । जहाँ वे अपनी प्राकृतिक सभ्यता को अंकुठ और निरंतर बनाये रखते थे ।



आज घर फूँकने की सुर्खियाँ सर्वत्र हैं । सुर्खियों में उनके मन जलने की बात गायब है । सरकारी विज्ञप्ति की तरह शुष्क और संवेदनाहीन । वैसे सरकारी कारिंदों का कथन है - टेटतराई में किसी प्रकार की जनहानि नहीं हुई । गोया जन-हानि ही समाचार हो । धन्य है अहमन्य तंत्र । चीज़ों को तदर्थ एवं राजनीतिक चश्मों में देखने की आदी दुनिया भी विमर्श में मशगूल है पर वहाँ स्वप्नों के उजाड़ पर भावनात्मक सोच एक सिरे से नदारद है । मानववादिता के नाम पर गुलछर्रे उड़ाने वाली संस्थाएँ, बुद्धिजीवी, विचारक किसी दूसरे मूर्गे की फ़िराक में हैं । बस्तर के निष्कलुष आदिवासियों पर नक्सली खौफ़ और शोषण को इशु बनाने के लिए कोई प्रेरक प्रायोजक भी तो नहीं उनके सम्मुख। उनके वोट के भरोसे सत्ता और सुख का स्वाद चखने वाले पहरुए फ़िलवक्त इस उधेड़बुन में हैं कि नये सिरे से उनके लिए मकान बनाने का सरकारी ठेका कैसे अपने कारिंदों को दिलाया जा सके । आख़िर संवेदनाहीन हितचिंतकों को कैसे प्रभावित कर सकता है यह खबर कि पहले घर के उजड़ने का घाव कोई नहीं भर सकता । न सरकारी अनुदान, न कैंप ।
उनके अपने भाई-बंधु भी मौन हैं । विवश हैं । प्रश्नाकुल हैं । आख़िर उनका दोष क्या था ? यही कि वे हितवर्धन के नाम पर उनके नव-शोषकों की हिंसा और आंतक से मुक्ति क्यों चाहते हैं। यही कि वे शोषकों के खिलाफ लामबंद आंदोलन के विश्वासी क्यों हैं । या फिर यही कि वे प्रजातांत्रिक व्यवस्था वाली असरकारी बहुमत का साथ क्योकर दे रहे हैं ? यानी उन्हें अपनी प्राणरक्षा का भी अधिकार नहीं । वे नक्सली और तथाकथित हितैषियों (किन्तु प्रजातंत्र की बाड़ों को तोड़ने की आदी हो चुकी उच्छृखल ताकतें) के द्वैध को समझ नहीं पा रहे हैं कि वे किस मुँह से उनके पक्ष(?) में न्याय की गुहार लगा रहे हैं कि आदिवासियों के हाथों हथियार नहीं दिया जाना चाहिए । अर्थात् अराजक नक्सली हथियार उठा सकते हैं उनके गुलाम नहीं । वे उन माध्यम-दोहकों की भंगिमा को भी भली-भाँति बाँच नहीं पा रहे हैं, जो नक्सली के एकाध बौद्धिक पक्षधरों की संदिग्धता की व्यवस्थागत पुष्टि के बावजूद भी हो-हल्ला मचाके विश्व भर में उसे मानवअधिकार का हनन घोषित करवा लेते हैं पर त्रस्त आदिवासियों के मन की थाह नहीं लगाना चाहते हैं । आख़िर नक्सली कैसे हितैषी हैं आदिवासियों के ?



आदिवासियों की अच्छी बसाहट की फ़्रिक्र किसे रही है ? आजादी के छः दशकों के परिदृश्य इसकी गवाहियाँ देती हैं कि उन्हें ऐसा ‘एकतरफा वोट-बैंक’ माना जाता रहा है जहाँ हर कोई नकदीकरण तो कर सके, किन्तु जिसके लिए कुछ भी ज़मा करने की कोई ज़रूरत न हो । इससे ज़्यादा कोई बखत हमने उन्हें दी है क्या ? सच तो यह भी है कि विकास गढ़ने वालों ने शुरू से ही उसके घर-द्वार के गद्य को दुरुस्त करने के लिए पश्चिमी सौंदर्यशास्त्रों का सहारा लिया । कभी यह पढ़ने की कोशिश नहीं की गई, कि उनकी भाषा में विकास के लिए व्याकरणिक पदबंध क्या-क्या हैं ? उनकी लंगोटियों की पैबंद की सौगंध खाने वाले सत्ता , जुड़े लोग और उनके हिस्सों पर पलने वाले असरकारी नौकरशाह यानी शक्तिसाली परजीवी सब पर यह जुर्म दर्ज ही है । आदिवासियों पर अब तक शासकीय मद से किया गया खर्च यदि जोड़ा जाय तो देश का हर आदिवासी करोड़पति को हो ही सकता था । पर ज़मीनी हक़ीकत उसके पास सिर्फ़ एक लंगोटी ही है । इतना ही नहीं दशकों से उनके नाम पर बड़ी-बड़ी दुकानें सजाने वाले गांधीवादी सामाजिक संगठन भी किसी प्रायवेट लिमिटेड की तरह निर्बाध फल-फूल रही हैं । बात सिर्फ़ इतनी होती तो चिंता नहीं थी । स्वयं उनके मध्य से उभरता नेतृत्व या तो पदलोलुप है या फिर वह जानबूझकर उस वर्ग को वहीं अटकाये रखना चाहता है ताकि उसे संविधानप्रदत्त विशेष सुविधाओं को हड़पने में किसी संवर्गीय चुनौतियों का सामना न करना पड़े । अपनी धवलता के बीच आरक्षण का कृष्णपक्षीय चरित्र ऐसी वास्तविकताओं को प्रमाणित करती हैं । इसे कौन झूठला सकता है कि आरक्षण सुविधा से रहित और समाज के सक्षम जातियों के मन में भी इनके प्रति स्थायी द्वेष पनपता रहा है । इनके मध्य उभरता नव संभ्रातवर्ग अभी भी अपनी जातीय अस्मिता के संपूर्ण रक्षार्थ सचेत नज़र नहीं आता जिसकी ओर अनुनय मुद्रा में आदिवासी समाज टुकुर-टुकुर निहार रहा है ।