Tuesday, December 08, 2009

माओवादी कार्पोरेट नेटवर्क के बंधुआ मजदूर

इधर प्रजातंत्र को जड़ से ध्वस्त करने के लिए उद्यत नक्सलियों से निपटने के लिए केंद्र और राज्यों का संयुक्त अभियान यानी आपरेशन ग्रीन हंट शुरू ही नहीं हुआ है, उधर नक्सलियों के प्रकारांतर से हिमायती दिल्ली में चीखने-चिल्लाने लगे हैं कि देश को युद्ध की विभीषिका में झोंका जा रहा है । इन अनर्गल प्रलापियों में शामिल हैं – अरुंधति राय, सरोज गिरी, गौतम नवलखा, बी.डी.शर्मा, वरवर राव, प्रो.जगमोहन, पी.ए. सेबास्टैन, हरीश धवन जैसे अनेक जाने-माने लोग और पीयूसीएल, पीयुडीआर, भाकपा माले (लिबरेशन), आरडीएफ़ जैसे अनेक संगठन ।

बार-बार झूठ को दोहरा कर सच का आभास कराने में प्रवीण इन संगठनों और बुद्धिजीवियों की बात पर विश्वास करें तो भारतीय राजसत्ता द्वारा 1 नवंबर, 2009 से जनता के खिलाफ शुरू हो चुके इस युद्ध के कई हफ्ते बीत चुके हैं। और तो और, इस युद्ध में मारे जानेवाले आदिवासियों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ रही है । उसी तरह जलाये गये गाँवों, विस्थापितों, घायलों और गिरफ्तार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है । नक्सली-दुष्प्रचार की हद देखिए कि इनके अनुसार संयुक्त दल ने वायुसेना के हेलिकॉप्टरों और अमेरिकी खुफिया सैटेलाइटों की मदद से सेना के शीर्ष अधिकारियों के नेतृत्व में दंडकारण्य और इसके आसपास के इलाकों में ऑपरेशन शुरू कर दिया है । इतना ही नहीं, नवंबर के मध्य में 12 से अधिक गाँव पूरी तरह मिटा दिये गये, उनके निवासियों को जंगल में और अधिक भीतर शरण लेने पर मजबूर किया गया । दंडकारण्य में दो अलग-अलग और उड़ीसा में एक जनसंहार की घटनाएँ सामने आयीं, जिनमें 17 से अधिक आदिवासी सरकारी सैन्य बलों द्वारा मारे गये । जबकि दंडकारण्य यानी बस्तर में ऐसा इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कुछ भी नहीं हुआ है।

पिछले ही दिनों, 4 दिसम्बर, 2009 को इस फोरम की बकायदा दिल्ली में बैठक हुई जिसमें कहा गया कि यह युद्ध कॉरपोरेट्स की तरफ से उनके फायदे के लिए भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के जीवन को निशाना बनाते हुए लड़ा जा रहा है । विश्वव्यापी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था अभी 1929 के बाद से सबसे गंभीर संकट झेल रही है, अपनी सभी निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को मंदी के दलदल में और गहरे तक डुबोते हुए । सैन्य औद्योगिक तंत्र-जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और भारत के बड़े व्यावसायिक हित हैं - युद्ध चाह रहा है । यानी यह तथाकथित युद्ध ख़िलाफ कॉरपोरेट्स करवा रहे हैं ।

यह किसी से नहीं छिपा है कि आपरेशन ग्रीन हंट जिसे कथित मानवाधिकार बुद्धिजीवी आदिवासी नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध परिभाषित कर रहे हैं, मूलतः आदिवासी इलाकों को नक्सली विध्वंस, उत्पात और हिंसा से मुक्त करने का अभियान है । यह अभियान सीधे-सीधे उन अराजकतावादी ताकतों के विरुद्ध है जो प्रजातांत्रिक विकास-प्रक्रिया, संविधान, चुनाव आधारित प्रतिनिधित्व प्रणाली, न्याय व्यवस्था और कार्यपालिका को पिछले कई वर्षों से खुली चुनौती दे रहे हैं । यह अभियान उनके ख़िलाफ़ है जो बम, बंदूक और बारूद को अंतिम विकास का औजार मानते हैं। यह अभियान उनके ख़िलाफ़ है, जो आदिवासी और तुलनात्मक रूप से वंचित और आदिवासियों के रहवासी क्षेत्रों के सार्वजनिक संसाधनों का लगातार विनाश कर रहे हैं । यह अभियान उनके ख़िलाफ़ हैं, जो ऐसे जनपदों में अपनी स्थायी रणनीति के तहत संचालित जनयुद्ध के विरूद्ध आदिवासियों को मर-खप जाने के लिए विवश कर रहे हैं । यह अभियान उनके ख़िलाफ़ है जिनका बातचीत पर किंचित विश्वास नहीं है और जो मात्र हिंसा और आंतक के सहारे अपनी सिद्धि की रोमानी सपने में जी रहे हैं । और यह सब पिछले 4 दशकों की नक्सली गतिविधि से स्वतः प्रमाणित हो चुका है ।

नक्सलियों का मूल उद्देश्य देश में माओवादी शासन पद्धति की स्थापना है, वंचितजनों के अधिकारों की बहाली नहीं। यदि वे वचिंतजनों या आदिवासियों के हित में संघर्ष कर रहे होते तो नक्सलियों के हाथों मारे जानेवालों में आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक नहीं होती । अब तक किसी जनपद में माओवादी विकास के उपक्रम में कोई रोल मॉडल दृश्यमान होता, जिसे प्रजातांत्रिक विकास के विकल्प के रूप में सार्वजनिक स्वीकृति मिल चुकी होती । यदि वे मन, कर्म और वचन से बस्तर के हितैषी होते तो उनके विरोध में कोई ‘सलवा जुडूम’ जैसा किसी प्रतिरोधी आंदोलन का सूत्रपात ही नहीं हुआ होता । प्रजातंत्र में जनअधिकारों की बहाली, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए लामबंद पहल की पूरी छूट है । कानून और संवैधानिक प्रावधान भी इससे सहमत हैं किन्तु हिंसक रास्तों के सहारे सारे समाज को अशांत और भयग्रस्त बना देने की अनुमति कैसे चंद बुद्धिजीवियों या किसी हिंसक संगठन को दी जा सकती है ?
आज नक्सली आंतक के पर्याय बन चुके हैं । आज नक्सली स्वयं को विकास-विरोधी साबित कर चुके हैं । ऐसी परिस्थितियों में आदिवासी क्षेत्रों में शांति-बहाली का कौन-सा रास्ता शेष बचा है ये बुद्धिजीवी बताने में पूर्णतः असमर्थ हैं । दरअसल ये बुद्धिजीवी एकतरफा मानवाधिकार के हिमायती हैं – जिन्हें सिर्फ़ नक्सलियों का ही अधिकार दिखता है, जिसे वे आदिवासी के अधिकार के रूप में प्रस्तुत करते हैं । आख़िर इन आदिवासियों को नक्सली नेताओं ने पिछले 40 वर्षों में बुनियादी हक के लिए प्रचलित व्यवस्था के ख़िलाफ़ सिर्फ़ हिंसात्मक, आंतककारी और विध्वसक संघर्ष का विकल्प ही क्यों कर सुझाया ? अपने प्रभाव क्षेत्र में पले-बढ़े और युवा हो चुके वनपुत्रों को नक्सलियों ने कृषक, कारीगर, कलाकार, मास्टर, डाक्टर, मिनिस्टर बनाने के बजाय सशस्त्र सैनिक में क्यों तब्दील कर दिया ? इन्हें क्योंकर गुरिल्ला ट्रेनिंग दी गई ? क्या नक्सली आदिवासियों की एक समूची पीढ़ी को भविष्य में आदिवासी भाई की ही हत्या के लिए पूर्व नियोजित तरीके से तैयार नहीं कर रहे थे ? उन्हें नक्सलियों ने विकास के लिए संघर्ष के सर्वमान्य चेतनात्मक और सभ्य तरीकों से आख़िर क्यों नहीं जोड़ा ? और शांतिपूर्ण जीवन शैली और ऐतिहासिक रूप से धीमी प्रगति पर विश्वास करने वाली वन विश्वासी आदिवासी इसी नक्सलवादी जिद्दी के कारण आत्महंता दौर से गुजरने के लिए विवश कर दिया गया है । इन सारे प्रश्नों के कोड़े भी ऐसे बुद्धिजीवियों की पीठ पर बरसाने जाने चाहिए, जो देश में भ्रम का धंधा करते हैं ।

इन बुद्धिजीवियों में से शायद ही किसी ने पिछले 2-3 दशकों में ऐसी कोई अपील, विचार समक्ष प्रस्तु किये है, जिसमें नक्सलवादियों का रूझान हिंसामुक्त एवं ध्वंसमुक्त संघर्ष की ओर विकसित हो सके । इन्हें और इनकी प्रगतिशील विचारों के अंतर्द्वंद्व को साफ़ साफ़ पहचाना जा सकता है – ये वही हैं जो आदिवासियों द्वारा संचालित सलवा जुडूम को हिंसक किन्तु कथित आदिवासियों द्वारा संचालित नक्सवादी हिंसा को कल्याणकारी सिद्ध करते फिरते हैं । ऐसे बुद्धिजीवियों से देश और समाज को कम खतरा नहीं जो बुद्धि का व्यवसाय करते हैं। इन बुद्धिजीवियों की हरकतों, बयानों, विचारों और आलेखों का विश्लेषण किया जाये तो ये माओवादी कार्पोरेट नेटवर्क के बंधुआ मजदूर की तरह दिखाई देते हैं, जो दंतेवाड़ा से दिल्ली और कांकेर से कनाड़ा तक फैले हुए हैं, और जिनका एकमात्र पेशा नक्सलवादियों के पक्ष और व्यवस्था के विपक्ष में वैचारिक वातावरण तैयार करना है ।
कम से कम छत्तीसगढ़ के लोगों को बुद्धिजीविता के ऐसे तिलिस्मी रहस्यों के बारे में सोचना ही होगा अन्यथा भविष्य उन्हें माफ नहीं करेगा ।

Thursday, November 05, 2009

पापा ! नक्सली सचमुच बदमाश हैं




राज्योत्सव में टंगे कुछ चित्रों के बहाने

कई बार शब्दों का अपना जादू नहीं चल पाता । वे अपने भीतर समाये हुए अर्थों को भावक या मनुष्य के मस्तिष्क तक पहुँचा नहीं पाते । पूरी पंक्तियाँ साधारणीकरण की शिकार हो जाया करती हैं । विचार के गर्भ तक पहुँचते-पहुँचते हम बोर हो उठते हैं या फिर उन मुद्रित पृष्ठों या अंशों से पिंड ही छुडा लेते हैं । शाब्दिक संचार की अधिकांश विधायें और उनके रचयिता शायद इसीलिए हमें भोथरे और प्रभावहीन लगते हैं । शायद यह भी एक कारण है जिससे छपे हुए शब्दों का असर और वास्तविक असर पाठक या भावक तक संप्रेषित हो ही नहीं पाता । पर चित्र बहुधा यथार्थ की नींव और उसके समग्र परिसर तक एक ही दृष्टि में ले पहुँचाते हैं । चित्र मस्तिष्क की ग्रहणशीलता को भी बहुआयामी बना देते हैं । शायद यही कारण था जब मेरे छोटे बेटे जो 7वीं क्लास का छात्र है ने उस चित्र देखकर मुझसे कहा था – पापा, नक्सली सचमुच बुरे हैं ! मैंने देखा उसके चेहरे पर अजीब-सी उदासी और भय की लहरें उठ रही हैं ।

यूं तो समाचार पत्रों, टीव्ही एवं अन्य माध्यमों से संसूचित होती अपनी माँ के स्वर में स्वर मिलाते हुए वह भी मुझसे कहता रहता है – पापा, पुलिस की नौकरी में क्यों चले गये ? वह भी डीजीपी के स्टाफ़ में । कभी किसी नक्सली ने मार दिया तो ? तब मैं उन्हें समझाता कि पुलिस में मेरा काम बिलकुल अलग ढ़ग का है, मारने-मरने का नहीं, और वे निराश होकर लगभग चुप हो जाते हैं । ऐसा वे तब-तब कहते हैं, जब किसी माध्यम से उन्हें नक्सलियों के सबसे बड़े शत्रुओं की सूची में छत्तीसगढ़ के डीजीपी श्री विश्वरंजन का नाम पढ़ने को मिलता है या नक्सली मुठभेड में पुलिसवालों के मारे जाने की ख़बरें छपती हैं । पर आज वे दोनों मेरा हौसला बढ़ा रहे थे । उनके चेहरे के भावों से मुझे स्पष्ट लग रहा था जैसे वे मुझसे कह रहे हों – आप बहुत सही हैं । जैसे वे कह रहे हों कि नक्सलियों के खिलाफ़ नहीं जाना कम से कम एक लेखक के लिए तो बेईमानी है । फिर आपको तो सरकार शासकीय सेवा के लिए अच्छी खासी तनख्वाह और सुविधा भी देती है । क्या सचमुच ये चित्र इतने ताकतवर हैं ?

वाकई, ये तस्वीर बहुत ताकतवर हैं । राज्योत्सव में पुलिस विभाग के पंडाल पर लगे इन तस्वीरों को देखकर ऐसा कौन होगा जो करुणा और आक्रोश से न भर उठे । निहत्थों आदिवासियों की जघन्य हत्या से करुणा और गरीब, असहाय, कमज़ोर और दलित आदिवासियों की कथित हितनिष्ठता के नाम पर क्रांति की भ्रांति फैलाने वालों की असलियत जानकर यदि मन आक्रोश से भर उठता है यहाँ कलाकर्म की सार्थकता स्वयं सिद्ध हो जाती है । इन चित्रों में नक्सलवाद की दरिंदगी जीवंत हो उठती है । नक्सलियों के आदिवासी प्रेम और उनके हक़ के लिए कथित जद्दोजहद की पोल खुल जाती है । ये तस्वीरें चीख-चीख कर कह रही हैं कि नक्सली प्रजा और प्रजातंत्र के सबसे बड़े बैरी हैं। न इनके मन में आदिवासियों के प्रति रहम है, न उनके प्रति विश्वास और पक्षधऱता । ये तस्वीर गवाही देती हैं कि नक्सलियों का मानवीय मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है । वे किसी भी कोण से बुनियादी सुविधाओं से वंचित आदिजनों के हितचंतक नहीं हैं । वे सिर्फ़ और सिर्फ़ दिग्भ्रमित हो चुके और रोमानी कल्पनाओं में डूबते उतराते ऐसे दिग्भ्रमित समूह हैं, जिनके जीवन में सिर्फ़ हिंसा ही सबसे कारगर साधन है । नक्सली यद्यपि अपने पक्ष में समर्थन बटोरने के लिए यथास्थितिवादी, यानी भ्रष्ट, निरंकुश व्यवस्थावादियों और उनके तंत्र की न्यूनता गिनाते हैं किन्तु वे मूलतः इन तत्वों से भी कहीं अधिक निर्मम और निरर्थक हैं । जिस विचारधारा में हिंसा प्रवाहित होती हो वह कहीं से भी सर्वनिष्ठ नहीं हो सकती । जिन विचारों की में जड़ों में हिंसा और आतंक का खाद डाला जाता हो उससे मीठे फल की प्राप्ति सर्वथा असंभव है । हिंसा से व्यक्तिगत स्वार्थ तो साधे जा सकते हैं सर्वहारा और समूचे समाज को उसका खोया हुआ वास्तविक हक नहीं दिलाया जा सकता है । हिंसक साधनों से अर्जित व्यवस्था अपने हितों के लिए भविष्य में सदैव अहिंसक बनी रहे, इसकी कोई गांरटी नहीं ले सकता है । स्वयं नक्सली भी नहीं, जिनका लक्ष्य ही फिलहाल हिंसात्मक वातावरण से निजी धनार्जन है ।

मुझे लगा कि शायद मैं अति भावुक हूँ, फिर इन दिनों पुलिस की चाकरी भी कर रहा हूँ । शायद जनता कुछ और सोचती हो । क्यों ना पूछ लिया जाये इन तस्वीरों से गुज़रनेवालों आम जनों से कि वे क्या सोचते हैं ? मैं अब दर्शकों की भीड़ के बीच हूँ, उनके रियेक्शन जानने की कोशिश में। सत्तर-पहचहत्तर साल की एक ग्रामीण महिला जो अपने पोते की अगूँली थामे इन तस्वीरों को निहार रही है, कहती है – आई ददा, अब्बर अलकरहा मारे हे रोगहा । रक्सा हो गीन हें रे मुरहा मन । दूर प्रदेश बिहार, पटना से आयी सुशिक्षित महिला प्रियंका दुबे अपने पति से कह रही है – जो केवल मारधाड़ कर सकते हैं उनकी सोच नहीं हो सकती । जिनकी सोच नहीं हो सकती, वे भला मानव कैसे हो सकते हैं । मेरे पास खड़े हैं अब रायपुर, डब्ल्यू आर एस कॉलोनी के सुदीप्तो चोटर्जी । उनके चेहरे की नाराजगी साफ-साफ पढ़ी जा सकती है – वे लगभग बड़बड़ा से उठे हैं – नक्सली माओवादी होंगे ऐसा कहीं से भी नहीं लगता । माओ ने कभी यह नहीं कहा था कि गरीबों को मारो । ये केवल अपराधी हैं । सीपत की अरुणा शास्त्री गुस्से में कहती हैं – धिक्कार है ऐसे मानवाधिकारवादियों को जो मारनेवालों के नाम पर रोटी का बंदोबस्त करते हैं और मरनेवालों के लिए उफ तक नहीं कह सकते । मानवाधिकार को भी जब बुद्धिजीवी रोजी-रोटी का ज़रिया बना लें तो भगवान ही बचाये ऐसे बुद्धिजीवियों से देश को। इन चित्रों के बीच जो स्लोगन लिखा गया है – वह सबसे ख़तरनाक प्रश्न है – यह सब आपके साथ भी हो सकता है । सचमुच ये चित्र सवाल कर रहे हैं कि वास्तव में हम किधर हैं - प्रजातंत्र की ओर या नक्सलवाद की ओर ?

नक्सलवाद बुद्धि की भ्रांति हैं । यह एक अमूर्त और असंभाव्य फैंटेसी के अलावा कुछ भी नही हैं। समानता और अधिकार के लिए इसे क्रांति कहना क्रांति की तौहीनी है । ये तस्वीर सिहरन पैदा करते हैं । कंपा देनेवाले ये तस्वीर कुछ प्रश्न भी छोड़ते हैं कि क्या समाज में संवेदनशीलता जगाने का काम भी पुलिस करेगी, सरकार करेगी ? क्या अब समाज में ऐसे लोग बिलकुल नहीं बचे जो सच को उजागर करें, जनता का मार्ग प्रशस्त करें । क्या सबकुछ भोथरे हो चुके राजनीतिज्ञों और राजनीतिक विचारों के आधार पर जनता की कथित सेवा करनेवाली पार्टियों के भरोसे छोड़ दिया जाये ? इन चित्रों में कई प्रश्न निहित हैं – आख़िर वह क्या कारण है जो मीडिया इन तस्वीरों को जनता या पाठक के सामने लाने से कतराती है ? यदि पुलिस द्वारा चलायी गयी गोली अनैतिक है तो नक्सलियों द्वारा चलायी गई गोली भी अनैतिक है । यदि कोई यह भी कहे कि बस्तर को पुलिस की कोई ज़रूरत नही है तो उसे यह भी कहना होगा कि बस्तर को किसी नक्सलियों की भी ज़रूरत नहीं ।
भय और जुगुप्सा जगानेवाली उन चित्रों को हमारे कलाकार कब तक अपना विषय नहीं बनायेंगे जो प्रजातंत्र को धीरे-धीरे गर्त की ओर ढकेल रहे हैं ? करुणा के बिंब कब उतारेंगे हमारे साहित्यकार तब जब बस्तर पर सारे आदिवासी मारे जा चुके होंगे ? जो भी हो, पुलिस विभाग और पुलिस मंहानिदेशक श्री विश्वरंजन को लेकर मुख्यमंत्री द्वारा की गई टिप्पणी फिर से सार्थक हो उठती है कि जी, वे शस्त्र से भी लडेंगे और शास्त्र से भी ।

Wednesday, October 14, 2009

केदारनाथ सिंह और चंद्रकात एकाग्र हेतु रचना आमंत्रण



प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा हिन्दी के प्रमुख आलोचक, कवि एवं नाटककार तथा मुक्तिबोध के मित्र प्रमोद वर्मा समग्र के सफलतम् प्रकाशन के बाद अपने समय के दो महत्वपूर्ण और सर्वमान्य कवि श्री केदारनाथ सिंह और श्री चन्द्रकांत देवताले पर केंद्रित पृथक-पृथक ‘एकाग्र’ प्रकाशन किया जा रहा है ।

प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के बैनर तले यह एक ऐसा आत्मीय प्रकाशन होगा जिसमें श्री केदारनाथ सिंह और श्री चंद्रकांत का आत्मवृत, कविताएँ, आलेख, साक्षात्कार, संस्मरण, रेखाचित्र, चित्र, पत्रावली, प्रमुख अवसरों पर दिये गये व्याख्यान, प्रमुख आलोचकों की समीक्षात्मक टिप्पणियाँ आदि समादृत होंगी ।

उक्त दोनों विशिष्ट कृतियों का संपादन संस्थान के अध्यक्ष और कवि श्री विश्वरंजन द्वारा किया जा रहा है । श्री केदारनाथ सिंह और श्री चंद्रकांत देवताले जी के रचनात्मक जीवन और कर्म के कई पहलुओं के वाकिफ़ रचनकारों, आलोचकों से उनके उल्लेखनीय प्रसंग – संस्मरण, कुछ पत्राचार और फोटो आमंत्रित किया गया है । रचनाकार हमें विशिष्ट साहित्यिक पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित सामग्री की फ़ोटोकॉपी भेज कर भी सहयोग कर सकते हैं ।
रचनाकारों से आग्रह है कि वे अपनी महत्वपूर्ण सामग्री एक माह के भीतर भेज सकें तो किताबों के प्रकाशन में विशेष सुविधा होगी ।
रचनाओं की प्रतीक्षा होगी – इस पते पर – श्री विश्वरंजन, सी-2/15, शांति नगर, आफ़िसर्स कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़ – 492001, दूरभाष – 99815-51000, -मेल-srijan2samman@gmail.com

Thursday, September 24, 2009

रंगवार्ता

रंगवार्ता से गुज़रने का मौका आज मिला । यहाँ पहुँचने का एक अपना आनंद है । खा़सकर जो कला की दुनिया को जानना समझना चाहते हैं । देश विदेश की कला केंद्रों की जानकारी घर बैठे एकत्र की जा सकती है । यह वास्तव में विवध कलाओं की मासिक जानकारी उपलब्ध कराने वाली साइट है । हिन्दी में भी सुचनायें दी जाती हैं यहाँ । रंगवार्ता आपके सुझावों, सूचनाओं, रंग-गतिविधियों, समाचारों और आलेखों का भी स्वागत करने वाली मासिक पत्रिका है । आप को चिढ़ इसी बात की हो सकती है कि यहाँ प्रवेशांक ही उपलब्ध है । शेष खुद जान जायें । हो सके तो रंगवार्ता के संपादक को सुझाव दें कि वे सारे अंकों के लिए कुछ जुगाड़ बिठायें ना !

Friday, September 04, 2009

फोंट परिवर्तक

नीचे बहुत से फाँट परिवर्तकों के लिंक दिए गए हैं। ये सभी जावास्क्रिप्ट में हैं। वैज्ञानिक एवम तकनीकी हिन्दी समूह पर जाकर इन्हें डाउनलोड करके अपने डेस्कटाप पर भी चलाया जा सकता है।

जिस परिवर्तक को चलाना चाहते हैं उसके लिंक पर क्लिक कीजिये:

पुराने फाँट से यूनीकोड में परिवर्तन
Agra font to unicode converter03
Chanakya to Unicode converter09
DV-YogeshEN-to-Unicode converter06
DVB-YogeshEN-to-Unicode converter02
DVBW-YogeshEN-to-Unicode converter02
HTChanakya-to-Unicode converter07
Krutidev010-to-Unicode converter06
Sanskrit99 to unicode converter15
Shivaji to unicode converter05
श्री-लिपि से यूनिकोड


यूनीकोड से पुराने फाँट में परिवर्तन :
Unicode to Agra font converter03
Unicode-to-Chanakya converter06
Unicode-to-DV-YogeshEN converter03
Unicode-to-DVB-YogeshEN converter02
Unicode-to-DVBW-YogeshEN converter02
Unicode-to-HTChanakya converter02
Unicode-to-Krutidev010 converter05
Unicode-to-sanskrit99 converter07

Thursday, August 06, 2009

एक खुला खत

आशुतोष जी, आप इतने असंतोष क्यों है ?

आशुतोष कुमार नामक किसी पत्रकार या लेखक द्वारा जनसत्ता में प्रकाशित लेख ( प्रख्यात कवि आलोचक श्री अशोक बाजपेयी के जनसत्ता 19 जुलाई, 2009 के अंक में कभी-कभार में प्रकाशित आलेख ‘सहचर की याद’ के एक वाक्य को बीज वाक्य बनाकर लिखे गये ) ‘यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है’ पढ़कर जाने क्यों, पर मुझे माओ-त्से-तुंग की ही याद हो आई जिन्होंने कभी घिसे पिटे पार्टी लेखन करनेवाले अपने साथियों से ही कहा था –

“सर्वहारा वर्ग का सबसे तीक्ष्ण और सबसे कारगर हथियार है उसका गंभीर और जुझारू वैज्ञानिक रवैया । कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे लोगों को डराने धमकाने के भरोसे जीवित नहीं रहती, बल्कि मार्क्सवाद लेनिनवाद के सत्य के भरोसे जीवित रहती है, तथ्यों के ज़रिए सत्य की तलाश करने के भरोसे और विज्ञान के भरोसे जीवित रहती है । इस बात को बताने की ज़रूरत नहीं है कि पाखंड का सहारा लेकर अपने लिए शोहरत और ओहदा हासिल करने का विचार तो और भी घृणास्पद है । ”

वैसे उन्होंने ऐसे लेखकों पर कई आरोप लगाये थे – कि ऐसा लेखक अक्सर खोखले शब्दजाल से पन्ने भरता जाता है । कि वह जनता को जानबूझकर डराने धमकाने के लिए ख़ास अंदाज अख्तियार करता है, यह बेहद ख़राब क़िस्म के ज़हर से भरा होता है । कि उसमें उत्तरदायित्व की भावना का अभाव होता है, वह जहाँ भी जन्म लेता है जनता को नुकसान पहुँचाता है और उसके प्रसार से देश बरबाद हो जायेगा और जनता तबाह हो जायेगी।

रूस या चीन में तो नहीं पता नहीं किन्तु मार्क्स और लेनिन के भारतीय चेले अभी भी यही कर रहे हैं और इस अनुक्रम में आशुतोष कुमार के लेख का जो रहस्यवाद है वह भी यही साबित करने का अर्थहीन, भ्रामक और सफ़ेद झूठ का दुर्गंध फैलाता कुप्रयास है । कुछ अर्थों में कुंद और जड़ मानसिकता का परिचायक भी ।

पूछें कैसे ? वह ऐसे कि न तो लेख के लेखक को “सलवा-जुडूम” की वास्तविकता का पता है न उसके इतिहास का । शब्द के भाषा-वैज्ञानिक मतलब और निहितार्थ जानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । यदि उन्हें सलवा जुडूम का जन्म किन कारणों से हुआ इसकी सही जानकारी रहती तो वे अपने लेख का शीर्षक “यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है” देने का दुस्साहस भी नहीं कर पाते । मुश्किल यह है कि सलवा जुडूम के बिषय में या तो वे उन मित्रों की बातों पर भरोसा कर के लिखते हैं जो नक्सलियों से नज़दीकी रिश्ता रखते हैं या फिर उन लोगों पर भरोसा करते हैं जो बस्तर का 4-5 दिन का दौरा कर अपने को बस्तर की समस्याओं के विशेषज्ञ मानने लगते हैं ।

लेखक सर्वथा भूल जाता है कि कहीं वह ऐसा करके करोड़ों आदिवासियों की उस जन-भावना और विद्रोह को भी झूठ साबित करने की बौद्धिक चेष्टा तो नहीं कर रहा हैं जिसमें उनकी आज़ादी निहित है ? लेख की भाषा और संवेदना के आरपार देखने से यह प्रमाणित हो जाता है कि वह उस शुक की मानिंद सुनी-सुनायी या रटी-रटायी बातें की कह रहा है जो उसके अलावा कुछ भी नहीं जानता और सच तो यह भी है कि तोता जिस भाषा में बोलता है उसका मानवीय आशय भी कभी नहीं बूझ पाता ।

अब बस्तर के आदिवासी ऐसे सुव्यवस्थित प्रचार या संचार तंत्र से संपन्न तो नहीं जो ऐसे लेखकों को यह बता सके कि हे भले मानस, तुमने हमें इतना गया-बीता कैसे मान लिया कि छद्म हिमायती बनकर और अंततः हमारे ही तन, मन और जीवन के शोषक सिद्ध होनेवाले नक्सलियों के ख़िलाफ़ हम एकजूट भी नहीं हो सकते ? आशुतोष जैसे लेखक-पत्रकारों को यह कतई नहीं पता कि सलवा जुडूम उस सलाहकार खरगोश से अपने से दूर रहने की अपीलयुक्त विद्रोह है जो अपने भीतर बाघनखा छुपाकर आदिवासियों के बीच वर्षों से कथित हितैषी बनकर बस्तर की सारी हरियारी को चट कर जाना चाहता था । आशुतोष जैसे लेखकों के मुताबिक असलियत जानकर भी यदि बस्तर के कुछ भागों में आदिवासी नक्सलियों का साथ दे रहा है तो वह उनके आतंक और तानाशाही और बंदूक के डर के कारण ही ऐसा कर रहा है, नेक नीयत से उपजे नक्सलियों के विश्वास के कारण नहीं । जिसे आदिवासी आततायियों से मुक्ति मानता है उसे ही अपने लालचपूर्ण और छद्म स्वप्नों की पूर्ति के लिए किसी विचारधारा का कोई लेखक गलत बताता है या उसे प्रायोजित करार देकर भर्त्सना करता है तो वह आदिवासियों को गालियाँ ही दे रहा होता है ।

यहाँ यह भी बताना लाजिमी होगा कि लेखक को यह भी नहीं पता कि माओवाद या नक्सलवाद के भौतिक जीवन के सिद्धांत और दर्शन से आदिवासियों का मूलतः कोई लेना देना नहीं क्योंकि वह भी तो नहीं जानते कि यह दर्शन उसके विकास का अंतिम और कारगर शास्त्र है । लेखक को यह भी नहीं पता कि सलवा जुडूम उन सीधे-सादे आदिवासियों की शांतिपूर्ण जीवन की आज़ादी की गुहार है, जिसमें तथाकथित विकास एक लघु अवधारणा है । विकास का मतलब आदिवासी के लिए अशांति, हिंसा और दबाब भी कतई नहीं है । वह जल, जंगल और ज़मीन पर निर्द्वंद्व अधिकार भी यदि चाहता है तो किसी नुमाइंदे के घूरते हुए और लगभग क्रूर दिशाबोधों के बीच नहीं ।

यदि यह मान भी लिया जाये कि नक्सलवाद अपने मूल निहितार्थों में आदिवासियों, दलितों, पीड़ितों के लिए सुखद स्वप्नों को साकार करने का संघर्ष था और प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ख़ामियों से निपटने के लिए कथित विकल्प भी, जिसके फाँसे में आकर आदिवासियों के भी स्वप्न जाग उठे तो भी उसे हिंसक संघर्ष और अंततः आत्मघातकता में न कभी विश्वास था न कोई जातीय अभिरूचि । जिसे आधुनिक सिद्धांतकार शास्त्रीय मानवीय विकास कहते हैं उस पर तो आदिवासी का कोई लगाव भी नहीं रहा है ।

भूले-भटके और जानलेवा दबाबों के मध्य यदि वह नक्सलियों के साथ है तो यह उसकी विवशता है परिनिष्ठित आस्था और वैचारिक निर्णय तो कदापि नहीं। उसे यह कहाँ पता था कि कभी हित-प्रीत का मोहजाल फैलानेवाला शिकारी उसकी ही बेटी-बहनों की अस्मतें लूटने पर आमादा हो जायेगा । उसके ही अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर देगा । प्रचलित और संभावित विकास के मार्ग पर ही काँटे बिछा देगा । उसके ही धर्म-कर्म और परंपरा के खंडन की शर्त पर विकास का मंत्र रटायेगा । जीवन-लक्ष्यों की ग़लत परिभाषा को सर्वोच्च और अंतिम बनाने पर उतारू होकर उसे जबरन बंदूक थामने को विवश करेगा कि जब तक प्रजातंत्र को नहीं उखाड़ फेंकोगे – तुम्हारे विकास का सूरज उगेगा ही नहीं । पर आदिवासियों का विश्वास कभी नहीं रहा । यह दिल्ली में रहकर नहीं समझा जा सकता । वर्षों बस्तर के आदिवासियों के बीच रहने के बावजूद बैरियर एल्विन भी पूरी तरह से आदिवासियों को नहीं समझ पाये, आशुतोष कैसे समझ गये ?

वैसे भी हिंसा के लिए प्रजातंत्र में कोई जगह नहीं है । हिंसा से प्राप्त लक्ष्य या राज्य व्यवस्था में इसकी कोई गारंटी नहीं कि वह फिर से हिंसक न हो उठे । जो आदिवासी पिछले चार-पाँच दशकों से इस दर्शन पर विश्वास करते रहे हैं वे भी अब जान चुके हैं कि उनके हितैषी बनने का स्वांग भरनेवाले नक्सलियों के पास विकास के नाम पर वर्तमान पीढ़ी के लिए तथाकथित शहीद होने के हसीन सपनों के अतिरिक्त कुछ भी नही है ।

सलवा जुडूम मूलतः उस शोषणकारी साधनों और हिंसा के बल पर आधारित अंध व गैरजनतांत्रिक राजनीतिक दर्शन की जड़मति तंत्र से मुक्ति का आंदोलन है । वहाँ, जैसा कि समझाया जाता रहा है कि वह आदिवासियों के विरूद्ध आदिवासियों का सरकार समर्थित दमनात्मक मुव्हमेंट है, एक सफेद झूठ के अलावा कुछ भी नहीं । सच्चाई यही है कि इसके पूर्व 9 वें दशक में बस्तर में नक्सलियों ख़िलाफ़ आदिवासी एकजूट होकर आंदोलन कर चुके हैं । और सच्चाई यह भी कि तब नक्सलियों के विरूद्ध आदिवासियों का वह आक्रोश उस झूठे समझौते के शब्दजाल पर थमा था जिसमें नक्सलियों द्वारा आदिवासियों के ख़िलाफ़ किसी रणनीति की मनाही की स्वीकृति केंद्र में थी । परन्तु आदिवासियों के गाँव लौटते ही उनके करीब 300 नेताओं की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी ।

महत्वपूर्ण यह नहीं कि सलवा जुडूम आदिवासी अपनी अस्मिता के रक्षार्थ क्यों न चलाये और उसे हर जनतांत्रिक सरकारें अपने सुरक्षात्मक घटकों के सहारे क्यों न सहारा दे । महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस समय आख़िर सलवा जुडूम का विरोध कौन लोग कर रहे हैं ?

सलवा जुडूम का मतलब आदिवासी इलाकों से नक्सवादियों से अलगाव का विनम्र प्रार्थना है । एक शांतिपूर्ण अपील है कि भाई, बस अब बंद करें । हमें ऐसे पहरुए नहीं चाहिए जो हमें हिंसक बनाने पर आमादा है । जो हमें ही अपनी हिंसा का शिकार बना रहा हो । कि हमें ऐसा विकास भी नही चाहिए जिसके मूल में सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंसा है या फिर विध्वंस ही विध्वंस है । बस्तर का आदिवासी भी यह भली भाँति जानता है कि वहाँ मारा जानेवाला केवल आदिवासी है । चाहे वह किसी की गोली से मरे ।

सलवा जुडूम का विरोध दरअसल नक्सली ही कर रहे हैं जो नहीं चाहते कि नक्सलियों के गढ़ बस्तर से उन्हें पलायन करना पड़े । यहाँ यह बताना लाजिमी होगा कि अबूझमाड़ आज माओवादी रंगरुटों को प्रशिक्षित करने का एशिया और संभवतः विश्व के सबसे सुरक्षित ट्रेंनिंग सेंटर में से एक है । दरअसल अब तक चाहे जिस किसी भी कारण से हो, आदिवासियों की दबाबपूर्ण सहानुभूति नक्सलवाद पर थी जिसके सहारे नक्सली बस्तर जैसे गरीब और जंगली क्षेत्र में अपने पाँव पसारते रहे । यदि वही आदिवासी उनका विरोध करें, तो यह सिर्फ़ माओवादियों के लिए हानिप्रद है । यह माओवादी तथा उनके समर्थक कैसे बर्दास्त कर सकते हैं ?

सलवा जुडूम को आदिवासियों का दमनकारी सरकारी प्रयास निरूपित करने वाले लेखक अक्सर यह जानबूझ कर छूपा जाते हैं कि आख़िर नक्सलवाद का एकमात्र साधन भी हिंसा, आंतक और आदिवासियों सहित शासकीय तंत्र का दमन और विरोध ही तो है । जो यह कहते हैं कि सलवा जुडूम आदिवासियों के दमन की प्रविधि है वे एक तरह से यह भी कहते होते हैं कि बस्तर के आदिवासी नक्सलियों का विरोध न करें, आम जन को नक्सलियों के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का कोई हक नहीं है, बुद्धिजीवी उनके प्रतिरोध में न लिखें, भले ही वे उनके हाथों लगातार मारे जाते रहें ।

यानी नक्सलियों की कार्यवाही अहिंसक है और आदिवासियों की कार्यवाही हिंसक ! कितना हास्यास्पद तर्क है । ऐसा दोहरा मापदंड कैसे चलेगा ? सलवा जुडूम का विरोध तभी ठीक हो सकता है जब नक्सली हिंसा त्याग दें । वे अहिंसक हुए बिना यदि सलवा जुडूम को हिंसा का साधन कहें तो यह पाँचवी पास वाले विद्यार्थी के गले भी उतरने से रहा । सलवा जुडूम के विरोध का मतलब न केवल आदिवासी प्रतिरोध का दमन है अपितु वह उस उस आदिवासी जनमत का भी विरोध है जिसके सहारे 11-11 विधायक विधान सभा में उनकी आवाज बने हुए हैं। यदि ऐसा न होता तो ऐसे नक्सली कम से कम एक विधायक तो अपनी ओर से आदिवासियों के हित के लिए विधानसभा पहुँचा चुके होते । हम सभी जानते हैं कि वे उस विकास के पक्षधर नहीं है जो निर्वाचित प्रतिनिधि के हाथों संपन्न हो । वे यह भी नहीं चाहते कि चुनाव में आदिवासी अपनी प्रतिभागिता रेखांकित करे । यानी कि सभी प्रजातांत्रिक मूल्यों, तकनीकियों और सहारों से वह दूर रहे । इसका आशय तो यही हुआ कि नक्सलवाद मूलतः प्रजा विरोधी अवधारणा है । प्रजातंत्र विरोधी अवधारणा है ।

यदि नक्सलवाद प्रजातंत्र के विरोध में है तो ऐसा कौन सा शासन तंत्र होगा जो उसके लिए संवेदनशील होगा ? उसे मुख्य धारा में लाने की कोशिश करेगा ? उससे संवाद कायम करेगा ? और ऐसा किस मुँह से कहा जा सकता है कि बंदूक के साथ चर्चा करे सरकार ? बंदूक साथ रखकर चर्चा केवल गुंडे, मवाली, डाकू ही करते हैं । सरकारें नहीं । यदि सरकारें यही करने को बाध्य की जाती है तो वह खुद प्रजातंत्र विरोधी साबित होती है । ऐसी स्थिति में यदि आदिवासियों के प्रजातांत्रिक उपायों को कोई भी सरकार अपना समर्थन नहीं देगी तो वह क्या करेगी। वह दमित लोगों के साथ रहेगी या दमनकारियों के साथ ? वह बहुसंख्यक जनता के साथ रहेगी या अल्पसंख्यक नक्सलवादियों के साथ ?

छत्तीसगढ़ की सरकार और पुलिस यदि हिंसा के साये में जीने के लिए संशकित हो चुके 2 करोड़ से अधिक जनता के लिए जूझ रही है तो एक प्रजातांत्रिक उत्तरदायित्वों के दबाब में । यदि यही तानाशाही है तो उन 50 हजार नक्सली हिंसवादियों की गतिविधियों को क्या कहा जायेगा ? यह भी लेखकों को समझना होगा और तय भी करना होगा कि क्या वे ऐसी व्यवस्था दे सकेंगे जिसमें पुलिस की कोई आवश्यकता न हो इसलिए केवल सलवा जुडूम की आलोचना करना और सलवा जुडूम जैसे गांधीवादी मार्गों के लिए विवश हुए आदिवासियों की ओर से कहने के समय मौन साध जाना प्रजातांत्रिक दृष्टि से नक्सली होना ही है क्योंकि नक्सली यही कर रहे हैं। नक्सली केवल हिंसक होना नहीं हिंसक विचारों का अनुसमर्थन करना भी है । यदि ऐसे लेखक जो सलवा जुडूम को आदिवासियों का दमन निरूपित करते नहीं थकते तो उन्हें एकाध बार यह कहते हुए भी सुना जाना चाहिए कि प्रजातंत्र में हिंसा, दमन, आतंक के सहारे आदिवासियों का कौन सा भला नक्सली करने जा रहे हैं ? ऐसे लेखकों को इसलिए भी नक्सलवादी माना जाना चाहिए क्योंकि वे अपने विचारों से अंततः खूनी संघर्ष को प्रोत्साहित कर रहे हैं । यदि उनकी बौद्धिकता में नौकरी पेशावाले पुलिस द्वारा हिंसक नक्सलियों का दमन ही मानवाधिकार का प्रश्न है और आदिवासियों की निर्मम हत्या और शोषण नक्सलवादियों की राजनीतिक संघर्ष का परिणाम है तो भी ऐसे लेखकों को इसी श्रेणी में रखने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए ।

सच्चा लेखक अंधा नहीं होता । काना नहीं होता । उसे सबकुछ दिखाई देनी चाहिए । यदि वह वही देखता है जिसे किसी खास गुट के द्वारा दिखाया जा रहा हो तो वह निश्चित रूप से अविश्वसनीय है ।

यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि सलवा जुडूम का विरोध करने वाले और आदिवासियों के हितचिंतक बने बैठे ऐसे लेखकों ने कभी भी उन मौत के सौदागर बने नक्सलियों का कभी विरोध नहीं किया जो सलवा जुडूम से पहले भी आदिवासियों की जघन्य हत्या के बल और आंतक पर प्रजातंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा थे । तब शायद ही किसी ऐसे लेखक ने आदिवासियों के नक्सलियों द्वारा किये जा रहे मानवाधिकारों के हनन का प्रश्न उठाया हो । कभी इसे लेकर दुबले हुए हों । ऐसे लेखक को क्योंकर नक्सलवादी नहीं कहा जा सकता जो पुलिस को इंसान नहीं मानते, जो मौत के घाट उतारे जाने के लिए ही विवश नहीं है । जिस लेखन में नक्सलियो की गोली से मारे जाने वाले पुलिस के लिए कोई जगह न हो किन्तु पुलिस की गोली से मारे जाने वाले दुर्दांत नक्सलियों के लिए आँसूओं का विशाल भूगोल हो उसे नक्सली न माना जाये तो क्या माना जाये ।

यदि लेखक के अनुसार अप्रैल, 2008 में 'सलवा-जुडूम' के सन्दर्भ में छत्तीसगढ़ की सरकार से सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: 'यह सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का सवाल है। आप किसी भी नागरिक को हथियार थमाकर यह नहीं कह सकते कि जाओ, हत्याएँ करो! आप 'भारतीय दंड संहिता' की धारा 302 के तहत अपराध के उत्प्रेरक ठहराये जायेंगे।' तो इसका लेखक को सर्वोच्च न्यायालय के उस मार्गदर्शी राय का आशय यह भी नहीं लेना चाहिए कि बस्तर में नक्सलवाद से संत्रस्त आदिवासी अपनी आत्मरक्षा भी न करें । उनकी गोलियों के सामने अपने बहु-बेटियों, भाई-बेटों को केवल खड़ा करता चला जाये । यानी चुपचाप नक्सवाद के सामने अपने घुटने टेक दें ।

सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शी राय, जिसे न्यायलयीन शब्दावली में आबीटर-डिक्टा कहा जाता है वह जजमेंट नहीं होता और वह प्रकरण अभी भी न्यायालय में विचाराधीन है यह नक्सली तथा उनके समर्थक बुद्धिजीवी तथा लेखक भली-भाँति जानते हैं । इसी प्रकार यह भी झूठा प्रचार किया जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने विनायक सेन को इसलिये bail पर छोड़ दिया गया क्योंकि सेन के खिलाफ़ कोई केस नहीं बनता, जबकि हक़ीक़त यह है कि आज भी सत्र न्यायालय में विनायक सेन के ख़िलाफ़ केस चल रहा है । यह तो कानून पढ़नेवाला विद्यार्थी भी जानता है कि bail देने का तात्पर्य यह नहीं कि केस ही नहीं बनता । यह सब प्रचारित कर माओवादी समर्थक सभी को गुमराह करने में लगे हुए हैं ।

ऐसे न्यायलीन दिशाबोधों में सिर्फ अपने मतलब की सिद्धि से नाच उठने वालों को क्या बस्तर का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? आदिवासियों का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? मानवता का हितैषी लेखक माना जा सकता है ? प्रजातंत्र का हितैषी माना जा सकता है ? विकास का रास्ता तलाशनेवाला लेखक माना जा सकता है ? प्रजातंत्र की ख़ामियों के बरक्स विकास की कथित नयी दृष्टि देनेवाला लेखक माना जा सकता है ? प्रश्न यह भी कि इसका उत्तर क्या सिर्फ़ सरकारे देंगी, पुलिस ही देगी ? जनता नहीं देगी ? ऐसे लेखक नहीं देंगे? ऐसे मानवाधिकारवादी नहीं देगें ? यदि जनता के तथाकथित सरोकारों से जुड़े ऐसे लेखक सुरदासीय तत्ववेत्ता बने रहने चाहते हैं तो यह भी स्पष्ट है कि वे लेखक नहीं कलंक हैं । जन सरोकारों के समर्थन में उत्तेजित होकर उठ खड़े होने वाली एकांगी प्रतिबद्धता से वास्तविक जनविकास असंभव है । न प्रजातंत्र में, और माओवाद में तो संभव भी नहीं है । यदि ऐसा होता तो माओ लेखकों से यह न कहते किः-

“सभी प्रकार की वस्तुओं पर सूक्ष्म रूप से ध्यान दो, उनका ज्यादा से ज्यादा निरीक्षण करो, और अगर आपने थोड़ा बहुत निरीक्षण किया है, तो उनके बारे में मत लिखो”

असल सवाल सिर्फ यही नहीं है कि क्या किसी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य को 'सलवा-जुडूम 'जैसा अभियान चलाने का हक़ दिया जा सकता है?असल सवाल यह भी है कि क्या संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों की निरंतरता में अभियान कौन चलायेगा ? क्या नक्सली छत्तीसगढ़ में ऐसा कर रहे हैं जिनके लिए उन्हें राज्य सरकार द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए और उनकी ऐसी संदिग्ध गतिविधियों को संवैधानिक लोकतंत्र के लिए मान्य किया जाना चाहिए ? यदि लेखकों के पास इसका उत्तर नहीं है तो वे स्वयं समझ सकते हैं कि वे किसके भाड़े पर ऐसा लिख रहे हैं ? और ऐसे लेखन का अंततः प्रभाव प्रजातंत्र में किस ओर हो सकता है ? क्या नक्सलवादी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य तंत्र को संपुष्ट कर रहे हैं ? यदि वे नहीं कर रहे हैं तो भी क्या नक्सलवादियों के जुल्म से निपटने के लिए आदिवासियों के साथ खड़े नहीं होना चाहिए ? और इस रूप में ऐसे लेखकों उस राज्य सरकारों पर भी विश्वास करना होगा जो संवैधानिक लोकतंत्र की परिधि में रहकर कार्य कर रही है । और वह इसलिए कि वे एकतरफ़ा संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य के मूल्यों, कानूनों, हकों का लाभ नहीं उठा सकते, उसका दंभ भी नहीं भर सकते ।

न केवल विश्वरंजन के मुताबिक़ बल्कि 2 करोड़ जनता की दृष्टि में 'सलवा-जुडूम' के आलोचक वे नक्सली हैं, जिन्होंने तमाम मानवाधिकार संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों और जनतांत्रिक आन्दोलनों में घुसपैठ कर ली है। या यदि विशुद्ध हथियारबंद नक्सली नहीं भी हैं, तो उन्हें 'लोजिस्टिक सपोर्ट' देनेवाले हैं। संगी-साथी हैं- जैसे बिनायक सेन। विनायक सेन यदि नक्सलियों के हमदर्द नहीं होते तो उनकी जमानत पर रिहाई में समूचे बस्तर में नक्सलियों द्वारा हर्षोल्लास भरा त्यौहार जैसा माहौल नहीं मनाया जाता । इतना ही नहीं, वे कभी न कभी उन आदिवासियों के लिए भी दो आँसू ज़रूर जुटा लिये होते जिनके वे हितैषी होने का अंतरराष्ट्रीय प्रचार करते रहे हैं ।

'तहलका' (अँग्रेज़ी) के जिस कथित ताज़ा अंक में उन आदिवासी युवतियों के विस्तृत बयान का जिक्र करते हुए लेखक ने उनके साथ 'ख़ास पुलिस अफ़सरों'(एसपीओज़) व आम पुलिस की मदद से नृशंस बलात्कार का सवाल खड़ा किया है । इसके संबंध में लेखक की जानकारी मूलतः एकांगी और अपूर्ण है । एकांगी इसलिए कि संवैधानिक नियमों, कानूनों के तहत लगभग सभी दोषी सिद्ध हुए तत्वों को दंडित करने क प्रक्रिया जारी है । और यह बिजली के किसी स्वीच को दबाने से संभव नहीं है । जहाँ तक ऐसे नृशंस बलात्कार का सवाल है वह नक्सलियों द्वारा किये जा रहे यौन शोषण के सामने कुछ भी नहीं है । ऐसे लेखकों के समक्ष एक घटना का जिक्र करना लाजिमी होगा जिसमें नक्सलियों के यौन शोषण से प्रताड़ित और गर्भवती आदिवासी महिला ने इसलिए अपने बच्चे को जन्म देने से इंकार कर दिया क्योंकि वह अपने बेटे को नक्सली का बेटा नहीं साबित करना चाहती थी । न केवल आदिवासियों बल्कि संपूर्ण मानवता के हिमायती लेखक ऐसी घटनाओं के दौरान कहाँ चले जाते हैं, समझ से परे नहीं हैं ।

लेखक का लगता है किसी भी संवैधानिक तंत्र पर कोई विश्वास नहीं है । और नक्सकलियों की भी नीति है कि किसी भी डेमोक्रेटिक युनिट पर विश्वास न करो किन्तु ज़रूरत और समय की नज़ाकत के मुताबिक उनकी ताकतों का सहारा लो और कमजोरियों पर प्रहार करो । ठीक उसी तरह जिस तरह लेखक ने संवैधानिक तंत्र की दुहाई भी दिया है ठीक दूसरी ओर छत्तीसगढ़ पुलिस और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' की जाँच टीम को भी प्रश्नांकित किया है । अब नक्सलियो के सिद्धांतो, रणनीतियों के सदृश कोई लेखक भी अपने तर्कों की पुष्टि करे तो उसे क्योंकर नक्सलियों या नक्सलवाद का संरक्षक लेखक नहीं कहा जाना चाहिए ?

अब ऐसे लेखकों के बारे में क्या कहा जाय जो 'फ़ोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डॉक्युमेंटेशन एंड एडवोकेसी' के उसके अध्ययन की फाईंडिंग को अपने पक्ष में प्रस्तुत करके कहे कि केवल दंतेवाड़ा के दक्षिणी ज़िले में 'सलवा-जुडूम' ने बारह हज़ार नाबालिग़ बच्चों का इस्तेमाल किया है और जो यह जानबूझकर नहीं कहता कि नक्सलियों ने बस्तर, राजनांदगाँव सहित अन्य प्रभावी क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार से नाबालिक बच्चों को घर से हकाल कर उनके हाथों बंदूक या एके राइफल थमा दिया है । लेखक को केवल वही वेबसाइट दिखाई देती हैं जो उनके पक्ष में हों, वे उन वेबसाइटों को नहीं देखते जो उनकी धज्जी उड़ाने के लिए काफी हैं । मैं इंटरनेट तकनीकी से पूर्णतः अनभिज्ञ ऐसे लेखक के प्रति क्या कहूँ तो विकीपीडिया को सर्वाधिक प्रमाणित मानते हैं । उन्हें यह नहीं पता कि यह ऐसी साइट है जिसे स्वयं पाठक ही रचता है । बहरहाल, उन्हीं के द्वारा उठाये गये मुद्दों के अनुक्रम में कहें तो 'सलवा-जुडूम' के चलते दहशत में जीनेवाले आदिवासियों की आबादी कम-से-कम डेढ़ लाख है। एक झूठ है । सच तो ऐसे लेखक भी जानते हैं कि उन्हें सलवा जुडूम की स्थिति तक लाचार बनाने नक्सलियों के कारण सारा बस्तर लगभग निर्वासित है, सांसत में है ।

चलें लेखक महोदय के अनुसार मान भी लें कि आदिवासी बड़े पूँजीवादी ताकतों के हाथों अपनी ज़मीन को बिकने से बचाने के लिए लड़ रहे हैं और ऐसे में जब उनकी सहानुभूति अर्जित करने के लिए नक्सली कूद पड़ते हैं तो आदिवासी उनका क्या करें ? यानी कि नक्सलियों के दबाब और पूर्व निर्धारित रणनीति के तहत आदिवासी को उकसाकर और उन्हें आगे रखकर उन्हें हिंसक होने पर उतारू बना दिये जायें । इसका एक मतलब यह भी है कि प्रशासन जब कानून और व्यवस्था को अधिनियमित बनाये रखने के लिए कड़ाई करे तो उसे नक्सली आदिवासियों के दमन और मानवाधिकार का मुद्दा बनाकार भी उछाल सकें । यानी कि नक्सलियों के दोनों हाथों में लड्डू होना चाहिए । उस लेखक की वह मानसिकता और एकांगी जीवन दर्शन भी अमान्य किया जाना चाहिए जिसमें वह राज्य के बरक्स आदिवासियों को हिंसा का सहारा लेने को समुचित करार दे किन्तु यदि आदिवासी ही जब ऐसे नक्सलियों के बंदूक, बम, लैड माईन्स से मरता चला जाये या उनके आंतक, शोषण से त्रस्त होकर सलवा जुडूम के रूप में एकजूट तक न हो सके । क्योंकि उससे आदिवासी की ही हानि है । लेखक का यह कितना हास्यास्पद तर्क है कि गाँधीजी के अनुसार विराट हिंसा के सामने आत्मरक्षा के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़े तो अनुचित नहीं । लेखक को यह कब समझ में आयेगा कि नक्सलियों द्वारा निहत्थे आदिवासियों की हत्या, नवजात बच्चों का कत्ल, जवान महिलाओं का यौन शोषण, उन्हें बरगला कर माओवादी बनाना भी एक वही हिंसा है जो गांधीजी के अनुसार अमानवीय है और इस नाते वर्जनीय व निंदनीय भी । लेखक का ध्यान उधर कब तक जानेवाला है समझ से परे है ।

लेखक के ऐसे कुतर्क आश्रित अर्थशास्त्रीय चिंतन को पढ़कर शर्म आना लगता है जिसमें नक्सलियों द्वारा अवैध रूप से की जा रही उगाही, व्यापारियों से नियमित वसूली, आदिवासियों की शारीरिक और आर्थिक शोषण, अवैध तरीकों से खरीदे जा रहे शस्त्रों पर होनेवाले व्यय को खर्च नहीं माना जाता और ऐसे नक्सलियों से स्वयं को बचाने के लिए आदिवासियों द्वारा लगाये जाने वाले गुहार यानी सलवा जूडूम के एसपोज, विशेष सुरक्षा अधिकारी पर होनेवाले व्यय पर आपत्ति जताती जाती है । अर्थात् लेखक को इस बात की तनिक चिंता नहीं कि नक्सली किस तरह वैश्विक चैनलों से जूडकर अवैध अस्त्र-शस्त्र इकट्ठा कर रहा है । ऐसा लेखकीय द्वैध लेखक होने की बुनियादी गरिमा को ही ध्वस्त कर देता है जिसमें लेखक की यह बात समझ से परे है - सरकारी धन के व्यय पर सामाजिक आडिट की व्यवस्था हो पर नक्सलियों द्वारा स्थापित समानांतर अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ कुछ हो चाहे न हो ।

जो प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान और उसके पदाधिकारियों द्वारा आयोजित (10-11 जुलाई, 2009, रायपुर) राष्ट्रीय आलोचना संगोष्ठी को राज्य सत्ता का आयोजन कहते हैं उन्हें हम यह चेताना चाहेंगे कि वे उन साहित्यकारों का अपमान कर रहे हैं जिनके बारे में वे जानते तक नहीं, और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय सृजनरत हैं । लेखक को यह गर्वोत्ति शोभा नहीं देती कि वे ही सरोकारी लेखन से जुड़े हैं शेष सब भोथरे हैं । यह लेखक का बौनापन है कि वे उसकी आलोचना करें जिसके बारे में बके जा रहे हैं उन्हें न तो साम्यवाद से कोई विशेष लेना देना है न ही गांधीवाद से । उन्हें न तो माकपा पर विश्वास है न ही भाजपा या फिर कांग्रेस आदि किसी राजनीतिक विचारधारा से । सिर्फ़ समवाय संस्कृति और साहित्य के लिए । ऐसे आग उगलनेवाले साहित्यकार को कोई अधिकार नहीं कि वे किसी अन्य संस्था पर कीचड़ उछालें । कीचड़ पर पैर डालने से कीचड़ ख़ुद की क़मीज की सुफैदी को भी मैला कर देता है यह भूलाना एक लेखक के लिए कम से कम अधर्म है । अनैतिकता है । अमर्यादित चेष्टा है । शायद ऐसे टेबिल राइटिंग करनेवाले ऐसे पत्रकारनुमा लेखकों को यह भी नहीं पता होता कि उनसे हजारों, सैकड़ो कोसों दूर का साहित्यकार किस मानसिकता का है, किन विचारों का है, किसके पक्ष में है और किसके विरोध में है । जो लोग ऐसा सोचते हैं वे लोग यह भी तय मानते हैं कि लेखन सिर्फ़ विचार है । वह किसी एक वर्ग या समुदाय की हितों के प्रति प्रतिबद्धता है । शेष जाये भाड़ में..... । शेष को हाशिए में रखकर निष्कर्ष देनेवाले को तानाशाह कहा जाता रहा है यह भी कौन याद कराये ऐसे पार्टीलेखकों को ।

यह आशुतोष जैसे दूरदर्शक लेखक का दोष नहीं है जो न तो विश्वरंजन के बारे में जानते हैं न ही बस्तर के बारे में, सलवा जूडूम के बारे में तो कतई नहीं जानते । शायद वे इसीलिए प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष (न तो स्वयंभू, न ही राज्य सरकार के किसी किसी विभाग द्वारा बिठाये गये, बल्कि राज्य के लगभग सभी बड़े साहित्यकारों की कार्यकारिणी द्वारा चयनित ) के बारे में अनर्गल प्रलाप करते हुए उन्हें पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़ से जोड़ देते हैं । चीज़ों को मिक्सअप करके देखना शायद उनके लिए अपनी बात मनवाने का सरलीकरण जैसा है ।

आशुतोष की यह दोष तो माफ करने योग्य भी है कि वे सलवा जुडूम के रणनीतिकार के बारे में जानते ही नहीं तो क्यों न विश्वरंजन या किसी को भी कुछ भी अनाप शनाप गाली न बक दें । क्योंकि उन्हें नक्सलियों के स्थानीय हितचिंकतों द्वारा जैसा सिखाया-पढ़ाया जा रहा है वह वैसे ही तो बोलेंगे । जो भी हो, आशुतोष जैसे लेखक की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि वे कम से कम यह सच तो स्वीकार करते ही हैं कि विश्वरंजन केवल पुलिस अधिकारी नहीं है, एक विचारवान लेखक भी हैं, जिनकी प्रजातंत्र को बचाने के लिए लेखन पर गहरी आस्था भी है । यह तो ठीक है कि किन्तु आशुतोष जैसे दया के पात्र लेखक को जाने क्यों, मुक्तिबोध के परम मित्र और सच्चे अर्थों में उन्हें मुक्तिबोध बनाने वाले आलोचक प्रमोद वर्मा, उनके नाम पर बनने वाले संस्थान, उनके पदाधिकारी साहित्यकारों, अपने पूर्वजों को याद करने के संघर्ष और आस्था और उनके नाम से होनेवाले साहित्यिक आयोजन से एलर्जी है, जो उसकी कुढ़कर निंदारस ले रहे हैं । शायद इसलिए कि वे या उनके मति से जो हो वही साहित्यिक है शेष असाहित्यिक । वे ही मनुष्य और उसकी संस्कृति के संरक्षक हैं शेष अमनुष्य और संस्कृति-भक्षक । यार अपनी दुकान पर विश्वास करो ना, क्यों दूसरे की समृद्धि देखकर अपनी नींद खराब करते हैं । फिर न तो आपको बुलाया गया है न कभी बुलाने के योग्य आप हो पायेंगे, क्योंकि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के आयोजन में आप जैसे कुंठित और कथित लेखकों के लिए कोई जगह है भी नहीं । हाँ आप चाहें तो जिसको भड़का सकते हैं, भड़काते रहें । हम अशोक बाजपेयी की दिल्ली से यदि दिल्ली दर्प दमन जैसा कोई काम कर रहे हैं तो आपको अपनी दिल्लीवाली किले को और अधिक मजबूत बनाने की दिशा में लगना चाहिए न कि खिसियानी बिल्ली की तरह खम्भा नोंचना चाहिए । यदि आपको माओ भाते हैं तो गाते रहिए । व्यक्तिगत आपेक्ष क्यों लगाते हैं संस्था पर । किसी राज्य पर । किसी राज्य की आस्था पर । लेखकों की निजी अवधारणाओं पर ।

आप अपने सामान्य ज्ञान को जरा दुरुस्त करने के अंहकार से मुक्त हों तो बताऊँ कि महानुभाव, सलवा जुडूम की शुरुआत और विस्तार के समय विश्वरंजन न तो राज्य में पदस्थ थे न ही वे पुलिस महानिदेशक थे । इसलिए वे इसके रणनीतिकार भी नहीं है । जैसे आपको सलवा जूडूम में बुराई दिखती है और विश्वरंजन को अच्छाई तो यह निजी आप लोगों का विचार है । आप बस्तर के निवासी या राज्य के निवासी तो है नहीं कि पूरी तरह जान सकें कि आप जिस गिलास को देख रहे हैं वह आधा खाली है या आधा भरा हुआ । आइये दो चार साल बस्तर या छत्तीसगढ़ का निवासी बनकर देखिए, फिर बस्तर की किसी चीज़ पर बकिये.... । आपको किसी ने दूरवाला ढोल पकड़ा दिया तो उस पर मत जाइये कि वही सुहावन लगेगा ।

यह तो हमें आपसे ही पता चला कि आप जैसे लोग हिन्दी के बड़े कवि-लेखकों को समारोहों में जय-जयकार करने के लिए बुलाते हैं । अब मै आपकी मूर्खता पर क्या कहूँ कि जब आप आयोजन में ही नहीं कि किसने किसके सूर में किसे लांछित करने के लिए सुर मिलायेंगे । लगता है आप माओवादियों से अधिक कुंठित हो चुके हैं जो यह कह रहा है कि विश्वरंजन को अपनी रणनीति की कामयाबी पर गर्व क्यों न होगा! आप ईर्ष्यालु टाइप के इंसान हैं जो हमें यानी कि संस्थान के सभी पदाधिकारियों को मूर्ख और स्वयं को परम विद्वान और परम दृष्टा समझते हैं ।

मूझे आपकी टिप्पणी पर तरस आता है कि साहित्यिक संस्थान के अध्यक्ष के कर्मक्षेत्र में पुलिस प्रमुख हो जाने मात्र हो जाने से संस्थान पुलिस प्रमुख का दलाल हो जाता है । राज्य का दलाल हो जाता है । जिस कोकिया भय से आप दुबले हुए जा रहे हैं। इसका मतलब तो यही हुआ कि यदि आप किसी लेखक संगठन के प्रमुख हों और आपको कोढ़ है तो सभी को कोढ़ हो जायेगा । क्या आप बताना चाहेंगे कि आपके ऐसे कितने मित्र पुलिस या सेना में नहीं है और जो पुलिस या सेना के कथित अत्याचार से अधिक अत्याचार अपने पत्नी, परिवार, समाज, देश के साथ कर रहे हैं । क्या आप यह भी बताना चाहेंगे कि आपके ऐसे कितने मित्र लेखक पुलिस में हैं जिन्हें पुलिस में नहीं होना चाहिए तो क्या आपने उनसे इस्तीफा लिवाया ? या वे इस्तीफा देंगे ।

मित्र औरों पर थूकना छोड़ो, अपना काम देखो, आपका हम साहित्यकारों पर यह इल्जाम किसी भी कोण से फबता नहीं है । फिर आप कब से हमारे विरोधी हो गये जिसकी पाइप लाइन काटने के लिए राज्य के हम साहित्यकार सांस्कृतिक सलवा जूडूम चला रहे हैं । और आपको कैसे पता चल गया कि अमूक हमारा सहयोगी है, इसका मतलब तो यह भी हुआ कि वह आपका विरोधी है । और आपका काम केवल विरोध करना ही है । अपने खोल से बाहर निकलिए, दुनिया को देखिये, दुनिया की गति को देखिये, यदि दुनिया की गति को नहीं देखेंगे तो पिछड़ जायेंगे, क्योंकि यदि आपके जीवन मे गति ही नहीं रह जायेगी तो फिर वहाँ क्या बचेगा । माओवादी के देश में भी गति को पकड़ी जा रही है और आप हैं कि वही पुराना राग अलापे जा रहे है......

Thursday, July 16, 2009

आलोचक श्री पंकज चतुर्वेदी को खुला पत्र

प्रिय पंकज चतुर्वेदी जी,

आपका ई-पत्र, जो प्रमोद वर्मा संस्थान के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन के नाम संबोधित है, उन तक पहुँच दी गई है । मैं आपको उनकी ओर से नहीं अपितु निहायत निजी तौर पर अपनी ओर से ( संस्थान के कार्यकारी निदेशक होने के नाते भी ) आपके पत्र के परिप्रेक्ष्य में कुछ बातों को स्पष्ट करना चाहूँगा । शायद शेयर करना भी होगा यह ।

जैसा कि आपने भी लिखा है कि “आप (यानी विश्वरंजन) सार्थक तथा उदात्त चिन्ताओं से प्रेरित होकर यह अहम् संगोष्ठी करा रहे हैं ।” इसमें न तो किसी को कोई शक़ था, न है, न रहेगा । संस्थान की ऐसी चिंताओं के पीछे उनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता भी रही है और भविष्य में भी रहेगी । वैसे अब तो आयोजन संपन्न हो चुका है और उसके सार्थक निष्कर्षों की अनुगूंज लेकर देश और छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार जा चुके हैं।

आपने अपने संस्थान की ऐसी सोच और दृष्टि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है, यह कहकर कि आप जैसे अदना लेखक को इसमें आमंत्रित करने लायक समझा गया, हम आपके प्रति और आपके द्वारा उन चिंताओं के सहकार बनने हेतु रायपुर आने के लिए कराये गये रिज़र्वेशन्स (किन्तु रायपुर नहीं आने के बावजूद) में लगे श्रम, समय और संभावित जद्दोजहद के लिए आभार प्रकट करते हैं ।

आभार इसलिए कि आप भी संस्थान (और संस्थान के अध्यक्ष होने के नाते निजी तौर पर विश्वरंजन जी सहित संस्था के सभी हम सदस्यों ) की चिंताओं से सहमत हो चुके थे और देश के एक क्रियाशील युवा आलोचक होने के नाते संगोष्ठी (10-11 जुलाई, 2009, रायपुर) में आने की पूरी तैयारी कर चुके थे । जिसका ज़िक्र आप आयोजन के कुछ दिन पहले तक मोबाइल पर होती रही चर्चा के दरमियां भी करते रहे थे । इसका एक मतलब हम क्या यह भी नहीं निकाल सकते कि चर्चा के दौर तक आपको ऐसी कोई जानकारी नहीं थी कि आपको आमंत्रित करनेवाले विश्वरंजन वही हैं जिनके बारे में आपको अब ऐसा लिखना पड़ रहा है कि....

जैसा कि आपने उक्त पत्र में लिखा है कि – “6 जुलाई, 2009 को सहसा मेरी नज़र हिन्दी पाक्षिक 'द पब्लिक एजेंडा' के 8 जुलाई, 2009 के पृ. सं. 13 पर छतीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक के तौर पर प्रकाशित आपके ( विश्वरंजन) साक्षात्कार पर गयी और इसे पढ़कर मैं इतना विचलित हुआ कि मुझे उपर्युक्त संगोष्ठी में हिस्सेदारी करने का अपना फ़ैसला रद्द करना पड़ा और रायपुर आने के अपने रेलवे रेज़र्वेशन्स भी। कृपया इस असहयोग के लिए मुझे क्षमा करेंगे और मेरी वैचारिक असहमति को हरगिज़ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं ग्रहण करेंगे !”

चूँकि प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में आपके आमंत्रण, आगमन की सुनिश्चितता और लगातार संपर्क के मध्य विश्वरंजन नहीं अपितु सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही था, विश्वरंजन ( सामान्य विश्वरंजन या पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ) कदापि नहीं । ऐसा मैं इसलिए भी कह पा रहा हूँ क्योंकि आपके नाम का सुझाव मैंने ही दिया था । मुझे नहीं पता कि इससे पहले विश्वरंजन आपके आलोचक को जानते रहे हैं । पर इतना तो है कि आपके नाम को प्रस्तावित वक्ता के रूप में रखने के बाद से आपके आलोचक होने से परिचित हो चुके थे ।

अतः पुनः निजी तौर पर मैं (आपकी विनम्र भाषा में ही एक अदना लेखक होने और संस्थान के कार्यकारी निदेशक होने के नाते भी ) आपके इस तरह विचलित होने पर यही कहना चाहूँगा कि आपका असहयोग विश्वरंजन के प्रति ही नहीं है, उस समूचे संस्थान के प्रति है, उन सारे सदस्यों की उस आस्था के प्रति भी असहयोग है जिसमें आपको एक नीर-क्षीर विवेक कर्म वाले आलोचक मानने की निर्मल भावना भी सम्मिलित है । दरअसल आपका यह असहयोग उस विश्वरंजन के प्रति नहीं है जो एक इंसान है, संवेदनशील कवि है, देश का प्रतिष्ठित ईमानदार पुलिस अधिकारी है, फ़िराक गोरखपुरी का नाती है, प्रमोद वर्मा जैसे बड़े आलोचक और कवि का मित्र है और लगभग शिष्य भी और इतना ही नहीं ऐसे भूलने-भूलानेवाले दौर में अपने पूर्वजों, इतिहासपुरुषों को याद करने की जद्दोजहद और चुनौती से मुठभेड़ करनेवाले भी ।

दरअसल आपका यह असहयोग उस “सलवा जुडूम” के प्रति है, जिसकी एकांगी तस्वीर आप तक पहुँचायी गयी है या आप उसका वही मायने समझते हैं या समझना चाहते हैं और जैसा कि आपने लिखा भी है - 'सलवा जुडूम' सरीखी सरकार द्वारा संरक्षित, पोषित और संचालित, साधनहीन, विपन्न और अत्यंत सामान्य मानवाधिकारों से भी महरूम आदिवासियों का दमन करनेवाली संस्था का बेझिझक और सम्पूर्ण समर्थन करते हैं, जो मेरे जैसे लोगों के लिए एक बहुत तकलीफ़देह मामला है ।”

क्षमा करें चतुर्वेदीजी, यह सर्वथा झूठ और भ्रामक धारणा है जो प्रायोजित तौर पर सारे देश और दुनिया में फैलाया गया है । आप स्वयं समझ सकते हैं - बार-बार बोला गया झूठ अंततः सत्य में तब्दील हो जाता है पर वह सत्य तो होता नहीं है । यह हमारे राज्य की माटी के प्रति भी अपराध है । हमारे लोगों के विचारों का भी दमन है । और यह दमन है तो वह भी हिटलरी वृति है । विचारों की हत्या को मैं और शायद आप भी इसी तरह देखते होंगे....

ऐसा वे लोग कहते हैं जिन्हें बस्तर के आदिवासियों के जीवन-संघर्ष का इतिहास मालूम नहीं है, जिन्हें आदिवासियों का आक्रोश पसंद नहीं है, जिन्हें उनके वास्तविक शोषकों का वास्तविक चेहरा दिखाई नहीं देता, जिन्हें माओवादी नक्सलियों की धूर्ततापूर्ण संवेदना और सहानुभूति से मतिभ्रष्ट और अब संत्रस्त आदिवासियों की नयी उम्मीद पर विश्वास नहीं है । यदि आप और हम नक्सलवाद के मूल में आदिवासियों, दलितो, ग़रीबों के विकास की धीमी गति, प्रशासनिक भ्रष्ट्राचरण, आसराहीन व्यवस्था को मानते हैं तब तो इन नक्सलियों द्वारा पिछले 30-40 वर्षों में बस्तर या अन्यत्र कहीं के भी ऐसी अविकसित, पिछड़े, दलित, दमित, शोषित जनता के विकास के लिए वह सब देखते जैसा कि माओ ने देखा था या मार्क्स ने । क्या आपके पास ऐसा कोई उदाहरण है जिसे देखकर आप संतोष व्यक्त कर सकें कि प्रजातंत्र का विकल्प बनने की दक्षता माओवाद में है ? या वे उनके वास्तविक हितैषी थे, हमदर्द थे । यदि ऐसा होता तो निश्चित रूप से ऐसे माओवादियों द्वारा बस्तर में आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल बनवाये जाते, शौचालय बनाये जाते, अस्पताल बनाये जाते, दुर्गम गाँवों तक पहुँचने के लिए रास्ते बनाये जाते, उनके लिए उनक वनोपज का विपणन किया जाता, उनकी मज़दूरी का वास्तविक भूगतान कराया जाता आदि-आदि.... नक्सलवाद यदि शोषितों, पीड़ितों, दलितों, वंचितों के लिए है तो भी उनके लिए नक्सलवादियों या उनके अनुयायियों, बौद्धिकों ने इस दिशा में क्या-क्या किया है, इसका हिसाब क्या नहीं माँगा जाना चाहिए ?

मैं नहीं जानता कि आप सलवा-जुड़ूम के बारे में कितना जानते हैं, कितना जानने की चेष्टा करते रहे हैं और कितना जानने की चेष्टा भविष्य में करते रहेंगे और जानने के बाद भी किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के संजाल से स्वयं को मुक्त भी नहीं करना चाहेंगे, यद्यपि जिसकी संभावना शून्य भी हो सकती है ।

मित्रवर, ( संबोधन की ऐसी अनुमति तो आप शायद दे ही सकते हैं) सलवा जुड़ूम साधनहीन, विपन्न अत्यंत सामान्य मानवाधिकारों से भी महरूम आदिवासियों का दमन करनेवाली संस्था नहीं बल्कि आदिवासियों द्वारा उन्हें छलपूर्वक पहले हितैषी बनाने और एक निश्चित अवधि के बाद अब उनपर उन्हीं के द्वारा होनेवाले अत्याचार, अनाचार से मुक्ति का आंदोलन है । धोख़ेबाज़ मित्रों के ख़िलाफ़ आक्रोश है । शांतिपूर्ण जीवन की माँग है । इसकी शुरुआत दंतेवाड़ा के आदिवासी सरपंच, जनप्रतिनिधि और सामान्य नागरिकों, युवाओं ने की थी कि उन्हें शांति चाहिए, मुक्ति चाहिए । आख़िर किससे ? आख़िर किसलिए ?
सिर्फ़ और सिर्फ़ उनसे मुक्ति का जनांदोलन है, जो नक्सली उनका शोषण करते हैं, जो नक्सली उनकी माँ-बहिन की सरे आम इज्जत लूटते हैं, जो नक्सली उनके देवी-देवताओं, उनकी प्रथा-परंपराओं, निजी मान्यताओं, जीवन-दर्शन की निंदा करते हैं, जो नक्सली उनसे बेगारी कराते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों की पाठशाला, चिकित्सालय, पंचायत भवन को ध्वस्त कर देते हैं, जो नक्सली उनके ग्राम में बनने वाली सड़क को खोद कर रास्ता उन्हें चारों ओर से बंद कर देते हैं, जो नक्सली उन्हें प्रजात्रांतिक तरीक़े से सत्ता में भागीदार बनने से वंचित करते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों तक रोशनी पहुँचानेवाले बिजली टॉवर और टॉवर उड़ा देते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों में होनेवाले विकास कार्यों का विरोध करते हैं, जो नक्सली ऐसे क्षेत्रों में पदस्थ सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों से अपने कथित क्रांतिकारी आंदोलन के लिए चंदा लेते हैं, जो नक्सली बड़े पूँजीपतियों को बस्तर में व्यापार करने देने के लिए मासिक उगाही पर परमिट जारी करते हैं, जो नक्सली जंगल के ठेकेदारों से थैली लेकर अपनी जेबें भरते हैं, जो नक्सली सबसे पहले उन्हें प्रचलित प्रजातांत्रिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ दूसरी व्यवस्था (जाने कौन सी ?) को सर्वोच्च और अंतिम बताते हैं, व्यवस्थागत ख़ामियों के ख़िलाफ़ भड़काकर अंतिम रूप से सिर्फ़ हिंसा या ख़ूनी क्रांति से आज़ादी के लिए संघर्ष का पाठ पढ़ाते हैं, जो नक्सली उन्हें गाँव से हकालकर पुलिस और अर्धसैनिक बल से युद्ध या मुठभेड़ के समय आगे करके स्वयं को सुरक्षित रखते हैं, जो नक्सली अपने संघम् सदस्यों ( ग्रास रूट पर माओवादी हिंसक गतिविधियों को संचालित करने वाले कार्यकर्ता ) की मृत्यु पर भाड़े के बुद्धिजीवियों से देश-विदेश में मानवाधिकार का मुद्दा उछलवाते है किन्तु निरीह, निर्दोष और निरपराध आदिवासियों के मारे जाने पर पूर्णतः चुप्पी साध लेते हैं, जो नक्सली अपनी बात नहीं माननेवाले ग्रामवासियों को बीच बर्बरतापूर्वक बस्ती में गला रेत देते हैं, जो नक्सली भारतीय कानून का विरोध करते हैं दूसरी ओर एकतरफ़ा मानवाधिकार के नाम पर व्यवस्था के अंगों को बदनाम करने के लिए उसी कोर्ट का शरण लेते हैं, जो नक्सली चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका से अवैध अस्त्र और शस्त्र इकट्ठा करते हैं, जो नक्सली बड़ी मात्रा में जाली नोट और मादक द्रव्यों से भारी भरकम राशि इकट्ठा करते हैं, जो नक्सली चित्त और पट्ट दोनों को अपना मानते हैं ।

चतुर्वेदी जी, सलवा जुडूम वर्तमान सरकार की कोई योजना नहीं है, उसे किसी भी विभाग की कल्याणकारी योजना में सम्मिलित नहीं किया गया है जिसके लिए कोई शासकीय या गैर शासकीय अधिकारी अमला का प्रावधान रखा गया हो, कोई शासकीय बजट आबंटन रखा गया हो । आप एक सरकारी आदमी होने के नाते इतना तो जानते ही होंगे कि बिना योजना, बिना अमले, बिना बजट के कुछ भी काम सरकार में संभव नहीं होता ।

आप भारी ग़लतफ़हमी के शिकार हैं कि सलवा जुडूम सरकारी योजना है जिसे माओवादियों ने निपटने के लिए राज्य सरकार ने शुरू किया है । भाई मेरे, इसे न तो किसी राज्य सरकार ने शुरू किया है, न तो पुलिस मुखिया होने के नाते विश्वरंजन ने और न ही किसी अन्य ने । काश, देश की बड़ी-बड़ी राजधानियों में बैठे-बैठे लाखों-करोड़ों का अनुदान झपटनेवाले और जनपक्षधर होने का स्वांग भरनेवाले ऐसे समाजसेवी कभी बस्तर में ऐसी जनचेतना फैलाये होते, जिससे उन्हें आततायी के विरूद्ध उठ खड़े होने की हिम्मत जागती । काश, स्वयं बस्तर में रहकर आदिवासियों के जागरण का बीड़ा उठानेवाले स्वयंसेवी संस्थायें ऐसा कुछ कर पातीं जिससे नक्सली उनके नेता नहीं बन पाते और आज ऐसी नौबत भी नहीं आती । आप इससे तो सहमत होंगे । माना कि पचास-साठ साल से सारी प्रजातांत्रिक सरकारें बस्तर के विकास में निकम्मी साबित हुईं और उधर आदिवासियों में भी अपने विकास, अधिकार के प्रति जागरूक नहीं थी कि वे सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पाते ।

यदि आप माओवाद को विकासहीनता से उबरने का क्रांतिकारी रास्ता मानते हैं तो आपको यह भी गारंटी लेनी होगी कि कहीं आप तो उसके मार्ग में रोड़ा नहीं अटका रहे हैं । आप उसके विकास के कितने आयामों पर संघर्षरत हैं, यह भी देखना होगा और इसे कौन देखेगा ? अंततः वही आदिवासी जनता ना !, यदि ऐसा हो सका होता तो बस्तर के आदिवासी आज निश्चित रूप से अपने विकास के उस पायदान पर खड़े हुए होते, जिसकी अपेक्षा माओवादी विचार पर विश्वास करनेवाले आज कर रहे हैं । और संभव है वहाँ के माओवादी आदिवासी विधानसभा, जिला पंचायत, ग्राम पंचायत आदि गणत्रांतिक संस्थाओं में पहुँचकर विकास के पुरोधा भी बन चुके होते । बस्तर का विकास रच रहे होते ।

क्या, उन्होंने बस्तर के आदिवासियों को सत्ता में भागीदारी का पाठ पढ़ाया ? माओवादियों ने ऐसा कभी नहीं किया । दरअसल यह उनका लक्ष्य ही नहीं है । कानू सान्याल के शब्दों में कहें तो नक्सलवाद पूरी तरह दिशाभ्रष्ट हो चुका है, वह हिंसक और विध्वंसक हो चुका है, ऐसा उनका सपना नहीं था, जो जनविरोधी हो उसे क्योंकर नक्सलवादी माना जाये । दरअसल माओवाद का लक्ष्य प्रचलित प्रजात्रांतिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनआक्रोश पैदा करना, उस जनआक्रोश के सहारे जनतांत्रिक अंगों को अनुपयुक्त साबित करना और हिंसक लोगों के सहारे माओवादी शासन स्थापित करना है ।

आपने तो सुन ही रखा होगा कि बस्तर में माओवादियों की पृथक सरकार है जो जैसा चाहे वैसा निर्णय लेती है । यदि आप उनके अनुयायी हैं तो आपको जान की मोहलत । यदि आप उनसे सहमत नहीं है तो बीच बाज़ार आपकी गला रेंत दिया जायेगा । भोले-भाले आदिवासियों को बंदूक पकड़ाकर ऐसे माओवादी कौन-सी प्रजात्रांतिक गतिविधियाँ संचालित कर रहे हैं बस्तर में ? आपने भी सुना होगा कि अब तो हद पार करके बस्तर के आदिवासियों के छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में हथियार थमाया जा रहा है । जिन परिवारों से एक बच्चा नहीं दिया जा रहा है उन्हें माओवादी सरे आम पिट रहे हैं, हत्या कर रहे हैं । आप बताना चाहेंगे ये कौन-सा समाज गढ़ना चाहते हैं ? आप बताना चाहेंगे ये दुनिया को किधर ले जाना चाहते हैं ? क्या आप यह भी बताना चाहेंगे इसमें किसी भी प्रकार का मानवाधिकार का हनन नहीं होता ? यदि आप जैसे आलोचक के पास इसका उत्तर नहीं है तो इस महादेश के ऐसे समय, परिस्थिति का मूल्याँकन कौन कर पायेगा ?

चतुर्वेदी जी, बस्तर में सलवा-जुडूम भोले-भाले आदिवासियों के उस विचार का समर्थन है जिसमें माओवादी और बर्बर हो चुके नक्सलियों से मुक्ति और शांतिपूर्ण जीवन की आंकाक्षा निहित है । यदि आपके पास भी कोई किसी आततायी से निपटने के लिए मदद माँगने आये तो ज़ाहिर है आप भी मदद करेंगे । बस्तर में आदिवासी पिछले कई दशाब्द से नक्सलियों से त्रस्त हैं । आप इतना तो जानते हैं । नहीं जानते तो मुझे माफ़ करें । मैं उस नैतिकता की भी याद दिलाना चाहूँगा जिसे न आप-हम छोड़ सकते हैं और जिसे हर सरकारों को याद रखना चाहिए । क्या कोई सरकार इतना अनैतिक हो जाये कि वह हिंसा के ख़िलाफ़ मदद माँगनेवाले निहत्थे के साथ खड़ा भी न हो सके, उन्हें मदद भी न करे और उस मदद में राज्य पुलिस का मुखिया होने के नाते विश्वरंजन का समर्थन हो तो उसे बुरा मान लिया जाये । और मित्र, यदि सीधे-सरल आदिवासी अकारण जान लेनेवाली नक्सली तानाशाही के ख़िलाफ़ हथियार पकड़कर भी उठ खड़े हों तो आप या हम कौन होते हैं जो उन्हें ऐसा करने से रोकें ? बस्तर के आदिवासी नक्सलियों को खदेड़ना चाह रहे हैं, आदिवासियों को नहीं । यदि ऐसे नक्सली आदिवासी हैं तो यह उनका दोष है । आप अपने भाई के हत्यारा हो जाने पर माफ़ कर सकते हैं, दोबारा हत्या करने पर मुँह छुपा सकते हैं किन्तु पता चला कि वह आपको ही हत्या करने के लिए उतारू हो जाये तब आप क्या करेंगे ? आदिवासी यदि सलवा जुडूम के माध्यम से नक्सलियों से कह रहा है कि बस्स, बहुत हो चुका, हमें आपकी भी व्यवस्था नहीं चाहिए तो उसे ऐसा कहने का अधिकार है । इस अधिकार से उसे वंचित करने नीयतवालों को क्या कहा जाये, यह आप ठंडे मन से सोचें तो आपकी आत्मा अवश्य उसका जवाब दे देगी......

सलवा जुडूम को आदिवासियों के ख़िलाफ़ अभियान मान बैठने या मनवाये जाने के निहितार्थों और ख़तरों को भी हमें समझना होगा जैसा कि छद्म मानवाधिकारवादी इन दिनों करते देखे जा रहे हैं । क्या आप यह भी जानना नहीं चाहेंगे कि सलवा जुडूम का प्रतिरोध आख़िरकार क्यों किया जा रहा है ? किन लोगों के द्वारा किया जा रहा है और इससे उन्हें क्या मिलनेवाला है ? सलवा जुडूम का विरोध बस्तर के आदिवासी नहीं कर रहे हैं । सलवा जुडूम का विरोध दरअसल उन बुद्धिजीवियों के द्वारा भी नहीं किया जा रहा है जो हर उस आदिवासी के मानवाधिकार के हनन पर भी आँसू बहाते हैं या संघर्ष करते रहे हैं । यदि मानवाधिकार सच्चाई है और समय की माँग है, मनुष्य को मनुष्य की तरह जीने का वातावरण देने का मुद्दा है तो आख़िर वे बस्तर उन निरीह आदिवासियों की आवाज़ क्योंकर नहीं बनते, जो माओवादियों के हाथों अपनी जान गँवाने को लाचार हैं? क्या माओवादियों की बस्तर राजनीतिक तानाशाही, निर्मम हत्या, लूटपाट, बलात्कार, सार्वजनिक तंत्र का सत्यानाश पर किसी प्रकार का कोई भी मानवाधिकार नहीं बनता । माओवादी हिंसा करें तो वह सामाजिक क्रांति है और आदिवासी उनसे बचने के लिए आंदोलन करें तो वह मानवाधिकार का प्रश्न है, ऐसा कैसे हो सकता है ? सलवा जुडूम के विरोध के पीछे दरअसल वह रणनीति है जिसमें माओवादियों के किलों, गढ़ों, परकोटों की चूलें हिल चुकी हैं । आप जानते ही हैं, वे बस्तर में इन्हीं आदिवासियों के सहारे अपना पैर जमाये हुए हैं । और शायद इसलिए कि आदिवासियों को बड़ी सरलता से पटाया जा सकता है, आसानी से उनके आक्रोश को हवा दी जा सकती है ।

आदिम युग से अबतक शोषक और शोषित दो स्थितियाँ हैं, जिनका लाभ उठाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों की ज़मात आज शीर्ष पर हैं। मानवाधिकार की चर्चा इस जमात का एक प्रिय अस्त्र है । मेरी इस बात की पुष्टि विश्व के घटनाक्रम कर चुके हैं, मैं नहीं ।

पंकजजी, यदि माओवादियों, नक्सलवादियों की ऐसी गतिविधियों पर आप जैसे लेखक-आलोचक को भी सहानुभूति है तो इस देश को अब भगवान ही बचायेगा ।

आपने विश्वरंजनजी को प्रेषित पत्र में लिखा है कि उन्होंने (विश्वरंजन) कहा है --"इस समय बस्तर में हम पूरे ज़ोर-शोर से माओवादियों से लड़ रहे हैं। "सवाल है कि ये 'माओवादी' कौन हैं ? क्या ये वही आदिवासी नहीं हैं, जिन्हें माओवादी बताकर हाल ही में पश्चिम बंगाल पुलिस ने लालगढ़ में न सिर्फ़ उन पर अत्याचार किये हैं; बल्कि बकौल मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी, "उनकी हत्याएँ भी की हैं। "बहरहाल,आपने अपने इस साक्षात्कार में यह आत्मविश्वास भी व्यक्त किया है कि "उनके ख़िलाफ़ पुलिस ही लड़ेगी और अंत में जीतेगी। " तो महोदय, पुलिस के आख़िरकार जीत जाने में भला किसको संशय हो सकता है ? कुछ ही समय पहले दिवंगत हुए महान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने कभी अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "हमारे देश का सबसे शक्तिशाली आदमी पुलिस कांस्टेबल होता है। "फिर जहाँ पूरे देश की पुलिस लालगढ़ से छत्तीसगढ़ तक आदिवासियों के बेरहम दमन में शामिल हो; वहाँ उसके अकूत पराक्रम की तो केवल कल्पना की जा सकती है ! इस अद्भुत बल-विक्रम का एक सुबूत पेश करते हुए आपने कहा है --"उत्तर छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को खदेड़ दिया गया है ।"गौरतलब है कि आपने यह नहीं बताया कि ऐसे लोगों को खदेड़कर पहुँचाया कहाँ गया है ! दूसरे शब्दों में, उनके पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ?

मैं समझता हूँ कि शायद अब आपको बताने की ज़रूरत नहीं कि बस्तर के माओवादी कौन हैं, फिर भी मैं जितना राज्य को समझता हूँ, आदिवासियों को समझता हूँ और राज्य की नक्सली अभियान के बारे में जानता हूँ – बस्तर के माओवादी वे नहीं हैं जैसा आप समझते हैं या जैसा आपको समझाया जा रहा है, बस्तर के आदिवासी मूलतः माओवादी हो ही नहीं सकते । मित्र, आज से 30-40 के पहले के बस्तर के बारे में कल्पना करें । जिन्हें अपने घने जंगल, अपनी खेत-ख़ार, अपनी नदियों, घाटियों, अपने पेड़-पौधों से अधिक कुछ भी नहीं पता, दरअसल वही उनकी पाठशाला था, और वही उनका जीवन, अर्थव्यवस्था और सबकुछ । जो दिन भर मछली पकड़ने, वनोपज संग्रहित करने, चिड़िया मारने और थोड़ी मोड़ी खेती-बारी करने के बाद रात को मंद पीकर उन्मुक्त होकर जीते थे । अर्थात् जिनके लिए जंल, जंगल और ज़मीन के अलावा बाक़ी सब अकारज़ लगता था । न पढ़ाई-लिखाई से मतलब न ही नये ज़माने की तालीम और तकनीक से । क्या आप सोच सकते हैं कि उन्हें तब माओ और उसके सत्ता प्राप्ति के क्रांतिकारी विचारों के बारे में पता लग चुका था और वे माओवादी रास्तों से अपना विकास करने के लिए अग्रगामी हो चुके थे ? या आप या हमारे जैसे किसी क्रांतिकारी विचारकों से प्रभावित होने की उनमें सोच थी ? ना, ना, ऐसा कहना ग़लत होगा । ऐसा कहना आदिवासी को गाली देना भी होगा । तो भाई मेरे, बस्तर में माओवाद के संस्थापक या प्रचारक आदिवासी नहीं बल्कि वे बाहरी लोग थे जो प्रजातंत्र से रुष्ट थे, जिनका भारतीय शासन प्रणाली पर विश्वास उठ चुका था, जो ख़ूनी क्रांति पर विश्वास करते थे । ऐसे लोग आन्ध्रप्रदेश या पड़ोसी जिलों से पलायन करनेवाले माओवादी हैं जिन्हें बस्तर का भूगोल, वहाँ से सीधे-सादे आदिवासी, तात्कालीन वन अधिनियम की कमज़ोरियाँ आदि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कहीं अधिक सकारात्मक थीं । और आज की स्थिति में कहें तो उसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली ।

हुआ क्या कि उन्होंने वर्षों तक स्वयं का चेहरा ग्रामवासियों के हितैषी के रूप में बनाये रखा । उनका विश्वास जीतने की कोशिश की कि वे ही उनके हमदर्द हैं । ऐसे समय वे जंगल ठेकेदारों से उनकी मज़दूरी, तेंदूपत्ता तुड़वाई का सही दर दिलाने के लिए आवाज़ भी उठाते रहे । सरकारी ख़ासकर वन अधिकारियों की कमज़ोरियों को प्रचारित करते रहे, आदि-आदि । बात यहाँ तक होती तो ऐसे माओवादियों को वे या आप या हम आज भी वनबंधुओं का मसीहा की तरह देखते । पर दरअसल उनका ऐसा लक्ष्य ही नहीं था । उनका लक्ष्य तो वर्तमान शासन प्रणाली को ध्वस्त करना और दिल्ली के लाल किले में लाल झंडा फहराना है । आदिवासी का हित तो बहाना मात्र है । आदिवासियों का विश्वास जीतने के बाद ये माओवादी उनमें धीरे-धीरे ऐसे तंत्र का पाठ पढ़ाने लगे दूसरी ओर ऐसे आदिवासियों के मन में व्यवस्था के प्रति आग भरने लगे और धीरे-धीरे ऐसे आदिवासियों के हाथों बंदूक, ए.के.47 पकड़वा दिया कि लो, सारे तंत्र को उखाड़ फेंको और चारों तरफ़ लाल झंडा फहरा दो । यह ठीक है कि उनके सम्मुख प्रजातंत्र पर विश्वास का पाठ पढ़ानेवाला कोई तंत्र नहीं था, और न ही उनके स्वयं के जनप्रतिनिधि भी इस कथित जनाक्रोश का निराकरण नहीं कर सके । दूसरे शब्दों में इसे यूँ भी कहा जा सकता है, उनके भीतर से चुने गये सांसद, विधायक या कोई ऐसा जनप्रतिनिधि भी उभर कर न आ सका जो उन्हें उनके स्वप्नों को पूरा कर सके ।

आपने जानना चाहा है कि उनकी (माओवादियों) विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है?

काश, ऐसा होता और माओवादियों की विचारधारा को उसकी नैतिकता, पवित्रता और विश्वसनीयता के साथ जनता की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त होता । यह एक भ्रामक तथ्य है कि जनता को उसका समर्थन प्राप्त है । जिसे आप जनता कहते हैं और वास्तविक में वह जनता ही है तो वह किसी भी हालत में हिंसा पर विश्वास करनेवाले माओवादियों पर कदाचित् विश्वास नहीं करेगी । जनता ने और कम से कम भारतीय जनता ने हिंसा की बुनियाद पर खड़े होनेवाले दर्शन और विचारधारा को कभी समर्थन नहीं दिया है । इतिहास के पन्नों से उदाहरण ढूँढकर आपके समक्ष गिनाने की ज़रूरत शायद न हो। अयोध्या में जब विवादित ढाँचा ढ़हाया गया तब क्या देश की बहुसंख्यक जनता ने विरोध नहीं किया ? क्या गोधरा में दंगाइयों ने जनता का विश्वास और स्नेह अर्जित किया ? आदि..आदि...

आपने संस्थान के ई-मेल से भेजे अपने विरोध पत्र में ( संस्थान के अध्यक्ष नहीं डीजीपी विश्वरंजन से ) जानना चाहा है कि "उत्तर छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को खदेड़ दिया गया है ।" गौरतलब है कि आपने यह नहीं बताया कि ऐसे लोगों को खदेड़कर पहुँचाया कहाँ गया है ! दूसरे शब्दों में, उनके पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ?

आपके उपर्युक्त प्रश्न में उपयोग किये शब्दावली और उसके केंद्रीय आशय का एक मतलब यह भी हो सकता है कि शायद आप नक्सलियों के हमदर्द हैं, या उनके प्रवक्ता हैं या फिर आप नक्सली दर्शन या विचारों के अनुयायी आलोचक । क्योंकि आपने किसी साहित्यिक संगठन को प्रश्नांकित किया है कि नक्सलियों के पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ? आपके इन शब्दों में यह भी बू आ रही है कि आप प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान को फासिस्ट संगठन मान रहे हैं । यह सर्वथा भूल और भ्रम है । साहित्यिक संगठन विशुद्धतः साहित्यिक कार्य करती हैं, किन्तु अमानवीय, अतिवाद, अत्याचार पर भी प्रश्न उठाती हैं । दशाब्दियों से नक्सलियों के हिंसात्मक आंतक से जूझ रहे राज्य की साहित्यिक संगठन होने के नाते हम आपसे सच्चाई को अधिक नज़दीक से जान देख रहे हैं । हम ऐसे प्रश्न किसी से नहीं करते जो हमें अमानवीय, अत्याचारी, तानाशाही, दमनकारी और राष्ट्रद्रोही, राज्यद्रोही साबित कर दे, क्योंकि हम यह बख़ूबी जानते हैं कि कम से कम बस्तर और राज्य में हिंसा का तांडव फैलानेवाला नक्सलवाद वही नक्सलवाद नहीं है जिसकी चारू मजूमदार ने नींव रखी थी । ये विशुद्धतः आदिवासी, ग़रीब, दलित, दमित विरोधी हैं । ये भटके हुए तानाशाह हैं जिन्हें सिर्फ़ बंदूक की गोली से हर समस्या का हल दिखाई देता है । जो सिर्फ़ बंदूक की भाषा समझते हैं । मैं आपसे पूछता हूँ, आप तो एक लेखक हैं, किसी महाविद्यालय में सैकड़ों युवाओं को हिन्दी की शिक्षा देते हैं । हिन्दी की शिक्षा में क्या निर्दोष, निरपराध, असहायों के स्वप्नों को साकार करने के नाम से उन्हीं की निर्मम हत्या और शोषण की छूट भी शामिल है ? यदि आप ऐसा पाठ पढ़ाते हैं तो हम आपके बारे में क्या कह सकते हैं ? यदि आप यह पूछते कि नक्सलियों द्वारा मारे गये निहत्थे आदिवासी के बच्चों का क्या हो रहा है, उसकी विधवा अब कैसी जी रही है, तो छत्तीसगढ़ की माटी को, छत्तीसगढ़ की मनीषा को, छत्तीसगढ़ की हमारे जैसे साहित्यिक संगठनों को बल मिलता कि कोई तो है जो हमारे दुख को समझ पा रहा है ? अब आप ही बतायें चतुर्वेदीजी, हम ऐसे नक्सलियों की चिन्ता क्यों करें जिन्होंने राज्य की शांति छीन ली, जिसने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया, जिसने राज्य के सैकड़ों आदिवासियों और पुलिस को मौत के घाट उतार दिया । (आपका यह ई-पत्र जब मैंने देखा उसके कुछ ही घंटे पहले 29 पुलिस कर्मी सहित राजनांदगाँव के पुलिस अधीक्षक श्री चौबे, विनोद कुमार को गुरिल्ले नक्सलवादियों द्वारा मौत के घाट उतारा जा चुका था और मैं सदमें में था, समूचा राज्य सदमें में था ) क्या आप आदिवासी और पुलिस को भिन्न भिन्न नज़र से देखते हैं । यानी की आदिवासी की मौत, मौत और पुलिस की मौत सिर्फ ड्यूटी । प्रातः स्मरणीय विष्णु प्रभाकर ने भले ही हवलदार को ताकतवर बताया हो किन्तु उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि नक्सलवाद राज्य या राष्ट्र के लिए समुचित विचारधारा है । उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि राज्य की बुनियाद हिंसा से रखी जानी चाहिए । उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि एक हवलदार यदि देश, राज्य, समाज के जान-माल की सुरक्षा के लिए लड़ते-लड़ते मारा जाये तो वह भी ठीक वैसा ही आंतककारी है जैसा कोई सामान्य हवलदार कोई असामाजिक कृत्य कर बैठता है । मुझे आपको यह स्मरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि विष्णु प्रभाकर हिंसा के नहीं, अंहिसा के पुजारी थे, माओ के नहीं, गांधी के अनुयायी थे । आप अपने तर्क के बहाने नक्सलवादियों को प्रतिष्ठित कराकर विष्णु प्रभाकरजी की स्वर्गीय आत्मा को क्यों दुख पहुँचाना चाहते थे, मेरी समझ से बाहर है ।

अब आते हैं आपके मूल प्रश्न के उत्तर ढूँढने की दिशा की ओर । ऐसे अहिंसा विरोधी, जनविरोधी, समाजविरोधी, राज्य विरोधी, देशविरोधी, संस्कृति विरोधी व्यक्ति या संगठन के पुनर्वास की चिंता किसे करनी चाहिए ? यदि आप इसके उत्तर में राज्य सरकार या केंद्र सरकार की ओर टुकटुकी लगाकर देख रहे हैं तो ग़लत देख रहे हैं । यह किसने आपको कह दिया है कि ऐसे नक्सली पुनर्वास चाहते हैं ? हथियार डालकर समर्पण चाहते हैं । राज्य के नागरिक होकर मुख्यधारा में रहने की कामना करते हैं । आपको बख़ूबी याद होगा – जिन डकैतों ने जयप्रकाश नारायण की बात मानी और हिंसा, अराजकता का रास्ता छोड़ा वे आज ख़ुशहाल जीवन बसर कर रहे हैं । मैं आपसे ही चाहूँगा कि ( क्योंकि लगता है आपको नक्सलियों के प्रति हमदर्दी है ) कभी आप भी ऐसी पहल करें ना, जिससे समूचे नक्सली नहीं तो कम से कम दो चार नक्सली ही सही, हथियार डालकर वार्तालाप के लिए आगे आयें, तब मैं और हम सभी पदाधिकारी अवश्य विश्वरंजनजी (संस्थान के अध्यक्ष नहीं, डीजीपी विश्वरंजन) को निवेदन करेंगे कि वे उनके पुनर्वास की पहल करें ।

आपको पता हो या नहीं, मैं नहीं जानता किन्तु मुझे अच्छी तरह से प्रशासकीय और संवैधानिक प्रक्रिया की जानकारी है कि डकैत, गैंगस्टर, दस्यु, नक्सली आदि के पुनर्वास का विषय किसी डीजीपी या पुलिस का काम नहीं है । पुलिस का काम है शांति और सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखना । यह दीगर बात है कि इस राज्य के पुलिस महानिदेशकों, मंत्रियों, मुख्यमंत्री ने बातचीत की पहल ज़रूर की होगी किन्तु मेरी अधिकतम् जानकारी के अनुसार आज तक कभी भी इन नक्सलियों ने हाँ नहीं भरी । वे बिना हथियार डाले यदि बातचीत की बात सिर्फ़ प्रेस विज्ञप्तियों में करते हैं तो यह फ़र्जीवाडा है, धोख़ा है । इस धोख़े का जोख़िम न तो राज्य उठा सकता है, न पुलिस, न हम और न ही आप । सैकड़ों निरीह आदिवासी जनता की मौत को भूलकर यदि आप-हम यदि सिर्फ़ नक्सलियों के पुनर्वास की चिंता में पतले हुए जा रहे हैं तो इस देश का भगवान ही मालिक है ।

मैं आपको इस तथ्य और प्रक्रिया की ओर भी इशारा करना चाहूँगा कि पुनर्वास उसका होता है जिसे ज़रूरत होती है । आप यह कैसे मान बैठे कि नक्सलियों को पुनर्वास चाहिए ? यह आपको किस माओवादी नेता ने कह दिया कि वे पुनर्वास चाहते हैं ? भाई मेरे, वे प्रजातंत्र की हत्या चाहते हैं और उसके बाद जो बचे-खुचे रहेंगे उनका पुनर्वास चाहते हैं । यदि आप इसी पुनर्वास की चाहत रखते हैं तो मैं आपसे क्या कहूँ ? मैं तो अब तक यही समझता आ रहा हूँ कि शोषकों का पुनर्वास नहीं होता, शोषितों का पुनर्वास होता है । यदि आप शोषकों का ही पुनर्वास कर नक्सली समस्या का हल देखते हैं तो धन्य है आपके ऐसे विचार...

वैसे आपके सामान्य ज्ञान की सीमा को बढ़ाने के लिए मैं यह भी बताना प्रांसगिक समझता हूँ कि इस राज्य में भी नक्सलियों के पुनर्वास हेतु पहल होती रही है कि वे पहले बातचीत को तैयार हों । संवाद कायम करें । इस दिशा में राज्य सरकार के अलावा रविशंकर महराज ने भी हाल में ही पहल की थी । पर उनकी तरफ से कुछ भी आवाज़ नहीं आयी । खैर...

आपने विश्वरंजन के साक्षात्कार का वास्ता दिया है कि 'सलवा जुडूम' का साथ देते हुए आप ( डीजीपी विश्वरंजन ) कहते हैं कि "इसके ख़िलाफ़ जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, उसके लिए माओवादियों को दाद देनी चाहिए।" दिलचस्प है कि फिर आप यह भी जोड़ते हैं--' सलवा जुडूम' माओवादियों के ख़िलाफ़ जनता की बगावत है।' सवाल है कि अगर यह सच है, तो उनकी विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है ? हम हिंसा के रास्ते के हामी नहीं हैं, लेकिन जिनसे उनका सब-कुछ छीन लिया गया हो, कई बार हथियार उठाना उनके लिए अपने वुजूद की रक्षा का आख़िरी उपाय होता है। दूसरे, जिनकी जीवन-स्थितियों में बदलाव और बेहतरी के सारे राजनीतिक रास्ते इस व्यवस्था में सदियों से बंद रहे आते हों और जिनके खुलने की कोई उम्मीद उन्हें आज भी----आज़ादी मिलने के साठ बरस बाद भी---नज़र न आती हो, वे आखिर क्या करें, कहाँ जायें, कैसे जियें, इस निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय कैसे माँगें ?

सलवा जुडूम को साथ देना जनतांत्रिक मुद्दों के साथ रहना है । उस निरीह और असहाय आदिवासी का साथ देना है माओवादी के ख़ौफ़ से जिनका बस्तर में जीना दूभर हो चुका है । सलवा जुडूम का विरोध करना प्रकारांतर से माओवादियों का, नक्सलियों का साथ देना है, हत्यारों का साथ देना है । लुटेरों का साथ देना है, देशद्रोहियों का साथ देना है । संविधानविरोधियों का साथ देना है । आपने डीजीपी विश्वरंजन से (अध्यक्ष विश्वरंजन के बहाने) जानना चाहा है कि सलवा जुडूम' माओवादियों के ख़िलाफ़ जनता की बगावत है तो उनकी विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है ?

आपको नहीं लगता कि आप दो अलग-अलग और विरोधी चीज़ों को एकसाथ घालमेल करके व्याख्यायित कर रहे हैं ? वैसे आपको इसका उत्तर पूर्वांश में मिल चुका है फिर भी एक बार और जान लीजिए कि जिसे आप जनता की सहानुभूति और समर्थन कह रहे हैं वह अर्धसत्य है, भ्रामक है । बंदूक की नाल कनपटी पर अड़ाकर मैं भी आपको हाँकने लगूँ तो आप भी मेरी बात करने लगेंगे । जिसे आप सहानुभूति कह रहे हैं वह भ्रम है, यह सहानुभूति नहीं मौत की भय से उपजा दबाब है, वह तैयार की गई फौज की विवशता है जहाँ अब वह दोनों तरह से खाई से घिर चुका है । दबाबपूर्वक नक्सली बनने या नक्सलियों को मदद पहुँचाने के कारण वह समाज में संदेहास्पद हो चुका है और व्यवस्था की नज़रों में भी । यदि आप उन्हें मूलतः माओवादी मानते हैं और उन्हें माओवादियों-नक्सवादियों का अनुयायी भी कहते हैं तो भूल है ।

मैं आपसे ही प्रश्न करना चाहूँगा - आप क्यों माओवादी नहीं बने, हथियार नहीं थामा, कलम को अपनाया ? शायद इसलिए कि आपको यह रास्ता उचित नहीं प्रतीत होता । शायद इसलिए भी कि आपको अभी जनतंत्र पर भरोसा है । शायद आप यह भी जानते हैं कि माओवाद जो हिंसा के रास्ते जन-समस्याओं का हल ढूँढता है मूलतः और अंततः अमानवीय और अतिवादी धारणा है जहाँ समतामूलक समाज और स्वतंत्रता आधारित समाज व्यवस्था की कोई संभावना नहीं । आपके पास किसी माओवादी देश में भारतीय प्रजातंत्र जैसी किसी व्यवस्था की सूचना या अनुभव है तो मुझे ज़रूर बतायें जो नागरिकों की भारत जैसी स्वतंत्रता की गारंटी देता है । शायद आप आप इतने शिक्षित तो हैं ही कि माओवादी हिंसा और हिंसा के बल पर नये तंत्र की स्थापना में किसी कलुषता की गारंटी नहीं ले सकते । जिसका बुनियाद ही हिंसा हो, उससे मानवता, समानता, उदारता और स्वतंत्रता की अपेक्षा नहीं की जा सकती है ।

मित्रवर, आप यह भी देख लें कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप उन आदिवासियों को माओवादियों के चंगुल से मुक्त ही नहीं करना चाहते जो फिलहाल भूलवश और प्राणभय से उनके साथ थे और अब उनकी असलियत जानकर उनसे मुक्ति चाह रहे हैं । यदि आप माओवादियों के प्रति आदिवासियों की सहानुभूति की निरंतर अपेक्षा की वकालत करते हैं तो कदाचित् आप इन आदिवासियों को प्रायश्चित करने का मौक़ा भी नहीं देना चाहते हैं । आपको शायद यह भी नहीं पता है कि बस्तर के सैकड़ों आदिवासी स्वस्फूर्त होकर और नक्सलियों का साथ ताउम्र के लिए छोड़कर उनके हिंसा से बस्तर को मुक्त बनाने के लिए हथियार डाल चुके हैं और एक स्वस्थ जीवन जी रहे हैं । और सिर्फ़ इतना ही नहीं वे हिंसा के ख़िलाफ़ जूझने और नागरिक जीवन को व्यवस्थित बनाने में व्यवस्था, प्रशासन और पुलिस को मदद कर रहे हैं । इन्हें आप क्या कहेंगे - भगोडे माओवादी या भारतीय प्रजातांत्रिक नागरिक?

आपने लिखा है कि जिनका सब-कुछ छीन लिया गया हो, कई बार हथियार उठाना उनके लिए अपने वजूद की रक्षा का आख़िरी उपाय होता है। दूसरे, जिनकी जीवन-स्थितियों में बदलाव और बेहतरी के सारे राजनीतिक रास्ते इस व्यवस्था में सदियों से बंद रहे आते हों और जिनके खुलने की कोई उम्मीद उन्हें आज भी----आज़ादी मिलने के साठ बरस बाद भी---नज़र न आती हो, वे आखिर क्या करें, कहाँ जायें, कैसे जियें, इस निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय कैसे माँगें ? इसका साफ़-साफ़ मतलब है कि आप हिंसा, हथियार, हत्या की अनुमति भी प्रजातंत्र में देने के पक्षधर हैं । फिर यदि सलवा-जुडूम के लोग नक्सली हिंसा के ख़िलाफ़ हथियार उठा लें तो उसे कैसे ग़लत कह रहे हैं ?

क्या आपने कभी हथियार उठाया है, क्या कभी आप हथियार जुटाने की जद्दोजहद की है, क्या आपने किसी निहत्थे को मारा है या कभी किसी निहत्थे को मारने की कोशिश करेंगे ? नहीं ना ! मैं जानता हूँ शायद आप ऐसा नहीं करेंगे ।

चतुर्वेदी जी, ये हिंसक माओवादी-नक्सलवादी निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय माँग रहे होते और उनसे नहीं मिल रहा होता तो कहीं ना कहीं आपके शब्दों में निज़ाम चलानेवाले अर्थात् मंत्री, सांसद, विधायक, जिला पंचायत सदस्य मारे जा रहे होते । दरअसल माओवादी ग़रीब और आदिवासियों के अधिकार और न्याय के लिए लड़ते होते तो इस तरह निहत्थे आदिवासियों को जबरन माओवादी वेशभूषा पहनाकर गुरिल्ला ट्रेनिंग नहीं दे रहे होते, उन्हें संघम सदस्य बनाकर मुठभेड़ में उन्हें आगे रखकर इस तरह मरवा नहीं रहे होते । आपको क्या पता कि लूटने, माल असबाब लूटने, पुलिस और अर्धसैनिक बल से लड़ने के वक्त बंदूक की नोक पर ऐसे सीधे-सरल और शांतिप्रिय आदिवासी युवक और गाँववालों को आगे रखा जाता है और वह भी सिर्फ़ लाठी, टँगिया और भाला आदि पकड़वाकर ताकि यदि मारे जायें तो सिर्फ़ ये ही मारे जायें और नक्सली कमांडर सदैव बचे रहें ।

आपको यह तो पता है ही जिस लालगढ़ की आप बात कर रहे हैं वहाँ भी नागरिकों की आड़ में माओवादी हिंसा पर उतर आये थे और समानांतर व्यवस्था के लिए नापाक और नाकामयाब हरक़त कर रहे थे । शायद आपको यह भी नहीं पता कि वे ऐसे आदिवासी नागरिकों को सिर्फ़ इसलिए अपने गुरिल्ला युद्ध में आगे करके रखते हैं ताकि ये पुलिस की ग़ल्ती से मारे जायें तो वे बड़े आराम से बोटी फेंककर पाले गये अपने कुत्तों से भौकवा सकें कि ये लो, पुलिस मानवाधिकार का हनन कर रही है ।

तो मित्रवर, आप यह भी जानने की कोशिश करें कि वे ऐसा करके उस बल को ही हतोत्साहित करते होते हैं जो सुदूर और दुर्गम जंगलों में भी घुसकर हिंसक माओवादियों और नक्सलवादियों से आदिवासियों को बचा रहे होते हैं । और यदि आप माओ को ठीक से पढ़े हैं तो यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा है कि विरोधियों के ख़िलाफ़ हर समय दुष्प्रचार होता रहे ताकि सामान्य जन के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता रहे ।

क्या आपके मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि ये माओवादी क्योंकर चुनाव में भाग नहीं लेते ? उल्टा चुनाव का बहिष्कार करते हैं । चुनाव में व्होट देनेवाले आदिवासी मतदाता के ख़िलाफ़ फ़रमान जारी करते हैं कि ख़बरदार जो किसी ने मतदान किया तो, गला रेंत दी जायेगी और मुंडी पेड़ में टाँग दी जायेगी । इसे आप क्या तानाशाही नहीं कहेंगे ? इसे आप क्या नादिरशाही नहीं कहेंगे ? यदि चुनाव जीतकर सत्ता में आने वाले अत्याचार करते हैं तो ये जनता की कौन-सी भलाई कर रहे होते हैं ? जिसे अपने नेता को चुनने का ही अधिकार छीन लिया जाये वह क्या करेगा आख़िर ? यह माओवादियों की उस रणनीति का हिस्सा है जिसमें वे जनता को चुनाव से वंचित रखते हुए विकल्पहीन बनाते हैं और सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दबाब में पंगु, भयग्रस्त बनाकर रखते हैं । यदि ये जनता को चुनने का अधिकार देते और सचमुच उन्हें ही चुना जाता तो आप कह सकते हैं कि आदिवासी या जनता माओवादियों की लिए सहानुभूति या संवेदना रखते हैं। चलिए, एक ही उदाहरण आपके लिए ज़रूरी होगा । पिछले यानी 2008 में विधानसभा का चुनाव हुआ तो बस्तर में सारे के सारे यानी 11 सीटों पर वे ही जीते जिन पर बस्तर के आदिवासियों का विश्वास था । घोर नक्सल प्रभावित जिले बीजापुर में भी माओवादी समर्थक जीत नहीं सके । यहाँ तक कि सलवा जुडूम के प्रणेता और कांग्रेसी विधायक भी हार गये । जाहिर है जनता ने उनकी कुछ कमज़ोरी पकड़ ली थी । और तो और माओवादियों से हमदर्दी रखनेवाले पार्टी सीपीआई के नेता मनीष कुंजाम और उनकी पार्टी पर भी बस्तर के आदिवासियों ने कोई भरोसा नहीं किया । क्या यह माओवादियों को समझ में नहीं आता कि बस्तर की जनता किससे सहानुभूति रखती है ? यदि सलवा जुडूम आदिवासियों का आवाज़ और सलवा जुडूम बैस कैंप आश्रय-स्थल नहीं होता तो क्योंकर बस्तर के सारे आदिवासी मिलकर सलवा जुडूम को समर्थन देनेवाले सरकार के झोली में सारे व्होट डाल देते ? क्या इसका उत्तर आपके पास है ? कभी मिले तो ज़रूर बताइयेगा हमें भी ?

आपने अपने पत्र मे आगे यह भी लिखा है कि जहाँ (यानी पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में ) पूरी दुनिया ने देखा है- सरकारें चाहे जो कहती रहें कि हथियार कथित माओवादियों ने नहीं, बल्कि निरीह आदिवासियों ने उठाये हुए थे, भले उस सबका अंत उनके निर्मम और अप्रत्याशित पुलिस दमन में ही हुआ है। यह सब तब हो रहा है और लगातार हो रहा है, जब दुनिया भर के सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और प्रतिबद्ध राजनीतिग्य एक आवाज़ में यह माँग कर रहे हैं कि इन सभी समस्याओं को राजनीतिक समाधान की ज़रूरत है और यह किइस सन्दर्भ में राजनीतिक प्रक्रिया को अपनाने का कोई भी मानवीय विकल्प न है, न हो सकता है। इसके विपरीत, आप कहते हैं किपहले उन्हें "हथियार शासन को सौंपने होंगे, तभी कोई बातचीत संभव है।" सवाल है कि जब उनके पास ये हथियार नहीं थे, तब उनकी समस्याओं का कौन-सा राजनीतिक हल तलाशा गया और जहाँ-जहाँ इन हथियारों और हथियार उठानेवालों को आपके ही शब्दों में कहूँ, तो "खदेड़" दिया गया है ।

तो पंडितजी, जब आप हथियार उठाये रखियेगा तो बातचीत कैसे होगी ? आपका तर्क ही कमाल का है नक्सली बंदूक की नली के सहारे बातचीत करें और हमें यह छूट उन्हें देनी चाहिए ?

आपने श्री विश्वरजन को यह भी लिखा है कि आपके ( विश्वरंजन ) राज्य छत्तीसगढ़ में तो आलम यह है कि बक़ौल गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, "सरकार और माओवादियों की लड़ाई में आदिवासी मारे जा रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं । हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए, जिसकी पहल न राज्य कर रहा है, न माओवादी। " 'द पब्लिक एजेंडा' के कार्यालय संवाददाता ( दिल्ली ) अजय प्रकाश के अनुसार - "हिमांशु कुमार की यही साफ़गोई उनके लिए घातक साबित हुई है और दंतेवाड़ा प्रशासन ने 17 मई, 2009 को उनका आश्रम ढहा दिया . दंतेवाड़ा से लौटकर सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय बताते हैं, 'हिमांशु के बारे में पूरा क्षेत्र जानता है कि 'सलवा जुडूम' अभियान से विस्थापित और उजड़े आदिवासियों के पुनर्वास जैसा महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं। लेकिन सरकार हिमांशु को माओवादियों का शुभचिन्तक बताकर दंतेवाड़ा से खदेड़ने की फ़िराक़ में है। "

इस पर मैं यही कहना चाहूँगा कि मुझे किसी भी गांधीवादी पर कोई संदेह नहीं है फिर भी आप जिन्हें गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं उनसे यह तो पूछिए कि जिस बस्तर में माओवादियों द्वारा किसी भी प्रकार के सरकारी सेवकों के आवागमन सहित उनके सरकारी कार्यों पर रोक लगा दी गयी हो, सरकारी कामकाज पर ऐतराज हो, सरकारी कार्यों को ध्वस्त किया जा रहो हो और ऐसा करने पर सरकारी कारिंदों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है, वे कैसे और किस तरह जंगली इलाकों में अपने पैठ बना सके ? क्या सचमुच माओवादी ऐसे गांधीवादी एनजीओ के भक्त हो चुके हैं ? क्या सचमुच उन्हें अहिंसा पर विश्वास हो गया है ? यदि माओवादी या नक्सलवादी गांधीवाद पर विश्वास करते हैं तो फिर क्योंकर हथियार से सारी समस्याओं का हल ढूँढते हैं ? गांधी तो ऐसे हल पर विश्वास नहीं रखते थे । वे तो सिर्फ़ साध्य ही नहीं साधन की पवित्रता पर भी विश्वास रखते थे । रही बात श्री हिमांशु कुमार को खदेड़ने की तो यह कर्तव्य राजस्व विभाग वाले निभा रहे हैं क्योंकि उन्होंने सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमित किया था । मै समझता हूँ आप भी अपनी ज़मीन पर बेजाकब्ज़ा करनेवाले को प्यार नहीं करेंगे, उसके विरूद्ध कोर्ट जायेंगे या और कुछ करेंगे... बेजाकब्जा करना कौन-सा गांधीवाद है ? ज़रा कभी आप उनसे पूछें तो ।

मैं छत्तीसगढ़ में रहता हूँ । बस्तर मुख्यालय तक भी यदा-कदा आता जाता रहता हूँ । राज्य के लगभग अख़बार पढ़ता रहता हूँ । मुझे अब तक नहीं पता कि जिस हिमांशु कुमार का जिक्र कर रहे हैं उन्होंने कभी बस्तर के दंतेवाड़ा में रहकर कभी हिंसा का विरोध किया या माओवादियों को समझाया या फिर हिंसावादियों के ख़िलाफ़ गांधी की तरह आदिवासियों को लामबंद किया हो । कभी आपने सुना या कोई रिपोर्ट या समाचार कहीं छपा हो तो मुझे भी अवश्य भेजें ताकि मैं उन्हें आपकी तरह गांधीवादी कार्यकर्ता मान सकूँ । उनके दंतेवाड़ा में रहते दर्जनों- सैकड़ों आदिवासी माओवादी हिंसा के भेंट चढ़ चुके हैं। उन्होंने कब और किस अख़बार में माओवादियों या नक्सलवादियों की ऐसी जघन्य अपराध और हिंसात्मक गतिविधियों की निंदा की है ? ज़रा उन्हें पूछकर भी देखना चाहिए आपको और हमको भी ।

जैसा कि स्वयं हिमांशु कुमार स्वीकारते हैं कि सरकार और माओवादियों की लड़ाई में आदिवासी मारे जा रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं । हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए, जिसकी पहल न राज्य कर रहा है, न माओवादी।

तो आप एक सच तो जान ही गये होंगे कि माओवादियों को बातचीत के ज़रिए किसी भी प्रकार का हल निकालने की कोई ग़रज नहीं है । जहाँ तक सरकार का प्रश्न है वह उन माओवादियों से लड़ रही है जो हिंसक है, विकास विरोधी है, विकासरोधी है, विकास कार्य के विध्वंसक हैं और यह कोई भी सरकार करती है । यदि यह नेपाल जैसे माओवादियों के देश में भी होगा तो वे भी ऐसा ही करेंगे जैसा छत्तीसगढ़ की सरकार कर रही है । छत्तीसगढ़ की सरकार सिर्फ़ उन माओवादियों के लिए आँसू नहीं बहा सकती जो केवल हिंसा और विध्वंस पर विश्वास रखते हैं और किसी भी गणतांत्रिक प्रक्रिया का पूरजोर और हिंसात्मक विरोध करते हैं । आप यह कदापि न भूलें कि माओवादियों का एकमात्र लक्ष्य गणतंत्र को उखाड़ फेंकना है, इसके अलावा कुछ भी नहीं और छत्तीसगढ़ में (दिल्ली में भी) जनता द्वारा चुनी गयी गणतांत्रिक सरकारें हैं जो किसी भी क़ीमत पर गणतंत्र को नेस्तनाबूत करनेवाले संघ, समुदाय, संस्थान या संगठन का समर्थन नहीं कर सकती । पुलिस का काम गणतंत्र को सुचारू पूर्वक चलाने के लिए कानून और व्यवस्था को बनाये रखना है । दुर्भाग्य से माओवाद जैसे युद्ध से राज्य सरकारें ही जूझ रही हैं । क्या ऐसे में पुलिस को वे हाथ पर हाथ धरे रहने के लिए छोड़ दें ?

तथाकथित गांधीवादी हिमांशु कुमार और आपको भी शायद नहीं पता कि कब कब सरकार ने बातचीत का प्रस्ताव दिया है – हिंसक हो चुके माओवादियों को ? यह अख़बार या मीडिया में देने की बात नहीं है और माओवादी भी फ]र्जी प्रस्ताव देते हैं कि वे हिंसा का मार्ग भुलकर वास्तविक रूप से मुख्यधारा में जुड़ने के लिए बातचीत पर तैयार हैं । दरअसल वे ऐसा तब-तब करते हैं जब-जब उन्हें लगता है कि अब संभलने के लिए, अपने पलटन को सुरक्षित रखने या सही जगह तक पहुँचाने के लिए ऐसा ज़रूरी हो । यह उनकी रणनीतिक हिस्सा ही होता है ।

आपने यह भी रेखांकित किया है कि "खदेड़ना" छत्तीसगढ़ पुलिस-प्रशासन का तकियाकलाम बन गया है, उसकी केन्द्रीय रणनीति । हिटलर के 'फ़ाइनल सॉल्यूशन' की तरह । उसका कहना था कि 'जो लोग तुम्हें पसंद न हों, उन्हें ख़त्म कर दो ।' यहाँ यह कहा जा रहा है कि जो लोग तुम्हारे आड़े आते हों, उन्हें "खदेड़" दो ! हालत यह है कि अगर कोई गाँधीवादी भी आपसे असहमत है, तो आपके मुताबिक़ वह "माओवादी" है !

आप तो जान ही चुके हैं कि छत्तीसगढ़ पुलिस-प्रशासन माओवादी या हिंसावादियों को खदेड़ रही है । उसे हर उस हिंसावादियों को खदेड़ना होगा क्योंकि वह जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की अनुगामी है । वह हिंसक लोगों को अपने गोद में तो नहीं ना बैठा सकती है । डेमोक्रेसी में यह सब नहीं चलता । आप भी वह करते हैं जिसके लिए आपको जनता द्वारा चुनी हुई सरकार से तनख्वाह मिलती है । भाईजी, आपको जो पाठ्यक्रम दिया गया है आप वही पढ़ाते हैं अपने महाविद्यालय में। मुझे जैसा काम दिया है मेरे सरकारी विभाग ने, मैं वही काम करता हूँ। अब आप हम इस डेमोक्रेसी में वह तो नहीं कर सकते जिससे स्वयं डेमोक्रेसी ही उखड़ने लगे । यदि हम ऐसा करेंगे और तब हमें कोई खदेड़ेगा तो इसमें जनहित में कोई बुराई नहीं है । डेमोक्रेसी अधिकार है तो कर्तव्य भी है । यह हमें नहीं भूलना चाहिए ।
आपने सौ फ़ीसदी झूठ लिखा है कि छत्तीसगढ़ में जो सरकार के बताये रास्ते पर बिना कुछ सोचे-समझे नहीं चल रहा है; वह इन दिनों माओवादी या नक्सली के तौर पर 'ब्रांडेड' किये जाने, पुलिस उत्पीड़न झेलने, वहाँ से बेदख़ल किये जाने या "खदेड़" दिये जाने और सज़ा भुगतने को अभिशप्त है।

ऐसा मैं इसलिए आपको बता पा रहा हूँ क्योंकि यहाँ भी प्रजातंत्र है। यहाँ भी विपक्षी दल है । यहाँ भी मीडिया है । यहाँ भी लेखक और पत्रकार हैं । यहाँ भी जागरूक लोग हैं । यदि आपका आरोप सच होता तो उसे हम भी पढ़ते, देखते और समझते । आप हमें इतना मूर्ख और नादान तो ना समझें । कभी आपने विनोद कुमार शुक्ल से जानना चाहा कि क्या सचमुच ऐसा यहाँ हो रहा है । उनको तो आप जानते ही होंगे । पुलिस ने सिर्फ़ उन माओवादियों, नक्सलियों को पकड़ा है जो हिंसक, विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त पाये गये हैं । और ऐसा करना जनता के लिए, जनतंत्र में लाजिमी भी है । जो आदिवासियों को जो ज़बरदस्ती से माओवादी बनाना चाहे, मना करने पर उसकी हत्या कर दे उसे ऐसी कौन सी व्यवस्था होगी जो ब्रांडेड न करे । क्षमा करें, हत्यारों को फूल माला नहीं पहनाया जा सकता । उन्हें मंच पर बैठाकर उनकी विरुदावली नहीं गायी जा सकती । उनके लिए हथकड़ी और जेल ही ज़रूरी चीज़ है । केवल वे ही राज्य के नागरिक नहीं हैं, और भी सीधे-सादे लोग राज्य मे रहते हैं यह हमें कभी नहीं भूलना चाहिए ।

आप इसे ट्रेजेडी बताते हुए उदाहरण के रूप में डॉ. बिनायक सेन का नाम लेते हैं, जो एक डॉक्टर के नाते छत्तीसगढ़ की आम जनता, ख़ास तौर पर वहाँ के आदिवासियों की चिकित्सा-सेवा में संलग्न थे। लेकिन प्रशासन और पुलिस ने उन पर नक्सलियों और माओवादियों का साथ देने का इल्ज़ाम मढ़ते हुए उन्हें जेल पहुँचा दिया। क़रीब तीन साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें यह कहते हुए रिहा किया कि उनके खिलाफ़ कोई सुबूत नहीं पाये गये । मगर यह फ़ैसला आने तक एक निर्दोष और जन-सेवी डॉक्टर 3 साल जेल की सज़ा काट चुका था। इससे पुलिस-प्रशासन की अपरिमित दमनकारी ताक़त की कल्पना ही की जा सकती है ।

किसी व्यक्ति के चिकित्सक होने और उसके समाजसेवी होने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी न रहेगी । इस राज्य में ऐसे कई चिकित्सक हैं जो डॉ. विनायक सेन की तरह सामाजिक सेवा कर रहे हैं । आदिवासियों की चिकित्सा-सेवा में वे संलग्न वे अकेले नहीं हैं । कुछ तो डॉ. विनायक सेन से भी अधिक सामाजिक भाव से अपनी जगह बिना किसी प्रचार के लगे हुए हैं । जहाँ तक उन्हें प्रशासन और पुलिस द्वारा जेल पहुँचाने का प्रश्न है उन्हें (राज्य में प्रकाशित सभी प्रमुख समाचार पत्रों के अनुसार ) जेल में निरूद्ध नक्सली एवं जेल से बाहर भी नक्सलियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने में लिप्त पाया गया है ।

उपर्युक्तानुसार दिनांक 2 अगस्त, 2007 को सक्षम न्यायालय में प्रकरण (क्रमांक 1335/07) की चालान प्रस्तुत की गई है । वर्तमान में यह प्रकरण न्यायालय में प्रचलित है जिसमें गवाहों की पेशी लगातार ली जा रही है ।

यह आपको किसने बता दिया है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया है ? इतना तो झूठ मत फैलाइये उनके पक्ष में । उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ जमानत पर छोड़ा गया है । न तो उन पर चलनेवाले केश समाप्त किये गये हैं न ही उनके आरोपों को शिथिल किया गया है । न ही अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं है । कोर्ट का फ़ैसला आ जाने दीजिए, तब आप बड़ी दमदारी से कह सकते हैं कि लो, ये देखो, छत्तीसगढ़ पुलिस की करतूत..... मैं समझ नहीं पा रहा हूँ आप अभी से क्यों न्यायालय का काम भी अपने हाथों लेना चाह रहे हैं ?

आपने श्री विश्वरंजनजी को यह भी लिखा है कि - मुझे यह पता चला है कि आप कविता भी लिखते हैं । इसलिए मेरी यह जिज्ञासा है कि अपने इस क़िस्म के सरकारी काम और कवि-कर्म के बीच क्या आपको कोई यातनाप्रद द्वंद्व महसूस नहीं होता या कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई अंतर्विरोध या द्वंद्व हो ही नहीं ?

इस प्रश्न का जवाब तो वे ही दे सकते हैं किन्तु मैं जितना उनके बारे में जानता हूँ वही बता सकता हूँ और वह यह कि वे कविता लिखते हैं और बखूबी लिखते हैं । वे हमारी दृष्टि से हिन्दी के समकालीन कवियों में महत्वपूर्ण हैं । विश्वविख्यात शायर और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फ़िराक़ गोरखपुरी के नाती होने के नाते उतने ही देशप्रेमी और देशभक्ति से ओतप्रोत भी हैं । तीन-तीन चार-चार किताबें छप चुकी हैं उनकी । केदारनाथ सिंह जैसे बड़े कवि उन्हें चाहते हैं । खैर... उनके मन में भी माओवादियों और नक्सलवादियों के प्रति पूरी हमदर्दी है बशर्ते कि वे हिंसा त्यागें । प्रजातंत्र की व्यवस्था को स्वीकार करें । आदिवासियों को प्रताड़ित न करें ।

आपके ई-पत्र में उल्लेखित है कि श्री प्रमोद वर्मा, जिनके नाम पर यह आयोजन हो रहा है और पुरस्कार बाँटे जा रहे हैं - पहला सवाल तो यह है कि अगर वे कहीं हैं, तो उन्हें कैसा लग रहा होगा ? दूसरी बात यह कि उपर्युक्त सरकारी कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए ही क्या यह आयोजन नहीं किया जा रहा है ? कैसी विडम्बना है कि आपने इस संगोष्ठी में "आलोचना का प्रजातंत्र "शीर्षक एक पूरा सत्र ही रखा हुआ है; जबकि आपके निज़ाम में न आलोचना की कोई वास्तविक गुंजाइश है और न निरीह प्रजा की ही कोई सुनवाई ! यह भी कोई महज़ संयोग नहीं कि पुरस्कृत और उपकृत करने के लिए आपने आलोचकों को ही निशाना बनाया; जिससे 'आलोचना' का रहा-सहा साहस, संवेदनशीलता, मूल्यनिष्ठता, प्रश्नाकुलता और विवेक का भी अपहरण किया जा सके और उसे निष्प्रभ एवं निस्तेज बनाया जा सके !

छीः छीः । आपने यह कैसे सोच लिया कि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान किसी डीजीपी का संस्थान है या राज्य शासन का संस्थान है। वह जनतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास रखनेवाले साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों का आत्मीय संगठन है जिसके वे अध्यक्ष हैं । अध्यक्ष इसलिए नहीं कि वे राज्य के डीजीपी हैं । अध्यक्ष इसलिए क्योंकि वे प्रमोद जी के परम साहित्यिक मित्र हैं और लगभग एक शिष्य भी । एक अच्छे विचारक, लेखक, फोटोग्राफर, चित्रकार और चिंतक भी हैं । उन्होंन कभी अतिवाद का समर्थन नहीं किया है । प्रमोद वर्मा ने भी कभी अतिवाद का समर्थन नहीं किया हालांकि वे घोर प्रगतिशीलता और जनवादिता के समर्थक रहे हैं ।

आप प्रमोद वर्मा के बारे में कितना जानते हैं, यह मैं नहीं जानता पर मैं उस प्रमोद वर्मा को जानता हूँ जो मुक्तिबोध, परसाई, श्रीकांत वर्मा प्रभृति बड़े रचनाकारों के आलोचक, कवि, नाटककार मित्र थे और हमारे शहर रायगढ़ के नामी शिक्षाविद् भी । उन्होंने कभी भी विचारों के किलेबंदी को नहीं स्वीकारा । मार्क्सवादी सौंदर्य दृष्टि रखते हुए भी वे विशुद्ध देशीयता को खारिज़ नहीं किया करते थे । वे ऐसे माओवादी और नक्सलवादी हिंसा के पूर्णतः विरोधी थे जो ग़लत साधन से सत्ता प्राप्ति का पक्षधर हो । प्रमोद जी को आप और आप जैसे आलोचक तो जाने कब के बिसार चुके थे । यह तो विश्वरंजनजी ही हैं जिनके बल पर उनकी स्मृति में दो दिवसीय आलोचना संगोष्ठी संभव हो सका ।

यह मूर्खतापूर्ण टिप्पणी और शंका है कि उनके द्वारा सरकारी कृत्यों को ढंकने के लिए यह (यानी 10-11 जुलाई, 2009 को संपन्न) आयोजन किया जा रहा था । आपने यह कैसे तय कर लिया कि देश का एक ईमानदार अधिकारी और प्रख्यात कवि का नाती ऐसा कर सकता है । ढोंग तो कोई माओवादी ही कर सकता है । कोई नक्सलवादी ही कर सकता है जो धनपिसासु और सुविधाभोगी को रुपया खिलाकर अपने पक्ष में और मानवाधिकार की आड़ में लेख लिखवा रहा है, समाचार छपवा रहा है ।

यदि आपकी कुंशका आधारहीन नहीं होती तो श्री अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, शिवकुमार मिश्र, प्रभाकर श्रोत्रिय, ए. अरविंदाक्षन, नंदकिशोर आचार्य, एकान्त श्रीवास्तव, खगेन्द्र ठाकुर, रमेश दवे, कमला प्रसाद, डॉ. श्याम सुंदर दुबे, डॉ. श्रीराम परिहार, भगवान सिंह, कृष्णमोहन, देवेन्द्र दीपक, डॉ. रंजना अरगड़े, मुक्ता, अरुण शीतांश, ओम भारती, अशोक माहेश्वरी प्रभृति देश के विद्वान साहित्यकार और राज्य से विनोद कुमार शुक्ल, प्रभात त्रिपाठी, रमाकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, रवि श्रीवास्तव, कमलेश्वर, विनोद साव, शरद कोकास, डॉ. बलदेव, डॉ. बिहारीलाल साहू, नंदकिशोर तिवारी, श्यामलाल चतुर्वेदी, जया जादवानी, वंदना केंगरानी, जैसे लेखक, कवि और सारे राज्य से कई साहित्यकार नहीं आते । तो भाई ख़ामखां मतिभ्रम का शिकार मत होवें ।

अब आपको यह तो बताने या जताने की ज़रूरत तो नहीं पड़ेगी कि इनमें से कई तो प्रगतिशील है और कुछ जनवादी । फिर इन्हें या किसी को भी किसी भी सत्र में कुछ भी बोलने से रोका गया होता तो आपकी बात सही साबित होती और आप जैसे जागरूक आलोचक तक यह बात पहुँच भी गयी होती । यह विश्वरंजन नामक पुलिस महानिदेशक का विशुद्धतः निजी आयोजन होता तो उसकी कुशंसा सिर्फ़ आपको ही नहीं, इन सारे महत्वपूर्ण लेखकों को भी होती, जैसा कि भूले से भी नहीं हुई ।

आपको अब मै किन शब्दों में और कैसे क्या-क्या बताऊँ कि इन लोगों को पुलिस के डंडे के बल पर पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने नहीं बुलवाया गया था और न ही ये यहाँ उनसे क़दमताल मिलाने आ गये थे बल्कि संस्थान के अध्यक्ष विश्वरंजन ने आमंत्रित किया था । भगवान बचाये ऐसी धारणा से....
कहीं आप श्रीभगवान सिंह या श्री कृष्ण मोहन को सम्मान दिये जाने के विरोध में तो ऐसा नहीं कह रहे हैं । शायद नहीं ना, जिनका चयन आदरणीय केदारनाथ सिंह, डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, डॉ. धनंजय वर्मा ने किया था ( न कि विश्ररंजन ने सिर्फ़) ।

मुझे तो आपका पत्र पढ़कर यह भी शक़ होने लगा है कि कहीं आप बिलावजह तिल का ताड़ बनाने के आदि भी तो नहीं, और आपने रायपुर वाले आयोजन में नहीं आने का कोई फौरी बहाना गढ़ लिया हो । क्योंकि आप तो उन सारे राज्य में साहित्यिक सम्मेलनों में जाते हैं जिनकी सरकारें माओवादी हिंसा और नक्सलवाद का विरोध करती हैं और जहाँ बहुत सारे शासकीय अधिकारी ऐसे आयोजनों को अंजाम देते हैं । ख़ैर... मुझे आपके पत्र के बहाने कुछ सत्यों को बताने का मौक़ा मिला.. इसलिए मैं भी आपके ई-पत्र के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा ।

आपने हमारे संस्था के अध्यक्ष को प्रेषित अपने ई-पत्र को सार्वजनिक कर दिया है अतः मैं भी अपने इस ई-पत्र को सार्वजनिक करने बाध्य हूँ । पर इसके लिए आपसे क्षमा भी चाहता हूँ । देखें, कब मिलना होता है आपसे ?
आपका अपना
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी निदेशक
प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़