Wednesday, January 04, 2006

जीवन क्या है ?


मैं जीवन को लेकर उहापोह मैं हूं । समझ नहीं पाया अब तक, जीवन को क्या नाम दूं ? इसे चाँदनी रात कहूँ या फिर अमावस की काली निशा ? कभी यह झरना सी खिलखिला उटती है, तो कभी रेगिस्तान सा उजाड नजर आती है ? कभी यह वनपाँखी बनकर गुनगुनाने लगती है तो कभी साँप बनकर डसने लगती है । सोचता हूँ तो लगता है यह उदासियाँ का दूसरा नाम है । कुछ ही घडी में यह मुस्कान बन जाती है । छूने को लपकता हूँ तो फूरर से उड जाती है मानो वह गौरेया हो । कभी कभी दूर जाने लगता हूँ तो वह मेला बनकर आवाज देने लगती है । कितने रंग हैं इसके ? कितने रूप हैं इसके ? जान नहीं पाया अब तक । फिर भी चाहता क्यों इसे बेइंतहा । फिर भी रहता हूँ क्यों उसी के में । उसी के आसपास । आपही कहें ना मुझे क्या मैं ही जीवन हूँ ? क्या जीवन में मेरी उपस्थिति है ? क्या दोनों अलग अलग हैं ? क्या हम दोनों एक हैं ?

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