Friday, April 03, 2009

आयोग नक्सलियों के ख़िलाफ़ कब कार्यवाही करेगा ?

व्यवस्थित, पारदर्शी और शांतिपूर्ण चुनाव के लिए चुनाव आयोग बड़े से बड़े नेताओं की ऊँचाई नापने में कोई कोताही नहीं कर रहा है । जिलों में हिंसा, आंतक, अशांति फैलाने वालों को जेलों में ठूँसा जा चुका है या उन्हें दबाकर रखा जा रहा है । राज्यों के ऐसे डीजीपी, सचिवों, कलेक्टरों, पुलिस अधीक्षकों सहित छोटे-बड़े शासकीय कर्मचारियों पर भी आदर्श आचरण संहिता के नाम पर गाज गिराने में भी वह कहाँ चूक रहा है, जो उसके ही अस्थायी अंग हैं और जिसके बग़ैर उसका चुनाव कराना भी संभव नहीं । क्योंकि वह ऐसे किसी स्थायी और बृहत अमले का स्वामी तो होता नहीं, जो राज्यों में चुनाव करा सके। इस दिशा से सोचें तो उसकी भूमिका चुनाव की सफलता के लिए काबिले तारीफ़ भी है, किन्तु दूसरी ओर एक सच यह भी है कि नक्सली बेलगाम होकर चुनाव आयोग के मूल आत्मा पर पलीते लगा रहे हैं । इस पर आयोग की कोई विशेष कार्रवाई अब तक परिलक्षित नहीं हो रही है । जबकि न केवल बस्तर अपितु देश के कई राज्यों में वे चुनाव प्रक्रिया को तहस-नहस करन पर तुले हुए हैं । नक्सलियों की ये गतिविधियों क्या दृष्टि से परे हैं ? क्या इससे चुनाव आयोग के मूल उद्देश्य बाधित नहीं हो रहें हैं ? क्या इससे नक्सली इलाकों में आदर्श आचरण संहिता का मायने रह जाता है ? क्या ऐसे में चुनाव की असंदिग्धता बरक़रार मानी जा सकती है ? इन प्रश्नों से चुनाव आयोग को आज नही तो कल मुठभेड़ करना ही होगा ।


स्थानीय जनपद बस्तर की बात करें तो वह नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के फरमानों से सहमा-सहमा है । वे गाँव-गलियों में धमकी भरे पोस्टर चिपका रहे हैं। सड़कों पर हिंसक शब्दावली से ओतप्रोत चेतावनी के बैनर टाँग रहे हैं । जनता को व्होट देने पर हिंसा की धमकी दे रहे हैं। चुनाव पूर्व से ही सड़क-यात्रा को बाधित कर रहे हैं । लोकतंत्र को फ़र्जी क़रार दे रहे हैं । वे बार-बार यही दुहरा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में भाग लेने वाला हर राजनैतिक दल और उनका मैनिफ़ेस्टो जन-विरोधी है । चुनाव का विरोध करने के मतलब में चुनाव आयोग का विरोध भी सम्मिलित है और इसके लिए वे चुनाव आयोग के समक्ष भारी समस्या खड़ी करने वाले हैं । यदि उनके प्रवक्ताओं की विज्ञप्तियों और संवाददाताओं को दिये गये साक्षात्कारों के मजमून पर ग़ौर करें तो वे लोकसभा चुनाव के दिन बस्तर में भारी हिंसा और आंतक फैलाने वाले हैं । इससे पोलिंग पार्टियाँ भी सशंकित है । यह दूसरी बात है कि पुलिस और अद्धसैनिक बल इनसे निपटने के लिए कटिबद्ध है । फिर भी, देश के कई राज्यों में अंगद की तरह पाँव जमा चुके और हर बार ऐन चुनाव के वक़्त भारतीय चुनाव आयोग के निर्देशों की धज्जी उड़ाने वाले ऐसे तत्वों पर आयोग किस तरह लगाम कसने वाला है, अनुत्तरित प्रश्न है । प्रश्न यह भी उठता है कि इन्हें चुनाव पूर्व वह कैसे हतोत्साहित करना चाहता है ताकि जनता निर्भय होकर मतदान कर सके ? राजनीतिक दल जान जोख़िम में डाले प्रचार कर सकें, अपना एजेंडा बता सकें । यदि ऐसे क्षेत्रों में राजनीतिक दल सहित प्रतिनिधियों को जाने का वातावरण ही न मिल सके, जनता वोट ही न डाल सके तो यह केवल आकस्मिक व्याधि नहीं । इसका भी निदान केंद्रीय निर्वाचन आयोग को ढूँढना होगा । इससे जूझने के लिए उसे अतिरिक्त तैयारियाँ और रणनीति भी ईजाद करनी होगी । इन संदिग्ध और जटिल स्थितियों को कैसे आदर्श आचरण संहिता से परे रखा जा सकता है ?


नक्सली इलाकों में आदर्श आचरण संहिता का प्रश्न केवल बस्तर या सरगुजा का प्रश्न नहीं है । यह छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल सहित देश के कई राज्यों का प्रश्न है । चुनाव के समय मतदान बहिष्कार, नक्सली आंतक और हिंसा व्यापक तौर पर कई प्रदेशों की समस्या के रूप में स्थायी रूप धारण कर चुका है। इसके निदान के लिए राज्यों में उनसे जूझने की स्थायी रणनीतिकारों यानी पुलिस बल के मुखियाओं का समादर भी चुनाव आयोग को करना चाहिए । उनके अनुभवों का भी व्यवाहारिक उपयोग होना चाहिए । क्योंकि चुनाव आयोग मात्र दो या तीन माह के लिए सशक्त होता है । और इन दौरान सारे राज्य का प्रशासन तंत्र भी अस्थायी तौर पर उसके अधीन होता है तब उसे सिर्फ़ निजी अस्मिता के दंभ त्याग कर राज्य स्तर के ऐसे अनुभवी पुलिस बल की मंशा पर निर्द्वंद्व होकर विचार करना चाहिए । जैसा कि हम देख चुके हैं कि छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की आनुभविक रणनीति और नक्सली अंचलों के पुलिस अधीक्षकों के प्रस्तावों पर पिछला विधान सभा चुनाव पिछले कई चुनावों से कम बाधाओं के साथ निपटा था । किन्तु सामान्य-सी सलाहात्मक टिप्पणी पर पुलिस महानिदेशक को आयोग द्वारा खारिज करने की चेष्टा कहीं न कहीं राज्य स्तरीय कर्मियों के मनोबल को भी प्रभावित करती है । यह नक्सली आंतक के परिप्रेक्ष्य में चुनाव आयोग का स्वस्थ निर्णय नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि चुनाव पूर्व भी ऐसे नक्सली तत्वों से निपटने में वास्तविक रूप से राज्यों का यही पुलिस बल ही अधिक सतर्क और कौशलपूर्ण कार्रवाई करता है ।


आज नहीं तो कल केंद्रीय निर्वाचन आयोग को देश भर में फैल चुके नक्सलियों द्वारा चुनाव बहिष्कार, हिंसात्मक आंतक के कारण राजनीतिक दलों और जनता के अधिकारों के हनन पर रोक लगाने के लिए आदर्श आचरण संहिता को संशोधित और कड़ा करना ही पड़ेगा और उसके प्रतिफल में नक्सली इलाकों में चुनाव प्रक्रिया की सफलता के लिए विशेष क़दम भी उठाने होंगे । जिसमें स्थानीय परिस्थितियों से निपटने वाले विशेषज्ञों की रायों को विशेष तवज्जों देना होगा । आयोग सामान्य तौर पर मौखिक और लिखित टिप्पणियों पर प्रतिबंध लगाने में अवश्य सफल हुआ है, जिसमें राजनेता, अफ़सर और कर्मचारी सम्मिलित हैं किन्तु नक्सली हिंसा और चुनाव विरोधी एवं हिंसक गतिविधियों पर लगाम कसने में वह अब भी असमर्थ है। और ऐसा कौन नागरिक है जो मौत की शर्त पर भी प्रजातंत्र के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए मतदान करना चाहेगा ? ऐसा कौन राजनीतिक दल होगा जो मौत की परवाह नहीं करके चुनाव कैन्वासिंग करेगा ? ऐसा कौन शासकीय कर्मी होगा जो ऐसे क्षेत्रों में चुनाव कराने में झिझकेगा नहीं ? ऐसा कौन चुनाव प्रेक्षक होगा जो ऐसे धूर नक्सली इलाकों का मुआयना कर सकेगा ? तब ऐसी दुःसह परिस्थितियों में ऐसे क्षेत्रों में चुनाव और आयोग की उपस्थिति का कोई मायने नहीं रह जाता है । यह कमज़ोरी तब तक ठीक नहीं हो सकती, जब तक आयोग राज्य प्रशासन के पदों पर कार्यरत और चुनावी परिस्थितियों में प्रतिनियुक्त आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञों को ठीक से संबोधित न करे । इस संबोधन में समन्वय, परस्पर विश्वास और स्थानीय परिस्थतियों अनुसार नक्सली विपदाओं से जूझने के अनुभवों का आत्मसातीकरण को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए । क्योंकि अंततः यही स्थानीय पुलिस बल के पास नक्सलवाद से निपटने का गुर होता है और दीर्घ अनुभव भी । वे नक्सलियो की हर चाल को बखूबी समझते हैं । वे उनके सारे किलों, गढ़ों के बारे में जानते-समझते हैं ।