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Thursday, January 14, 2010

इंडिया टुडे ने याद किया


इंडिया टुडे पढ़नेवालों के लिए तो नहीं किन्तु उनके लिए जो इंडिया टुडे नहीं पढ़ते या नहीं पढ़ पाते सिर्फ़ उनके लिए । मोह नहीं किन्तु जो छापा है इंडिया टुडे ने अपने 20 जनवरी, 2010 के अंक में उसे पाठकों के समक्ष रखने में क्या बुराई है ! तो लीजिए.....


नया समय, नए संदर्भ
बृजबाला सिंह
यह पुस्तक विश्वरंजन के साहित्यिक मन का दर्पण है । इसमें चुनी हुई 48 कविताएँ, आलेख, समीक्षा, डायरी तथा महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं, जिनमें उनका रचनाकार निरंतर गंभीर बना रहता है, जयप्रकाश मानस के संपादन कौशल का नमूना वह ‘पुरोवाक्’ है, जिसमें उन्होंने विश्वरंजन के सर्जक को परिभाषित ही नहीं बल्कि उदाहरण के साथ विश्लेषित भी किया है । पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन के लिए रचनाकर्म एक साधना है, जो सृजन संघर्ष की गलियों में चल रही पूरी की जाती है । वे नहीं मानते कि कविता लिखना कोई सहज कार्य है ।


मानस ने विश्वरंजन की सृजनद-शक्ति एवं क्षमता में गहराई तथा विस्तार, दोनों देखा है: “विश्वरंजन की कविता नए समय, नए संदर्भों की कविता है, नई मात्र इस अर्थ में नहीं कि व नई विषयवस्तु, नए काव्य-प्रक्षेत्रों तक अपनी पहुँच को सिद्ध करती है, नई इस अर्थ में भी कि वे बासी होते मनुष्य को नई गरिमा और नई दृष्टि देती हैं (वजूद में हर समय बासी होने का डर रहता है )। शब्दों के मौन में अर्थ की नई वृष्टि करती हैं । नई सृष्टि का ख़ाका रचती हैं । साधारण मनुष्य के समय, समाज और संकटों की पहचान कराती हैं । उनकी कविता भयावह दृश्यों के बीच जान-बूझकर ओढ़ी गई चुप्पी को खरोंचते हुए हुए इंसान को सतर्क कराती है । इस मानवीय उद्यम की लय में कवि का मन पास-पड़ौस में तितर-बितर पड़े शब्दों को नए सिरे से ढूँढता है । उन्हें झाड़ता-पोछता है । नए संदर्भों के बरक्स ऐसे चित-परिचित शब्द स्वमेव ताजगी से भर उठते हैं । कवि का यही अर्थागम-सिद्धि कविता में विन्यस्त शब्दों को नई चमक से लैस कर देती है । जाहिर है, इस चमत्कृति में केवल कवि मन ही नहीं, मेधा की भी भूमिका उल्लेखनीय है।”


संग्रह की कविताओं में ‘भारत माता की जय’, ‘क्रांति की बातें मत करो’, के साथ-साथ बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कई कविताएँ हैं जिनमें बाज़ार का प्रयोग व्यंग्य एवं विस्तार लिये हुए है – ‘बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कुछ कविताएँ’, ‘बाज़ार की मार और आज का आदमी’, ‘तलाश बाज़ार से बाहर निकल आने की’....., ‘बाज़ार के खिलाफ जंग का पहला ऐलान’, ‘बाज़ार से लड़ना एक अनिवार्य हिमाकत है’, ‘बाज़ार वह मन है’….., जैसी कई कविताओं को संग्रहीत करके मानस ने विश्वरंजन के कविमन की उन तहों का पर्दाफाश किया है जिनमें सदियों से चले आ रहे बाज़ार का समापन हुआ है । बाज़ार जिसमें कभी एक वर्ग बिकता था, आज हर आदमी बिक रहा है, बहुत सस्ता । विश्वरंजन मानते हैं है कि अब बाज़ार से लड़ना ज़रूरी हो गया है क्योंकि आदमी अब बाज़ार की मार सहने में असमर्थता महसूसस करने लगा है । वह बाज़ार से निकलने का रास्ता खोज रहा है । कवि को पता है कि बाज़ार से लड़ना आसान नहीं है । लेकिन उम्मीद की किरण शेष है : बाज़ारी ख़ौफ़ और आतंक के कोहरे से लिपटे रहने के बावजूद सूरज से दोस्ती करने की कर रहे हैं बदस्तूर कोशिश और इसी कोशिश में शायद छुपा हो बाहर निकल आने का कोई रास्ता । विश्वरंजन को आत्मविश्लेषण का कवि मानते हैं मानस ।


संग्रह में साहब को केंद्र में रखकर भी बहुत सी कविताएँ हैं – ‘साहब सब जगह होता है’, ‘साहब का भी एक साहब होता है’, ‘साहब की एक मेमसाहब होती है’.... ‘कलेक्टर साहब और क्लबघर’ आदि । यहाँ भूखे लोगों की आँखों में जमी चुप्पी देखी जा सकती है । समय से पहले मुरझाने का अफ़सोस है । बचपन की दीवाली की यादें हैं तो एक बेहत्तर इंसान का स्वप्न है ।


विश्वरंजन ने कबीर को पहला क्रांतिकारी और सेक्युलर कवि माना है । उन्हें फ़िराक़ की शायरी में सदियों की आवाज़ सुनाई देती है । वे कलाकार हैं, आधुनिक कला को समझने की ज़िद है उनमें: यह कठिन काम है । कलाकृतियों, चित्रकला, पेंटिग्ज के पास जाना ही पड़ेगा आपको उनमें डूबने-उतराने के लिए । एक लेख में विश्वरंजन की अधूरी काव्य-यात्रा का वृत्तांत है । वे कविता के विषय से अधिक कविता की भाषा पर बल देते हैं । मैंने हमेशा यह कोशिश की है कि मैं अपने ‘मैनरिज्म’ में क़ैद होके न रह जाऊँ । मैं यह हमेशा यह पाता हूँ जब एक ख़ास ‘मैनरिज़्म’ ‘रेटॉरिक’ या ‘फॉर्म’ मुझे बाँधने लगती है, मेरे अंदर कविता मौन होने लगती है । क्योंकि मैं पैंटिग भी करता हूँ, मैं पैंटिग की ओर बढ़ जाता हूँ । जब पुनः कविता में लौटता हूँ, चाहता हूँ कि अंदाज़े-बयां बदला हुआ हो । मानस ने विश्वरंजन पर एकाग्र इस पुस्तक का संपादन करके पाठकों की अतिशय सहायता की है, विशेषकर उस दौर में जबकि गढ़ी जा रही है नए शब्दों को, अर्थों को चमका कर / कविता की पहली पंक्ति ।

कृति- एक नई पूरी सुबह (विश्वरंजन पर एकाग्र)
संपादक- जयप्रकाश मानस
प्रकाशक- यश प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य –
395 रुपये

Monday, July 06, 2009

“वग़ैरह” के भीतर और बाहर

प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष
हमारे बौद्धिक प्रवर कनक तिवारी जी का छत्तीसगढ़ में प्रकाशित लेख (29 जून, 2009) पढ़कर मुझे भी कुछ कहने का अवसर मिल रहा है । आपने प्रमोद वर्मा पर सोलह आने सच लिखा है कि हम सबने और सरकार ने भी उन्हें लगभग बिसार दिया था । उन पर आगामी 10-11 जून को होने वाला विशालकाय आयोजन विश्वरंजन के बग़ैर नहीं हो सकता आदि-आदि । उसके लिए आपको और विश्वरंजन दोनों को ही साधुवाद। आपको इसलिए क्योंकि आप बहुधा बड़ी ताक़त के गिरेबां में भी झाँकने का हौसला रखते हैं । इस लेख में आपने उन चरित्रों को धोया है जो साहित्य के अंतःपुर को संचालित करने का दंभ भरते हैं । विश्वरंजन को इसलिए कि वे सचमुच बिना लाभ-हानि के बड़ा काम करने का सपना देखते हैं । वह भी छत्तीसगढ़ का मूल निवासी हुए बिना । यह उनकी छत्तीसगढ़ के साहित्यिक बिरादरी के प्रति असीम स्नेह भी है । क्योंकि वे स्थानीयता को नहीं जीते, वे सदैव एक राष्ट्रीय मन से सोचते हैं । और यदि ऐसा वे सोचते हैं तो उसके पीछे उनके नाना फ़िराक़ और गुरुतुल्य प्रमोद जी का जीवन और पाठ भी होता है ।

मुझे विनम्र भाव से आज आपके “वग़ैरह” शब्द के बहाने कुछ कहना है। यह ‘वग़ैरह’ क्या बहुत ही सिमटा और सिकुड़ा हुआ नहीं है । इसे क्या विस्तारित करने की ज़रूरत नहीं है । प्रमोदजी सचमुच तेज़-तर्रार लेखक थे, इस हद तक कि लेखक होने के नाते अपने स्वाभाविक आकांक्षाओं और लाभों की परवाह भी नहीं किया करते थे। चिकनी चुपड़ी बातों से उन्हें साफ़ परहेज़ था । एक हद तक मुँहफट । शायद इसलिए भी कि वे उस सूची में स्वयं को समादृत होने का सपना नहीं पालते थे जो दो-चार बार देश की कथित बड़ी पत्रिकाओं में छप जाने के बाद स्वयं को बड़े लेखकों में शुमार किये जाने का मुगालता पाले रहते हैं । वे किसी लेखक के टूटपुँजिए आलोचकों के लेखे से सूचीबद्ध होने के सख़्त ख़िलाफ़ थे । वे स्वयं अत्यधिक आत्मसजग और आत्मसम्मानी थे किन्तु इस तरह नहीं कि लोग उनकी चर्चा संबंधित विधा, प्रवृत्ति, दृष्टि, भूगोल आदि के बहाने किया करें और वे अमरत्व प्राप्त कर लें । ऐसा अमूमन औसत दर्ज़े का लेखक सोचता है । यह दीग़र बात है कि नामों को शुमार करने-करानेवालों की मंडली साहित्य की दुनिया में सदैव उपस्थित रही है जो ‘तू मेरा पूँछ सँवार- मैं तेरा सँवारूँगा’ के एजेंडे पर काम करती हैं । ऐसी मंडली के लोग अन्य को ‘वग़ैरह’ के खाँचे में डालकर मुदित हुआ करते हैं। कि उन्होंने फलां को निपटा दिया । इस लेख में आपका आशय यह कदापि नहीं कि आप अपने पसंद के लेखकों के अलावा शेष को “वगैरह” की निकृष्ट कोटि में रखना चाहते हों । न ही आपका ऐसा स्वभाव रहा है । सच तो यह भी है कि लेख का मुद्दा छत्तीसगढ़ के साहित्येतिहास लेखन भी नहीं है । आप अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के बावजूद प्रमोदजी को लगातार याद कर रहे हैं यह प्रमोदजी की आत्मा के लिए भी बड़ी बात है । आप तो जानते हैं प्रमोद जी आत्मा और परमात्मा को भी मानते थे । वे वैसा मार्क्सवादी नहीं थे जो ईश्वर की मौत के बाद ही विचारों के गटर में पालथी मारके आसन जमाना चाहता है ।

चूँकि आपका लेख बहुत बड़ा है इसलिए उसमें ‘वग़ैरह’ के पहले और कुछ नामों को प्रवेश देने की गुंजाईश बनती थी । यह जो ‘वग़ैरह’ शब्द है अपनी बारी से पहले आ गया है । शायद अनाधिकृत चेष्टा करते हुए । कुछ शब्द होते ही हैं ऐसे जो बलात् प्रवेश कर जाते हैं हमारे जेहन में । ऐसे शब्द कईयों को चुभते हैं । मनुष्य जीवन-भर इस दर्द से उबर नहीं पाता । शायद प्रमोदजी को भी इसी तरह ‘वगैरह’ की परिधि में डाल दिया था कुछ हितनिष्ठों ने । आज भी उन्हें कुछ ऐसी नज़रों से देखते हैं । दूर क्यों जायें अपने छत्तीसगढ़ में ही । आप जब प्रसंगवश छत्तीसगढ़ के लेखक बिरादरी की चर्चा कर ही दिये हैं तो मैं इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उस ‘वगैरह’ शब्द को कुछ हद तक अनावृत करना चाहता हूँ जो मुझे नहीं पर उन लोगों को चुभ सकता है जो ‘वगैरह’ के भीतर नहीं बल्कि बड़े दमदारी से खड़े हैं । एकाध को उनकी ठोस शिनाख्तगी नहीं दिखाई देती तो उसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
तो कनक भैया, ‘वगैरह’ शब्द को साफ़ तौर पर खोलने की गुंजाइस 100 प्रतिशत हैं । हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है किन्तु इस ‘वगैरह’ में वे भी हैं जिन्हें शायद हमें पढ़ना चाहिए । यह बिलकुल अलग बात है कि आप-हम सबको नहीं पढ़ सकते । और हम अकसर स्वरूचि व्यंजन की तरह लेखकों को बड़ा या छोटा साबित करते रहते हैं । मैं यहाँ आपको खंडित करना नहीं चाह रहा । ऐसा मेरा किसी भी कोण से लक्ष्य नहीं है किन्तु कनकजी कदाचित् हम लेखकों के इतिहास लेखन की यही प्रवृत्ति अन्य माहिर-जाहिर लेखकों के मन में चूभती भी है । कहें कैसे ? छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो और भी ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें साहित्य के पवित्र मनवाले पाठकों को जानना चाहिए – जैसे डॉ. शोभाकांत झा, बख्शीजी के बाद ललित निबंध को संभाले हुए हैं। छः उत्कृष्ट किताबें दे चुके हैं हिन्दी के ललित संसार को । जैसे डॉ. बलदेव, ये न होते तो शायद मुकुटधर पांडेय का वैसा मूल्यांकन नहीं हुआ होता, जैसा कि हो सका । जैसे जगदलपुर के लाला जगदलपुरी बिलासपुर के पालेश्वर शर्मा और नंदकिशोर तिवारी। क्या उनके लोक-लेखन को एकबारगी बिसारा जा सकता है । जैसे हरि ठाकुर, नारायण लाल परमार, आनंदी सहाय शुक्ल, नरेन्द्र श्रीवास्तव, शंकर सक्सेना, डॉ. चित्तरंजन कर, डॉ. अजय पाठक गीत के लघु हस्ताक्षर तो हैं नहीं जिन्हें हिन्दीवालों को पढ़ना ही नहीं चाहिए । इन्होंने हिन्दी गीतों की युगीन प्रवृत्तियों को लाँघने की चेष्टा की है । शंकर सक्सेना तो नवगीत दशक के विश्वसनीय सर्जकों में आदरणीय हैं । बस्तीवासी अष्टभुजा शुक्ल के जिन पदों को हम कविता का नया शिल्प मान रहे हैं वैसा तो जाने कबसे आनंदीजी लिख गये हैं। मुस्तफ़ा, काविश हैदरी, मुमताज़, रज़ा हैदरी, नीलू मेघ, अब्दूल सलाम कौसर की ग़ज़लों के बारे में आप क्या कहेंगे? एकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, वंदना केंगरानी, वसंत त्रिपाठी, कमलेश्वर, विजय सिंह, रजत कृष्ण, मांझी अनंत, हरकिशोर दास, संजीव बख्शी, रमेश अनुपम, देवांशु पाल, बी.एल.पाल की कविता-कर्म को ‘वगैरह’ में नहीं रखा जाना चाहिए । जो गुरुदेव काश्यप चौबे की कविता के बारे में नहीं जानता वह छत्तीसगढ़ की कविता के बारे में आखिर कितना जानता है या जानना चाहता है । विभू खरे, देवेश दत्त मिश्र, अख्तर अली के नाटकों को कैसे भूला दिया जा सकता है ?

स्नेहलता मोहनीश, आनंद बहादुर सिंह, विनोद मिश्र, एस. अहमद भी टक्कर के कथाकार हैं यह कौन बतायेगा ? राम पटवा, हेमंत चावड़ा, सरोज मिश्र, डॉ. महेन्द्र ठाकुर, डॉ. राजेन्द्र सोनी की लघुकथाओं को शायद बड़े लोग नहीं पढ़ते । अजी, राम पटवा वही जिसकी लघुकथायें विष्णु प्रभाकर जैसे वंदनीय रचनाकार को जीवन के अंतिम क्षणों में आत्मकथा लिखते समय भी याद आती रहीं । महेन्द्र, राजेन्द्र और सरोज का मतलब कम लोग जानना चाहते हैं कि ये लघुकथा को हिन्दी में स्थापित करनेवाले कद्दावर रचनाकार हैं । विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुव पांडेय, गिरीश पंकज के व्यंग्य के बग़ैर परसाई, जोशी श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य-परंपरा आगे नहीं बढ़ती । यह भी हम नहीं जानते तो हमारा छत्तीसगढ़ के साहित्य के बारे में जानना अल्प जानना होगा ।
केवल कथा और कविता ही साहित्य की विधा और उसके रचनाकार ही रचनाकार नहीं कहलाते । सुधीर भाई केवल प्रकाशक का व्यवसायी दिल रखते तो यूँ ही देखते-देखते 300 किताबें नहीं छप जातीं । प्रभात त्रिपाठी बिलकुल ठीक ही कहते हैं – राष्ट्रीय स्तर-वस्तर कुछ नहीं होता । ख़ासकर तब जब आप ऐसी पत्रिकाओं में छपकर स्वयं को राष्ट्रीय हुआ देखने लगते हैं जो किसी किसी वाद, गुट, विचार और निजी कुंठाओं से परिचालित होती है । दिल्ली, मुंबई से छप जाना और वहीं के किसी कथित आलोचकों की याद में आ जाने से कोई बड़ा नहीं हो जाता, न मैं न तुम न और कोई । वह भी ऐसे दौर में जब साहित्य को चलानेवाले लोग बाज़ारवादी मन-बुद्धि से सोचते हों । छत्तीसगढ़ के कितने ऐसे लेखक हैं जिन्हें उनका पड़ोसी उन्हें एक लेखक के रूप में भी जानता है । अब तुम ही देखो – तुमने विश्वरंजन के पत्र को छत्तीसगढ़ के 500 लोगों तक पहुँचाया और उसमें से कितने लोगों ने प्रमोद जी पर आलेख दिये? कितनों ने उनके पत्र की फोटो काफी उपलब्ध कराया? कितने लोगों ने मूर्ख की तरह यह नहीं कहा कि ये प्रमोद वर्मा थे कौन ? तुम तो जान चुके हो कि जिसे तुमने बड़ा लेखक मानने का भ्रम पाले हुए थे उसी ने तुम्हें कह दिया कि वह प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में श्रोत्रा की हैसियत से आयेगा किन्तु प्रमोदजी पर साधिकार बोलने की दक्षता-संपन्न होने के बाद भी नहीं बोलेगा । क्यों नहीं बोलेगा भई ? उसकी मर्जी। मानस, तुम यह भी जानते हो कि जो ‘वगैरह’ होते हैं वे ही ऐसे बड़े आयोजनों को अमली जामा पहनाने में सबसे पहले आते हैं । तो केवल सूचीबद्ध बड़े साहित्यकारों को बड़े साहित्यकार कभी मत मानो। इसकी याद कराने की शायद ज़रूरत नही कि नाम बड़े और दर्शन छोटे । यह दीगर बात है कि वे “बड़े” साहित्यकार भी हो सकते हैं । सबको साथ लेकर चल सकते हैं। प्रमोद जी के साथ यही हुआ, उनके जाने के बार उन्हें बड़े साहित्यकारों ने इसलिए बिसार दिया क्योंकि उन्हें याद करने पर कोई रिटर्न नहीं आनेवाला । यानी हानि का व्यापार । तुम तो उनके शुक्रगुज़ार बनो जिन्होंने पहले ही पत्र पर प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शरीक होने की उत्साहवर्धक सहमति दे दी और जो प्रमोद जी के लिए सारा-धंधा पानी छोड़कर चले आ रहे हैं ।

Sunday, June 08, 2008

रसास्वाद और पाठ का पर्याप्त आग्रह

जब तक हिंदी के प्राध्यापकों ने अपने उत्तरदायित्वों को संपूर्ण रचनात्मकता के साथ निभाया तब तक हिंदी आलोचना गतिमान बनी रही । उसे ठोस ज़मीन मिलती रही । वहाँ सबकी खोज-खबर होती रही । सबकी धुलाई-पोंछाई होती रही । तब वहाँ केवल शास्त्रीयता का आग्रह नहीं था अपितु नये विकल्पों की मीमांसा भी हो रही थी । इतिहास में इसकी संपूर्ण गवाहियाँ हैं । नये काव्य और इसी तरह भाँति-भाँति के आंदोलनों से आलोचना का सूत्र उसकी मुट्ठी की पकड़ से बाहर होता चला गया । इसमें विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा में डिग्री की अपरिहार्यता और उसके अर्थलाभ से जुड़ते चले जाने का घटाटोप भी कम उत्तरदायी नहीं । धीरे-धीरे आलोचना प्राध्यापकों के हाथ से रचनाकारों के कब्जे में जाने लगा ।

रचनाकारों के आलोचक हो जाने से हिंदी आलोचना को नया आयाम तो मिला किन्तु वह गुटनिरपेक्ष नहीं रह सकी । वह निजी मुगालतों के फिलसन की शिकार होने लगी । रातों-रात अखिल भारतीय बनने-बनाने का गोरखधंधा चल निकला । इस दरमियान आयातित विचारों के बादलों की गड़गड़ाहट से भी हिंदी आलोचना की शास्त्रीयता और गतिमयता भोथरी होती रही । भले ही साहित्य को परखने के नये-नये सौदंर्यशास्त्रों से लेखकों-पाठकों का परिचय हुआ किन्तु इन्हीं कारणों से जो सबसे बड़ी हानि हुई, वह है – केवल चित-परिचित या समानधर्मा रचनाकारों की ‘पूँछ-परख’ । यह ‘पूछ-परख’ भी होती तो कदाचित् नयी पीढ़ी के रचनाकारों को एक आश्वस्ति मिलती । आज भी हिंदी की दुनिया में इसी दौर की नदी अबाधता के साथ बहे जा रही है। ऐसे दौर में जब पद्मश्री मुकुटधर पांडेय को छायावाद के जनक के रूप में स्थापित करने का संघर्ष और उसमें सफल हाने वाले आलोचक (शिक्षाविद्) डॉ. बलदेव का बिना किसी वादाग्रह के डॉ. जे.आर.सोनी जैसे रचनाकार के समग्र (अब तक लिखे गये) के आधार पर उनके व्यक्तित्व का परीक्षण हमारे सम्मुख आता है तो वह सुखद क्षणों का अवसर मुहैया कराता जान पड़ता है ।

इधर आधुनिक छत्तीसगढ़ी लेखन में श्री सोनीजी प्रमुख कथाकारों में गिने जाते हैं । यों तो छत्तीसगढ़ी में लिखे गये उपन्यासों को उँगलियों में गिना जा सकता है किन्तु चंद्रकला, पछतावा और उढ़रिया उपन्यासों के कथ्य पारंपरिक विषयवस्तुओं को तोड़ते हैं । वे समकालीन यथार्थ और संघर्ष के मध्य नये पाठ की तरह हैं । बलदेव जी इन उपन्यासों को नये आस्वाद के साथ पढ़ने के सारे संकेतों को यहाँ बड़ी सरलता से जुटाते जान पड़ते हैं । चंदकला को आंचलिक उपन्यास की तरह पढ़ा जाय तो उसे छत्तीसगढ़ के समकालीन जीवन की गंभीर पड़ताल भी कहा जा सकता है । कथासंग्रह मितान, नगमत, नीरा और रंग-झांझर भी हमे निहायत यथार्थ की ओर ले जाती हैं । यहाँ जो भी कथायें हैं वे अपनी सादगी में पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम हैं । यह दीगर बात है कि शिल्प को ही कहानी मानने के आदी हो चुके समकालीन पाठकों को यहाँ निराशा हो सकती है । सोनी जी अपने व्यक्तित्व से दूर कभी नहीं जाते । यहाँ भी उनका व्यक्तित्व उनकी रचनाओं के साथ पूर्ण सामंजस्यता बने हुए है । ऐसा कम होता है कि दोनों मे एकाकार हो । कृतिलेखक बलदेव को नये पाठक इस समीक्षा के लिए भी याद रखना चाहेंगे ।
मैं निजी तौर पर सोनीजी को उनकी यात्राप्रियता के लिए भी जानता हूँ । यात्रा को वे पर्यटन नहीं अपितु नये अनुभव की यात्रा के रूप मे देखते रहे हैं । वे चीज़ों को उसके आरपार देखने के प्रयास मे सफल रहे हैं । यद्यपि उनकी जटिलता और संश्लिष्टता उतना सरल नही है जैसा हम देखने के आदी हैं । मैं स्वयं मारीशस को छोड़कर इंग्लैंड और श्रीलंका की साहित्यिक यात्रा में उनके साथ रहा हूँ । इस बीच उनके व्यक्तित्व को गहरे से समझने का मुझे भी बड़ा मौका मिला है । मॉरीशस, श्रीलंका और इंग्लैड पर लिखी गई उनकी किताबें सामान्य से सामान्य पाठकों के लिए भी सांस्कृतिक यात्रा का सुखद आस्वाद जुटाती हैं । डॉ. बलदेव की माने तो कई बार वे सूचनाओं के संकलक जैसा भी ज़रूर दिख पड़ते हैं पर इसकी भी महत्ता ऐसी किताबों के बहाने साबित तो हो ही जाया करती हैं । बलदेव जी ने उनकी काव्यात्मक संस्मरणों का विशद अनुशीलन किया है इस किताब में ।
वे देश-परदेश सर्वत्र और सर्वदा जे.आर.सोनी बने रहते हैं । वे कभी भी अपने होने को द्विविधा के पचड़े में नहीं उलझाते । उनका लोकधर्मी व्यक्तित्व कभी भी पराये आलोक की चकाचौंध में नहीं उलझ सकता । उनकी सात्विकता उनके व्यक्तित्व की निशानी है । बाह्याभ्यंतर से वे सात्विक हैं । इसलिए दलित लेखन के बाद भी वे दलितों के समय-सम्यक आक्रोश को तवज्जो नही देते । खासकर अपनी लेखनी में । उनके पात्र सदैव मर्यादा और समाज-सम्यक विकास के लिए निजी संघर्ष को वरेण्य मानते हैं । उनके सहयोगी स्वभाव का भी विशद उल्लेखीकरण भी इस कृति को पठनीय बनाता है । पठनीय इसलिए कि सोनी जी जातिवादी मानसिकता के लेखक नहीं । वे मनुष्यता के लेखक हैं । इसलिए वे निजी जीवन में भी लेखकों, कलाकारों, सहकर्मियों और ज़रूरतमंदों के सहयोग मे आगे देखे जाते हैं ।
यूँ तो जातिगत चेतना के कोण से देखने वालों को सोनीजी का अब तक का लेखन वंचितों को समर्पित प्रतीत होगा । इसके बावजूद उनमें वह पूर्वाग्रह नहीं है जिससे साहित्य का मूल मापंदड़ खंडित होता है । साहित्य निहायत निजी नहीं होता । साहित्य बहुजन के लिए भी नहीं होता । उससे भी बढ़कर वह सबका होता है । यही उसका होना है । साहित्य यानी सहित । सहित भाव ही साहित्य का प्रजातंत्र है । भले ही वह अपने में संपूर्णः न हो । भले ही उसमें सबके स्वप्नों की सरंक्षण-क्षमता न हो । पर उसमें यदि किसी का भी अवमानना है तो वह सहित भाव दूरी बनानेवाला शब्दों का भूसा के अलावा कुछ नहीं । कृतिकार ने जगह-जगह यह सिद्ध किया है कि निजी आक्रोश तो जैसे उनके(सोनीजी) यहाँ मिलता ही नहीं । भले ही दलित आलोचकों को इसमें निराशा हो सकती है कि सोनीजी एक बड़े दलित लेखक बनते-बनते चुके जा रहे हैं पर उनका दलित चिंतन इससे कहीं भी भोथरा नहीं होता, बल्कि वे भारतीय जीवन पंरपरा की वैचारिक ज़मीन और सामाजिक यथार्थ के पहाड़ दोनों को नाप कर निष्कर्ष देते हैं । यही उनका रचनात्मक संघर्ष भी है । डा. बलदेव कहते हैं – ‘’डॉ. सोनी ने किसी को गुरू नहीं बनाया, वे तो जन्मजात गुरू घासीदास के शिष्य हैं ।‘’ हिंदी में दलित लेखन को हम बाबा अंबेडेकर के विचारों से अनुकूलन करते चलते हैं । यह अनुकूलन दलितों, वंचितों, पिछड़ों और सताये गये लोगों को एक गहरी आत्मीयता और आत्मविश्वास भी उपलब्ध कराता है । पर कहीं न कहीं किसी वाद की ओर भी धकेलता है । सोनी जी का दलित चिंतन इस मायने में भी भिन्न और नये आलोक के साथ निरंतर बना रहा है कि उनके लेखन में गैर दलित साहित्यकारों, आलोचकों, और पाठकों के लिए भी रसास्वाद और पाठ का पर्याप्त आग्रह है । हो भी क्यों नहीं । वे मूलतः संत प्रकृति के हैं । हृदय में वैष्णवता को बिठाये बगैर एक सफल लेखक होना कठिन है और सतनाम के गायक गुरूघासीदासजी के सिद्धांतों, आदर्शों, जीवन-दर्शन को विस्तार देने वाले श्री सोनी वैसा चाह कर भी नहीं कर सकते जो भारतीय समाज की विश्वव्यापी छवि को ध्वस्त करे ।

उनके लेखन में आम आदमी तो सर्वत्र है - अपने दुःख दैन्यता के साथ । पर उसके साथ संपूर्ण समाज भी है जिसका हृदय परिवर्तन ज़रूरी है (जिसमें लेखक को सफल माना जा सकता है) न कि उसके खिलाफ विष-वमन और डॉ. सोनी इस मायने में मुख्यधारा के लेखक हैं । उनकी किताबों (सतनाम के अनुयायी, सतनाम की दार्शनिक पृष्ठभूमि और गुरू घासीदास की अमर कथाएँ) में वर्णित गुरू केवल सतनामी समाज का मार्गदर्शक नहीं । वह संपूर्ण मानवता का हितैषी हैं । डॉ. बलदेव ने इस बहाने सोनी जी की दृष्टि, नैतिकता, विचारधारा की परिपक्वता को तराशा है । किसी लेखक को जानने के लिए बलदेव जी की यह आलोचना पद्धति शुष्कता में भी वर्षा की रिमझिम फुहार की मानिंद है ।

डॉ. बलदेव ने बबूल की छाँव और मोंगरा के फूल (काव्यकृतियाँ) की मींमासा बड़ी बारीक नज़रों से की है । मीमांसाका से सहमति देते हुए निजी तौर पर मै भी इतना ही कहना चाहूँगा कि सोनीजी का काव्याकार उनके गद्यकार से पिछड़ता जान पड़ता है । हो सकता है कि सोनी जी का निजी जीवन प्रशासनिक आपाधापी में गद्यमयता के बीच गुजरने के कारण जीवन के लय, छंद और गति के मध्य सामंजस्य न बैठा पा रहा हो । हो तो यह भी सकता है कि गद्य ही उनका प्रिय माध्यम है । पर अल्प समय में उनका विपुल लेखन बड़ों-बड़ों के लिए इर्ष्या का विषय भी हो सकता है ।

डॉ. बलदेव द्वारा डॉ. जे. आर. सोनी जी पर केंद्रित यह किताब साहित्यानुरागियों के लिए पठनीय, शोध-छात्रों के लिए मार्गदर्शीय, सतनाम अनुयायियों के लिए संग्रहणीय और विमर्शवादियों के लिए विचारणीय है । विश्वास है छत्तीसगढ़ी साहित्य की दिशा को तराशने में संलग्न डॉ. बलदेव और स्वयं डॉ. जे.आर.सोनी की साधना से भविष्य में कुछ और भी सार्थक, और भी महत्वपूर्ण मिल सकेगा । फिलहाल मेरे निजी विचार ऐसे हैं, इत्यलम् नहीं ।

Friday, May 23, 2008

अंतरजाल पर आत्महत्या के मायने



आत्महत्या जैविक अस्मिता का नष्टीकरण है । और मनुष्य जन्म का भ्रष्टीकरण भी । वह जीवन के प्रतिरोध में मनुष्य का सबसे बड़ा निरुत्साही कदम है । वह आत्मघाती व्यक्ति के खिलाफ़ ही नहीं, मात्र परिजनों के विरूद्ध ही नहीं, समूचे समाज, देश, युग और मानव सभ्यता में भी भयानकतम काला धब्बा है । एक दृष्टि से वह हत्या से भी ज्यादा जघन्य है । अर्थात् मनुष्य द्वारा किया जाने वाला सबसे बड़ा दुष्कर्म ।

अनेक बार तथाकथित प्रस्थिति, सामाजिक किन्तु थोथे अहंकार, सडियल मान्यताओं की गत्यात्मकता के लिए उसकी संस्तुति भी कर दी जाती है । कम से कम दृश्य माध्यम वाली कथा सीरियलों, चलचित्रों और यदा-कदा साहित्यिक उपन्यासों और कहानियों में भी पाठक ऐसे पात्रों को नायक या नायिका के रूप में देखने लगता है । पर सच कहें तो ऐसे समय पाठक आत्महत्यारे को अपना अनुसमर्थन देते हुए भी अनजाने में मनुष्यता को नकारता भी होता है । वह आत्महत्या को वैयक्तिक रूप से प्रांसगिक मानते हुए उसके लिए सामाजिक स्वीकृति की ज़मीन भी तैयार करता रहता है । ऐसे क्षणों में वह स्वयं को शेष-दुनिया की शुचिता, कल्याण का आंकाक्षी घोषित करते हुए जरूर आत्महत्या करने वाले के प्रति सहानुभूति भी रखता है परंतु क्या ऐसी पाठकीय सहानुभूति से आत्महत्या करने वाले उस पात्र की ज़िंदगी फिर से लौटाई जा सकती है । कदापि नहीं । और जब किसी पाठक, किसी व्यक्ति चाहे वह पिता, पति, पुत्र, पुत्री, परिवार, कुल, समाज, देश ही क्यों न हो को जीवन के पुनर्सर्जन की हैसियत नहीं तो उसे आत्म-हरण को मान्यता प्रदान करने का घोषणा करने का अधिकार कैसे भी सौंपा जा सकता है । इस तरह से क्या हम आत्महत्या को प्रोत्साहित नहीं करते रहते । बहुधा हम त्याग के बहाने आत्महत्या को हितकारी निरूपत कर दिया करते हैं । दरअसल हम ऐसे क्षणों में आत्महत्या करने वाले की हत्या को अपना मौन-स्वीकृति भी प्रदान करते रहते हैं । आप जाने क्या सोचते हैं पर व्यक्तिगत तौर पर मैं तो फिलहाल ऐसा ही सोचता हूँ । क्योंकि ऐसा सामाजिक अथ के लिए ऐसा त्याग भी किसी की इति की बुनियाद पर रचा गया होता है । यह अलग बात है कि पश्चिमी गलियारों में आत्महत्या को भी मनुष्य के अधिकारों में शामिल किये जाने की अनुगूंजे कभी-कभार सुनाई देती रहती है ।

आत्महत्या मनुष्य बोध के इतिहास में सदा अस्वीकृत रही है। हर युग और समाज ने उसे निंदनीय नज़रों से देखा है । धार्मिक आचार संहिताओं में उसे पाप माना गया है तो राष्ट्रीय विचार धाराओं में नागरिकता के खिलाफ कायराना अंदाज। सामाजिक मान्यताओं में उसे असामाजिक श्रेणी में रखा गया है । विधान की दृष्टि में अपकृत्य । दंडनीय अपकृत्य । लोक साहित्य में अवश्य वह नायक-नायिका के प्रतिस्पर्धी वचनों में आया है किन्तु उलाहना के लिए । प्रेम-प्राप्ति के लिए चेतावनी बतौर ।

इन सब सत्यों के बावजूद समकालीन जीवन का एक सच यह भी है कि आत्महत्याओं का रोग समाज में लगातार बढ़ता जा रहा है । समाजशास्त्र, दर्शन, चिकित्सा, जीव-विज्ञान आदि ज्ञान की शाखाओं में उसे लेकर व्यापक चिंता-चिंतन, अध्ययन-विश्लेषण भी होते रहे हैं । इमाइल दुर्खीम जैसे फ्रांस के समाजविज्ञानी ने ऐतिहासिक अध्ययन के पश्चात अपना सिद्धांत भी हमारे समक्ष रखा है । उधर फ्रायड़ ने भी आत्महत्या के कारणों पर मनोवैज्ञानिक कथ्य-तथ्य दुनिया को दिया है । सच कहें तो आत्महत्या को लेकर न केवल उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में विस्तार हुआ है (खास कर समाज-दर्शन में) बल्कि इसे लेकर सरकारें, युनेस्को आदि वैश्विक संगठन भी चिंताकुल हैं, इसे हतोत्साहित करने के लिए कटिबद्ध हैं पर ताज्जुब होता कि सारी दुनिया में व्यक्तिगत चेतना में लगातार वृद्धि होने और मनुष्य की सत्ता को सर्वोपरि मानने वाले जीवन दर्शन, सोच, विचार के वैश्विक प्रतिष्ठा के बाद भी आत्महत्या की दर थमती नज़र नहीं आती है । चाहे वह महाराष्ट्र में किसानों द्वारा किया जाय या कहीं और । मूल में चाहे जो भी कारण रहे हों ।

समाजशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मुझे छात्र-जीवन में पाठ्यक्रम में आत्महत्या को लेकर अब तक हुई समाजशास्त्रीय सिद्धांतों और विवेचनों को पढ़ने और समझने का भी मौका मिला है । परंतु गौतम पटेल ने जिस तरह से जीवन की महत्ता और सत्ता को केंद्र में रखकर आत्महत्या को सभी कोणों से देखने-परखने का प्रयास किया है वह स्तुत्य है । वह किसी विश्वविद्यालय के शुष्क आंकडों, सिद्ध विचारों का लेखा-जोखा मात्र नहीं । वह आत्महत्या के निषेध का सर्वोत्तम पाठ है । सरल और आत्मीय शैली में लिखी गई किताब । भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी किताब में एक मोहनी है ।(मोहनी यानी मधुमक्खी का मधुरस) जानते हैं गाँव-घर-जंगल में जहाँ-जहाँ मोहनी पाया जाता है वहाँ-वहाँ भौंरे भी मंडराते पाये जाते हैं । गौतम की किताब मोहनी का घर है । वहाँ सर्वत्र मोहनी रस बिखरा पड़ा है । यह मोहनी रस उनकी शैली और भाषिक सौंदर्य के कारण है । आपको इस किताब में रमने से एकबारगी लगेगा कि आप आत्महत्या जैसे शुष्क विषय पर नहीं पढ़ रहे हैं बल्कि कोई ललित निबंध बाँच रहे हैं । समाजशास्त्रीय विषय में भी लेखक ने जिस तरह रम्यता की गुंजाइश निकाली है वह साबित करता है कि यदि लेखक विशुद्ध साहित्यिक अनुशासनों पर कुछ काम करे तो वह अपनी उपस्थिति से इधर साहित्यिकि पाठकों को भी चौंका सकता है ।
चलिए इसे एक उदाहरण लेकर ही देखते हैं –

“जीते-जागते रहने का नाम है जीना और जीते जी मर जाने का नाम है आत्महत्या । प्राणधार अथवा प्राणधारण करने वाले को ही बने रहना अथवा प्राण धारण किये रहना ही प्राणी का परम कर्त्तव्य है। दूसरे शब्दों में हर हाल में जीवन के दिन बिताना ही जीना है। इसमें अगर-मगर,किन्तु-परन्तु, लेकिन, फिर भी के लिए कोई स्थान नहीं । निष्कर्ष यही कि हमें हर हाल में जीना है। मत्स्य नियम अर्थात बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। यह नियम तब भी था अभी भी है और आगे भी रहेगा । इसे हम किसी भी कीमत पर बदल नहीं सकते । जंगली विधान अर्थात बड़े वृक्षों के नीचे छोटे वृक्ष नहीं पनप सकते । अतीत में भी नहीं, वर्तमान में भी नहीं और भविष्य में भी नहीं । यह एक प्राकृतिक विधि है। इसमें परिवर्तन प्रकृति को भी मान्य नहीं मवेशी कानून अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस ।”

इस किताब के पाठकों के लिए यह बोनस होगा । हिंदी में जिस तरह से साहित्येतर विषयों का लेखन कम हुआ है इसके पीछे पठनीय आकर्षण का अभाव रहा है । शिल्प और शैली की जटिलता के कारण इधर आसपास के तथाकथित अंतरराष्ट्रीय कवि भी अपने पास-पडौस के पाठकों में नहीं पढे जा रहे हैं । ऐसे दौर में जटिल सामाजिक समस्या को रम्य और साहित्यिक अंदाज में प्रस्तुत कर गौतम ने फिर एक बार याद कराया है कि लिखा ऐसा ही जाना चाहिए जो पाठकों के चित्त को घेरे रख सके । जो उसके मन-मनीषा में शब्दों की दुनियावालों से चिढ़ उत्पन्न न कर सके और सांस्कृतिक दुनिया में यह नकार न जनम सके कि वह आखिर क्यों कर पढे।

गौतम की दृष्टि मूलतः आध्यात्मिक रही है । वे किसी चीज को भारतीय परंपरा के अक्स में देखते-परखते हैं । शायद यही कारण है कि आत्महत्या जैसी विषय-वस्तु को परत-दर-परत खोलते वक्त वे मूल्याँकन में भारतीय मान्यताओं की कसौटी को अपने समक्ष तवज्जो देते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि वे पश्चिम की सर्वमान्य विचारधाराओं, इतिसिद्ध दृष्टियों को नकारते चलते हैं । वे अपने निष्कर्ष में मनुष्य जन्म को सर्वोपरि देखते हैं । तर्कों को इस तरह प्रतिष्ठित करते हैं कि कोई जीवन से हारा हुआ व्यक्ति इसे पढ़ ले तो शायद ही वह आत्महत्या का विचार न त्यागे ।

इस ई-किताब में आत्महत्या के इतिहास, कारणों, परिस्थितियों, लक्षणों, निदानों, मान्यताओं और विचारों को 16 अध्यायों में संजोया गया है । इस शोधात्मक किताब में आत्महत्या को रोकने की दिशा में कार्यरत सामाजिक संस्थाओं की सम्यक जानकारी भी दी गयी है । इस मायने में यह किताब केवल साहित्यिक पाठकों के लिए ही नहीं बल्कि समाज सेवा के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने वालों, समाज अध्येताओं के लिए भी महत्वपूर्ण बन पड़ी है ।

जैसे कि हम सब जानते हैं कि आज नई पीढ़ी लगातार किताबों से विमुख होती जा रही है । नये ज़माने की प्रौद्योगिकी भी उसे किताबों से दूर ले जाने का षडयंत्र कर रही है । ऐसे समय में खासकर तब जब दुनिया के समस्त ज्ञान-विज्ञान और मनुष्य द्वारा खोजे, सिद्ध किये गये कौशलों को अंतरजाल पर रखने की स्वस्थ शुरूआत हो चुकी है । गौतम द्वारा इसे सीधे अंतरजाल पर रखना सामयिक कदम है । आज भले ही हम कह लें कि अंतरजाल की संस्कृति भारत में नहीं चलेगी । पर ऐसा कहना परिवर्तन की शाश्वत गति को नकारना भी होगा । भारतीय प्रतिभा और उसके देन को भी नकारना होगा । क्योंकि यह तो बिलगेट्स भी समझ चुके हैं कि ज्ञान के विश्वव्यापी माध्यम इंटरनेट को नित नया और चिरंतन बनाये रखने के लिए भारतीय प्रतिभा को नकारना अब असम्भव होगा । और सच्चे अर्थों में अंतरजाल या इंटरनेट गाँव-घर के ज्ञान, कौशल, शिक्षा, सिद्धि, पद्धति को वैश्विक बनाने का मानवीय सरोकारों से भरा संचार माध्यम भी है । केवल मनोरंजन और अपकृत्यों को प्रोत्साहित करने वाला माध्यम नहीं । और यह भी सच है कि जब तक हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक कौशलों को अंतरजाल पर नहीं रखेंगे तो नयी पीढ़ी क्योंकर पोर्न साइट की ओर नहीं लपकेगी । मेरा व्यक्तिगत मानना तो यह भी है कि जब हम इंटरनेट को हिंदी की ताकत, क्षमता और दक्षता से नहीं समृद्ध नहीं कर सकते यानी एक बड़ी रेखा नहीं खेंच सकते तो किस मुँह से कह सकते हैं कि पश्चिम हमारी भावी पीढ़ी को विकृति की ओर धकेल रहा है ।

भले ही आप कह लें कि खिलेगा तो देखेंगे । पर कहाँ-कहाँ तक आप खिलायेंगे । भले ही आप मिठलबरा की आत्मकथा सुनाकर ऐसे लोगों से अपने आसपास को बचा सकते हैं । पर उनका क्या होगा जिनके आसपास भी ऐसे मिठलबरे पाँव जमाये हुए हैं और जो उखडने का नाम ही नहीं लेते । भले ही आप यह चीखते चिल्लाते रहें कि आपके किसी खास ने सरस्वती को भी संपादित किया था । पर यह कितने लोगों को सुनाई देगी । पर मुझे इस समय संतोष है कि भविष्य के सबसे कारगर माध्यम इंटरनेट पर जहाँ आत्महत्या पर और जिस पर हिंदी में कोई सामग्री नहीं थी अपनी समूची किताब को ई-किताब में गौतम ने तब्दील कर दिया है । इससे हिंदी ही समृद्ध होगी समूचे विश्व में ।

यह अलग बात है कि यह किताब भविष्य में प्रिंट में भी आयेगी । ज्यादा से ज्यादा पाँच सौ प्रतियों में । जिसे ज्यादा से ज्यादा वे पाँच सौ पाठकों तक पहुँचा सकेंगे । पर इंटरनेट पर इस कृति के आने से अब दुनिया भर के सभी हिंदी पाठक इसका फायदा हजारों वर्ष तक उठा सकेंगे और गौतम पटेल का नाम अंतरजाल पर आत्महत्या लिखने वाले पहले कृति लेखक के रूप में शुमार किया जाता रहेगा । आप उन्हें एक गंभीर लेखक के रूप में नहीं लेगें इसके उनका क्या बिगड़ेगा ?


समीक्षित कृति
कृति-आत्महत्या
लेखक- गौतम पटेल
प्रकाशक - वैभव प्रकाशन, रायपुर
मूल्य- 100 रुपये

Thursday, January 05, 2006

“द सोल आफ लिलिथ ” (The soul of lilith)का हिन्दी रुपांतरण

सुधैव कुटुम्बकम् की पुरातन उक्ति को यदि सर्वाधिक सार्थकता किसी क्षेत्र में मिली है तो वह है साहित्य का गाँव, जहाँ से ज्ञान की सर-सरिताएं विश्व चेतना में जाने-अनजाने समाहित होती रहती हैं । 19 सदी में प्रख्यात ब्रिटिश लेखिका का सर्वाधिक चर्चित उपन्यास “द सोल आफ लिलिथ ” इसका एक जीवन्त उदाहरण है । यह उपन्यास हमें पारभौतिक जगत के रहस्यों से अवगत कराता हुआ, एक ओर गीता के कर्म-सिद्धांत तो दूसरी ओर आदि शंकर के अद्वैत की कुंजी पकडाता प्रतीत होता है ।

“द सोल आफ लिलिथ ” (The soul of lilith)का हिन्दी रुपांतरण किया है –रायपुर, छत्तीसगढ, भारत के कवि एवं केन्द्रीय सेवा के वरिष्ठ अधिकारी संतोष रंजन ने । वे अंग्रेजी, संस्कृत एवं हिन्दी के निष्णात रचनाकार हैं । अब तक दो गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं उनके । देश में अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए चर्चित राज्य स्तरीय लेखकों के संगठन “सृजन-सम्मान ” के प्रांतीय संयोजक भी हैं वे । उन्होंने अपने अनुवाद का शीर्षक रखा है स्वर्ग से आया गुलाब । खुशखबरी है यह हिन्दी के उन रसिक पाठकों के लिए जो ईमानदार अनुवाद की तलाश में भटकते रहते हैं । मैं मित्र होने के नाते एवं हिन्दी की दुनिया में रमे रहने वाले होने के नाते भी कह सकता हूँ कि द सोल आफ लिलिथ पूर्व और पश्चिम के सेतु का पुनरावलोकन करने की एक ऐतिहासिक कदम भी है । अब देखते हैं कि हिन्दी का पाठक समुदाय इस किताब को कैसे लेता है । क्या इस किताब को समूचे रुप में अंतरजाल में रखना चाहिए । जो भी हो मैं तो उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब प्रकाशक की कृपा दृष्टि की सीमा में वह भी समादृत हो जायेगा ।बात तो बहुत सी की जा सकती हैं किन्तु मुझे सबसे महत्वपूर्ण बात जो कहनी है वह है क्या आत्मा का पुनरावतरण होता है । क्या ईश्वर का अस्तित्व है । यदि हाँ तो पश्चिम की दुनिया मैं ईश्वर के प्रति इनता दुराग्रह क्यों है । खास कर भारतीय जीवन दर्शन को लेकर, जो आदिकाल से ही ईश्वरवाद, आत्मा की अवधारणा का संपोषक रहा है । मुझे नहीं पता आप क्या सोचते हैं ।