Saturday, March 25, 2006

हिन्दी लघुपत्रिकाओं का सूचीकरण

मित्रो

अंतरजाल में प्रकाशन का आनंद कुछ और है और कागज के पृष्ठों से बनी पत्रिकाओं में छपने का कुछ और । दोनों की महत्ता पर या उनमें से किसी एक को तरज़ीह देने का यहाँ कोई बहस या बखेड़ा करना मेरा उद्देश्य नहीं अपितु हिन्दी में प्रकाशित होने वाली उन लघुपत्रिकाओं का लेखा-जोखा, सीधे-सीधे शब्दों में सूची का संग्रहीकरण ही मेरा उद्देश्य है ।


मैं जिन लघुपत्रिकाओं से परिचित होता रहा हूँ उन्हें मैंने पहले चरण में जोड़ लिया है । पर यह समग्र नहीं है । बहुत कुछ हर बार छूट ही जाता है । यह मेरी सीमा भी है । यह लगातार अपटूडेट होता रहेगा । बस्स, आपकी दृष्टि इधर पड़ती भर रहे । अभी यहाँ विदेश से प्रकाशित होने वाली लघुपत्रिकाओं की सूची भी समादृत की जानी है ।


आप कृपया अपनी जानकारी में आयी ऐसी पत्रिकाओं की सूची हमें उपलब्ध करा कर सहयोग कर सकते हैं । वैसे आप यह सूची देख सकते हैं यहाँ---- http://kavikarma.blogspot.com/2006/03/blog-post_114322658334016587.html

Monday, March 20, 2006

युवा कवि राजेश गनोदवाले का कविता पाठ

हिन्दी के युवा कवि एवं रंग समीक्षक श्री राजेश गनोदवाले का 18 फरवरी 2006 को रायपुर में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से आयोजित पुस्तक मेला के अवसर पर सम्मानित किया गया । उक्त अवसर पर सृजन-सम्मान के बैनर तले उन्होंने 'मैं और मेरी कविता' विषय पर व्याख्यान दिया । उनके द्वारा पढ़ी गयी कवितायें काफी सराही गई । आप देख रहें हैं उक्त अवसर पर सहारा समाचार के फोटोग्राफर आदेश ठाकुर के कैमरे में कैद कुछ तस्वीरें....

Wednesday, March 08, 2006

किताब समीक्षा


लोक राग का पाठ
जयप्रकाश मानस के दूसरे काव्य संग्रह होना ही चाहिए आँगन’ में संग्रहीत कविताएँ मनुष्य के राग को लोक के राग के साथ जोड़ती संस्कृति के नए आयाम ढूढ़ती हैं । अपनी जगह तलाशती हैं । भूमंडलीकरण से उत्पन्न बाज़ारवाद की विभीषिका के बीच अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं ओर सपनों का संसार ढूंढ़ती हैं । मनुष्य के आदिम राग को अभिव्यक्ति देती है, जहाँ से मनुष्य ने जीवन प्रारंभ किया और उससे अलग कहीं दूर जाकर पुनः उन स्मरणों में पहुँच जाना होता है :

‘गूँज रही है चिकारे की लोकधुन
पेड़ के आसपास अभी भी
छांह बाकी है
जंगली जड़ी-बूटियों की महक ’


निश्चित रूप से इसे नास्टेलजिया कहा जा सकता है परंतु यह एक बड़े अर्थ में खोयी हुई धरती में अपनी धरती की तलाळ है । वह धरती जो कवि की मूलतः अपनी धरती है, जो प्रकारांतर से सबकी होती एक अनूठे संसार की रचना करती है उसकी ताप को बचाए रखने की कोशिश करती है- ‘छेना आग को बचाए रखता है बहुत समय तक ’ इस संग्रह की कविताओं में घर, आंगन, मां, पिता, भाई, बहिन, सब हैं पर उनके दायरे हैं जो कहीं बंद होते जा रहे हैं । जब कभी बंद से हो जायें हम / आकाश को निहार कर खुल-खुल जाएँ ।
सच ये है कि ये कविताएँ लोक राग का पाठ हमें भी पढ़ाती हैं ।

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कृति: होना ही चाहिए आंगन
रचनाकार जयप्रकाश मानस
मूल्य 100 रुपए
प्रकाशक वैभव प्रकाशन, रायपुर

समीक्षक
नंदकिशोर तिवारी
संपादक, लोकाक्षर
विप्र सहकारी मुद्रणालय मर्यादित
कुदुदण्ड, बिलासपुर (छत्तीसगढ)


(कुछ दिन और प्रतीक्षा करें आप । इस संग्रह की सभी कविताएँ आप आनलाइन पढ सकेंगे ।)