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Wednesday, October 14, 2009

केदारनाथ सिंह और चंद्रकात एकाग्र हेतु रचना आमंत्रण



प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा हिन्दी के प्रमुख आलोचक, कवि एवं नाटककार तथा मुक्तिबोध के मित्र प्रमोद वर्मा समग्र के सफलतम् प्रकाशन के बाद अपने समय के दो महत्वपूर्ण और सर्वमान्य कवि श्री केदारनाथ सिंह और श्री चन्द्रकांत देवताले पर केंद्रित पृथक-पृथक ‘एकाग्र’ प्रकाशन किया जा रहा है ।

प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के बैनर तले यह एक ऐसा आत्मीय प्रकाशन होगा जिसमें श्री केदारनाथ सिंह और श्री चंद्रकांत का आत्मवृत, कविताएँ, आलेख, साक्षात्कार, संस्मरण, रेखाचित्र, चित्र, पत्रावली, प्रमुख अवसरों पर दिये गये व्याख्यान, प्रमुख आलोचकों की समीक्षात्मक टिप्पणियाँ आदि समादृत होंगी ।

उक्त दोनों विशिष्ट कृतियों का संपादन संस्थान के अध्यक्ष और कवि श्री विश्वरंजन द्वारा किया जा रहा है । श्री केदारनाथ सिंह और श्री चंद्रकांत देवताले जी के रचनात्मक जीवन और कर्म के कई पहलुओं के वाकिफ़ रचनकारों, आलोचकों से उनके उल्लेखनीय प्रसंग – संस्मरण, कुछ पत्राचार और फोटो आमंत्रित किया गया है । रचनाकार हमें विशिष्ट साहित्यिक पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित सामग्री की फ़ोटोकॉपी भेज कर भी सहयोग कर सकते हैं ।
रचनाकारों से आग्रह है कि वे अपनी महत्वपूर्ण सामग्री एक माह के भीतर भेज सकें तो किताबों के प्रकाशन में विशेष सुविधा होगी ।
रचनाओं की प्रतीक्षा होगी – इस पते पर – श्री विश्वरंजन, सी-2/15, शांति नगर, आफ़िसर्स कॉलोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़ – 492001, दूरभाष – 99815-51000, -मेल-srijan2samman@gmail.com

Monday, July 06, 2009

“वग़ैरह” के भीतर और बाहर

प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष
हमारे बौद्धिक प्रवर कनक तिवारी जी का छत्तीसगढ़ में प्रकाशित लेख (29 जून, 2009) पढ़कर मुझे भी कुछ कहने का अवसर मिल रहा है । आपने प्रमोद वर्मा पर सोलह आने सच लिखा है कि हम सबने और सरकार ने भी उन्हें लगभग बिसार दिया था । उन पर आगामी 10-11 जून को होने वाला विशालकाय आयोजन विश्वरंजन के बग़ैर नहीं हो सकता आदि-आदि । उसके लिए आपको और विश्वरंजन दोनों को ही साधुवाद। आपको इसलिए क्योंकि आप बहुधा बड़ी ताक़त के गिरेबां में भी झाँकने का हौसला रखते हैं । इस लेख में आपने उन चरित्रों को धोया है जो साहित्य के अंतःपुर को संचालित करने का दंभ भरते हैं । विश्वरंजन को इसलिए कि वे सचमुच बिना लाभ-हानि के बड़ा काम करने का सपना देखते हैं । वह भी छत्तीसगढ़ का मूल निवासी हुए बिना । यह उनकी छत्तीसगढ़ के साहित्यिक बिरादरी के प्रति असीम स्नेह भी है । क्योंकि वे स्थानीयता को नहीं जीते, वे सदैव एक राष्ट्रीय मन से सोचते हैं । और यदि ऐसा वे सोचते हैं तो उसके पीछे उनके नाना फ़िराक़ और गुरुतुल्य प्रमोद जी का जीवन और पाठ भी होता है ।

मुझे विनम्र भाव से आज आपके “वग़ैरह” शब्द के बहाने कुछ कहना है। यह ‘वग़ैरह’ क्या बहुत ही सिमटा और सिकुड़ा हुआ नहीं है । इसे क्या विस्तारित करने की ज़रूरत नहीं है । प्रमोदजी सचमुच तेज़-तर्रार लेखक थे, इस हद तक कि लेखक होने के नाते अपने स्वाभाविक आकांक्षाओं और लाभों की परवाह भी नहीं किया करते थे। चिकनी चुपड़ी बातों से उन्हें साफ़ परहेज़ था । एक हद तक मुँहफट । शायद इसलिए भी कि वे उस सूची में स्वयं को समादृत होने का सपना नहीं पालते थे जो दो-चार बार देश की कथित बड़ी पत्रिकाओं में छप जाने के बाद स्वयं को बड़े लेखकों में शुमार किये जाने का मुगालता पाले रहते हैं । वे किसी लेखक के टूटपुँजिए आलोचकों के लेखे से सूचीबद्ध होने के सख़्त ख़िलाफ़ थे । वे स्वयं अत्यधिक आत्मसजग और आत्मसम्मानी थे किन्तु इस तरह नहीं कि लोग उनकी चर्चा संबंधित विधा, प्रवृत्ति, दृष्टि, भूगोल आदि के बहाने किया करें और वे अमरत्व प्राप्त कर लें । ऐसा अमूमन औसत दर्ज़े का लेखक सोचता है । यह दीग़र बात है कि नामों को शुमार करने-करानेवालों की मंडली साहित्य की दुनिया में सदैव उपस्थित रही है जो ‘तू मेरा पूँछ सँवार- मैं तेरा सँवारूँगा’ के एजेंडे पर काम करती हैं । ऐसी मंडली के लोग अन्य को ‘वग़ैरह’ के खाँचे में डालकर मुदित हुआ करते हैं। कि उन्होंने फलां को निपटा दिया । इस लेख में आपका आशय यह कदापि नहीं कि आप अपने पसंद के लेखकों के अलावा शेष को “वगैरह” की निकृष्ट कोटि में रखना चाहते हों । न ही आपका ऐसा स्वभाव रहा है । सच तो यह भी है कि लेख का मुद्दा छत्तीसगढ़ के साहित्येतिहास लेखन भी नहीं है । आप अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के बावजूद प्रमोदजी को लगातार याद कर रहे हैं यह प्रमोदजी की आत्मा के लिए भी बड़ी बात है । आप तो जानते हैं प्रमोद जी आत्मा और परमात्मा को भी मानते थे । वे वैसा मार्क्सवादी नहीं थे जो ईश्वर की मौत के बाद ही विचारों के गटर में पालथी मारके आसन जमाना चाहता है ।

चूँकि आपका लेख बहुत बड़ा है इसलिए उसमें ‘वग़ैरह’ के पहले और कुछ नामों को प्रवेश देने की गुंजाईश बनती थी । यह जो ‘वग़ैरह’ शब्द है अपनी बारी से पहले आ गया है । शायद अनाधिकृत चेष्टा करते हुए । कुछ शब्द होते ही हैं ऐसे जो बलात् प्रवेश कर जाते हैं हमारे जेहन में । ऐसे शब्द कईयों को चुभते हैं । मनुष्य जीवन-भर इस दर्द से उबर नहीं पाता । शायद प्रमोदजी को भी इसी तरह ‘वगैरह’ की परिधि में डाल दिया था कुछ हितनिष्ठों ने । आज भी उन्हें कुछ ऐसी नज़रों से देखते हैं । दूर क्यों जायें अपने छत्तीसगढ़ में ही । आप जब प्रसंगवश छत्तीसगढ़ के लेखक बिरादरी की चर्चा कर ही दिये हैं तो मैं इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उस ‘वगैरह’ शब्द को कुछ हद तक अनावृत करना चाहता हूँ जो मुझे नहीं पर उन लोगों को चुभ सकता है जो ‘वगैरह’ के भीतर नहीं बल्कि बड़े दमदारी से खड़े हैं । एकाध को उनकी ठोस शिनाख्तगी नहीं दिखाई देती तो उसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
तो कनक भैया, ‘वगैरह’ शब्द को साफ़ तौर पर खोलने की गुंजाइस 100 प्रतिशत हैं । हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है किन्तु इस ‘वगैरह’ में वे भी हैं जिन्हें शायद हमें पढ़ना चाहिए । यह बिलकुल अलग बात है कि आप-हम सबको नहीं पढ़ सकते । और हम अकसर स्वरूचि व्यंजन की तरह लेखकों को बड़ा या छोटा साबित करते रहते हैं । मैं यहाँ आपको खंडित करना नहीं चाह रहा । ऐसा मेरा किसी भी कोण से लक्ष्य नहीं है किन्तु कनकजी कदाचित् हम लेखकों के इतिहास लेखन की यही प्रवृत्ति अन्य माहिर-जाहिर लेखकों के मन में चूभती भी है । कहें कैसे ? छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो और भी ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें साहित्य के पवित्र मनवाले पाठकों को जानना चाहिए – जैसे डॉ. शोभाकांत झा, बख्शीजी के बाद ललित निबंध को संभाले हुए हैं। छः उत्कृष्ट किताबें दे चुके हैं हिन्दी के ललित संसार को । जैसे डॉ. बलदेव, ये न होते तो शायद मुकुटधर पांडेय का वैसा मूल्यांकन नहीं हुआ होता, जैसा कि हो सका । जैसे जगदलपुर के लाला जगदलपुरी बिलासपुर के पालेश्वर शर्मा और नंदकिशोर तिवारी। क्या उनके लोक-लेखन को एकबारगी बिसारा जा सकता है । जैसे हरि ठाकुर, नारायण लाल परमार, आनंदी सहाय शुक्ल, नरेन्द्र श्रीवास्तव, शंकर सक्सेना, डॉ. चित्तरंजन कर, डॉ. अजय पाठक गीत के लघु हस्ताक्षर तो हैं नहीं जिन्हें हिन्दीवालों को पढ़ना ही नहीं चाहिए । इन्होंने हिन्दी गीतों की युगीन प्रवृत्तियों को लाँघने की चेष्टा की है । शंकर सक्सेना तो नवगीत दशक के विश्वसनीय सर्जकों में आदरणीय हैं । बस्तीवासी अष्टभुजा शुक्ल के जिन पदों को हम कविता का नया शिल्प मान रहे हैं वैसा तो जाने कबसे आनंदीजी लिख गये हैं। मुस्तफ़ा, काविश हैदरी, मुमताज़, रज़ा हैदरी, नीलू मेघ, अब्दूल सलाम कौसर की ग़ज़लों के बारे में आप क्या कहेंगे? एकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, वंदना केंगरानी, वसंत त्रिपाठी, कमलेश्वर, विजय सिंह, रजत कृष्ण, मांझी अनंत, हरकिशोर दास, संजीव बख्शी, रमेश अनुपम, देवांशु पाल, बी.एल.पाल की कविता-कर्म को ‘वगैरह’ में नहीं रखा जाना चाहिए । जो गुरुदेव काश्यप चौबे की कविता के बारे में नहीं जानता वह छत्तीसगढ़ की कविता के बारे में आखिर कितना जानता है या जानना चाहता है । विभू खरे, देवेश दत्त मिश्र, अख्तर अली के नाटकों को कैसे भूला दिया जा सकता है ?

स्नेहलता मोहनीश, आनंद बहादुर सिंह, विनोद मिश्र, एस. अहमद भी टक्कर के कथाकार हैं यह कौन बतायेगा ? राम पटवा, हेमंत चावड़ा, सरोज मिश्र, डॉ. महेन्द्र ठाकुर, डॉ. राजेन्द्र सोनी की लघुकथाओं को शायद बड़े लोग नहीं पढ़ते । अजी, राम पटवा वही जिसकी लघुकथायें विष्णु प्रभाकर जैसे वंदनीय रचनाकार को जीवन के अंतिम क्षणों में आत्मकथा लिखते समय भी याद आती रहीं । महेन्द्र, राजेन्द्र और सरोज का मतलब कम लोग जानना चाहते हैं कि ये लघुकथा को हिन्दी में स्थापित करनेवाले कद्दावर रचनाकार हैं । विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुव पांडेय, गिरीश पंकज के व्यंग्य के बग़ैर परसाई, जोशी श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य-परंपरा आगे नहीं बढ़ती । यह भी हम नहीं जानते तो हमारा छत्तीसगढ़ के साहित्य के बारे में जानना अल्प जानना होगा ।
केवल कथा और कविता ही साहित्य की विधा और उसके रचनाकार ही रचनाकार नहीं कहलाते । सुधीर भाई केवल प्रकाशक का व्यवसायी दिल रखते तो यूँ ही देखते-देखते 300 किताबें नहीं छप जातीं । प्रभात त्रिपाठी बिलकुल ठीक ही कहते हैं – राष्ट्रीय स्तर-वस्तर कुछ नहीं होता । ख़ासकर तब जब आप ऐसी पत्रिकाओं में छपकर स्वयं को राष्ट्रीय हुआ देखने लगते हैं जो किसी किसी वाद, गुट, विचार और निजी कुंठाओं से परिचालित होती है । दिल्ली, मुंबई से छप जाना और वहीं के किसी कथित आलोचकों की याद में आ जाने से कोई बड़ा नहीं हो जाता, न मैं न तुम न और कोई । वह भी ऐसे दौर में जब साहित्य को चलानेवाले लोग बाज़ारवादी मन-बुद्धि से सोचते हों । छत्तीसगढ़ के कितने ऐसे लेखक हैं जिन्हें उनका पड़ोसी उन्हें एक लेखक के रूप में भी जानता है । अब तुम ही देखो – तुमने विश्वरंजन के पत्र को छत्तीसगढ़ के 500 लोगों तक पहुँचाया और उसमें से कितने लोगों ने प्रमोद जी पर आलेख दिये? कितनों ने उनके पत्र की फोटो काफी उपलब्ध कराया? कितने लोगों ने मूर्ख की तरह यह नहीं कहा कि ये प्रमोद वर्मा थे कौन ? तुम तो जान चुके हो कि जिसे तुमने बड़ा लेखक मानने का भ्रम पाले हुए थे उसी ने तुम्हें कह दिया कि वह प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में श्रोत्रा की हैसियत से आयेगा किन्तु प्रमोदजी पर साधिकार बोलने की दक्षता-संपन्न होने के बाद भी नहीं बोलेगा । क्यों नहीं बोलेगा भई ? उसकी मर्जी। मानस, तुम यह भी जानते हो कि जो ‘वगैरह’ होते हैं वे ही ऐसे बड़े आयोजनों को अमली जामा पहनाने में सबसे पहले आते हैं । तो केवल सूचीबद्ध बड़े साहित्यकारों को बड़े साहित्यकार कभी मत मानो। इसकी याद कराने की शायद ज़रूरत नही कि नाम बड़े और दर्शन छोटे । यह दीगर बात है कि वे “बड़े” साहित्यकार भी हो सकते हैं । सबको साथ लेकर चल सकते हैं। प्रमोद जी के साथ यही हुआ, उनके जाने के बार उन्हें बड़े साहित्यकारों ने इसलिए बिसार दिया क्योंकि उन्हें याद करने पर कोई रिटर्न नहीं आनेवाला । यानी हानि का व्यापार । तुम तो उनके शुक्रगुज़ार बनो जिन्होंने पहले ही पत्र पर प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शरीक होने की उत्साहवर्धक सहमति दे दी और जो प्रमोद जी के लिए सारा-धंधा पानी छोड़कर चले आ रहे हैं ।

प्रमोद वर्मा, विश्वरंजन और कुछ लोग

प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष

‘कुछ लोग’ प्रमोद वर्मा को नहीं जानते । ‘कुछ लोग’ यह भी नहीं जानते कि हर कोई प्रमोद वर्मा को नहीं जान सकता । वैसे ‘कुछ लोग’ स्वयं के बारे में भी नहीं जान पाते । बात ऐसे ‘कुछ लोगों’ की नहीं हो रही है । बात उनकी होनी चाहिए जो लोग प्रमोद वर्मा को कुछ-कुछ जानते हैं, उनके कुछ अनजाने को भी स्वयं और समूची दुनिया के लिए जानना ज़रूरी समझते हैं। विश्वरंजन उन कुछ लोगों में अव्वल हैं जो प्रमोदजी को जानने-समझने और समझाने के लिए मूर्खतापूर्ण आरोपों, कुढ़ों, फब्तियों की संभावना का आंकलन किये ब़गैर कठिन धर्मनिर्वहन में लगे हैं । निहायत संवेदनशील जो ठहरे ।

कठिन इसलिए कि कुछ लोगों के मुताबिक उन्हें सिर्फ़ पुलिस महानिदेशक होना चाहिए । आत्मावान् मनुष्य नहीं । विचारवान् नहीं । उन्हें संस्कृति-वंस्कृति से कोई लेना-देना नहीं चाहिए। मैं उनसे पूछता हूँ – हुजूर, मुझे क्यों धंसा दिया आपने समारोह के संयोजन में? जब आप जैसे बड़े आदमी को राज्य के पालनहार और जिम्मेदार क़िस्म के ‘कुछ लोग’ यहाँ तक कह देते हैं कि विश्वरंजन प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष नहीं बन सकते तो वे हमारे जैसे कीडे-मकोड़े (सामान्य आदमी)को किस तरह निपटाने की सोच रहे होंगे ? जैसे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान उनकी अपनी सरकारी बपौती है जहाँ वे जिसे चाहे उसे बैठायें । प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान कोई राजनीतिक पद तो है नहीं कि उस पर शीर्षस्थ राजनेता के पिछलग्गू को ही बिठाया जाय । उन्हें कौन समझाये कि यह देश और राज्य के साहित्यकारों की साहित्यिक संस्था है जिसमें विश्वरंजन अपने सभी सदस्यों के आग्रह पर वह गैरराजनीतिक, गैरलाभकारी पद का गुरुत्तर भार स्वीकार किये हैं । शायद इसलिए कि वे प्रमोदजी को गुरुतुल्य मानते रहे हैं । शायद इसलिए कि उनमें फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर और स्वतंत्रताकामी सपूत का ख़ून भी दौड़ता है । शायद इसलिए भी कि वे राज्य को विचारवान, गुणवान और सुसंस्कृत बनाने का सपना भी देखते हैं । शायद इसलिए कि वे और अफसरों की तरह सिर्फ अपनी हेकड़ी में मरना नहीं चाहते । यह बिलकुल दीगर बात है कि ऐसे ‘कुछ लोग’ अक्सर किसी कुंठा का शिकार होकर उलजूलूल बकते रहते हैं और राजनीति में यह सब चलता भी रहता है ।

वैसे ऐसे ‘कुछ लोगों’ को अपने ही राज्य के नियम-क़ायदों का ज्ञान नहीं होता कि उनका कोई भी अधिकारी कला, साहित्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास से संबंधित वह सभी कार्य कर सकता है जो राज्य की संप्रभुता को चुनौती न देता हो । ‘कुछ लोग’ यहाँ तक कहते पाये जा सकते हैं कि आप अपनी ज़मीर को छोड़कर आयोजन के बहाने रुपया बटोर रहे हैं और कुछ हिस्सा मुझे भी दे रहे हैं । भई क्या बात है, जैसे जीवन-भर पुलिस विभाग में रहते हुए विश्वरंजन को कुछ नहीं मिला....तो चले साहित्य के बहाने पैसा कमाने । जैसे विश्वरंजन किसी भूखमर्रे किसिम के मेट्रिक पास नेता है जो बड़ा से बड़ा राजनीतिक पद पाजाने के बाद भी चंदा दलाली से ज्यादा नहीं सोच सकता । तौबा-तौबा। कुछ तो लिहाज़ करो फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर और संग्राम सेनानी के संस्कारवान नाती पर.....

विश्वरंजन कुछ नहीं कहते, सिर्फ मुस्काते देते हैं- जैसे उनकी मुस्कान में ये सारे भाव-उत्तर छुपे हुए हों कि मानस, ऐसे ‘कुछ लोग’ जो कम पढ़ लिखे होते हैं, जीवन-भर यही काम करते रहते हैं । और ऐसे लोग सिर्फ राजनीति में नहीं साहित्य में भी होते हैं । तुम और हम और बहुत सारे लोग भी ऐसे ‘कुछ लोगों’ जैसे नहीं होते । शायद इसलिए प्रमोदजी जैसे विभूतियों पर कुछ होने की पहल हो पाती है ।

प्रमोदजी ऐसे ‘कुछ लोग’ की चिंता नहीं किया करते थे । वे जानते थे कि समाज में ‘कुछ लोग’ ऐसे होते ही हैं जो वे कुछ करें तो ठीक । दूसरा कुछ करे तो गलत । ऐसे लोग जीवन भर विघ्नसंतोषी बने रहते हैं । दरअसल ऐसे लोग ऐसे मौकों पर अपनी विशेषज्ञता प्रतिपादित करने के लिए जुमले उछालते हैं । ताकि आप उन्हें मनायें तुलसीदास की पंक्ति को याद करते हुए – प्रथमहू बंदऊँ खल के चरना । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो बड़े बड़े लेख लिख सकते हैं परन्तु दिये गये विषय पर लिखने में उन्हें नानी याद आ जाती है । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जिन्हें लगता है कि वे प्रमोदजी जैसे छोटे साहित्यकार पर लिखकर अपने बडप्पन को छोटा करने का ख़तरा नहीं उठा सकते । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो आपके हर कामों में मीन-मेख निकालकर ऐसे आयोजनों में आपकी अस्थिपंजर एक कर देते हैं । कुछ नहीं मिला तो प्रूफ की ओर इशारा करके आपके निष्कलुष श्रम पर ऊँगलियाँ उठा देते हैं । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो भीतर से तो ऐसे पवित्र आयोजनों से जुड़े होते हैं किन्तु आपको पता ही नहीं लगता कि वे अपना मूल्य कब और कैसे आपसे वसूल लेते हैं ।

साहित्यवाले भी समाज से आते हैं । जैसा समाज वैसे ही उसके साहित्यकार । किस-किस पर रोयें ? किस किसकी कितनी परवाह करें । परवाह करेंगे तो राज्यहित में ऐसे काम नहीं कर सकते । चलिए... चलते-चलते भैया परदेशीराम वर्मा जी के उस आलेख की भी चर्चा कर लेते हैं जिसका देह संपूर्ण पवित्र है किन्तु उसमें धड़ लगा है वह निहायत अपवित्र है यानी उनके शब्दों में जी हाँ, वे प्रमोद वर्मा को नहीं जानते । केवल उनकी पूजा करते हैं । भई बिना जाने कोई किसी की पूजा भला क्योंकर करेंगा ? लेख में मेरा जिक्र करके उन्होंने कुछ पर्दादारी कर दी है । उसका रहस्य खोल देते हैं । हाँ, मुझे उन्होंने कहा था कि वे प्रमोद वर्मा को नहीं जानते पर उन पर केंद्रित इस आयोजन में ज़रूर आयेंगे । तब मैंने यह भी कहा था कि आप आ रहे हैं यही प्रमोद जी को जानना है । मैंने यह भी कहा था कि कुछ लोग आपको और कुछ लोग मुझे भी नहीं जानते जिसके लिए हम जिंदगी भर लगे रहते हैं कि लोग हमें जाने । उस समय संस्थान के अध्यक्ष भी विश्वरंजनजी भी साथ थे । बात तो हुई छत्तीसगढ़ी में पर विश्वरंजन जी सब समझ रहे थे । उन्होंने सहर्ष आयोजन में पधारने की स्वीकृति भी दी थी कि वे ज़रूर प्रमोदजी पर बोलेंगे । इसके पहले भी सुधीर शर्मा ने बताया था कि इस आयोजन को लेकर परदेशीराम वर्मा का कहना है कि उन्हें सिर्फ संवाद में रखा गया है जबकि उन्हें अच्छे आसंदी में रखे जाने की उम्मीद थी । मैंने मित्रों की चर्चा में बिना किसी पाप के अशोक सिंघई जी को कह दिया जो संस्थान के उपाध्यक्ष हैं कि वे उन्हें मनालें । तो उन्होंने उसी तरह परदेशीजी को हड़का दिया जैसे एक मित्र को दूसरा मित्र हड़का देता है और दोनों एक दूसरे को ऐसे तो कई बार हड़का चुके होंगे । इसके कुछ ही दिन बात मुझे परदेशीजी का पत्र मिल गया कि उन दिनों जब प्रमोद जी पर केंद्रित आयोजन हो रहा होगा वे अन्यत्र व्यस्त रहेंगे अतः अपनी शुभकामनायें ही भेज सकते हैं । अब मैं तय ही नहीं कर पा रहा हूँ कि ऐसी शुभकामनाओं का क्या उपयोग किया जाये ? आपमें से किसी को इसका दिव्यज्ञान तो कृपया मुझे अवश्य सूचित करें ।

Friday, March 20, 2009

क्या नेशनल बुक ट्रस्ट में कुनबाबाद चलता है ?

( एक दिवसीय साहित्य महोत्सव पर निजी टिप्पणी )
हमें किसी पर ऐसी टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है, जब तक हम वैसी हरक़त करने की समस्त संभावनाओं से ख़ुद को मुक्त न कर लें । वैसे यह बड़ा जोख़िम भरा उद्यम है - एक साधना की तरह, यह हम बख़ूबी जानते हैं, फिर भी आज कुछ ऐसा हमारे समक्ष आ खड़ा हुआ है जिससे किसी बड़ी हस्ती पर भी अँगुली उठाने की सदाशयपूर्ण हिमाक़त का परहेज हम नहीं कर पा रहे हैं । और सच तो यह है कि ऐसा न करने से प्रायश्चित के किसी दलदल से भी हमें गुज़रना होगा, जैसा कि हम नहीं चाहते और शायद आप भी इन हालातों में ऐसा नहीं करना करना चाहेंगे और अपने चेतनात्मक ऊर्जा को प्रखऱ करना चाहेंगे । सो इसे आप अपनी संवेदना को हमारे साथ रखकर ही समझ सकते हैं ।

जी हाँ, नेशनल बुक ट्रस्ट नामक अखिल भारतीय संस्था का चरित्र भी कुछ-कुछ ऐसा ही परिवर्तित होता जा रहा है जिसे देखकर कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति कह सकता है कि उनकी चदरिया पर भी दाग़ दिखने लगा है । यह दाग़ सतर्कता के अभाव का है । यह दाग़ हड़बड़ी का है । यह दाग़ छत्तीसगढ़ को ज़रा आलसी और अनभिव्यक्त प्रवृति का मान लेने के कारण से है । आप के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि आख़िर माज़रा क्या है ? क्या कर डाला दिल्ली के नेशनल बुक ट्रस्ट ने ।

तो जनाब, लीजिए आप भी जान लीजिए । नेशनल बुक ट्र्स्ट वाले यहाँ पधार रहे हैं । ‘वाले’ का मतलब नई दिल्ली स्थित इस ट्रस्ट के मुख्य संपादक और संयुक्त निदेशक डॉ. बलदेव सिंह मदान (और संभवतः उसके एक और कारिंदे लालित्य ललित) वैसे मैं इस दोनों को पढ़ चुका हूँ । बड़े ही सक्रिय रचनाधर्मी हैं । इनके ट्रस्ट में विराजने से देशभर में पाठकीय संस्कृति से जुड़ी ऐसी गतिविधियाँ तेज़ ही हुई हैं । तो ये महानुभाव अपने मुख्यालय, दिल्ली से साहित्यकारों की खेप लेकर रायपुर में एक दिवसीय साहित्य महोत्सव कर रहे हैं । यह महोत्सव है 22 मार्च, 2009 को । ‘विनीत’ बनकर कार्ड बाँट रहे हैं – ट्रस्ट के डॉ. बलदेव सिंह बद्दन औऱ छत्तीसगढ़ राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के मंत्री डॉ. सुधीर शर्मा ।

इस साहित्य महोत्सव के आमंत्रण-पत्र का सिंहावलोकन करें तो आपको नहीं लगेगा कि रायपुर या छत्तीसगढ़ में देश के वरिष्ठ साहित्यकार रहते हैं । वैसे यह निमंत्रण पत्र रायपुर से छापा गया है । दरअसल दिल्ली सदैव छोटी राजधानियों पर हावी होना चाहती है । दरअसल वह इसलिए अन्य प्रदेशों की राजधानी में दिल्ली वाले साहित्यकारों को लाकर ट्रस्ट की ओर से पुस्तक संस्कृति को विकसित करने का श्रम करती रहती है । वह जताना चाहता है कि दिल्ली के साहित्यकारों से बड़ा कोई नहीं है । सो, उन्हीं के दिशाबोध में पुस्तकों की अहमियत पर देश में चर्चा होगी । हाँ, मेरे जैसे कुछ छुटभैय्ये साहित्यकारों को ऐसी कार्यशालाओं - साहित्य महोत्सवों में अवश्य शामिल कर लिया जाता है जो चुपचाप उनकी बड़ी-बड़ी बातों को शिष्य-भाव से सुनने का धैर्य रखें । शायद इसलिए भी कि ऐसे साहित्यकारों की ट्रस्ट से जान-पहिचान है । शेष जायें रद्दी की टोकरी में । उन्हें पहचानने की जहमत क्यों उठाये ट्रस्ट । किन्तु क्या ऐसे स्थानीय आयोजकों या समन्वयक संस्थाओं को यह नहीं देखना चाहिए कि छोटी-छोटी जगहों पर भी ख्यातिनाम और बड़े-बड़े साहित्यकार रहते हैं ? और जिन्हें एकदम से ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए ।

ट्रस्ट को बकायदा अधिकार है कि वह ऐसे साहित्य महोत्सव में किसे अधिक वेटेज दे और उन्हें किस भूमिका में रखे पर उसे देश की राष्ट्रीय स्तर की बड़ी साहित्यिक नेतृत्वकर्ता होने के कारण क्या यह भी खयाल नहीं रखना चाहिए कि ऐसे अवसरों पर ऐसे जनपदों के वरिष्ठ रचनाकारों को भी याद किया जाय । इस आयोजन में छत्तीसगढ़ के समक्ष जिन्हें बड़े साहित्यकार के रूप में आमंत्रित किया गया है उनमें विष्णु नागर, रामशरण जोशी, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, डॉ. हरीश नवल, राम दरश मिश्र, महीप सिंह, रमेश उपाध्याय, अमरेंद्र मिश्र, गंगाप्रसाद विमल आदि दिल्ली के हैं । देश के अन्य राजधानियों से जिन्हें विशेष ज्ञान प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया है उनमें जयपुर से डॉ. के.के.रत्तू और भोपाल से ज्ञान चतुर्वेदी व जब्बार ढाँकवाला। इस संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में स्थानीय प्रदेश के होने के कारण जिन साहित्यकारों को सम्मिलित किया गया है उनमें जो भी हों, विनोद कुमार शुक्ल जैसा देश का महत्वपूर्ण कवि और उपन्यासकार गायब हैं । और इतना ही नहीं, स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, प्रभात त्रिपाठी, डॉ. रमेश चन्द्र मेहरोत्रा, गुरुदेव काश्यप, बच्चू जांजगिरी, रमाकांत श्रीवास्तव, राजेन्द्र मिश्र, ड़ॉ. बलदेव, ललित सुरजन, डॉ. सुशील त्रिवेदी, विश्वरंजन, चितरंजन खेतान, डॉ, इंदिरा मिश्र, प्रभाकर चौबे, कनक तिवारी, राजेश्वर दयाल सक्सेना, जया जादवानी, सुभाष मिश्र, आनंद हर्षुल, कैलाश वनवासी, महावीर अग्रवाल, रवि श्रीवास्तव, डॉ. उषा आठले, बबन मिश्र, सतीश जायसवाल, परितोष चक्रवर्ती, अशोक सिंघई, संजीव बख्शी, दिवाकर मुक्तिबोध, श्यामलाल चतुर्वेदी, डॉ. प्रेम दुबे, विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुवन पाडेय, मुमताज, डॉ. शोभाकांत झा, डॉ. श्यामसुंदर त्रिपाठी, राजकमल नायक, मिर्जा मसूद, काविश हैदरी, डॉ. विनय पाठक, डॉ. अजय पाठक, राजेश गनोदवाले, प्रभृति देश में छत्तीसगढ़ का विशेष औऱ उज्ज्वल प्रतिनिधित्व करने वाले नामी-गिरामी कवि, कथाकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, आलोचक, नाटककार, भाषाविद्, समीक्षक एक सिरे से गायब हैं । ( यहाँ मेरा उद्देश्य नाम गिनाना नहीं है) यदि इन्हें ट्रस्ट से जोड़ने की कोशिश की हो तो यह बात यहीं समाप्त हो जाती है । यदि ट्रस्ट और स्थानीय संयोजकों के अनुसार मान भी लें जैसा कि ट्रस्ट ‘इलेक्ट्रानिक युग में पुस्तक की भूमिका’ पर चिंतित होकर उसमें छत्तीसगढ़ के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों, कलाकारों को अपने साथ लेकर देश को चिंतनशील बनाना चाहती है तो भी ऐसे मर्ज की यह आधाशीशी इलाज जैसा है क्योंकि विमर्श की विषय-वस्तु का दूसरा हिस्सा है – इलेक्ट्रानिक युग । अच्छा होता कि इसमें ट्रस्ट इलेक्ट्रानिकी युग से जुड़े अर्थात् टी.व्ही. फ़िल्म, फोटो पत्रकारिता, वेब मीडिया जैसे पोर्टल, वेबसाइट, ब्लॉग से जुड़े और उसके प्रभावों-दुष्प्रभावों के जानकारों को भी जोड़ते, जैसा कि नहीं किया गया है । वेबसाइटों, ब्लॉगों, सिटीजन जर्मलिज्म और संचार माध्यमों से जुड़े अन्य विशेषज्ञों को बुलाते । इसका आशय यह कदापि नहीं कि जो इस विमर्श पर वाद-विवाद-संवाद करने के लिए ट्रस्ट द्वारा आमंत्रित किये गये हैं वे निहायत अपरिचित और हमारे बैरी हैं । वे सारे-के-सारे ज्ञानी-ध्यानी हैं- अपने-अपने क्षेत्रो से मित्र-वर्ग से भी हैं फिर भी संगोष्ठी में मुद्रित नामों की सूची से ट्रस्ट के कुनवाई या अलाली चरित्र भी झलक मारने लगता है । कुनबाई इसलिए कि यहाँ वे ही विशेष भूमिका में बुलाये गये हैं जो इनकी मित्र मंडली से आते हैं या जिनकी किताबें ये छाप चुके हैं । अलाली इसलिए कि ट्रस्ट के पास समय नहीं है इतना कि वे मार्च में अपना बजट खर्चने से पहले बारीकी से राज्य के साहित्यकारों की सूची का परीक्षण कर सकें । सो स्थानीय मित्रों के सहारा लेना उनकी विवशता भी है । अब ऐसे में 3 परिवारों के 6 साहित्यमनीषियों को ट्रस्ट द्वारा विषय-विशेषज्ञ मान लेने के अलावा कोई शार्ट कट रास्ता उनके पास शायद नहीं बचता । इस निमंत्रण पत्र को ग़ौर से देखिये तो आपको पता चल जायेगा कि कैसे 3 साहित्यकारों के 6 सदस्य विशेष सूचीबद्ध हैं । यह दीगर बात है कि ये अपनी रचनात्मकता के लिए भी इधर जाने पहचाने जा रहे हैं । किन्तु क्या प्रजातांत्रिक तौर पर तय करके इनकी जगह तीन ऐसे लोगों को ट्रस्ट नहीं जोड़ सकता था जो किसी अन्य परिवारों से हों । जो भी हो ट्रस्ट को ऐसी हडबडियों से बचना चाहिए । क्योंकि छत्तीसगढ़ में अनेकों ऐसी संस्थायें हैं जो कुनबाई संस्कृति से मुक्त हैं और उनकी रचनात्मकता भी । ट्रस्ट द्वारा तैयार की गई सूची में यदि राज्य के सभी प्रकाशकों, साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाओं के संपादकों का नाम भी रहता तो बात दूसरी थी । न यहाँ पुस्तक प्रकाशन से जुड़े कुछ और लोगों को याद गया है न सांस्कृतिक हस्तक्षेप करने वाली पहचान यात्रा, अक्षर पर्व, नये पाठक, सापेक्ष, परस्पर, सूत्र, पाठ, सर्वनाम, नई दिशायें, नारी का संबल जैसी लघु पत्रिकाओं और सृजनगाथा, छत्तीसगढ़, रविवार, उदंती, जैसी इंटरनेटीय पत्रिकाओं के संपादकों औऱ अन्य किसी ब्लॉगर को भी । यदि ट्रस्ट के इस अभियानात्मक संगोष्ठियों को निरक्षरता उन्मूलन के कोण से भी देखें तो साक्षरता और सतत् शिक्षा के अभियान से जुड़े विशेषज्ञों को भी बिसारना नहीं था । पता नहीं, जिनके जीवन में पुस्तक की भूमिका है उन और वैसे संभावित कितने पाठकों को दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए ट्रस्ट ने बुलाया है ? और यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह ट्रस्ट को कम-से-कम नहीं फबता है कि वह सिर्फ़ कुछ साहित्यकारो को इकट्ठा करके ऐसी जुगाली करे । यह विमर्श चूँकि राजधानी के ठाठ-बाठ वाले होटल में हो रहा है, ऐसे में यह कम ही उम्मीद की जा सकती है कि वहाँ ऐसे बुद्धिजीवियो को सुनने कोई आम आदमी पहुँचेगा भी, जिसमें पाठक होने की चेतना संभावित है । और जिसके लिए यह सारा तामझाम हो रहा है । स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी तो कतई नहीं । फिर मार्च महीने में ऐसी राष्ट्रीय संगोष्ठियों का औचित्य खानापूर्ति मात्र है जिसके नाम पर निर्धारित बजट है और जिन्हें ट्रस्ट को खर्च करना ही है ।

मेरे एक साहित्यिक मित्र का कहना है कि यह तो सब जगह होता है । सारे साहित्यिक अनुष्ठानों में ऐसे कुनबेवाद का पताका फहराया जाता है । मित्र पर मैं तरस खाता हूँ और कहता हूँ कि कम-से-कम नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं को तो डेमोक्रेटिक और विश्वसनीय सोच विकसित करना चाहिए जिनके जिम्मे न केवल हिंदी अपितु भारतीय भाषाओं और उनके साहित्यिक प्रकाशन का गुरूत्तर उत्तरदायित्व है । वैसे स्थानीय संयोजकों विशेष कर गिरीश पंकज जी को धन्यवाद कि उन्होंने ट्रस्ट को छत्तीसगढ़ के राजधानी पहुँचने हेतु प्रेरित तो किया, भले ही इस आयोजन को पारिवारिक मोह से बचाने में वे सफल नहीं सके । अब मित्रश्रेष्ठ हैं, हितैषी हैं तो इतनी छूट दी ही जा सकती है । लेकिन यदि यह नाम स्वयं ट्रस्ट ने तय किया है तो ऐसे में देश में बौद्धिक विमर्शों के जरिये सामाजिक क्रांति लाने वालों की सिर्फ़ जय हो ही कही जा सकती है ।