Tuesday, June 03, 2008

अमेरिका में घास छिलते हैं आदित्यजी

अंतरजाल यानी नयी दुनिया रचने का तकनीक
अंतरजाल को लेकर भले ही पुरानी पीढ़ी लाख कुढ़ती रहे । भले ही जड़वादी मानसिकता के शिकार यानी पुरातनपंथी उसे लाखों कोसते रहें कि उससे मानवीय संबंधों की शुचिता बाधित होगी, आदि-आदि; पर अंतरजाल है बड़े ही काम की चीज़ । वह संबंधों की नयी दुनिया रचने का भी कामयाब तकनीक है । वह ऐसी जादुई बस्ती है जहाँ बेघरबार ठिकाना ढूँढ़ सकते हैं । भले ही वह फैंटेसी जैसा क्यों ना हो, वहाँ अज्ञात और अपरिचित से भी मिलने-बतियाने का वर्चुअल स्पेस है । उसे सिर्फ़ कुंठित और दैहिक बोधों के फ़िलॉल्सपी झाड़कर एकबारगी ख़ारिज़ करना बेमानी होगा । और माना कि वहाँ ऐसा होता भी है तो उसमें स्वयं अंतरजाल का कम, ऐसे लोगों की रूचि और आदत का दोष अधिक माना जाना चाहिए । शुक्लता और कृष्णता कहाँ नहीं है । प्रकृति में भी । चयन का विवेक तो मनुष्य को ही जगाना पड़ेगा । सो इसी कथित विवेक के चलते वर्षों पहले एक दिन हम दोनों टकरा गये और आज आत्मीयता को स्पर्श करते संबंध पर दोनों का विश्वास है । मेरे ई-मित्र को आप आदित्य प्रकाश सिंह के नाम से जान सकते हैं ।


आदित्य पिछले डेढ़ दशक से युएसए के डैलास में रहते हैं । उत्तरप्रदेश स्थायी ठीयां । वे रेडियो सलाम नमस्ते में हिंदी साहित्य से जुड़े कार्यक्रमों के संयोजक हैं । यदि मेरा अनुमान सच है तो यह काम वे शौंकिया तौर पर करते हैं । वैसे पेशे से वे वैज्ञानिक हैं । नेपाल में बड़े बिगड़ैलों को महाविद्यालय में हिंदी पढ़ा चुके हैं । कितना कहूँ उनके बारे में...बड़े ही रोचक और दोस्ती जोड़ू आदमी हैं भाई ।

अंतरजाल के माध्यम से दुनिया भर के कवियों से स्वयं पहल करके बतियाते रहते हैं । कुशल-क्षेम के प्रश्चात जब वे फ़ोन पर ही बानगी की पेशकश करते हैं तो ऐसा कोई कवि नहीं होता जो वहीं मोबाइल या फोन पर न शुरू हो जाय । अमुमन इसी की फ़िराक में ही तो रहता है कवि । पर यदि आप उन्हें प्रवासी जानकर ठग या उलझा नहीं सकते । दूसरों की उत्कृष्ट रचना भी नहीं पढ़ सकते । बड़ों-बड़ों की कविता याद है उन्हें । लगे हाथ वे भी अपनी कविता भी सुना देते हैं । वैसे उनकी अपनी कविता क्या है, जानना चाहेंगे आप ? चलव मैंहीच हा बताये देत हंव (चलिएमैं ही बताये देता हूँ) - रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, पंत, निराला, जाने कितने नामवरों की कवितायें उन्हें मुखाग्र हैं । दरअसल यही वे कवि हैं जो प्रत्येक भारतीय के उसके अपने कवि हैं । और उनकी कविताएँ एक गंभीर पाठक की भी कविताएँ...


तो.....मैं ठहरा अल्प-मुद्राधारी । चाहकर भी उनसे दूरभाष पर बात नहीं कर पाता । वे ही फ़ोनवा खटखटाते हैं । वैसे मैं फिलहाल यहाँ न तो अंतरजाल पर कुछ बकबास करने वाला हूँ न ही मित्र के बारे में लिखने बैठा हूँ । दरअसल मैं मित्र के बहाने कुछ ख़ास बात रखना चाह रहा हूँ - कि हम भारतीय कितने अलाल हैं ? कि हम भारतीयों में स्वयंसेवा के प्रति कितनी लापरवाही है ? कि हम दैनिक-वृतियों में निजी स्तर पर कितने सक्रिय रहते हैं ?

अमेरिका में घास छिलते हैं आदित्यजी
मूल बात की ओर आपको ले चलूँ तो......परसों भोर से उनका मोबाइल बज उठा – का हो, गुडाकेश, का करत बानी ? वे बता रहे थे – अभी-अभी लॉन का घास छिलकर वे सुस्ता रहे हैं, सोचा आपकी ख़बर ले लूँ, याद से गायब जो नहीं होते हैं ।
मैंने कहा – आप का कह रहे हैं ?
हाँ भाई, मैं घास ही छिल रहा था । - मैं ज़रा आश्चर्य के घेरे में स्वयं को पा रहा था -
मुहावरा फरमा रहे हैं क्या ?
अरे नहीं भई...

वे बोलने लगे – मानस जी, यहाँ हर कोई अपने बँगलों में लॉन की सफाई करता है । यह नित्य-प्रति का कार्य है । और इसमें बुराई भी नहीं....मन भी बहल जाता है... प्रकृति का स्पर्श भी हो जाता है और ज़रा व्यायाम भी । इसमें अमीर से अमीर आदमी भी संकोच नहीं करता....और यही वह सभ्यता है जो अमेरिका को अमेरिका बनाता है । लोग अपने छोटे-छोटे काम स्वयं किया करते हैं । हमें भी अपना देश बहुत पसंद है पर यही वो बात है जिससे अमेरिका हमे अपनी ओर खींचे रखता है और भारत की जीवन-शैली देखकर मन भर जाता है....

अब मेरी बारी थी – ....और हमारे यहाँ घास मज़दूर काटते हैं । चाहे वो लॉन का हो या फिर खेत का । कितना अजीब है कि यहाँ घास काटना छोटा काम माना जाता है । दरअसल घास भारतीय मन में भरा पड़ा है । जो छँटने का नाम ही नहीं लेती । जब घास छँट जाये तो हम भी अमेरिकनों की तरह समृद्ध हो सकते हैं । पर जाने कब छँटेगी यह घास.....


मानस जी, आप भी जानते हैं... भारत में जब कभी बाढ़, भूकंप, महामारी, सूखा आदि आपदायें आती हैं तो आपको छोटे-छोटे बच्च आगे बढ़कर सेवा करते दिखाई नहीं देंगे । अमेरिका में स्कूली बच्चे सहित हर उम्र के लोग आपातकालीन स्थिति में स्वयं बिना किसी अपील, बिना किसी प्रेरणा, बिना किसी राजनीति, बिना किसी स्वार्थ के सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं । भारतीयों ने साधारण जीवन में ऐसा करना सीखा ही नहीं है । उन्हें हम सिखाते ही नहीं । हम जाति, मजहब, धरम, वर्ग, योग्यता, रंग-रूप आदि के आधार पर ही मित्रधर्म निभाने की बात करते हैं । जिस परमार्थ की हम भारतीय बार-बार दुहाई देते हैं वह हमारा दंभ है । दरअसल हम स्वार्थ से उबर ही नही पाये हैं । हम भारतीय मनुष्य को मनुष्यता के नाम पर नहीं उसकी निजी विशिष्टताओं के आधार पर देखते हैं । और यही वह बुराई है जिससे भारतीयों में आपसी सद्भाव भी कम है । कभी मुंबई दहक उठता है और कभी गुजरात ।


मैं मन ही मन सोच रहा था कि अब तो हमारे स्कूलों में भी व्यावहारिक शिक्षा का पाठ मृतप्रायः है । मुझे याद आ रहा था कि कैसे हमें गुरूजी कक्षा से बाहर क्यारियों में फूल उगाना सिखाते थे, छोटी-मोटी खेती कराते थे, गाँव भर में घूम-घूम कर चावल इक्कठा करवाते थे और उसे किसी गरीब बच्चे को भी दिलाते थे । आज तो सामुदायिक भावना के नाम पर स्कूल में सिर्फ खेलकूद ही है जिसे हम सामुदायिक भावना की शिक्षा कह सकते हैं । धीरे-धीरे हमने सब कुछ खत्म कर दिया और आज तो स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए भी समाज को मध्यान्ह भोजन का लालच देना पड़ रहा है । क्या हो गया समाज को ? क्या हो गया लोगों को ? यह कैसा समय आ गया है हमारे देश में......


अब तो निजी स्तर पर ही ऐसी कोशिशें की जा सकती हैं । निरर्थक लाज तजकर । अपनी ऐंठ छोड़कर । हम जितने आत्मनिर्भर होगें । विकास का रास्ता उतना ही साफ़ होता चला जायेगा । ऐसे समय जो सबसे ज़्यादा याद आते हैं – उनमें गाँधीजी अव्वल हैं । वे यही तो कहा करते थे । वे दक्षिण अफ्रीका में जब तक रहे अपने लैट्रीन रूम की सफ़ाई स्वयं करते रहे । बा ने आपत्ति जताया – यह आप क्या रहे हैं ? तब गांधीजी ने उन्हें समझाया था कि बा जो अपनी गंदगी धो नहीं सकता वह औरों की गंदगी कैसे धो सकता है ।


अमेरिका में हिंदी पढ़ाये 5000 डॉलर पायें
ऐसा हो ही नहीं सकता कि आदित्य बातचीत करें और उस दरमियान मधुशाला की पंक्तियाँ न कहें । भले ही मधुशाला के रचनाकार बच्चनजी पर तत्समय और आज भी आलोचकों की ओर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने युवा-पीढ़ी को शराबखोरी की ओर धकेला गया, सच तो यह भी है कि मधुशाला की हर पंक्ति किसी न किसी जीवन-दृष्टि का रहस्य खोलती हैं और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं –

बैर कराती मंदिर मस्ज़िद मेल कराती मधुशाला ।

बात हम अमेरिका में हिंदी की नौकरी की करने वाले थे । आदित्य ने मुझे समझाइस दी कि मैं अमेरिकन दूतावास को निवेदन करूँ कि वे जो मुझे ग्रीन कार्ड देना चाहते हैं उसे नियमित रूप से बाद में विचार करने की श्रेणी में रख दें । क्योंकि अभी अमेरिका में स्थायी रूप से नहीं रह पाने का मतलब फिर कभी नहीं रहने की संभावना का क्षीण होना नहीं है । इसका मतलब कि जब मैं चाहूँ वहाँ आ सकूँ । उनका सुझाव है - मैं चाहूँ तो इसी वीज़ा का फ़ायदा उठाकर अभी अमेरिका में रह सकता हूँ और मुझे हिंदी पढ़ाने के लिए 5000 अमेरिकन डॉलर प्रतिमाह युनिवर्सिटिज दे सकती हैं । वे चाहते हैं कि टैक्सॉस, ऑस्टिन या हार्वर्ड आदि में से किसी को अपना बायोडेटा भेज दूँ । वे मदद भी कर देंगे ।


पाँच साल में तीन शादियाँ
आदित्य बता रहे थे कि यहाँ सभी नौकरी अस्थायी होती हैं पर यहाँ काम या जॉब का अभाव नहीं रहता । वे चाहते हैं कि मुझे विचार करना ही चाहिए...

आदित्य फिर बताते हैं – मानसजी, अमेरिका ऐसा देश है जहाँ जॉब और संबंधों में स्थायी गारंटी कभी नहीं होती । यह अमेरिकनों की आदत भी है । यानी कि सब कुछ अनिश्चित । कम से कम भारतीय मानसिकता में तो ऐसी स्थितियो को अनिश्चित माना जाता है ।

अब वे मुझे पारिवारिक संबंधों की ओर ले चल रहे थे जो पश्चिमी सभ्यता में आम है – वे जहाँ सेवा देते हैं, एक 52 वर्षीया महिला भी है । वह अब तक 3-3 शादियाँ कर चुकी है । इसमें से तीसरी शादी हाल ही में संपन्न हुआ है । माँ जिंदा है । पिछले दिनों वह भी बिगड़ी हुईं थीं । यहाँ क्लब में आते-जाते भी प्यार हो जाता है । यहाँ प्यार का मतलब देहसुख है । भारत जैसा स्थायी भाव कहाँ इसमें ।

मैंने पूछा भाई जी, वहाँ प्रवासी भारतीयों पर इसका क्या प्रभाव हो रहा है ?

- भारतीय लोग ऐसे संबंधों पर कम विश्वास करते हैं । हाँ कुछ पंजाबी ऐसी शादियों में विश्वास करने लगे हैं.... खरबूजे को देखकर कब तक खरबूजा रंग नहीं बदलेगा... आप ही बताइये ना... हम भारतीय खरबूजा जल्दी रंग नहीं बदलेगा... विश्वास किया जाना चाहिए ।

दिनकर और ज्ञान प्रकाश की कविता
वे आगे कहने लगे – मैं सदैव सुंदर बातों के लिए ही चिंता करता हूँ और उसी उद्यम में लगा रहता हूँ ।
‘बड़ा ज्ञान वही जिसमें व्यर्थ की चिंता न हो । बड़ा आदमी वही जो जीवन भर काम करे । बड़ी कविता वही जो मनुष्य आदि भूमि को सुंदर बना दे ।’ - दिनकर की पंक्तियाँ मेरे कानों में विदेशी भूमि से साफ़-साफ़ सुनाई दे रही थी । आदित्य जी एक दूसरी कविता को लेकर जारी थे...

बंशी की सुरीली आवाज़ दूर से आ रही
कर्ण कुट में मधुर सी लगती
प्रेम भाव जगा रही
सर उठा कर गगन से ताल मिला रही

यह उनके बड़े भाई ज्ञान प्रकाश जी की कविता है जो लंदन मानचेस्टर में 30 वर्षों से चिकित्सक हैं और मन से कवि । खाली रहते हैं तो कवितायी कर लेते हैं । यह उनके बचपन की आदत है । आदित्य बता रहे थे – पहले बड़े भाई ने लिखा था – शांत भाव जगा रही । किशन महराज ने कहाकि शांत भाव को प्रेम भाव कर दो । कविता पूरी मुकम्मल हो जायेगी ।


अरूण प्रकाश जी को बधाई
सच ही है जिस व्यक्ति कें कंधे पर भार हो वही खुशनसीब है । वैसे अब आदित्यजी के सोने का समय हो रहा है पर कुछ खुशख़बरी देना शेष है सो बता रहे हैं -

अमेरिका के हिन्दी प्रेमियों, हिन्दी संस्थानों, प्राथमिक हिन्दी के शिक्षकों एवं हिन्दी के छात्रों को वर्षों से जिस पाठ्य पुस्तक और अभ्यास पुस्तिका की अभिलाषा और आवश्यकता थी, वह पूरी हुई है । 490 पेजों की पूरी तरह रंगीन और दफ्ती की बाइंडिंग की यह पुस्तक और इसके साथ सीडी पर अभ्यास एवं चित्र शब्दावली अब आपके हाथों में है। वर्षों की मेहनत और व्यक्तिगत धन से यह सम्भव हुआ है। आपसे अनुरोध है कि इसको अपनाएं। यह आपको जून में उपलब्ध होगी। दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी सीखने के लिए यह पुस्तक अन्य भाषाओं की पुस्तकों के स्तर की है। इस पुस्तक की सामग्री तैयार करने में हिन्दी के वरिष्ठ विद्वान और शिक्षक डाक्टर हर्मन वान ओल्फेंन की महत्त्वपूर्ण सहायता प्राप्त है। क़ीमत 40 डॉलर, अभ्यास पुस्तिका 5 डॉलर और चित्र शब्दावली सीडी की क़ीमत 10 डॉलर है। पूरे सेट की कीमत 50 डॉलर है।

पुस्तक के चित्र कितने सुंदर हैं सचमुच--- अरुण प्रकाशजी आपको कोटिशः बधाई ।

4 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

मानस जी, आदित्य जी के बहाने से आपने तो गागर में सागर ही भर दिया है. तकनीक को बुरा कहने वाले खूब हैं, हिन्दी में तो और भी खूब, लेकिन आपने ठीक लिखा है कि बुराई तकनीक में नहीं, उसके इस्तेमाल करने की मानसिकता में है.

अमरीका में लाख बुराई हो, श्रम की महता जैसी वहां है, वह स्पृहणीय है. मैंने देखा है कि खासे सम्पन्न बच्चे-किशोर-युवा भी किसी टूर्नामेण्ट में जाने का व्यय वहन करने के लिए छुट्टी के दिन गैस स्टेशंस पर गाडियां धोते हैं. न उन्हें इसमें शर्म आती है न उनके मां बाप को. दुनिया के सबसे बडे अमीर बिल गेट्स खुद अपनी गाडी चला कर दफ्तर आते हैं. क्या हम यह कल्पना भी कर सकते हैं कि हमारा कोई टटपूंजिया मंत्री भी अपनी गाडी खुद चलायेगा?
आखिर अमरीका इतना सफल योंही नहीं है!

dpkraj said...

आपका यह पाठ बहुत रोचक, प्रेरणादायक और संग्रहणीय है। आपके इसी पाठ पर मुझे यह पंक्तियां कहने का मन करता है
लोग तरस खाने लग जाते हैं
देखकर मेरे बदन से बहता पसीना
मुझे बिल्कुल नहीं आती शर्म
यह पसीना है जिससे जीवन में
मिल पाता है सत्य का नगीना
तन और मन की बहुत सारी पीड़ाऐ
बाहर ले आता है पसीना
जो डरते हैं श्रम करने से
उनका भी क्या जीना
लाइलाज दर्द पालकर
ढूंढते हैं उसका इलाज इधर-उधर
रुका पानी विष हो जाता है
सभी जानते हैं
फिर भी शरीर में पालते है
जिनकी देह से निकला पसीना
उनको भला दवायें क्यों पीना
श्रमेव जयते इसलिये कहा गया है
यही है सच में जीवन जीना
..............................
दीपक भारतदीप

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आदित्य जी के बारे में ये लेख पसंद आया -

अब आप भी NRI बन जायेंगे ?

पर सारी बातेँ सही नहीँ हैँ -
यहँ शादी ब्याह सिर्फ एक समझौता हो ऐसा नहीँ - बहुत सारे अलग पहलू भी शादी - ब्याह के साथ जुडे हुए हैँ -
जैसे, समलैँगिक शादियाँ,
- कईयोँ के ५० बरसोँ से एक ही पति पत्नी का जोडा भी होता है -
तो कई युवक, युवती शादी ही नहीँ करते -
भारतीय मूल के लोग भी बदल रहे हैँ - तो कई सारे बहुत सफल भी हैँ और ठेठ भारतीय ही रहे हैँ -
कुल मिलाके अमरीका एक ऐसा देश है जहाँ आप के कार्यक्षमता, सफलता, इच्छाओँ को पूरा करने, ज़िण्दगी को अपने तरीके से जीने की कोई सीमा ही नहीँ -
रस्सी खूब लम्बी है जीवन की -
ये सर्वथा आप पर, अकेले आप पे निर्भर है कि आप उस रस्स्सी का घेरा कहा और कितना लम्बा या छोटा रखना चाहते हैँ !!....
बातेँ अभी खत्म नहीँ हुईँ ..
If you have any Q, do ask & I will reply to the best of my ability - warm regards,
-- लावण्या

अविनाश वाचस्पति said...

आज दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर आपकी यह पोस्‍ट समांतर स्‍तंभ में छोटा काम बड़ा काम शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।