हम कभी गंभीर नही रहे कि हर बच्चा पाठशाला में रहे । शिक्षा के लगभग सभी संकल्पों, मसविदों, प्रस्तावों, आयोगों ने हर कोण से सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा को अपरिहार्य माना फिर भी 6 से 14 वर्ष आयु समूह के सभी बच्चों की अनिवार्य दाखिले को अब तक सुनिश्चित नहीं सके हैं । वस्तुतः हम बच्चों की शाला से अंतरंगता के निहितार्थों को कई दशक बाद भी अपनी मनीषा में प्रतिष्ठित नहीं कर सके हैं । अपनी नपुंसक काहिली के दबाब में हम नैतिक उत्तरदायित्वों को तंत्र के मत्थे जड़ देते हैं । इस ‘हम’ में सिर्फ़ अनपढ़ और गरीब जनता ही नहीं, बल्कि हितनिष्ठ प्रभु वर्ग, बासी विचारों के उबटन में मुग्ध बुद्धिजीवी, सुस्त शिक्षाशास्त्री, पश्चिम दुनिया की योजनाओं के दीवाने रणनीतिकार, केवल सनसनीखेज़ तलाशती मीडिया और धोखेबाज राजनीतिक समूह भी हैं । सिंहावलोकन करें तो ये सारे यही पाठ पढ़ाते दिखाई देते हैं कि हम सिर्फ़ अपनी गरीबी को नियति मानकर व्यवस्था से चिढ़ना सीखें या फिर थकहार कर संकटमोचन चालीसा का पाठ करें पर स्वयं कुछ न करें ।गोया त्रासद अशिक्षा के रावणों और कंसो से मुक्ति के लिए सिर्फ अवध या मथुरा के ईश्वरों और उनके क्षत्रपों की ओर टकटकी लगाकर निहारना ही अंतिम रास्ता हो । यह प्राथमिक शिक्षा के प्रजातांत्रिकीकरण में यथास्थितिवादिता और वर्चस्ववादिता का स्थायी संस्कार नहीं तो और क्या है ?
वैसे सरकारी पहल पर संपूर्ण दाख़िला हेतु बकायदा हरसाल जून-जुलाई माह में शाला-प्रवेशोत्सवी सज-धज होती है । ऐसे उत्सवों की दाल में नये सीखों का तड़का मारा जाता है । उसमें अनुप्रयोगों का नया मिर्च-मशाला भी डाला जाता है । अचेतन और सुस्त मानसिकता वाले राजनीतिक गलियारों में सभी के लिए शिक्षा की राजनीतिक प्रतिबद्धता का स्मरण कराया जाता है । अन्य दैनंदिन औपचारिकताओं के बीच स्पेस निकालकर शिक्षा-तंत्र इसे एक अभियान का रूप देता है । तंत्र मानती है कि पालकों और स्वयं बच्चों से संपर्क और प्रेरणा के बल पर उन्हें शाला से जोड़ा जा सकता है या फिर वे शाला त्यागे बिना किसी कक्षा की संपूर्ण शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं । वैसे शालाप्रवेशोत्सव से एक औपचारिक वातावरण तो निर्मित होता है किन्तु यह सरकारी रूप में होता है असरकारी रूप में नही । फिर भी कुछ बच्चों को पाठशाला-परिसर में दाख़िल कराने से हम हर साल चुक ही जाते हैं । आख़िरकार ये कुछ, जो कुछेक नहीं बल्कि लाखों में होते हैं घुमा-फिराकर बालश्रमजनित कार्यों में धकेल दिये जाते हैं । क्योंकि ऐसे अल्पकालिक अभियान उत्सवी-दृष्टि या फिर तदर्थवाद के शिकार हो जाते हैं । यहाँ जोर आँकड़ों पर होता है वास्तविक उद्देश्यों पर नहीं । यह हमारे दर्जसंख्या वृद्धि अभियानों की वास्तविकता है।
हम अपने नौनिहालों की अशिक्षा के महाप्रश्नों लिए सुने-सुनाये और गैर परीक्षित तर्कों का सहारा लेकर अपना पिंड छूडा लेते हैं । यह हमारी नागरिकता के हीन बोध और विचारहीनता का ही तक़ाजा है कि गरीबी, शैक्षणिक साधनों के अभावों को ही अपनी अशिक्षा के कारणों में तलाशते हैं । यह सरासर झूठ है कि गरीबी प्राथमिक शिक्षा को हतोत्साहित करती है । कोई गरीब माँ-बाप नहीं चाहता कि उसके बच्चे उसकी पीड़ाओं और दंशो का उत्तराधिकारी बनें । वह इसीलिए शिक्षा को अपनी स्थिति को पलटने का अस्त्र मानता है । माहौल मिलने पर गरीब से गरीब माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए अनेक त्याग करने को तत्पर रहता है । फिर ऐसा कौन बच्चा होगा जो अपने साथियों को स्कूल में जाते देखकर भी बकरी चराने जाने, मालिक के घर में नौकरी करने की ज़िद करेगा । अपने लिए श्रेयस्कर मानेगा । शायद कोई नहीं । वह मजबूर नहीं होता । पालक, मालिक और समाज तीनों मिलकर उसे मजबूर बना देते हैं । वह बाल मजदूर बन जाता है । ऐसे लोग उसके बालश्रम को गरीबी निवारण में योगदान मानते हैं । ऐसे वक्त क्या वे एक बच्चे के भविष्य की समस्था संभावनाओं का रास्ता नहीं रोकते होते हैं ?
प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता के पीछे न तो परिवार और ग़रीबी की कड़वी सच्चाई है न ही परिवार के अर्थोपाजन में बच्चों की बांछित सहभागिता का प्रश्न कि ऐसे बच्चे चाहकर भी शाला से नहीं जुड़ सकते । शिक्षा के प्रति अभिभावकीय उदासीनता, शिक्षा तंत्र की कुव्यवस्था, रोजी-रोजगार में शिक्षा की असंगतता और असमर्थता आदि सारे तर्क भी अबोध और रटे-रटाये हैं जो हमारी नकारात्क मानसिकता की ग्रहणशीलता के परिचायक हैं जिससे शत-प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को हम हस्तगत नही कर पाये हैं ।
जो बच्चे स्कूल से बाहर होते हैं वे कुल मिलाकर बालश्रमिक ही होते हैं । चाहे वे वेतन हीन या परिवारिक कार्यों में हाथ बटायें या फिर किसी कठिन या सरल कार्य से रोजी अर्जित करें । ये भविष्य के गरीब ही होते हैं । हर तरह का बाल श्रम बच्चे के संपूर्ण विकास तथा बढ़ोतरी को नुकसान पहुँचाता है । किसी भी तरह के बालश्रम का समर्थन प्राथमिक शिक्षा के व्यापीकरण का विरोध ही है । बालश्रम का संपूर्ण उन्मूलन ही प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण का मूल रास्ता है । बालश्रमिकों के नाम पर पृथक और समानांतर परियोजना भी इसका विकल्प नहीं है । ऐसा माने बिना सभी बच्चों को पाठशाला के रास्ते पर नहीं लाया जा सकता । यदि यह सच नहीं होता तो रंगारेड्डी और आंधप्रदेश के हजारों गाँवों में इस दर्शन के सहारे शत-प्रतिशत बच्चों को शाला में लाया नही जा सकता और न ही वे निरंतर आगे की कक्षाओं में जाते । छत्तीसगढ़ भी यदि वास्तव में अपने सारे बच्चों को स्कूल में देखना चाहता है तो क्या उसे एम.वी. फाउंडेशन की उस रणनीति पर फिर से विचार नहीं करना चाहिए जिसे वह अराजक मानने का भूल कर चुका है पर जिसे मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु दिल से अपनाकर अधिक से अधिक बच्चों को पाठशाला तक पहुँचा चुके हैं ?
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