जब तक हिंदी के प्राध्यापकों ने अपने उत्तरदायित्वों को संपूर्ण रचनात्मकता के साथ निभाया तब तक हिंदी आलोचना गतिमान बनी रही । उसे ठोस ज़मीन मिलती रही । वहाँ सबकी खोज-खबर होती रही । सबकी धुलाई-पोंछाई होती रही । तब वहाँ केवल शास्त्रीयता का आग्रह नहीं था अपितु नये विकल्पों की मीमांसा भी हो रही थी । इतिहास में इसकी संपूर्ण गवाहियाँ हैं । नये काव्य और इसी तरह भाँति-भाँति के आंदोलनों से आलोचना का सूत्र उसकी मुट्ठी की पकड़ से बाहर होता चला गया । इसमें विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा में डिग्री की अपरिहार्यता और उसके अर्थलाभ से जुड़ते चले जाने का घटाटोप भी कम उत्तरदायी नहीं । धीरे-धीरे आलोचना प्राध्यापकों के हाथ से रचनाकारों के कब्जे में जाने लगा ।
रचनाकारों के आलोचक हो जाने से हिंदी आलोचना को नया आयाम तो मिला किन्तु वह गुटनिरपेक्ष नहीं रह सकी । वह निजी मुगालतों के फिलसन की शिकार होने लगी । रातों-रात अखिल भारतीय बनने-बनाने का गोरखधंधा चल निकला । इस दरमियान आयातित विचारों के बादलों की गड़गड़ाहट से भी हिंदी आलोचना की शास्त्रीयता और गतिमयता भोथरी होती रही । भले ही साहित्य को परखने के नये-नये सौदंर्यशास्त्रों से लेखकों-पाठकों का परिचय हुआ किन्तु इन्हीं कारणों से जो सबसे बड़ी हानि हुई, वह है – केवल चित-परिचित या समानधर्मा रचनाकारों की ‘पूँछ-परख’ । यह ‘पूछ-परख’ भी होती तो कदाचित् नयी पीढ़ी के रचनाकारों को एक आश्वस्ति मिलती । आज भी हिंदी की दुनिया में इसी दौर की नदी अबाधता के साथ बहे जा रही है। ऐसे दौर में जब पद्मश्री मुकुटधर पांडेय को छायावाद के जनक के रूप में स्थापित करने का संघर्ष और उसमें सफल हाने वाले आलोचक (शिक्षाविद्) डॉ. बलदेव का बिना किसी वादाग्रह के डॉ. जे.आर.सोनी जैसे रचनाकार के समग्र (अब तक लिखे गये) के आधार पर उनके व्यक्तित्व का परीक्षण हमारे सम्मुख आता है तो वह सुखद क्षणों का अवसर मुहैया कराता जान पड़ता है ।
इधर आधुनिक छत्तीसगढ़ी लेखन में श्री सोनीजी प्रमुख कथाकारों में गिने जाते हैं । यों तो छत्तीसगढ़ी में लिखे गये उपन्यासों को उँगलियों में गिना जा सकता है किन्तु चंद्रकला, पछतावा और उढ़रिया उपन्यासों के कथ्य पारंपरिक विषयवस्तुओं को तोड़ते हैं । वे समकालीन यथार्थ और संघर्ष के मध्य नये पाठ की तरह हैं । बलदेव जी इन उपन्यासों को नये आस्वाद के साथ पढ़ने के सारे संकेतों को यहाँ बड़ी सरलता से जुटाते जान पड़ते हैं । चंदकला को आंचलिक उपन्यास की तरह पढ़ा जाय तो उसे छत्तीसगढ़ के समकालीन जीवन की गंभीर पड़ताल भी कहा जा सकता है । कथासंग्रह मितान, नगमत, नीरा और रंग-झांझर भी हमे निहायत यथार्थ की ओर ले जाती हैं । यहाँ जो भी कथायें हैं वे अपनी सादगी में पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम हैं । यह दीगर बात है कि शिल्प को ही कहानी मानने के आदी हो चुके समकालीन पाठकों को यहाँ निराशा हो सकती है । सोनी जी अपने व्यक्तित्व से दूर कभी नहीं जाते । यहाँ भी उनका व्यक्तित्व उनकी रचनाओं के साथ पूर्ण सामंजस्यता बने हुए है । ऐसा कम होता है कि दोनों मे एकाकार हो । कृतिलेखक बलदेव को नये पाठक इस समीक्षा के लिए भी याद रखना चाहेंगे ।
मैं निजी तौर पर सोनीजी को उनकी यात्राप्रियता के लिए भी जानता हूँ । यात्रा को वे पर्यटन नहीं अपितु नये अनुभव की यात्रा के रूप मे देखते रहे हैं । वे चीज़ों को उसके आरपार देखने के प्रयास मे सफल रहे हैं । यद्यपि उनकी जटिलता और संश्लिष्टता उतना सरल नही है जैसा हम देखने के आदी हैं । मैं स्वयं मारीशस को छोड़कर इंग्लैंड और श्रीलंका की साहित्यिक यात्रा में उनके साथ रहा हूँ । इस बीच उनके व्यक्तित्व को गहरे से समझने का मुझे भी बड़ा मौका मिला है । मॉरीशस, श्रीलंका और इंग्लैड पर लिखी गई उनकी किताबें सामान्य से सामान्य पाठकों के लिए भी सांस्कृतिक यात्रा का सुखद आस्वाद जुटाती हैं । डॉ. बलदेव की माने तो कई बार वे सूचनाओं के संकलक जैसा भी ज़रूर दिख पड़ते हैं पर इसकी भी महत्ता ऐसी किताबों के बहाने साबित तो हो ही जाया करती हैं । बलदेव जी ने उनकी काव्यात्मक संस्मरणों का विशद अनुशीलन किया है इस किताब में ।
वे देश-परदेश सर्वत्र और सर्वदा जे.आर.सोनी बने रहते हैं । वे कभी भी अपने होने को द्विविधा के पचड़े में नहीं उलझाते । उनका लोकधर्मी व्यक्तित्व कभी भी पराये आलोक की चकाचौंध में नहीं उलझ सकता । उनकी सात्विकता उनके व्यक्तित्व की निशानी है । बाह्याभ्यंतर से वे सात्विक हैं । इसलिए दलित लेखन के बाद भी वे दलितों के समय-सम्यक आक्रोश को तवज्जो नही देते । खासकर अपनी लेखनी में । उनके पात्र सदैव मर्यादा और समाज-सम्यक विकास के लिए निजी संघर्ष को वरेण्य मानते हैं । उनके सहयोगी स्वभाव का भी विशद उल्लेखीकरण भी इस कृति को पठनीय बनाता है । पठनीय इसलिए कि सोनी जी जातिवादी मानसिकता के लेखक नहीं । वे मनुष्यता के लेखक हैं । इसलिए वे निजी जीवन में भी लेखकों, कलाकारों, सहकर्मियों और ज़रूरतमंदों के सहयोग मे आगे देखे जाते हैं ।
यूँ तो जातिगत चेतना के कोण से देखने वालों को सोनीजी का अब तक का लेखन वंचितों को समर्पित प्रतीत होगा । इसके बावजूद उनमें वह पूर्वाग्रह नहीं है जिससे साहित्य का मूल मापंदड़ खंडित होता है । साहित्य निहायत निजी नहीं होता । साहित्य बहुजन के लिए भी नहीं होता । उससे भी बढ़कर वह सबका होता है । यही उसका होना है । साहित्य यानी सहित । सहित भाव ही साहित्य का प्रजातंत्र है । भले ही वह अपने में संपूर्णः न हो । भले ही उसमें सबके स्वप्नों की सरंक्षण-क्षमता न हो । पर उसमें यदि किसी का भी अवमानना है तो वह सहित भाव दूरी बनानेवाला शब्दों का भूसा के अलावा कुछ नहीं । कृतिकार ने जगह-जगह यह सिद्ध किया है कि निजी आक्रोश तो जैसे उनके(सोनीजी) यहाँ मिलता ही नहीं । भले ही दलित आलोचकों को इसमें निराशा हो सकती है कि सोनीजी एक बड़े दलित लेखक बनते-बनते चुके जा रहे हैं पर उनका दलित चिंतन इससे कहीं भी भोथरा नहीं होता, बल्कि वे भारतीय जीवन पंरपरा की वैचारिक ज़मीन और सामाजिक यथार्थ के पहाड़ दोनों को नाप कर निष्कर्ष देते हैं । यही उनका रचनात्मक संघर्ष भी है । डा. बलदेव कहते हैं – ‘’डॉ. सोनी ने किसी को गुरू नहीं बनाया, वे तो जन्मजात गुरू घासीदास के शिष्य हैं ।‘’ हिंदी में दलित लेखन को हम बाबा अंबेडेकर के विचारों से अनुकूलन करते चलते हैं । यह अनुकूलन दलितों, वंचितों, पिछड़ों और सताये गये लोगों को एक गहरी आत्मीयता और आत्मविश्वास भी उपलब्ध कराता है । पर कहीं न कहीं किसी वाद की ओर भी धकेलता है । सोनी जी का दलित चिंतन इस मायने में भी भिन्न और नये आलोक के साथ निरंतर बना रहा है कि उनके लेखन में गैर दलित साहित्यकारों, आलोचकों, और पाठकों के लिए भी रसास्वाद और पाठ का पर्याप्त आग्रह है । हो भी क्यों नहीं । वे मूलतः संत प्रकृति के हैं । हृदय में वैष्णवता को बिठाये बगैर एक सफल लेखक होना कठिन है और सतनाम के गायक गुरूघासीदासजी के सिद्धांतों, आदर्शों, जीवन-दर्शन को विस्तार देने वाले श्री सोनी वैसा चाह कर भी नहीं कर सकते जो भारतीय समाज की विश्वव्यापी छवि को ध्वस्त करे ।
उनके लेखन में आम आदमी तो सर्वत्र है - अपने दुःख दैन्यता के साथ । पर उसके साथ संपूर्ण समाज भी है जिसका हृदय परिवर्तन ज़रूरी है (जिसमें लेखक को सफल माना जा सकता है) न कि उसके खिलाफ विष-वमन और डॉ. सोनी इस मायने में मुख्यधारा के लेखक हैं । उनकी किताबों (सतनाम के अनुयायी, सतनाम की दार्शनिक पृष्ठभूमि और गुरू घासीदास की अमर कथाएँ) में वर्णित गुरू केवल सतनामी समाज का मार्गदर्शक नहीं । वह संपूर्ण मानवता का हितैषी हैं । डॉ. बलदेव ने इस बहाने सोनी जी की दृष्टि, नैतिकता, विचारधारा की परिपक्वता को तराशा है । किसी लेखक को जानने के लिए बलदेव जी की यह आलोचना पद्धति शुष्कता में भी वर्षा की रिमझिम फुहार की मानिंद है ।
डॉ. बलदेव ने बबूल की छाँव और मोंगरा के फूल (काव्यकृतियाँ) की मींमासा बड़ी बारीक नज़रों से की है । मीमांसाका से सहमति देते हुए निजी तौर पर मै भी इतना ही कहना चाहूँगा कि सोनीजी का काव्याकार उनके गद्यकार से पिछड़ता जान पड़ता है । हो सकता है कि सोनी जी का निजी जीवन प्रशासनिक आपाधापी में गद्यमयता के बीच गुजरने के कारण जीवन के लय, छंद और गति के मध्य सामंजस्य न बैठा पा रहा हो । हो तो यह भी सकता है कि गद्य ही उनका प्रिय माध्यम है । पर अल्प समय में उनका विपुल लेखन बड़ों-बड़ों के लिए इर्ष्या का विषय भी हो सकता है ।
डॉ. बलदेव द्वारा डॉ. जे. आर. सोनी जी पर केंद्रित यह किताब साहित्यानुरागियों के लिए पठनीय, शोध-छात्रों के लिए मार्गदर्शीय, सतनाम अनुयायियों के लिए संग्रहणीय और विमर्शवादियों के लिए विचारणीय है । विश्वास है छत्तीसगढ़ी साहित्य की दिशा को तराशने में संलग्न डॉ. बलदेव और स्वयं डॉ. जे.आर.सोनी की साधना से भविष्य में कुछ और भी सार्थक, और भी महत्वपूर्ण मिल सकेगा । फिलहाल मेरे निजी विचार ऐसे हैं, इत्यलम् नहीं ।
रचनाकारों के आलोचक हो जाने से हिंदी आलोचना को नया आयाम तो मिला किन्तु वह गुटनिरपेक्ष नहीं रह सकी । वह निजी मुगालतों के फिलसन की शिकार होने लगी । रातों-रात अखिल भारतीय बनने-बनाने का गोरखधंधा चल निकला । इस दरमियान आयातित विचारों के बादलों की गड़गड़ाहट से भी हिंदी आलोचना की शास्त्रीयता और गतिमयता भोथरी होती रही । भले ही साहित्य को परखने के नये-नये सौदंर्यशास्त्रों से लेखकों-पाठकों का परिचय हुआ किन्तु इन्हीं कारणों से जो सबसे बड़ी हानि हुई, वह है – केवल चित-परिचित या समानधर्मा रचनाकारों की ‘पूँछ-परख’ । यह ‘पूछ-परख’ भी होती तो कदाचित् नयी पीढ़ी के रचनाकारों को एक आश्वस्ति मिलती । आज भी हिंदी की दुनिया में इसी दौर की नदी अबाधता के साथ बहे जा रही है। ऐसे दौर में जब पद्मश्री मुकुटधर पांडेय को छायावाद के जनक के रूप में स्थापित करने का संघर्ष और उसमें सफल हाने वाले आलोचक (शिक्षाविद्) डॉ. बलदेव का बिना किसी वादाग्रह के डॉ. जे.आर.सोनी जैसे रचनाकार के समग्र (अब तक लिखे गये) के आधार पर उनके व्यक्तित्व का परीक्षण हमारे सम्मुख आता है तो वह सुखद क्षणों का अवसर मुहैया कराता जान पड़ता है ।
इधर आधुनिक छत्तीसगढ़ी लेखन में श्री सोनीजी प्रमुख कथाकारों में गिने जाते हैं । यों तो छत्तीसगढ़ी में लिखे गये उपन्यासों को उँगलियों में गिना जा सकता है किन्तु चंद्रकला, पछतावा और उढ़रिया उपन्यासों के कथ्य पारंपरिक विषयवस्तुओं को तोड़ते हैं । वे समकालीन यथार्थ और संघर्ष के मध्य नये पाठ की तरह हैं । बलदेव जी इन उपन्यासों को नये आस्वाद के साथ पढ़ने के सारे संकेतों को यहाँ बड़ी सरलता से जुटाते जान पड़ते हैं । चंदकला को आंचलिक उपन्यास की तरह पढ़ा जाय तो उसे छत्तीसगढ़ के समकालीन जीवन की गंभीर पड़ताल भी कहा जा सकता है । कथासंग्रह मितान, नगमत, नीरा और रंग-झांझर भी हमे निहायत यथार्थ की ओर ले जाती हैं । यहाँ जो भी कथायें हैं वे अपनी सादगी में पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम हैं । यह दीगर बात है कि शिल्प को ही कहानी मानने के आदी हो चुके समकालीन पाठकों को यहाँ निराशा हो सकती है । सोनी जी अपने व्यक्तित्व से दूर कभी नहीं जाते । यहाँ भी उनका व्यक्तित्व उनकी रचनाओं के साथ पूर्ण सामंजस्यता बने हुए है । ऐसा कम होता है कि दोनों मे एकाकार हो । कृतिलेखक बलदेव को नये पाठक इस समीक्षा के लिए भी याद रखना चाहेंगे ।
मैं निजी तौर पर सोनीजी को उनकी यात्राप्रियता के लिए भी जानता हूँ । यात्रा को वे पर्यटन नहीं अपितु नये अनुभव की यात्रा के रूप मे देखते रहे हैं । वे चीज़ों को उसके आरपार देखने के प्रयास मे सफल रहे हैं । यद्यपि उनकी जटिलता और संश्लिष्टता उतना सरल नही है जैसा हम देखने के आदी हैं । मैं स्वयं मारीशस को छोड़कर इंग्लैंड और श्रीलंका की साहित्यिक यात्रा में उनके साथ रहा हूँ । इस बीच उनके व्यक्तित्व को गहरे से समझने का मुझे भी बड़ा मौका मिला है । मॉरीशस, श्रीलंका और इंग्लैड पर लिखी गई उनकी किताबें सामान्य से सामान्य पाठकों के लिए भी सांस्कृतिक यात्रा का सुखद आस्वाद जुटाती हैं । डॉ. बलदेव की माने तो कई बार वे सूचनाओं के संकलक जैसा भी ज़रूर दिख पड़ते हैं पर इसकी भी महत्ता ऐसी किताबों के बहाने साबित तो हो ही जाया करती हैं । बलदेव जी ने उनकी काव्यात्मक संस्मरणों का विशद अनुशीलन किया है इस किताब में ।
वे देश-परदेश सर्वत्र और सर्वदा जे.आर.सोनी बने रहते हैं । वे कभी भी अपने होने को द्विविधा के पचड़े में नहीं उलझाते । उनका लोकधर्मी व्यक्तित्व कभी भी पराये आलोक की चकाचौंध में नहीं उलझ सकता । उनकी सात्विकता उनके व्यक्तित्व की निशानी है । बाह्याभ्यंतर से वे सात्विक हैं । इसलिए दलित लेखन के बाद भी वे दलितों के समय-सम्यक आक्रोश को तवज्जो नही देते । खासकर अपनी लेखनी में । उनके पात्र सदैव मर्यादा और समाज-सम्यक विकास के लिए निजी संघर्ष को वरेण्य मानते हैं । उनके सहयोगी स्वभाव का भी विशद उल्लेखीकरण भी इस कृति को पठनीय बनाता है । पठनीय इसलिए कि सोनी जी जातिवादी मानसिकता के लेखक नहीं । वे मनुष्यता के लेखक हैं । इसलिए वे निजी जीवन में भी लेखकों, कलाकारों, सहकर्मियों और ज़रूरतमंदों के सहयोग मे आगे देखे जाते हैं ।
यूँ तो जातिगत चेतना के कोण से देखने वालों को सोनीजी का अब तक का लेखन वंचितों को समर्पित प्रतीत होगा । इसके बावजूद उनमें वह पूर्वाग्रह नहीं है जिससे साहित्य का मूल मापंदड़ खंडित होता है । साहित्य निहायत निजी नहीं होता । साहित्य बहुजन के लिए भी नहीं होता । उससे भी बढ़कर वह सबका होता है । यही उसका होना है । साहित्य यानी सहित । सहित भाव ही साहित्य का प्रजातंत्र है । भले ही वह अपने में संपूर्णः न हो । भले ही उसमें सबके स्वप्नों की सरंक्षण-क्षमता न हो । पर उसमें यदि किसी का भी अवमानना है तो वह सहित भाव दूरी बनानेवाला शब्दों का भूसा के अलावा कुछ नहीं । कृतिकार ने जगह-जगह यह सिद्ध किया है कि निजी आक्रोश तो जैसे उनके(सोनीजी) यहाँ मिलता ही नहीं । भले ही दलित आलोचकों को इसमें निराशा हो सकती है कि सोनीजी एक बड़े दलित लेखक बनते-बनते चुके जा रहे हैं पर उनका दलित चिंतन इससे कहीं भी भोथरा नहीं होता, बल्कि वे भारतीय जीवन पंरपरा की वैचारिक ज़मीन और सामाजिक यथार्थ के पहाड़ दोनों को नाप कर निष्कर्ष देते हैं । यही उनका रचनात्मक संघर्ष भी है । डा. बलदेव कहते हैं – ‘’डॉ. सोनी ने किसी को गुरू नहीं बनाया, वे तो जन्मजात गुरू घासीदास के शिष्य हैं ।‘’ हिंदी में दलित लेखन को हम बाबा अंबेडेकर के विचारों से अनुकूलन करते चलते हैं । यह अनुकूलन दलितों, वंचितों, पिछड़ों और सताये गये लोगों को एक गहरी आत्मीयता और आत्मविश्वास भी उपलब्ध कराता है । पर कहीं न कहीं किसी वाद की ओर भी धकेलता है । सोनी जी का दलित चिंतन इस मायने में भी भिन्न और नये आलोक के साथ निरंतर बना रहा है कि उनके लेखन में गैर दलित साहित्यकारों, आलोचकों, और पाठकों के लिए भी रसास्वाद और पाठ का पर्याप्त आग्रह है । हो भी क्यों नहीं । वे मूलतः संत प्रकृति के हैं । हृदय में वैष्णवता को बिठाये बगैर एक सफल लेखक होना कठिन है और सतनाम के गायक गुरूघासीदासजी के सिद्धांतों, आदर्शों, जीवन-दर्शन को विस्तार देने वाले श्री सोनी वैसा चाह कर भी नहीं कर सकते जो भारतीय समाज की विश्वव्यापी छवि को ध्वस्त करे ।
उनके लेखन में आम आदमी तो सर्वत्र है - अपने दुःख दैन्यता के साथ । पर उसके साथ संपूर्ण समाज भी है जिसका हृदय परिवर्तन ज़रूरी है (जिसमें लेखक को सफल माना जा सकता है) न कि उसके खिलाफ विष-वमन और डॉ. सोनी इस मायने में मुख्यधारा के लेखक हैं । उनकी किताबों (सतनाम के अनुयायी, सतनाम की दार्शनिक पृष्ठभूमि और गुरू घासीदास की अमर कथाएँ) में वर्णित गुरू केवल सतनामी समाज का मार्गदर्शक नहीं । वह संपूर्ण मानवता का हितैषी हैं । डॉ. बलदेव ने इस बहाने सोनी जी की दृष्टि, नैतिकता, विचारधारा की परिपक्वता को तराशा है । किसी लेखक को जानने के लिए बलदेव जी की यह आलोचना पद्धति शुष्कता में भी वर्षा की रिमझिम फुहार की मानिंद है ।
डॉ. बलदेव ने बबूल की छाँव और मोंगरा के फूल (काव्यकृतियाँ) की मींमासा बड़ी बारीक नज़रों से की है । मीमांसाका से सहमति देते हुए निजी तौर पर मै भी इतना ही कहना चाहूँगा कि सोनीजी का काव्याकार उनके गद्यकार से पिछड़ता जान पड़ता है । हो सकता है कि सोनी जी का निजी जीवन प्रशासनिक आपाधापी में गद्यमयता के बीच गुजरने के कारण जीवन के लय, छंद और गति के मध्य सामंजस्य न बैठा पा रहा हो । हो तो यह भी सकता है कि गद्य ही उनका प्रिय माध्यम है । पर अल्प समय में उनका विपुल लेखन बड़ों-बड़ों के लिए इर्ष्या का विषय भी हो सकता है ।
डॉ. बलदेव द्वारा डॉ. जे. आर. सोनी जी पर केंद्रित यह किताब साहित्यानुरागियों के लिए पठनीय, शोध-छात्रों के लिए मार्गदर्शीय, सतनाम अनुयायियों के लिए संग्रहणीय और विमर्शवादियों के लिए विचारणीय है । विश्वास है छत्तीसगढ़ी साहित्य की दिशा को तराशने में संलग्न डॉ. बलदेव और स्वयं डॉ. जे.आर.सोनी की साधना से भविष्य में कुछ और भी सार्थक, और भी महत्वपूर्ण मिल सकेगा । फिलहाल मेरे निजी विचार ऐसे हैं, इत्यलम् नहीं ।
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