11 जून व्यस्ततम दिनों में से एक निकला ।
आदित्य जी का ई-पत्र आया है और फोन भी । ई-पत्र ज़रा विलंब से पढ़ सका । यानी आज । क्योंकि कल दिन भर दिल्ली से प्रकाशित सोपान नामक मासिक पत्रिका से जुड़े मित्र उमाशंकर मिश्रा के साथ लगा रहा । सोपान ग्रामीण विकास की मीमांसा करने वाली स्वयंसेवी संगठन की पत्रिका है । पठनीयता भी है उसमें । बायलैग्वल है – हिंदी और अँगरेज़ी में छपती है । उमा बता रहे थे अब उड़िया भाषा में भी वह पढ़ी जा सकेगी । जेट्रोफा की खेती को लेकर जिस तरह का शोषण और लूट हुआ है भारतीय किसानों की वह सरकारी नीति के दोगलेपन की चुगली तो करती ही है । इस माह के अंक में उसकी परत दर परत पड़ताल की गई है । मित्र को धन्यवाद जो उसने पत्रिका की एक प्रति मुझे भी भेंट की और कुछ लिखने का आग्रह किया । मानसून आ धमका है शायद इधऱ । फुहार की भाषा से तो यही लग रहा था । मित्र आया तो मुझे स्कूटी में बैठकर शहर घूमने और भींगने का आनंद भी मिल गया । शुक्र है कि सर्दी नहीं लगी । मित्र सलवा जुडूम यानी नक्सलवाद के खिलाफ बस्तर मे चल रहे आंदोलन (आदिवासियों के द्वारा) का जायजा लेना चाहते हैं । बस्तर जाने की भी उनकी इच्छा है । वैसे तो बस्तर मे पत्रकारों को नक्सली नहीं सताते । पर क्या पता कब क्या हो जाये । उनकी इच्छा थी कि मैं भी साथ चलूँ । पर... कल रायगढ़ जाना है ।
आदित्य जी का ई-पत्र आया है और फोन भी । ई-पत्र ज़रा विलंब से पढ़ सका । यानी आज । क्योंकि कल दिन भर दिल्ली से प्रकाशित सोपान नामक मासिक पत्रिका से जुड़े मित्र उमाशंकर मिश्रा के साथ लगा रहा । सोपान ग्रामीण विकास की मीमांसा करने वाली स्वयंसेवी संगठन की पत्रिका है । पठनीयता भी है उसमें । बायलैग्वल है – हिंदी और अँगरेज़ी में छपती है । उमा बता रहे थे अब उड़िया भाषा में भी वह पढ़ी जा सकेगी । जेट्रोफा की खेती को लेकर जिस तरह का शोषण और लूट हुआ है भारतीय किसानों की वह सरकारी नीति के दोगलेपन की चुगली तो करती ही है । इस माह के अंक में उसकी परत दर परत पड़ताल की गई है । मित्र को धन्यवाद जो उसने पत्रिका की एक प्रति मुझे भी भेंट की और कुछ लिखने का आग्रह किया । मानसून आ धमका है शायद इधऱ । फुहार की भाषा से तो यही लग रहा था । मित्र आया तो मुझे स्कूटी में बैठकर शहर घूमने और भींगने का आनंद भी मिल गया । शुक्र है कि सर्दी नहीं लगी । मित्र सलवा जुडूम यानी नक्सलवाद के खिलाफ बस्तर मे चल रहे आंदोलन (आदिवासियों के द्वारा) का जायजा लेना चाहते हैं । बस्तर जाने की भी उनकी इच्छा है । वैसे तो बस्तर मे पत्रकारों को नक्सली नहीं सताते । पर क्या पता कब क्या हो जाये । उनकी इच्छा थी कि मैं भी साथ चलूँ । पर... कल रायगढ़ जाना है ।
अथ आदित्य उबाच.....
लिखते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तक जायेगी..... । भई क्यों नही जायेगी ? और क्यों नहीं जाना चाहिए ? बात इसीलिए तो की जाती है कि वह कहीं तो जाये । मैं उनके पत्र में खो जाता हूँ.....
आज से १० वर्ष पहले एक भारतवासी उच्च शिक्षा हेतु अमेरिका आया था, यहाँ आकर उसे लगा उसकी हर तमन्नाएँ पूरी हो जायेगी और जुट गया सपनों को पूरा करने में । फिर भी भीड़ मे कहीं ना अपने को अकेला महसूस कर रहा था । आख़िर मिल गयी एक सुनने एवं समझनेवाली एक रूसी बाला । चढ़ गया प्रेम रंग और चल पड़ी जीवन की नौका । बड़े गर्व से यात्रा कर आया भारत । साथ मे रूसी पत्नी जो थी । पाँच वर्षों मे एक पुत्र की प्राप्ति हुई साथ-साथ रूसी बाला को ग्रीन कार्ड भी मिल गया । ग्रीन कार्ड प्राप्त होते गोरी के नखरे शुरू हो गए, भारतीय भोजन, मित्र, संगीत सब उसे अब सरदर्द साबित होने लगे । बेचारा भारतवासी असमंजस मे आ गया, उसके सारे भारतीय मित्रों पर रोक लग गयी, अपने ही घर में चावल-दाल-सब्जी तक पकाने की मनाही ।पूजा-पाठ के सामान सब गराज मे रख दिए गए ।
भारतीय होने के नाते उसने लाख कोशिश की पर कोहरा और घना होता चला गया । आख़िर वही हुआ जिसका डर था तलाक-डिवोर्स ।
आज स्थिति यह है कि अपने ही पुत्र को कोर्ट के आदेशानुसार मात्र शनि एवं रविवार रख पाता है । पुत्र जोशुआ सोम से शुक्र अपनी मम्मी के साथ रूसी जीवन जीता है और फिर शनि-रवि टूटी-फूटी हिन्दी में अपने भारतवासी पिता के साथ ।
सचमुच अमेरिका मे विविधताओं की कमी नही ....................
आख़िर भारतवासी की माँ भी अमेरिका अपने पौत्र को देखने पहुंची , कहते है भाषा एवं माँ -निश्छल होती है । अपने पौत्र का अभिनन्दन तिलक-टीके से किया पर रूसी बाला को यह भी एक जादू-टोना का तिल्स्सम सा लगा भारतीय संस्कृति की हर परम्परा दिन ब दिन अस्वीकार कर कर दी गयी और रूसी बाला का स्वार्थ से भरा चेहरा साफ दिखने लगा । अमेरिका मे ऐसी घटनाएँ ही भारतवंशियों के मन मे कई संशय भरे प्रश्न खड़ा कर देते हैं ।
आज इतना ही फिर कभी.....अमेरिका की विविध तावों पर कुछ न कुछ लिख भेजा करूंगा ।
अब इस यथार्थ को लेकर कुछ प्रश्न भी न उठें तो बात भी कैसे दूर तक गई । इस वक्त मन में बहुत उमड़न-घुमड़न है ।
सबरंग पर पूर्णिमा दीदी...
आदित्य जी का आग्रह है कि मैं रेडियो सबरंग पर पूर्णिमा वर्मन की गुच्छा गुलमोहर का पारूल की आवाज़ मी एक बार सुने । वे पूर्णिमाजी का टेलिफून नम्बर भी चाहते हैं । बतियाने के बड़े विश्वासी जो हैं आदित्य । अब मैं उन्हें कैसे समझाऊँ कि दीदी संपूर्णतः अंतर्मुखी हैं । विदेश में भी रहकर भारतीयता को दिल से जीती हैं । हमारे जैसे फटीचर भाई को भला कैसे फोन नम्बर दे सकती हैं । वैसे दीदी जब शादी होकर चली जाती है ससुराल तो वह भाईयों की नही रह जाती । दोस्तों की नहीं रह जाती । कई बार वह अपने माँ-बाप की भी नही रह जाती । वह अपने नये परिवार के आदर्शों और मूल्यों पर स्वयं को अधिनियंत्रित करती है । चाहे दुख से या फिर चाहे निजी संस्कारों या इच्छा से । कई बार फोन नम्बर देना भी सिरदर्द साबित हो जाता है । फिर दीदी का बड़ा काम है हिंदी अंतरजाल पर । रात दिन लगी रहती हैं । वैसे मैं आदित्यजी को यह बताना चाहूँगा कि दीदी पहले मुझसे बहुत सारी रचनात्मक बातें कर लेती थी । पर पता नहीं क्यों अब चुप्पी साध ली हैं । मुझे लगता है यह तब से हुआ जब से मैं सृजनगाथा के संपादन में व्यस्त रहने लगा । खैर...
No comments:
Post a Comment