
मैं नहीं जानता कि हमारे ब्लॉगर्स बंधु उन्हें कितना गभीर लेंगे ? पर उनके निहितार्थ को एकदम ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता । मुझे लगता है, जब वे ऐसा सोचते हैं तो सारे भारत और उसके वर्तमान की स्थिति का मुआयना भी उनकी बुद्धि करती है । क्योंकि आलोचक मन से कम बुद्धि और तर्क से अधिक उवाचते हैं । और इस सोच या इस सोच से उत्पन निर्णय में हमारे देश के अनपढ़, अल्पपढ और ग़रीब, किसान, मज़दूर, कारीगर आदि आमजन भी उन्हें दिखाई देते हैं जिनमें से आधे लोग तो आज भी निरक्षर हैं । उनके गाँवों और कस्बों की हालत किसी से नहीं छिपी है । कहीं बिजली नहीं है, कहीं टेलिफ़ोन नहीं है । कहीं यह दोनों है तो उनके पास कंप्यूटर ख़रीदने की ताक़त ही नहीं है । यदि यह सब भी है तो उन्हें यह नही पता कि कंप्यूटर में वह ब्लॉग भी लिख सकता है । यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या ब्लॉग लेखन ज़रूरी है सबके लिए ? अभिव्यक्ति के साथ अनभिव्यक्ति भी बहुत ज़रूरी है । कम से कम अंतरजाल पर । आख़िर गोपनता भी कई बार लाज़िमी होती है । वैसे भी बड़ा से बड़ा अभिव्यक्तिवादी समाज सब कुछ कहना नहीं चाहता । ऐसे सभ्य (?) समाजों का भी इतिहास गवाह रहा है कि वहाँ कुछ ही लोग अभिव्यक्ति के अधिकार को बनाये रखते हैं या फिर उसे बहाल करने के लिए संघर्षरत रहते हैं । हर कोई बोलता नही है । हर कोई लिखता नही है । कुछ लोग बिना कहे भी देश को आगे बढ़ाते रहते हैं । मानव समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हैं ।
यूँ भी ब्लॉग लेखन पढ़े-लिखे और तकनीक से परिचित (और दक्ष भी ) तथा साधन संपन्न लोगों के वश की बात है, जिसके पास इतना समय भी हो कि वह ऐसा लिख सके । यदि उसके पास सारी योग्यतायें हैं तो भी क्या ज़रूरी कि उसकी अवस्था यानी कि आयु ऐसा करने में साथ दे । आख़िर जीने की दृष्टि और सृष्टि उम्र से भी तय होती है । फिर मानसिकता भी तो कोई चीज़ होती है मनुष्य के उद्यमों में । यह वास्तविकता है कि हमारी पुरानी पीढ़ी लेखन के नये तकनीक के बजाय पांरपरिक तरीकों पर अधिक विश्वास करती है । नामवर पुरानी पीढ़ी के दिग्गज हैं । वे प्रौढ़तम अवस्था मे है इन दिनों । तो वे अपने प्रौढ़तम विचार के लिए पूर्णतः स्वतंत्र हैं ।
देश के युवा ब्लॉगरों को तनिक भी दुखी नहीं होना चाहिए कि नामवर उनके सपनों पर तुषारापात करनेवाले हैं । या फिर वे युवा विरोधी हैं । यह उनकी कथनी का विरोधाभास नहीं जो वे स्वयं स्वीकारते हैं और इस स्वीकारोक्ति में उच्चारते हैं कि नई पीढ़ी पर उन्हें भरोसा है । वे इसी प्रसंग में जन-जन की आवाज़ के लिए हिंदी अख़बारों को ही सक्षम बताते हैं । उनकी माने तो हिंदी साहित्यकारों या अध्यापकों की बनाई भाषा नहीं है । यह अख़बारों की बनाई गई है । और अख़बारनवीसी को सुधारने के भरोसेमंद कार्यकर्ता के रूप में वे युवाओं की ओर
जिस इंटरनेट पर आज का युवा अधिक आश्रित और विश्वास करता है, वह युवा (और कुछ प्रौढ़ और कुछ बूढ़े-सयाने भी) ब्लॉग लेखन पर भी विश्वास करता नज़र आ रहा है । ब्लॉग इंटरनेट का उत्पाद है । वह उसका भूगोल भी है । भूगोल को विस्तारित करते रहने वाला अधियानकवादी ताक़त भी है । मुझे यह कहना यहाँ प्रांसगिक लगता है कि ब्लॉग एक तरह का पत्रकारिता भी है या बन रहा है । इंटरनेट आधारित पत्रकारिता । इंटरनेट और हिंदी पत्रकारिता पर चिंतित दिखाई देनेवाले नामवर सिंह यह भी कहते हैं कि अँगरेज़ी अख़बार और इंटरनेट की नकल ने पत्रकारों की नौकरी को ख़तरे में डाल दिया है । बात में काफ़ी दम है ।
नामवर जब पत्रकारों को संबोधते हैं कि क्षेत्रीय अख़बारों में आंचलिकता का रंग झलकना चाहिए तब आज के हिंदी चिट्ठाकारों को भी उस संबोधन के समक्ष स्वयं को खड़ा देखना चाहिए और उसे अपने लिए कारगर मानना चाहिए । आख़िर हिंदी के सारे चिट्ठाकार दिल्ली या मुंबई के तो हैं नहीं कि एक ही मुहावरा, एक ही भाषा में अपनी बात रखें । हिंदी तो कई अंचलों और कई बोलियों से मिलकर अपनी प्रवहमानता को निरंतर बनाती है । वही असली मानकता भी है कि एक जैसी हिंदी सर्वत्र संभव भी नहीं है । न भारत में न विश्न में । स्थानीयता का संपुट न हो तो आपका अपने कहने के लिए आपकी भाषा में नया क्या होता है ? भाषा बासी लगती है या फिर अनुदित या फिर रटी-रटायी । यही विविधता ही तो हिंदी और हिंदुस्तान का चरित्र है जो हम सबको तथाकथित वैश्वीकरण के सैकड़ो-हजारों वर्ष पहले से ही सच्ची वैश्किता का पाठ सिखाता रहा है, जिसे हम वधुधैव कुटुम्बकम् जैसे पवित्र मंत्रों के रूप में जानते-मानते रहे हैं ।
आज की वैश्वकिता ( उपनिवेशवादी, बाज़ारवादी, अधिनायकवादी) के समक्ष अपने होने को बचाये रखने के लिए आंचलिकता को बचाये रखना सबसे बड़ी चुनौती है । यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो हमारे होने पर ही संदेह उत्पन्न हो सकता है । हमारी पहचान गुम हो सकती है । हमारी भाषा की हत्या हो सकती है । हमारी संस्कृति को आत्महत्या करना पड़ सकता है । और इस हत्या और आत्महत्या में हिंदी के चिट्ठाकारों के लिए नामवर का यह संदेश या संकेत एक पवित्र पाठ भी हो सकता है । यानी कि यह हिंदी ब्लॉग की भाषा का बाईबिल हो सकता है ।
जो अपने ब्ल़ॉग लेखन को अपनी पत्रकारिता का हिस्सा मानते हैं उन्हें नामवर सिंह की इस बात पर गौर करना ही चाहिए कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा उस क्षेत्र के अनुसार होनी चाहिए, जो भाषा वहाँ बोली जाती है । जैसे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी की मिठास रहे, बुंदेलखंड में बुंदेलखंडी । यही हिंदी पत्रकारिता है । यह ऐतिहासिक सच है कि यही पत्रकारिता परतंत्रता से मुक्ति पाने के आंदोलन में आम जनता को राजनीति का प्रशिक्षण देती थी । आज भी जिस तरह से पश्चिमी दुनिया की धूर्तता वैश्वीकरण के बहाने भारतीयता को लीलने की फ़िराक मे है, आंचलिकता या स्थानीयता का संबल ही उसके प्रतिरोध का कारगर हथियार हो सकता है ।
अब मानना, नहीं मानना हम निरंकुश चिट्ठाकारों के ऊपर है ।