Monday, January 25, 2010

छत्तीसगढ़िया ब्लॉगर्स मीट के पार्श्व से


छत्तीसगढ़िया लोग भी अब संगठित होने लगे हैं । कम से कम यहाँ के ब्लॉगरों ने तो यह कर दिखाया है कल । पर, जैसा कि प्रेस क्लब के अध्यक्ष और अमीर धरती गरीब लोग के ब्लॉगर श्री अनिल पुसदकर जी कल जिस तरह मोबाइल पर बता रहे थे वह चिंताजनक और ब्लॉगर्स के ख़िलाफ़ एक षडयंत्र से कम नहीं ।

वे बता रहे थे कि राज्य के कुछ कथित बड़े लोगों को इस मीट से सिर्फ़ इसलिए आपत्ति थी कि इसमें राज्य की ग़लत छवि प्रस्तुत करने वालों के विरोध में सब ब्लॉगर्स एक जूट होकर उनकी छवि नेट पर कहीं धूमिल न कर दें । शायद इसलिए उन्होंने इस मीट को बदनाम करने, कुछ ब्लॉगर्स को भड़काने, मीट से दूर रहने का लुकाछिपी खेल भी खेला हो ।

मैं नहीं जानता ये कौन लोग हैं किन्तु अनिल जी के अनुसार यह कार्य बखूबी किया है - कुछ लोंगों ने । शायद वे लोग ऐसे खेमे थे जो पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के विवाद पसंद वकील शांत भूषण द्वारा मीडिया और नक्सलवाद से जूझ रहे पुलिस के ख़िलाफ़ दिये गये बयान से स्वयं को भी जोड़कर देख रहे हैं । कोई अपराध बोध भी उन्हें कुछ करने को उकसा रहा हो । उन्होंने इसके पहले दिन साहित्यकारों की हुई प्रेस क्लब की बैठक को भी प्रायोजित करके बदनाम करने की कोशिश की थी । जैसे वे साहित्यकारों के पंजीयक हों, उनके पास जो रजिस्ट्रेशन न कराये वह साहित्यकार नहीं हो सकता । जैसे वे पत्रकारिता के अधिनायक हैं, उनकी अनुमति के बग़ैर पत्रकार कुछ भी नहीं कर सकता ।
विश्वास है जो ब्लॉगर्स ऐसी परिस्थितियों से गुज़रे होंगे वे उनका चेहरा ज़रूर उजागर करेंगे ।

Sunday, January 24, 2010

छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर्स मित्रों के नाम

यह खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर रायपुर प्रेस क्लब में एकजूट हो रहे हैं । दुःख इस बात का है कि मैं शरीक नहीं हो पा रहा हूँ । ज़रा सा क्षोभ भी है कि चार आंगुल पेट की चिंता के लिए हम नौकरीपेशावालों को क्या क्या नहीं करना पड़ता है!

इस समय मेरा दिल वहाँ पहुँच गया है जब हम मैं या एकाध और कोई राज्य से पहले-पहल ब्लॉगिंग को समझ कर लिखना शुरू कर रहे थे । तब सोचा भी नहीं था कि छत्तीसगढ़ जैसे आधुनिक संचार की कम संसाधनवाले प्रदेश से एक समय यानी आज 70-80 नियमित ब्लॉगर्स देश-दुनिया को अपनी अभिव्यक्ति से परिचय करा रहे होंगे । मुझे याद आता है कि तब मैं और श्री शर्मा जी प्रेस से जुड़े लोगों, पत्रकारों, लेखकों, विद्यार्थियों को कैसे इस विधा और तकनीक से जोड़ा जाय, इसी उधेडबुन में लगे रहते थे । खुशी होती है कि आज बहुत सारे लोग जुड़ चुके हैं । यह दीगर बात है कि तब हमारी कार्यशालाओं को लोग बड़ी अजीब दृष्टि से देखते थे । तकनीक से डरनेवाले आज के पत्रकार भी बड़े सकारात्मक दृष्टि से नहीं देख रहे थे । ख़ैर... तब की बात का आज कोई मतलब नहीं...

कल अनिल पुसदकर भी बता रहे थे और मेरी भी उसमें सहमति है कि हम छत्तीसगढ़ के चिट्ठाकारों का एक संयुक्त ब्लॉग होना चाहिए, ताकि हम सब एकजुट हो सकें, एक साथ हमारे लेखन और हमारी आवाज़ को हम मज़बूत बना सके ।

जो इंटरनेट पर लंबे समय से हैं और जो अपनी बिना अंधराज्यवाद से ग्रसित होकर अपनी पवित्र अस्मिता के बारे में चिंतित होते हैं, ऐसे ब्लॉगर्स के लिए यह समय आ गया है कि वे उन पृष्ठों को भी खंगालें, जहाँ हमारे राज्य की चेतनहीनता, धीरता का मज़ाक़ उड़ाया गया है । मैं दावे और अनुभव के साथ यह बात दोहराना चाहूँगा कि देश ही नहीं सारी दुनिया में बस्तर की सुरते हाल, आदिवासी की पीड़ा को लेकर जिस तरह राजनीति की गई है वह हमारी काहिली का भी परिणाम है । ब्लॉगों में जो बस्तर के आदिवासियों के आंदोलन सलवा जुडूम को सारी दुनिया में आदिवासियों के विरूद्ध आदिवासियों को लड़ाने का मुहिम सिद्ध कर दिया गया है । जैसे बस्तर का आदिवासी प्रतिरोध करना जानता ही नहीं । आख़िर ये कौन लोग हैं ? और इनकी टिप्पणी से अंततः और आख़िर किसे फ़ायदा और किसे नुकसान हुआ या होगा, यह भी हमें समझना होगा । इसका मतलब नहीं कि हम राज्याश्रित होकर राज्य केंद्रित विचारों के अनुगामी बने । लेकिन सोचिए, कैसे बस्तर के आदिवासियों को लेकर देश-दुनिया के ब्लॉगरों ने टाका टिप्पणी की, किन्तु हम छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर्स लगभग चुप रहे । शायद इसलिए कि हम ऐसे मुद्दों से डायरेक्ट प्रभावित नहीं होते । कहने का आशय कि हम वास्तविकता के पक्ष में अपनी अभिव्यक्ति को कमजोर ही साबित करते रहे । मुद्दे तो बहुत हैं किन्तु उन पर चर्चा फिर कभी...

मित्रो, अब जबकि ब्लॉगिंग नागरिक पत्रकारिता का रूप धारण करता चला जा रहा है क्यों न हम राज्य की प्रभुता, अस्मिता, नागरिकता, स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा को धूमिल करनेवालों के ख़िलाफ़ भी एकजूट हों ।

मैं यहाँ पुनः अनिल जी की पहल की प्रशंसा करते हुए पुनः यह दोहराना चाहूँगा कि समाज को तोड़ने की हद तक जाने वाले हितनिष्ठ आपको दिग्भ्रमित करेंगे । आपको बरगलायें, जैसे कि कल प्रेस क्लब द्वारा आयोजित संगोष्ठी को कुछ लोग प्रायोजित करार देकर अपनी भड़ास मिटा रहे हैं । ऐसे लोगों को भी पहचानिए जो आज की ब्लॉगर्स बैठक को भी प्रायोजित बताकर आपकी दिशा मोड़ना चाह रहे हैं । इन सफ़ेद पोशी अपराधियों का मुखौटा उतार फेंकिए... ऐसे अंसतुष्ट लोगों को जो चाहते हैं कि वे ही राज्य का भाग्य लेखक हैं, वे ही चिंतक हैं, वे ही लेखक, पत्रकार, वकील, बुद्धिजीवी हैं और उनकी ही तूती बोलती रहेगी... क्या आप ऐसे विघ्नसंतोषियों से घबरायेंगे.... नहीं.... शायद नहीं.... ।


ब्लॉगर्स की यह बैठक न केवल राज्य की अस्मिता वरन् राज्य की नागरिक पत्रकारिता और हिन्दी की श्रीवृद्धि की दिशा में किये जा रहे तकनीकी प्रयासों को भी रेखांकित करेगी, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ...

Friday, January 22, 2010

निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है – पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह


पद्मश्री रमेश चन्द्र शाह आधुनिक कविता, विचार और आलोचना के जाने-माने हस्ताक्षर हैं । भोपाल निवासी और शिक्षाविद् श्री शाह ने ललित निबंध की परंपरा को भी जीवंत बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । यह दीगर बात है कि वे ललित निबंध को ‘व्यक्ति-व्यंजक निबंध’ के नाम से संबोधते हैं । मैंने ललित निबंध के विद्यार्थी के रूप में कुछ वर्ष पहले उनसे बातचीत की थी । ललित निबंध को लेकर मन में आते कई जिज्ञासाओं के बारे में देखें वे क्या कहते हैः- मानस


मानस - आपकी रचनाधर्मिता का प्रेरक तत्व क्या है ? ललित निबंध के साथ कई विडम्बनाएँ रही हैं- अल्पसंख्यक पाठक, प्रकाशन हेतु पत्रिका संपादक का अपना पूर्वाग्रह, समीक्षकों एवं कतिपय महापुरुष साहित्यकारों की घनघोर उपेक्षा । इतनी सारी चुनौतियों के बावजूद आप ललित निबंध से कैसे जुड़े ?
शाह जी - लेखक के लिए अनुकूल परिवेश का कोई महत्त्व नहीं है । लिखना उसके लिए साँस लेने की तरह अनिवार्य है । यह विधा मेरे निकट की मुझे लगी – अपने स्वभाव के अनुकूल । मेरे व्यक्तित्व और मस्तिष्क के एक हिस्से की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य । इसलिए स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से ही मैंने निबंध लिखना शुरु किया । एक पारिस्थितिक पहलु यह भी, कि पहले ‘आधार’ पत्रिका के संपादक रामावतार चेतन और तत्पश्चात ज्ञानोदय के संपादक रमेश बक्षी मेरे निबंधों के बड़े गुणग्राही प्रशंसक थे । वे बड़े आग्रह और सुझ-बूझ के साथ मेरी रचनाएं बुलाते और छापते थे । बदरीनाथ कपूर सरीखे वैयाकरण और शब्दकोशकार ने नितांत अपनी रीझ-बूझ के कारण मेरा निबंध-संग्रह छापने की पहल की ।


मानस - आप जिस साँस्कृतिक चेतना को अपना प्रतिपाद्य बनाते हैं वे लोक, आंचलिकता या लोक धर्म के विषय हैं । आप अपने ललित निबंधों को अन्य ललित निबंधकारों से कैसे भिन्न देखते हैं ? इन दिनों आप नया क्या रच रहे हैं ?
शाह जी - यह प्रश्न लेखक से नहीं, पाठकों, समीक्षकों से पूछना चाहिए । अपनी रचना के बारे में स्वचेतन होना, अपनी भिन्नता और विशिष्टता बताना बहुत बेतुका और असम्यक लगता है लेखक को । निबंध विधा पर मैंने अलग से अपनी समझ बताई है एक लेख में । वह देख लें । मन की निर्बंध उड़ान, बुद्धि का भी क्रीड़ाभाव, अपने को ही कौतुकी और जिज्ञासु ढंग से देखने-परखने की टेब ने मेरे निबंध लिखवाये होंगे । पहला ही जो निबंध लिखा, उसका नाम था ‘चौंथी प्याली की महक’ जो ‘चाय’ पर है पर विषय निमित्त मात्र हैः व्यक्ति-चेतना का, व्यक्तित्व का प्रकाशन ही प्रेरक बनता है । पर वह आत्म-रति नहीं, आत्म-क्रीड़ा भी आत्मन्वेषण, आत्म-जिज्ञासा की प्रेरणा से है । प्रामाणिक ज्ञान किसी चीज़ का होता है ? प्रत्यक्षतः उसका जिसे ‘मैं’ कहते हैं । विषय-ज्ञान, वस्तु-ज्ञान उसी की अपेक्षा में, उसी के जरिये हो, तो कैसा ? यही मूल-प्रेरणा है निबंध की ।


मानस - ललित निबंध को आप किन शब्दों में परिभाषित करना चाहेंगे ? कोई इसे व्यक्तिव्यंजक निबंध कहता है, कोई रम्य रचना । आपका व्यक्तिगत अभिमत क्या है ?
शाह जी - सभी विशेषण अपने-अपने ढंग से सही हैं । मैं आत्म-निबंध कहता हूँ । अंग्रेज़ी ‘पर्सनल एस्से’ की उपलब्धियाँ और उनके प्रति विशेष प्रारंभिक राग-बंध के कारण । मेरे निबंध ‘पर्सनल एस्से’ के ही क़रीब होंगे । पर, हिंदी में ललित निबंध नाम चला तो उसका अपना अर्थ और प्रयोजन है । उसके सबसे श्रेष्ठ उद्भावक और ‘प्रैक्टीशनर’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पं. विद्यानिवास मिश्र हैं – इसमंब भी संदेह नहीं । स्वभावगत नज़दीकी और रुचि के हिसाब से बालमुकुंद गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र और बाबू गुलाबराय ज्यादा आकर्षित करते रहे थे शुरूआत में ।


मानस - निबंध और ललित निबंध के मध्य आप विभाजन की कैसी रेखा खींचना चाहेंगे ?
शाह जी - जहाँ ललित ज्यादा, निबंध कम होगा, वही निबंध कमज़ोर होगा । वैसे अर्थगंभीर, अर्थगौरव वाले निबंध भी निबंध ही होते हैं । आलोचना भी तो शोधग्रंथ की तरह, ... ग्रंथ रूप हो सकती है लेकिन कई तरह अहम् आलोचना निबंधकार प्रकटी है । .... अपने गंभीर विचारों के कारण भी एक प्रकार की अनासक्त संबंध-वृत्ति दर्शित होती है ।


मानस - ललित निबंधकार होना नास्टेलजिक होना भी होता है । प्रगतिकामी (?) आलोचकों के प्रश्न पर आपका जबाब क्या होगा ?
शाह जी - ‘पर्सनल एस्से’ में ‘आत्म’ अतीतोन्मुखी भी हो सकती है – पर किसी आत्म-सत्य की निर्वैयक्तिक गहराई और अर्थवत्ता की खोज में । ‘नास्टेलजिक’ से ऋणात्मक टिप्पणी उस पर लागू नहीं होती ।


मानस - ललित निबंध के विकासक्रम के बारे में आपकी राय क्या है ?
शाह जी - उपर्युक्त उत्तरों में इसका उत्तर निहित है, बाबू गुलाबराय और मेरे निबंध आत्मनिबंध कहे जा सकते हैं सामान्यतः । ललित निबंध का ..... आरंभ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के हाथों हुआ । पं. विद्यानिवास में वे संभावनाएं और विवृत हुई – बल्कि पार ... निचुड़ गई । ... में ललित निबंध का एक और आत्मचेतन मोड़ परिलक्षित हुआ । संस्कृतियों के द्वंद्व का अधिक इंटैलैक्चुअली अवेयर चित्रण । ये तीन ललित निबंधकार ललित निबंध के तीन आरोह हैं । कुबेरनाथ राय उसकी सांस्कृतिक डिबेट वाले पक्ष को मज़बूती से पकड़ते और तार्किक परिणति पर पहुँचा देते हैं ।


मानस - संस्कृत के कुछ श्लोक, लोक के कुछ छंद, ग्राम्य-स्मरण, कुछ निजी या आत्मीय प्रसंग, कुछ सरल उद्धरण और कुछ सरस उदाहरण के संग्रह-संयोजन को ललित निबंध का फ़ार्मूला बनाने के आरोप लगते रहे हैं, क्या इनके अलावा ललित निबंध रचा जा सकता है ?
शाह जी - फ़ार्मूला वाले आरोप में दम तो है, जिस आसानी से साथ जिस तरह ललित निबंध लिखे जाते रहे हैं, इन उपादानों के सहारे, उसे देखते हुए यह ग़लत नहीं है । ‘बगैर’ वाली बात अप्रासंगिक है । निबंध स्वयं इन उपादानों के साथ और बग़ैर भी खड़ा रह सकता है ।


मानस - ललित निबंध एक स्वतंत्र विधा है पर इसमें काव्य की विभिन्न विधाओं की उपस्थिति संभव है । यह ललित निबंध का सामर्थ्य है या भटकाव ?
शाह जी - इधर ललित निबंधों में कविता लगातार आ रही है । चाहे उदाहरण के बहाने या चाहे प्रासंगिक कारणों से । इससे ललित निबंध के गद्यगीत में तब्दील होने का संकट नहीं उत्पन्न होता ? फालतू कविताई – मात्र भावुकता के तहत कई बार दीखती है । वह भटकाव ही है – निबंध की अपनी ज़मीन नहीं । अब यूँ तो निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है । पर वह गद्यगीत न हो जाय ।


मानस - ललित निबंधों में विभिन्न विधाओं के समन्वय की सहमति के बाद भी गुलाबराय, दिनकर, विनोबा भावे, वियोगी हरि आदि के निबंध का जिक्र सामान्यतः क्यों नहीं होता ?
शाह जी - जिक्र होना चाहिए ।


मानस - ललित निबंधों के मूल विषयों में लोक भी है । फिर ललित निबंधकारों के यहाँ व्यंग्य को लेकर कोई परहेज भी नहीं, ऐसे में क्या लोक-यथार्थ को व्यंग्य विधा में अभिव्यक्त करने वाले य़था- परसाई, शरद जोशी आदि की रचनाओं को इस परिधि में नहीं समेटा जा सकता है ?
शाह जी - परसाई के निबंध शुरूआत में ललित निबंध ही थे – जैसे ‘सफेद बाल’ शीर्षक निबंध, उन्होंने ललित निबंध वाले दौर से लौटकर फिर से प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुंद गुप्त के निबंध का मेल कराया था । बाद में वे अलग से व्यंग्य नाम की विधा के लेखक बन गए । श्रीलाल शुक्ल ने भी इस तरह से निबंध लिखे हैं । व्यंग्य समूची रचना में रची-बसी एक वृत्ति है । व्यंग्य अपने आप में कोई विधा नहीं ।


मानस - ललित निबंधकार की सामान्य रचना प्रक्रिया पर आपकी टिप्पणी क्या होगी ? इसमें हिन्दी समाज, उसकी संस्कृति, उसकी विकृति या नित बदलती दुनिया की क्या भूमिका होती है ? क्या इस रचना प्रक्रिया को हम रमेशचन्द्र शाह (आपकी) की रचना प्रक्रिया मान सकते हैं, या आपकी रचना प्रक्रिया कुछ भिन्न है ?
शाह जी - चाहें तो मान सकते हैं । मानने के लिए आप मेरे निबंधों पर कैसा क्या लिखेंगे इससे आपकी विवेक-बुद्धि और रीझ-बुझ का पता चलेगा । सामान्यीकरण वास्तविक रस-दर्शन और रीझ-बूझ की जगह नहीं ले सकता । वैसे उपरी बात ग़लत नहीं है । वह मेरे नए निबंधों ‘हिंदी की दुनिया में’ के मूल्याँकन और समझ में सहायक हो सकती है । आप इस दृष्टि से उसकी विवेचना कर देखें । आपको स्वयं इस प्रश्न का सर्वोच्च उत्तर मिल जाएगा ।


मानस - ललित निबंधकारों की आज की पीढ़ी को कैसे मापना चाहेंगे ?
शाह जी - ख़ुद निबंधकार होते हुए इस बारे में कुछ कहना उचित न होगा । दुर्भाग्यवश आज की कविता के ही तर्ज पर नए ललित निबंधकार भी ‘परस्पर अहोध्वनिः’ वाले ही दीखते हैं । कोई स्वतंत्र विवेक और रीझ-बूझ के साथ इस विधा के प्रयोक्ताओं को किए-धरे की जाँचता-परखता नहीं । अग्रजों के साथ ही वैसा प्रेरक संबंध बन पाता है । सबको हड़बड़ी है अपने को जमाने की । कई लोग अच्छा लिख रहे हैं । पर लीक से हटकर काम बहुत कम है ।


मानस - ललित निबंधों में आत्मपरकता क्या नास्टेल्जिया नहीं है ?
शाह जी - इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ । आत्मपरक तो निबंध होगा ही । ... नहीं होते हैं जहाँ महज़ नास्टेल्जिया और आत्म-रति, आत्म-चर्चा प्रेरक होती है । अज्ञेय (बुद्धिचलन) को पढ़ा है ? उन्हें व्यक्ति कहके सबसे ज्यादा लांछित किया जाता रहा है उनके द्वारा जो अपने को बड़ा .... समझते हैं । .... है उल्टा, ये तथाकथित वस्तुबंदी ही हिंदी के सर्वाधिक राग-द्वेष प्रेरित सर्वाधिक आत्म-रति से सिकुड़े हुए लोग हैं ।


मानस - ललित निबंध पर आरोप है कि उसकी प्रकृति हिन्दूवादी है । प्रगतिशील (?) विविध जुमलों से खिल्ली उड़ाते हैं ? आप उन्हें कैसे निरुत्तर करना चाहेंगे ?
शाह जी - यह मूर्खतापूर्ण अनर्गल आरोप वही लगा सकते हैं जो आत्महीन, आत्मद्रोही और अंततः देशद्रोही हैं ।


मानस - ऐसे समय में जब उत्तरआधुनिकता के संजालों से सारे समाज के साथ पढ़ा-लिखा तबका भी निरंतर फँसता चला जा रहा है, उधर साहित्यिक कर्म के लिए चुनौतियाँ भी जटिलतम होती चली जा रही हैं, अल्पसंख्यक रचनाकारों की इस पवित्र विधा के भविष्य को लेकर क्या किया जा सकता है ?
शाह जी - अज्ञेय ने ‘आलोचक राष्ट्र के निर्माता’ की चुनौती सामने रखी थी 1945 में । वह चुनौती जहाँ की तहाँ है । उसका सम्मान और सत्कार करिए । ‘अल्पसंख्यक’ वाद के चक्कर में मत पड़िए । इसने वैसे ही हमारी राजनीति का सत्यानाश कर रक्खा है । कृपया साहित्य में इस तरह की शब्दावली से परहेज़ बरतिये ।

तालिबान



कोई दलील नहीं
कोई अपील नहीं
कोई गवाह नहीं
कोई वक़ील नहीं
वहाँ सिर्फ़ मौत है

कोई इंसान नहीं
कोई ईमान नहीं
कोई पहचान नहीं
कोई विहान नहीं
वहाँ सिर्फ़ मौत है

वहाँ सिर्फ़ मौत है
वहाँ सिर्फ़ धर्म है
धर्म को मानिए
या फिर
बेमौत मरिए

अन्न-पूजा


अन्न-पूजा
जो खेत नहीं जोत सकते
जो बीज नहीं बो सकते
जो रतजगा नहीं कर सकते
जो खलिहान की उदासी नहीं देख सकते
उनकी थालियों के इर्द-गिर्द
अगर
महक रहा है अन्न
तो यह
उनकी चुकायी क़ीमत की बदौलत नहीं
सिर्फ़ एक उसकी कृपा है
जो अन्न की पूजा करता है

Thursday, January 14, 2010

इंडिया टुडे ने याद किया


इंडिया टुडे पढ़नेवालों के लिए तो नहीं किन्तु उनके लिए जो इंडिया टुडे नहीं पढ़ते या नहीं पढ़ पाते सिर्फ़ उनके लिए । मोह नहीं किन्तु जो छापा है इंडिया टुडे ने अपने 20 जनवरी, 2010 के अंक में उसे पाठकों के समक्ष रखने में क्या बुराई है ! तो लीजिए.....


नया समय, नए संदर्भ
बृजबाला सिंह
यह पुस्तक विश्वरंजन के साहित्यिक मन का दर्पण है । इसमें चुनी हुई 48 कविताएँ, आलेख, समीक्षा, डायरी तथा महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं, जिनमें उनका रचनाकार निरंतर गंभीर बना रहता है, जयप्रकाश मानस के संपादन कौशल का नमूना वह ‘पुरोवाक्’ है, जिसमें उन्होंने विश्वरंजन के सर्जक को परिभाषित ही नहीं बल्कि उदाहरण के साथ विश्लेषित भी किया है । पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन के लिए रचनाकर्म एक साधना है, जो सृजन संघर्ष की गलियों में चल रही पूरी की जाती है । वे नहीं मानते कि कविता लिखना कोई सहज कार्य है ।


मानस ने विश्वरंजन की सृजनद-शक्ति एवं क्षमता में गहराई तथा विस्तार, दोनों देखा है: “विश्वरंजन की कविता नए समय, नए संदर्भों की कविता है, नई मात्र इस अर्थ में नहीं कि व नई विषयवस्तु, नए काव्य-प्रक्षेत्रों तक अपनी पहुँच को सिद्ध करती है, नई इस अर्थ में भी कि वे बासी होते मनुष्य को नई गरिमा और नई दृष्टि देती हैं (वजूद में हर समय बासी होने का डर रहता है )। शब्दों के मौन में अर्थ की नई वृष्टि करती हैं । नई सृष्टि का ख़ाका रचती हैं । साधारण मनुष्य के समय, समाज और संकटों की पहचान कराती हैं । उनकी कविता भयावह दृश्यों के बीच जान-बूझकर ओढ़ी गई चुप्पी को खरोंचते हुए हुए इंसान को सतर्क कराती है । इस मानवीय उद्यम की लय में कवि का मन पास-पड़ौस में तितर-बितर पड़े शब्दों को नए सिरे से ढूँढता है । उन्हें झाड़ता-पोछता है । नए संदर्भों के बरक्स ऐसे चित-परिचित शब्द स्वमेव ताजगी से भर उठते हैं । कवि का यही अर्थागम-सिद्धि कविता में विन्यस्त शब्दों को नई चमक से लैस कर देती है । जाहिर है, इस चमत्कृति में केवल कवि मन ही नहीं, मेधा की भी भूमिका उल्लेखनीय है।”


संग्रह की कविताओं में ‘भारत माता की जय’, ‘क्रांति की बातें मत करो’, के साथ-साथ बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कई कविताएँ हैं जिनमें बाज़ार का प्रयोग व्यंग्य एवं विस्तार लिये हुए है – ‘बाज़ार के इर्द-गिर्द घूमती कुछ कविताएँ’, ‘बाज़ार की मार और आज का आदमी’, ‘तलाश बाज़ार से बाहर निकल आने की’....., ‘बाज़ार के खिलाफ जंग का पहला ऐलान’, ‘बाज़ार से लड़ना एक अनिवार्य हिमाकत है’, ‘बाज़ार वह मन है’….., जैसी कई कविताओं को संग्रहीत करके मानस ने विश्वरंजन के कविमन की उन तहों का पर्दाफाश किया है जिनमें सदियों से चले आ रहे बाज़ार का समापन हुआ है । बाज़ार जिसमें कभी एक वर्ग बिकता था, आज हर आदमी बिक रहा है, बहुत सस्ता । विश्वरंजन मानते हैं है कि अब बाज़ार से लड़ना ज़रूरी हो गया है क्योंकि आदमी अब बाज़ार की मार सहने में असमर्थता महसूसस करने लगा है । वह बाज़ार से निकलने का रास्ता खोज रहा है । कवि को पता है कि बाज़ार से लड़ना आसान नहीं है । लेकिन उम्मीद की किरण शेष है : बाज़ारी ख़ौफ़ और आतंक के कोहरे से लिपटे रहने के बावजूद सूरज से दोस्ती करने की कर रहे हैं बदस्तूर कोशिश और इसी कोशिश में शायद छुपा हो बाहर निकल आने का कोई रास्ता । विश्वरंजन को आत्मविश्लेषण का कवि मानते हैं मानस ।


संग्रह में साहब को केंद्र में रखकर भी बहुत सी कविताएँ हैं – ‘साहब सब जगह होता है’, ‘साहब का भी एक साहब होता है’, ‘साहब की एक मेमसाहब होती है’.... ‘कलेक्टर साहब और क्लबघर’ आदि । यहाँ भूखे लोगों की आँखों में जमी चुप्पी देखी जा सकती है । समय से पहले मुरझाने का अफ़सोस है । बचपन की दीवाली की यादें हैं तो एक बेहत्तर इंसान का स्वप्न है ।


विश्वरंजन ने कबीर को पहला क्रांतिकारी और सेक्युलर कवि माना है । उन्हें फ़िराक़ की शायरी में सदियों की आवाज़ सुनाई देती है । वे कलाकार हैं, आधुनिक कला को समझने की ज़िद है उनमें: यह कठिन काम है । कलाकृतियों, चित्रकला, पेंटिग्ज के पास जाना ही पड़ेगा आपको उनमें डूबने-उतराने के लिए । एक लेख में विश्वरंजन की अधूरी काव्य-यात्रा का वृत्तांत है । वे कविता के विषय से अधिक कविता की भाषा पर बल देते हैं । मैंने हमेशा यह कोशिश की है कि मैं अपने ‘मैनरिज्म’ में क़ैद होके न रह जाऊँ । मैं यह हमेशा यह पाता हूँ जब एक ख़ास ‘मैनरिज़्म’ ‘रेटॉरिक’ या ‘फॉर्म’ मुझे बाँधने लगती है, मेरे अंदर कविता मौन होने लगती है । क्योंकि मैं पैंटिग भी करता हूँ, मैं पैंटिग की ओर बढ़ जाता हूँ । जब पुनः कविता में लौटता हूँ, चाहता हूँ कि अंदाज़े-बयां बदला हुआ हो । मानस ने विश्वरंजन पर एकाग्र इस पुस्तक का संपादन करके पाठकों की अतिशय सहायता की है, विशेषकर उस दौर में जबकि गढ़ी जा रही है नए शब्दों को, अर्थों को चमका कर / कविता की पहली पंक्ति ।

कृति- एक नई पूरी सुबह (विश्वरंजन पर एकाग्र)
संपादक- जयप्रकाश मानस
प्रकाशक- यश प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य –
395 रुपये