Friday, January 22, 2010

निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है – पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह


पद्मश्री रमेश चन्द्र शाह आधुनिक कविता, विचार और आलोचना के जाने-माने हस्ताक्षर हैं । भोपाल निवासी और शिक्षाविद् श्री शाह ने ललित निबंध की परंपरा को भी जीवंत बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । यह दीगर बात है कि वे ललित निबंध को ‘व्यक्ति-व्यंजक निबंध’ के नाम से संबोधते हैं । मैंने ललित निबंध के विद्यार्थी के रूप में कुछ वर्ष पहले उनसे बातचीत की थी । ललित निबंध को लेकर मन में आते कई जिज्ञासाओं के बारे में देखें वे क्या कहते हैः- मानस


मानस - आपकी रचनाधर्मिता का प्रेरक तत्व क्या है ? ललित निबंध के साथ कई विडम्बनाएँ रही हैं- अल्पसंख्यक पाठक, प्रकाशन हेतु पत्रिका संपादक का अपना पूर्वाग्रह, समीक्षकों एवं कतिपय महापुरुष साहित्यकारों की घनघोर उपेक्षा । इतनी सारी चुनौतियों के बावजूद आप ललित निबंध से कैसे जुड़े ?
शाह जी - लेखक के लिए अनुकूल परिवेश का कोई महत्त्व नहीं है । लिखना उसके लिए साँस लेने की तरह अनिवार्य है । यह विधा मेरे निकट की मुझे लगी – अपने स्वभाव के अनुकूल । मेरे व्यक्तित्व और मस्तिष्क के एक हिस्से की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य । इसलिए स्वतः स्फूर्त प्रेरणा से ही मैंने निबंध लिखना शुरु किया । एक पारिस्थितिक पहलु यह भी, कि पहले ‘आधार’ पत्रिका के संपादक रामावतार चेतन और तत्पश्चात ज्ञानोदय के संपादक रमेश बक्षी मेरे निबंधों के बड़े गुणग्राही प्रशंसक थे । वे बड़े आग्रह और सुझ-बूझ के साथ मेरी रचनाएं बुलाते और छापते थे । बदरीनाथ कपूर सरीखे वैयाकरण और शब्दकोशकार ने नितांत अपनी रीझ-बूझ के कारण मेरा निबंध-संग्रह छापने की पहल की ।


मानस - आप जिस साँस्कृतिक चेतना को अपना प्रतिपाद्य बनाते हैं वे लोक, आंचलिकता या लोक धर्म के विषय हैं । आप अपने ललित निबंधों को अन्य ललित निबंधकारों से कैसे भिन्न देखते हैं ? इन दिनों आप नया क्या रच रहे हैं ?
शाह जी - यह प्रश्न लेखक से नहीं, पाठकों, समीक्षकों से पूछना चाहिए । अपनी रचना के बारे में स्वचेतन होना, अपनी भिन्नता और विशिष्टता बताना बहुत बेतुका और असम्यक लगता है लेखक को । निबंध विधा पर मैंने अलग से अपनी समझ बताई है एक लेख में । वह देख लें । मन की निर्बंध उड़ान, बुद्धि का भी क्रीड़ाभाव, अपने को ही कौतुकी और जिज्ञासु ढंग से देखने-परखने की टेब ने मेरे निबंध लिखवाये होंगे । पहला ही जो निबंध लिखा, उसका नाम था ‘चौंथी प्याली की महक’ जो ‘चाय’ पर है पर विषय निमित्त मात्र हैः व्यक्ति-चेतना का, व्यक्तित्व का प्रकाशन ही प्रेरक बनता है । पर वह आत्म-रति नहीं, आत्म-क्रीड़ा भी आत्मन्वेषण, आत्म-जिज्ञासा की प्रेरणा से है । प्रामाणिक ज्ञान किसी चीज़ का होता है ? प्रत्यक्षतः उसका जिसे ‘मैं’ कहते हैं । विषय-ज्ञान, वस्तु-ज्ञान उसी की अपेक्षा में, उसी के जरिये हो, तो कैसा ? यही मूल-प्रेरणा है निबंध की ।


मानस - ललित निबंध को आप किन शब्दों में परिभाषित करना चाहेंगे ? कोई इसे व्यक्तिव्यंजक निबंध कहता है, कोई रम्य रचना । आपका व्यक्तिगत अभिमत क्या है ?
शाह जी - सभी विशेषण अपने-अपने ढंग से सही हैं । मैं आत्म-निबंध कहता हूँ । अंग्रेज़ी ‘पर्सनल एस्से’ की उपलब्धियाँ और उनके प्रति विशेष प्रारंभिक राग-बंध के कारण । मेरे निबंध ‘पर्सनल एस्से’ के ही क़रीब होंगे । पर, हिंदी में ललित निबंध नाम चला तो उसका अपना अर्थ और प्रयोजन है । उसके सबसे श्रेष्ठ उद्भावक और ‘प्रैक्टीशनर’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पं. विद्यानिवास मिश्र हैं – इसमंब भी संदेह नहीं । स्वभावगत नज़दीकी और रुचि के हिसाब से बालमुकुंद गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र और बाबू गुलाबराय ज्यादा आकर्षित करते रहे थे शुरूआत में ।


मानस - निबंध और ललित निबंध के मध्य आप विभाजन की कैसी रेखा खींचना चाहेंगे ?
शाह जी - जहाँ ललित ज्यादा, निबंध कम होगा, वही निबंध कमज़ोर होगा । वैसे अर्थगंभीर, अर्थगौरव वाले निबंध भी निबंध ही होते हैं । आलोचना भी तो शोधग्रंथ की तरह, ... ग्रंथ रूप हो सकती है लेकिन कई तरह अहम् आलोचना निबंधकार प्रकटी है । .... अपने गंभीर विचारों के कारण भी एक प्रकार की अनासक्त संबंध-वृत्ति दर्शित होती है ।


मानस - ललित निबंधकार होना नास्टेलजिक होना भी होता है । प्रगतिकामी (?) आलोचकों के प्रश्न पर आपका जबाब क्या होगा ?
शाह जी - ‘पर्सनल एस्से’ में ‘आत्म’ अतीतोन्मुखी भी हो सकती है – पर किसी आत्म-सत्य की निर्वैयक्तिक गहराई और अर्थवत्ता की खोज में । ‘नास्टेलजिक’ से ऋणात्मक टिप्पणी उस पर लागू नहीं होती ।


मानस - ललित निबंध के विकासक्रम के बारे में आपकी राय क्या है ?
शाह जी - उपर्युक्त उत्तरों में इसका उत्तर निहित है, बाबू गुलाबराय और मेरे निबंध आत्मनिबंध कहे जा सकते हैं सामान्यतः । ललित निबंध का ..... आरंभ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के हाथों हुआ । पं. विद्यानिवास में वे संभावनाएं और विवृत हुई – बल्कि पार ... निचुड़ गई । ... में ललित निबंध का एक और आत्मचेतन मोड़ परिलक्षित हुआ । संस्कृतियों के द्वंद्व का अधिक इंटैलैक्चुअली अवेयर चित्रण । ये तीन ललित निबंधकार ललित निबंध के तीन आरोह हैं । कुबेरनाथ राय उसकी सांस्कृतिक डिबेट वाले पक्ष को मज़बूती से पकड़ते और तार्किक परिणति पर पहुँचा देते हैं ।


मानस - संस्कृत के कुछ श्लोक, लोक के कुछ छंद, ग्राम्य-स्मरण, कुछ निजी या आत्मीय प्रसंग, कुछ सरल उद्धरण और कुछ सरस उदाहरण के संग्रह-संयोजन को ललित निबंध का फ़ार्मूला बनाने के आरोप लगते रहे हैं, क्या इनके अलावा ललित निबंध रचा जा सकता है ?
शाह जी - फ़ार्मूला वाले आरोप में दम तो है, जिस आसानी से साथ जिस तरह ललित निबंध लिखे जाते रहे हैं, इन उपादानों के सहारे, उसे देखते हुए यह ग़लत नहीं है । ‘बगैर’ वाली बात अप्रासंगिक है । निबंध स्वयं इन उपादानों के साथ और बग़ैर भी खड़ा रह सकता है ।


मानस - ललित निबंध एक स्वतंत्र विधा है पर इसमें काव्य की विभिन्न विधाओं की उपस्थिति संभव है । यह ललित निबंध का सामर्थ्य है या भटकाव ?
शाह जी - इधर ललित निबंधों में कविता लगातार आ रही है । चाहे उदाहरण के बहाने या चाहे प्रासंगिक कारणों से । इससे ललित निबंध के गद्यगीत में तब्दील होने का संकट नहीं उत्पन्न होता ? फालतू कविताई – मात्र भावुकता के तहत कई बार दीखती है । वह भटकाव ही है – निबंध की अपनी ज़मीन नहीं । अब यूँ तो निबंध ‘लिरिक’ के समीप और समतुल्य भी हो सकती है । पर वह गद्यगीत न हो जाय ।


मानस - ललित निबंधों में विभिन्न विधाओं के समन्वय की सहमति के बाद भी गुलाबराय, दिनकर, विनोबा भावे, वियोगी हरि आदि के निबंध का जिक्र सामान्यतः क्यों नहीं होता ?
शाह जी - जिक्र होना चाहिए ।


मानस - ललित निबंधों के मूल विषयों में लोक भी है । फिर ललित निबंधकारों के यहाँ व्यंग्य को लेकर कोई परहेज भी नहीं, ऐसे में क्या लोक-यथार्थ को व्यंग्य विधा में अभिव्यक्त करने वाले य़था- परसाई, शरद जोशी आदि की रचनाओं को इस परिधि में नहीं समेटा जा सकता है ?
शाह जी - परसाई के निबंध शुरूआत में ललित निबंध ही थे – जैसे ‘सफेद बाल’ शीर्षक निबंध, उन्होंने ललित निबंध वाले दौर से लौटकर फिर से प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुंद गुप्त के निबंध का मेल कराया था । बाद में वे अलग से व्यंग्य नाम की विधा के लेखक बन गए । श्रीलाल शुक्ल ने भी इस तरह से निबंध लिखे हैं । व्यंग्य समूची रचना में रची-बसी एक वृत्ति है । व्यंग्य अपने आप में कोई विधा नहीं ।


मानस - ललित निबंधकार की सामान्य रचना प्रक्रिया पर आपकी टिप्पणी क्या होगी ? इसमें हिन्दी समाज, उसकी संस्कृति, उसकी विकृति या नित बदलती दुनिया की क्या भूमिका होती है ? क्या इस रचना प्रक्रिया को हम रमेशचन्द्र शाह (आपकी) की रचना प्रक्रिया मान सकते हैं, या आपकी रचना प्रक्रिया कुछ भिन्न है ?
शाह जी - चाहें तो मान सकते हैं । मानने के लिए आप मेरे निबंधों पर कैसा क्या लिखेंगे इससे आपकी विवेक-बुद्धि और रीझ-बुझ का पता चलेगा । सामान्यीकरण वास्तविक रस-दर्शन और रीझ-बूझ की जगह नहीं ले सकता । वैसे उपरी बात ग़लत नहीं है । वह मेरे नए निबंधों ‘हिंदी की दुनिया में’ के मूल्याँकन और समझ में सहायक हो सकती है । आप इस दृष्टि से उसकी विवेचना कर देखें । आपको स्वयं इस प्रश्न का सर्वोच्च उत्तर मिल जाएगा ।


मानस - ललित निबंधकारों की आज की पीढ़ी को कैसे मापना चाहेंगे ?
शाह जी - ख़ुद निबंधकार होते हुए इस बारे में कुछ कहना उचित न होगा । दुर्भाग्यवश आज की कविता के ही तर्ज पर नए ललित निबंधकार भी ‘परस्पर अहोध्वनिः’ वाले ही दीखते हैं । कोई स्वतंत्र विवेक और रीझ-बूझ के साथ इस विधा के प्रयोक्ताओं को किए-धरे की जाँचता-परखता नहीं । अग्रजों के साथ ही वैसा प्रेरक संबंध बन पाता है । सबको हड़बड़ी है अपने को जमाने की । कई लोग अच्छा लिख रहे हैं । पर लीक से हटकर काम बहुत कम है ।


मानस - ललित निबंधों में आत्मपरकता क्या नास्टेल्जिया नहीं है ?
शाह जी - इस प्रश्न का उत्तर दे चुका हूँ । आत्मपरक तो निबंध होगा ही । ... नहीं होते हैं जहाँ महज़ नास्टेल्जिया और आत्म-रति, आत्म-चर्चा प्रेरक होती है । अज्ञेय (बुद्धिचलन) को पढ़ा है ? उन्हें व्यक्ति कहके सबसे ज्यादा लांछित किया जाता रहा है उनके द्वारा जो अपने को बड़ा .... समझते हैं । .... है उल्टा, ये तथाकथित वस्तुबंदी ही हिंदी के सर्वाधिक राग-द्वेष प्रेरित सर्वाधिक आत्म-रति से सिकुड़े हुए लोग हैं ।


मानस - ललित निबंध पर आरोप है कि उसकी प्रकृति हिन्दूवादी है । प्रगतिशील (?) विविध जुमलों से खिल्ली उड़ाते हैं ? आप उन्हें कैसे निरुत्तर करना चाहेंगे ?
शाह जी - यह मूर्खतापूर्ण अनर्गल आरोप वही लगा सकते हैं जो आत्महीन, आत्मद्रोही और अंततः देशद्रोही हैं ।


मानस - ऐसे समय में जब उत्तरआधुनिकता के संजालों से सारे समाज के साथ पढ़ा-लिखा तबका भी निरंतर फँसता चला जा रहा है, उधर साहित्यिक कर्म के लिए चुनौतियाँ भी जटिलतम होती चली जा रही हैं, अल्पसंख्यक रचनाकारों की इस पवित्र विधा के भविष्य को लेकर क्या किया जा सकता है ?
शाह जी - अज्ञेय ने ‘आलोचक राष्ट्र के निर्माता’ की चुनौती सामने रखी थी 1945 में । वह चुनौती जहाँ की तहाँ है । उसका सम्मान और सत्कार करिए । ‘अल्पसंख्यक’ वाद के चक्कर में मत पड़िए । इसने वैसे ही हमारी राजनीति का सत्यानाश कर रक्खा है । कृपया साहित्य में इस तरह की शब्दावली से परहेज़ बरतिये ।

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