(संदर्भः बस्तर में नक्सलपंथियों के द्वारा टेंटतराई में घर जलाने की घटना )
दिनाँक - 7 मई, 2008
नक्सलवाद यानी नव-शोषकों का राजनीतिक लिप्सागत विध्वंस । नक्सलवाद यानी आत्महंताओं का व्यवसाय । उसका मूल-यथार्थ प्रजातंत्र की विफलताओं की शिनाख्तगी में कतई नहीं खुलता । अपने संपूर्ण अर्थों में वह विकास का नहीं, प्रजातंत्रिक कमियों की आड़ में प्रजा-विनाश का हथियार है । वह प्रजातंत्र की अड़चनों के बरक्स कथित वैकल्पिक व्यवस्था के लिए हिंसात्मक सोच मात्र है । आज के नक्सलवाद का सिर्फ़ यही मायने हो सकता है । कम से कम यह छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का सच तो है ही । नक्सलवाद के पक्ष में भले ही कुतर्कों के लाख पहाड़ खड़े कर दिये जायें, वे और उसके संकुल के पैरवीकार भले ही विश्व को समझाने के लाखों पाठ रच डालें, फिलहाल नक्सलवाद की संपुष्टि हिंसा और मानव अधिकार के संपूर्ण ध्वस्तीकरण में हो रही है । दंतेवाड़ा के टेटतराई गाँव में बीते दिन जो घटा है, उससे साबित हो गया है कि नक्सलवादियों का लक्ष्य टूटे, बिखरे, उखड़े और कराहते लोगों के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई नहीं केवल मूढ़ हिंसात्मक प्रतिशोध, अपने वर्चस्ववादी कुविचारों को मारकाट के बल पर सत्य साबित करना है । उनका एकमात्र लक्ष्य प्रजातंत्र के सुघड़ आवासों को मटियामेट करना है
।
पिछले दिनों ऐर्राबोर थाना क्षेत्र के टेटतराई गाँव में 150 वर्दीधारी क्षुब्ध नक्सली जा धमके । गनीमत कि ग्रामीण आदिवासियों को पहले घरों से बाहर हँकाला गया फिर उनमें आग लगा दी गई । देखते ही देखते 40 से अधिक घर स्वाहा हो गये । निर्दोष, निरीह और बूढ़े आदिवासी सजल आँखों से अपने आशियानों को धू-धू करके जलते देखते रहे । राहत कैंपों में रहते-रहते उन्हें अपने घर-कुरिया की याद जो खींच ले आयी थी । वे दो-चार दिन देखभाल कर सलवा जुडूम कैंप लौट जाने के लिए वहाँ पहुँचे थे । उन्हें क्या पता था कि नक्सली खौफ़ पैदा करने की दुष्कर्म-निरंतरता में वहाँ एकाएक आ धमकेंगे । वे न तो उनका प्रतिरोध कर सके, न विनती । करते भी कैसे ? नक्सलियों के कान जो नहीं होते । कभी गरीब, पीड़ित, आदिवासियों और शोषितों को आँखों का तारा कहने वाले नक्सली अब चक्षुविहीन जो हो चुके हैं । दरअसल वे हैं ही हृदयरहित । आदिम और धूल-धुसरित प्राचीन पत्थरों की मानिंद । फिर भी उनके बुदबुदाते होंठों से धन्यवाद ज्ञापन के शब्द ही फूटे - हे आँगादेव! आशियाने जल गये तो क्या हुआ, जान तो बच गई । अब इन बूढ़े आदिवासियों की आँखों में राख और सिर्फ राख की ढेरियों का एक दुःस्वपन ही शेष रह गया है जिसकी कचोट वे ताउम्र झेलते रहने विवश हैं । हाँ, जिन घरों के इर्द-गिर्द कभी आदिम जिंदगी खिलखिलाती थी अब वहाँ राख ही तो बिखरा पड़ा है जिसे बस्तर की हवायें चारों ओर उड़ा-उड़ाकर कलुषित मनुष्य का मुँह चिढ़ा रही हैं ।
वहाँ केवल घर ही नहीं जला । सरल आदिजनों का सरल-तरल मन भी जल गया । घर तो दूसरा भी गढ़ लिया जायेगा । पर पहले घर की बेशर्म दुष्स्मृतियाँ पीछा नहीं छोडेंगी अब कभी । उन्हें एक-एक कर याद आता रहेगा – नींव खोदते समय का आदिम गीत । वर्षा-शीत-घाम को झेलने वाले घास-फूँस को काट-छाँट कर जुटाने का श्रम । छप्पर-छाजन में हाथ बटाते बीबी-बच्चों के चेहरों पर लुढ़कते पसीने की चमकती बूँदें । कोने में कुलदेवता के ऊपर सजे हुए अक्षत और जंगली फूल । दीवालों पर सजीं धान-बालियों की झालरें । पूरखों की माखुर डिब्बी । चोंगी सुपचाने का चकमक पत्थर । इर्द-गिर्द दाना चुगती उन्मुक्त मुर्गियाँ । घर के पिछवाड़े में मेमनों की कुलाँचे । प्रियतम से पहली बार मिलने का अवसर देने और जीवन-भर साथ निभाने के संकल्पों का पाठ पढ़ाने वाला वह पवित्र ठौर घोटूल । क्या वे दीवार में तब्दील होते मिट्टी के प्रत्येक लोंदे पर अपनी हाथों के निशान को भुला सकेंगे? क्या वे घर रचने की आश्वस्ति का चरम उमंग भूला सकेंगें ? कुरिया का जलना एक संपूर्ण संसार का जल जाना भी है । कैसे कह दें कि उनका घर केवल जंगल, झाड़ी, नदी, पहाड़ ही थे ? कैसे कह दें कि उनका घर, घर के भीतर नहीं था, घर के द्वार से बाहर ही शुरू होती थी उनकी दुनिया । उनका घर सभ्य दुनिया की नज़रों में केवल घास-फूँस से निर्मित कुरिया था, पर वही उनका राजप्रासाद था । जहाँ वे अपनी प्राकृतिक सभ्यता को अंकुठ और निरंतर बनाये रखते थे ।
आज घर फूँकने की सुर्खियाँ सर्वत्र हैं । सुर्खियों में उनके मन जलने की बात गायब है । सरकारी विज्ञप्ति की तरह शुष्क और संवेदनाहीन । वैसे सरकारी कारिंदों का कथन है - टेटतराई में किसी प्रकार की जनहानि नहीं हुई । गोया जन-हानि ही समाचार हो । धन्य है अहमन्य तंत्र । चीज़ों को तदर्थ एवं राजनीतिक चश्मों में देखने की आदी दुनिया भी विमर्श में मशगूल है पर वहाँ स्वप्नों के उजाड़ पर भावनात्मक सोच एक सिरे से नदारद है । मानववादिता के नाम पर गुलछर्रे उड़ाने वाली संस्थाएँ, बुद्धिजीवी, विचारक किसी दूसरे मूर्गे की फ़िराक में हैं । बस्तर के निष्कलुष आदिवासियों पर नक्सली खौफ़ और शोषण को इशु बनाने के लिए कोई प्रेरक प्रायोजक भी तो नहीं उनके सम्मुख। उनके वोट के भरोसे सत्ता और सुख का स्वाद चखने वाले पहरुए फ़िलवक्त इस उधेड़बुन में हैं कि नये सिरे से उनके लिए मकान बनाने का सरकारी ठेका कैसे अपने कारिंदों को दिलाया जा सके । आख़िर संवेदनाहीन हितचिंतकों को कैसे प्रभावित कर सकता है यह खबर कि पहले घर के उजड़ने का घाव कोई नहीं भर सकता । न सरकारी अनुदान, न कैंप ।
उनके अपने भाई-बंधु भी मौन हैं । विवश हैं । प्रश्नाकुल हैं । आख़िर उनका दोष क्या था ? यही कि वे हितवर्धन के नाम पर उनके नव-शोषकों की हिंसा और आंतक से मुक्ति क्यों चाहते हैं। यही कि वे शोषकों के खिलाफ लामबंद आंदोलन के विश्वासी क्यों हैं । या फिर यही कि वे प्रजातांत्रिक व्यवस्था वाली असरकारी बहुमत का साथ क्योकर दे रहे हैं ? यानी उन्हें अपनी प्राणरक्षा का भी अधिकार नहीं । वे नक्सली और तथाकथित हितैषियों (किन्तु प्रजातंत्र की बाड़ों को तोड़ने की आदी हो चुकी उच्छृखल ताकतें) के द्वैध को समझ नहीं पा रहे हैं कि वे किस मुँह से उनके पक्ष(?) में न्याय की गुहार लगा रहे हैं कि आदिवासियों के हाथों हथियार नहीं दिया जाना चाहिए । अर्थात् अराजक नक्सली हथियार उठा सकते हैं उनके गुलाम नहीं । वे उन माध्यम-दोहकों की भंगिमा को भी भली-भाँति बाँच नहीं पा रहे हैं, जो नक्सली के एकाध बौद्धिक पक्षधरों की संदिग्धता की व्यवस्थागत पुष्टि के बावजूद भी हो-हल्ला मचाके विश्व भर में उसे मानवअधिकार का हनन घोषित करवा लेते हैं पर त्रस्त आदिवासियों के मन की थाह नहीं लगाना चाहते हैं । आख़िर नक्सली कैसे हितैषी हैं आदिवासियों के ?
आदिवासियों की अच्छी बसाहट की फ़्रिक्र किसे रही है ? आजादी के छः दशकों के परिदृश्य इसकी गवाहियाँ देती हैं कि उन्हें ऐसा ‘एकतरफा वोट-बैंक’ माना जाता रहा है जहाँ हर कोई नकदीकरण तो कर सके, किन्तु जिसके लिए कुछ भी ज़मा करने की कोई ज़रूरत न हो । इससे ज़्यादा कोई बखत हमने उन्हें दी है क्या ? सच तो यह भी है कि विकास गढ़ने वालों ने शुरू से ही उसके घर-द्वार के गद्य को दुरुस्त करने के लिए पश्चिमी सौंदर्यशास्त्रों का सहारा लिया । कभी यह पढ़ने की कोशिश नहीं की गई, कि उनकी भाषा में विकास के लिए व्याकरणिक पदबंध क्या-क्या हैं ? उनकी लंगोटियों की पैबंद की सौगंध खाने वाले सत्ता , जुड़े लोग और उनके हिस्सों पर पलने वाले असरकारी नौकरशाह यानी शक्तिसाली परजीवी सब पर यह जुर्म दर्ज ही है । आदिवासियों पर अब तक शासकीय मद से किया गया खर्च यदि जोड़ा जाय तो देश का हर आदिवासी करोड़पति को हो ही सकता था । पर ज़मीनी हक़ीकत उसके पास सिर्फ़ एक लंगोटी ही है । इतना ही नहीं दशकों से उनके नाम पर बड़ी-बड़ी दुकानें सजाने वाले गांधीवादी सामाजिक संगठन भी किसी प्रायवेट लिमिटेड की तरह निर्बाध फल-फूल रही हैं । बात सिर्फ़ इतनी होती तो चिंता नहीं थी । स्वयं उनके मध्य से उभरता नेतृत्व या तो पदलोलुप है या फिर वह जानबूझकर उस वर्ग को वहीं अटकाये रखना चाहता है ताकि उसे संविधानप्रदत्त विशेष सुविधाओं को हड़पने में किसी संवर्गीय चुनौतियों का सामना न करना पड़े । अपनी धवलता के बीच आरक्षण का कृष्णपक्षीय चरित्र ऐसी वास्तविकताओं को प्रमाणित करती हैं । इसे कौन झूठला सकता है कि आरक्षण सुविधा से रहित और समाज के सक्षम जातियों के मन में भी इनके प्रति स्थायी द्वेष पनपता रहा है । इनके मध्य उभरता नव संभ्रातवर्ग अभी भी अपनी जातीय अस्मिता के संपूर्ण रक्षार्थ सचेत नज़र नहीं आता जिसकी ओर अनुनय मुद्रा में आदिवासी समाज टुकुर-टुकुर निहार रहा है ।
2 comments:
मन जो
बेमन हो गया
खिन्न मन हो गया
सारी तरंग खो गया
फिर भी मन
मन ही रहा
मिल जुल मन
उसी मन को
मेरा सादर नमन.
- अविनाश वाचस्पति
सच है आदिवासी यदि सुदृढ़ हो गए तो समाजसेवी किसके सेवा करने के नम से अन जी ओ बनायेंगे
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