Wednesday, May 21, 2008

शहर में



यहाँ भी -
सूरज उगता है पर नगरनिगम के मलबे के ढेर से
चिड़िया गाती है पर मोबाईल के रिंगटोन्स में
घास की नोक पर थिरकता हुआ ओस भी दिखता है पर वीडियो क्लिप्स में
अल्पना से आँगन सजता है पर प्लास्टिक स्टीकरों वाली
थाली में परोसी जाती है चटनी, अचार पर आयातित बंद डिब्बों से
बड़े-बडे हाट भरते हैं पर कोई किसी को नहीं भेंटता
लोग-बाग मिलते हैं एक दूसरे से पर बात हाय-हैलो से आगे नहीं बढ़ती
चिट्ठियाँ खूब आती हैं पर ई-मेल में मन का रंग ढूँढे नही मिलता
खूब सजती हैं पंडालें पंडों की पर वहाँ राम नहीं होते
उठजाने की ख़बर सभी तक पहुँचाती हैं अखबारें पर काठी में कोई नहीं आता
इस पर भी शहर जाना चाहते हो जाओ
पर तुम्हें साफ-साफ पहचाना जा सके
जब भी लौट कर आओ

5 comments:

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही, बहुत सही!!!

डॉ .अनुराग said...

दिल की बात लिख दी आपने तो......

राजीव रंजन प्रसाद said...

इस पर भी शहर जाना चाहते हो जाओ
पर तुम्हें साफ-साफ पहचाना जा सके
जब भी लौट कर आओ

सच्चाई है मानस जी..

***राजीव रंजन प्रसाद

योगेन्द्र मौदगिल said...

bhai wah, kya baat hai. badhai bandhuwar.

MANNU LAL THAKUR said...

sach kaha shahar kya se kya ho gaye ,apne bhi begane lagne lagte hai