श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था - “लोक-संग्रहमेवापि संपश्यन् कर्त्तुमर्हसि ।”
(और कुछ नहीं जानते-मानते तो, कम से कम, लोक-संग्रह को ध्यान में रखते हुए- संपश्यन् – तुम्हें कर्म से नहीं भागना चाहिये । )
अंतरजाल(इंटरनेट) की रंग-बिरंगी दुनिया की सैर करते वक्त गीता की यह पंक्ति बार-बार सुनाई देती है । संवेदनाहीनता के इस भयानक दौर और हर क्षण अत्याधुनिकता के लिए लपलपाती जीव्हा वाले युग के बीच छटपटाते हुए मन में धुंधली ही सही पर कुछ किरनें विश्वास जगाती हैं कि मनुष्य चाहे कितना भी उत्तरआधुनिक हो जाये वह लोक के प्रति अपने नैतिक दायित्वों को संपूर्णतः नहीं टाल सकता है ।
इसे लोक-चेतना का तकाज़ा ही कहें कि वैश्वीकरण के तमाम दबाबों के बावजूद मनुष्य अपने पुरावैभव को भूला नहीं पाया है । वह क्यों कर भी भूलाये ! वह एकदम से नैतिकताशून्य हो नहीं सकता । शायद उसे यह भी पता है कि लोक-चेतना वेद-शास्त्रों से भी पुरानी है । इस भूमिका की ज़मीन पर खड़े होकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि वेबमीडिया यानी इंटरनेट की थाल पर सूचना तकनीक के नाम से जो भी परोसा जा रहा है वह मात्र कूड़ा-कर्कट नहीं है, उसे नीर-क्षीर विवेक के साथ देखने की गुंजायश है । उसे हम नागर और अति-नागर बोध की विकृति मान लेंगे तो शायद अन्याय होगा । वहाँ लोक की हरियाली भी यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है । कहीं पनघट पर पनिहारिनों की चुडियों की लय में लोकगीत की मद्धिम धून है तो कहीं चौपाल पर बुजुर्गवारों की बतकही के बीच-बीच में उभरती लोककथायें भी । कहीं शोख और चटक परिधानों में सजे-सँवरे ग्राम्यबालाओं को गिद्धा या करमा की नृत्यमुद्रा में भी आत्मविभोर होकर देख सकते हैं और कहीं उस कलाकार की जीवटता को भी जो निहायत अनुपयोगी चीजों को एक जीवंत रूप दे देता है । आइये आप भी जऱा सैर करलें :
वेबपोर्टल में समृद्ध लोक-रंग
भारतीय लोक की दुनिया अति समृद्ध रही है । सच तो यह है कि भारतीत जीवन जितना नागर रूप में है उतना ही लोक रूप में । यानी कि आधुनिकता और परंपरा से समन्वित जीवन शैली । सच यह भी है कि कोई भी देश या उस भू-भाग का कोई समाज केवल आधुनिक समय में नहीं जीता, उसमें लोक-परंपराओं की साँसे भी होती हैं । समृद्ध भारतीय लोक-रूपों का समृद्ध लोक-संग्रहण किया है - डिजटल सांस्कृतिक संपदा पुस्तकालय, इंदिरा गाँधी सेंटर कला एवं सस्कृति केंद्र ने । इन्होंने जाल स्थल का नाम रखा है- http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA । पारम्परिक साहित्य वर्ग में जातक की कहानियाँ सहित, हितोपदेश, पंचतंत्र, सिंहासन बत्तीसी जैसे अनिवार्य लोकसाहित्य का भंडार है । यहाँ मौखिक महाकाव्य, ब्रज-वैभव, वैदह वैभव - मिथिला- वैभव , और मगध का रसपान किया जा सकता है । वेब-पृष्ठ ‘ब्रज-वैभव’ अपने नामकरण को सच्चे अर्थों में चरितार्थ करता है । यहाँ आप ब्रज को जिस किसी कोण से जानना-पढ़ना चाहते हैं, मिल जायेगा । बस्स, आप शीर्षकों पर अपना माउस क्लिक करते जाइये । यह एक तरह से ब्रज पर केंद्रित एवं सारगर्भित विशालतम वेब-स्थल है । एक मायने में ब्रज का इनसायक्लोपीडिया । यहाँ ब्रज की झीलें, सरोवरें, कुंड, ताल, पोखर, बावड़ी, कूप से लेकर रास नृत्य, सूखे रंगों की चित्रकला, सांझी कला, कलाकृतियों में प्रस्तुत कथा दृश्य, भाषा, संगीत को संपूर्ण आत्मीयता के साथ संजोया गया है । संगीत ब्रज-संस्कृति का अविभाज्य अंग रहा है । भारतीय संगीत को ब्रज की देन के रूप में हम आज भी जिस तरह ध्रुवपद- धमार, वृंदगानी विद्या, ग्वारिया बाबा, हरिदासजी, वल्लभाचार्य, संगीत शिरोमणि सूरदास आदि को जिस तरह याद करते हैं वह हमारे लोक जीवन को उज्जवल और मन को शांति प्रदान करने में सर्वोपरि है । ब्रज वैभव अध्याय में ही राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी की महत्वपूर्ण लोक ग्रंथ धरती और बीज को समूची प्रतिष्ठित किया गया है जो नये ज़माने की तकनीक इंटरनेट के माध्यम से लोक साहित्य के वैश्वीकरण का ईमानदार प्रयास है । ज्ञातव्य हो कि यह कृति हजारों पृष्ठों की हैं एवं बहुमूल्य है । इसके अलावा बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास नामक पूरी किताब को भी रखा गया है जिसके लेखक है नर्मदा प्रसाद गुप्त । अन्य किताबों में बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास, परिव्राजक की डायरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी के पत्र, युगान्तर (अन्तरंग-वार्त्ता), अक्षर-अक्षर अमृत (अन्तरंग-वार्ता) भी लोक के बहाने पठनीय हैं । इस तरह से यहाँ हजारों पृष्ठ की लोक-सामग्री संग्रहित है ।
इतना ही नहीं यहाँ भारत के प्रतिष्ठित लोकविशेषज्ञों के शोधपूर्ण आलेख भी यहाँ हिंदी में समादृत हैं । इसमें 1. कला वह वस्तु है जो जीवन को परिपूर्ण बनाती है (अटल बिहारी बाजपेयी), 2. अतीत का अद्यतन अस्तित्व –मथुरा (वीरेन्द्र बंगरु) 3. ॠग्वेद में सामाजिक जीवन (विजय शंकर शुक्ल) 4. जनपद सम्पदा – (प्रोफेसर बैद्यनाथ सरस्वती) 5. राक पेंटिग पर केंद्रित शिलाओं पर कला (हिमानी पाण्डे) तथा ‘भारतीय परम्परा में भाषा संस्कृति एवं लोक की अवधारणा तथा उनका परस्पर अन्त:सम्बन्ध’ और ‘प्रक्रिया रूप में भाषा, संस्कृति और लोकः एक सतत् प्रक्रिया’ नामक महत्वपूर्ण लेख भी हैं जो लोकअध्येताओं के लिए किसी संदर्भ सामग्री से कम नहीं ।
छत्तीसगढ़ जैसे लोक प्रदेश को व्यापक रूप से समझने के लिए भी इसी वेब-स्थल का भ्रमण किया जा सकता है । यहाँ छत्तीसगढ़ का लोकगीत, लोकनृत्य, लोक कथाएँ, लोकगाथा, लोकोक्तियों (हाना), छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के पहलुओं के कलाकार, लोक आभूषण, लोक खेल, लोक- वाद्य लोक-संस्कृति से जुड़ी हुई गतिविधियाँ आदि सभी लोक अवयवों को समाहित किया गया है । यहाँ कुछ बातें खटकने वाली भी हैं । उदाहरण के लिए- दिल्ली की पढ़ी-लिखी एक महिला को, जो सामजिक संस्था चलाती है, छत्तीसगढी संस्कृति का विशेषज्ञ बताने का प्रकारांतर से किया गया प्रयास । इतना ही नहीं, लोकसंस्कृति के क्षेत्र में अज्ञात संस्था को प्रमुख लोक आयोजक बताया गया है । यह छत्तीसगढ़ी संस्कृति के मर्मज्ञों के लिए आपत्ति जनक भी हो सकती है फिर भी भारत सरकार और इंदिरा कला केंद्र को साधूवाद, जिसके कारण छत्तीसगढ़ जैसे नवोदित प्रदेश और उसके लोकवैभव को कम से कम इतना तवज्जो मिला है । अन्यथा राज्य के इस लोक-संपन्नता को विश्वव्यापी बनाने की दिशा में किये जा रहे वादे और घोषणायें के बल पर तो कुछ भी संभव न हो पाता । बहरहाल यहाँ नारी मनोविज्ञान की प्रिय कला गोदना पर भी सामग्री दी गयी है जो और कहीं देखने को नहीं मिलती । कुछ लोकगीतों को आडियो फार्मेट में रखा गया है । सुआ, पंडवानी, भरथरी जैसे लोकगीत को इंटरनेट पर देखकर कोई भी प्रवासी छत्तीसगढिया आनंदित हुए बिना नहीं रह सकता जो विश्व में इस जनपद की पहचान हैं । यहाँ छत्तीसगढ़ी साहित्य का भी विहंगावलोकन किया जा सकता है । जिसे वेब संपादक ने गाथा युग , भक्ति युग-मध्य काल, आधुनिक युग में बाँटकर प्रस्तुत किया है । यह बात अलग है कि छत्तीसगढ़ी साहित्य को बाँटने का क्या आधार है नहीं बताया गया है ।
इसी तरह मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तराचंल आदि प्रदेशों की लोक-संपन्नता का आंकलन इसी जाल-स्थल से संभव है । उत्तराचंल को ‘मेलों का अंचल ’ कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । शायद इस तथ्य का खयाल रखते हुए राज्य के सभी मेलों की विस्तृत और सम्यक जानकारी भी यहाँ रखी गयी है । इसमें राजस्थान में सूर्य प्रतिमाओं का रुपांकन , राजस्थानी गाथाओं में वेश-भूषा वर्णन व लोक विश्वास, कुमाऊँ की आलेखन परम्परा, कुमाऊँ हिमालय की पारम्परिक प्रौद्यौगिकी-पद्धतियाँ, मृतक-कर्म की रीतियाँ आलेख आदि अत्यंत रोचक और संग्रहणीय बन पड़ी हैं । राजस्थान की लोक संस्कृति को उसके जनपदों के आधार पर प्रतिष्ठित किया गया है जिसमें मेवाड़(उदयपुर),मारवाड़, झालावाड़,कोटा क्षेत्र, अलवर, भरतपुर आदि प्रमुख हैं । राजस्थानी चित्रकला के शोधार्थियों के लिए यह वेबपृष्ठ आँखों को चमक प्रदान कर सकती है । राजस्थानी चित्रकला की विशेषताएँ ,राजस्थानी चित्रकला का आरम्भ सहित मारवाड़ी शैली, किशनगढ़, बीकानेर, हाड़ौती शैली/बूंदी व कोटा, ढूंढ़ार / जयपुर, अलवर, आमेर, उणियारा, सहित डूंगरपूर, देवगढ़ उपशैली पर विशद् सामग्री यहाँ रखी गयी हैं । मेवाड़ और मारवाड़ समाज पर जितनी सामग्री है उसे देखकर कोई भी समाजशास्त्री अचम्भे में पड़ सकता है । इसी तरह मध्यप्रदेश के ग्वालियर के चितेरे एवं उनके बनाए भित्ति चित्र, ग्वालियर के अनुष्ठानिक भित्ति चित्र भी महत्वपूर्ण हैं जो पारंपरिक चित्रकलाओं की किसी ख़ास किताबों में भी कई बार नहीं दिखाई पड़ते ।
भारत सरकार को धन्यवाद देते हुए आइये ऐसे ही एक और व्यापक वेबपोर्टल की ओर जो केन्द्रीय सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार की इकाई सीडॉक (सेंटर फॉर डवलपमेंट आफ एडवांस कंप्यूटिंग) द्वारा एक अरब से भी अधिक बहुभाषी भारतवासियों को एक सूत्र में पिरोने और परस्पर समीप लाने में अहम् भूमिका के रूप में संचालित की जा रही है । विश्वप्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री गिजूभाई की दर्जनों लोककथाएँ आनलाइन पढ़ने और डाउनलोड करके अपने कंप्यूटर में स्थायी रूप से संजोकर रखने की ख़्वाईश इस वेबघर(mobilelibrary.cdacnoida.com/Books/KahaniKahunBhaiya.doc) में आकर की जा सकती है ।
संस्कृति मंत्रालय नई दिल्ली द्वारा संचालित राष्ट्रीय संग्रहालय में लोक का अद्भूत संग्रह है उसे (www.nationalmuseumindia.gov.in) नामक वेबसाइट में प्रचारित करने का प्रयास किया जा रहा है । यद्यपि राष्ट्रीय संग्रहालय में चित्रकला प्रभाग के अंतर्गत प्राचीनतम ज्ञात लघुचित्र, पूर्वी भारत में 10वीं और 12वी शताब्दियों में ताड़-पत्र के वृंतों पर बनाए गये थे, की व्यापक जानकारी मिलती है । पाण्डुलिपियाँ नामक प्रभाग में विभिन्न भाषाओं और लिपियों में लिखित लगभग 14,000 पांडुलिपियों का अर्जन किया गया है ये प्राचीन काल की इतिहास, साहित्य, सुलेखन कला, चिकित्सा शास्त्र, जीवनियों आदि से संबंधित हैं, जिसके बारे में भी यह वेबपृष्ठ बखान करता है । मुद्रा एवं अभिलेख एक तरह से सिक्कों का वेब पर राष्ट्रीय संग्रहालय जैसा है । यहाँ भारतीय सिक्कों का समूचा इतिहास (6वीं शताब्दी ई.पू. से 19वीं शती ई. का समापन काल)भी निर्देशित है । इसके अलावा आभूषण वीथिका, नृविज्ञान, अस्त्र-शस्त्र और कवच, सुसज्जा कलाएं आदि खंड़ों में भी लोक आधारित प्रचुर सामग्रियों कें संदर्भ हैं ।
‘लोक’ को चाहे विद्वान कितना भी जटिल मानते रहें और उत्तरआधुनिकवादी उसे अस्पृश्यभाव से देखते रहें, यह शब्द जब मस्तिष्क में घुलता है, सबसे पहले उसके अर्थ का जो रस मिलता है उसमें नानी-नाना की कहानी बरबस याद आने लगती हैं । हम लोककथा की दुनिया में पहुँच जाते हैं । ऐसे ही लोककथाओं की सुंदर-सी फुलवारी है चीन का जाल-स्थल- चाइना रेडियो इन्टरनेशनल का हिंदी सेवा (http://in.chinabroadcost.cn/) ।
यूँ तो यह चीन के समृद्ध लोक को प्रतिबिंबित करता हुआ वेबजाल है किन्तु यहाँ चीन की जितनी लोककथायें संजोयी गयी हैं उतनी संख्या में शायद ही किसी देश की लोककथाएँ अन्यत्र किसी वेबजाल पर होगीं । कम से कम हिंदी अनुवाद के रूप में तो यह बात सौ आने खरी उतरती है । यहाँ बाकायदा लोक कथाओं को कई भागों में बाँट कर रखी गयी हैं, इनमें कहावत से जुड़ी कथाएं, पौराणिक कथाएं, नीति कथाएं, दर्शनीय स्थलों से जुड़ी कथाएं, बुद्धि से जुड़ी कथाएं, सैनिक कहानी आदि विभेदों में अर्धशतक से अधिक लोककथायें संग्रहित है । इन कथाओं का बस आप बाँचते जाइये और देखिए आपका मन चीन के समृद्ध अतीत में कैसे विचरण करने लगता है । वही नदी, वही पर्वत, वही पशु-पक्षी वही लोग-बाग और उनसे जुडे मार्मिक और रोचक कथा संसार । कुछ लोककथायें तो वहाँ ऐसी है जिनमें पात्र का भारतीय नामकरण कर दें तो धीरे-धीरे हमारी अपनी लोककथायें स्मृति में उभरने लगती हैं । इससे पता चलता है कि भले ही चीन-भारत का वर्तमान सौहार्दपूर्ण न बन सके पर दोनों का अतीत मानवता के मूल्यों के मामले में कहीं न कहीं एक बराबर सोचते-विचारते थे ।
यह जाल स्थल उन्हें खास तौर पर अपने घेरे में ले सकता है जो चीन के लोक साहित्य के बारे में शोध करना चाहते हैं । प्राचीन काव्य में प्रतिभाशाली कवि सू शी , महाकवि तु फू , महाकवित ली पाई, चीन के थांग राजकाल की शानदार कविताएं , ग्रामीण जीवन पर लिखने में मशहूर महाकवि थो य्वान मिंग , छ्यु य्वान और उन की कविताएं , चीन का पहला काव्य ग्रंथ यहाँ बडे मजे से संग्रहित किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त नाटककार ली यू और मशहूर नाटककार क्वान हान छिंग का प्राचीन अपेरा साहित्य और फु सुंग लिंग और उन की भूत आत्माओं की कथाएं , पश्चिम की तीर्थयात्रा ,त्रिराज्य की कहानी, लाल भवन सपना जैसे प्राचीन उपन्यास और राजा कसार की जीवनी, चांगर तथा मनास जैसे महाकाव्य भी यहाँ पाठकों को लिये आनलाइन रखे गये हैं । चीन की लोककला, मूर्ति, काष्ठ, तंत्र-मंत्र केंद्रित नृत्यों पर भी रोचक जानकारी यहाँ सहेजी गयी हैं । चीन में परंपरागत कठपुतलियों की प्रदर्शन में छुएनचोउ की कठपुतलियाँ काफी मशहूर हैं और इस की इतिहास लगभग 2,000 वर्ष पुराना है। यहाँ पर कठपुतलियाँ मानव और भगवान के एक दूसरे से मिलते-जुलते रूप जैसी रही है। इस वजह से वे शुरु से ही स्थानीय लोगों के धार्मिक जीवन का एक अभिन्न अंग रही है।
मात्र इतना ही नहीं यहाँ चीन की समृद्ध चीनी परम्परागत खिलौड़ियों की कला, चीनी परम्परागत परिवारिक वास्तुओं की कला, सजावट की कला, वेशभूषा की कला, आदि की व्यापक और संदर्भ सामग्री बिखरी पड़ी है । जिन्हें परंपरागत चिकित्सा पद्धति, परंपरागत औषधियां और विशेषकर एक्यूपंक्चर का विशद् जानकारी हासिल करनी हो उनके लिए यह अपरिहार्य कोष सा है । इन में अल्पसंख्यक, तिब्बती, मंगोलियाई, वेवूर जाति, कोरियाई ज्वांग जाति, ह्वेई जाति और म्याऔ जाति की परंपरागत चिकित्सा पद्धति विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
विकिपीडिया(http://hi.wikipedia.org/wiki/) अंतरजाल पर सबसे बड़ा इनसायक्लोपीडिया है । यह विकि तकनीक पर आधारित एक खुली परियोजना है । यहाँ विश्व की कई भाषाओं में निरंतर विकसित हो रही है । हिंदी विकिपीडिया यद्यपि प्रांरभिक दौर में है । विकि तकनीक में पारंगत तथा कंप्यूटर व इंटरनेट कोई भी विशेषज्ञ उपयोगकर्ता हिंदी सहित कई भाषाओं में ज्ञान और जानकारी का आदान-प्रदान कर सकता है । ऐसे ही किसी जानकार और इंटरनेट पर हिंदी लोक को प्रतिष्ठित करने की ललक रखने वाले किसी लोकानुयायी ने महात्मा गांधी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल महात्मा गाँधी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल प्रभृति लोकविशेषज्ञों द्वारा लोकगीतों की टिप्पणियों का समाविष्ट करना शुरू किया है । आशा की जाती है यहाँ जल्द ही व्यापक पृष्ठ जुड़ सकेंगे । संस्कृत का लोकगीत सौंदर्य पर शास्त्री नित्यगोपाल कटारे (http://hindikonpal.blogspot.com/) कहते हैं-
वैभवं कामये न धनं कामये
केवलं कामिनी दर्शनं कामये ।
भारतीय जनपद में हिंदी की विभिन्न बोलियाँ प्रचलित हैं जिनमें अथाह लोकसाहित्य है इनमें से कुछ में अत्यंत महत्वपूर्ण साहित्य भी रचा जा रहा है। लोक साहित्य सहित शिष्ट साहित्य को विकिपीडिया में स्थापित करने का महती कार्य शुरू हो चुका है । यहाँ हिंदीतर प्रदेशों की हिंदी बोलियाँ यथा - बंबइया हिंदी कलकतिया हिंदी, दक्खिनी सहित विदेशों में बोली जाने वाली हिंदी बोलियां खासकर उजबेकिस्तान, मारिशस, फिजी, सूरीनाम, मध्यपूर्व, त्रीनीदाद और टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका में प्रचलित हिंदी प्रयोगों के परिप्रेक्ष्य में कार्य होने लगा है ।
- खडिया(www.kharia.org) हिन्दी और अंग्रेजी में एक साथ प्रकाशित भारत की पहली एवं एकमात्र वेबसाइट है । तेलंगा खडिया भाषा एवं संस्कृति केन्द्र प्यारा केरकेट्टा फाउन्डेशन की इकाई है जो झारखंड की देशज एवं आदिवासी संस्कृति तथा भाषाओं के संरक्षण व संवर्द्धन और विकास के लिये प्रयासरत है। सांस्कृतिक विरासत की रक्षा और सामाजिक पुनर्गठन का सवाल झारखंड के देशज लोगों की मूल चिन्ता है। ग्रेटर झारखंड की लगभग २ करोड देशज एवं आदिवासी आबादी १५ से अधिक भाषाओं क इस्तेमाल करती है। फाउन्डेशन ने भाषा और संस्कृति के सवाल को गंभीरता से लिया है तेजी से विनष्ट होती देशज भाषा संस्कृति के संरक्षण एवं विकास के लिये तेलंगा खडिया भाषा एवं संस्कृति केन्द्र की शुरुआत की है।, सातोःड पत्रिका यहाँ विशेष रूप से पठनीय है । किताबें और आडियों भी यहाँ उपलब्ध है । अखडा झारखंड़ी भाषा की त्रैमासिक पत्रिका है । पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं - वन्दना टेटे ।
भोजपत्र (http://www.bhojpatra.net) देवनागरी प्रयुक्त भारतीय भाषाऑं का एक वेब आधारित साहित्य संग्रह तन्त्र है। यह वेब आधारित विषय-वस्तु प्रबन्धन के लिये विकसित किया गया है इसे देवनागरी प्रयुक्त किसी भी भारतीय भाषाऑं के लिये क्रियान्वयन में लाया जा सकता है। भोजपत्र को भोजपुरी भाषा के लिये यहाँ प्रयोग किया गया है। जल्दी ही इसे हिन्दी के साहित्य संग्रह तन्त्र के रूप में भी क्रियान्वयित किया जाएगा । यह हिंदी के अलावा यह अंगरेज़ी और भोजपुरी भाषा में भी उपलब्ध है । यूनिकोड देवनागरी आधारित भोजपुरी विषय-वस्तु प्रबन्धन तन्त्र भोजपत्र पर गुणवत्ता परक गद्य व पद्य में लोकप्रिय पारम्परिक लोकोक्तियाँ, उपदेशपरक दोहा व चौपाई,विधा में रचना जमा किया जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में यह लोक केंद्रित लेखन से संबंद्ध लोगों, संगठन के लिए भी आकर्षण और प्रेरणास्पद है । काश, छत्तीसगढ़ी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने वालों भी समझ में आती कि ऐसे जाल स्थलों के द्वारा विश्व के छत्तीसगढी भाषियों को एक मंच पर जोड़ा जा सकता है ।
ख़जाना (www.khazana.com/et/) में भारत, इंडोनेशिया, नेपाल, थाइलैंड के लोककला की ढे़र सारी सामग्रियों का बेचने के लिए सजाया गया है । जिन्होंने गोपीचंद का इकतारा और मीरा का इकतारा जीवन में न देखा हो वे यहाँ चित्र ही देखकर बिना उसे अपने लिए सेव किये नहीं रह सकते हैं । कंपनी को साधूवाद दीजिए कि उसके लोक कलात्मक वस्तुओं का विस्तृत जानकारी भी यहाँ जुटा रखी है । और हाँ खरीदने के लिए जेब में क्रेडिट कार्ड हो तो क्या कहने । ऑनलाईन आदेश दिया और पैकट आपके घर के पते पर । ऐसा ही एक वेबजाल है – सालिनीक्रॉफ्ट जहाँ लोक कलात्मक चीजों का संग्रह है ।
हिंदी की पहली वेबसाइट होने के वाबजूद पोर्टल वेबदुनिया(www.webdunia.com) में लोक सामग्री के प्रति खास लगाव अभी तक नहीं झलक सका है । वहाँ साहित्य खंड के अंतर्गत ‘लोक-साहित्य’ के नाम पर कुल 12 सामग्री हैं- सुग्गा और अमृत फल (लोककथा- मिथिलेश्वर), घोड़िया बोली के लोकगीत (उत्तम एल. पटेल), बुंदेली वैवाहिक पंरपराएँ (आलेख- सुधा रावत), भारतीय लोक जीवन-दर्शनः सैद्धांतिकी की तलाश(आलेख- ब्रदीनारायण), स्वाधीनता आंदोलन में भीलों का योगदान (आलेख- रमेश चंद्र बडेरा), संथाली प्रेम गीत (अनुवाद- रमणिका गुप्ता), भाषा, लोक और काव्य (आलेख- शैलेन्द्र चौहान), हो जाति के लोक गीत (आलेख- डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद), आदिवासियों के लोकगीत (आलेख- आत्माराम जाधव) आदि।
यूँ तो प्रभासाक्षी, क्षितिज (उत्तरी अमेरिका की हिंदी पत्रिका), शब्दांजलि, भारत दर्शन(न्यूजीलैंड़), अभिव्यक्ति(यू.ए.ई.) सहित कई वेबपोर्टलों में कुछ न कुछ ऐसी सामग्री जरूर मिल जायेगी जिसे हम लोक-केंद्रित कह सकते हैं पर लोक पर आधारित ऐसी कोई पोर्टल अब तक हिंदी में नसीब नहीं हो सका है। पर सृजनगाथा में लोकआलोक स्तम्भ में नियमित स्तरीय सामग्री दी जा रही है जिसमें अनेक शोध पूर्ण लेखों के अलावा पद्मा सचदेव का आलेख सहित प्रसिद्ध लोकशास्त्री डॉ. श्यामसुंदर दुबे का साक्षात्कार आदि को भी महत्वपूर्ण मान सकते हैं । इतना ही नहीं इसमें नियमित रूप से छत्तीसगढ़ी सहित अन्य लोकभाषाओं की कविताएँ भी विश्व के पाठकों को उपलब्ध करायी जा रही है । बिलकुल हाल में ही छत्तीसगढ़ से पत्रकार सुनील कुमार ने अपनी “इतवारी अख़बार” (www.itwariakhbar.com)नामक साप्ताहिक पत्रिका का वेबजीन संस्करण भी प्रांरभ किया है । यहाँ लोककथाओं को भी स्थान दिया जा रहा है ।
भोजपुरिया डॉट कॉम का जिक्र करना यहाँ समीचीन होगा पूर्णतः लोकभाषा - भोजपुरी साहित्य, कला, गीत, संगीत, तीज-त्यौहार, परंपराओं के लिए चर्चित है । भोजपुरी के अनुयायियों की एक बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए वे भोजपुरी आधारित वेबसाइटों की संख्या बढ़ाने में समस्त भारतीय लोकभाषाओं को कब से पीछे छोड़ चुके हैं । वे जिस हालत में हैं, जिस देश हैं, लगातार अपनी मातृभाषा की समृद्धि के लिए कटिबद्ध नज़र आते हैं । इसी कटिबद्धता का परिणाम है- भोजपुरी.कॉम , अँजोरिया.कॉम , भोजपुरिआ.कॉम , लिट्टीचोखा.कॉम , भोजपत्र.नेट आदि वेबसाइट, जो देवनागरी लिपि में हैं ।भोजपुरिया.कॉम, भोजपुरीसिनेमा.कॉम, भोजपुरीशादी.कॉम, भोजपुरीफिल्म.कॉम, भोजपुरीदुनिया.कॉम, भोजपुरीफिल्मएवार्ड्स.कॉम, भोजपत्र.कॉम, भोजपुरिहा.कॉम, भोजपुरी.इन , भोजपुरिआ.इन , भोजपुरिआ.इन्फो, भोजपुरीवर्ल्ड.कॉम लिट्टी-चोखा.कॉम, भोजपुरीपत्रिका.कॉम , भोजपुरिहाफिलिम.कॉम , भोजपुरीसिनेमा.को.इन आदि रोमन लिपि में हैं । ये साइट उन प्रवासियों के लिए वही आस्वाद जगाती है जो देवनागरी लिपि में लिख-पढ़ नहीं सकते हैं
व्यक्तिगत प्रयासों की क्षीण रेखा
कंप्यूटिंग और इंटरनेट पर अंगरेज़ी भाषा की अनिवार्यता के छद्म प्रेरित सबसे बड़ी हानि है वेबजाल लेखन पर शहर-नगर निवासियों का ही आकर्षित हो पाना । फलतः दो-
चार जो भी हिंदी लेखन से जुड़े उन्होंने स्वयं को लोककथा तक ही सीमित कर लिया । निजी वेबजालों में एक भी ऐसा नहीं है जहाँ लोककथाओं के अलावा कोई सार्थक सामग्री हो । बहरहाल रचनाकार वेबतकनीक के चर्चित-पुरस्कृत विशेषज्ञ और तकनीक विषयों के लेखक रवि श्रीवास्तव का निजी ब्लॉग है जो पत्रिका के रूप में संचालित होता है । यहाँ भी लोककथाओं को बानगी के तौर पर रखा गया है । रतलाम के ही निवासी हितेंद्र सिंह ने अपने ब्लॉग (एचएसआनलाइन) में विभिन्न प्रांतों की लोककथाओं को संग्रहित करने का उद्यम शुरू किया है । फिलहाल तो यहाँ शिवसहाय चतुर्वेदी, लक्ष्मीनिवास बिडला, श्यामाचरण दुबे, चंद्रशेखर, और भगीरथ कानोडिया जैसे नामी लोगों की संग्रहित लोककथायें रखी जा सकी है जिसमें बुंदेलखंडी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवा की क्रमशः बुद्धि बड़ी या भैंस, चोर और राजा, भाग्य की बात, सवा मन कंचन, आदि लोककथायें प्रमुख हैं । संस्कृत का एक लोकगीत का जिक्र किये बिना रहा नहीं जाता । इसके लिए ब्लॉग हिंदीकोणपल (http://hindikonpal.blogspot.com) पर खंगालना पडेगा । उधर काव्यकला (http://kavyakala.blogspot.com/-) में भी दो लघुकथायें हैं ।
मासिक वागर्थ डॉट कॉम में भी दो-चार लोककथायें पढी जा सकती हैं किन्तु यह पत्रिका प्रिंट में ज्यादा लोकप्रिय है । इस साइट के साथ अड़चन है कि भारतीय भाषा परिषद कोलकाता के जमे-जमाये सांगठनिक ढाँचा के बावजूद यह नियमित नहीं नज़र नहीं आता । सृजन-सम्मान नामक छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक संस्था ने छत्तीसगढ़ी भाषा के एक संपूर्ण उपन्यास ‘पछतावा’ (http://sonijr.blogspot.com/2006/08/blog-post.html)
को आनलाईन स्थापित किया है । यह किसी भी भारतीय लोकभाषाओं में अंतरजाल पर स्थापित पहला उपन्यास है ।
अंगिका भारतवर्ष के अंग-देश की भाषा रही है । आज भी तीन राज्यों- बिहार (भागलपुर, मुंगेर, बाँका, लखीसराय, शेखपुरा, कटिहार, पुर्णिया, खगङिया, बेगूसराय, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, किसनगंज और सुपौल जिले ), झारखंड ( साहेबगंज, गोड्डा, दुमका, देवघर, पाकुङ, गिरीडीह और जमुई जिले ) और पश्चिम बंगाल ( मालदह जिला ) तथा नेपाल, कम्बोडिया, वियतनाम, मलेशिया और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के 5 करोड़ आबादी की मातृभाषा है जिसमें से 3 करोड़ सिर्फ भारत में ही रहते हैं । दुखद यह कि 5करोड़ मातृभाषियों की प्रतिनिधित्व करने वाली एकमात्र वेबसाइट है – अंगिका (http://www.angindia.com/)। इस वेब-साइट के पृष्ठ पटलों पर अंग और अंगिका के विभिन्न पहलुओं की विस्तार से चर्चा की गई है इसमें अंगिका लोक साहित्य के व्यापक संदर्भों के अलावा खेती-बारी, भैंसा संबंधी बातों को भी समोया गया है जो काफी रोचक और अनूठा बन पड़ा है ।
यह सिद्ध है कि वेबमीडिया में लोक की दुनिया लगातार समृद्ध होती जा रही है । मैं यह भी मानता हूँ कि संपूर्ण को खंगाल पाना दुष्कर-कार्य भी है अतः यह मात्र एक बानगी ही है । जो भी हो, इंटरनेट मीडिया में लोक से जुड़ी सभी विधाओं - गीत, संगीत, साहित्य- लोक गीत, गाथा, कहावत, हाना, मुहावरा, किवंदती, साक्षात्कार, लोकद्रव्य, लोकचित्र, फिल्म, आदि निरंतर प्रतिष्ठित होते जा रहे हैं । और वेबमीडिया में लोक की प्रतिष्ठा का प्रश्न लोकआश्रितों अर्थात् कलाकारों के रातों-रात हीरो बन जाने से भी जुड़ सकता है । शोध, अध्ययन, और लोक संरक्षण से इसका मतलब तो है ही । सबसे बड़ी बात कि वैश्वीकरण के लाख बुराईयों के बाद भी हिंदी का मन लोक विहीन नहीं हो सकता है । हिंदी जहाँ तक और जब बची रहेगी लोक की दुनिया भी जुगुर-जागर करती रहेगी ।
जयप्रकाश मानस
संपादक, सृजनगाथा डॉट कॉम
संपादक, सृजनगाथा डॉट कॉम
रायपुर, छत्तीसगढ़
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1 comment:
उम्दा, शोघपरक, जानकारी युक्त आलेख.
धन्यवाद.
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