Thursday, April 26, 2007

भारत में वेब पत्रकारिताः अतीत, आगत और अनंत




वेब- पत्रकारिता का आशय
वेब पत्रकारिता को हम इंटरनेट पत्रकारिता, ऑनलाइन पत्रकारिता, सायबर पत्रकारिता आदि नाम से जानते हैं । जैसा कि वेब पत्रकारिता नाम से स्पष्ट है यह कंप्यूटर और इंटरनेट के सहारे संचालित ऐसी पत्रकारिता है जिसकी पहुँच किसी एक पाठक, एक गाँव, एक प्रखंड, एक प्रदेश, एक देश तक नहीं बल्कि समूचा विश्व है और जो डिजिटल तंरगों के माध्यम से प्रदर्शित होती है । प्रिंट मीडिया से यह इस रूप में भी भिन्न है क्योंकि इसके पाठकों की संख्या को परिसीमित नहीं किया जा सकता । इसकी उपलब्धता भी सार्वत्रिक है । इसके लिए मात्र इंटरनेट और कंप्यूटर, लैपटाप, पॉमटाप या अब मोबाईल की ही जरूरत होती है । इंटरनेट के ऐसा माध्यम से वेब-मीडिया सर्वव्यापकता को भी चरितार्थ करती है जिसमें ख़बरें दिन के चौबीसों घंटे और हफ़्ते के सातों दिन उपलब्ध रहती हैं । वेब पत्रकारिता की सबसे खासियत है उसका वेब यानी तंरगों पर घर होना । अर्थात् इसमें उपलब्ध किसी दैनिक, साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिका को सुरक्षित रखने के लिए किसी किसी आलमीरा या लायब्रेरी की जरूरत नहीं होती । समाचार पत्रों और टेलिविज़न की तुलना में इंटरनेट पत्रकारिता की उम्र बहुत कम है लेकिन उसका विस्तार तेज़ी से हुआ है । वाले दिनों में इसका विस्तार बेतार पत्रकारिता यानी वायरलेस पत्रकारिता में होगा जिसकी पहल कुछ मोबाइल कंपनियों द्वारा शुरू भी की जा चुकी है । वेब मीडिया या ऑनलाइन जर्नलिज्म परंपरागत पत्रकारिता से इन अर्थों में भिन्न है उसका सारा कारोबार ऑनलाइन यानी रियल टाइम होता है । ऑनलाइन पत्रकारिता में समय की भारी बचत होती है क्योंकि इसमें समाचार या पाठ्य सामग्री निरंतर अपडेट होती रहती है । इसमें एक साथ टेलिग्राफ, टेलिविजन, टेलिटाइप और रेडियो आदि की तकनीकी दक्षता का उपयोग सम्भव होता है । आर्काइव में पुरानी चीजें यथा मुद्रण सामग्री, फिल्म, आडियो जमा होती रहती हैं जिसे जब कभी सुविधानुसार पढ़ा जा सकता है । ऑनलाइन पत्रकारिता में मल्टीमीडिया का प्रयोग होता है जिसमें, टैक्स्ट, ग्राफिक्स, ध्वनि, संगीत, गतिमान वीडियो, थ्री-डी एनीमेशन, रेडियो ब्रोडकास्टिंग, टीव्ही टेलीकास्टिंग प्रमुख हैं । और यह सब ऑनलाइन होता है, यहाँ तक कि पाठकीय प्रतिक्रिया भी । कहने का वेब मीडिया में मतलब प्रस्तुतिकरण और प्रतिक्रियात्मक गतिविधि एवं सब कुछ ऑनलाइन (एट ए टाइम) होता है । परंपरागत प्रिंट मीडिया एट ए टाइम संपूर्ण संदर्भ पाठकों को उपलब्ध नहीं करा सकता किन्तु ऑनलाइन पत्रकारिता में वह भी संभव है – मात्र एक हाइपरलिंक के द्वारा ।


इंटरनेट पत्रकारिता के टूल्स
वेब पत्रकारिता प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यम की पत्रकारिता से भिन्न है । वेब पत्रकारिता के लिए लेखन की समस्त दक्षता के साथ-साथ कंप्यूटर और इंटरनेट की बुनियादी ज्ञान के अलावा कुछ आवश्यक सॉफ्टवेयरों के संचालन में प्रवीणता भी आवश्यक होता है जैसेः-


1. प्रिंटिग एवं पब्लिशिंग टूल्स - पेजमेकर, क्वार्क एक्सप्रेस, एमएमऑफिस आदि ।
2. ग्राफिक टूल्स - कोरल ड्रा, एनिमेशन, फ्लैश, एडोब फोटोशॉप आदि ।
3. सामग्री प्रबंधन टूल्स – एचटीएमएल, फ्रंटपेज, ड्रीमवीवर, जूमला, द्रुपल, लेन्या, मेम्बू, प्लोन, सिल्वा, स्लेस, ब्लॉग, पोडकॉस्ट, यू ट्यूब आदि।
4. मल्टीमीडिया टूल्स- विंडो मीडिया प्लेयर, रियल प्लेयर, आदि ।
5. अन्य टूल्स- ई-मेलिंग, सर्च इंजन, आरएसएस फीड, विकि टेकनीक, मैसेन्जर, विडियो कांफ्रेसिंग, चेंटिंग, डिस्कशन फोरम ।


वेब पत्रकारिता में सामग्री
भारत के इंटरनेट समाचार पत्र मुख्यतः अपने मुद्रित संस्करणों की सामग्री यथा लिखित सामग्री और फोटो ही उपयोग लाते हैं । ये समाचार पत्र एक्सक्लूसिव समाचार और फीचर की तैयारी इंटरनेट संस्करण के लिए बहुधा नहीं किया करते हैं । ऑनलाइन संस्करणों में मुद्रित संस्करणों के सभी समाचार, फीचर एवं फोटोग्राफ भी उपयोग नहीं किये जा रहे हैं । लगभग 60 प्रतिशत समाचार और दर्जन भर फोटोग्राफ के साथ प्रतिदिन का इंटरनेट संस्करण क्रियाशील बनाये रखने की प्रवृति भी देखने को मिल रही है ।


ऑनलाइन समाचार पत्रों का ले आउट मुद्रित संस्करणों की तरह नहीं होता है जबकि मुद्रित संस्करणों की सामग्री 8 कॉलमों में होती हैं । ऑनलाइन पत्र की सामग्री कई रूपो में होती हैं । इसमें एक मुख्य पृष्ठ होता है जो कंप्यूटर के मॉनीटर में प्रदर्शित होता है जहाँ विविध खंडों में सामग्री के मुख्य शीर्षक हुआ करते हैं । इसके अलावा खास समाचारों और मुख्य विज्ञापनों को भी मुख्य पृष्ठ में रखा जाता है जिन्हें क्लिक करने पर उस समाचार, फोटो, फीचर, ध्वनि या दृश्य का लिंक किया हुआ पृष्ठ खुलता है और तब पाठक उसे विस्तृत रूप में पढ़, देख या सुन सकता है । समाचार सामग्री को वर्गीकृत करने वाले मुख्य शीर्षकों का समूह अधिकांशतः हर पृष्ठों में हुआ करते हैं । ये शीर्षक समाचारों की स्थानिकता, प्रकृति आदि के आधार पर हुआ करते हैं जैसे विश्व, देश, क्षेत्रीय, शहर । या फिर राजनीति, समाज, खेल, स्वास्थ्य, मनोरंजन, लोकरूचि, प्रौद्योगिकी आदि । ये सभी अन्य पृष्ठ या वेबसाइट से लिंक्ड रहते हैं । इस तरह से एक पाठक केवल अपनी इच्छानुसार ही संबंधित सामग्री का उपयोग कर सकता है । पाठक एक ई-मेल या संबंधित साइट में ही उपलब्ध प्रतिक्रिया देने की तकनीकी सुविधा का उपयोग कर सकता है । वांछित विज्ञापन के बारे में विस्तृत जानकारी भी पाठक उसी समय जान सकता है जबकि एक मुद्रित संस्करण में यह असंभव होता है । इस तरह से ऑनलाइन संस्करणों में ऑनलाइन शापिंग का भी रास्ता है । मुद्रित संस्करणों में पृष्ठों की संख्या नियत और सीमित हुआ करती है जबकि ऑनलाइन संस्करणों में लेखन सामग्री और ग्राफिक्स की सीमा नहीं हुआ करती । ऑनलाइन पत्रों की एक विशेषता है कि वहाँ उसके पाठकों की सख्या यानी रीड़रशीप उसी क्षण जानी जा सकती है ।


वेब-पत्रकारिता का सामान्य वर्गीकरण
इंटरनेट अब दूरस्थ पाठकों के लिए समाचार प्राप्ति का सबसे खास माध्यम बन चुका है । इधर इंटरनेट आधारित पत्र-पत्रिकाओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है । इसमें दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक सभी तरह की आवृत्तियों वाले समाचार पत्र और पत्रिकायें शामिल हैं । विषय वस्तु की दृष्टि से इन्हें हम समाचार प्रधान, शैक्षिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि केंद्रित मान सकते हैं । यद्यपि इंटरनेट पर ऑनलाइन सुविधा के कारण स्थानीयता का कोई मतलब नहीं रहा है किन्तु समाचारों की महत्ता और प्रांसगिकता के आधार पर वर्गीकरण करें तो ऑनलाइन पत्रकारिता को भी हम स्थानीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर देख सकते हैं । जैसे भोपाल की www. Com को स्थानीय, नई दुनिया डॉट कॉम, या दैनिक छत्तीसगढ़ डॉट कॉम को प्रादेशिक, नवभारत टाइम्स डॉट कॉम को राष्ट्रीय और बीबीसी डॉट कॉम, डॉट काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर की ऑनलाइन समाचार पत्र मान सकते हैं ।
ऑनलाइन पत्रकारिता को सामग्री के आधार पर हम 3 तरह से देख सकते हैः-


1. ऐसे समाचार जिनके प्रिंट संस्करण की आंशिक सामग्री ही ऑनलाइन हो । इस श्रेणी में हम नई दुनिया, दैनिक भास्कर, नवभारत, हिंदुस्तान टाइम्स आदि को रख सकते हैं ।


2. ऐसे समाचार पत्र जिनके प्रिंट और इंटरनेट संस्करण दोनों की सामग्रियों में काफी समान हो ।


3. ऐसे समाचार जिनका इंटरनेट संस्करण प्रिंट संस्करण से भिन्न हो । इसका उदाहरण टाइम्स ऑफ इंडिया है । इस समाचार पत्र के इंटरनेट संस्करण में पृथक समाचार होते हैं जो एक ई-पेपर के माध्यम से ऑनलाइन होता है ।


4. ऐसे पोर्टल या न्यूज साइट जो केवल इंटरनेट पर ही संचालित हैं । इनमें प्रभासाक्षी डॉट कॉम आदि को गिना सकते हैं ।

वेब-पत्रकारिता का आदिका
दुनिया जिस तरह से प्रौद्योगिकी केंद्रित होती जा रही है और जिस तरह से विश्वमानव का रूझान साफ झलक रहा है उसे देखकर कहा जा सकता है कि भविष्य में उसकी दिनचर्चा को कंप्यूटर और इंटरनेट जीवन-साथी की तरह संचालित करेंगे, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सूचना और संचार प्रिय दुनिया भविष्य में इंटरनेट आधारित पत्रकारिता पर अधिक निर्भर और विश्वास करेगी । पश्चिमी देश के परिदृश्य यही सिद्ध करते हैं जहाँ प्रिंट मीडिया का स्थान धीरे-धीरे इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ले लिया और अब वहाँ वेब-मीडिया या ऑनलाइन मीडिया का बोलबाला है । 1970 – 1980 के दशक में जब कंप्यूटर का व्यापक प्रयोग होने लगा तब समाचार पत्र के उत्पादन विधि में परिवर्तन आने लगा । तब यह किसे पता था कि यही कंप्यूटर एक दिन ऑनलाइन समाचार पत्र का जगह ले लेगा । 1980 में अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जनरल, डाव जोन्स ने अपने-अपने प्रिंट संस्करणों के साथ-साथ समाचारों का ऑनलाइन डेटाबेस रखना भी प्रारंभ किया । वेब-पत्रकारिता या ऑनलाइन पत्रकारिता को तब और गति मिली जब 1981 में टेंडी द्वारा लैटटाप कंप्यूटर का विकास हुआ । इससे किसी एक जगह से ही समाचार संपादन, प्रेषण करने की समस्या जाती रही ।


ऑनलाइन समाचार पत्रों के प्रचलन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया 1983 में जब अमेरिका के Knight-Ridder newspaper group ने AT&T के साथ मिलकर लोगों की माँग पर प्रायोगिक तौर पर उनके कंप्यूटर और टेलिविजन पर समाचार उपलब्ध कराने लगे । 90 के दशक आते-आते संवाददाता कंप्यूटर, मोडेम, इंटरनेट या सैटेलाइट का प्रयोग कर विश्व से कहीं भी तत्क्षण समाचार भेजने और प्रकाशित करने में सक्षम हो गये । 1998 में विश्व के लगभग 50 मिलियन लोग 40,000 नेटवर्क के माध्यम प्रतिदिन इंटरनेट का उपयोग किया करते थे । उनमें एक बड़ी संख्या में लोग समाचार, समाचार पत्र, समाचार एजेंसी और पत्रिकाएं विश्व को जानने समझने के लिए इंटरनेट पर तलाशते थे । एकमात्र अमेरिका की टाइम मैग्जीन ही ऐसी थी जिसने 1994 में इंटरनेट पर पैर रखा । उसके बाद 450 पत्रिकाओं और समाचार पत्र प्रकाशनों ने इंटरनेट में स्वयं को प्रतिष्ठित किया । तब भी इंटरनेट पर कोई समाचार एंजेसी कार्यरत नहीं थी किन्तु एक अनुमान के अनुसार दिसम्बर 1998 के अंत तक 4700 मुद्रित समाचार पत्र इंटरनेट पर थे ।


भारत में वेब-पत्रकारिता का विकास
जहाँ तक भारत में वेब-पत्रकारिता का सवाल है उसे मात्र 10 वर्ष हुए हैं । ये 10 वर्ष कहने भर को है दरअसल भारती की वेब-पत्रकारिता अभी शिशु अवस्था में है और इसके पीछे दरअसल भारत इंटरनेट की उपलब्धता, तकनीकी ज्ञान और रूझान का अभाव, अंगरेज़ी की अनिवार्यता, नेट संस्करणों के प्रति पाठकों में संस्कार और रूचि का विकसित न होना तथा आम पाठकों की क्रय शक्ति भी है । भारत में इंटरनेट की सुविधा 1990 के मध्य में मिलने लगी । भारत में वेब-पत्रकारिता के चैन्नई का ‘द हिन्दू’ पहला भारतीय अख़बार है जिसका इंटरनेट संस्करण 1995 को जारी हुआ । इसके तीन साल के भीतर अर्थात् 1998 तक लगभग 48 समाचार पत्र ऑनलाइन हो चुके थे । ये समाचार पत्र केवल अंगरेज़ी में नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषा जैसे हिंदी, मराठी, मलयालम, तमिल, गुजराती भाषा में थे । इस अनुक्रम में ब्लिट्ज, इंडिया टूडे, आउटलुक और द वीक भी इंटरनेट पर ऑनलाइन हो चुकी थीं । ऑनलाइन भारतीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की पाठकीयता भारत से कहीं अधिक अमेरिका सहित अन्य देशों में है जहाँ भारतीय मूल के प्रवासी लोग रहते हैं या अस्थायी तौर पर रोजगार में संलग्न हैं ।


एक शोध के अनुसार (किरण ठाकुर, पुणे विश्वविद्यालय के रिसर्च पेपर ‘भारत में इंटरनेट पत्रकारिता’ के अनुसार) दिसम्बर 1997 तक कुल पंजीकृत 4719 समाचार पत्रों के 1 प्रतिशत से कम ऑनलाइन भी हो चुके थे । भाषागत आधार पर ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाओं की संख्या इस प्रकार थी –
भाषा वार कुल पंजीकृत और ऑनलाइन पत्रों की संख्या का विवरण


01. अंगरेज़ी - 338 -19

02 हिंदी -2118 - 05

03. मलयालम -209 - 05

04. गुजराती -99 - 04

05. बंगाली -93 - 03

06. कन्नड - 279 - 03

07. तेलुगु - 126 - 03

08 ऊर्दू -495 - 02

09. मराठी -283 - 01


इसका मतलब है कि शुरूआती दौर में अन्य भाषाओं यथा असमिया, मणिपुरी, पंजाबी, उडिया, संस्कृत, सिन्धी आदि भाषा के कोई भी ऑनलाइन संस्करण नहीं थे । आकाशवाणी ने 2 मई 1996 को ऑनलाइन सूचना सेवा का अपना प्रायोगिक संस्करण को अंतरजाल पर उतारा था । अब 2006 के अतिंम दिनों में हम देखते हैं कि देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं टिलीविजन चैनलों के पास उनका अपना अंतरजाल संस्करण भी हैं जिसके माध्यम से वे पाठकों को ऑनलाइन समाचार उपलब्ध करा रहे हैं । एक उपलब्ध आंकडा के अनुसार वर्तमान में 14 ई-जीन, 85 न्यूज पेपर, 73 ऑनलाइन न्यूज, 92 पत्रिकाएं, 9 जनरल, 10 टीव्ही न्यूज एवं 8 न्यूज एजेंसी इंटरनेट पर सक्रिय हैं ।


यदि हम हिंदी भाषा पर केंद्रित हो कर सोचें तो ऑनलाइन पत्र और पत्रकारिता की स्थिति दयनीय दिख सकती है और इस दयनीयता की जड़ में हिंदी आधारित इंटरनेट और वेब तकनीक ज्ञान, तंत्र व शिक्षा का विलम्ब से विकास रहा है ।



- हिंदी की ऑनलाइन पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य –



नेट पर हिंदी अखबार
नई सूचना प्रौद्योगिकी और वेब तकनीक को देश के बड़े अखबार वालों ने जल्दी अपनाया। आज हम देश-विदेश की कई हिंदी दैनिकों को घर बैठे पढ़ सकते हैं। इनमें
अमर उजाला, अमेरिका की आवाज़ (वायस औफ़ अमेरिका) आगरा न्यूज़ , आज, आज तक , इरान समाचार, उत्तराँचल टाइम्स, एक्सप्रेस न्यूज़, ख़ास ख़बर, जन समाचार(भारतीय व भारतीय ग्रामीण मुद्दों से सम्बन्धित समाचार पत्र), डियूश वेल्ल (जर्मन रेडियो द्वारा प्रसारित हिन्दी कार्यक्रम) पाञ्चजन्य, इंडिया टुडे, डेली हिन्दी मिलाप, द गुजरात, दैनिक जागरण , दैनिक जागरण ई-पेपर , दैनिक भास्कर , नई दुनिया - नव भारत अखबार, नवभारत टाइम्स, पंजाब केसरी, प्रभा साक्षी, प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, राष्ट्रीय सहारा, रेडियो चाइना ऑन्लाइन, लोकतेज, ताप्तिलोक, प्रभासाक्षी, लोकवार्ता समाचार, विजय द्वार, वेबदुनिया, समाचार ब्यूरो, सरस्वती पत्र (कनाडा का हिन्दी समाचार)सहारा समय, सिफ़ी हिन्दी, सुमनसा ( कई स्रोतों से एकत्रित हिन्दी समाचारों के शीर्षक) हरिभूमि , ग्वालियर टाइम्स, दैनिक मध्यराज, राजमंगल आदि प्रमुख हैं । इस सूची में समाचार एजेंसियों को भी समादृत किया जा सकता है जिनमें प्रमुख है - यूनीवार्ता, पीटीआई भाषा,ई ऍम ऍस इण्डिया (समाचारपत्रों को बहुभाषीय समाचार सेवा प्रदान करने वाला स्थल), आरएनआई (छत्तीसगढ़ से सचांलित समाचार सेवा) आदि ।

विश्व की प्रमुखतम आईटी कंपनियाँ भी भाषाई महत्ता के अर्थशास्त्र को भाँपते हुए अब लगातार हिंदी में समाचार पोर्टल का संचालन करने लगे हैं जैसे -
याहू, गूगल हिंदी, एमएसएन, रीडिफ़.कॉम, आदि ।

जहाँ तक सरकारी समाचार पोर्टल का प्रश्न है उसमें लगभग हिंदी भाषी राज्य सरकारों का एक-एक समाचार केंद्रित साइट संचालित हो रहा है । शासकीय विज्ञप्तियों, योजनाओं, समाचारों वाले इन साइटों का उपयोग भी संदर्भ की तरह किया जाने लगा है । इसमें नवोदित राज्य छत्तीसगढ, उत्तराखंड़, झारखंड भी सम्मिलित हो चुके हैं । यहाँ उन ऑनलाइन समाचार पत्रों जाल स्थलों को जिक्र भी समीचीन होगा जो केंद्र शासन के विभिन्न उपक्रमों द्वारा संचालित हैं । इस रूप में ऑल इंडिया रेडियो की वेबसाइट
समाचार भारती, व ऑल इंडिया रेडियो, पत्र सूचना कार्यालय, डी.डी.न्यूजविदेश मंत्रालय के साइट को देख सकते हैं ।
हिंदी के ये ऑनलाइन समाचार पत्र केवल भारतीय महाद्वीप से ही संचालित नहीं होते बल्कि विदेशी ज़मीन से भी ये भारत, भारतवंशियों तथा वैश्विक समचारों से लगातार समूची दुनिया को अपडेट बनाये रखे हुए हैं । इस श्रेणी में प्रमुखतम वेब पोर्टल हैं – लंदन की
बी.बी.सी. हिन्दी खबरें

ब्लॉग और ऑनलाइन पत्रकारिता की नई दिशा
इंटरनेट पर ब्लॉग तकनीक के विकास और हिंदी भाषा में काम करने सुविधा से ऑनलाइन पत्रकारिता के नये द्वार खुलते दिखाई दे रहे हैं । अभी उसका स्वरूप निजी लेखन तक सीमित है । यूँ तो ब्लॉग निजी लेखन (अच्छाईयों और बुराईयाँ के साथ भी) का साधन है तथापि जिस तरह से वहाँ पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तित्वों और उसके आकांक्षियों का आगमन हो रहा है, एक शुभ संकेत है । हिंदी अंतरजाल को खंगालने से यह बात उभर कर आ रही है कि ब्लॉग स्वतंत्र पत्रकारिता का भी मंच और माध्यम हो सकता है । अंग्रेजी ब्लॉग का इतिहास बताता है कि उस भाषा के महत्वपूर्ण पत्रकार व्यक्तिगत (और सामूहिक तौर पर) पत्रकारिता के लिए ब्लॉग की ओर लगातार उन्मुख होते गये हैं, जा रहे हैं । एक तरह से हिंदी ब्लॉग वैकल्पिक पत्रकारिता का भी जरिया हो सकता है । हिंदी इंटरनेटिंग की दुनिया में इसके चिह्न दिखाई देने लगे हैं । इस संदर्भ में मध्यप्रदेश के उन दो पत्रकारों का प्रयास स्तुत्य है जो 2005 से राजपुत इंडिया (
http://rajputaindia.spaces.live.com/)और चंबल की आवाज (http://chambal.spaces.live.com/) नामक समाचार पत्र (आंचलिक) नियमित प्रकाशित कर रहे हैं । इस संभावना को नहीं नकारा जा सकता कि भविष्य में सामुहिक बोध वाले पत्रकार इस सस्ती और विश्वसनीय तकनीक का फायदा उठाकर ऑनलाइन पत्रकारिता का सशक्त माध्यम अवश्य बनाना चाहेंगे। खास तौर पर यह इंटरनेट पर आंचलिक पत्रकारिता का कारगर दिव्य और रोचक प्रकल्प हो सकता है । (देखिए लेखक का शोध आलेख – वेब-पत्रकारिता, ब्लॉग और पत्रकार)


ई-मेल केवल औपचारिक पत्र प्रेषण का माध्यम नहीं हैं, वेबसाइट पर उपलब्ध समूह अनौपचारिक चर्चा-परिचर्चा का साधन नहीं, इन दोनों का योग नियमित समाचार प्रेषण या सीमित पत्रकारिता का भी साधन है। इस तकनीक युग्म से (भले ही सीमित क्षेत्र और संख्या में) सूचनात्मक पत्रकारिता का रोचक अनुप्रयोग भी होने लगा है । लगे हाथ मैं उदाहरण स्वरूप उस समूह का जिक्र करना चाहता हूँ जिसमें 97 लोग आपस में समाचारों के आदान-प्रदान के लिए सक्रिय हैं । गुगल समूह में पंजीकृत इस दल में अधिकांशतः ग्वालियर संभाग (मध्यप्रदेश) से जुड़े समाचार संप्रेषित होते हैं ।


हिन्दी दुनिया की तीसरी सर्वाधिक बोली-समझी जाने वाली भाषा है। विश्व में लगभग 80 करोड़ लोग हिन्दी समझते हैं, 50 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं और लगभग 35 करोड़ लोग हिन्दी लिख सकते हैं। उसके हिसाब से हिंदी में पत्रकारितोन्मुख ऑनलाइन पत्र-पत्रिकाओं की संख्या अत्यल्प है । इस तरह से वर्तमान में अंगरेज़ी की प्रभूता के कारण हिंदी में ऑनलाइन पत्रकारिता शिशु अवस्था पर है आने वाले दिनों में वेब पत्रकारिता में अंग्रेज़ी का प्रभुत्व बहुत दिन नहीं रहने वाला है । क्षेत्रीय और स्थानीय भाषा में बन रहे वेब पोर्टलों और वेबसाइटों का प्रभाव बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है और इनका भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है ।


पारंपरिक मीडिया और ऑनलाइन पत्रकारिता के बीच की दूरियाँ अब ज्यादा दिन नहीं रहने वाली हैं । डायनामिक फोंट के कारण अब किसी भी ऑनलाइन हिंदी समाचार पत्र को किसी भी कंप्यूटर से पढ़ा जा सकता है । इसके अलावा युनिकोड़ की उपलब्धता से फोंट की समस्या का हल एक तरह से निकाला जा चुका है ।


छत्तीसगढ़ और सायबर पत्रकारिता
छत्तीसगढ़ पत्रकारिता की आदि-भूमि की तरह प्रतिबिंबित होता रहा है । यह वही धरती है जहाँ आज से ----- वर्ष पहले माधवराव सप्रे ने पेंड्रा जैसी छोटी-सी जगह से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ नामक अखबार की शुरूआत की थी । वह भी आधुनिक सुविधाओं के अभाव के बीच ट्रेडल मशीन के ज़माने में । कहने को छत्तीसगढ़ से भी प्रकाशित नवभारत, दैनिक भास्कर, और हरिभूमि जैसे बहुमान्य एवं बड़े अखबारों के अंतरजाल संस्करण काफी पहले से थे पर न वे समग्र थे, न उन्हें इंटरनेट पर अधिक पाठक पढ़ते-बांचते थे । इसके पीछे फोंट डाउनलोड़ करने की समस्या और शहरों-कस्बों में इंटरनेट की सुविधा का अभाव भी रहा है । वैसे नेट संस्करण वाले ये अखबार अब भी प्रतिदिन के कुछ ही समाचार(प्रिंट संस्करण में से) पाठकों को उपलब्ध कराते हैं । नेट संस्करणों की लोकप्रियता में वृद्धि नहीं होने में इनका अद्यतन नहीं रहना भी हो सकता है । यद्यपि ऑनलाइन पत्रकारिता में स्थान या भूगोल का कोई महत्व नहीं है तथापि इन्हें राज्य की ऑनलाइन पत्रकारिता में शुमार इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि अन्यत्र से संचालित और नियंत्रित होते रहे हैं । इसी तरह एक साप्ताहिक अखबार डिसेन्ट भी अनियमित रूप से अतंरजाल पर दिखाई देती है जो राज्य का पहला ऑनलाइन समाचार पत्र है । छत्तीसगढ़ में नियमित रूप से वेब-पत्रकारिता का प्रारंभ यदि हम सृजन-सम्मान संस्था की सृजन-गाथा नामक मासिक पत्र से माने तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, जो मई 2007 में पहला जन्म दिवस मनाने जा रही है और जिसके अभियान से छत्तीसगढ़ की 20 से अधिक महत्वपूर्ण कृतियाँ भी अब ऑनलाइन हैं । यद्यपि यह पूर्णतः साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पत्र है तथापि वह अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिए विश्व के कई देशों में जानी पहचानी जाने लगी है । अब छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाले दो अख़बार देशबन्धु और छत्तीसगढ़ (इतवारी अखबार सहित) भी आनलाइन हो चुके हैं, वैसे छत्तीसगढ़ के इन अखबारों को बाँचने के लिए कंप्यूटर में एक्रोब्रेट रीडर होना जरूरी है क्योंकि यहाँ पठनीय सामग्री पीडीएफ में रखी जाती हैं । इसके पहले समाचार एंजेसी राष्ट्रीय न्यूज सर्विस(www.rnsindia.org) ने भी अपना ऑनलाइन कारोबार छत्तीसगढ से प्रारंभ कर दिया है जो घर-बैठे छत्तीसगढ़ सहित देश-विदेश के समाचार सदस्यता शुल्क के साथ उपलब्ध करा रहा है । यहाँ इसी क्रम में सुश्री भूमिका द्विवेदी द्वारा संपादित मीडिया विमर्श(www.mediavimarsh.com) नामक वेबसाइट का उल्लेख करना जरूरी है जो पत्रकारिता के अंदरूनी पहलुओं गंभीर विमर्श करने वाली समूची दुनिया के लिए अंतरजाल पर एकमात्र हिंदी वेबजीन के रूप में समादृत होने लगी है । वैसे तो राज्य के एकमात्र पत्रकारिता विश्वविद्यालय के जाल स्थल में प्रतीकात्मक रूप से कुछ निजी गतिविधियों को भी दिखाया जा रहा है तथापि भविष्य में ऐसे महत्वपूर्ण संस्थान की अनुप्रेरणा से (भले ही अकादमिक रूप से ) प्रयोगात्मक समाचार साइट की अपेक्षा शायद वेब पत्रकारिता को कैरियर बनाने का सपना संजोने वाली भावी पीढ़ी कर रही होगी ।


ऑनलाइन पत्रकारिता में क्रियाशील पत्रकार
अब देश के बड़े-बड़े पत्रकार प्रिंट माध्यम के साथ-साथ वेब-मीडिया में भी सक्रिय होते नज़र आने लगे हैं इनमें प्रसिध्द लेखक-पत्रकार खुशवंत सिंह, मशहूर संपादक व मानवाधिकारवादी कुलदीप नायर, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण नेहरू, पूर्व सांसद व संपादक दीनानाथ मिश्र आदि को गिना सकते हैं जो प्रभासाक्षी में नियमित रूप से कॉलम लिखते हैं । विख्यात हिंदी कार्टूनिस्ट काक भी सतत् रूप से नज़र आते है । इधर जाने माने पत्रकार व नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव भी सृजनगाथा डॉट कॉम (जो रायपुर से प्रकाशित होती है) पर नियमित स्तंभ लिखने जा रहे हैं । इस सूची में मुंबई के प्रोफेशनल्स कमल शर्मा से नवोदित राज्य के जागरूक संपादक संजय द्विवेदी को भी जुड़ते देखा जा सकता है । जाने माने दक्षिणपंथी गोविन्दाचार्य जैसे विचारक भी इस मीडिया के प्रभाव से मुक्त नहीं है शायद यही कारण है कि मूल्य आधारित पत्रकारिता के लिए कटिबद्ध उनकी चर्चित पत्रिका भारतीय पक्ष (
www.bhartiyapaksha.com) भी पूर्णतः ऑनलाइन पत्रिका बन चुकी है । इतना ही नहीं उसी गोत्र की अन्य महत्वपूर्ण पत्रिकाएं यथा – लोकमंच से संबंद्ध पत्रकार – अभिताभ त्रिपाठी, शशिसिंह भी स्वयं को निरतंर ऑनलाइन उपस्थित किये हुए हैं । इधर छत्तीसगढ़ के पत्रकार एवं व्यंग्यकार गिरीश पंकज ‘बेताल कथा’ स्तम्भ के माध्यम से लगातार हस्तक्षेप कर रहे हैं । इसी क्रम में संजय द्विवेदी का कॉलम ‘मीडिया विमर्श’ भी काबिल-ए-तारीफ़ बनता जा रहा है । प्रख्यात पत्रकार ओम थानवी की लेखनी भी कल्पना नामक एक साइट में लगातार देखने को मिल रही है यह बात अलग है कि उनकी सक्रियता वेब मीडिया में उतनी नहीं है जितनी की प्रिंट मीडिया में । सुदूर एशिया से जीतेन्द्र चौधरी ऑनलाइन पत्रकारिता की लौ लगातार बनाये हुए हैं अपने ब्लॉग – मेरा पन्ना – नाम से । बालेन्दु शर्मा दधीच ऑनलाइन मीडिया और तकनालाजी के क्षेत्र का जाने-माने हस्ताक्षर हैं जिन्हें प्रभासाक्षी के अलावा वाह मीडिया नामक निजी ब्लॉग में सतत् सक्रिय और मार्गदर्शक रूप में देखा जा सकता है । यह समय की माँग और हिंदी को वैश्विक बनाने की स्वस्थ प्रतियोगिता दबाब ही है जो ऑनलाइन साहित्यिक पत्रकारिता भी अपनी पहचान बनाने लगी है । इस परिप्रेक्ष्य में हम राजेन्द्र अवस्थी, रवीन्द्र कालिया जैसे ख्यातनाम संपादकों को भी शुमार कर सकते हैं जो क्रमशः हंस एवं ज्ञानोदय (एवं सहकारी ब्लॉग लेखन भी) के ऑनलाइन संस्करण में समूचे विश्व में पढ़े जा रहे हैं । यहाँ हम उन पत्रकारों का उल्लेख स्थानाभाव के कारण नहीं कर पा रहे हैं जो किसी न किसी ऐसे ऑनलाइन समाचार पत्र से संबंद्ध है जिसका अपना प्रिंट संस्करण भी बाजार में ज्यादा कारगर रूप में उपलब्ध है ।


युनिकोड़ ने बदला वेब-मीडिया का परिदृश्य
वेब मीडिया की लोकप्रियता-ग्राफ में गुणात्मक वृद्धि नहीं होने के पीछे अन्य कारणों के साथ फोंट की समस्य़ा भी रही है । शुरूआती दौर में इन अखबारों को पढ़ने के लिए यद्यपि हिंदी के पाठकों को अलग-अलग फ़ॉन्ट की आवश्यकता होती थी जिसे संबंधित अखबार के साइट से उस फ़ॉन्ट विशेष को चंद मिनटों में ही मुफ्त डाउनलोड़ और इंस्टाल करने की भी सुविधा दी जाती थी (गई है) । हिंदी फ़ॉन्ट की जटिल समस्या से हिंदी पाठकों को मुक्त करने के लिए शुरूआती समाधान के रूप में डायनामिक फ़ॉन्ट का भी प्रयोग किया जाता रहा है । डायनामिक फ़ॉन्ट ऐसा फ़ॉन्ट है जिसे उपयोगकर्ता द्वारा डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि संबंधित जाल-स्थल पर उपयोगकर्ता के पहुँचने से फ़ॉन्ट स्वयंमेव उसके कंप्यूटर में डाउनलोड हो जाता है । यह दीगर बात है कि उपयोगकर्ता उस फ़ॉन्ट में वहाँ टाइप नहीं कर सकता । अब युनिकोड़ित फोंट के विकास से वेब मीडिया में फोंट डाउनलोड़ करने की समस्य़ा लगभग समाप्त हो चुकी है । बड़े वेब पोर्टलों के साथ-साथ सभी वेबसाइट अपनी-अपनी सामग्री युनिकोड़ित हिंदी फोंट में परोसने लगे हैं किन्तु अभी भी अनेक ऐसे साइट हैं जो समय के साथ कदम मिलाकर चलने को तैयार नहीं दिखाई देतीं । दिन प्रतिदिन गतिशील हो रही वेबमीडिया की पाठकीयता (वरिष्ठ पत्रकार संजय द्विवेदी के शब्दों में दर्शनीयता ही सही) को बनाये रखने के लिए पाठक को फोंट डाउनलोड़ करने के लिए अब विवश नहीं किया जा सकता । क्योंकि अब वह विकल्पहीनता का शिकार नहीं रहा । पीड़ीएफ में सामग्री उपलब्ध कराना फोंट की समस्या से निजात पाने का सर्वश्रेष्ठ विकल्प या साधन नहीं है । भाषायी ऑनलाइन पत्रकारिता वास्तविक हल तकनीकी विकास से संभव हुआ युनिकोड़ित फोंट ही है जो अब सर्वत्र उपलब्ध है।

हिंदी में तकनीक उपलब्ध
वेब-मीडिया खासकर हिंदी में पत्रकारिता के विकास में मुख्य बाधा हिंदी में तकनीक का अभाव रहा है पर वह भी लगभग अब हल की ओर है । विंडोज तथा लिनक्स जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम का इंटरफेस भी हिंदी में बन चुका है । केन्द्रीय सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार की इकाई सीडॉक (सेंटर फॉर डवलपमेंट आफ एडवांस कंप्यूटिंग) द्वारा एक अरब से भी अधिक बहुभाषी भारतवासियों को एक सूत्र में पिरोने और परस्पर समीप लाने में अहम् भूमिका निभायी जाती रही है । भाषा तकनीक में विकसित उपकरणों को जनसामान्य तक पहुँचाने हेतु बकायदा
www.ildc.gov.in तथा www.ildc.in वेबसाइटों के द्वारा व्यवस्था की गई है जिसके द्वारा टू टाइप हिंदी फ़ॉन्ट(ड्रायवर सहित), ट्रू टाइप फॉन्ट के लिए बहुफॉन्ट की-बोर्ड इंजन, यूनिकोड समर्थित ओपन टाइप फॉन्ट, यूनिकोड समर्थित की-बोर्ड फॉन्ट, कोड परिवर्तक, वर्तनी संशोधक, भारतीय ओपन ऑफिस का हिन्दी भाषा संस्करण, मल्टी प्रोटोकॉल हिंदी मैसेंजर, कोलम्बा - हिन्दी में ई-मेल क्लायंट, हिंदी ओसीआर, अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश, फायर- फॉक्स ब्राउजर, ट्रांसलिटरेशन, हिन्दी एवं अंग्रेजी के लिए आसान टंकण प्रशिक्षक, एकीकृत शब्द-संसाधक, वर्तनी संशोधक और हिंदी पाठ कॉर्पोरा जेसे महत्वपूर्ण उपकरण एवं सेवा मुफ़्त उपलब्ध करायी जा रही है । जहाँ मंत्रालय के वेबसाइट पर लाग आन करके सीडी मुफ़्त में बुलवाई जा सकती है वहाँ इन में से वांछित एप्लीकेशन या सॉफ्टवेयर डाउनलोड भी की जा सकती है ।

वेब-पत्रकारिता को अधिमान्यता
वेब-पत्रकारिता के प्रति आम पत्रकारों में रूझान की कमी के पीछे इसमें कार्यरत पत्रकारों को भारत सरकार व राज्य शासनों द्वारा मिलने वाली सुविधाएं एवं मान्यता का अभाव भी था जो अब दूर हो चुका है । अब वेब पत्रकार बाकायदा होंगें अधिमान्य पत्रकार, अनुभवी और लम्बी सेवा देने वालों को भी मिलेगी भारत सरकार की मान्यता । यहाँ मध्यप्रदेश शासन को खासतौर पर साधुवाद दिया जा सकता है जिसने भारत सरकार से कहीं पहले वेब पत्रकारिता को अधिमान्यता की श्रेणी में रख कर मिसाल कायम किया है । भारत सरकार भी अब वेब-पत्रकारिता को मान्यता देने वालों देशों में सम्मिलित हो चुका है । देश में वेब-पत्रकारिता को विकसित बनाने के लिए भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय में इसके लिए पिछले वर्ष (यानी 12 सितम्बर 2006) आवश्यक संशोधन हो चुका है । अब वेब-पत्रकारिता को भी एक्रीडेशन या मान्यता मिल चुका है अर्थात् भारत सरकार द्वारा नियमों के संशोधन के बाद अपनी साधना में लगे वेब पत्रकारों को उनके कार्य में आसानी के साथ ही वह सभी सुविधायें मिलने लगेंगीं जो अन्य मीडिया के राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त पत्रकारों को मिला करतीं थीं ! इस नये संशोधन से वेब पत्रकारिता को एक जिम्मेवारी और शक्ति दोंनों का इकजाया सयोग मिलेगा और अब इण्टरनेट पर अनेक वरिष्ठ व अनुभवी पत्रकार स्वत: ही जगह बनाने का प्रयास करेगें, साथ ही अब उन नौजवानों के लिये भी प्रशस्ति व उल्लेखनीय कार्यों के लिये दरवाजे खुल गये हैं जो पत्रकारिता को कैरियर के रूप में अपनाना चाहते हैं ! सच्चे मायने में भारत उन विशेष देशों में शामिल हो गया है जो वेब पत्रकारों को प्रत्यायन प्रदान करते हैं। भारत सरकार द्वारा वेब पत्रकारों को निम्नांकित शर्तों के आधार पर अधिमान्यता प्रदान किया जा रहा है-

वार्षिक राजस्व के आधार पर अधिमान्य पत्रकारों के कोटा का विवरण

1. 20 लाख से 1 करोड या संपूर्ण वेबसाइट से 2.5 से 5 करोड़ कुल आय - 3 संवाददाता 1 कैमरामैंन

2. 1 करोड़ से 2.5 करोड़ या संपूर्ण वेबसाइट से 5 करोड़ से 7.5 करोड़ कुल आय - 6 संवाददाता 1 कैमरामैंन

3. 2.5 करोड़ से 5 करोड या संपूर्ण वेबसाइट से 7.5 करोड़ से 10 करोड़ कुल आय 12 संवाददाता 4 कैमरामैन

4. 5 करोड़ से ऊपर या संपूर्ण वेबसाइट से 1 0 करोड़ या उससे अधिक कुल आय - 15 संवाददाता 5 कैमरामैन


मध्यप्रदेश सरकार द्वारा सन् 17 मार्च 2001 से ही जिला, संभाग, राज्य तीनों स्तर पर वेब मीडिया के पत्रकारों को अधिमान्यता प्रदान जा रही है । इसे विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि छत्तीसगढ सहित अन्य सभी राज्यों की अधिमान्यता नीति में वेब पत्रकारिता और पत्रकार के लिए अब तक स्पष्ट प्रावधान नहीं बनाया जा सका है । यह दीगर बात है कि ऐसे राज्य के राजनैतिक आकाओं के इशारे पर अन्य राज्यों के मुख्यालयों से संचालित वेब पत्रकारों और वेबसाइटों को भरपूर विज्ञापन लूटा रहे हैं । भले ही ये राज्य आईटी आधारित नयी वैकासिक नीति का खूब ढिढोरा पीटे जा रहे हो पर ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए वहाँ आवश्यक सहयोग संस्कृति विकसित होना अभी शेष है । इसी तारतम्य में एक वाकया का जिक्र (शासन और जनसंपर्क विभाग से क्षमा याचना सहित) करना अराजकता नहीं होगा । छत्तीसगढ राज्य के सर्वाधिक लोकप्रिय वेबसाइटो में से एक और ऑनलाइन पत्रकारिता की शुरूआती दौर की पत्र
www.srijangatha.com के एक कार्यक्रम में माननीय स्वास्थ्य मंत्री ने 5000 रुपयों की घोषणा कर दी किन्तु इस घोषणा के 8 माह बाद भी उस विज्ञापन के दर्शन नहीं हुए हैं । इतना ही नहीं वांछित अभ्यावेदन पर माननीय मुख्यमंत्री की आवश्यक अनुशंसात्मक टीप व जनसंपर्क प्रमुख की अनापत्ति के बावजूद 14 वर्षीय किशोर द्वारा संचालित इस साइट के लिए राजकीय प्रोत्साहन मिलना अब तक शेष है।

बढ़ रहें हैं नेट उपयोगकर्ता

- अभी इंटरनेट की पहुँच बहुत कम है । ऑनलाइन जगत में हिन्दी के पिछड़ने का प्रमुख कारण यह है कि इंटरनेट से जुड़े भारतीय अपने ऑनलाइन कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग करते रहे हैं। हालाँकि भारत में इंटरनेट से जुड़े लोगों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है और ‘
इंटरनेट विश्व सांख्यिकी’ के ताजा आँकड़े बताते हैं कि भारत में जून, 2006 तक 5 करोड़ 60 लाख इंटरनेट प्रयोक्ता हो चुके हैं और भारत अब अमरीका, चीन और जापान के बाद इंटरनेट से जुड़ी आबादी के मामले में चौथा स्थान हासिल कर चुका है। ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शनों की संख्या भारत में 15 लाख हो चुकी है। भारत में अब हर दो कंप्यूटर प्रयोक्ताओं में से एक इंटरनेट से जुड़ चुका है। इंटरनेट पर हिन्दी के जालस्थलों और चिट्ठों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और ‘जक्स्ट कंसल्ट’ द्वारा जुलाई, 2006 में जारी ऑनलाइन इंडिया के आँकड़ों से पता चलता है कि ऑनलाइन भारतीयों में से 60% अंग्रेजी पाठकों की तुलना में 42% पाठक गैर-अंग्रेजी भारतीय भाषाओं में और 17% पाठक हिन्दी में पढ़ना पसंद करते हैं। हालाँकि पाठकों का यह रुझान ज्यादातर जागरण, बी.बी.सी. हिन्दी और वेबदुनिया जैसे लोकप्रिय हिन्दी वेबसाइटों की तरफ ही है, जिन्हें रोजाना लाखों हिट्स मिलते हैं।

कंप्यूटर और लैपटाप के दाम अभी आम आदमी की पहुँच से काफ़ी अधिक हैं पर वह निरंतर गिरावट की ओर है जो इंटरनेट जर्नलिज्म के मार्ग में आने वाली बाधा का एक हल भी है ।


अधिकांश समाचार पोर्टल, समाचार समूह एवं तथा एम.एस.एन, याहू, गूगल जैसी इंटरनेट कंपनियाँ से संबद्ध होती जा रही हैं । भारत का रूझान बताता है कि जैसे-जैसे देश में इंटरनेट कनेक्शन तथा ब्राडबैंड़ तथा वायरलैस कनेक्शन की सुविधा और कंप्यूटर आधारित तकनीकी ज्ञान प्रवीणों की संख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे ऑनलाइन समाचार पत्र-पत्रिका की उपलब्धता और पाठकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है । यह प्रभासाक्षी जैसी हिंदी के प्रमुख समाचार-विचार पोर्टल प्रभासाक्षी.कॉम पर होने वाले दैनिक हिट्स की संख्या से भी पता चलता है जो प्रतिदिन तीन लाख से अधिक हो गई है। दो जनवरी 2006 को इस पोर्टल पर तीन लाख एक हजार हिट दर्ज किए गए जो अब लगभग एक करोड़ हिट्स प्रतिमाह की दर जैसे ऐतिहासिक आंकड़ा पार को स्पर्श करने लगी है ।


वेब मीडिया का सकारात्मक भविष्य
हिंदी की ऑनलाइन पत्रकारिता का विकास और भविष्य जिन बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है उनमें इंटरनेट की पहुँच, बिजली की निरंतरता और सर्वव्यापकता, सॉफ्टवेयर केंद्रित तकनीकी ज्ञान और सुविधा । यूँ तो Windows XP के आ जाने से हिंदी सहित 9 भारतीय भाषाओं में काम करने की समस्या समाप्त प्रायः है तथापि रूढ़गत प्रवृति एवं क्रयशक्ति पतली होने के कारण अभी भी अधिकांश कंप्यूटर उपभोक्ता Window 98 से अपना पिंड नहीं छूड़ा पा रहे हैं जो हिंदी भाषा सहित प्रकारांतर से ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए भी एक बड़ी बाधा है । जो भी हो निम्नांकित प्रयासों को इस दिशा में कारगर और उन्नत भविष्य का संकेत माना जा सकता है-


एडोब और माइक्रोसाफ्ट द्वारा टू टाइफ फोंट विकसित किया है जो मुफ़्त उपलब्ध है। माइक्रोसॉफ्ट द्वारा विकसित युनिकोड़ित फोंट मंगल से फोंट की समस्या लगभग हल चुकी है । स्पैलिंग चेक करने वाला सॉफ्टवेयर, शब्दकोश एवं थिसॉरस, आदि की उपलब्धता के लिए सी डैक, आईआईटी मुम्बई और मैसुर लगातार सक्रिय है जो भविष्य में उपलब्ध होने लगेगी । गूगल, एमसएन लाइव, याहू, और रेडिफ सहित गुरू, रफ्तार आदि के सर्च इंजन हिंदी में विकसित हो जाने से हिंदी खोजने की समस्या हलशुदा है । वेब आधारित कंपनियाँ जैसे दृष्टि, ताराहाथ, आईटीसी ई-चौपाल लगातार ग्राणीण क्षेत्रों में पृथक इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराने हेतु कटिबद्ध है । विकिपीडिया का हिंदी वर्जन भी हिंदी सहित हिंदी पत्रकारिता को गति देने लगी है। हाल ही में ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड सेवा की उपलब्धता बढ़ाने के लिए केंद्र शासन द्वारा जो सब्सड़ी योजना की घोषणा भी की गई है वह ग्रामीण क्षेत्रों में ऑनलाइन पत्रों के लिए कारगर सिद्ध होने वाला है । आईटी मंत्रालय भारत सरकार द्वारा मुफ्त वितरित सीड़ी से भी हिंदी सहित भारतीय भाषाओं में काम करने की सुविधा बढ़ रही है । विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा ई-गवर्नैंस और माध्यमिक स्तर से सूचना तकनीक केंद्रित पाठ्यक्रमों के सचांलन से भविष्य की दिशायें धवल दिखाई देती हैं । फ्रंटपेज आदि वेब-डिजायनिंग सॉफ्टवेयरों के मंहगे होने के कारण साधारण आय वाले पत्रकारों को वेबसाइट संचालन जरूर मँहगा पड़ रहा है किन्तु ओपर सोर्स के खुलते द्वार कुछ राहत नज़र आने लगा है । ज्ञातव्य हो कि जुमला ओपन सोर्स दुनिया का ऐसा मुफ्त सॉफ्टवेयर है जिस पर निर्मित पोर्टल या वेबसाइट अधिक रोचक और कारगर होने लगा है । इसी तरह कई ऐसे सॉफ्टवेयर ओपन सोर्सिंग से डाउनलोड किया जा सकता है ऑनलाइन पत्रकारिता के लिए आवश्यक या वांछित हैं । वेब डियाजनरों की बढ़ती संख्या को भी हम वेब मीडिया के लिए सकारात्मक मान सकते हैं । इसके अलावा भारत के कई विश्वविद्यालयों और शिक्षा प्रतिष्टानों में ऑनलाइन पत्रकारिता पाठ्यक्रमों का जिस गति से विकास हो रहा है उसे देखकर वेब मीडिया का भविष्य संतोषप्रद कहा जा सकता है ।


(लक्ष्मीनारायण महाविद्यालय रायपुर में पत्रकारिता विभाग में दिया गया व्याख्यान)02.02.07

……………………………………..0000000000000000000………………………………………………

Saturday, January 13, 2007

प्रेम को नेस्तनाबूत करने आ गया लव-डिटेक्टर सॉफ्टवेयर




कल अचानक मुझे पता चला कि इंटरनेट पर प्रेम का विश्लेषण करने वाली एक नई तकनीक ईजाद की जा चुकी है, नाम है उसका - लव डिटेक्टर (Love Detector) । यानी प्यार की पहचान करने वाला सॉफ्टवेयर । अमूक आपसे प्यार करता है या नहीं ? यदि प्यार करता है तो कितना ? सुना है कि यह सॉफ्टवेयर दुनिया के कई देशों की टेलीफोन कंपनियाँ बाकायदा इसका उपयोग भी करने लगी हैं । अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, इजराइल, टर्की, कोरिया आदि की टेलिफोन कंपनियों के ग्राहकों को इस तकनीक का इस्तेमाल भी बातचीत के पश्चात करते देखा जा सकता है । जानते हैं यह सॉफ्टवेयर मात्र 50 डॉलर में उपलब्ध है । (Skype edition (File size: 6.09 MB)) तो पलक झपकते ही डाउनलोड भी किया जा सकता है जो मात्र 29 डॉलर का है । आप का प्रेमी मन नाच उठा होगा ना इस खबर को सुनकर !

प्रथम दृष्टया पढा तो मुझे भी बड़ी प्रसन्नता हुई । लगा कि वाह ! यह तो गजब हो गया । क्या कहने प्रौद्योगिकी के । बलिहारी जाऊँ । विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद एक सामान्य चित्त से इस बिषय को लिया तो लगा कि अब कंप्यूटर से प्रेमी या प्रेमिका के मन की थाह लगाना आसान है । यानी कि प्यार करने के लिए प्रेमी या प्रेमिका की शिनाख्त प्यार करने के पहले ही की जा सकती है ।

पर जाने क्यों मेरा मन था कि मान ही नहीं रहा था कि यह उतना उचित नहीं है जितना इसके बारे में लिखा गया है । जितना मैं इसको लेकर खुश हो रहा हूँ और प्रौद्योगिकी वालों का जयकारा लगा रहा हूँ । जरा गंभीर होकर बुद्धि और विवेक को जगाया तो सच मानिए काँप सा उठा ।

मुझे तरह-तरह के प्रश्नों ने घेरना प्रारंभ कर दिया । हलाकान हो गया मैं । लगभग पसीना-पसीना । एक दो टेलीफोन काल्स से ही हम यदि जानने लग गये कि अमुक मुझे प्रेम करती है या करता है तो दिल की जगह कहाँ बचेगी ? मस्तिष्क का क्या काम रह जायेगा ? यौवन का तकाजा कहाँ रह जायेगा ? मन में प्रेम ग्रंथियों और उससे जुड़ी संवेदना का क्या होगा ? प्रेम जो जीवन में नयीं उंमगें जगाता है, जीवन को नयी उर्जा और गति देता है, उसका क्या होगा ? किसी कन्हाई के प्रेम में राधा दीवानी बनकर क्योंकर गली-गली भटकने लगेगी । वह क्योंकर अंतस की सारी भावनाओं को उडेंलकर पाती लिखेगी ? गोपियाँ कृष्ण से मिलने के लिए दूध बेचने जाने का बहाना क्यों करेंगी । सीधे नहीं पहुँच जायेंगी अपने प्रेमी कृष्ण के पास ? लैला के लिए कौन मजनूं रेगिस्तान में भटकता फिरेगा ? उसे लैला के चेहरे में क्यों अल्लाह नज़र आयेगें ? वह लव डिटेक्टर का सहारा नहीं ले लेगा !

मौजूदा तस्वीर तो यही बयान करती हैं कि प्रेम को भी नियंत्रित करने के लिए प्रौद्योगिकी उद्यत है । क्या यह मनुष्य की प्रकृति के विरूद्ध नहीं है ? क्या यह मशीन का अति नहीं है, क्या यह मनुष्य को उसकी संवेदना से दूर ले जाने की हरकत नहीं है । यदि अभी नहीं है तो यह शुरुआत तो जरुर है । हाँ यह सॉफ्टवेयर अपराध की रोकथाम या खोजबीन के लिए उचित हो सकता है किन्तु जिस तरह से इसका उपयोग उन्नत प्रौद्योगिकी के दीवाने देश करने लगें है वह एक मानवता विरोधी कदम का प्रतीक है । इसे किसी भी दृष्टि से मान्यता नहीं दी जानी चाहिए । हम मानते हैं कि मशीनें सहुलियत के लिए होती हैं किन्तु चंद सहुलियतों के नाम पर ही उससे जुड़ी कमियों या खतरों को नज़रअंदाज़ कर जाना मूढ़ता होगी, दानवता होगी । मनुष्य को पूर्णतः मशीन बनाने की दिशा में गंभीर षडयंत्र भी । प्रतीकों में कहें तो भस्मासूरी प्रवृति को दोहराने का नया हथियार ।

इस तकनीक का सबसे कमजोर और खतरनाक पक्ष है उसका सस्ता और सर्वसुलभ होना । इसकी क़ीमत मात्र 50 डालर है । यानी कि पश्चिम का बेराजगार और भिखारी भी इसे खरीद सकता है यानी कि इस दानवी तकनीक को प्रौद्योगिकी प्रिय देश अपने बच्चों के हाथों तक पहुँचा चुके हैं । कहने का मतलब वहाँ भविष्य की पीढ़ी इस सॉफ्टवेयर के सहारे ही प्रेम का निर्धारण करेगी । जीवन-साथी का चयन करेगी । कुल मिलाकर उसका प्रेम मशीन के मार्फत नियोजित और नियंत्रित होगा ।

कल्पना कीजिए कि आपके आसपास यह सॉफ्टवेयर सहज उपलब्ध है और आपका बेटा या बेटी जो अभी मात्र 14-15 साल की है जिसके मन में विपरीत लिंग के प्रति सहज आकर्षण के भाव पैदा हो रहे हैं । वह नये लिंग के प्रति कुछ-कुछ सोचना शुरु कर रही है । अपने और दूसरे के मध्य प्राकृतिक अंतरों को समझ रही है । उन बुनियादी और दैहिक अंतरों से उसमें नैचुरल संवेदनायें विकसित हो रही हैं । वह अपने अस्तित्व को अपनी प्राकृतिक सीमाओं के साथ आत्मसात कर रही है । जाहिर है कि यह उम्र का ऐसा पड़ाव है जहाँ वह स्नेह और प्रेम में अंतर करना जान रही है । उसके मन में दुनिया का शाश्वत तथ्य अर्थात् पुरुष और प्रकृति (नारी) की भूमिकाओं के लेकर एक सोच और धारणा विकसित हो रही है । वह स्वप्नों से गुजर रही है । वह दुनिया के प्रति रागमय होने जा रही है । उसके मन में प्राकृतिक रूप से प्रेम का अंकुरण हो रहा है । वह अपने साथी की तलाश में स्वयं को निखार रही है या स्वयं को रच रही है । और एकबारगी उसके हाथ में लव-डिटेक्टर मिल गया है ।

आप सोच सकते हैं वह क्या करेगी या करेगा ? ऐसे में प्रेम के लिए स्वाभाविक और सहजात प्रवृतियों का क्या होगा ? हाय, राम, भगवान बचाये इस प्रेम विरोधी तकनीक से ......। कैसे मानी जा सकती है ई-कामर्स के नाम पर
कंपनी चला रहे इन व्यापारियों की बात जो यह कह रहे हैं कि मात्र मनोरंजन के उद्देश्य के लिए लव-डिटेक्टर उपलब्ध कराया जा रहा है ।

मशीनें यदि इस तरह मनुष्य की समस्त स्वतः स्फूर्त मानवीय संवेदना को ध्वस्त कर देंगी तो फिर मनुष्य के पास क्या रह जायेगा मनुष्य कहलाने के लिए । यदि यही दौर रहा तो वह दिन भी आयेगा जब मनुष्य न बोलेगा, न चलेगा, न कुछ कर पायेगा । उसका मिजाज ही नेस्तनाबुत हो जायेगा । एक पत्थर में तब्दील हो जायेगा । एक रोबोट बन जायेगा ।

यदि आप भी पढ़े-लिखे तर्कशील व्यक्ति की तरह कहते हैं कि टेलिफोन और इंटरनेट ने कोसों दूर बैठे दो दिलों को एक दूसरे के करीब लाया है, देशकाल, जाति, रंग-रूप, धर्म-मजहब की दुर्भावनाओं के जंजीरों से मुक्त कर दिया है, उन्हें प्यार का पाठ पढाया है और वे मानवता के सच्चे पुजारी बन सके हैं तो शायद आप यह भूल रहे हैं कि उसने उससे ज्यादा जीवन की स्वाभाविक क्रियाकलापों की भी धज्जी उड़ा दी है । इंसान और इंसान के बीच मशीन का यह नया उत्तरदायित्व अपने मूल में प्रकृति विरोधी है । मानवता विरोधी है । मशीनों को मनुष्य के लिए जरुरी मानने का यह तर्क दरअसल मनुष्य विरोधी कृत्यों का समर्थन है जिसके पीछे वह सब है जिसके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं रह जायेगा । मनुष्य से उसकी संवेदना छीन ली जाय तो फिर क्या बचेगा उसके पास मनुष्य कहलाने के लिए ! अब वह समय आ गया है कि समूचे मानव जगत् को सचेत रहना होगा कि मशीनों और प्रौद्योगिकी को उसी सीमा तक मान्यता दी जाय जिस सीमा तक वे मनुष्यता को बढावा देने में कारगर और क्रियाशील हैं । कहीं उससे मनुष्य का भविष्य तो ही खतरे में नहीं पडता जा रहा है इस बात की समीक्षा निरंतर होनी चाहिए ।

यह सर्वविदित है कि मशीनें अपने मूल रूप में मनुष्य विरोधी होती हैं । वे मानव श्रम और मानव धर्म को प्रकारांतर से खारिज़ भी करती हैं । यानी वे मनुष्य को प्रकृति से दूर हटाती हैं । जीवन क्रम कृत्रिमता के जहरीली चासनी में डूबने लगता है । पश्चिम में मशीनीकरण से उपजी जीवन शैली इसका जीवंत उदाहरण है । और अब तो समूची दुनिया भी मशीन और विकसित प्रौद्योगिकी की दीवानी हो चुकी है ।

नये वैकासिक दर्शन के अनुसार मशीनीकरण को विकास के लिए अपरिहार्य माना जा रहा है । उपनिवेशवादी सोच और अर्थशास्त्र की बात करें तो वह समूचे विश्व को एक प्रवेश-द्वार विहीन मंडी में तब्दील देखने की दलील दे रहा है । तीसरी दुनिया के देश और समाजवादी अर्थव्यवस्था के हिमायती भी इसी राग को अलापने लगे हैं जो कभी मार्क्स और इंजिल्स को भजते थकते नहीं थे । चाहे यह मजबूरी रही हो या फटाफट विकसित बन कर रसगुल्ले चखने के लिए ललचाती जीभ की खुजली पर वास्तविकता यही है कि प्रकृति, मनुष्यता और न्याय आधारित अर्थवस्था को लगभग सारे देश तिलांजलि देने पर उत्सुक जान पड़ते हैं । वहाँ सबसे बड़ा परिवर्तन जो गत दशकों में देखने को मिल रहा है वह है मशीन आधारित जीवन शैली के लिए खतरनाक किस्म का मोह । ऐसे जीवन दर्शन के पक्षधरों को सर्वत्र यह कहते सुना जा सकता है कि मशीन से वे सारा सुख जुटाने में समर्थ हैं । और मशीन उनके विकास का मुख्य आधार है । विडम्बना कहिये कि ऐसे जनपदों या मानसिकता में कहीं भी मनुष्य या मानवता आधारित समाज के लिए कोई गुंजाइस नहीं छोड़ी जा रही है । कुल मिलाकर कहें तो उनके लिए मशीन, कलपुर्जे और प्रौद्योगिकी ही सब कुछ है । अपने एशिया की ही ओर ही निहारें तो साफ तौर पर देख सकते हैं कि वहाँ लगभग हर देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित एक पृथक मंत्रालय आकार ले चुका है । कहना न होगा कि एशिया के हर देश जो कभी प्रकृति, कृषि यानी जल, जंगल, जमीन आधारित सामाजिक संरचना के विकास पर जोर देते थे वे अब अपने देश की सम्पूर्ण व्यवस्था को प्रौद्योगिकी केंद्रित देखना चाहते हैं । यहाँ आपत्ति इस बात पर नहीं है कि है कि वहाँ प्रौद्योगिकी विशेषतः विकसित प्रौद्योगिकी के संवंर्धन से मानव जीवन या जनता को सुविधा नहीं चाहिए संकट तो इस बात का है कि एक कंप्यूटर के आ जाने से हजारों हाथ बेकार हो चुके हैं । यह दीगर बात है कि कंप्यूटर ने श्रम और समय के व्यर्थ बर्वादी से मनुष्य को निजात दिलाने में सतत् ऐतिहासिक योगदान को गति दिया है । पर ऐसे मुल्कों में कंप्यूटर और इंटरनेट के कारण समाज का ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न होता नज़र आ रहा है । एक आंकडे के अनुसार कंप्यूटर और इंटरनेट आधारित अपराधों में जो वृद्धि एक दशक में हुई है उसमें एशिया की भूमिका चौकाने वाली है । बहरहाल हम सीधे मुद्दे पर आते हैं .....

गाँधी और उनसे मिलते जुलते जीवन दर्शन वाले देश खासकर नवविकासशील अर्थात् तीसरी दुनिया के देशों में भी मशीनों का विरोध अब पुराने ज़माने की बात हो चुकी है । इधर अपनी जीवन-पद्धति और अर्थव्यवस्था को ही देखते हैं तो बड़ा अचरज होता है कि क्या यह वही भारत है जहाँ कृषि संस्कृति से सारा जीवन नियंत्रित और व्यवस्थित होता था । हम कबके भूल चुके हैं कि कृषि संस्कृति ही ऋषि संस्कृति थी । जहाँ सर्व सन्तु निरामयः गूँजती थी । यहाँ निरामयः शब्द काबिले गौर है । सबका निरामय होने का दर्शन भारतीय परिवेश में ही सम्भव था । पश्चिम इस जीवन-दर्शन के विपरीत ध्रुव में रहा है । वहाँ सबके निरामयता पर नहीं निजी आनंद पर विश्वास किया जाता है । पुरानी बात दोहरा दें तो वह मन को नहीं तन रसिया है । वहाँ 'हम ' नहीं बोलता, 'मैं' की घोर गर्जना सुनायी देती है, चहुँओर, चारों प्रहर । मशीन या उन्नत प्रौद्योगिकी जनित चीजें इस पश्चिम मनोवृति के पीछे खड़ी हैं, एक प्रेरक इलेमेंट के रूप में । और ऐसे उपादानों ने ही पश्चिम की दुनिया को मनुष्य, मनुष्यता विरोधी सोच के लिए लगातार उकसाने का काम किया है । इस सारी दुर्बलताओं के बावजूद आज समूचा विश्व मशीन से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता । मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह भी रही है कि ऐसी चीजें जिसे हम मशीन कहा करते हैं वह प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक मनुष्य के साथ रहती आयीं हैं । जरा मिथकीय बातें करने की अनुमति दें तो कहा जा सकता है कि जितने भी देवता हुए हैं सभी शस्त्र धारण करते हैं । कोई पुष्पक विमान से यात्रा करता नज़र आता है तो कोई अगिनवाण का मारक प्रहार जानता दिखाई देता है । और उधर मनुष्य के इतिहास को देखें तो कभी हम पत्थर से चिरई-चिरगुन मार कर उदर की क्षुधा शांत करते दिखाई देते हैं तो कभी (आज) हम कांटीनेंटल लंच लेने वाले वन-विहार के बहाने दोनाली से हिरणी को अपना शिकार बनाते हुए लाइव देखते हैं । कुल मिलाकर कहें तो आज का मनुष्य ही नहीं वरन् हर काल में मशीनी उपकरण रहित मनुष्य नज़र दिखाई ही नहीं देता । पहले या सभ्यता के मानवीय सोच वाले चरणों में सर्वत्र मशीनें या उपकरणें कर्म-सहायक थीं अब वे भ्रम-सहायक बन चुकी हैं । यह अति है नित नयी मशीन इजाद करने की अतृप्त भूख की । इसके पीछे भी पश्चिमवादी मन का संस्कार है । ऐसा संस्कार जहाँ संग्रहण का भाव प्रमुख है, त्याग का भाव जहाँ पाँव ही पसार नहीं सकती ।

बहरहाल आपका यह कहना कि – "मशीनें अगर इंसानी जिंदगी को इस हद तक काबू करने चलीं हैं, तो फिर यह इंसानी मिजाज के अंत की शुरुआत होगी । " सौ फीसदी सच है । मशीनों ने मनुष्य को मनुष्य से दूर ही किया है । फोन ने चौपालें और बतरसों को मार डाला । बिजली ने माटी के दीये छीन लिये । मोटर से यात्रायें निरस हो गईं । यात्रायें निरस हो गईं तो यात्राओं से जीवन को प्रकाशित करने वाले संस्मरण गायब होते चले गये । फैक्स आया तो हरकारा को हताशा सौंप दी गई । टाइपराइटर और इधर कंप्यूटर आया तो फर्रू से लिखने की रम्य परंपरा और एक सार्थक योग कला ही जाती रही है । एलोपैथ आया तो गाँव के सारे बैद्य थैले छाप दिखाई देने लगे । टूथपेस्ट क्या आया नीम जैसे जीवनदायिनी वृक्ष की परिक्रमा ही इंसान भूलता जा रहा है । फेयर एंड लवली, पौंड, लक्मे आदि ब्युटीक्रीम के पदार्पण से हल्दी-उबटन का सत्यानाश हो चुका है । कितना गिनायें ?

पर इंसानियत को बचाने की अंतिम जद्दोजहद भी विज्ञान में दिखाई देती है । वैज्ञानिक चेतना की ईजाद यानी कि मशीनों, उपकरणों के पीछे मनुष्य के सुख (कम से कम भौतिक सुख) की शुभकामनायें हैं । एक सच्चा वैज्ञानिक कब चाहता है कि वह मनुष्य को समाप्त करें । मनुजता उसकी खोज या तकनीक से भोथरी हो जाये । पर मनुष्य मूलतः परमार्थी होते हुए भी स्वार्थ से मुक्त नहीं हो पाता । दुनिया की कई मशीनी आविष्कार के पीछे श्रेयता भी है । श्रेय लेने की होड़ भी पश्चिमी दुनिया का मूल संस्कार है । इसी होड़ की छूट में कई अचरज भरे कार्य पश्चिम में होते हैं । पूरबी दुनिया इसकी अनुमति नहीं देती । शायद इसी का नाम भारतीयता भी है । एक सच्चा भारतीय त्याग पर जोर देता है, वह जब कुछ रचता भी है तो मनुष्यता को केंद्र में रखकर । और ऐसे क्षणों में वह श्रेय लेने की भावना को दबाता चलता भी है । क्योकि वह मशीनी सभ्यता से रचा-पचा इंसान नही है । मैं लगे हाथ पत्रकारिता का ही उदाहरण देना चाहता हूँ । एक सच्चा भारतीय संपादक चाहे कुछ भी करले अपने माँ-बहिन के (अपनी न सही तो दूसरों की ही) बलात्कार पर उसका नाम नहीं छापता । उसका फोटो भी नहीं देता । यानी कि उसे शिनाख्त नहीं होने देता ताकि वह समाज में अपने पुनर्वास के लिए फिर से कोशिश कर सके । पर पश्चिम में, बाप रे बाप । कुछ दिन पहले ब्रिटेन को जरा नज़दीक से देखने का मौका आया– मैंने पाया कि एक-एक डेढ़-डेढ़ किलो वाले दौ पौंड के अखबारों में वहाँ पत्रकारिता के नाम पर पोर्नोग्राफी ही हर सप्ताह परोस दी जाती है । शायद वहाँ कोई किसी की प्रेमिका नहीं होती । शायद वहाँ कोई किसी की बहिन नहीं होती । और शायद वहाँ कोई किसी की माँ भी नहीं होती ।

आज ब्रिटेन सहित सारे पश्चिम की कला, साहित्य चेतना तो वायवीय उपकरण बन चुकी हैं वहाँ मानवता की श्रीवृद्धि की बात सोच पाने में जरा कठिनाई होती है । यह अलग बात है कि इसी कला माध्यमों ने हमें अपनी अस्मिता को विदेशियों और उनकी संस्कृति (विकृति) से बचाने में मदद करती रही हैं । और उधर रूस और चीन जैसे महाशक्तियों के उदय में भी कला चेतना ने अपनी भूमिका बखुबी निभायी । पर आज चीन और रूस भी प्रौद्योगिकी के लिए न केवल पागल हो चुके हैं बल्कि चीन के बारे में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि वह आने वाले समय में दूसरा बिल गेट्स दे सकता है । कहने का आशय कि किसी भी ईजाद को उस समाज में कैसे ले जाती है, यही खास बात होती है । चाहे तो आप उसे मनुष्य विरोधी हरकतों के लिए उपयोग करें चाहें तो उसी से समूची मनुष्यता को नेस्तनाबुत करने की सोच डालें ।

लव डिटेक्टर का उपयोग केवल अपराध रोकने के लिए या प्रेमजनित अपराध की शोध-वृति में होनी चाहिए । तकनीकी के बढ़ते हुए प्रभाव को और उससे कृष्ण-पक्ष से बचाने के लिए हर उस जागरुक लेखक-पत्रकार-ब्लॉगर और विचारवान व्यक्ति को लिखना होगा जो दुनिया को दुनिया जैसे बने रहने देना चाहते हैं । जो लगातार सोचते हैं कि तकनीकी मनुष्य जीवन की सहायक बने, नाशक नहीं । इसे नई पीढ़ी को लगातार सतर्क करते रहने की आवश्यकता है । अन्यथा वह इतनी स्वार्थी हो चुकी है कि जाने कब ऐसा मशीन भी बना डाले जिसका बटन दबाकर जाना जा सके कि उसकी प्रेमिका कहाँ रहती है? कैसी है वह ? कब उससे प्रेम होगा ? यानी कि प्रेंम भी वह मशीन के माध्यम से खोजने लगे । यानी कि मनुष्य जीवन की सारी उदात्त क्रियायें मशीन से नियंत्रित होने लगे । ऐसे क्षणों में मैं पुनः दोहराते हुए यही कहना चाहूँगा कि 'टेक्नाल़ॉजी दुधारी तलवार है ' और इसके उस धार को ही हमें जानना-समझता-बरतना चाहिए जो हमारी ही हत्या का कारण न बने ।
जयप्रकाश मानस

Friday, January 12, 2007

हिंदी कविता का महासागर

किसी शोधार्थी की नज़रों से 1000 कविताओं वाली किताब या पांडुलिपि कदाचित् न गुजरी हो पर हिंदी की दीवानगी से यह भी सहज और संभव हो चुका है । सच तो यह है कि प्रिंट मीडिया में नवीनतम तकनीकी की उपस्थिति के वाबजूद इतनी संख्या में कविताओं को एक कृति में अब तक नहीं समेटा जा सका था परंतु इसे 21 वीं सदी की चमत्कारिक प्रौद्योगिकी यानी अंतरजाल(Internet) के सहारे पाँच सदस्यों की टीम ने सफल कर दिखाया है । इस ऐतिहासिक सफलता का नाम है – कविता कोश । ललित कुमार जैसे समर्पित कंप्यूटर इंजीनियर और हिंदीसेवी के संयोजन में अपनी स्थापना के चंद माहों के भीतर ही एक हजार से अधिक कविताओं को प्रतिष्ठित किया जा चुका है । हिंदी कविता प्रेमियों और हिंदी के शोधार्थियों के लिए यह खास खुशख़बरी हो सकती है कि हजारों-हजार कविताओं को पढ़ने के लिए न उन्हें कविता संकलनों की खरीदी पर खर्च करना पडेगा और न ही उन्हें एकत्रित करने के लिए किसी धूल भरी लायब्रेरी की तलाश में भटकते रहने के लिए किसी प्रकार की मशक्कत करनी पडेगी । सारी की सारी कविताएँ ऑनलाइन हैं जिनका रसपान बड़ी सहजता से किया जा सकता है । हिंदी के कवि और कविता से संदर्भित किसी कोण से यदि पीएच.डी लेनी हो तो बरोकटोक प्रिंट लिया जा सकता है । यहाँ 15 दिसम्बर 2006 तक 1000 हिंदी कविताएं ऑनलाइन सजायीं जा चुकी हैं, यह कार्य अनवरत जारी भी है । यदि आप कविता कोश दल की योजना और दावे पर सहज विश्वास करें तो कविता कोश में आने वाले कुछ ही माहों में आपको हिंदी की 10,000 कविताएँ सजी मिलेंगी । कल्पना कर सकते हैं कि इस वेबजाल पर आने वाले सालों में हिंदी की कितनी कविताएं होगीं और जिसे देखकर कोई भी साहित्य प्रेमी लगभग आर्कमिड़ीज की तरह मुदित होकर क्या कह न उठेगा -हिंदी कविता का महासागर ।

कविता कोश एक तरह से इंटरनेट पर हिदीं कविताओं का पहला सुगठित, विश्वसनीय और वृहत कोश है । अब तक तथाकथित कोश के नाम पर इंटरनेट पर जितने भी वेबसाइट संचालित हैं वे या तो रोमन लिपि में हैं या फिर उन कविताओं का चयन संबंधित वेब-जाल स्वामी की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर रहा है । अर्थात् वे हिंदी कविता के व्यापक फलक को स्पर्श करने में असमर्थ रहे हैं और जो कुछ विस्तृत तथा आकर्षक हैं पर वे देवनागरी लिपि में पढ़ने का आनंद-अवसर उपलब्ध कराने में असमर्थ वेब-पृष्ठ हैं । यानी कि वहाँ हिंदी कविता पढ़ने का आस्वाद नहीं मिल सकता । इन वेबसाइटों में विकिपीडिया (इनसाइक्लोपीडिया)http://sa.wikipedia.org/wiki/index/ भी सम्मिलित है जहाँ हिंदी साहित्य के निर्धारित काल क्रम में कुछ कवियों को चिन्हाँकित तो किया गया है किन्तु कुल मिलाकर वह नौसिखिये के काम जैसा ही प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ आधुनिक काल के कवियों की सूची में भारतेंदु हरिश्चंद्र, निराला, पंत, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, दिनकर आदि कुल 27 कवियों के साथ गोपाल दास नीरज, अशोक चक्रधर, यश मालवीय और सोम ठाकुर जैसे बिलकुल समकालीन और मंचीय कवियों को भी अभी से जोड़ दिया गया है । यह अज्ञानता नहीं है, यह वरिष्ठतम् और स्थापित कवियों का अपमान भी नहीं है किन्तु अपितु इंटरनेट पर हिंदी काव्य को स्थापित करने वाले महाशय के व्यक्तिगत मोह का परिणाम जरूर है । यह मंचीय कवियों के नाम पर बजायी जाने वाली भोथरी तालियों का ही जादू है जो इंटरनेट पर काम करने वाले शहरी लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा है । क्योंकि हिंदी काव्य के गंभीर ही नहीं बल्कि मेट्रिक में पढ़ने वाले किसी छात्र से भी पूछेंगें तो वह आधुनिक काल के 27 कवियों में इन्हें सम्मिलित नहीं करेगा । इसका निहितार्थ कदापि इनके कवि नहीं होने पर नहीं समझा जाय पर काल-क्रम भी तो कोई चीज़ होती है । खैर.......

कविता कोश की सबसे बड़ी विशेषता है उसका खुलापन । खुलापन का आशय – कोई भी विकि तकनीकी में दक्ष एवं हिंदी कविता का ज्ञाता इसमें शामिल हो सकता है । यद्यपि वह कोश में संपादन, तकनीक, वर्तनी संशोधन एवं नीति निर्धारण से संबंधित कार्यों में दखल नहीं दे सकता किन्तु कविता उपलब्ध कराने, किसी खास कवि और उसकी किसी कविता की अनुशंसा करने में खुलकर सहयोग कर सकता है । ऐसे योगदान का उल्लेख बाकायदा वेब-पृष्ठ पर की जाती है । इंटरनेट की विकी तकनीक का लाभ यह है कि कोई भी व्यक्ति कोश में नई रचनाएँ जोड सकता है या पहले से उपलब्ध रचानाओं में वर्तनी आदि त्रुटियों को सुधार सकता है। कविता कोश से जुड़ने के लिए किसी प्रकार की सदस्यता की भी जरूरत नहीं है वह केवल अपने सहयोगात्मक रुख से सदस्य बन सकता है । अपने व्यवहारिक अर्थों में यह हिंदी जगत् का अनूठा सहकारी प्रयास है । खुलापन का आशय यह नहीं है कि कहीं भी ठसने की फिराक में रहने वाला कोई कवि यहाँ अपनी कविता ठेल सकता है । क्योंकि हिंदी इंटरनेट की दुनिया भी ठीक वैसी है जैसे हिंदी प्रिंट और मंचीय भांडों की दुनिया । कहना प्रासंगिक होगा कि हिंदी काव्य का सत्यानाश करने में जितना हाथ उसके पाठकों और अकादमिक कवियों का नहीं है उतना हाथ मंचीय कवियों का है जिन्होंने हिंदी कविता को चुटकुला और फूहड़ व्यंग्योक्ति बना दिया है । ऐसे कवियों को यहाँ भी प्रतिबंध लगाना चाहिए, जिसका खतरा नीति के अनुसार दूसरे चरण में हो सकता है । वैसे इंटरनेट पर हिंदी कविता की श्रीवृद्धि के नाम पर कुछ ऐसे भोथरे लोग भी अपनी दुकानदारी चला रहे हैं जिन्हें कविता का 'एबीसीडी' भी नहीं आता । भले ही वे स्तरीय कविता के नाम पर चार पंक्ति भी ठीक से नहीं लिख सकते हैं किन्तु उनका दावा कम से कम अकादमिक लोगों को हास्यास्पद लग सकता है कि वे इंटरनेट के माध्यम से सारी दुनिया के लोगों को हिंदी कविता लिखना सीखा रहे हैं । उन्हें मुगालते पालने में नहीं रोका जा सकता है कि हिंदी की श्रीवृद्धि का पवित्र कार्य कर रहे हैं । बलिहारी हो ऐसे मंचीय आत्मा से अनुप्राणित कवियों की, और बलिहारी हो ऐसे शिष्यों की भी । यदि ये इंटरनेट पर सवार होने के नाते स्वयं को वैश्विक हिंदी कविता के स्वामी मान बैठे हैं तो बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं, क्योंकि भाषा सिखायी जा सकती है कविता नहीं, और कोई भाषा मात्र विशाल आकार किन्तु थोथों पन्नों से नहीं अपितु कम किन्तु भविष्योन्मुखी पृष्ठों से समृद्ध होती है । अभी तक तो कविता कोश ऐसे महामानवों से सुरक्षित है । विश्वास किया जा सकता है और कामना भी कि भविष्य में भी इन नौसिखियों और काव्य कीटों से मुक्त होकर पुष्पित-पल्लवित होता रहेगा । यह तो सभी को ज्ञात ही है कि जो भी लिख दिया जाय वह कविता नहीं होती । आखिर कुछ तो फर्क होती है कविता में और कथन में । ज्यादा कुछ कहना विषयांतर होना होगा, सो सीधे मूल प्रसंग पर लौट आते हैं ।

अंतरजालीय-हिंदी अभी कमोवेश बालपन से गुजर रही है । अंतरजाल पर हिंदी के ख्यातिलब्ध बुजुर्ग पीढ़ी और समकालीन साहित्य में चर्चित और समर्पित रचनाकारों की उपस्थिति अभी तक प्रिंट मीडिया के समानांतर संभव नहीं हो सकी है । कारण चाहे जो भी रहे हों पर यह वास्तविकता है जबकि अंतरजाल पर हिंदी में काम करने के सारे औजार(Tools) विकसित हो चुके हैं । और वे कारगर भी हैं । सबसे खुशी यह कि हिंदी में काम करने के लिए अंगरेज़ी सहित किसी परदेशी भाषा में पांरगत होने की लाचारी भी अब समाप्त हो चुकी है । ऐसे में वैश्विक क्षितिज पर हिंदी को विश्वविजयी देखने के स्वप्नदर्शी और समर्पित काव्यरसिकों तथा कवियों के लिए यहाँ अपने योगदान को रेंखांकित करने का अच्छा अवसर है बशर्ते कि वे युनिकोड़ फोंट को लेकर कंप्यूटर पर बुनियादी काम करना जानते हों । एक हिंदी प्रेमी का परिचय देते हुए वे कविता कोश में पूर्व निर्धारित सूची अनुसार किसी कवि की महत्वपूर्ण कविता रख सकते हैं । किसी छूटे हुए खास कवि और कविता का नाम सूझा सकते हैं । पूर्व से संधारित कविता में लिपिकीय त्रुटि सुधार सकते हैं । परंतु इसके लिए उन्हें वर्तनी संबंधी नियमों का सहारा लेना होगा, जिसके नियम भी साइट पर ही अंकित है । खास तौर पर ऐसे लोगों के लिए साइट में – “कविता कोश में योगदान कैसे करें?” “कविता कोश में कविताओं को जोड़ने का तरीका”, “कविता कोश के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न”, “सक्रिय प्रोजेक्ट्स की सूची”, “वर्तनी नियम”, “
कविता कोश टीम की सदस्यता” सहित “कविता कोश की नीतियाँ” आदि स्तम्भें दी गई हैं, जिससे सम्यक जानकारी प्राप्त की जा सकती है । यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि कविता कोश के परिप्रेक्ष्य में किसी भी चर्चा के लिए "कविता कोश ” नामक समूह भी विकसित किया गया है । यह कविता कोश संचालन परिवार के साथ-साथ अन्य हिंदी भाषा सेवियों के लिए भी स्वागतेय कदम है । जो विकि तकनीक में पारंगत नहीं है वे वे केवल युनिकोडित फोंट में टाइप कर रचना ई-मेल से भेज सकते हैं । जो कंप्यूटर पर युनिकोडित फोंट पर टाइप करना नहीं जानते तो किसी भारतीय सदस्य के पास डाक से भी रचना भेज सकते हैं । चाहे किसी भी रूप में, इससे जुड़ना निश्चित ही उस स्वप्न को साकार करने में योगदान देना है जिसमें इंटरनेट पर हिंदी की स्थिति को प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित करने जैसी नेक भावना सर्वोपरि है । जैसा कि कविता कोश के संस्थापक और वर्तमान में एडिनबर्ग, स्काटलैंड में अध्ययनरत ललित कुमार के साथ ह्यूस्टर, अमेरिका से आईटी विशेषज्ञ मितुल, यूएई से पूर्णिमा वर्मन, दिल्ली से इंजीनियरिंग छात्र दीपक मोदी, रायपुर, छत्तीसगढ़ से स्वयं मैं आदि भौगोलिक दूरी के बावजूद बड़ी आत्मीयता से कविता कोश में हाथ बँटा रहे हैं ।


यद्यपि कविता कोश में कतिपय महत्वपूर्ण कवियों की अनुपस्थिति को लेकर हिंदी कविता के गंभीर अध्येताओं को आपत्ति हो सकती है कि तथापि हिंदी कविता के शिल्पियों की लंबी फेहरिस्त को देखते हुए उन्हें अवश्य संतोष हो सकता है कि प्रथम चरण में इतने सारे कवियों और उनकी कविताओं को खोज निकालना कम चुनौती नहीं रहा होगा, और कम श्रमसाध्य कर्म भी नहीं । यूं तो हिंदी कविता की सुदीर्घ परंपरा रही है । हर काल और वाद के सैकडों नामचीं कवि हुए हैं जिन्हें इस कोश में होना ही चाहिए । और जैसा कि कविता कोश की नीति में कहा गया है कि – “प्रथम चरण में केवल अपेक्षाकृत अधिक प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं का संकलन किया जाएगा। कौन कवि कितने प्रतिष्ठित हैं या थे - इस बात का कोई पैमाना सोचना बडा मुश्किल है क्योंकि प्रतिष्ठा सापेक्षिक और व्यक्तिगत होती है। इसलिये यह तय किया गया है कि इस चरण में मुख्यत: केवल उन रचनाकारों को सम्मिलित किया जाएगा जिनकी कविताएँ पाठ्यपुस्तकों में छप चुकी हैं। पहला चरण कोश में कम से कम 5000 कविताओं के इकठ्ठे होने तक चलता रहेगा।” यह दूसरी बात है कि यदि आप इस नीति पर गंभीर हो जायें तो कविता कोश के पहले चरण में आपको कुछ ऐसे नाम भी मिलेंगे जिनकी कविता कहाँ और किस पाठ्यक्रम में पढ़ायी जाती है, कोई पता नहीं है ? पर इतनी तो छूट दी ही जा सकती है कविता कोश को शुरुआती दौर में ।

फिलहाल कविता कोश में कविताओं का क्रम कवि की रचनात्मक प्रतिष्ठा, उसकी वरिष्ठता या काल तथा हिंदी कविता के कालों या प्रचलित वादों या आन्दोलनों के आधार पर नहीं अपितु वर्णमाला के आधार पर (alfabaticly) रखा गया है । यह कविता तलाशने वालों के लिए सुविधाजनक भी है । इस प्रकार अब तक जिनकी कविताएं प्रतिष्ठित हो चुकी हैं उनमें हैं -
अटल बिहारी वाजपेयी, अज्ञेय, अमरनाथ श्रीवास्तव, अमीर खुसरो, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, अशोक चक्रधर, अशोक वाजपेयी, इसाक अश्क, उमाशंकर तिवारी, उमाकांत मालवीय, उर्मिलेश, ओम प्रकाश चतुर्वेदी 'पराग, कन्हैयालाल नंदन, कबीर, कमलेश भट्ट 'कमल', काका हाथरसी, किशोर काबरा, कीर्ति चौधरी, कुमार रवींद्र, कुंवर नारायण, कुँवर बेचैन, केदारनाथ अग्रवाल, कैफ़ी आज़मी, कैलाश गौतम, गजानन माधव मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथुर, गुलज़ार, गुलाब खंडेलवाल, गोपालदास "नीरज", गोपाल प्रसाद व्यास, गोपाल सिंह नेपाली, गोरखनाथ, चंद बरदाई, चंद्रसेन विराट, जयशंकर प्रसाद, डॉ॰ जगदीश व्योम, जयप्रकाश मानस, डा तारादत्त निर्विरोध, तुलसीदास, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, दुष्यंत कुमार, धर्मवीर भारती, नईम, नरेश मेहता, नरेन्द्र शर्मा, नरोत्तमदास, नागार्जुन, निदा फ़ाज़ली, निर्मला जोशी, नेमिचन्द्र जैन, डॉ.पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, प्रदीप, प्रभाकर माचवे, बशीर बद्र, बिहारी, भगवतीचरण वर्मा, भवानीप्रसाद मिश्र, भारतभूषण अग्रवाल, भारतेंदु हरिश्चंद्, मलिक मोहम्मद जायसी, मलूकदास, महेश अनघ, महादेवी वर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मीराबाई, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, मुकुटधर पांडेय, मुकुट बिहारी सरोज, यश मालवीय, रघुवीर सहाय, रमानाथ अवस्थी, रसखान, रहीम, राजी सेठ, रामावतार त्यागी, रामकुमार वर्मा, रामधारी सिंह "दिनकर", राम प्रसाद बिस्मिल, राम विलास शर्मा, राम सनेहीलाल शर्मा 'यायावर', रामानुज त्रिपाठी, रैदास, विद्यापति, विष्णु विराट, वीरेंद्र मिश्र, श्यामनन्दन किशोर, श्यामनारायण पाण्डेय, शमशेर बहादुर सिंह, शहरयार, शांति सुमन, शिवमंगल सिंह सुमन, सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला", सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, सोहनलाल द्विवेदी, सुकीर्ति गुप्ता, सुदर्शन फ़ाकिर, सूरदास, सूर्यभानु गुप्त, सोम ठाकुर, हरिवंशराय बच्चन, त्रिलोचन शास्त्री, श्रीकांत वर्मा, श्रीकृष्ण सरल । इसके अलावा कुछ ही दिनों में यहाँ दो-ढाई सौ ख्यातिलब्ध और प्रतिष्ठित ग़ज़लकारों की ग़जलें भी पढ़ने को मिलेगी, जिसका श्रीगणेश हो चुका है । सब कुछ सकारात्मक गति से चलता रहा तो इस रूप में ग़ज़ल के विकास-क्रम को भी आसानी से समझा जा सकेगा है । हाँ, पाठ्यक्रम वाली शर्त की शिथिलता के साथ, क्योंकि (समग्र रूप से) कम से कम हिंदी के पाठ्यक्रमों में ग़ज़लों के प्रति सकारात्मक नज़रिया अभी प्रतीक्षित है ।

यदि मैं अपनी भावना का स्थानीयकरण करके कहूँ तो पहले चरण में छत्तीसगढ़ के 4 पुरोधाओं को यहाँ समादृत किया गया है । ये हैं – छायावाद के संस्थापक कवि पद्मश्री मुकुटधर पांडेय, सरस्वती के संपादक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, कविता के ख्यातिलब्ध नाम श्रीकांत वर्मा । द्वितीय चरण में राज्य के ऐसे खास कवियों को भी यहाँ पढ़ने का अवसर मिल सकेगा जिन्हें पढ़कर वास्तव में उनके कवि सहित (वादरहित)इंसान होने का भी प्रमाण मिलता रहा है । इस नज़रिये से अन्य प्रदेश के साहित्यिक संगठनों को भी सोचने से कोई बुराई नहीं । जो स्थानीयता का सम्मान नहीं कर सकता वह विश्व का भला क्या सम्मान कर सकेगा । प्रगतिशीलता में गति नहीं तो वह कैसी प्रगति ? चलिए फिर लौटते हैं केंद्रीय विषय पर ।

कविता कोश में बोनस के तौर पर कई कवियों का जीवन-परिचय भी दिया गया है । यदि धीरे-धीरे सभी कवियों का जीवन-परिचय भी यहाँ समादृत किया जा सके तो निश्चित ही इस ऐतिहासिक कार्य के लिए भी यह साइट जाना जायेगा । सुना है दिल्ली के 'आलेख प्रकाशन' के मुखिया और संपादक उमेशचंद्र अग्रवाल भी इस दिशा में आगे बढ़ते हुए विश्व के कवियों, रचनाकारों का बायोडेटा अंतरजाल पर ला रहे हैं । परन्तु उनके प्रस्ताव में रचनाकार को अपना अर्थशास्त्र भी समझना पडेगा । बहरहाल आज की तारीख में ही कविता कोश के इस कार्य की महत्ता बतायें तो हम कह सकते हैं कि हिंदी के लघु-पत्रिका के संपादकों के लिए यह अनुपम बन चुका है जहाँ से मनोच्छित कविताएं प्रकाशनार्थ, संदर्भार्थ चयन की जा सकती हैं । हाँ, कविता के अध्येताओं और शोध-वृत्तियों से जुड़े लोगों को भविष्य में ऐसी सूची की प्रतीक्षा भी रहेगी जो हिंदी कविता के मानक काल, वाद, आंदोलनों और प्रवृतियों पर केंद्रित रहे और यदि ऐसा हो सका तो किसी भी विश्वविद्यालय के हिंदी या भाषा विभाग को इसे अपना संदर्भ ग्रंथ के रूप में मान्यता देने में कोई गुरेज़ नहीं होगा । कविता कोश के वर्तमान स्वरूप और रचनाओं के वर्गीकरण को लेकर यह प्रश्न भले ही कोई उछाल सकता है कि यहाँ कविताओं को विधात्मक चरित्र (कविता, गीत, दोहे, सोरठा, ग़ज़ल, मुक्तक, हाइकु आदि) के आधार पर रखा जाना चाहिए । पर इसके लिए कविता कोश में जुटे भाषासेवियों की कठिनाईयों पर भी गौर करना चाहिए ।

कविता कोश में विभिन्न कवियों की सिर्फ फूटकर कविताएँ ही नहीं हैं, वहाँ हिंदी के महत्वपूर्ण कवियों की चर्चित कविता किताबों, संग्रहों, खंडकाव्यों आदि को प्रतिष्ठित किया जा रहा है । अब तक जिन किताबों को पूर्णतः ऑनलाइन किया जा चुका है वे हैं- मैथिली शरण गुप्त जी की सैरन्धी (खंडकाव्य), साकेत (प्रथम सर्ग) और नरोत्तम दास का सुदामा चरित । यहाँ आने वाले दिनो में अन्य महत्वपूर्ण कृतियों भी संपूर्णतः ऑनलाइन मिल सकती हैं । इसमें कबीर, तुलसी, निराला, पंत, महादेवी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, मुकुटधर पांडेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, श्रीकांत वर्मा आदि की चर्चित कृतियाँ सम्मलित हैं । कविता कोश के वेब-पृष्ठों पर कई कवियों की ऐसी कविताएं भी जुटायीं जा चुकी हैं जो आम पाठक के लिए सहजता से उपलब्ध नहीं होती । इसमें से कुछ तो अब तक अप्रकाशित भी रही हैं । यह अक्सर होता है कि हमारे किसी प्रिय कवि की कोई खास कविता ढूँढने पर भी नहीं मिलती और हम मन मसोसकर रह जाते हैं । आम पाठक ही क्यों, समकालीन साहित्यिक बिरादरी भी इस कदर स्वकेंद्रित हो चुकी है कि वह अब धीरे-धीरे हिंदी साहित्य के स्वर्णकाल यानी भक्तिकाल और रीतिकाल के कवियों को लगातार भूलते जा रही है । इधर कई नामवर आलोचक उन कविताओं को खारिज़ करते चले जा रहे हैं । उन कविताओं में उन्हें नानाभाँति बुराईयाँ नज़र आती हैं । ऊपर से प्रौद्योगिक युग की मार और नई पीढ़ी में कविता या साहित्य जैसे विषय के प्रति घटती अभिरुचि । ऐसे दौर में वीरगाथा काल सहित हिंदी के तमाम महत्वपूर्ण कवियों को यहाँ पढ़ना कविता के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना भी है, जिसके लिए कविता कोश को निश्चित ही साधुवाद दिया जाना चाहिए । साधुवाद इसलिए भी कविता कोश में वह जबाब भी छिपा हुआ है जिसके लिए प्रश्न किया जाता है कि कविता संग्रह खरीदने के लिए रुपए कहाँ से आयेंगे ? कविता कोश उन प्रकाशकों के शातिराने अंदाज वाली कथन का भी मुँहतोड़ जबाब हो सकता है जिसमें कहा जाता है कि कविता संग्रह बिकती नहीं है, तो छापें कैसे ? मत छापिए, कविता कोश जो है अब उनके लिए ।

कविता कोश में किसी कवि की कविता सम्मिलित होना अपने आप में आत्मतोष का भी विषय हो सकता है क्योंकि यह मुक्त या निजी वेबसाइट नहीं अपितु इंटरनेट पर सर्वाधिक चर्चित और देखी जाने वाली साइट-विकीपीडिया (मुक्त इनसाइक्लोपीडिया) द्वारा उपलब्ध करायी गई जालस्थल सेवा का अहम् हिस्सा है जो ललित कुमार की सुदीर्ष सोच का परिणाम है । कविता कोश को देखकर उसके विकिपीडिया का हिस्सा होने का भ्रम जरूर हो सकता है पर यह विकिपीडिया परियोजना का हिस्सा नहीं है । इस मायने में यह न केवल हिंदी कविता के शोधकर्ताओं के लिए बल्कि आम इंटरनेट उपयोग कर्ताओं के लिए आकर्षक साइट है । यही कारण है कि कई कवि यहाँ स्वयं को देखने के अभिलाषी हो सकते हैं और वे अपनी कविता भी भेजे जा रहे हैं और उन्हें द्वितीय चरण में सम्मिलित करने की आवश्यक तैयारी भी की जा रही है ।

कविता कोश में मात्र कवियों की ख्यातिप्राप्त कविताएं ही नहीं है, वहाँ कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी रखी गयीं हैं । इस क्रम में हम हिंदी काव्य छंद नामक सूचनात्मक लेख और नई घटनाएं जैसे स्तम्भों का भी जिक्र कर सकते हैं । पर यह कम से कम मेरे समझ से परे की बात है कि नई घटनायें के नाम पर क्यों किसी एक ही व्यक्ति को इतना महत्व दिया जा रहा है । यह न तो प्रजातांत्रिक है न ही अन्य पाठकों के लिए रुचिकर । यहाँ कई ऐसे सांस्कृतिक समाचार भी दिये गये हैं जिनका स्थानीय मूल्य के अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई महत्व नहीं है । ऐसी लोकप्रियता से बचने में ही हिंदी के अतरराष्ट्रीय चरित्र का विकास हो सकता है । भारत के कई शहर, गाँव ऐसे हैं जहाँ हर दिन कोई न कोई सांस्कृतिक घटनाएं होती रहती हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं कि सभी को कविता कोश जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रकृति वाले जाल-स्थल को ही रखा जाये । इन्हें भी अन्य वेबजालों का लिंक बताया जाना चाहिए । होना तो यह चाहिए कि यहाँ सिर्फ कविता या कवि से जुड़ी सास्कृतिक घटनाएं ही दें । पर कवि सम्मेलन की रिपोर्ट कदापि नहीं ।

कविता कोश निस्वार्थ सेवाभावियों के योगदान का दूसरा नाम है । यह साधारण लोगों के लिए आश्चर्य का विषय हो सकता है कि कोई भी यानी
संस्थापक, प्रशासक, सिसओप, संपादक, या योगदानकर्ता कोई भी आर्थिक लाभ या लालच से सर्वथा मुक्त हैं । कविता कोश के स्वप्न को साकार करने के लिये विश्वभर से हिन्दी-प्रेमी व्यक्ति स्वेच्छा से स्वयंसेवा कर रहे हैं। कोश बनाने के लिये जालस्थल की सेवा उपलब्ध कराने वाली संस्था Wikia.com कोश के जालस्थल पर कुछ विज्ञापन जरूर दिखा रही है जिससे कविता कोश परिवार को कोई लेना–देना नहीं है । जैसा कि स्पष्ट है कि कविता कोश का उद्देश्य लाभार्जन नहीं है अतः किसी अल्पज्ञानी और शंकाधर्मी व्यक्ति को भी शायद ही कॉपाराइट जैसे मुद्दों को लेकर किसी आपत्ति होगी । क्योंकि कोश का मूल उद्देश्य हिंदी कविता को इंटरनेट पर एक मुकाम पर लाना है ताकि समूचा संसार इसका लाभ उठा सके । हिंदी काव्य का विश्वव्यापी प्रतिष्ठा मिल सके । फिर भी कविता कोश दल द्वारा सावधानीपूर्वक उन्हीं कविताओं, कृतियों को रखा जा रहा है जो कॉपीराइट मुक्त हैं या जिन कवियों या उत्तराधिकारियों ने इसके लिए बाकायदा अनुमति दे रखी है । फिर भी जिन्हें आपत्ति है उन्हें अपनी वैधानिक शिकायत दर्ज कराने लिए और जिन्हें अपनी या किसी खास कवि की कविता उपलब्ध करानी हो उनके लिए भी kavitakosh@gmail.com पर आमंत्रित किया जाना कविता कोश के नियोजकों के खुलेपन को चरितार्थ करता है । आपसे गुजारिश सिर्फ इतनी कि शुभकामना ही मत दीजिए कविताकोश को, कुछ सहयोग भी दीजिए....आमीन.... ।

0 जयप्रकाश मानस