कल अचानक मुझे पता चला कि इंटरनेट पर प्रेम का विश्लेषण करने वाली एक नई तकनीक ईजाद की जा चुकी है, नाम है उसका - लव डिटेक्टर (Love Detector) । यानी प्यार की पहचान करने वाला सॉफ्टवेयर । अमूक आपसे प्यार करता है या नहीं ? यदि प्यार करता है तो कितना ? सुना है कि यह सॉफ्टवेयर दुनिया के कई देशों की टेलीफोन कंपनियाँ बाकायदा इसका उपयोग भी करने लगी हैं । अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, इजराइल, टर्की, कोरिया आदि की टेलिफोन कंपनियों के ग्राहकों को इस तकनीक का इस्तेमाल भी बातचीत के पश्चात करते देखा जा सकता है । जानते हैं यह सॉफ्टवेयर मात्र 50 डॉलर में उपलब्ध है । (Skype edition (File size: 6.09 MB)) तो पलक झपकते ही डाउनलोड भी किया जा सकता है जो मात्र 29 डॉलर का है । आप का प्रेमी मन नाच उठा होगा ना इस खबर को सुनकर !
प्रथम दृष्टया पढा तो मुझे भी बड़ी प्रसन्नता हुई । लगा कि वाह ! यह तो गजब हो गया । क्या कहने प्रौद्योगिकी के । बलिहारी जाऊँ । विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद एक सामान्य चित्त से इस बिषय को लिया तो लगा कि अब कंप्यूटर से प्रेमी या प्रेमिका के मन की थाह लगाना आसान है । यानी कि प्यार करने के लिए प्रेमी या प्रेमिका की शिनाख्त प्यार करने के पहले ही की जा सकती है ।
पर जाने क्यों मेरा मन था कि मान ही नहीं रहा था कि यह उतना उचित नहीं है जितना इसके बारे में लिखा गया है । जितना मैं इसको लेकर खुश हो रहा हूँ और प्रौद्योगिकी वालों का जयकारा लगा रहा हूँ । जरा गंभीर होकर बुद्धि और विवेक को जगाया तो सच मानिए काँप सा उठा ।
मुझे तरह-तरह के प्रश्नों ने घेरना प्रारंभ कर दिया । हलाकान हो गया मैं । लगभग पसीना-पसीना । एक दो टेलीफोन काल्स से ही हम यदि जानने लग गये कि अमुक मुझे प्रेम करती है या करता है तो दिल की जगह कहाँ बचेगी ? मस्तिष्क का क्या काम रह जायेगा ? यौवन का तकाजा कहाँ रह जायेगा ? मन में प्रेम ग्रंथियों और उससे जुड़ी संवेदना का क्या होगा ? प्रेम जो जीवन में नयीं उंमगें जगाता है, जीवन को नयी उर्जा और गति देता है, उसका क्या होगा ? किसी कन्हाई के प्रेम में राधा दीवानी बनकर क्योंकर गली-गली भटकने लगेगी । वह क्योंकर अंतस की सारी भावनाओं को उडेंलकर पाती लिखेगी ? गोपियाँ कृष्ण से मिलने के लिए दूध बेचने जाने का बहाना क्यों करेंगी । सीधे नहीं पहुँच जायेंगी अपने प्रेमी कृष्ण के पास ? लैला के लिए कौन मजनूं रेगिस्तान में भटकता फिरेगा ? उसे लैला के चेहरे में क्यों अल्लाह नज़र आयेगें ? वह लव डिटेक्टर का सहारा नहीं ले लेगा !
मौजूदा तस्वीर तो यही बयान करती हैं कि प्रेम को भी नियंत्रित करने के लिए प्रौद्योगिकी उद्यत है । क्या यह मनुष्य की प्रकृति के विरूद्ध नहीं है ? क्या यह मशीन का अति नहीं है, क्या यह मनुष्य को उसकी संवेदना से दूर ले जाने की हरकत नहीं है । यदि अभी नहीं है तो यह शुरुआत तो जरुर है । हाँ यह सॉफ्टवेयर अपराध की रोकथाम या खोजबीन के लिए उचित हो सकता है किन्तु जिस तरह से इसका उपयोग उन्नत प्रौद्योगिकी के दीवाने देश करने लगें है वह एक मानवता विरोधी कदम का प्रतीक है । इसे किसी भी दृष्टि से मान्यता नहीं दी जानी चाहिए । हम मानते हैं कि मशीनें सहुलियत के लिए होती हैं किन्तु चंद सहुलियतों के नाम पर ही उससे जुड़ी कमियों या खतरों को नज़रअंदाज़ कर जाना मूढ़ता होगी, दानवता होगी । मनुष्य को पूर्णतः मशीन बनाने की दिशा में गंभीर षडयंत्र भी । प्रतीकों में कहें तो भस्मासूरी प्रवृति को दोहराने का नया हथियार ।
इस तकनीक का सबसे कमजोर और खतरनाक पक्ष है उसका सस्ता और सर्वसुलभ होना । इसकी क़ीमत मात्र 50 डालर है । यानी कि पश्चिम का बेराजगार और भिखारी भी इसे खरीद सकता है यानी कि इस दानवी तकनीक को प्रौद्योगिकी प्रिय देश अपने बच्चों के हाथों तक पहुँचा चुके हैं । कहने का मतलब वहाँ भविष्य की पीढ़ी इस सॉफ्टवेयर के सहारे ही प्रेम का निर्धारण करेगी । जीवन-साथी का चयन करेगी । कुल मिलाकर उसका प्रेम मशीन के मार्फत नियोजित और नियंत्रित होगा ।
कल्पना कीजिए कि आपके आसपास यह सॉफ्टवेयर सहज उपलब्ध है और आपका बेटा या बेटी जो अभी मात्र 14-15 साल की है जिसके मन में विपरीत लिंग के प्रति सहज आकर्षण के भाव पैदा हो रहे हैं । वह नये लिंग के प्रति कुछ-कुछ सोचना शुरु कर रही है । अपने और दूसरे के मध्य प्राकृतिक अंतरों को समझ रही है । उन बुनियादी और दैहिक अंतरों से उसमें नैचुरल संवेदनायें विकसित हो रही हैं । वह अपने अस्तित्व को अपनी प्राकृतिक सीमाओं के साथ आत्मसात कर रही है । जाहिर है कि यह उम्र का ऐसा पड़ाव है जहाँ वह स्नेह और प्रेम में अंतर करना जान रही है । उसके मन में दुनिया का शाश्वत तथ्य अर्थात् पुरुष और प्रकृति (नारी) की भूमिकाओं के लेकर एक सोच और धारणा विकसित हो रही है । वह स्वप्नों से गुजर रही है । वह दुनिया के प्रति रागमय होने जा रही है । उसके मन में प्राकृतिक रूप से प्रेम का अंकुरण हो रहा है । वह अपने साथी की तलाश में स्वयं को निखार रही है या स्वयं को रच रही है । और एकबारगी उसके हाथ में लव-डिटेक्टर मिल गया है ।
आप सोच सकते हैं वह क्या करेगी या करेगा ? ऐसे में प्रेम के लिए स्वाभाविक और सहजात प्रवृतियों का क्या होगा ? हाय, राम, भगवान बचाये इस प्रेम विरोधी तकनीक से ......। कैसे मानी जा सकती है ई-कामर्स के नाम पर कंपनी चला रहे इन व्यापारियों की बात जो यह कह रहे हैं कि मात्र मनोरंजन के उद्देश्य के लिए लव-डिटेक्टर उपलब्ध कराया जा रहा है ।
मशीनें यदि इस तरह मनुष्य की समस्त स्वतः स्फूर्त मानवीय संवेदना को ध्वस्त कर देंगी तो फिर मनुष्य के पास क्या रह जायेगा मनुष्य कहलाने के लिए । यदि यही दौर रहा तो वह दिन भी आयेगा जब मनुष्य न बोलेगा, न चलेगा, न कुछ कर पायेगा । उसका मिजाज ही नेस्तनाबुत हो जायेगा । एक पत्थर में तब्दील हो जायेगा । एक रोबोट बन जायेगा ।
यदि आप भी पढ़े-लिखे तर्कशील व्यक्ति की तरह कहते हैं कि टेलिफोन और इंटरनेट ने कोसों दूर बैठे दो दिलों को एक दूसरे के करीब लाया है, देशकाल, जाति, रंग-रूप, धर्म-मजहब की दुर्भावनाओं के जंजीरों से मुक्त कर दिया है, उन्हें प्यार का पाठ पढाया है और वे मानवता के सच्चे पुजारी बन सके हैं तो शायद आप यह भूल रहे हैं कि उसने उससे ज्यादा जीवन की स्वाभाविक क्रियाकलापों की भी धज्जी उड़ा दी है । इंसान और इंसान के बीच मशीन का यह नया उत्तरदायित्व अपने मूल में प्रकृति विरोधी है । मानवता विरोधी है । मशीनों को मनुष्य के लिए जरुरी मानने का यह तर्क दरअसल मनुष्य विरोधी कृत्यों का समर्थन है जिसके पीछे वह सब है जिसके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं रह जायेगा । मनुष्य से उसकी संवेदना छीन ली जाय तो फिर क्या बचेगा उसके पास मनुष्य कहलाने के लिए ! अब वह समय आ गया है कि समूचे मानव जगत् को सचेत रहना होगा कि मशीनों और प्रौद्योगिकी को उसी सीमा तक मान्यता दी जाय जिस सीमा तक वे मनुष्यता को बढावा देने में कारगर और क्रियाशील हैं । कहीं उससे मनुष्य का भविष्य तो ही खतरे में नहीं पडता जा रहा है इस बात की समीक्षा निरंतर होनी चाहिए ।
यह सर्वविदित है कि मशीनें अपने मूल रूप में मनुष्य विरोधी होती हैं । वे मानव श्रम और मानव धर्म को प्रकारांतर से खारिज़ भी करती हैं । यानी वे मनुष्य को प्रकृति से दूर हटाती हैं । जीवन क्रम कृत्रिमता के जहरीली चासनी में डूबने लगता है । पश्चिम में मशीनीकरण से उपजी जीवन शैली इसका जीवंत उदाहरण है । और अब तो समूची दुनिया भी मशीन और विकसित प्रौद्योगिकी की दीवानी हो चुकी है ।
नये वैकासिक दर्शन के अनुसार मशीनीकरण को विकास के लिए अपरिहार्य माना जा रहा है । उपनिवेशवादी सोच और अर्थशास्त्र की बात करें तो वह समूचे विश्व को एक प्रवेश-द्वार विहीन मंडी में तब्दील देखने की दलील दे रहा है । तीसरी दुनिया के देश और समाजवादी अर्थव्यवस्था के हिमायती भी इसी राग को अलापने लगे हैं जो कभी मार्क्स और इंजिल्स को भजते थकते नहीं थे । चाहे यह मजबूरी रही हो या फटाफट विकसित बन कर रसगुल्ले चखने के लिए ललचाती जीभ की खुजली पर वास्तविकता यही है कि प्रकृति, मनुष्यता और न्याय आधारित अर्थवस्था को लगभग सारे देश तिलांजलि देने पर उत्सुक जान पड़ते हैं । वहाँ सबसे बड़ा परिवर्तन जो गत दशकों में देखने को मिल रहा है वह है मशीन आधारित जीवन शैली के लिए खतरनाक किस्म का मोह । ऐसे जीवन दर्शन के पक्षधरों को सर्वत्र यह कहते सुना जा सकता है कि मशीन से वे सारा सुख जुटाने में समर्थ हैं । और मशीन उनके विकास का मुख्य आधार है । विडम्बना कहिये कि ऐसे जनपदों या मानसिकता में कहीं भी मनुष्य या मानवता आधारित समाज के लिए कोई गुंजाइस नहीं छोड़ी जा रही है । कुल मिलाकर कहें तो उनके लिए मशीन, कलपुर्जे और प्रौद्योगिकी ही सब कुछ है । अपने एशिया की ही ओर ही निहारें तो साफ तौर पर देख सकते हैं कि वहाँ लगभग हर देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित एक पृथक मंत्रालय आकार ले चुका है । कहना न होगा कि एशिया के हर देश जो कभी प्रकृति, कृषि यानी जल, जंगल, जमीन आधारित सामाजिक संरचना के विकास पर जोर देते थे वे अब अपने देश की सम्पूर्ण व्यवस्था को प्रौद्योगिकी केंद्रित देखना चाहते हैं । यहाँ आपत्ति इस बात पर नहीं है कि है कि वहाँ प्रौद्योगिकी विशेषतः विकसित प्रौद्योगिकी के संवंर्धन से मानव जीवन या जनता को सुविधा नहीं चाहिए संकट तो इस बात का है कि एक कंप्यूटर के आ जाने से हजारों हाथ बेकार हो चुके हैं । यह दीगर बात है कि कंप्यूटर ने श्रम और समय के व्यर्थ बर्वादी से मनुष्य को निजात दिलाने में सतत् ऐतिहासिक योगदान को गति दिया है । पर ऐसे मुल्कों में कंप्यूटर और इंटरनेट के कारण समाज का ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न होता नज़र आ रहा है । एक आंकडे के अनुसार कंप्यूटर और इंटरनेट आधारित अपराधों में जो वृद्धि एक दशक में हुई है उसमें एशिया की भूमिका चौकाने वाली है । बहरहाल हम सीधे मुद्दे पर आते हैं .....
गाँधी और उनसे मिलते जुलते जीवन दर्शन वाले देश खासकर नवविकासशील अर्थात् तीसरी दुनिया के देशों में भी मशीनों का विरोध अब पुराने ज़माने की बात हो चुकी है । इधर अपनी जीवन-पद्धति और अर्थव्यवस्था को ही देखते हैं तो बड़ा अचरज होता है कि क्या यह वही भारत है जहाँ कृषि संस्कृति से सारा जीवन नियंत्रित और व्यवस्थित होता था । हम कबके भूल चुके हैं कि कृषि संस्कृति ही ऋषि संस्कृति थी । जहाँ सर्व सन्तु निरामयः गूँजती थी । यहाँ निरामयः शब्द काबिले गौर है । सबका निरामय होने का दर्शन भारतीय परिवेश में ही सम्भव था । पश्चिम इस जीवन-दर्शन के विपरीत ध्रुव में रहा है । वहाँ सबके निरामयता पर नहीं निजी आनंद पर विश्वास किया जाता है । पुरानी बात दोहरा दें तो वह मन को नहीं तन रसिया है । वहाँ 'हम ' नहीं बोलता, 'मैं' की घोर गर्जना सुनायी देती है, चहुँओर, चारों प्रहर । मशीन या उन्नत प्रौद्योगिकी जनित चीजें इस पश्चिम मनोवृति के पीछे खड़ी हैं, एक प्रेरक इलेमेंट के रूप में । और ऐसे उपादानों ने ही पश्चिम की दुनिया को मनुष्य, मनुष्यता विरोधी सोच के लिए लगातार उकसाने का काम किया है । इस सारी दुर्बलताओं के बावजूद आज समूचा विश्व मशीन से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता । मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह भी रही है कि ऐसी चीजें जिसे हम मशीन कहा करते हैं वह प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक मनुष्य के साथ रहती आयीं हैं । जरा मिथकीय बातें करने की अनुमति दें तो कहा जा सकता है कि जितने भी देवता हुए हैं सभी शस्त्र धारण करते हैं । कोई पुष्पक विमान से यात्रा करता नज़र आता है तो कोई अगिनवाण का मारक प्रहार जानता दिखाई देता है । और उधर मनुष्य के इतिहास को देखें तो कभी हम पत्थर से चिरई-चिरगुन मार कर उदर की क्षुधा शांत करते दिखाई देते हैं तो कभी (आज) हम कांटीनेंटल लंच लेने वाले वन-विहार के बहाने दोनाली से हिरणी को अपना शिकार बनाते हुए लाइव देखते हैं । कुल मिलाकर कहें तो आज का मनुष्य ही नहीं वरन् हर काल में मशीनी उपकरण रहित मनुष्य नज़र दिखाई ही नहीं देता । पहले या सभ्यता के मानवीय सोच वाले चरणों में सर्वत्र मशीनें या उपकरणें कर्म-सहायक थीं अब वे भ्रम-सहायक बन चुकी हैं । यह अति है नित नयी मशीन इजाद करने की अतृप्त भूख की । इसके पीछे भी पश्चिमवादी मन का संस्कार है । ऐसा संस्कार जहाँ संग्रहण का भाव प्रमुख है, त्याग का भाव जहाँ पाँव ही पसार नहीं सकती ।
बहरहाल आपका यह कहना कि – "मशीनें अगर इंसानी जिंदगी को इस हद तक काबू करने चलीं हैं, तो फिर यह इंसानी मिजाज के अंत की शुरुआत होगी । " सौ फीसदी सच है । मशीनों ने मनुष्य को मनुष्य से दूर ही किया है । फोन ने चौपालें और बतरसों को मार डाला । बिजली ने माटी के दीये छीन लिये । मोटर से यात्रायें निरस हो गईं । यात्रायें निरस हो गईं तो यात्राओं से जीवन को प्रकाशित करने वाले संस्मरण गायब होते चले गये । फैक्स आया तो हरकारा को हताशा सौंप दी गई । टाइपराइटर और इधर कंप्यूटर आया तो फर्रू से लिखने की रम्य परंपरा और एक सार्थक योग कला ही जाती रही है । एलोपैथ आया तो गाँव के सारे बैद्य थैले छाप दिखाई देने लगे । टूथपेस्ट क्या आया नीम जैसे जीवनदायिनी वृक्ष की परिक्रमा ही इंसान भूलता जा रहा है । फेयर एंड लवली, पौंड, लक्मे आदि ब्युटीक्रीम के पदार्पण से हल्दी-उबटन का सत्यानाश हो चुका है । कितना गिनायें ?
पर इंसानियत को बचाने की अंतिम जद्दोजहद भी विज्ञान में दिखाई देती है । वैज्ञानिक चेतना की ईजाद यानी कि मशीनों, उपकरणों के पीछे मनुष्य के सुख (कम से कम भौतिक सुख) की शुभकामनायें हैं । एक सच्चा वैज्ञानिक कब चाहता है कि वह मनुष्य को समाप्त करें । मनुजता उसकी खोज या तकनीक से भोथरी हो जाये । पर मनुष्य मूलतः परमार्थी होते हुए भी स्वार्थ से मुक्त नहीं हो पाता । दुनिया की कई मशीनी आविष्कार के पीछे श्रेयता भी है । श्रेय लेने की होड़ भी पश्चिमी दुनिया का मूल संस्कार है । इसी होड़ की छूट में कई अचरज भरे कार्य पश्चिम में होते हैं । पूरबी दुनिया इसकी अनुमति नहीं देती । शायद इसी का नाम भारतीयता भी है । एक सच्चा भारतीय त्याग पर जोर देता है, वह जब कुछ रचता भी है तो मनुष्यता को केंद्र में रखकर । और ऐसे क्षणों में वह श्रेय लेने की भावना को दबाता चलता भी है । क्योकि वह मशीनी सभ्यता से रचा-पचा इंसान नही है । मैं लगे हाथ पत्रकारिता का ही उदाहरण देना चाहता हूँ । एक सच्चा भारतीय संपादक चाहे कुछ भी करले अपने माँ-बहिन के (अपनी न सही तो दूसरों की ही) बलात्कार पर उसका नाम नहीं छापता । उसका फोटो भी नहीं देता । यानी कि उसे शिनाख्त नहीं होने देता ताकि वह समाज में अपने पुनर्वास के लिए फिर से कोशिश कर सके । पर पश्चिम में, बाप रे बाप । कुछ दिन पहले ब्रिटेन को जरा नज़दीक से देखने का मौका आया– मैंने पाया कि एक-एक डेढ़-डेढ़ किलो वाले दौ पौंड के अखबारों में वहाँ पत्रकारिता के नाम पर पोर्नोग्राफी ही हर सप्ताह परोस दी जाती है । शायद वहाँ कोई किसी की प्रेमिका नहीं होती । शायद वहाँ कोई किसी की बहिन नहीं होती । और शायद वहाँ कोई किसी की माँ भी नहीं होती ।
आज ब्रिटेन सहित सारे पश्चिम की कला, साहित्य चेतना तो वायवीय उपकरण बन चुकी हैं वहाँ मानवता की श्रीवृद्धि की बात सोच पाने में जरा कठिनाई होती है । यह अलग बात है कि इसी कला माध्यमों ने हमें अपनी अस्मिता को विदेशियों और उनकी संस्कृति (विकृति) से बचाने में मदद करती रही हैं । और उधर रूस और चीन जैसे महाशक्तियों के उदय में भी कला चेतना ने अपनी भूमिका बखुबी निभायी । पर आज चीन और रूस भी प्रौद्योगिकी के लिए न केवल पागल हो चुके हैं बल्कि चीन के बारे में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि वह आने वाले समय में दूसरा बिल गेट्स दे सकता है । कहने का आशय कि किसी भी ईजाद को उस समाज में कैसे ले जाती है, यही खास बात होती है । चाहे तो आप उसे मनुष्य विरोधी हरकतों के लिए उपयोग करें चाहें तो उसी से समूची मनुष्यता को नेस्तनाबुत करने की सोच डालें ।
लव डिटेक्टर का उपयोग केवल अपराध रोकने के लिए या प्रेमजनित अपराध की शोध-वृति में होनी चाहिए । तकनीकी के बढ़ते हुए प्रभाव को और उससे कृष्ण-पक्ष से बचाने के लिए हर उस जागरुक लेखक-पत्रकार-ब्लॉगर और विचारवान व्यक्ति को लिखना होगा जो दुनिया को दुनिया जैसे बने रहने देना चाहते हैं । जो लगातार सोचते हैं कि तकनीकी मनुष्य जीवन की सहायक बने, नाशक नहीं । इसे नई पीढ़ी को लगातार सतर्क करते रहने की आवश्यकता है । अन्यथा वह इतनी स्वार्थी हो चुकी है कि जाने कब ऐसा मशीन भी बना डाले जिसका बटन दबाकर जाना जा सके कि उसकी प्रेमिका कहाँ रहती है? कैसी है वह ? कब उससे प्रेम होगा ? यानी कि प्रेंम भी वह मशीन के माध्यम से खोजने लगे । यानी कि मनुष्य जीवन की सारी उदात्त क्रियायें मशीन से नियंत्रित होने लगे । ऐसे क्षणों में मैं पुनः दोहराते हुए यही कहना चाहूँगा कि 'टेक्नाल़ॉजी दुधारी तलवार है ' और इसके उस धार को ही हमें जानना-समझता-बरतना चाहिए जो हमारी ही हत्या का कारण न बने ।
जयप्रकाश मानस
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