Friday, May 23, 2008

अंतरजाल पर आत्महत्या के मायने



आत्महत्या जैविक अस्मिता का नष्टीकरण है । और मनुष्य जन्म का भ्रष्टीकरण भी । वह जीवन के प्रतिरोध में मनुष्य का सबसे बड़ा निरुत्साही कदम है । वह आत्मघाती व्यक्ति के खिलाफ़ ही नहीं, मात्र परिजनों के विरूद्ध ही नहीं, समूचे समाज, देश, युग और मानव सभ्यता में भी भयानकतम काला धब्बा है । एक दृष्टि से वह हत्या से भी ज्यादा जघन्य है । अर्थात् मनुष्य द्वारा किया जाने वाला सबसे बड़ा दुष्कर्म ।

अनेक बार तथाकथित प्रस्थिति, सामाजिक किन्तु थोथे अहंकार, सडियल मान्यताओं की गत्यात्मकता के लिए उसकी संस्तुति भी कर दी जाती है । कम से कम दृश्य माध्यम वाली कथा सीरियलों, चलचित्रों और यदा-कदा साहित्यिक उपन्यासों और कहानियों में भी पाठक ऐसे पात्रों को नायक या नायिका के रूप में देखने लगता है । पर सच कहें तो ऐसे समय पाठक आत्महत्यारे को अपना अनुसमर्थन देते हुए भी अनजाने में मनुष्यता को नकारता भी होता है । वह आत्महत्या को वैयक्तिक रूप से प्रांसगिक मानते हुए उसके लिए सामाजिक स्वीकृति की ज़मीन भी तैयार करता रहता है । ऐसे क्षणों में वह स्वयं को शेष-दुनिया की शुचिता, कल्याण का आंकाक्षी घोषित करते हुए जरूर आत्महत्या करने वाले के प्रति सहानुभूति भी रखता है परंतु क्या ऐसी पाठकीय सहानुभूति से आत्महत्या करने वाले उस पात्र की ज़िंदगी फिर से लौटाई जा सकती है । कदापि नहीं । और जब किसी पाठक, किसी व्यक्ति चाहे वह पिता, पति, पुत्र, पुत्री, परिवार, कुल, समाज, देश ही क्यों न हो को जीवन के पुनर्सर्जन की हैसियत नहीं तो उसे आत्म-हरण को मान्यता प्रदान करने का घोषणा करने का अधिकार कैसे भी सौंपा जा सकता है । इस तरह से क्या हम आत्महत्या को प्रोत्साहित नहीं करते रहते । बहुधा हम त्याग के बहाने आत्महत्या को हितकारी निरूपत कर दिया करते हैं । दरअसल हम ऐसे क्षणों में आत्महत्या करने वाले की हत्या को अपना मौन-स्वीकृति भी प्रदान करते रहते हैं । आप जाने क्या सोचते हैं पर व्यक्तिगत तौर पर मैं तो फिलहाल ऐसा ही सोचता हूँ । क्योंकि ऐसा सामाजिक अथ के लिए ऐसा त्याग भी किसी की इति की बुनियाद पर रचा गया होता है । यह अलग बात है कि पश्चिमी गलियारों में आत्महत्या को भी मनुष्य के अधिकारों में शामिल किये जाने की अनुगूंजे कभी-कभार सुनाई देती रहती है ।

आत्महत्या मनुष्य बोध के इतिहास में सदा अस्वीकृत रही है। हर युग और समाज ने उसे निंदनीय नज़रों से देखा है । धार्मिक आचार संहिताओं में उसे पाप माना गया है तो राष्ट्रीय विचार धाराओं में नागरिकता के खिलाफ कायराना अंदाज। सामाजिक मान्यताओं में उसे असामाजिक श्रेणी में रखा गया है । विधान की दृष्टि में अपकृत्य । दंडनीय अपकृत्य । लोक साहित्य में अवश्य वह नायक-नायिका के प्रतिस्पर्धी वचनों में आया है किन्तु उलाहना के लिए । प्रेम-प्राप्ति के लिए चेतावनी बतौर ।

इन सब सत्यों के बावजूद समकालीन जीवन का एक सच यह भी है कि आत्महत्याओं का रोग समाज में लगातार बढ़ता जा रहा है । समाजशास्त्र, दर्शन, चिकित्सा, जीव-विज्ञान आदि ज्ञान की शाखाओं में उसे लेकर व्यापक चिंता-चिंतन, अध्ययन-विश्लेषण भी होते रहे हैं । इमाइल दुर्खीम जैसे फ्रांस के समाजविज्ञानी ने ऐतिहासिक अध्ययन के पश्चात अपना सिद्धांत भी हमारे समक्ष रखा है । उधर फ्रायड़ ने भी आत्महत्या के कारणों पर मनोवैज्ञानिक कथ्य-तथ्य दुनिया को दिया है । सच कहें तो आत्महत्या को लेकर न केवल उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में विस्तार हुआ है (खास कर समाज-दर्शन में) बल्कि इसे लेकर सरकारें, युनेस्को आदि वैश्विक संगठन भी चिंताकुल हैं, इसे हतोत्साहित करने के लिए कटिबद्ध हैं पर ताज्जुब होता कि सारी दुनिया में व्यक्तिगत चेतना में लगातार वृद्धि होने और मनुष्य की सत्ता को सर्वोपरि मानने वाले जीवन दर्शन, सोच, विचार के वैश्विक प्रतिष्ठा के बाद भी आत्महत्या की दर थमती नज़र नहीं आती है । चाहे वह महाराष्ट्र में किसानों द्वारा किया जाय या कहीं और । मूल में चाहे जो भी कारण रहे हों ।

समाजशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मुझे छात्र-जीवन में पाठ्यक्रम में आत्महत्या को लेकर अब तक हुई समाजशास्त्रीय सिद्धांतों और विवेचनों को पढ़ने और समझने का भी मौका मिला है । परंतु गौतम पटेल ने जिस तरह से जीवन की महत्ता और सत्ता को केंद्र में रखकर आत्महत्या को सभी कोणों से देखने-परखने का प्रयास किया है वह स्तुत्य है । वह किसी विश्वविद्यालय के शुष्क आंकडों, सिद्ध विचारों का लेखा-जोखा मात्र नहीं । वह आत्महत्या के निषेध का सर्वोत्तम पाठ है । सरल और आत्मीय शैली में लिखी गई किताब । भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी किताब में एक मोहनी है ।(मोहनी यानी मधुमक्खी का मधुरस) जानते हैं गाँव-घर-जंगल में जहाँ-जहाँ मोहनी पाया जाता है वहाँ-वहाँ भौंरे भी मंडराते पाये जाते हैं । गौतम की किताब मोहनी का घर है । वहाँ सर्वत्र मोहनी रस बिखरा पड़ा है । यह मोहनी रस उनकी शैली और भाषिक सौंदर्य के कारण है । आपको इस किताब में रमने से एकबारगी लगेगा कि आप आत्महत्या जैसे शुष्क विषय पर नहीं पढ़ रहे हैं बल्कि कोई ललित निबंध बाँच रहे हैं । समाजशास्त्रीय विषय में भी लेखक ने जिस तरह रम्यता की गुंजाइश निकाली है वह साबित करता है कि यदि लेखक विशुद्ध साहित्यिक अनुशासनों पर कुछ काम करे तो वह अपनी उपस्थिति से इधर साहित्यिकि पाठकों को भी चौंका सकता है ।
चलिए इसे एक उदाहरण लेकर ही देखते हैं –

“जीते-जागते रहने का नाम है जीना और जीते जी मर जाने का नाम है आत्महत्या । प्राणधार अथवा प्राणधारण करने वाले को ही बने रहना अथवा प्राण धारण किये रहना ही प्राणी का परम कर्त्तव्य है। दूसरे शब्दों में हर हाल में जीवन के दिन बिताना ही जीना है। इसमें अगर-मगर,किन्तु-परन्तु, लेकिन, फिर भी के लिए कोई स्थान नहीं । निष्कर्ष यही कि हमें हर हाल में जीना है। मत्स्य नियम अर्थात बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। यह नियम तब भी था अभी भी है और आगे भी रहेगा । इसे हम किसी भी कीमत पर बदल नहीं सकते । जंगली विधान अर्थात बड़े वृक्षों के नीचे छोटे वृक्ष नहीं पनप सकते । अतीत में भी नहीं, वर्तमान में भी नहीं और भविष्य में भी नहीं । यह एक प्राकृतिक विधि है। इसमें परिवर्तन प्रकृति को भी मान्य नहीं मवेशी कानून अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस ।”

इस किताब के पाठकों के लिए यह बोनस होगा । हिंदी में जिस तरह से साहित्येतर विषयों का लेखन कम हुआ है इसके पीछे पठनीय आकर्षण का अभाव रहा है । शिल्प और शैली की जटिलता के कारण इधर आसपास के तथाकथित अंतरराष्ट्रीय कवि भी अपने पास-पडौस के पाठकों में नहीं पढे जा रहे हैं । ऐसे दौर में जटिल सामाजिक समस्या को रम्य और साहित्यिक अंदाज में प्रस्तुत कर गौतम ने फिर एक बार याद कराया है कि लिखा ऐसा ही जाना चाहिए जो पाठकों के चित्त को घेरे रख सके । जो उसके मन-मनीषा में शब्दों की दुनियावालों से चिढ़ उत्पन्न न कर सके और सांस्कृतिक दुनिया में यह नकार न जनम सके कि वह आखिर क्यों कर पढे।

गौतम की दृष्टि मूलतः आध्यात्मिक रही है । वे किसी चीज को भारतीय परंपरा के अक्स में देखते-परखते हैं । शायद यही कारण है कि आत्महत्या जैसी विषय-वस्तु को परत-दर-परत खोलते वक्त वे मूल्याँकन में भारतीय मान्यताओं की कसौटी को अपने समक्ष तवज्जो देते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि वे पश्चिम की सर्वमान्य विचारधाराओं, इतिसिद्ध दृष्टियों को नकारते चलते हैं । वे अपने निष्कर्ष में मनुष्य जन्म को सर्वोपरि देखते हैं । तर्कों को इस तरह प्रतिष्ठित करते हैं कि कोई जीवन से हारा हुआ व्यक्ति इसे पढ़ ले तो शायद ही वह आत्महत्या का विचार न त्यागे ।

इस ई-किताब में आत्महत्या के इतिहास, कारणों, परिस्थितियों, लक्षणों, निदानों, मान्यताओं और विचारों को 16 अध्यायों में संजोया गया है । इस शोधात्मक किताब में आत्महत्या को रोकने की दिशा में कार्यरत सामाजिक संस्थाओं की सम्यक जानकारी भी दी गयी है । इस मायने में यह किताब केवल साहित्यिक पाठकों के लिए ही नहीं बल्कि समाज सेवा के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने वालों, समाज अध्येताओं के लिए भी महत्वपूर्ण बन पड़ी है ।

जैसे कि हम सब जानते हैं कि आज नई पीढ़ी लगातार किताबों से विमुख होती जा रही है । नये ज़माने की प्रौद्योगिकी भी उसे किताबों से दूर ले जाने का षडयंत्र कर रही है । ऐसे समय में खासकर तब जब दुनिया के समस्त ज्ञान-विज्ञान और मनुष्य द्वारा खोजे, सिद्ध किये गये कौशलों को अंतरजाल पर रखने की स्वस्थ शुरूआत हो चुकी है । गौतम द्वारा इसे सीधे अंतरजाल पर रखना सामयिक कदम है । आज भले ही हम कह लें कि अंतरजाल की संस्कृति भारत में नहीं चलेगी । पर ऐसा कहना परिवर्तन की शाश्वत गति को नकारना भी होगा । भारतीय प्रतिभा और उसके देन को भी नकारना होगा । क्योंकि यह तो बिलगेट्स भी समझ चुके हैं कि ज्ञान के विश्वव्यापी माध्यम इंटरनेट को नित नया और चिरंतन बनाये रखने के लिए भारतीय प्रतिभा को नकारना अब असम्भव होगा । और सच्चे अर्थों में अंतरजाल या इंटरनेट गाँव-घर के ज्ञान, कौशल, शिक्षा, सिद्धि, पद्धति को वैश्विक बनाने का मानवीय सरोकारों से भरा संचार माध्यम भी है । केवल मनोरंजन और अपकृत्यों को प्रोत्साहित करने वाला माध्यम नहीं । और यह भी सच है कि जब तक हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक कौशलों को अंतरजाल पर नहीं रखेंगे तो नयी पीढ़ी क्योंकर पोर्न साइट की ओर नहीं लपकेगी । मेरा व्यक्तिगत मानना तो यह भी है कि जब हम इंटरनेट को हिंदी की ताकत, क्षमता और दक्षता से नहीं समृद्ध नहीं कर सकते यानी एक बड़ी रेखा नहीं खेंच सकते तो किस मुँह से कह सकते हैं कि पश्चिम हमारी भावी पीढ़ी को विकृति की ओर धकेल रहा है ।

भले ही आप कह लें कि खिलेगा तो देखेंगे । पर कहाँ-कहाँ तक आप खिलायेंगे । भले ही आप मिठलबरा की आत्मकथा सुनाकर ऐसे लोगों से अपने आसपास को बचा सकते हैं । पर उनका क्या होगा जिनके आसपास भी ऐसे मिठलबरे पाँव जमाये हुए हैं और जो उखडने का नाम ही नहीं लेते । भले ही आप यह चीखते चिल्लाते रहें कि आपके किसी खास ने सरस्वती को भी संपादित किया था । पर यह कितने लोगों को सुनाई देगी । पर मुझे इस समय संतोष है कि भविष्य के सबसे कारगर माध्यम इंटरनेट पर जहाँ आत्महत्या पर और जिस पर हिंदी में कोई सामग्री नहीं थी अपनी समूची किताब को ई-किताब में गौतम ने तब्दील कर दिया है । इससे हिंदी ही समृद्ध होगी समूचे विश्व में ।

यह अलग बात है कि यह किताब भविष्य में प्रिंट में भी आयेगी । ज्यादा से ज्यादा पाँच सौ प्रतियों में । जिसे ज्यादा से ज्यादा वे पाँच सौ पाठकों तक पहुँचा सकेंगे । पर इंटरनेट पर इस कृति के आने से अब दुनिया भर के सभी हिंदी पाठक इसका फायदा हजारों वर्ष तक उठा सकेंगे और गौतम पटेल का नाम अंतरजाल पर आत्महत्या लिखने वाले पहले कृति लेखक के रूप में शुमार किया जाता रहेगा । आप उन्हें एक गंभीर लेखक के रूप में नहीं लेगें इसके उनका क्या बिगड़ेगा ?


समीक्षित कृति
कृति-आत्महत्या
लेखक- गौतम पटेल
प्रकाशक - वैभव प्रकाशन, रायपुर
मूल्य- 100 रुपये

Thursday, May 22, 2008

शब्द


अपने अँधेरे में पड़ा था चुपचाप
आदमी उसके पास पहुँचा
जाग उठा वह
नहा उठा रोशनी से आदमी भी
सिर्फ़ इतना ही नहीं
नहा उठी सारी दुनिया उसकी रोशनी में
निहायत नये चीज़ – अपने नामकरण संस्कार से
संस्कारित हो उठा सारा संसार
जैसे शिशु के आने पर नाच उठता है बाँझ का परिवार

(रचनाकाल-12 मई 2007)

Wednesday, May 21, 2008

शहर में



यहाँ भी -
सूरज उगता है पर नगरनिगम के मलबे के ढेर से
चिड़िया गाती है पर मोबाईल के रिंगटोन्स में
घास की नोक पर थिरकता हुआ ओस भी दिखता है पर वीडियो क्लिप्स में
अल्पना से आँगन सजता है पर प्लास्टिक स्टीकरों वाली
थाली में परोसी जाती है चटनी, अचार पर आयातित बंद डिब्बों से
बड़े-बडे हाट भरते हैं पर कोई किसी को नहीं भेंटता
लोग-बाग मिलते हैं एक दूसरे से पर बात हाय-हैलो से आगे नहीं बढ़ती
चिट्ठियाँ खूब आती हैं पर ई-मेल में मन का रंग ढूँढे नही मिलता
खूब सजती हैं पंडालें पंडों की पर वहाँ राम नहीं होते
उठजाने की ख़बर सभी तक पहुँचाती हैं अखबारें पर काठी में कोई नहीं आता
इस पर भी शहर जाना चाहते हो जाओ
पर तुम्हें साफ-साफ पहचाना जा सके
जब भी लौट कर आओ

Sunday, May 18, 2008

किसने छीना बस्तर का मानवाधिकार ?


प्रजातंत्र कई रोगों से ग्रस्त हो चुका है । यहाँ प्रजा चींटी साबित हुई है और तंत्र पागल हाथी । राजनैतिक दल वास्तविक हकदारों के खिलाफ़ लड़ने में कारगर साबित नहीं हैं । जनप्रतिनिधि के रूप में हर किसी ने जनता के हिस्से को डकारने का कार्य किया है । सरकारी तंत्र में घनघोर शोषण है । कार्यपालिका के गलियारों तक गरीबों, दलितों, आदिवासियों की चीख-पुकार नहीं पहुँच पाती । उद्योगपतियों, व्यापारियों ने निरंकुश होकर जनता की गाढ़ी कमाई पर सेंध मारा है । बिचौलियों ने मनभर अनपढ़ों को लुटा है । न्याय चाँदी के सिक्कों के बिना मुहैया नहीं हो पाता । आम जन के स्वप्नों की रोज हत्या हो जाती है । कोई सुननेवाला नहीं । मानव होने का मूल अधिकार ही यहाँ चरितार्थ नहीं होता । यह सब ठीक है । भारतीय प्रजातंत्र का आत्मघाती यथार्थ भी है जिसके खिलाफ लड़ने की बात चलने पर आज हर कोई दूसरों के घर से भगतसिंह या सुभाषचंद्र के अवतरित होने की राह देखता है ।


पर इसके विकल्प में नक्सलवाद कैसा हल है जिसने सिर्फ अमानवीय विनाश का कलंक ही पोत दिया है हमारे मुँह पर । दूर जाने की नहीं कहूँगा । मेरे पड़ोसी जिले बस्तर को ही देख लें – और समूचे समय को ही नहीं । मात्र पिछले साल का मुआयना कर लें -


बस्तर में पिछले एक साल में यानी कि 2007 में नक्सलियों ने दौरान 635 हमले किये हैं । जाहिर है ये हमले जनता पर ही हुए हैं । ऐसी जनता, जो आदिवासी है । सीधी-सादी है । निर्दोष है । वन-प्रांत की स्थायी शांति चाहती है । इन हमलों में 242 बेकसुर नागरिकों को अपनी जान गवानी पड़ी है । इनमें से अधिकांश इसलिए मारे गये हैं क्योंकि उन्होंने नक्सलियों का साथ देने से इंकार कर दिया । इतना ही नहीं अपने माँ-बाप और घर-परिवार को छोड़कर जंगलों में रात दिन सेवा देते 125 सुरक्षा बल के जवान इन नक्सिलयों द्वारा मौत के घाट उतारे गये हैं । इसलिए कि ये दो रोटी की जुगाड़ में पुलिस में नौकरी करने के लिए विवश थे ।


क्या-क्या कहर नहीं ढ़ाया है बस्तर में प्रजातंत्र का विकल्प तलाशने वाले हिंसक लोगों ने इस बीच । उन्होंने न ननिहालों के स्कूलों को छोड़ा है न ही छोटे-मोटे दवाखानों को । इस दरमियान बार-बार बिजली का टॉवर गिरा दिया गया तो कभी सारे बस्तर की बिजली ही ठप्प कर दी गई । पंचायत भवन जहाँ ग्रामीण अपने विकास की रणनीति गढ़ते हैं को भी सरे आम इस दौरान सैकड़ों की सख्या में नेस्तनाबुत कर दिया गया है । आये दिन रेलवे की पटरियाँ उखाड़ दी गई जिससे किसी गर्भवती माँ का बच्चा पेट में ही मर गया, मरणासन्न बूढ़े बाप का मुँह तक उसके परिजन नही देख पाये । बरसों का प्यार इन आंतकियों के कारण टूट गया । दो प्रेमी जीवन भर के लिए बिछुड़ गये । पढ़ा-लिखा बेरोजगार समय पर साक्षात्कार नहीं दिला सका ।


एक आँकड़े के अनुसार मात्र पिछले 365 दिन में ही नक्सलियों ने 55 प्रायमरी शाला भवन, 8 पंचायत भवन, 9 शाला आश्रम, 9 छात्रावास, 8 आंगनबाड़ी केन्द्रों को नष्ट कर दिया है । इसके अलावा अन्य 18 भवनों को इन्हीं तथाकथित प्रजाहितैषियों ने नष्ट किया कर दिया गया है । जिससे करोड़ों रूपयों की सार्वजनिक संपत्ति स्वाहा हो चुकी है । यह केवल सरकारी हानि नहीं । यह जनता के खून-पसीनों से संचित धन की भी हानि है, जिसमे बस्तर के आदिवासियों का भी हिस्सा है । जिसमें समूची भारतीय जनता का भी अंशदान है ।


जो बस्तर के आदिवासियों की शांति झीन लेना चाहते हैं । जो माँ-बाप से उसके निर्दोष बेटों का सहारा छीन लेना चाहते हैं । जो जनता के क्रांतिकारी विकास के नाम पर उनके घरों, अस्पतालों, सामुदायिक भवनों को ध्वस्त कर दें । जो उनके घरों की बिजली को सप्ताहों, महीनों के लिए ठप्प कर दें । जो बस्तर की माँ-बेटियों की इज्जत पर दाग डाल दे वह उनके कैसे हितैषी हो सकते हे ?

अब ऐसे में यदि दशकों से आंतकित और स्थायी शोषण से बस्तरिहा ग्रामीण मुक्ति चाहे । वह जंगली आंतकवाद से लड़ने का संकल्प ले । वह राहत शिविरों में आसरा ले । उस पर भी उन शिविरों में नक्सली हमला करते रहें । ऐसी दुःसह और दारुण परिस्थितियों में नक्सलियों के खिलाफ बस्तरवासियों की ओर से खड़ा किया गया सलवा जुड़ूम अभियान जबरिया रोकना सरकार के लिए क्या अमानवीय नहीं होगा ? ऐसे अभियानों को तथाकथित मानवअधिकार और सुविधाओं के अभाव के नाम पर रोक लगाना क्या नक्सलवाद को तरजीह देना उचित होगा – न्यायिक दृष्टि से । वह भी सिर्फ इसलिए कि उसके विरोध में धंधेबाज प्रचारकों, हल्ला करने बुद्धिजीवियों की सक्रियता कहीं अधिक है । क्या मानवअधिकार सिर्फ बुद्धिजीवियों के लिए बनाया गया है ? मानवअधिकार इसलिए नहीं बनाया गया है कि आप नक्सलियों का साथ दें और संदेहास्पद होने पर मानवअधिकार के हनन के नाम पर खूब चींखे-चिल्लायें । अपनी ताकत और संपर्क के बल पर पूरी दुनिया में पोस्टर चिपकादें । और एक सिरे से भूल जायें कि वहाँ आदिवासियों का हनन हो रहा है । वह भी आपके तथाकथित मानवअधिकार के हनन से दशकों पहले । तब आप कहाँ थे ?


आदिवासियों के मानवाधिकार की निरंतरता में न तो नक्सली संलग्न हैं बुद्धिजीवी, समाजसेवी, न ही आदिवासी लेखक । अब समय आ गया है कि आदिवासी अपने लेखक तैयार करें । अपने बुद्धिजीवी तैयार करें । परसेंटखाऊ समाजसेवी संस्थाओं की पहचान करें जो उनके बीच रहते हैं और नक्सलियों (यानी आदिवासियों को इस्तेमाल करने वाले स्वार्थी, हिंसक और राजनैतिक लडाकूओं) से भी जुड़े रहते हैं । आदिवासी समाज के पढ़े लिखे तबकों को अब जागना ही पड़ेगा कि वे अपने पत्रकार तैयार करें जो दुनिया भर में उनकी बातों को भी सामने रखें । वरना अधिक पढ़े लिखे लोग उन्हें हर बार, हर कोण से पराजित करते ही रहेंगे ।


क्या यह गंभीर और असामान्य परिस्थिति नहीं है ? क्या इस जन आंदोलन को बीच में छोड़ देना न्यायिक कदम होगा ? ऐसे क्षणों में इस आंदोलन को नैतिक रूप से सरकार ने समर्थन दिया है और बस्तर में 3400 विशेष पुलिस अधिकारियों(SPO) की नियुक्ति की है तो बुराई क्या है ? ये वही युवा हैं जो नक्सलियों से तंग आ चुके हैं । उनकी माँगों की पूर्ति करते उनके परिवार के लोग थक चुके हैं । यदि वे भटक कर भी नक्सलियों का साथ दे रहे थे और अब उनके खिलाफ उठ खड़े हुए हैं तो इसमें उनका आत्मसुधार और सत्य के प्रति आग्रह ही है । आखिर वे नक्सलियों यानी की अराजक तत्वों का साथ क्यों दें ? अराजक तत्वों के खिलाफ सर्वसम्मति से प्रारंभ सलवा जुडूम में क्यो न योगदान करें ? यह न करने का मतलब नक्सिलयों का साथ देना भी होगा । जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ।


जो पुलिस की कार्यप्रणाली को जानते हैं वे समझ सकते हैं कि विशेष पुलिस अधिकारियों की व्यवस्था का पुलिस एक्ट में स्पष्ट प्रावधान है। एसपीओ की उपस्थिति से ग्रामवासियों में नये आत्मविश्वास आया है । उन्हें लगने लगा है कि उनके कोई अपना उनकी सुरक्षा के लिए अब कटिबद्ध है । ये नक्सलवाद के हिंसक गतिविधियों को रोकने और जूझने की मुहिम में भी सुत्रधार की तरह प्रशासन का हाथ बटा रहे हैं । हम याद करें असाधारण परिस्थितियों में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जम्मू-कश्मीर में ऐसे शक्तिबल की आवश्यकता ज़रूरी मानी गई है ।

जब नक्सली प्रजातंत्र को नहीं मानते । जब नक्सली अपनी न्यायप्रणाली चाहते हैं । और अपनी सिद्धि (यानी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की समाप्ति)के लिए कोर्ट, मानवाधिकार फोरमों, लेखक-पत्रकार संगठनों, मीडिया का सहारा तो ले सकते हैं । पर आदिवासियों के शोषण, दमन, अत्याचार, मानवाधिकार के बारे में कुछ नहीं कर सकते । यहाँ तक की प्रजातांत्रिक तौर पर राजनीतिक सत्ता के लिए भी पहल नहीं कर सकते । तब ऐसी परिस्थितियों में क्या 2008 में बस्तर के आदिवासियों को नक्सलवादियों के हवाले फिर से छोड़ दिया जाय ? उन्हें कैंपो से लौटा दिया जाय ? और पुलिस शहरों के थानों में चैन की नींद सोती रहे ?

Thursday, May 08, 2008

बस्तर में जलाये गये घरों की राख को देखकर


(संदर्भः बस्तर में नक्सलपंथियों के द्वारा टेंटतराई में घर जलाने की घटना )


दिनाँक - 7 मई, 2008


नक्सलवाद यानी नव-शोषकों का राजनीतिक लिप्सागत विध्वंस । नक्सलवाद यानी आत्महंताओं का व्यवसाय । उसका मूल-यथार्थ प्रजातंत्र की विफलताओं की शिनाख्तगी में कतई नहीं खुलता । अपने संपूर्ण अर्थों में वह विकास का नहीं, प्रजातंत्रिक कमियों की आड़ में प्रजा-विनाश का हथियार है । वह प्रजातंत्र की अड़चनों के बरक्स कथित वैकल्पिक व्यवस्था के लिए हिंसात्मक सोच मात्र है । आज के नक्सलवाद का सिर्फ़ यही मायने हो सकता है । कम से कम यह छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का सच तो है ही । नक्सलवाद के पक्ष में भले ही कुतर्कों के लाख पहाड़ खड़े कर दिये जायें, वे और उसके संकुल के पैरवीकार भले ही विश्व को समझाने के लाखों पाठ रच डालें, फिलहाल नक्सलवाद की संपुष्टि हिंसा और मानव अधिकार के संपूर्ण ध्वस्तीकरण में हो रही है । दंतेवाड़ा के टेटतराई गाँव में बीते दिन जो घटा है, उससे साबित हो गया है कि नक्सलवादियों का लक्ष्य टूटे, बिखरे, उखड़े और कराहते लोगों के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई नहीं केवल मूढ़ हिंसात्मक प्रतिशोध, अपने वर्चस्ववादी कुविचारों को मारकाट के बल पर सत्य साबित करना है । उनका एकमात्र लक्ष्य प्रजातंत्र के सुघड़ आवासों को मटियामेट करना है


पिछले दिनों ऐर्राबोर थाना क्षेत्र के टेटतराई गाँव में 150 वर्दीधारी क्षुब्ध नक्सली जा धमके । गनीमत कि ग्रामीण आदिवासियों को पहले घरों से बाहर हँकाला गया फिर उनमें आग लगा दी गई । देखते ही देखते 40 से अधिक घर स्वाहा हो गये । निर्दोष, निरीह और बूढ़े आदिवासी सजल आँखों से अपने आशियानों को धू-धू करके जलते देखते रहे । राहत कैंपों में रहते-रहते उन्हें अपने घर-कुरिया की याद जो खींच ले आयी थी । वे दो-चार दिन देखभाल कर सलवा जुडूम कैंप लौट जाने के लिए वहाँ पहुँचे थे । उन्हें क्या पता था कि नक्सली खौफ़ पैदा करने की दुष्कर्म-निरंतरता में वहाँ एकाएक आ धमकेंगे । वे न तो उनका प्रतिरोध कर सके, न विनती । करते भी कैसे ? नक्सलियों के कान जो नहीं होते । कभी गरीब, पीड़ित, आदिवासियों और शोषितों को आँखों का तारा कहने वाले नक्सली अब चक्षुविहीन जो हो चुके हैं । दरअसल वे हैं ही हृदयरहित । आदिम और धूल-धुसरित प्राचीन पत्थरों की मानिंद । फिर भी उनके बुदबुदाते होंठों से धन्यवाद ज्ञापन के शब्द ही फूटे - हे आँगादेव! आशियाने जल गये तो क्या हुआ, जान तो बच गई । अब इन बूढ़े आदिवासियों की आँखों में राख और सिर्फ राख की ढेरियों का एक दुःस्वपन ही शेष रह गया है जिसकी कचोट वे ताउम्र झेलते रहने विवश हैं । हाँ, जिन घरों के इर्द-गिर्द कभी आदिम जिंदगी खिलखिलाती थी अब वहाँ राख ही तो बिखरा पड़ा है जिसे बस्तर की हवायें चारों ओर उड़ा-उड़ाकर कलुषित मनुष्य का मुँह चिढ़ा रही हैं ।



वहाँ केवल घर ही नहीं जला । सरल आदिजनों का सरल-तरल मन भी जल गया । घर तो दूसरा भी गढ़ लिया जायेगा । पर पहले घर की बेशर्म दुष्स्मृतियाँ पीछा नहीं छोडेंगी अब कभी । उन्हें एक-एक कर याद आता रहेगा – नींव खोदते समय का आदिम गीत । वर्षा-शीत-घाम को झेलने वाले घास-फूँस को काट-छाँट कर जुटाने का श्रम । छप्पर-छाजन में हाथ बटाते बीबी-बच्चों के चेहरों पर लुढ़कते पसीने की चमकती बूँदें । कोने में कुलदेवता के ऊपर सजे हुए अक्षत और जंगली फूल । दीवालों पर सजीं धान-बालियों की झालरें । पूरखों की माखुर डिब्बी । चोंगी सुपचाने का चकमक पत्थर । इर्द-गिर्द दाना चुगती उन्मुक्त मुर्गियाँ । घर के पिछवाड़े में मेमनों की कुलाँचे । प्रियतम से पहली बार मिलने का अवसर देने और जीवन-भर साथ निभाने के संकल्पों का पाठ पढ़ाने वाला वह पवित्र ठौर घोटूल । क्या वे दीवार में तब्दील होते मिट्टी के प्रत्येक लोंदे पर अपनी हाथों के निशान को भुला सकेंगे? क्या वे घर रचने की आश्वस्ति का चरम उमंग भूला सकेंगें ? कुरिया का जलना एक संपूर्ण संसार का जल जाना भी है । कैसे कह दें कि उनका घर केवल जंगल, झाड़ी, नदी, पहाड़ ही थे ? कैसे कह दें कि उनका घर, घर के भीतर नहीं था, घर के द्वार से बाहर ही शुरू होती थी उनकी दुनिया । उनका घर सभ्य दुनिया की नज़रों में केवल घास-फूँस से निर्मित कुरिया था, पर वही उनका राजप्रासाद था । जहाँ वे अपनी प्राकृतिक सभ्यता को अंकुठ और निरंतर बनाये रखते थे ।



आज घर फूँकने की सुर्खियाँ सर्वत्र हैं । सुर्खियों में उनके मन जलने की बात गायब है । सरकारी विज्ञप्ति की तरह शुष्क और संवेदनाहीन । वैसे सरकारी कारिंदों का कथन है - टेटतराई में किसी प्रकार की जनहानि नहीं हुई । गोया जन-हानि ही समाचार हो । धन्य है अहमन्य तंत्र । चीज़ों को तदर्थ एवं राजनीतिक चश्मों में देखने की आदी दुनिया भी विमर्श में मशगूल है पर वहाँ स्वप्नों के उजाड़ पर भावनात्मक सोच एक सिरे से नदारद है । मानववादिता के नाम पर गुलछर्रे उड़ाने वाली संस्थाएँ, बुद्धिजीवी, विचारक किसी दूसरे मूर्गे की फ़िराक में हैं । बस्तर के निष्कलुष आदिवासियों पर नक्सली खौफ़ और शोषण को इशु बनाने के लिए कोई प्रेरक प्रायोजक भी तो नहीं उनके सम्मुख। उनके वोट के भरोसे सत्ता और सुख का स्वाद चखने वाले पहरुए फ़िलवक्त इस उधेड़बुन में हैं कि नये सिरे से उनके लिए मकान बनाने का सरकारी ठेका कैसे अपने कारिंदों को दिलाया जा सके । आख़िर संवेदनाहीन हितचिंतकों को कैसे प्रभावित कर सकता है यह खबर कि पहले घर के उजड़ने का घाव कोई नहीं भर सकता । न सरकारी अनुदान, न कैंप ।
उनके अपने भाई-बंधु भी मौन हैं । विवश हैं । प्रश्नाकुल हैं । आख़िर उनका दोष क्या था ? यही कि वे हितवर्धन के नाम पर उनके नव-शोषकों की हिंसा और आंतक से मुक्ति क्यों चाहते हैं। यही कि वे शोषकों के खिलाफ लामबंद आंदोलन के विश्वासी क्यों हैं । या फिर यही कि वे प्रजातांत्रिक व्यवस्था वाली असरकारी बहुमत का साथ क्योकर दे रहे हैं ? यानी उन्हें अपनी प्राणरक्षा का भी अधिकार नहीं । वे नक्सली और तथाकथित हितैषियों (किन्तु प्रजातंत्र की बाड़ों को तोड़ने की आदी हो चुकी उच्छृखल ताकतें) के द्वैध को समझ नहीं पा रहे हैं कि वे किस मुँह से उनके पक्ष(?) में न्याय की गुहार लगा रहे हैं कि आदिवासियों के हाथों हथियार नहीं दिया जाना चाहिए । अर्थात् अराजक नक्सली हथियार उठा सकते हैं उनके गुलाम नहीं । वे उन माध्यम-दोहकों की भंगिमा को भी भली-भाँति बाँच नहीं पा रहे हैं, जो नक्सली के एकाध बौद्धिक पक्षधरों की संदिग्धता की व्यवस्थागत पुष्टि के बावजूद भी हो-हल्ला मचाके विश्व भर में उसे मानवअधिकार का हनन घोषित करवा लेते हैं पर त्रस्त आदिवासियों के मन की थाह नहीं लगाना चाहते हैं । आख़िर नक्सली कैसे हितैषी हैं आदिवासियों के ?



आदिवासियों की अच्छी बसाहट की फ़्रिक्र किसे रही है ? आजादी के छः दशकों के परिदृश्य इसकी गवाहियाँ देती हैं कि उन्हें ऐसा ‘एकतरफा वोट-बैंक’ माना जाता रहा है जहाँ हर कोई नकदीकरण तो कर सके, किन्तु जिसके लिए कुछ भी ज़मा करने की कोई ज़रूरत न हो । इससे ज़्यादा कोई बखत हमने उन्हें दी है क्या ? सच तो यह भी है कि विकास गढ़ने वालों ने शुरू से ही उसके घर-द्वार के गद्य को दुरुस्त करने के लिए पश्चिमी सौंदर्यशास्त्रों का सहारा लिया । कभी यह पढ़ने की कोशिश नहीं की गई, कि उनकी भाषा में विकास के लिए व्याकरणिक पदबंध क्या-क्या हैं ? उनकी लंगोटियों की पैबंद की सौगंध खाने वाले सत्ता , जुड़े लोग और उनके हिस्सों पर पलने वाले असरकारी नौकरशाह यानी शक्तिसाली परजीवी सब पर यह जुर्म दर्ज ही है । आदिवासियों पर अब तक शासकीय मद से किया गया खर्च यदि जोड़ा जाय तो देश का हर आदिवासी करोड़पति को हो ही सकता था । पर ज़मीनी हक़ीकत उसके पास सिर्फ़ एक लंगोटी ही है । इतना ही नहीं दशकों से उनके नाम पर बड़ी-बड़ी दुकानें सजाने वाले गांधीवादी सामाजिक संगठन भी किसी प्रायवेट लिमिटेड की तरह निर्बाध फल-फूल रही हैं । बात सिर्फ़ इतनी होती तो चिंता नहीं थी । स्वयं उनके मध्य से उभरता नेतृत्व या तो पदलोलुप है या फिर वह जानबूझकर उस वर्ग को वहीं अटकाये रखना चाहता है ताकि उसे संविधानप्रदत्त विशेष सुविधाओं को हड़पने में किसी संवर्गीय चुनौतियों का सामना न करना पड़े । अपनी धवलता के बीच आरक्षण का कृष्णपक्षीय चरित्र ऐसी वास्तविकताओं को प्रमाणित करती हैं । इसे कौन झूठला सकता है कि आरक्षण सुविधा से रहित और समाज के सक्षम जातियों के मन में भी इनके प्रति स्थायी द्वेष पनपता रहा है । इनके मध्य उभरता नव संभ्रातवर्ग अभी भी अपनी जातीय अस्मिता के संपूर्ण रक्षार्थ सचेत नज़र नहीं आता जिसकी ओर अनुनय मुद्रा में आदिवासी समाज टुकुर-टुकुर निहार रहा है ।