अपने अँधेरे में पड़ा था चुपचाप
आदमी उसके पास पहुँचा
जाग उठा वह
नहा उठा रोशनी से आदमी भी
सिर्फ़ इतना ही नहीं
नहा उठी सारी दुनिया उसकी रोशनी में
निहायत नये चीज़ – अपने नामकरण संस्कार से
संस्कारित हो उठा सारा संसार
जैसे शिशु के आने पर नाच उठता है बाँझ का परिवार
आदमी उसके पास पहुँचा
जाग उठा वह
नहा उठा रोशनी से आदमी भी
सिर्फ़ इतना ही नहीं
नहा उठी सारी दुनिया उसकी रोशनी में
निहायत नये चीज़ – अपने नामकरण संस्कार से
संस्कारित हो उठा सारा संसार
जैसे शिशु के आने पर नाच उठता है बाँझ का परिवार
(रचनाकाल-12 मई 2007)
3 comments:
मानस जी, बहुत अच्छी रचना है. मैं आपके इन्हीं शब्दचित्रों का प्रशंसक हूं. 'सृजनगाथा' के लिये आज ही कुछ सामग्री भेजूंगा. एक बात बताता हूं , दरअस्ल ब्लाग बनाने की उत्कण्ठा राजेश चेतन का ब्लाग देख कर, पर उसे बना कर प्रस्तुत करने की प्रेरणा आपके ब्लाग से मिली. 'हिन्दीगाथा' लोड कर के तो मुझे लाइन व लैंथ दोनों मिल गई. इससे पूर्व तो बस नेट पर सिर्फ पत्रिकाएं व अखबार पढ़ता था. बाद में कविता वाचक्नवी का भी अच्छा सहयोग मिला. खैर... अब निरन्तर अपडेट के साथ टिप्पणियां व रचनाएं भेजना सीख गया हूं. मंचो पर निरन्तरता बनी हुई है. कभी रायपुर या आसपास के लिये आदेश करें. शेष फिर. ब्लाग पर तो आनाजाना लगा ही रहेगा.
दिमाग से ऊपर निकल गई ---- शायद मेरे जैसे जाहिलों के लिए नहीं थी
bahut sundar chitran
Post a Comment