Saturday, January 13, 2007

प्रेम को नेस्तनाबूत करने आ गया लव-डिटेक्टर सॉफ्टवेयर




कल अचानक मुझे पता चला कि इंटरनेट पर प्रेम का विश्लेषण करने वाली एक नई तकनीक ईजाद की जा चुकी है, नाम है उसका - लव डिटेक्टर (Love Detector) । यानी प्यार की पहचान करने वाला सॉफ्टवेयर । अमूक आपसे प्यार करता है या नहीं ? यदि प्यार करता है तो कितना ? सुना है कि यह सॉफ्टवेयर दुनिया के कई देशों की टेलीफोन कंपनियाँ बाकायदा इसका उपयोग भी करने लगी हैं । अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, इजराइल, टर्की, कोरिया आदि की टेलिफोन कंपनियों के ग्राहकों को इस तकनीक का इस्तेमाल भी बातचीत के पश्चात करते देखा जा सकता है । जानते हैं यह सॉफ्टवेयर मात्र 50 डॉलर में उपलब्ध है । (Skype edition (File size: 6.09 MB)) तो पलक झपकते ही डाउनलोड भी किया जा सकता है जो मात्र 29 डॉलर का है । आप का प्रेमी मन नाच उठा होगा ना इस खबर को सुनकर !

प्रथम दृष्टया पढा तो मुझे भी बड़ी प्रसन्नता हुई । लगा कि वाह ! यह तो गजब हो गया । क्या कहने प्रौद्योगिकी के । बलिहारी जाऊँ । विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद एक सामान्य चित्त से इस बिषय को लिया तो लगा कि अब कंप्यूटर से प्रेमी या प्रेमिका के मन की थाह लगाना आसान है । यानी कि प्यार करने के लिए प्रेमी या प्रेमिका की शिनाख्त प्यार करने के पहले ही की जा सकती है ।

पर जाने क्यों मेरा मन था कि मान ही नहीं रहा था कि यह उतना उचित नहीं है जितना इसके बारे में लिखा गया है । जितना मैं इसको लेकर खुश हो रहा हूँ और प्रौद्योगिकी वालों का जयकारा लगा रहा हूँ । जरा गंभीर होकर बुद्धि और विवेक को जगाया तो सच मानिए काँप सा उठा ।

मुझे तरह-तरह के प्रश्नों ने घेरना प्रारंभ कर दिया । हलाकान हो गया मैं । लगभग पसीना-पसीना । एक दो टेलीफोन काल्स से ही हम यदि जानने लग गये कि अमुक मुझे प्रेम करती है या करता है तो दिल की जगह कहाँ बचेगी ? मस्तिष्क का क्या काम रह जायेगा ? यौवन का तकाजा कहाँ रह जायेगा ? मन में प्रेम ग्रंथियों और उससे जुड़ी संवेदना का क्या होगा ? प्रेम जो जीवन में नयीं उंमगें जगाता है, जीवन को नयी उर्जा और गति देता है, उसका क्या होगा ? किसी कन्हाई के प्रेम में राधा दीवानी बनकर क्योंकर गली-गली भटकने लगेगी । वह क्योंकर अंतस की सारी भावनाओं को उडेंलकर पाती लिखेगी ? गोपियाँ कृष्ण से मिलने के लिए दूध बेचने जाने का बहाना क्यों करेंगी । सीधे नहीं पहुँच जायेंगी अपने प्रेमी कृष्ण के पास ? लैला के लिए कौन मजनूं रेगिस्तान में भटकता फिरेगा ? उसे लैला के चेहरे में क्यों अल्लाह नज़र आयेगें ? वह लव डिटेक्टर का सहारा नहीं ले लेगा !

मौजूदा तस्वीर तो यही बयान करती हैं कि प्रेम को भी नियंत्रित करने के लिए प्रौद्योगिकी उद्यत है । क्या यह मनुष्य की प्रकृति के विरूद्ध नहीं है ? क्या यह मशीन का अति नहीं है, क्या यह मनुष्य को उसकी संवेदना से दूर ले जाने की हरकत नहीं है । यदि अभी नहीं है तो यह शुरुआत तो जरुर है । हाँ यह सॉफ्टवेयर अपराध की रोकथाम या खोजबीन के लिए उचित हो सकता है किन्तु जिस तरह से इसका उपयोग उन्नत प्रौद्योगिकी के दीवाने देश करने लगें है वह एक मानवता विरोधी कदम का प्रतीक है । इसे किसी भी दृष्टि से मान्यता नहीं दी जानी चाहिए । हम मानते हैं कि मशीनें सहुलियत के लिए होती हैं किन्तु चंद सहुलियतों के नाम पर ही उससे जुड़ी कमियों या खतरों को नज़रअंदाज़ कर जाना मूढ़ता होगी, दानवता होगी । मनुष्य को पूर्णतः मशीन बनाने की दिशा में गंभीर षडयंत्र भी । प्रतीकों में कहें तो भस्मासूरी प्रवृति को दोहराने का नया हथियार ।

इस तकनीक का सबसे कमजोर और खतरनाक पक्ष है उसका सस्ता और सर्वसुलभ होना । इसकी क़ीमत मात्र 50 डालर है । यानी कि पश्चिम का बेराजगार और भिखारी भी इसे खरीद सकता है यानी कि इस दानवी तकनीक को प्रौद्योगिकी प्रिय देश अपने बच्चों के हाथों तक पहुँचा चुके हैं । कहने का मतलब वहाँ भविष्य की पीढ़ी इस सॉफ्टवेयर के सहारे ही प्रेम का निर्धारण करेगी । जीवन-साथी का चयन करेगी । कुल मिलाकर उसका प्रेम मशीन के मार्फत नियोजित और नियंत्रित होगा ।

कल्पना कीजिए कि आपके आसपास यह सॉफ्टवेयर सहज उपलब्ध है और आपका बेटा या बेटी जो अभी मात्र 14-15 साल की है जिसके मन में विपरीत लिंग के प्रति सहज आकर्षण के भाव पैदा हो रहे हैं । वह नये लिंग के प्रति कुछ-कुछ सोचना शुरु कर रही है । अपने और दूसरे के मध्य प्राकृतिक अंतरों को समझ रही है । उन बुनियादी और दैहिक अंतरों से उसमें नैचुरल संवेदनायें विकसित हो रही हैं । वह अपने अस्तित्व को अपनी प्राकृतिक सीमाओं के साथ आत्मसात कर रही है । जाहिर है कि यह उम्र का ऐसा पड़ाव है जहाँ वह स्नेह और प्रेम में अंतर करना जान रही है । उसके मन में दुनिया का शाश्वत तथ्य अर्थात् पुरुष और प्रकृति (नारी) की भूमिकाओं के लेकर एक सोच और धारणा विकसित हो रही है । वह स्वप्नों से गुजर रही है । वह दुनिया के प्रति रागमय होने जा रही है । उसके मन में प्राकृतिक रूप से प्रेम का अंकुरण हो रहा है । वह अपने साथी की तलाश में स्वयं को निखार रही है या स्वयं को रच रही है । और एकबारगी उसके हाथ में लव-डिटेक्टर मिल गया है ।

आप सोच सकते हैं वह क्या करेगी या करेगा ? ऐसे में प्रेम के लिए स्वाभाविक और सहजात प्रवृतियों का क्या होगा ? हाय, राम, भगवान बचाये इस प्रेम विरोधी तकनीक से ......। कैसे मानी जा सकती है ई-कामर्स के नाम पर
कंपनी चला रहे इन व्यापारियों की बात जो यह कह रहे हैं कि मात्र मनोरंजन के उद्देश्य के लिए लव-डिटेक्टर उपलब्ध कराया जा रहा है ।

मशीनें यदि इस तरह मनुष्य की समस्त स्वतः स्फूर्त मानवीय संवेदना को ध्वस्त कर देंगी तो फिर मनुष्य के पास क्या रह जायेगा मनुष्य कहलाने के लिए । यदि यही दौर रहा तो वह दिन भी आयेगा जब मनुष्य न बोलेगा, न चलेगा, न कुछ कर पायेगा । उसका मिजाज ही नेस्तनाबुत हो जायेगा । एक पत्थर में तब्दील हो जायेगा । एक रोबोट बन जायेगा ।

यदि आप भी पढ़े-लिखे तर्कशील व्यक्ति की तरह कहते हैं कि टेलिफोन और इंटरनेट ने कोसों दूर बैठे दो दिलों को एक दूसरे के करीब लाया है, देशकाल, जाति, रंग-रूप, धर्म-मजहब की दुर्भावनाओं के जंजीरों से मुक्त कर दिया है, उन्हें प्यार का पाठ पढाया है और वे मानवता के सच्चे पुजारी बन सके हैं तो शायद आप यह भूल रहे हैं कि उसने उससे ज्यादा जीवन की स्वाभाविक क्रियाकलापों की भी धज्जी उड़ा दी है । इंसान और इंसान के बीच मशीन का यह नया उत्तरदायित्व अपने मूल में प्रकृति विरोधी है । मानवता विरोधी है । मशीनों को मनुष्य के लिए जरुरी मानने का यह तर्क दरअसल मनुष्य विरोधी कृत्यों का समर्थन है जिसके पीछे वह सब है जिसके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं रह जायेगा । मनुष्य से उसकी संवेदना छीन ली जाय तो फिर क्या बचेगा उसके पास मनुष्य कहलाने के लिए ! अब वह समय आ गया है कि समूचे मानव जगत् को सचेत रहना होगा कि मशीनों और प्रौद्योगिकी को उसी सीमा तक मान्यता दी जाय जिस सीमा तक वे मनुष्यता को बढावा देने में कारगर और क्रियाशील हैं । कहीं उससे मनुष्य का भविष्य तो ही खतरे में नहीं पडता जा रहा है इस बात की समीक्षा निरंतर होनी चाहिए ।

यह सर्वविदित है कि मशीनें अपने मूल रूप में मनुष्य विरोधी होती हैं । वे मानव श्रम और मानव धर्म को प्रकारांतर से खारिज़ भी करती हैं । यानी वे मनुष्य को प्रकृति से दूर हटाती हैं । जीवन क्रम कृत्रिमता के जहरीली चासनी में डूबने लगता है । पश्चिम में मशीनीकरण से उपजी जीवन शैली इसका जीवंत उदाहरण है । और अब तो समूची दुनिया भी मशीन और विकसित प्रौद्योगिकी की दीवानी हो चुकी है ।

नये वैकासिक दर्शन के अनुसार मशीनीकरण को विकास के लिए अपरिहार्य माना जा रहा है । उपनिवेशवादी सोच और अर्थशास्त्र की बात करें तो वह समूचे विश्व को एक प्रवेश-द्वार विहीन मंडी में तब्दील देखने की दलील दे रहा है । तीसरी दुनिया के देश और समाजवादी अर्थव्यवस्था के हिमायती भी इसी राग को अलापने लगे हैं जो कभी मार्क्स और इंजिल्स को भजते थकते नहीं थे । चाहे यह मजबूरी रही हो या फटाफट विकसित बन कर रसगुल्ले चखने के लिए ललचाती जीभ की खुजली पर वास्तविकता यही है कि प्रकृति, मनुष्यता और न्याय आधारित अर्थवस्था को लगभग सारे देश तिलांजलि देने पर उत्सुक जान पड़ते हैं । वहाँ सबसे बड़ा परिवर्तन जो गत दशकों में देखने को मिल रहा है वह है मशीन आधारित जीवन शैली के लिए खतरनाक किस्म का मोह । ऐसे जीवन दर्शन के पक्षधरों को सर्वत्र यह कहते सुना जा सकता है कि मशीन से वे सारा सुख जुटाने में समर्थ हैं । और मशीन उनके विकास का मुख्य आधार है । विडम्बना कहिये कि ऐसे जनपदों या मानसिकता में कहीं भी मनुष्य या मानवता आधारित समाज के लिए कोई गुंजाइस नहीं छोड़ी जा रही है । कुल मिलाकर कहें तो उनके लिए मशीन, कलपुर्जे और प्रौद्योगिकी ही सब कुछ है । अपने एशिया की ही ओर ही निहारें तो साफ तौर पर देख सकते हैं कि वहाँ लगभग हर देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित एक पृथक मंत्रालय आकार ले चुका है । कहना न होगा कि एशिया के हर देश जो कभी प्रकृति, कृषि यानी जल, जंगल, जमीन आधारित सामाजिक संरचना के विकास पर जोर देते थे वे अब अपने देश की सम्पूर्ण व्यवस्था को प्रौद्योगिकी केंद्रित देखना चाहते हैं । यहाँ आपत्ति इस बात पर नहीं है कि है कि वहाँ प्रौद्योगिकी विशेषतः विकसित प्रौद्योगिकी के संवंर्धन से मानव जीवन या जनता को सुविधा नहीं चाहिए संकट तो इस बात का है कि एक कंप्यूटर के आ जाने से हजारों हाथ बेकार हो चुके हैं । यह दीगर बात है कि कंप्यूटर ने श्रम और समय के व्यर्थ बर्वादी से मनुष्य को निजात दिलाने में सतत् ऐतिहासिक योगदान को गति दिया है । पर ऐसे मुल्कों में कंप्यूटर और इंटरनेट के कारण समाज का ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न होता नज़र आ रहा है । एक आंकडे के अनुसार कंप्यूटर और इंटरनेट आधारित अपराधों में जो वृद्धि एक दशक में हुई है उसमें एशिया की भूमिका चौकाने वाली है । बहरहाल हम सीधे मुद्दे पर आते हैं .....

गाँधी और उनसे मिलते जुलते जीवन दर्शन वाले देश खासकर नवविकासशील अर्थात् तीसरी दुनिया के देशों में भी मशीनों का विरोध अब पुराने ज़माने की बात हो चुकी है । इधर अपनी जीवन-पद्धति और अर्थव्यवस्था को ही देखते हैं तो बड़ा अचरज होता है कि क्या यह वही भारत है जहाँ कृषि संस्कृति से सारा जीवन नियंत्रित और व्यवस्थित होता था । हम कबके भूल चुके हैं कि कृषि संस्कृति ही ऋषि संस्कृति थी । जहाँ सर्व सन्तु निरामयः गूँजती थी । यहाँ निरामयः शब्द काबिले गौर है । सबका निरामय होने का दर्शन भारतीय परिवेश में ही सम्भव था । पश्चिम इस जीवन-दर्शन के विपरीत ध्रुव में रहा है । वहाँ सबके निरामयता पर नहीं निजी आनंद पर विश्वास किया जाता है । पुरानी बात दोहरा दें तो वह मन को नहीं तन रसिया है । वहाँ 'हम ' नहीं बोलता, 'मैं' की घोर गर्जना सुनायी देती है, चहुँओर, चारों प्रहर । मशीन या उन्नत प्रौद्योगिकी जनित चीजें इस पश्चिम मनोवृति के पीछे खड़ी हैं, एक प्रेरक इलेमेंट के रूप में । और ऐसे उपादानों ने ही पश्चिम की दुनिया को मनुष्य, मनुष्यता विरोधी सोच के लिए लगातार उकसाने का काम किया है । इस सारी दुर्बलताओं के बावजूद आज समूचा विश्व मशीन से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकता । मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह भी रही है कि ऐसी चीजें जिसे हम मशीन कहा करते हैं वह प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक मनुष्य के साथ रहती आयीं हैं । जरा मिथकीय बातें करने की अनुमति दें तो कहा जा सकता है कि जितने भी देवता हुए हैं सभी शस्त्र धारण करते हैं । कोई पुष्पक विमान से यात्रा करता नज़र आता है तो कोई अगिनवाण का मारक प्रहार जानता दिखाई देता है । और उधर मनुष्य के इतिहास को देखें तो कभी हम पत्थर से चिरई-चिरगुन मार कर उदर की क्षुधा शांत करते दिखाई देते हैं तो कभी (आज) हम कांटीनेंटल लंच लेने वाले वन-विहार के बहाने दोनाली से हिरणी को अपना शिकार बनाते हुए लाइव देखते हैं । कुल मिलाकर कहें तो आज का मनुष्य ही नहीं वरन् हर काल में मशीनी उपकरण रहित मनुष्य नज़र दिखाई ही नहीं देता । पहले या सभ्यता के मानवीय सोच वाले चरणों में सर्वत्र मशीनें या उपकरणें कर्म-सहायक थीं अब वे भ्रम-सहायक बन चुकी हैं । यह अति है नित नयी मशीन इजाद करने की अतृप्त भूख की । इसके पीछे भी पश्चिमवादी मन का संस्कार है । ऐसा संस्कार जहाँ संग्रहण का भाव प्रमुख है, त्याग का भाव जहाँ पाँव ही पसार नहीं सकती ।

बहरहाल आपका यह कहना कि – "मशीनें अगर इंसानी जिंदगी को इस हद तक काबू करने चलीं हैं, तो फिर यह इंसानी मिजाज के अंत की शुरुआत होगी । " सौ फीसदी सच है । मशीनों ने मनुष्य को मनुष्य से दूर ही किया है । फोन ने चौपालें और बतरसों को मार डाला । बिजली ने माटी के दीये छीन लिये । मोटर से यात्रायें निरस हो गईं । यात्रायें निरस हो गईं तो यात्राओं से जीवन को प्रकाशित करने वाले संस्मरण गायब होते चले गये । फैक्स आया तो हरकारा को हताशा सौंप दी गई । टाइपराइटर और इधर कंप्यूटर आया तो फर्रू से लिखने की रम्य परंपरा और एक सार्थक योग कला ही जाती रही है । एलोपैथ आया तो गाँव के सारे बैद्य थैले छाप दिखाई देने लगे । टूथपेस्ट क्या आया नीम जैसे जीवनदायिनी वृक्ष की परिक्रमा ही इंसान भूलता जा रहा है । फेयर एंड लवली, पौंड, लक्मे आदि ब्युटीक्रीम के पदार्पण से हल्दी-उबटन का सत्यानाश हो चुका है । कितना गिनायें ?

पर इंसानियत को बचाने की अंतिम जद्दोजहद भी विज्ञान में दिखाई देती है । वैज्ञानिक चेतना की ईजाद यानी कि मशीनों, उपकरणों के पीछे मनुष्य के सुख (कम से कम भौतिक सुख) की शुभकामनायें हैं । एक सच्चा वैज्ञानिक कब चाहता है कि वह मनुष्य को समाप्त करें । मनुजता उसकी खोज या तकनीक से भोथरी हो जाये । पर मनुष्य मूलतः परमार्थी होते हुए भी स्वार्थ से मुक्त नहीं हो पाता । दुनिया की कई मशीनी आविष्कार के पीछे श्रेयता भी है । श्रेय लेने की होड़ भी पश्चिमी दुनिया का मूल संस्कार है । इसी होड़ की छूट में कई अचरज भरे कार्य पश्चिम में होते हैं । पूरबी दुनिया इसकी अनुमति नहीं देती । शायद इसी का नाम भारतीयता भी है । एक सच्चा भारतीय त्याग पर जोर देता है, वह जब कुछ रचता भी है तो मनुष्यता को केंद्र में रखकर । और ऐसे क्षणों में वह श्रेय लेने की भावना को दबाता चलता भी है । क्योकि वह मशीनी सभ्यता से रचा-पचा इंसान नही है । मैं लगे हाथ पत्रकारिता का ही उदाहरण देना चाहता हूँ । एक सच्चा भारतीय संपादक चाहे कुछ भी करले अपने माँ-बहिन के (अपनी न सही तो दूसरों की ही) बलात्कार पर उसका नाम नहीं छापता । उसका फोटो भी नहीं देता । यानी कि उसे शिनाख्त नहीं होने देता ताकि वह समाज में अपने पुनर्वास के लिए फिर से कोशिश कर सके । पर पश्चिम में, बाप रे बाप । कुछ दिन पहले ब्रिटेन को जरा नज़दीक से देखने का मौका आया– मैंने पाया कि एक-एक डेढ़-डेढ़ किलो वाले दौ पौंड के अखबारों में वहाँ पत्रकारिता के नाम पर पोर्नोग्राफी ही हर सप्ताह परोस दी जाती है । शायद वहाँ कोई किसी की प्रेमिका नहीं होती । शायद वहाँ कोई किसी की बहिन नहीं होती । और शायद वहाँ कोई किसी की माँ भी नहीं होती ।

आज ब्रिटेन सहित सारे पश्चिम की कला, साहित्य चेतना तो वायवीय उपकरण बन चुकी हैं वहाँ मानवता की श्रीवृद्धि की बात सोच पाने में जरा कठिनाई होती है । यह अलग बात है कि इसी कला माध्यमों ने हमें अपनी अस्मिता को विदेशियों और उनकी संस्कृति (विकृति) से बचाने में मदद करती रही हैं । और उधर रूस और चीन जैसे महाशक्तियों के उदय में भी कला चेतना ने अपनी भूमिका बखुबी निभायी । पर आज चीन और रूस भी प्रौद्योगिकी के लिए न केवल पागल हो चुके हैं बल्कि चीन के बारे में तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि वह आने वाले समय में दूसरा बिल गेट्स दे सकता है । कहने का आशय कि किसी भी ईजाद को उस समाज में कैसे ले जाती है, यही खास बात होती है । चाहे तो आप उसे मनुष्य विरोधी हरकतों के लिए उपयोग करें चाहें तो उसी से समूची मनुष्यता को नेस्तनाबुत करने की सोच डालें ।

लव डिटेक्टर का उपयोग केवल अपराध रोकने के लिए या प्रेमजनित अपराध की शोध-वृति में होनी चाहिए । तकनीकी के बढ़ते हुए प्रभाव को और उससे कृष्ण-पक्ष से बचाने के लिए हर उस जागरुक लेखक-पत्रकार-ब्लॉगर और विचारवान व्यक्ति को लिखना होगा जो दुनिया को दुनिया जैसे बने रहने देना चाहते हैं । जो लगातार सोचते हैं कि तकनीकी मनुष्य जीवन की सहायक बने, नाशक नहीं । इसे नई पीढ़ी को लगातार सतर्क करते रहने की आवश्यकता है । अन्यथा वह इतनी स्वार्थी हो चुकी है कि जाने कब ऐसा मशीन भी बना डाले जिसका बटन दबाकर जाना जा सके कि उसकी प्रेमिका कहाँ रहती है? कैसी है वह ? कब उससे प्रेम होगा ? यानी कि प्रेंम भी वह मशीन के माध्यम से खोजने लगे । यानी कि मनुष्य जीवन की सारी उदात्त क्रियायें मशीन से नियंत्रित होने लगे । ऐसे क्षणों में मैं पुनः दोहराते हुए यही कहना चाहूँगा कि 'टेक्नाल़ॉजी दुधारी तलवार है ' और इसके उस धार को ही हमें जानना-समझता-बरतना चाहिए जो हमारी ही हत्या का कारण न बने ।
जयप्रकाश मानस

Friday, January 12, 2007

हिंदी कविता का महासागर

किसी शोधार्थी की नज़रों से 1000 कविताओं वाली किताब या पांडुलिपि कदाचित् न गुजरी हो पर हिंदी की दीवानगी से यह भी सहज और संभव हो चुका है । सच तो यह है कि प्रिंट मीडिया में नवीनतम तकनीकी की उपस्थिति के वाबजूद इतनी संख्या में कविताओं को एक कृति में अब तक नहीं समेटा जा सका था परंतु इसे 21 वीं सदी की चमत्कारिक प्रौद्योगिकी यानी अंतरजाल(Internet) के सहारे पाँच सदस्यों की टीम ने सफल कर दिखाया है । इस ऐतिहासिक सफलता का नाम है – कविता कोश । ललित कुमार जैसे समर्पित कंप्यूटर इंजीनियर और हिंदीसेवी के संयोजन में अपनी स्थापना के चंद माहों के भीतर ही एक हजार से अधिक कविताओं को प्रतिष्ठित किया जा चुका है । हिंदी कविता प्रेमियों और हिंदी के शोधार्थियों के लिए यह खास खुशख़बरी हो सकती है कि हजारों-हजार कविताओं को पढ़ने के लिए न उन्हें कविता संकलनों की खरीदी पर खर्च करना पडेगा और न ही उन्हें एकत्रित करने के लिए किसी धूल भरी लायब्रेरी की तलाश में भटकते रहने के लिए किसी प्रकार की मशक्कत करनी पडेगी । सारी की सारी कविताएँ ऑनलाइन हैं जिनका रसपान बड़ी सहजता से किया जा सकता है । हिंदी के कवि और कविता से संदर्भित किसी कोण से यदि पीएच.डी लेनी हो तो बरोकटोक प्रिंट लिया जा सकता है । यहाँ 15 दिसम्बर 2006 तक 1000 हिंदी कविताएं ऑनलाइन सजायीं जा चुकी हैं, यह कार्य अनवरत जारी भी है । यदि आप कविता कोश दल की योजना और दावे पर सहज विश्वास करें तो कविता कोश में आने वाले कुछ ही माहों में आपको हिंदी की 10,000 कविताएँ सजी मिलेंगी । कल्पना कर सकते हैं कि इस वेबजाल पर आने वाले सालों में हिंदी की कितनी कविताएं होगीं और जिसे देखकर कोई भी साहित्य प्रेमी लगभग आर्कमिड़ीज की तरह मुदित होकर क्या कह न उठेगा -हिंदी कविता का महासागर ।

कविता कोश एक तरह से इंटरनेट पर हिदीं कविताओं का पहला सुगठित, विश्वसनीय और वृहत कोश है । अब तक तथाकथित कोश के नाम पर इंटरनेट पर जितने भी वेबसाइट संचालित हैं वे या तो रोमन लिपि में हैं या फिर उन कविताओं का चयन संबंधित वेब-जाल स्वामी की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर रहा है । अर्थात् वे हिंदी कविता के व्यापक फलक को स्पर्श करने में असमर्थ रहे हैं और जो कुछ विस्तृत तथा आकर्षक हैं पर वे देवनागरी लिपि में पढ़ने का आनंद-अवसर उपलब्ध कराने में असमर्थ वेब-पृष्ठ हैं । यानी कि वहाँ हिंदी कविता पढ़ने का आस्वाद नहीं मिल सकता । इन वेबसाइटों में विकिपीडिया (इनसाइक्लोपीडिया)http://sa.wikipedia.org/wiki/index/ भी सम्मिलित है जहाँ हिंदी साहित्य के निर्धारित काल क्रम में कुछ कवियों को चिन्हाँकित तो किया गया है किन्तु कुल मिलाकर वह नौसिखिये के काम जैसा ही प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ आधुनिक काल के कवियों की सूची में भारतेंदु हरिश्चंद्र, निराला, पंत, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, दिनकर आदि कुल 27 कवियों के साथ गोपाल दास नीरज, अशोक चक्रधर, यश मालवीय और सोम ठाकुर जैसे बिलकुल समकालीन और मंचीय कवियों को भी अभी से जोड़ दिया गया है । यह अज्ञानता नहीं है, यह वरिष्ठतम् और स्थापित कवियों का अपमान भी नहीं है किन्तु अपितु इंटरनेट पर हिंदी काव्य को स्थापित करने वाले महाशय के व्यक्तिगत मोह का परिणाम जरूर है । यह मंचीय कवियों के नाम पर बजायी जाने वाली भोथरी तालियों का ही जादू है जो इंटरनेट पर काम करने वाले शहरी लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा है । क्योंकि हिंदी काव्य के गंभीर ही नहीं बल्कि मेट्रिक में पढ़ने वाले किसी छात्र से भी पूछेंगें तो वह आधुनिक काल के 27 कवियों में इन्हें सम्मिलित नहीं करेगा । इसका निहितार्थ कदापि इनके कवि नहीं होने पर नहीं समझा जाय पर काल-क्रम भी तो कोई चीज़ होती है । खैर.......

कविता कोश की सबसे बड़ी विशेषता है उसका खुलापन । खुलापन का आशय – कोई भी विकि तकनीकी में दक्ष एवं हिंदी कविता का ज्ञाता इसमें शामिल हो सकता है । यद्यपि वह कोश में संपादन, तकनीक, वर्तनी संशोधन एवं नीति निर्धारण से संबंधित कार्यों में दखल नहीं दे सकता किन्तु कविता उपलब्ध कराने, किसी खास कवि और उसकी किसी कविता की अनुशंसा करने में खुलकर सहयोग कर सकता है । ऐसे योगदान का उल्लेख बाकायदा वेब-पृष्ठ पर की जाती है । इंटरनेट की विकी तकनीक का लाभ यह है कि कोई भी व्यक्ति कोश में नई रचनाएँ जोड सकता है या पहले से उपलब्ध रचानाओं में वर्तनी आदि त्रुटियों को सुधार सकता है। कविता कोश से जुड़ने के लिए किसी प्रकार की सदस्यता की भी जरूरत नहीं है वह केवल अपने सहयोगात्मक रुख से सदस्य बन सकता है । अपने व्यवहारिक अर्थों में यह हिंदी जगत् का अनूठा सहकारी प्रयास है । खुलापन का आशय यह नहीं है कि कहीं भी ठसने की फिराक में रहने वाला कोई कवि यहाँ अपनी कविता ठेल सकता है । क्योंकि हिंदी इंटरनेट की दुनिया भी ठीक वैसी है जैसे हिंदी प्रिंट और मंचीय भांडों की दुनिया । कहना प्रासंगिक होगा कि हिंदी काव्य का सत्यानाश करने में जितना हाथ उसके पाठकों और अकादमिक कवियों का नहीं है उतना हाथ मंचीय कवियों का है जिन्होंने हिंदी कविता को चुटकुला और फूहड़ व्यंग्योक्ति बना दिया है । ऐसे कवियों को यहाँ भी प्रतिबंध लगाना चाहिए, जिसका खतरा नीति के अनुसार दूसरे चरण में हो सकता है । वैसे इंटरनेट पर हिंदी कविता की श्रीवृद्धि के नाम पर कुछ ऐसे भोथरे लोग भी अपनी दुकानदारी चला रहे हैं जिन्हें कविता का 'एबीसीडी' भी नहीं आता । भले ही वे स्तरीय कविता के नाम पर चार पंक्ति भी ठीक से नहीं लिख सकते हैं किन्तु उनका दावा कम से कम अकादमिक लोगों को हास्यास्पद लग सकता है कि वे इंटरनेट के माध्यम से सारी दुनिया के लोगों को हिंदी कविता लिखना सीखा रहे हैं । उन्हें मुगालते पालने में नहीं रोका जा सकता है कि हिंदी की श्रीवृद्धि का पवित्र कार्य कर रहे हैं । बलिहारी हो ऐसे मंचीय आत्मा से अनुप्राणित कवियों की, और बलिहारी हो ऐसे शिष्यों की भी । यदि ये इंटरनेट पर सवार होने के नाते स्वयं को वैश्विक हिंदी कविता के स्वामी मान बैठे हैं तो बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं, क्योंकि भाषा सिखायी जा सकती है कविता नहीं, और कोई भाषा मात्र विशाल आकार किन्तु थोथों पन्नों से नहीं अपितु कम किन्तु भविष्योन्मुखी पृष्ठों से समृद्ध होती है । अभी तक तो कविता कोश ऐसे महामानवों से सुरक्षित है । विश्वास किया जा सकता है और कामना भी कि भविष्य में भी इन नौसिखियों और काव्य कीटों से मुक्त होकर पुष्पित-पल्लवित होता रहेगा । यह तो सभी को ज्ञात ही है कि जो भी लिख दिया जाय वह कविता नहीं होती । आखिर कुछ तो फर्क होती है कविता में और कथन में । ज्यादा कुछ कहना विषयांतर होना होगा, सो सीधे मूल प्रसंग पर लौट आते हैं ।

अंतरजालीय-हिंदी अभी कमोवेश बालपन से गुजर रही है । अंतरजाल पर हिंदी के ख्यातिलब्ध बुजुर्ग पीढ़ी और समकालीन साहित्य में चर्चित और समर्पित रचनाकारों की उपस्थिति अभी तक प्रिंट मीडिया के समानांतर संभव नहीं हो सकी है । कारण चाहे जो भी रहे हों पर यह वास्तविकता है जबकि अंतरजाल पर हिंदी में काम करने के सारे औजार(Tools) विकसित हो चुके हैं । और वे कारगर भी हैं । सबसे खुशी यह कि हिंदी में काम करने के लिए अंगरेज़ी सहित किसी परदेशी भाषा में पांरगत होने की लाचारी भी अब समाप्त हो चुकी है । ऐसे में वैश्विक क्षितिज पर हिंदी को विश्वविजयी देखने के स्वप्नदर्शी और समर्पित काव्यरसिकों तथा कवियों के लिए यहाँ अपने योगदान को रेंखांकित करने का अच्छा अवसर है बशर्ते कि वे युनिकोड़ फोंट को लेकर कंप्यूटर पर बुनियादी काम करना जानते हों । एक हिंदी प्रेमी का परिचय देते हुए वे कविता कोश में पूर्व निर्धारित सूची अनुसार किसी कवि की महत्वपूर्ण कविता रख सकते हैं । किसी छूटे हुए खास कवि और कविता का नाम सूझा सकते हैं । पूर्व से संधारित कविता में लिपिकीय त्रुटि सुधार सकते हैं । परंतु इसके लिए उन्हें वर्तनी संबंधी नियमों का सहारा लेना होगा, जिसके नियम भी साइट पर ही अंकित है । खास तौर पर ऐसे लोगों के लिए साइट में – “कविता कोश में योगदान कैसे करें?” “कविता कोश में कविताओं को जोड़ने का तरीका”, “कविता कोश के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न”, “सक्रिय प्रोजेक्ट्स की सूची”, “वर्तनी नियम”, “
कविता कोश टीम की सदस्यता” सहित “कविता कोश की नीतियाँ” आदि स्तम्भें दी गई हैं, जिससे सम्यक जानकारी प्राप्त की जा सकती है । यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि कविता कोश के परिप्रेक्ष्य में किसी भी चर्चा के लिए "कविता कोश ” नामक समूह भी विकसित किया गया है । यह कविता कोश संचालन परिवार के साथ-साथ अन्य हिंदी भाषा सेवियों के लिए भी स्वागतेय कदम है । जो विकि तकनीक में पारंगत नहीं है वे वे केवल युनिकोडित फोंट में टाइप कर रचना ई-मेल से भेज सकते हैं । जो कंप्यूटर पर युनिकोडित फोंट पर टाइप करना नहीं जानते तो किसी भारतीय सदस्य के पास डाक से भी रचना भेज सकते हैं । चाहे किसी भी रूप में, इससे जुड़ना निश्चित ही उस स्वप्न को साकार करने में योगदान देना है जिसमें इंटरनेट पर हिंदी की स्थिति को प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित करने जैसी नेक भावना सर्वोपरि है । जैसा कि कविता कोश के संस्थापक और वर्तमान में एडिनबर्ग, स्काटलैंड में अध्ययनरत ललित कुमार के साथ ह्यूस्टर, अमेरिका से आईटी विशेषज्ञ मितुल, यूएई से पूर्णिमा वर्मन, दिल्ली से इंजीनियरिंग छात्र दीपक मोदी, रायपुर, छत्तीसगढ़ से स्वयं मैं आदि भौगोलिक दूरी के बावजूद बड़ी आत्मीयता से कविता कोश में हाथ बँटा रहे हैं ।


यद्यपि कविता कोश में कतिपय महत्वपूर्ण कवियों की अनुपस्थिति को लेकर हिंदी कविता के गंभीर अध्येताओं को आपत्ति हो सकती है कि तथापि हिंदी कविता के शिल्पियों की लंबी फेहरिस्त को देखते हुए उन्हें अवश्य संतोष हो सकता है कि प्रथम चरण में इतने सारे कवियों और उनकी कविताओं को खोज निकालना कम चुनौती नहीं रहा होगा, और कम श्रमसाध्य कर्म भी नहीं । यूं तो हिंदी कविता की सुदीर्घ परंपरा रही है । हर काल और वाद के सैकडों नामचीं कवि हुए हैं जिन्हें इस कोश में होना ही चाहिए । और जैसा कि कविता कोश की नीति में कहा गया है कि – “प्रथम चरण में केवल अपेक्षाकृत अधिक प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं का संकलन किया जाएगा। कौन कवि कितने प्रतिष्ठित हैं या थे - इस बात का कोई पैमाना सोचना बडा मुश्किल है क्योंकि प्रतिष्ठा सापेक्षिक और व्यक्तिगत होती है। इसलिये यह तय किया गया है कि इस चरण में मुख्यत: केवल उन रचनाकारों को सम्मिलित किया जाएगा जिनकी कविताएँ पाठ्यपुस्तकों में छप चुकी हैं। पहला चरण कोश में कम से कम 5000 कविताओं के इकठ्ठे होने तक चलता रहेगा।” यह दूसरी बात है कि यदि आप इस नीति पर गंभीर हो जायें तो कविता कोश के पहले चरण में आपको कुछ ऐसे नाम भी मिलेंगे जिनकी कविता कहाँ और किस पाठ्यक्रम में पढ़ायी जाती है, कोई पता नहीं है ? पर इतनी तो छूट दी ही जा सकती है कविता कोश को शुरुआती दौर में ।

फिलहाल कविता कोश में कविताओं का क्रम कवि की रचनात्मक प्रतिष्ठा, उसकी वरिष्ठता या काल तथा हिंदी कविता के कालों या प्रचलित वादों या आन्दोलनों के आधार पर नहीं अपितु वर्णमाला के आधार पर (alfabaticly) रखा गया है । यह कविता तलाशने वालों के लिए सुविधाजनक भी है । इस प्रकार अब तक जिनकी कविताएं प्रतिष्ठित हो चुकी हैं उनमें हैं -
अटल बिहारी वाजपेयी, अज्ञेय, अमरनाथ श्रीवास्तव, अमीर खुसरो, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, अशोक चक्रधर, अशोक वाजपेयी, इसाक अश्क, उमाशंकर तिवारी, उमाकांत मालवीय, उर्मिलेश, ओम प्रकाश चतुर्वेदी 'पराग, कन्हैयालाल नंदन, कबीर, कमलेश भट्ट 'कमल', काका हाथरसी, किशोर काबरा, कीर्ति चौधरी, कुमार रवींद्र, कुंवर नारायण, कुँवर बेचैन, केदारनाथ अग्रवाल, कैफ़ी आज़मी, कैलाश गौतम, गजानन माधव मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथुर, गुलज़ार, गुलाब खंडेलवाल, गोपालदास "नीरज", गोपाल प्रसाद व्यास, गोपाल सिंह नेपाली, गोरखनाथ, चंद बरदाई, चंद्रसेन विराट, जयशंकर प्रसाद, डॉ॰ जगदीश व्योम, जयप्रकाश मानस, डा तारादत्त निर्विरोध, तुलसीदास, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, दुष्यंत कुमार, धर्मवीर भारती, नईम, नरेश मेहता, नरेन्द्र शर्मा, नरोत्तमदास, नागार्जुन, निदा फ़ाज़ली, निर्मला जोशी, नेमिचन्द्र जैन, डॉ.पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, प्रदीप, प्रभाकर माचवे, बशीर बद्र, बिहारी, भगवतीचरण वर्मा, भवानीप्रसाद मिश्र, भारतभूषण अग्रवाल, भारतेंदु हरिश्चंद्, मलिक मोहम्मद जायसी, मलूकदास, महेश अनघ, महादेवी वर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मीराबाई, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, मुकुटधर पांडेय, मुकुट बिहारी सरोज, यश मालवीय, रघुवीर सहाय, रमानाथ अवस्थी, रसखान, रहीम, राजी सेठ, रामावतार त्यागी, रामकुमार वर्मा, रामधारी सिंह "दिनकर", राम प्रसाद बिस्मिल, राम विलास शर्मा, राम सनेहीलाल शर्मा 'यायावर', रामानुज त्रिपाठी, रैदास, विद्यापति, विष्णु विराट, वीरेंद्र मिश्र, श्यामनन्दन किशोर, श्यामनारायण पाण्डेय, शमशेर बहादुर सिंह, शहरयार, शांति सुमन, शिवमंगल सिंह सुमन, सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला", सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, सोहनलाल द्विवेदी, सुकीर्ति गुप्ता, सुदर्शन फ़ाकिर, सूरदास, सूर्यभानु गुप्त, सोम ठाकुर, हरिवंशराय बच्चन, त्रिलोचन शास्त्री, श्रीकांत वर्मा, श्रीकृष्ण सरल । इसके अलावा कुछ ही दिनों में यहाँ दो-ढाई सौ ख्यातिलब्ध और प्रतिष्ठित ग़ज़लकारों की ग़जलें भी पढ़ने को मिलेगी, जिसका श्रीगणेश हो चुका है । सब कुछ सकारात्मक गति से चलता रहा तो इस रूप में ग़ज़ल के विकास-क्रम को भी आसानी से समझा जा सकेगा है । हाँ, पाठ्यक्रम वाली शर्त की शिथिलता के साथ, क्योंकि (समग्र रूप से) कम से कम हिंदी के पाठ्यक्रमों में ग़ज़लों के प्रति सकारात्मक नज़रिया अभी प्रतीक्षित है ।

यदि मैं अपनी भावना का स्थानीयकरण करके कहूँ तो पहले चरण में छत्तीसगढ़ के 4 पुरोधाओं को यहाँ समादृत किया गया है । ये हैं – छायावाद के संस्थापक कवि पद्मश्री मुकुटधर पांडेय, सरस्वती के संपादक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, कविता के ख्यातिलब्ध नाम श्रीकांत वर्मा । द्वितीय चरण में राज्य के ऐसे खास कवियों को भी यहाँ पढ़ने का अवसर मिल सकेगा जिन्हें पढ़कर वास्तव में उनके कवि सहित (वादरहित)इंसान होने का भी प्रमाण मिलता रहा है । इस नज़रिये से अन्य प्रदेश के साहित्यिक संगठनों को भी सोचने से कोई बुराई नहीं । जो स्थानीयता का सम्मान नहीं कर सकता वह विश्व का भला क्या सम्मान कर सकेगा । प्रगतिशीलता में गति नहीं तो वह कैसी प्रगति ? चलिए फिर लौटते हैं केंद्रीय विषय पर ।

कविता कोश में बोनस के तौर पर कई कवियों का जीवन-परिचय भी दिया गया है । यदि धीरे-धीरे सभी कवियों का जीवन-परिचय भी यहाँ समादृत किया जा सके तो निश्चित ही इस ऐतिहासिक कार्य के लिए भी यह साइट जाना जायेगा । सुना है दिल्ली के 'आलेख प्रकाशन' के मुखिया और संपादक उमेशचंद्र अग्रवाल भी इस दिशा में आगे बढ़ते हुए विश्व के कवियों, रचनाकारों का बायोडेटा अंतरजाल पर ला रहे हैं । परन्तु उनके प्रस्ताव में रचनाकार को अपना अर्थशास्त्र भी समझना पडेगा । बहरहाल आज की तारीख में ही कविता कोश के इस कार्य की महत्ता बतायें तो हम कह सकते हैं कि हिंदी के लघु-पत्रिका के संपादकों के लिए यह अनुपम बन चुका है जहाँ से मनोच्छित कविताएं प्रकाशनार्थ, संदर्भार्थ चयन की जा सकती हैं । हाँ, कविता के अध्येताओं और शोध-वृत्तियों से जुड़े लोगों को भविष्य में ऐसी सूची की प्रतीक्षा भी रहेगी जो हिंदी कविता के मानक काल, वाद, आंदोलनों और प्रवृतियों पर केंद्रित रहे और यदि ऐसा हो सका तो किसी भी विश्वविद्यालय के हिंदी या भाषा विभाग को इसे अपना संदर्भ ग्रंथ के रूप में मान्यता देने में कोई गुरेज़ नहीं होगा । कविता कोश के वर्तमान स्वरूप और रचनाओं के वर्गीकरण को लेकर यह प्रश्न भले ही कोई उछाल सकता है कि यहाँ कविताओं को विधात्मक चरित्र (कविता, गीत, दोहे, सोरठा, ग़ज़ल, मुक्तक, हाइकु आदि) के आधार पर रखा जाना चाहिए । पर इसके लिए कविता कोश में जुटे भाषासेवियों की कठिनाईयों पर भी गौर करना चाहिए ।

कविता कोश में विभिन्न कवियों की सिर्फ फूटकर कविताएँ ही नहीं हैं, वहाँ हिंदी के महत्वपूर्ण कवियों की चर्चित कविता किताबों, संग्रहों, खंडकाव्यों आदि को प्रतिष्ठित किया जा रहा है । अब तक जिन किताबों को पूर्णतः ऑनलाइन किया जा चुका है वे हैं- मैथिली शरण गुप्त जी की सैरन्धी (खंडकाव्य), साकेत (प्रथम सर्ग) और नरोत्तम दास का सुदामा चरित । यहाँ आने वाले दिनो में अन्य महत्वपूर्ण कृतियों भी संपूर्णतः ऑनलाइन मिल सकती हैं । इसमें कबीर, तुलसी, निराला, पंत, महादेवी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, मुकुटधर पांडेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, श्रीकांत वर्मा आदि की चर्चित कृतियाँ सम्मलित हैं । कविता कोश के वेब-पृष्ठों पर कई कवियों की ऐसी कविताएं भी जुटायीं जा चुकी हैं जो आम पाठक के लिए सहजता से उपलब्ध नहीं होती । इसमें से कुछ तो अब तक अप्रकाशित भी रही हैं । यह अक्सर होता है कि हमारे किसी प्रिय कवि की कोई खास कविता ढूँढने पर भी नहीं मिलती और हम मन मसोसकर रह जाते हैं । आम पाठक ही क्यों, समकालीन साहित्यिक बिरादरी भी इस कदर स्वकेंद्रित हो चुकी है कि वह अब धीरे-धीरे हिंदी साहित्य के स्वर्णकाल यानी भक्तिकाल और रीतिकाल के कवियों को लगातार भूलते जा रही है । इधर कई नामवर आलोचक उन कविताओं को खारिज़ करते चले जा रहे हैं । उन कविताओं में उन्हें नानाभाँति बुराईयाँ नज़र आती हैं । ऊपर से प्रौद्योगिक युग की मार और नई पीढ़ी में कविता या साहित्य जैसे विषय के प्रति घटती अभिरुचि । ऐसे दौर में वीरगाथा काल सहित हिंदी के तमाम महत्वपूर्ण कवियों को यहाँ पढ़ना कविता के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना भी है, जिसके लिए कविता कोश को निश्चित ही साधुवाद दिया जाना चाहिए । साधुवाद इसलिए भी कविता कोश में वह जबाब भी छिपा हुआ है जिसके लिए प्रश्न किया जाता है कि कविता संग्रह खरीदने के लिए रुपए कहाँ से आयेंगे ? कविता कोश उन प्रकाशकों के शातिराने अंदाज वाली कथन का भी मुँहतोड़ जबाब हो सकता है जिसमें कहा जाता है कि कविता संग्रह बिकती नहीं है, तो छापें कैसे ? मत छापिए, कविता कोश जो है अब उनके लिए ।

कविता कोश में किसी कवि की कविता सम्मिलित होना अपने आप में आत्मतोष का भी विषय हो सकता है क्योंकि यह मुक्त या निजी वेबसाइट नहीं अपितु इंटरनेट पर सर्वाधिक चर्चित और देखी जाने वाली साइट-विकीपीडिया (मुक्त इनसाइक्लोपीडिया) द्वारा उपलब्ध करायी गई जालस्थल सेवा का अहम् हिस्सा है जो ललित कुमार की सुदीर्ष सोच का परिणाम है । कविता कोश को देखकर उसके विकिपीडिया का हिस्सा होने का भ्रम जरूर हो सकता है पर यह विकिपीडिया परियोजना का हिस्सा नहीं है । इस मायने में यह न केवल हिंदी कविता के शोधकर्ताओं के लिए बल्कि आम इंटरनेट उपयोग कर्ताओं के लिए आकर्षक साइट है । यही कारण है कि कई कवि यहाँ स्वयं को देखने के अभिलाषी हो सकते हैं और वे अपनी कविता भी भेजे जा रहे हैं और उन्हें द्वितीय चरण में सम्मिलित करने की आवश्यक तैयारी भी की जा रही है ।

कविता कोश में मात्र कवियों की ख्यातिप्राप्त कविताएं ही नहीं है, वहाँ कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी रखी गयीं हैं । इस क्रम में हम हिंदी काव्य छंद नामक सूचनात्मक लेख और नई घटनाएं जैसे स्तम्भों का भी जिक्र कर सकते हैं । पर यह कम से कम मेरे समझ से परे की बात है कि नई घटनायें के नाम पर क्यों किसी एक ही व्यक्ति को इतना महत्व दिया जा रहा है । यह न तो प्रजातांत्रिक है न ही अन्य पाठकों के लिए रुचिकर । यहाँ कई ऐसे सांस्कृतिक समाचार भी दिये गये हैं जिनका स्थानीय मूल्य के अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई महत्व नहीं है । ऐसी लोकप्रियता से बचने में ही हिंदी के अतरराष्ट्रीय चरित्र का विकास हो सकता है । भारत के कई शहर, गाँव ऐसे हैं जहाँ हर दिन कोई न कोई सांस्कृतिक घटनाएं होती रहती हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं कि सभी को कविता कोश जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रकृति वाले जाल-स्थल को ही रखा जाये । इन्हें भी अन्य वेबजालों का लिंक बताया जाना चाहिए । होना तो यह चाहिए कि यहाँ सिर्फ कविता या कवि से जुड़ी सास्कृतिक घटनाएं ही दें । पर कवि सम्मेलन की रिपोर्ट कदापि नहीं ।

कविता कोश निस्वार्थ सेवाभावियों के योगदान का दूसरा नाम है । यह साधारण लोगों के लिए आश्चर्य का विषय हो सकता है कि कोई भी यानी
संस्थापक, प्रशासक, सिसओप, संपादक, या योगदानकर्ता कोई भी आर्थिक लाभ या लालच से सर्वथा मुक्त हैं । कविता कोश के स्वप्न को साकार करने के लिये विश्वभर से हिन्दी-प्रेमी व्यक्ति स्वेच्छा से स्वयंसेवा कर रहे हैं। कोश बनाने के लिये जालस्थल की सेवा उपलब्ध कराने वाली संस्था Wikia.com कोश के जालस्थल पर कुछ विज्ञापन जरूर दिखा रही है जिससे कविता कोश परिवार को कोई लेना–देना नहीं है । जैसा कि स्पष्ट है कि कविता कोश का उद्देश्य लाभार्जन नहीं है अतः किसी अल्पज्ञानी और शंकाधर्मी व्यक्ति को भी शायद ही कॉपाराइट जैसे मुद्दों को लेकर किसी आपत्ति होगी । क्योंकि कोश का मूल उद्देश्य हिंदी कविता को इंटरनेट पर एक मुकाम पर लाना है ताकि समूचा संसार इसका लाभ उठा सके । हिंदी काव्य का विश्वव्यापी प्रतिष्ठा मिल सके । फिर भी कविता कोश दल द्वारा सावधानीपूर्वक उन्हीं कविताओं, कृतियों को रखा जा रहा है जो कॉपीराइट मुक्त हैं या जिन कवियों या उत्तराधिकारियों ने इसके लिए बाकायदा अनुमति दे रखी है । फिर भी जिन्हें आपत्ति है उन्हें अपनी वैधानिक शिकायत दर्ज कराने लिए और जिन्हें अपनी या किसी खास कवि की कविता उपलब्ध करानी हो उनके लिए भी kavitakosh@gmail.com पर आमंत्रित किया जाना कविता कोश के नियोजकों के खुलेपन को चरितार्थ करता है । आपसे गुजारिश सिर्फ इतनी कि शुभकामना ही मत दीजिए कविताकोश को, कुछ सहयोग भी दीजिए....आमीन.... ।

0 जयप्रकाश मानस