Thursday, July 16, 2009

आलोचक श्री पंकज चतुर्वेदी को खुला पत्र

प्रिय पंकज चतुर्वेदी जी,

आपका ई-पत्र, जो प्रमोद वर्मा संस्थान के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन के नाम संबोधित है, उन तक पहुँच दी गई है । मैं आपको उनकी ओर से नहीं अपितु निहायत निजी तौर पर अपनी ओर से ( संस्थान के कार्यकारी निदेशक होने के नाते भी ) आपके पत्र के परिप्रेक्ष्य में कुछ बातों को स्पष्ट करना चाहूँगा । शायद शेयर करना भी होगा यह ।

जैसा कि आपने भी लिखा है कि “आप (यानी विश्वरंजन) सार्थक तथा उदात्त चिन्ताओं से प्रेरित होकर यह अहम् संगोष्ठी करा रहे हैं ।” इसमें न तो किसी को कोई शक़ था, न है, न रहेगा । संस्थान की ऐसी चिंताओं के पीछे उनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता भी रही है और भविष्य में भी रहेगी । वैसे अब तो आयोजन संपन्न हो चुका है और उसके सार्थक निष्कर्षों की अनुगूंज लेकर देश और छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार जा चुके हैं।

आपने अपने संस्थान की ऐसी सोच और दृष्टि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है, यह कहकर कि आप जैसे अदना लेखक को इसमें आमंत्रित करने लायक समझा गया, हम आपके प्रति और आपके द्वारा उन चिंताओं के सहकार बनने हेतु रायपुर आने के लिए कराये गये रिज़र्वेशन्स (किन्तु रायपुर नहीं आने के बावजूद) में लगे श्रम, समय और संभावित जद्दोजहद के लिए आभार प्रकट करते हैं ।

आभार इसलिए कि आप भी संस्थान (और संस्थान के अध्यक्ष होने के नाते निजी तौर पर विश्वरंजन जी सहित संस्था के सभी हम सदस्यों ) की चिंताओं से सहमत हो चुके थे और देश के एक क्रियाशील युवा आलोचक होने के नाते संगोष्ठी (10-11 जुलाई, 2009, रायपुर) में आने की पूरी तैयारी कर चुके थे । जिसका ज़िक्र आप आयोजन के कुछ दिन पहले तक मोबाइल पर होती रही चर्चा के दरमियां भी करते रहे थे । इसका एक मतलब हम क्या यह भी नहीं निकाल सकते कि चर्चा के दौर तक आपको ऐसी कोई जानकारी नहीं थी कि आपको आमंत्रित करनेवाले विश्वरंजन वही हैं जिनके बारे में आपको अब ऐसा लिखना पड़ रहा है कि....

जैसा कि आपने उक्त पत्र में लिखा है कि – “6 जुलाई, 2009 को सहसा मेरी नज़र हिन्दी पाक्षिक 'द पब्लिक एजेंडा' के 8 जुलाई, 2009 के पृ. सं. 13 पर छतीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक के तौर पर प्रकाशित आपके ( विश्वरंजन) साक्षात्कार पर गयी और इसे पढ़कर मैं इतना विचलित हुआ कि मुझे उपर्युक्त संगोष्ठी में हिस्सेदारी करने का अपना फ़ैसला रद्द करना पड़ा और रायपुर आने के अपने रेलवे रेज़र्वेशन्स भी। कृपया इस असहयोग के लिए मुझे क्षमा करेंगे और मेरी वैचारिक असहमति को हरगिज़ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं ग्रहण करेंगे !”

चूँकि प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में आपके आमंत्रण, आगमन की सुनिश्चितता और लगातार संपर्क के मध्य विश्वरंजन नहीं अपितु सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही था, विश्वरंजन ( सामान्य विश्वरंजन या पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ) कदापि नहीं । ऐसा मैं इसलिए भी कह पा रहा हूँ क्योंकि आपके नाम का सुझाव मैंने ही दिया था । मुझे नहीं पता कि इससे पहले विश्वरंजन आपके आलोचक को जानते रहे हैं । पर इतना तो है कि आपके नाम को प्रस्तावित वक्ता के रूप में रखने के बाद से आपके आलोचक होने से परिचित हो चुके थे ।

अतः पुनः निजी तौर पर मैं (आपकी विनम्र भाषा में ही एक अदना लेखक होने और संस्थान के कार्यकारी निदेशक होने के नाते भी ) आपके इस तरह विचलित होने पर यही कहना चाहूँगा कि आपका असहयोग विश्वरंजन के प्रति ही नहीं है, उस समूचे संस्थान के प्रति है, उन सारे सदस्यों की उस आस्था के प्रति भी असहयोग है जिसमें आपको एक नीर-क्षीर विवेक कर्म वाले आलोचक मानने की निर्मल भावना भी सम्मिलित है । दरअसल आपका यह असहयोग उस विश्वरंजन के प्रति नहीं है जो एक इंसान है, संवेदनशील कवि है, देश का प्रतिष्ठित ईमानदार पुलिस अधिकारी है, फ़िराक गोरखपुरी का नाती है, प्रमोद वर्मा जैसे बड़े आलोचक और कवि का मित्र है और लगभग शिष्य भी और इतना ही नहीं ऐसे भूलने-भूलानेवाले दौर में अपने पूर्वजों, इतिहासपुरुषों को याद करने की जद्दोजहद और चुनौती से मुठभेड़ करनेवाले भी ।

दरअसल आपका यह असहयोग उस “सलवा जुडूम” के प्रति है, जिसकी एकांगी तस्वीर आप तक पहुँचायी गयी है या आप उसका वही मायने समझते हैं या समझना चाहते हैं और जैसा कि आपने लिखा भी है - 'सलवा जुडूम' सरीखी सरकार द्वारा संरक्षित, पोषित और संचालित, साधनहीन, विपन्न और अत्यंत सामान्य मानवाधिकारों से भी महरूम आदिवासियों का दमन करनेवाली संस्था का बेझिझक और सम्पूर्ण समर्थन करते हैं, जो मेरे जैसे लोगों के लिए एक बहुत तकलीफ़देह मामला है ।”

क्षमा करें चतुर्वेदीजी, यह सर्वथा झूठ और भ्रामक धारणा है जो प्रायोजित तौर पर सारे देश और दुनिया में फैलाया गया है । आप स्वयं समझ सकते हैं - बार-बार बोला गया झूठ अंततः सत्य में तब्दील हो जाता है पर वह सत्य तो होता नहीं है । यह हमारे राज्य की माटी के प्रति भी अपराध है । हमारे लोगों के विचारों का भी दमन है । और यह दमन है तो वह भी हिटलरी वृति है । विचारों की हत्या को मैं और शायद आप भी इसी तरह देखते होंगे....

ऐसा वे लोग कहते हैं जिन्हें बस्तर के आदिवासियों के जीवन-संघर्ष का इतिहास मालूम नहीं है, जिन्हें आदिवासियों का आक्रोश पसंद नहीं है, जिन्हें उनके वास्तविक शोषकों का वास्तविक चेहरा दिखाई नहीं देता, जिन्हें माओवादी नक्सलियों की धूर्ततापूर्ण संवेदना और सहानुभूति से मतिभ्रष्ट और अब संत्रस्त आदिवासियों की नयी उम्मीद पर विश्वास नहीं है । यदि आप और हम नक्सलवाद के मूल में आदिवासियों, दलितो, ग़रीबों के विकास की धीमी गति, प्रशासनिक भ्रष्ट्राचरण, आसराहीन व्यवस्था को मानते हैं तब तो इन नक्सलियों द्वारा पिछले 30-40 वर्षों में बस्तर या अन्यत्र कहीं के भी ऐसी अविकसित, पिछड़े, दलित, दमित, शोषित जनता के विकास के लिए वह सब देखते जैसा कि माओ ने देखा था या मार्क्स ने । क्या आपके पास ऐसा कोई उदाहरण है जिसे देखकर आप संतोष व्यक्त कर सकें कि प्रजातंत्र का विकल्प बनने की दक्षता माओवाद में है ? या वे उनके वास्तविक हितैषी थे, हमदर्द थे । यदि ऐसा होता तो निश्चित रूप से ऐसे माओवादियों द्वारा बस्तर में आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल बनवाये जाते, शौचालय बनाये जाते, अस्पताल बनाये जाते, दुर्गम गाँवों तक पहुँचने के लिए रास्ते बनाये जाते, उनके लिए उनक वनोपज का विपणन किया जाता, उनकी मज़दूरी का वास्तविक भूगतान कराया जाता आदि-आदि.... नक्सलवाद यदि शोषितों, पीड़ितों, दलितों, वंचितों के लिए है तो भी उनके लिए नक्सलवादियों या उनके अनुयायियों, बौद्धिकों ने इस दिशा में क्या-क्या किया है, इसका हिसाब क्या नहीं माँगा जाना चाहिए ?

मैं नहीं जानता कि आप सलवा-जुड़ूम के बारे में कितना जानते हैं, कितना जानने की चेष्टा करते रहे हैं और कितना जानने की चेष्टा भविष्य में करते रहेंगे और जानने के बाद भी किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के संजाल से स्वयं को मुक्त भी नहीं करना चाहेंगे, यद्यपि जिसकी संभावना शून्य भी हो सकती है ।

मित्रवर, ( संबोधन की ऐसी अनुमति तो आप शायद दे ही सकते हैं) सलवा जुड़ूम साधनहीन, विपन्न अत्यंत सामान्य मानवाधिकारों से भी महरूम आदिवासियों का दमन करनेवाली संस्था नहीं बल्कि आदिवासियों द्वारा उन्हें छलपूर्वक पहले हितैषी बनाने और एक निश्चित अवधि के बाद अब उनपर उन्हीं के द्वारा होनेवाले अत्याचार, अनाचार से मुक्ति का आंदोलन है । धोख़ेबाज़ मित्रों के ख़िलाफ़ आक्रोश है । शांतिपूर्ण जीवन की माँग है । इसकी शुरुआत दंतेवाड़ा के आदिवासी सरपंच, जनप्रतिनिधि और सामान्य नागरिकों, युवाओं ने की थी कि उन्हें शांति चाहिए, मुक्ति चाहिए । आख़िर किससे ? आख़िर किसलिए ?
सिर्फ़ और सिर्फ़ उनसे मुक्ति का जनांदोलन है, जो नक्सली उनका शोषण करते हैं, जो नक्सली उनकी माँ-बहिन की सरे आम इज्जत लूटते हैं, जो नक्सली उनके देवी-देवताओं, उनकी प्रथा-परंपराओं, निजी मान्यताओं, जीवन-दर्शन की निंदा करते हैं, जो नक्सली उनसे बेगारी कराते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों की पाठशाला, चिकित्सालय, पंचायत भवन को ध्वस्त कर देते हैं, जो नक्सली उनके ग्राम में बनने वाली सड़क को खोद कर रास्ता उन्हें चारों ओर से बंद कर देते हैं, जो नक्सली उन्हें प्रजात्रांतिक तरीक़े से सत्ता में भागीदार बनने से वंचित करते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों तक रोशनी पहुँचानेवाले बिजली टॉवर और टॉवर उड़ा देते हैं, जो नक्सली उनके गाँवों में होनेवाले विकास कार्यों का विरोध करते हैं, जो नक्सली ऐसे क्षेत्रों में पदस्थ सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों से अपने कथित क्रांतिकारी आंदोलन के लिए चंदा लेते हैं, जो नक्सली बड़े पूँजीपतियों को बस्तर में व्यापार करने देने के लिए मासिक उगाही पर परमिट जारी करते हैं, जो नक्सली जंगल के ठेकेदारों से थैली लेकर अपनी जेबें भरते हैं, जो नक्सली सबसे पहले उन्हें प्रचलित प्रजातांत्रिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ दूसरी व्यवस्था (जाने कौन सी ?) को सर्वोच्च और अंतिम बताते हैं, व्यवस्थागत ख़ामियों के ख़िलाफ़ भड़काकर अंतिम रूप से सिर्फ़ हिंसा या ख़ूनी क्रांति से आज़ादी के लिए संघर्ष का पाठ पढ़ाते हैं, जो नक्सली उन्हें गाँव से हकालकर पुलिस और अर्धसैनिक बल से युद्ध या मुठभेड़ के समय आगे करके स्वयं को सुरक्षित रखते हैं, जो नक्सली अपने संघम् सदस्यों ( ग्रास रूट पर माओवादी हिंसक गतिविधियों को संचालित करने वाले कार्यकर्ता ) की मृत्यु पर भाड़े के बुद्धिजीवियों से देश-विदेश में मानवाधिकार का मुद्दा उछलवाते है किन्तु निरीह, निर्दोष और निरपराध आदिवासियों के मारे जाने पर पूर्णतः चुप्पी साध लेते हैं, जो नक्सली अपनी बात नहीं माननेवाले ग्रामवासियों को बीच बर्बरतापूर्वक बस्ती में गला रेत देते हैं, जो नक्सली भारतीय कानून का विरोध करते हैं दूसरी ओर एकतरफ़ा मानवाधिकार के नाम पर व्यवस्था के अंगों को बदनाम करने के लिए उसी कोर्ट का शरण लेते हैं, जो नक्सली चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका से अवैध अस्त्र और शस्त्र इकट्ठा करते हैं, जो नक्सली बड़ी मात्रा में जाली नोट और मादक द्रव्यों से भारी भरकम राशि इकट्ठा करते हैं, जो नक्सली चित्त और पट्ट दोनों को अपना मानते हैं ।

चतुर्वेदी जी, सलवा जुडूम वर्तमान सरकार की कोई योजना नहीं है, उसे किसी भी विभाग की कल्याणकारी योजना में सम्मिलित नहीं किया गया है जिसके लिए कोई शासकीय या गैर शासकीय अधिकारी अमला का प्रावधान रखा गया हो, कोई शासकीय बजट आबंटन रखा गया हो । आप एक सरकारी आदमी होने के नाते इतना तो जानते ही होंगे कि बिना योजना, बिना अमले, बिना बजट के कुछ भी काम सरकार में संभव नहीं होता ।

आप भारी ग़लतफ़हमी के शिकार हैं कि सलवा जुडूम सरकारी योजना है जिसे माओवादियों ने निपटने के लिए राज्य सरकार ने शुरू किया है । भाई मेरे, इसे न तो किसी राज्य सरकार ने शुरू किया है, न तो पुलिस मुखिया होने के नाते विश्वरंजन ने और न ही किसी अन्य ने । काश, देश की बड़ी-बड़ी राजधानियों में बैठे-बैठे लाखों-करोड़ों का अनुदान झपटनेवाले और जनपक्षधर होने का स्वांग भरनेवाले ऐसे समाजसेवी कभी बस्तर में ऐसी जनचेतना फैलाये होते, जिससे उन्हें आततायी के विरूद्ध उठ खड़े होने की हिम्मत जागती । काश, स्वयं बस्तर में रहकर आदिवासियों के जागरण का बीड़ा उठानेवाले स्वयंसेवी संस्थायें ऐसा कुछ कर पातीं जिससे नक्सली उनके नेता नहीं बन पाते और आज ऐसी नौबत भी नहीं आती । आप इससे तो सहमत होंगे । माना कि पचास-साठ साल से सारी प्रजातांत्रिक सरकारें बस्तर के विकास में निकम्मी साबित हुईं और उधर आदिवासियों में भी अपने विकास, अधिकार के प्रति जागरूक नहीं थी कि वे सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पाते ।

यदि आप माओवाद को विकासहीनता से उबरने का क्रांतिकारी रास्ता मानते हैं तो आपको यह भी गारंटी लेनी होगी कि कहीं आप तो उसके मार्ग में रोड़ा नहीं अटका रहे हैं । आप उसके विकास के कितने आयामों पर संघर्षरत हैं, यह भी देखना होगा और इसे कौन देखेगा ? अंततः वही आदिवासी जनता ना !, यदि ऐसा हो सका होता तो बस्तर के आदिवासी आज निश्चित रूप से अपने विकास के उस पायदान पर खड़े हुए होते, जिसकी अपेक्षा माओवादी विचार पर विश्वास करनेवाले आज कर रहे हैं । और संभव है वहाँ के माओवादी आदिवासी विधानसभा, जिला पंचायत, ग्राम पंचायत आदि गणत्रांतिक संस्थाओं में पहुँचकर विकास के पुरोधा भी बन चुके होते । बस्तर का विकास रच रहे होते ।

क्या, उन्होंने बस्तर के आदिवासियों को सत्ता में भागीदारी का पाठ पढ़ाया ? माओवादियों ने ऐसा कभी नहीं किया । दरअसल यह उनका लक्ष्य ही नहीं है । कानू सान्याल के शब्दों में कहें तो नक्सलवाद पूरी तरह दिशाभ्रष्ट हो चुका है, वह हिंसक और विध्वंसक हो चुका है, ऐसा उनका सपना नहीं था, जो जनविरोधी हो उसे क्योंकर नक्सलवादी माना जाये । दरअसल माओवाद का लक्ष्य प्रचलित प्रजात्रांतिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनआक्रोश पैदा करना, उस जनआक्रोश के सहारे जनतांत्रिक अंगों को अनुपयुक्त साबित करना और हिंसक लोगों के सहारे माओवादी शासन स्थापित करना है ।

आपने तो सुन ही रखा होगा कि बस्तर में माओवादियों की पृथक सरकार है जो जैसा चाहे वैसा निर्णय लेती है । यदि आप उनके अनुयायी हैं तो आपको जान की मोहलत । यदि आप उनसे सहमत नहीं है तो बीच बाज़ार आपकी गला रेंत दिया जायेगा । भोले-भाले आदिवासियों को बंदूक पकड़ाकर ऐसे माओवादी कौन-सी प्रजात्रांतिक गतिविधियाँ संचालित कर रहे हैं बस्तर में ? आपने भी सुना होगा कि अब तो हद पार करके बस्तर के आदिवासियों के छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में हथियार थमाया जा रहा है । जिन परिवारों से एक बच्चा नहीं दिया जा रहा है उन्हें माओवादी सरे आम पिट रहे हैं, हत्या कर रहे हैं । आप बताना चाहेंगे ये कौन-सा समाज गढ़ना चाहते हैं ? आप बताना चाहेंगे ये दुनिया को किधर ले जाना चाहते हैं ? क्या आप यह भी बताना चाहेंगे इसमें किसी भी प्रकार का मानवाधिकार का हनन नहीं होता ? यदि आप जैसे आलोचक के पास इसका उत्तर नहीं है तो इस महादेश के ऐसे समय, परिस्थिति का मूल्याँकन कौन कर पायेगा ?

चतुर्वेदी जी, बस्तर में सलवा-जुडूम भोले-भाले आदिवासियों के उस विचार का समर्थन है जिसमें माओवादी और बर्बर हो चुके नक्सलियों से मुक्ति और शांतिपूर्ण जीवन की आंकाक्षा निहित है । यदि आपके पास भी कोई किसी आततायी से निपटने के लिए मदद माँगने आये तो ज़ाहिर है आप भी मदद करेंगे । बस्तर में आदिवासी पिछले कई दशाब्द से नक्सलियों से त्रस्त हैं । आप इतना तो जानते हैं । नहीं जानते तो मुझे माफ़ करें । मैं उस नैतिकता की भी याद दिलाना चाहूँगा जिसे न आप-हम छोड़ सकते हैं और जिसे हर सरकारों को याद रखना चाहिए । क्या कोई सरकार इतना अनैतिक हो जाये कि वह हिंसा के ख़िलाफ़ मदद माँगनेवाले निहत्थे के साथ खड़ा भी न हो सके, उन्हें मदद भी न करे और उस मदद में राज्य पुलिस का मुखिया होने के नाते विश्वरंजन का समर्थन हो तो उसे बुरा मान लिया जाये । और मित्र, यदि सीधे-सरल आदिवासी अकारण जान लेनेवाली नक्सली तानाशाही के ख़िलाफ़ हथियार पकड़कर भी उठ खड़े हों तो आप या हम कौन होते हैं जो उन्हें ऐसा करने से रोकें ? बस्तर के आदिवासी नक्सलियों को खदेड़ना चाह रहे हैं, आदिवासियों को नहीं । यदि ऐसे नक्सली आदिवासी हैं तो यह उनका दोष है । आप अपने भाई के हत्यारा हो जाने पर माफ़ कर सकते हैं, दोबारा हत्या करने पर मुँह छुपा सकते हैं किन्तु पता चला कि वह आपको ही हत्या करने के लिए उतारू हो जाये तब आप क्या करेंगे ? आदिवासी यदि सलवा जुडूम के माध्यम से नक्सलियों से कह रहा है कि बस्स, बहुत हो चुका, हमें आपकी भी व्यवस्था नहीं चाहिए तो उसे ऐसा कहने का अधिकार है । इस अधिकार से उसे वंचित करने नीयतवालों को क्या कहा जाये, यह आप ठंडे मन से सोचें तो आपकी आत्मा अवश्य उसका जवाब दे देगी......

सलवा जुडूम को आदिवासियों के ख़िलाफ़ अभियान मान बैठने या मनवाये जाने के निहितार्थों और ख़तरों को भी हमें समझना होगा जैसा कि छद्म मानवाधिकारवादी इन दिनों करते देखे जा रहे हैं । क्या आप यह भी जानना नहीं चाहेंगे कि सलवा जुडूम का प्रतिरोध आख़िरकार क्यों किया जा रहा है ? किन लोगों के द्वारा किया जा रहा है और इससे उन्हें क्या मिलनेवाला है ? सलवा जुडूम का विरोध बस्तर के आदिवासी नहीं कर रहे हैं । सलवा जुडूम का विरोध दरअसल उन बुद्धिजीवियों के द्वारा भी नहीं किया जा रहा है जो हर उस आदिवासी के मानवाधिकार के हनन पर भी आँसू बहाते हैं या संघर्ष करते रहे हैं । यदि मानवाधिकार सच्चाई है और समय की माँग है, मनुष्य को मनुष्य की तरह जीने का वातावरण देने का मुद्दा है तो आख़िर वे बस्तर उन निरीह आदिवासियों की आवाज़ क्योंकर नहीं बनते, जो माओवादियों के हाथों अपनी जान गँवाने को लाचार हैं? क्या माओवादियों की बस्तर राजनीतिक तानाशाही, निर्मम हत्या, लूटपाट, बलात्कार, सार्वजनिक तंत्र का सत्यानाश पर किसी प्रकार का कोई भी मानवाधिकार नहीं बनता । माओवादी हिंसा करें तो वह सामाजिक क्रांति है और आदिवासी उनसे बचने के लिए आंदोलन करें तो वह मानवाधिकार का प्रश्न है, ऐसा कैसे हो सकता है ? सलवा जुडूम के विरोध के पीछे दरअसल वह रणनीति है जिसमें माओवादियों के किलों, गढ़ों, परकोटों की चूलें हिल चुकी हैं । आप जानते ही हैं, वे बस्तर में इन्हीं आदिवासियों के सहारे अपना पैर जमाये हुए हैं । और शायद इसलिए कि आदिवासियों को बड़ी सरलता से पटाया जा सकता है, आसानी से उनके आक्रोश को हवा दी जा सकती है ।

आदिम युग से अबतक शोषक और शोषित दो स्थितियाँ हैं, जिनका लाभ उठाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों की ज़मात आज शीर्ष पर हैं। मानवाधिकार की चर्चा इस जमात का एक प्रिय अस्त्र है । मेरी इस बात की पुष्टि विश्व के घटनाक्रम कर चुके हैं, मैं नहीं ।

पंकजजी, यदि माओवादियों, नक्सलवादियों की ऐसी गतिविधियों पर आप जैसे लेखक-आलोचक को भी सहानुभूति है तो इस देश को अब भगवान ही बचायेगा ।

आपने विश्वरंजनजी को प्रेषित पत्र में लिखा है कि उन्होंने (विश्वरंजन) कहा है --"इस समय बस्तर में हम पूरे ज़ोर-शोर से माओवादियों से लड़ रहे हैं। "सवाल है कि ये 'माओवादी' कौन हैं ? क्या ये वही आदिवासी नहीं हैं, जिन्हें माओवादी बताकर हाल ही में पश्चिम बंगाल पुलिस ने लालगढ़ में न सिर्फ़ उन पर अत्याचार किये हैं; बल्कि बकौल मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी, "उनकी हत्याएँ भी की हैं। "बहरहाल,आपने अपने इस साक्षात्कार में यह आत्मविश्वास भी व्यक्त किया है कि "उनके ख़िलाफ़ पुलिस ही लड़ेगी और अंत में जीतेगी। " तो महोदय, पुलिस के आख़िरकार जीत जाने में भला किसको संशय हो सकता है ? कुछ ही समय पहले दिवंगत हुए महान साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने कभी अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "हमारे देश का सबसे शक्तिशाली आदमी पुलिस कांस्टेबल होता है। "फिर जहाँ पूरे देश की पुलिस लालगढ़ से छत्तीसगढ़ तक आदिवासियों के बेरहम दमन में शामिल हो; वहाँ उसके अकूत पराक्रम की तो केवल कल्पना की जा सकती है ! इस अद्भुत बल-विक्रम का एक सुबूत पेश करते हुए आपने कहा है --"उत्तर छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को खदेड़ दिया गया है ।"गौरतलब है कि आपने यह नहीं बताया कि ऐसे लोगों को खदेड़कर पहुँचाया कहाँ गया है ! दूसरे शब्दों में, उनके पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ?

मैं समझता हूँ कि शायद अब आपको बताने की ज़रूरत नहीं कि बस्तर के माओवादी कौन हैं, फिर भी मैं जितना राज्य को समझता हूँ, आदिवासियों को समझता हूँ और राज्य की नक्सली अभियान के बारे में जानता हूँ – बस्तर के माओवादी वे नहीं हैं जैसा आप समझते हैं या जैसा आपको समझाया जा रहा है, बस्तर के आदिवासी मूलतः माओवादी हो ही नहीं सकते । मित्र, आज से 30-40 के पहले के बस्तर के बारे में कल्पना करें । जिन्हें अपने घने जंगल, अपनी खेत-ख़ार, अपनी नदियों, घाटियों, अपने पेड़-पौधों से अधिक कुछ भी नहीं पता, दरअसल वही उनकी पाठशाला था, और वही उनका जीवन, अर्थव्यवस्था और सबकुछ । जो दिन भर मछली पकड़ने, वनोपज संग्रहित करने, चिड़िया मारने और थोड़ी मोड़ी खेती-बारी करने के बाद रात को मंद पीकर उन्मुक्त होकर जीते थे । अर्थात् जिनके लिए जंल, जंगल और ज़मीन के अलावा बाक़ी सब अकारज़ लगता था । न पढ़ाई-लिखाई से मतलब न ही नये ज़माने की तालीम और तकनीक से । क्या आप सोच सकते हैं कि उन्हें तब माओ और उसके सत्ता प्राप्ति के क्रांतिकारी विचारों के बारे में पता लग चुका था और वे माओवादी रास्तों से अपना विकास करने के लिए अग्रगामी हो चुके थे ? या आप या हमारे जैसे किसी क्रांतिकारी विचारकों से प्रभावित होने की उनमें सोच थी ? ना, ना, ऐसा कहना ग़लत होगा । ऐसा कहना आदिवासी को गाली देना भी होगा । तो भाई मेरे, बस्तर में माओवाद के संस्थापक या प्रचारक आदिवासी नहीं बल्कि वे बाहरी लोग थे जो प्रजातंत्र से रुष्ट थे, जिनका भारतीय शासन प्रणाली पर विश्वास उठ चुका था, जो ख़ूनी क्रांति पर विश्वास करते थे । ऐसे लोग आन्ध्रप्रदेश या पड़ोसी जिलों से पलायन करनेवाले माओवादी हैं जिन्हें बस्तर का भूगोल, वहाँ से सीधे-सादे आदिवासी, तात्कालीन वन अधिनियम की कमज़ोरियाँ आदि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कहीं अधिक सकारात्मक थीं । और आज की स्थिति में कहें तो उसमें उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली ।

हुआ क्या कि उन्होंने वर्षों तक स्वयं का चेहरा ग्रामवासियों के हितैषी के रूप में बनाये रखा । उनका विश्वास जीतने की कोशिश की कि वे ही उनके हमदर्द हैं । ऐसे समय वे जंगल ठेकेदारों से उनकी मज़दूरी, तेंदूपत्ता तुड़वाई का सही दर दिलाने के लिए आवाज़ भी उठाते रहे । सरकारी ख़ासकर वन अधिकारियों की कमज़ोरियों को प्रचारित करते रहे, आदि-आदि । बात यहाँ तक होती तो ऐसे माओवादियों को वे या आप या हम आज भी वनबंधुओं का मसीहा की तरह देखते । पर दरअसल उनका ऐसा लक्ष्य ही नहीं था । उनका लक्ष्य तो वर्तमान शासन प्रणाली को ध्वस्त करना और दिल्ली के लाल किले में लाल झंडा फहराना है । आदिवासी का हित तो बहाना मात्र है । आदिवासियों का विश्वास जीतने के बाद ये माओवादी उनमें धीरे-धीरे ऐसे तंत्र का पाठ पढ़ाने लगे दूसरी ओर ऐसे आदिवासियों के मन में व्यवस्था के प्रति आग भरने लगे और धीरे-धीरे ऐसे आदिवासियों के हाथों बंदूक, ए.के.47 पकड़वा दिया कि लो, सारे तंत्र को उखाड़ फेंको और चारों तरफ़ लाल झंडा फहरा दो । यह ठीक है कि उनके सम्मुख प्रजातंत्र पर विश्वास का पाठ पढ़ानेवाला कोई तंत्र नहीं था, और न ही उनके स्वयं के जनप्रतिनिधि भी इस कथित जनाक्रोश का निराकरण नहीं कर सके । दूसरे शब्दों में इसे यूँ भी कहा जा सकता है, उनके भीतर से चुने गये सांसद, विधायक या कोई ऐसा जनप्रतिनिधि भी उभर कर न आ सका जो उन्हें उनके स्वप्नों को पूरा कर सके ।

आपने जानना चाहा है कि उनकी (माओवादियों) विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है?

काश, ऐसा होता और माओवादियों की विचारधारा को उसकी नैतिकता, पवित्रता और विश्वसनीयता के साथ जनता की सहानुभूति और समर्थन प्राप्त होता । यह एक भ्रामक तथ्य है कि जनता को उसका समर्थन प्राप्त है । जिसे आप जनता कहते हैं और वास्तविक में वह जनता ही है तो वह किसी भी हालत में हिंसा पर विश्वास करनेवाले माओवादियों पर कदाचित् विश्वास नहीं करेगी । जनता ने और कम से कम भारतीय जनता ने हिंसा की बुनियाद पर खड़े होनेवाले दर्शन और विचारधारा को कभी समर्थन नहीं दिया है । इतिहास के पन्नों से उदाहरण ढूँढकर आपके समक्ष गिनाने की ज़रूरत शायद न हो। अयोध्या में जब विवादित ढाँचा ढ़हाया गया तब क्या देश की बहुसंख्यक जनता ने विरोध नहीं किया ? क्या गोधरा में दंगाइयों ने जनता का विश्वास और स्नेह अर्जित किया ? आदि..आदि...

आपने संस्थान के ई-मेल से भेजे अपने विरोध पत्र में ( संस्थान के अध्यक्ष नहीं डीजीपी विश्वरंजन से ) जानना चाहा है कि "उत्तर छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को खदेड़ दिया गया है ।" गौरतलब है कि आपने यह नहीं बताया कि ऐसे लोगों को खदेड़कर पहुँचाया कहाँ गया है ! दूसरे शब्दों में, उनके पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ?

आपके उपर्युक्त प्रश्न में उपयोग किये शब्दावली और उसके केंद्रीय आशय का एक मतलब यह भी हो सकता है कि शायद आप नक्सलियों के हमदर्द हैं, या उनके प्रवक्ता हैं या फिर आप नक्सली दर्शन या विचारों के अनुयायी आलोचक । क्योंकि आपने किसी साहित्यिक संगठन को प्रश्नांकित किया है कि नक्सलियों के पुनर्वास का क्या इंतिज़ाम सरकार ने किया है ? आपके इन शब्दों में यह भी बू आ रही है कि आप प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान को फासिस्ट संगठन मान रहे हैं । यह सर्वथा भूल और भ्रम है । साहित्यिक संगठन विशुद्धतः साहित्यिक कार्य करती हैं, किन्तु अमानवीय, अतिवाद, अत्याचार पर भी प्रश्न उठाती हैं । दशाब्दियों से नक्सलियों के हिंसात्मक आंतक से जूझ रहे राज्य की साहित्यिक संगठन होने के नाते हम आपसे सच्चाई को अधिक नज़दीक से जान देख रहे हैं । हम ऐसे प्रश्न किसी से नहीं करते जो हमें अमानवीय, अत्याचारी, तानाशाही, दमनकारी और राष्ट्रद्रोही, राज्यद्रोही साबित कर दे, क्योंकि हम यह बख़ूबी जानते हैं कि कम से कम बस्तर और राज्य में हिंसा का तांडव फैलानेवाला नक्सलवाद वही नक्सलवाद नहीं है जिसकी चारू मजूमदार ने नींव रखी थी । ये विशुद्धतः आदिवासी, ग़रीब, दलित, दमित विरोधी हैं । ये भटके हुए तानाशाह हैं जिन्हें सिर्फ़ बंदूक की गोली से हर समस्या का हल दिखाई देता है । जो सिर्फ़ बंदूक की भाषा समझते हैं । मैं आपसे पूछता हूँ, आप तो एक लेखक हैं, किसी महाविद्यालय में सैकड़ों युवाओं को हिन्दी की शिक्षा देते हैं । हिन्दी की शिक्षा में क्या निर्दोष, निरपराध, असहायों के स्वप्नों को साकार करने के नाम से उन्हीं की निर्मम हत्या और शोषण की छूट भी शामिल है ? यदि आप ऐसा पाठ पढ़ाते हैं तो हम आपके बारे में क्या कह सकते हैं ? यदि आप यह पूछते कि नक्सलियों द्वारा मारे गये निहत्थे आदिवासी के बच्चों का क्या हो रहा है, उसकी विधवा अब कैसी जी रही है, तो छत्तीसगढ़ की माटी को, छत्तीसगढ़ की मनीषा को, छत्तीसगढ़ की हमारे जैसे साहित्यिक संगठनों को बल मिलता कि कोई तो है जो हमारे दुख को समझ पा रहा है ? अब आप ही बतायें चतुर्वेदीजी, हम ऐसे नक्सलियों की चिन्ता क्यों करें जिन्होंने राज्य की शांति छीन ली, जिसने आदिवासियों का जीना दूभर कर दिया, जिसने राज्य के सैकड़ों आदिवासियों और पुलिस को मौत के घाट उतार दिया । (आपका यह ई-पत्र जब मैंने देखा उसके कुछ ही घंटे पहले 29 पुलिस कर्मी सहित राजनांदगाँव के पुलिस अधीक्षक श्री चौबे, विनोद कुमार को गुरिल्ले नक्सलवादियों द्वारा मौत के घाट उतारा जा चुका था और मैं सदमें में था, समूचा राज्य सदमें में था ) क्या आप आदिवासी और पुलिस को भिन्न भिन्न नज़र से देखते हैं । यानी की आदिवासी की मौत, मौत और पुलिस की मौत सिर्फ ड्यूटी । प्रातः स्मरणीय विष्णु प्रभाकर ने भले ही हवलदार को ताकतवर बताया हो किन्तु उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि नक्सलवाद राज्य या राष्ट्र के लिए समुचित विचारधारा है । उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि राज्य की बुनियाद हिंसा से रखी जानी चाहिए । उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि एक हवलदार यदि देश, राज्य, समाज के जान-माल की सुरक्षा के लिए लड़ते-लड़ते मारा जाये तो वह भी ठीक वैसा ही आंतककारी है जैसा कोई सामान्य हवलदार कोई असामाजिक कृत्य कर बैठता है । मुझे आपको यह स्मरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि विष्णु प्रभाकर हिंसा के नहीं, अंहिसा के पुजारी थे, माओ के नहीं, गांधी के अनुयायी थे । आप अपने तर्क के बहाने नक्सलवादियों को प्रतिष्ठित कराकर विष्णु प्रभाकरजी की स्वर्गीय आत्मा को क्यों दुख पहुँचाना चाहते थे, मेरी समझ से बाहर है ।

अब आते हैं आपके मूल प्रश्न के उत्तर ढूँढने की दिशा की ओर । ऐसे अहिंसा विरोधी, जनविरोधी, समाजविरोधी, राज्य विरोधी, देशविरोधी, संस्कृति विरोधी व्यक्ति या संगठन के पुनर्वास की चिंता किसे करनी चाहिए ? यदि आप इसके उत्तर में राज्य सरकार या केंद्र सरकार की ओर टुकटुकी लगाकर देख रहे हैं तो ग़लत देख रहे हैं । यह किसने आपको कह दिया है कि ऐसे नक्सली पुनर्वास चाहते हैं ? हथियार डालकर समर्पण चाहते हैं । राज्य के नागरिक होकर मुख्यधारा में रहने की कामना करते हैं । आपको बख़ूबी याद होगा – जिन डकैतों ने जयप्रकाश नारायण की बात मानी और हिंसा, अराजकता का रास्ता छोड़ा वे आज ख़ुशहाल जीवन बसर कर रहे हैं । मैं आपसे ही चाहूँगा कि ( क्योंकि लगता है आपको नक्सलियों के प्रति हमदर्दी है ) कभी आप भी ऐसी पहल करें ना, जिससे समूचे नक्सली नहीं तो कम से कम दो चार नक्सली ही सही, हथियार डालकर वार्तालाप के लिए आगे आयें, तब मैं और हम सभी पदाधिकारी अवश्य विश्वरंजनजी (संस्थान के अध्यक्ष नहीं, डीजीपी विश्वरंजन) को निवेदन करेंगे कि वे उनके पुनर्वास की पहल करें ।

आपको पता हो या नहीं, मैं नहीं जानता किन्तु मुझे अच्छी तरह से प्रशासकीय और संवैधानिक प्रक्रिया की जानकारी है कि डकैत, गैंगस्टर, दस्यु, नक्सली आदि के पुनर्वास का विषय किसी डीजीपी या पुलिस का काम नहीं है । पुलिस का काम है शांति और सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखना । यह दीगर बात है कि इस राज्य के पुलिस महानिदेशकों, मंत्रियों, मुख्यमंत्री ने बातचीत की पहल ज़रूर की होगी किन्तु मेरी अधिकतम् जानकारी के अनुसार आज तक कभी भी इन नक्सलियों ने हाँ नहीं भरी । वे बिना हथियार डाले यदि बातचीत की बात सिर्फ़ प्रेस विज्ञप्तियों में करते हैं तो यह फ़र्जीवाडा है, धोख़ा है । इस धोख़े का जोख़िम न तो राज्य उठा सकता है, न पुलिस, न हम और न ही आप । सैकड़ों निरीह आदिवासी जनता की मौत को भूलकर यदि आप-हम यदि सिर्फ़ नक्सलियों के पुनर्वास की चिंता में पतले हुए जा रहे हैं तो इस देश का भगवान ही मालिक है ।

मैं आपको इस तथ्य और प्रक्रिया की ओर भी इशारा करना चाहूँगा कि पुनर्वास उसका होता है जिसे ज़रूरत होती है । आप यह कैसे मान बैठे कि नक्सलियों को पुनर्वास चाहिए ? यह आपको किस माओवादी नेता ने कह दिया कि वे पुनर्वास चाहते हैं ? भाई मेरे, वे प्रजातंत्र की हत्या चाहते हैं और उसके बाद जो बचे-खुचे रहेंगे उनका पुनर्वास चाहते हैं । यदि आप इसी पुनर्वास की चाहत रखते हैं तो मैं आपसे क्या कहूँ ? मैं तो अब तक यही समझता आ रहा हूँ कि शोषकों का पुनर्वास नहीं होता, शोषितों का पुनर्वास होता है । यदि आप शोषकों का ही पुनर्वास कर नक्सली समस्या का हल देखते हैं तो धन्य है आपके ऐसे विचार...

वैसे आपके सामान्य ज्ञान की सीमा को बढ़ाने के लिए मैं यह भी बताना प्रांसगिक समझता हूँ कि इस राज्य में भी नक्सलियों के पुनर्वास हेतु पहल होती रही है कि वे पहले बातचीत को तैयार हों । संवाद कायम करें । इस दिशा में राज्य सरकार के अलावा रविशंकर महराज ने भी हाल में ही पहल की थी । पर उनकी तरफ से कुछ भी आवाज़ नहीं आयी । खैर...

आपने विश्वरंजन के साक्षात्कार का वास्ता दिया है कि 'सलवा जुडूम' का साथ देते हुए आप ( डीजीपी विश्वरंजन ) कहते हैं कि "इसके ख़िलाफ़ जिस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, उसके लिए माओवादियों को दाद देनी चाहिए।" दिलचस्प है कि फिर आप यह भी जोड़ते हैं--' सलवा जुडूम' माओवादियों के ख़िलाफ़ जनता की बगावत है।' सवाल है कि अगर यह सच है, तो उनकी विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है ? हम हिंसा के रास्ते के हामी नहीं हैं, लेकिन जिनसे उनका सब-कुछ छीन लिया गया हो, कई बार हथियार उठाना उनके लिए अपने वुजूद की रक्षा का आख़िरी उपाय होता है। दूसरे, जिनकी जीवन-स्थितियों में बदलाव और बेहतरी के सारे राजनीतिक रास्ते इस व्यवस्था में सदियों से बंद रहे आते हों और जिनके खुलने की कोई उम्मीद उन्हें आज भी----आज़ादी मिलने के साठ बरस बाद भी---नज़र न आती हो, वे आखिर क्या करें, कहाँ जायें, कैसे जियें, इस निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय कैसे माँगें ?

सलवा जुडूम को साथ देना जनतांत्रिक मुद्दों के साथ रहना है । उस निरीह और असहाय आदिवासी का साथ देना है माओवादी के ख़ौफ़ से जिनका बस्तर में जीना दूभर हो चुका है । सलवा जुडूम का विरोध करना प्रकारांतर से माओवादियों का, नक्सलियों का साथ देना है, हत्यारों का साथ देना है । लुटेरों का साथ देना है, देशद्रोहियों का साथ देना है । संविधानविरोधियों का साथ देना है । आपने डीजीपी विश्वरंजन से (अध्यक्ष विश्वरंजन के बहाने) जानना चाहा है कि सलवा जुडूम' माओवादियों के ख़िलाफ़ जनता की बगावत है तो उनकी विचारधारा और उनको उसी "जनता" की सहानुभूति और समर्थन कैसे प्राप्त होता है ?

आपको नहीं लगता कि आप दो अलग-अलग और विरोधी चीज़ों को एकसाथ घालमेल करके व्याख्यायित कर रहे हैं ? वैसे आपको इसका उत्तर पूर्वांश में मिल चुका है फिर भी एक बार और जान लीजिए कि जिसे आप जनता की सहानुभूति और समर्थन कह रहे हैं वह अर्धसत्य है, भ्रामक है । बंदूक की नाल कनपटी पर अड़ाकर मैं भी आपको हाँकने लगूँ तो आप भी मेरी बात करने लगेंगे । जिसे आप सहानुभूति कह रहे हैं वह भ्रम है, यह सहानुभूति नहीं मौत की भय से उपजा दबाब है, वह तैयार की गई फौज की विवशता है जहाँ अब वह दोनों तरह से खाई से घिर चुका है । दबाबपूर्वक नक्सली बनने या नक्सलियों को मदद पहुँचाने के कारण वह समाज में संदेहास्पद हो चुका है और व्यवस्था की नज़रों में भी । यदि आप उन्हें मूलतः माओवादी मानते हैं और उन्हें माओवादियों-नक्सवादियों का अनुयायी भी कहते हैं तो भूल है ।

मैं आपसे ही प्रश्न करना चाहूँगा - आप क्यों माओवादी नहीं बने, हथियार नहीं थामा, कलम को अपनाया ? शायद इसलिए कि आपको यह रास्ता उचित नहीं प्रतीत होता । शायद इसलिए भी कि आपको अभी जनतंत्र पर भरोसा है । शायद आप यह भी जानते हैं कि माओवाद जो हिंसा के रास्ते जन-समस्याओं का हल ढूँढता है मूलतः और अंततः अमानवीय और अतिवादी धारणा है जहाँ समतामूलक समाज और स्वतंत्रता आधारित समाज व्यवस्था की कोई संभावना नहीं । आपके पास किसी माओवादी देश में भारतीय प्रजातंत्र जैसी किसी व्यवस्था की सूचना या अनुभव है तो मुझे ज़रूर बतायें जो नागरिकों की भारत जैसी स्वतंत्रता की गारंटी देता है । शायद आप आप इतने शिक्षित तो हैं ही कि माओवादी हिंसा और हिंसा के बल पर नये तंत्र की स्थापना में किसी कलुषता की गारंटी नहीं ले सकते । जिसका बुनियाद ही हिंसा हो, उससे मानवता, समानता, उदारता और स्वतंत्रता की अपेक्षा नहीं की जा सकती है ।

मित्रवर, आप यह भी देख लें कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप उन आदिवासियों को माओवादियों के चंगुल से मुक्त ही नहीं करना चाहते जो फिलहाल भूलवश और प्राणभय से उनके साथ थे और अब उनकी असलियत जानकर उनसे मुक्ति चाह रहे हैं । यदि आप माओवादियों के प्रति आदिवासियों की सहानुभूति की निरंतर अपेक्षा की वकालत करते हैं तो कदाचित् आप इन आदिवासियों को प्रायश्चित करने का मौक़ा भी नहीं देना चाहते हैं । आपको शायद यह भी नहीं पता है कि बस्तर के सैकड़ों आदिवासी स्वस्फूर्त होकर और नक्सलियों का साथ ताउम्र के लिए छोड़कर उनके हिंसा से बस्तर को मुक्त बनाने के लिए हथियार डाल चुके हैं और एक स्वस्थ जीवन जी रहे हैं । और सिर्फ़ इतना ही नहीं वे हिंसा के ख़िलाफ़ जूझने और नागरिक जीवन को व्यवस्थित बनाने में व्यवस्था, प्रशासन और पुलिस को मदद कर रहे हैं । इन्हें आप क्या कहेंगे - भगोडे माओवादी या भारतीय प्रजातांत्रिक नागरिक?

आपने लिखा है कि जिनका सब-कुछ छीन लिया गया हो, कई बार हथियार उठाना उनके लिए अपने वजूद की रक्षा का आख़िरी उपाय होता है। दूसरे, जिनकी जीवन-स्थितियों में बदलाव और बेहतरी के सारे राजनीतिक रास्ते इस व्यवस्था में सदियों से बंद रहे आते हों और जिनके खुलने की कोई उम्मीद उन्हें आज भी----आज़ादी मिलने के साठ बरस बाद भी---नज़र न आती हो, वे आखिर क्या करें, कहाँ जायें, कैसे जियें, इस निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय कैसे माँगें ? इसका साफ़-साफ़ मतलब है कि आप हिंसा, हथियार, हत्या की अनुमति भी प्रजातंत्र में देने के पक्षधर हैं । फिर यदि सलवा-जुडूम के लोग नक्सली हिंसा के ख़िलाफ़ हथियार उठा लें तो उसे कैसे ग़लत कह रहे हैं ?

क्या आपने कभी हथियार उठाया है, क्या कभी आप हथियार जुटाने की जद्दोजहद की है, क्या आपने किसी निहत्थे को मारा है या कभी किसी निहत्थे को मारने की कोशिश करेंगे ? नहीं ना ! मैं जानता हूँ शायद आप ऐसा नहीं करेंगे ।

चतुर्वेदी जी, ये हिंसक माओवादी-नक्सलवादी निज़ाम के नियंताओं से अपने अधिकार और अपने लिए न्याय माँग रहे होते और उनसे नहीं मिल रहा होता तो कहीं ना कहीं आपके शब्दों में निज़ाम चलानेवाले अर्थात् मंत्री, सांसद, विधायक, जिला पंचायत सदस्य मारे जा रहे होते । दरअसल माओवादी ग़रीब और आदिवासियों के अधिकार और न्याय के लिए लड़ते होते तो इस तरह निहत्थे आदिवासियों को जबरन माओवादी वेशभूषा पहनाकर गुरिल्ला ट्रेनिंग नहीं दे रहे होते, उन्हें संघम सदस्य बनाकर मुठभेड़ में उन्हें आगे रखकर इस तरह मरवा नहीं रहे होते । आपको क्या पता कि लूटने, माल असबाब लूटने, पुलिस और अर्धसैनिक बल से लड़ने के वक्त बंदूक की नोक पर ऐसे सीधे-सरल और शांतिप्रिय आदिवासी युवक और गाँववालों को आगे रखा जाता है और वह भी सिर्फ़ लाठी, टँगिया और भाला आदि पकड़वाकर ताकि यदि मारे जायें तो सिर्फ़ ये ही मारे जायें और नक्सली कमांडर सदैव बचे रहें ।

आपको यह तो पता है ही जिस लालगढ़ की आप बात कर रहे हैं वहाँ भी नागरिकों की आड़ में माओवादी हिंसा पर उतर आये थे और समानांतर व्यवस्था के लिए नापाक और नाकामयाब हरक़त कर रहे थे । शायद आपको यह भी नहीं पता कि वे ऐसे आदिवासी नागरिकों को सिर्फ़ इसलिए अपने गुरिल्ला युद्ध में आगे करके रखते हैं ताकि ये पुलिस की ग़ल्ती से मारे जायें तो वे बड़े आराम से बोटी फेंककर पाले गये अपने कुत्तों से भौकवा सकें कि ये लो, पुलिस मानवाधिकार का हनन कर रही है ।

तो मित्रवर, आप यह भी जानने की कोशिश करें कि वे ऐसा करके उस बल को ही हतोत्साहित करते होते हैं जो सुदूर और दुर्गम जंगलों में भी घुसकर हिंसक माओवादियों और नक्सलवादियों से आदिवासियों को बचा रहे होते हैं । और यदि आप माओ को ठीक से पढ़े हैं तो यह उनकी रणनीति का ही हिस्सा है कि विरोधियों के ख़िलाफ़ हर समय दुष्प्रचार होता रहे ताकि सामान्य जन के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता रहे ।

क्या आपके मन में यह प्रश्न नहीं उठता कि ये माओवादी क्योंकर चुनाव में भाग नहीं लेते ? उल्टा चुनाव का बहिष्कार करते हैं । चुनाव में व्होट देनेवाले आदिवासी मतदाता के ख़िलाफ़ फ़रमान जारी करते हैं कि ख़बरदार जो किसी ने मतदान किया तो, गला रेंत दी जायेगी और मुंडी पेड़ में टाँग दी जायेगी । इसे आप क्या तानाशाही नहीं कहेंगे ? इसे आप क्या नादिरशाही नहीं कहेंगे ? यदि चुनाव जीतकर सत्ता में आने वाले अत्याचार करते हैं तो ये जनता की कौन-सी भलाई कर रहे होते हैं ? जिसे अपने नेता को चुनने का ही अधिकार छीन लिया जाये वह क्या करेगा आख़िर ? यह माओवादियों की उस रणनीति का हिस्सा है जिसमें वे जनता को चुनाव से वंचित रखते हुए विकल्पहीन बनाते हैं और सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दबाब में पंगु, भयग्रस्त बनाकर रखते हैं । यदि ये जनता को चुनने का अधिकार देते और सचमुच उन्हें ही चुना जाता तो आप कह सकते हैं कि आदिवासी या जनता माओवादियों की लिए सहानुभूति या संवेदना रखते हैं। चलिए, एक ही उदाहरण आपके लिए ज़रूरी होगा । पिछले यानी 2008 में विधानसभा का चुनाव हुआ तो बस्तर में सारे के सारे यानी 11 सीटों पर वे ही जीते जिन पर बस्तर के आदिवासियों का विश्वास था । घोर नक्सल प्रभावित जिले बीजापुर में भी माओवादी समर्थक जीत नहीं सके । यहाँ तक कि सलवा जुडूम के प्रणेता और कांग्रेसी विधायक भी हार गये । जाहिर है जनता ने उनकी कुछ कमज़ोरी पकड़ ली थी । और तो और माओवादियों से हमदर्दी रखनेवाले पार्टी सीपीआई के नेता मनीष कुंजाम और उनकी पार्टी पर भी बस्तर के आदिवासियों ने कोई भरोसा नहीं किया । क्या यह माओवादियों को समझ में नहीं आता कि बस्तर की जनता किससे सहानुभूति रखती है ? यदि सलवा जुडूम आदिवासियों का आवाज़ और सलवा जुडूम बैस कैंप आश्रय-स्थल नहीं होता तो क्योंकर बस्तर के सारे आदिवासी मिलकर सलवा जुडूम को समर्थन देनेवाले सरकार के झोली में सारे व्होट डाल देते ? क्या इसका उत्तर आपके पास है ? कभी मिले तो ज़रूर बताइयेगा हमें भी ?

आपने अपने पत्र मे आगे यह भी लिखा है कि जहाँ (यानी पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में ) पूरी दुनिया ने देखा है- सरकारें चाहे जो कहती रहें कि हथियार कथित माओवादियों ने नहीं, बल्कि निरीह आदिवासियों ने उठाये हुए थे, भले उस सबका अंत उनके निर्मम और अप्रत्याशित पुलिस दमन में ही हुआ है। यह सब तब हो रहा है और लगातार हो रहा है, जब दुनिया भर के सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और प्रतिबद्ध राजनीतिग्य एक आवाज़ में यह माँग कर रहे हैं कि इन सभी समस्याओं को राजनीतिक समाधान की ज़रूरत है और यह किइस सन्दर्भ में राजनीतिक प्रक्रिया को अपनाने का कोई भी मानवीय विकल्प न है, न हो सकता है। इसके विपरीत, आप कहते हैं किपहले उन्हें "हथियार शासन को सौंपने होंगे, तभी कोई बातचीत संभव है।" सवाल है कि जब उनके पास ये हथियार नहीं थे, तब उनकी समस्याओं का कौन-सा राजनीतिक हल तलाशा गया और जहाँ-जहाँ इन हथियारों और हथियार उठानेवालों को आपके ही शब्दों में कहूँ, तो "खदेड़" दिया गया है ।

तो पंडितजी, जब आप हथियार उठाये रखियेगा तो बातचीत कैसे होगी ? आपका तर्क ही कमाल का है नक्सली बंदूक की नली के सहारे बातचीत करें और हमें यह छूट उन्हें देनी चाहिए ?

आपने श्री विश्वरजन को यह भी लिखा है कि आपके ( विश्वरंजन ) राज्य छत्तीसगढ़ में तो आलम यह है कि बक़ौल गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, "सरकार और माओवादियों की लड़ाई में आदिवासी मारे जा रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं । हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए, जिसकी पहल न राज्य कर रहा है, न माओवादी। " 'द पब्लिक एजेंडा' के कार्यालय संवाददाता ( दिल्ली ) अजय प्रकाश के अनुसार - "हिमांशु कुमार की यही साफ़गोई उनके लिए घातक साबित हुई है और दंतेवाड़ा प्रशासन ने 17 मई, 2009 को उनका आश्रम ढहा दिया . दंतेवाड़ा से लौटकर सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय बताते हैं, 'हिमांशु के बारे में पूरा क्षेत्र जानता है कि 'सलवा जुडूम' अभियान से विस्थापित और उजड़े आदिवासियों के पुनर्वास जैसा महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं। लेकिन सरकार हिमांशु को माओवादियों का शुभचिन्तक बताकर दंतेवाड़ा से खदेड़ने की फ़िराक़ में है। "

इस पर मैं यही कहना चाहूँगा कि मुझे किसी भी गांधीवादी पर कोई संदेह नहीं है फिर भी आप जिन्हें गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं उनसे यह तो पूछिए कि जिस बस्तर में माओवादियों द्वारा किसी भी प्रकार के सरकारी सेवकों के आवागमन सहित उनके सरकारी कार्यों पर रोक लगा दी गयी हो, सरकारी कामकाज पर ऐतराज हो, सरकारी कार्यों को ध्वस्त किया जा रहो हो और ऐसा करने पर सरकारी कारिंदों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है, वे कैसे और किस तरह जंगली इलाकों में अपने पैठ बना सके ? क्या सचमुच माओवादी ऐसे गांधीवादी एनजीओ के भक्त हो चुके हैं ? क्या सचमुच उन्हें अहिंसा पर विश्वास हो गया है ? यदि माओवादी या नक्सलवादी गांधीवाद पर विश्वास करते हैं तो फिर क्योंकर हथियार से सारी समस्याओं का हल ढूँढते हैं ? गांधी तो ऐसे हल पर विश्वास नहीं रखते थे । वे तो सिर्फ़ साध्य ही नहीं साधन की पवित्रता पर भी विश्वास रखते थे । रही बात श्री हिमांशु कुमार को खदेड़ने की तो यह कर्तव्य राजस्व विभाग वाले निभा रहे हैं क्योंकि उन्होंने सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमित किया था । मै समझता हूँ आप भी अपनी ज़मीन पर बेजाकब्ज़ा करनेवाले को प्यार नहीं करेंगे, उसके विरूद्ध कोर्ट जायेंगे या और कुछ करेंगे... बेजाकब्जा करना कौन-सा गांधीवाद है ? ज़रा कभी आप उनसे पूछें तो ।

मैं छत्तीसगढ़ में रहता हूँ । बस्तर मुख्यालय तक भी यदा-कदा आता जाता रहता हूँ । राज्य के लगभग अख़बार पढ़ता रहता हूँ । मुझे अब तक नहीं पता कि जिस हिमांशु कुमार का जिक्र कर रहे हैं उन्होंने कभी बस्तर के दंतेवाड़ा में रहकर कभी हिंसा का विरोध किया या माओवादियों को समझाया या फिर हिंसावादियों के ख़िलाफ़ गांधी की तरह आदिवासियों को लामबंद किया हो । कभी आपने सुना या कोई रिपोर्ट या समाचार कहीं छपा हो तो मुझे भी अवश्य भेजें ताकि मैं उन्हें आपकी तरह गांधीवादी कार्यकर्ता मान सकूँ । उनके दंतेवाड़ा में रहते दर्जनों- सैकड़ों आदिवासी माओवादी हिंसा के भेंट चढ़ चुके हैं। उन्होंने कब और किस अख़बार में माओवादियों या नक्सलवादियों की ऐसी जघन्य अपराध और हिंसात्मक गतिविधियों की निंदा की है ? ज़रा उन्हें पूछकर भी देखना चाहिए आपको और हमको भी ।

जैसा कि स्वयं हिमांशु कुमार स्वीकारते हैं कि सरकार और माओवादियों की लड़ाई में आदिवासी मारे जा रहे हैं और विस्थापित हो रहे हैं । हिंसा का रास्ता छोड़ बातचीत के ज़रिए ही कोई हल निकाला जाना चाहिए, जिसकी पहल न राज्य कर रहा है, न माओवादी।

तो आप एक सच तो जान ही गये होंगे कि माओवादियों को बातचीत के ज़रिए किसी भी प्रकार का हल निकालने की कोई ग़रज नहीं है । जहाँ तक सरकार का प्रश्न है वह उन माओवादियों से लड़ रही है जो हिंसक है, विकास विरोधी है, विकासरोधी है, विकास कार्य के विध्वंसक हैं और यह कोई भी सरकार करती है । यदि यह नेपाल जैसे माओवादियों के देश में भी होगा तो वे भी ऐसा ही करेंगे जैसा छत्तीसगढ़ की सरकार कर रही है । छत्तीसगढ़ की सरकार सिर्फ़ उन माओवादियों के लिए आँसू नहीं बहा सकती जो केवल हिंसा और विध्वंस पर विश्वास रखते हैं और किसी भी गणतांत्रिक प्रक्रिया का पूरजोर और हिंसात्मक विरोध करते हैं । आप यह कदापि न भूलें कि माओवादियों का एकमात्र लक्ष्य गणतंत्र को उखाड़ फेंकना है, इसके अलावा कुछ भी नहीं और छत्तीसगढ़ में (दिल्ली में भी) जनता द्वारा चुनी गयी गणतांत्रिक सरकारें हैं जो किसी भी क़ीमत पर गणतंत्र को नेस्तनाबूत करनेवाले संघ, समुदाय, संस्थान या संगठन का समर्थन नहीं कर सकती । पुलिस का काम गणतंत्र को सुचारू पूर्वक चलाने के लिए कानून और व्यवस्था को बनाये रखना है । दुर्भाग्य से माओवाद जैसे युद्ध से राज्य सरकारें ही जूझ रही हैं । क्या ऐसे में पुलिस को वे हाथ पर हाथ धरे रहने के लिए छोड़ दें ?

तथाकथित गांधीवादी हिमांशु कुमार और आपको भी शायद नहीं पता कि कब कब सरकार ने बातचीत का प्रस्ताव दिया है – हिंसक हो चुके माओवादियों को ? यह अख़बार या मीडिया में देने की बात नहीं है और माओवादी भी फ]र्जी प्रस्ताव देते हैं कि वे हिंसा का मार्ग भुलकर वास्तविक रूप से मुख्यधारा में जुड़ने के लिए बातचीत पर तैयार हैं । दरअसल वे ऐसा तब-तब करते हैं जब-जब उन्हें लगता है कि अब संभलने के लिए, अपने पलटन को सुरक्षित रखने या सही जगह तक पहुँचाने के लिए ऐसा ज़रूरी हो । यह उनकी रणनीतिक हिस्सा ही होता है ।

आपने यह भी रेखांकित किया है कि "खदेड़ना" छत्तीसगढ़ पुलिस-प्रशासन का तकियाकलाम बन गया है, उसकी केन्द्रीय रणनीति । हिटलर के 'फ़ाइनल सॉल्यूशन' की तरह । उसका कहना था कि 'जो लोग तुम्हें पसंद न हों, उन्हें ख़त्म कर दो ।' यहाँ यह कहा जा रहा है कि जो लोग तुम्हारे आड़े आते हों, उन्हें "खदेड़" दो ! हालत यह है कि अगर कोई गाँधीवादी भी आपसे असहमत है, तो आपके मुताबिक़ वह "माओवादी" है !

आप तो जान ही चुके हैं कि छत्तीसगढ़ पुलिस-प्रशासन माओवादी या हिंसावादियों को खदेड़ रही है । उसे हर उस हिंसावादियों को खदेड़ना होगा क्योंकि वह जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की अनुगामी है । वह हिंसक लोगों को अपने गोद में तो नहीं ना बैठा सकती है । डेमोक्रेसी में यह सब नहीं चलता । आप भी वह करते हैं जिसके लिए आपको जनता द्वारा चुनी हुई सरकार से तनख्वाह मिलती है । भाईजी, आपको जो पाठ्यक्रम दिया गया है आप वही पढ़ाते हैं अपने महाविद्यालय में। मुझे जैसा काम दिया है मेरे सरकारी विभाग ने, मैं वही काम करता हूँ। अब आप हम इस डेमोक्रेसी में वह तो नहीं कर सकते जिससे स्वयं डेमोक्रेसी ही उखड़ने लगे । यदि हम ऐसा करेंगे और तब हमें कोई खदेड़ेगा तो इसमें जनहित में कोई बुराई नहीं है । डेमोक्रेसी अधिकार है तो कर्तव्य भी है । यह हमें नहीं भूलना चाहिए ।
आपने सौ फ़ीसदी झूठ लिखा है कि छत्तीसगढ़ में जो सरकार के बताये रास्ते पर बिना कुछ सोचे-समझे नहीं चल रहा है; वह इन दिनों माओवादी या नक्सली के तौर पर 'ब्रांडेड' किये जाने, पुलिस उत्पीड़न झेलने, वहाँ से बेदख़ल किये जाने या "खदेड़" दिये जाने और सज़ा भुगतने को अभिशप्त है।

ऐसा मैं इसलिए आपको बता पा रहा हूँ क्योंकि यहाँ भी प्रजातंत्र है। यहाँ भी विपक्षी दल है । यहाँ भी मीडिया है । यहाँ भी लेखक और पत्रकार हैं । यहाँ भी जागरूक लोग हैं । यदि आपका आरोप सच होता तो उसे हम भी पढ़ते, देखते और समझते । आप हमें इतना मूर्ख और नादान तो ना समझें । कभी आपने विनोद कुमार शुक्ल से जानना चाहा कि क्या सचमुच ऐसा यहाँ हो रहा है । उनको तो आप जानते ही होंगे । पुलिस ने सिर्फ़ उन माओवादियों, नक्सलियों को पकड़ा है जो हिंसक, विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त पाये गये हैं । और ऐसा करना जनता के लिए, जनतंत्र में लाजिमी भी है । जो आदिवासियों को जो ज़बरदस्ती से माओवादी बनाना चाहे, मना करने पर उसकी हत्या कर दे उसे ऐसी कौन सी व्यवस्था होगी जो ब्रांडेड न करे । क्षमा करें, हत्यारों को फूल माला नहीं पहनाया जा सकता । उन्हें मंच पर बैठाकर उनकी विरुदावली नहीं गायी जा सकती । उनके लिए हथकड़ी और जेल ही ज़रूरी चीज़ है । केवल वे ही राज्य के नागरिक नहीं हैं, और भी सीधे-सादे लोग राज्य मे रहते हैं यह हमें कभी नहीं भूलना चाहिए ।

आप इसे ट्रेजेडी बताते हुए उदाहरण के रूप में डॉ. बिनायक सेन का नाम लेते हैं, जो एक डॉक्टर के नाते छत्तीसगढ़ की आम जनता, ख़ास तौर पर वहाँ के आदिवासियों की चिकित्सा-सेवा में संलग्न थे। लेकिन प्रशासन और पुलिस ने उन पर नक्सलियों और माओवादियों का साथ देने का इल्ज़ाम मढ़ते हुए उन्हें जेल पहुँचा दिया। क़रीब तीन साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें यह कहते हुए रिहा किया कि उनके खिलाफ़ कोई सुबूत नहीं पाये गये । मगर यह फ़ैसला आने तक एक निर्दोष और जन-सेवी डॉक्टर 3 साल जेल की सज़ा काट चुका था। इससे पुलिस-प्रशासन की अपरिमित दमनकारी ताक़त की कल्पना ही की जा सकती है ।

किसी व्यक्ति के चिकित्सक होने और उसके समाजसेवी होने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी न रहेगी । इस राज्य में ऐसे कई चिकित्सक हैं जो डॉ. विनायक सेन की तरह सामाजिक सेवा कर रहे हैं । आदिवासियों की चिकित्सा-सेवा में वे संलग्न वे अकेले नहीं हैं । कुछ तो डॉ. विनायक सेन से भी अधिक सामाजिक भाव से अपनी जगह बिना किसी प्रचार के लगे हुए हैं । जहाँ तक उन्हें प्रशासन और पुलिस द्वारा जेल पहुँचाने का प्रश्न है उन्हें (राज्य में प्रकाशित सभी प्रमुख समाचार पत्रों के अनुसार ) जेल में निरूद्ध नक्सली एवं जेल से बाहर भी नक्सलियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने में लिप्त पाया गया है ।

उपर्युक्तानुसार दिनांक 2 अगस्त, 2007 को सक्षम न्यायालय में प्रकरण (क्रमांक 1335/07) की चालान प्रस्तुत की गई है । वर्तमान में यह प्रकरण न्यायालय में प्रचलित है जिसमें गवाहों की पेशी लगातार ली जा रही है ।

यह आपको किसने बता दिया है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया है ? इतना तो झूठ मत फैलाइये उनके पक्ष में । उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ जमानत पर छोड़ा गया है । न तो उन पर चलनेवाले केश समाप्त किये गये हैं न ही उनके आरोपों को शिथिल किया गया है । न ही अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं है । कोर्ट का फ़ैसला आ जाने दीजिए, तब आप बड़ी दमदारी से कह सकते हैं कि लो, ये देखो, छत्तीसगढ़ पुलिस की करतूत..... मैं समझ नहीं पा रहा हूँ आप अभी से क्यों न्यायालय का काम भी अपने हाथों लेना चाह रहे हैं ?

आपने श्री विश्वरंजनजी को यह भी लिखा है कि - मुझे यह पता चला है कि आप कविता भी लिखते हैं । इसलिए मेरी यह जिज्ञासा है कि अपने इस क़िस्म के सरकारी काम और कवि-कर्म के बीच क्या आपको कोई यातनाप्रद द्वंद्व महसूस नहीं होता या कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई अंतर्विरोध या द्वंद्व हो ही नहीं ?

इस प्रश्न का जवाब तो वे ही दे सकते हैं किन्तु मैं जितना उनके बारे में जानता हूँ वही बता सकता हूँ और वह यह कि वे कविता लिखते हैं और बखूबी लिखते हैं । वे हमारी दृष्टि से हिन्दी के समकालीन कवियों में महत्वपूर्ण हैं । विश्वविख्यात शायर और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फ़िराक़ गोरखपुरी के नाती होने के नाते उतने ही देशप्रेमी और देशभक्ति से ओतप्रोत भी हैं । तीन-तीन चार-चार किताबें छप चुकी हैं उनकी । केदारनाथ सिंह जैसे बड़े कवि उन्हें चाहते हैं । खैर... उनके मन में भी माओवादियों और नक्सलवादियों के प्रति पूरी हमदर्दी है बशर्ते कि वे हिंसा त्यागें । प्रजातंत्र की व्यवस्था को स्वीकार करें । आदिवासियों को प्रताड़ित न करें ।

आपके ई-पत्र में उल्लेखित है कि श्री प्रमोद वर्मा, जिनके नाम पर यह आयोजन हो रहा है और पुरस्कार बाँटे जा रहे हैं - पहला सवाल तो यह है कि अगर वे कहीं हैं, तो उन्हें कैसा लग रहा होगा ? दूसरी बात यह कि उपर्युक्त सरकारी कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए ही क्या यह आयोजन नहीं किया जा रहा है ? कैसी विडम्बना है कि आपने इस संगोष्ठी में "आलोचना का प्रजातंत्र "शीर्षक एक पूरा सत्र ही रखा हुआ है; जबकि आपके निज़ाम में न आलोचना की कोई वास्तविक गुंजाइश है और न निरीह प्रजा की ही कोई सुनवाई ! यह भी कोई महज़ संयोग नहीं कि पुरस्कृत और उपकृत करने के लिए आपने आलोचकों को ही निशाना बनाया; जिससे 'आलोचना' का रहा-सहा साहस, संवेदनशीलता, मूल्यनिष्ठता, प्रश्नाकुलता और विवेक का भी अपहरण किया जा सके और उसे निष्प्रभ एवं निस्तेज बनाया जा सके !

छीः छीः । आपने यह कैसे सोच लिया कि प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान किसी डीजीपी का संस्थान है या राज्य शासन का संस्थान है। वह जनतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास रखनेवाले साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों का आत्मीय संगठन है जिसके वे अध्यक्ष हैं । अध्यक्ष इसलिए नहीं कि वे राज्य के डीजीपी हैं । अध्यक्ष इसलिए क्योंकि वे प्रमोद जी के परम साहित्यिक मित्र हैं और लगभग एक शिष्य भी । एक अच्छे विचारक, लेखक, फोटोग्राफर, चित्रकार और चिंतक भी हैं । उन्होंन कभी अतिवाद का समर्थन नहीं किया है । प्रमोद वर्मा ने भी कभी अतिवाद का समर्थन नहीं किया हालांकि वे घोर प्रगतिशीलता और जनवादिता के समर्थक रहे हैं ।

आप प्रमोद वर्मा के बारे में कितना जानते हैं, यह मैं नहीं जानता पर मैं उस प्रमोद वर्मा को जानता हूँ जो मुक्तिबोध, परसाई, श्रीकांत वर्मा प्रभृति बड़े रचनाकारों के आलोचक, कवि, नाटककार मित्र थे और हमारे शहर रायगढ़ के नामी शिक्षाविद् भी । उन्होंने कभी भी विचारों के किलेबंदी को नहीं स्वीकारा । मार्क्सवादी सौंदर्य दृष्टि रखते हुए भी वे विशुद्ध देशीयता को खारिज़ नहीं किया करते थे । वे ऐसे माओवादी और नक्सलवादी हिंसा के पूर्णतः विरोधी थे जो ग़लत साधन से सत्ता प्राप्ति का पक्षधर हो । प्रमोद जी को आप और आप जैसे आलोचक तो जाने कब के बिसार चुके थे । यह तो विश्वरंजनजी ही हैं जिनके बल पर उनकी स्मृति में दो दिवसीय आलोचना संगोष्ठी संभव हो सका ।

यह मूर्खतापूर्ण टिप्पणी और शंका है कि उनके द्वारा सरकारी कृत्यों को ढंकने के लिए यह (यानी 10-11 जुलाई, 2009 को संपन्न) आयोजन किया जा रहा था । आपने यह कैसे तय कर लिया कि देश का एक ईमानदार अधिकारी और प्रख्यात कवि का नाती ऐसा कर सकता है । ढोंग तो कोई माओवादी ही कर सकता है । कोई नक्सलवादी ही कर सकता है जो धनपिसासु और सुविधाभोगी को रुपया खिलाकर अपने पक्ष में और मानवाधिकार की आड़ में लेख लिखवा रहा है, समाचार छपवा रहा है ।

यदि आपकी कुंशका आधारहीन नहीं होती तो श्री अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले, शिवकुमार मिश्र, प्रभाकर श्रोत्रिय, ए. अरविंदाक्षन, नंदकिशोर आचार्य, एकान्त श्रीवास्तव, खगेन्द्र ठाकुर, रमेश दवे, कमला प्रसाद, डॉ. श्याम सुंदर दुबे, डॉ. श्रीराम परिहार, भगवान सिंह, कृष्णमोहन, देवेन्द्र दीपक, डॉ. रंजना अरगड़े, मुक्ता, अरुण शीतांश, ओम भारती, अशोक माहेश्वरी प्रभृति देश के विद्वान साहित्यकार और राज्य से विनोद कुमार शुक्ल, प्रभात त्रिपाठी, रमाकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, रवि श्रीवास्तव, कमलेश्वर, विनोद साव, शरद कोकास, डॉ. बलदेव, डॉ. बिहारीलाल साहू, नंदकिशोर तिवारी, श्यामलाल चतुर्वेदी, जया जादवानी, वंदना केंगरानी, जैसे लेखक, कवि और सारे राज्य से कई साहित्यकार नहीं आते । तो भाई ख़ामखां मतिभ्रम का शिकार मत होवें ।

अब आपको यह तो बताने या जताने की ज़रूरत तो नहीं पड़ेगी कि इनमें से कई तो प्रगतिशील है और कुछ जनवादी । फिर इन्हें या किसी को भी किसी भी सत्र में कुछ भी बोलने से रोका गया होता तो आपकी बात सही साबित होती और आप जैसे जागरूक आलोचक तक यह बात पहुँच भी गयी होती । यह विश्वरंजन नामक पुलिस महानिदेशक का विशुद्धतः निजी आयोजन होता तो उसकी कुशंसा सिर्फ़ आपको ही नहीं, इन सारे महत्वपूर्ण लेखकों को भी होती, जैसा कि भूले से भी नहीं हुई ।

आपको अब मै किन शब्दों में और कैसे क्या-क्या बताऊँ कि इन लोगों को पुलिस के डंडे के बल पर पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन ने नहीं बुलवाया गया था और न ही ये यहाँ उनसे क़दमताल मिलाने आ गये थे बल्कि संस्थान के अध्यक्ष विश्वरंजन ने आमंत्रित किया था । भगवान बचाये ऐसी धारणा से....
कहीं आप श्रीभगवान सिंह या श्री कृष्ण मोहन को सम्मान दिये जाने के विरोध में तो ऐसा नहीं कह रहे हैं । शायद नहीं ना, जिनका चयन आदरणीय केदारनाथ सिंह, डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, डॉ. धनंजय वर्मा ने किया था ( न कि विश्ररंजन ने सिर्फ़) ।

मुझे तो आपका पत्र पढ़कर यह भी शक़ होने लगा है कि कहीं आप बिलावजह तिल का ताड़ बनाने के आदि भी तो नहीं, और आपने रायपुर वाले आयोजन में नहीं आने का कोई फौरी बहाना गढ़ लिया हो । क्योंकि आप तो उन सारे राज्य में साहित्यिक सम्मेलनों में जाते हैं जिनकी सरकारें माओवादी हिंसा और नक्सलवाद का विरोध करती हैं और जहाँ बहुत सारे शासकीय अधिकारी ऐसे आयोजनों को अंजाम देते हैं । ख़ैर... मुझे आपके पत्र के बहाने कुछ सत्यों को बताने का मौक़ा मिला.. इसलिए मैं भी आपके ई-पत्र के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा ।

आपने हमारे संस्था के अध्यक्ष को प्रेषित अपने ई-पत्र को सार्वजनिक कर दिया है अतः मैं भी अपने इस ई-पत्र को सार्वजनिक करने बाध्य हूँ । पर इसके लिए आपसे क्षमा भी चाहता हूँ । देखें, कब मिलना होता है आपसे ?
आपका अपना
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी निदेशक
प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़

Wednesday, July 08, 2009

छत्तीसगढ़ में ब्लॉगरों की संगोष्ठी कल

कल 10 जुलाई को रायपुर में ब्लॉगर्स भी दो दिवसीय राष्ट्रीय आलोचना समारोह के बहाने शरीक हो रहे हैं । उनके बीच रहेंगे - देश और प्रदेश के नामी साहित्यकार ।

क्या आप भी पधार रहे हैं ?

विस्तृत जानकारी यहाँ देखें

Monday, July 06, 2009

“वग़ैरह” के भीतर और बाहर

प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष
हमारे बौद्धिक प्रवर कनक तिवारी जी का छत्तीसगढ़ में प्रकाशित लेख (29 जून, 2009) पढ़कर मुझे भी कुछ कहने का अवसर मिल रहा है । आपने प्रमोद वर्मा पर सोलह आने सच लिखा है कि हम सबने और सरकार ने भी उन्हें लगभग बिसार दिया था । उन पर आगामी 10-11 जून को होने वाला विशालकाय आयोजन विश्वरंजन के बग़ैर नहीं हो सकता आदि-आदि । उसके लिए आपको और विश्वरंजन दोनों को ही साधुवाद। आपको इसलिए क्योंकि आप बहुधा बड़ी ताक़त के गिरेबां में भी झाँकने का हौसला रखते हैं । इस लेख में आपने उन चरित्रों को धोया है जो साहित्य के अंतःपुर को संचालित करने का दंभ भरते हैं । विश्वरंजन को इसलिए कि वे सचमुच बिना लाभ-हानि के बड़ा काम करने का सपना देखते हैं । वह भी छत्तीसगढ़ का मूल निवासी हुए बिना । यह उनकी छत्तीसगढ़ के साहित्यिक बिरादरी के प्रति असीम स्नेह भी है । क्योंकि वे स्थानीयता को नहीं जीते, वे सदैव एक राष्ट्रीय मन से सोचते हैं । और यदि ऐसा वे सोचते हैं तो उसके पीछे उनके नाना फ़िराक़ और गुरुतुल्य प्रमोद जी का जीवन और पाठ भी होता है ।

मुझे विनम्र भाव से आज आपके “वग़ैरह” शब्द के बहाने कुछ कहना है। यह ‘वग़ैरह’ क्या बहुत ही सिमटा और सिकुड़ा हुआ नहीं है । इसे क्या विस्तारित करने की ज़रूरत नहीं है । प्रमोदजी सचमुच तेज़-तर्रार लेखक थे, इस हद तक कि लेखक होने के नाते अपने स्वाभाविक आकांक्षाओं और लाभों की परवाह भी नहीं किया करते थे। चिकनी चुपड़ी बातों से उन्हें साफ़ परहेज़ था । एक हद तक मुँहफट । शायद इसलिए भी कि वे उस सूची में स्वयं को समादृत होने का सपना नहीं पालते थे जो दो-चार बार देश की कथित बड़ी पत्रिकाओं में छप जाने के बाद स्वयं को बड़े लेखकों में शुमार किये जाने का मुगालता पाले रहते हैं । वे किसी लेखक के टूटपुँजिए आलोचकों के लेखे से सूचीबद्ध होने के सख़्त ख़िलाफ़ थे । वे स्वयं अत्यधिक आत्मसजग और आत्मसम्मानी थे किन्तु इस तरह नहीं कि लोग उनकी चर्चा संबंधित विधा, प्रवृत्ति, दृष्टि, भूगोल आदि के बहाने किया करें और वे अमरत्व प्राप्त कर लें । ऐसा अमूमन औसत दर्ज़े का लेखक सोचता है । यह दीग़र बात है कि नामों को शुमार करने-करानेवालों की मंडली साहित्य की दुनिया में सदैव उपस्थित रही है जो ‘तू मेरा पूँछ सँवार- मैं तेरा सँवारूँगा’ के एजेंडे पर काम करती हैं । ऐसी मंडली के लोग अन्य को ‘वग़ैरह’ के खाँचे में डालकर मुदित हुआ करते हैं। कि उन्होंने फलां को निपटा दिया । इस लेख में आपका आशय यह कदापि नहीं कि आप अपने पसंद के लेखकों के अलावा शेष को “वगैरह” की निकृष्ट कोटि में रखना चाहते हों । न ही आपका ऐसा स्वभाव रहा है । सच तो यह भी है कि लेख का मुद्दा छत्तीसगढ़ के साहित्येतिहास लेखन भी नहीं है । आप अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के बावजूद प्रमोदजी को लगातार याद कर रहे हैं यह प्रमोदजी की आत्मा के लिए भी बड़ी बात है । आप तो जानते हैं प्रमोद जी आत्मा और परमात्मा को भी मानते थे । वे वैसा मार्क्सवादी नहीं थे जो ईश्वर की मौत के बाद ही विचारों के गटर में पालथी मारके आसन जमाना चाहता है ।

चूँकि आपका लेख बहुत बड़ा है इसलिए उसमें ‘वग़ैरह’ के पहले और कुछ नामों को प्रवेश देने की गुंजाईश बनती थी । यह जो ‘वग़ैरह’ शब्द है अपनी बारी से पहले आ गया है । शायद अनाधिकृत चेष्टा करते हुए । कुछ शब्द होते ही हैं ऐसे जो बलात् प्रवेश कर जाते हैं हमारे जेहन में । ऐसे शब्द कईयों को चुभते हैं । मनुष्य जीवन-भर इस दर्द से उबर नहीं पाता । शायद प्रमोदजी को भी इसी तरह ‘वगैरह’ की परिधि में डाल दिया था कुछ हितनिष्ठों ने । आज भी उन्हें कुछ ऐसी नज़रों से देखते हैं । दूर क्यों जायें अपने छत्तीसगढ़ में ही । आप जब प्रसंगवश छत्तीसगढ़ के लेखक बिरादरी की चर्चा कर ही दिये हैं तो मैं इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उस ‘वगैरह’ शब्द को कुछ हद तक अनावृत करना चाहता हूँ जो मुझे नहीं पर उन लोगों को चुभ सकता है जो ‘वगैरह’ के भीतर नहीं बल्कि बड़े दमदारी से खड़े हैं । एकाध को उनकी ठोस शिनाख्तगी नहीं दिखाई देती तो उसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
तो कनक भैया, ‘वगैरह’ शब्द को साफ़ तौर पर खोलने की गुंजाइस 100 प्रतिशत हैं । हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है किन्तु इस ‘वगैरह’ में वे भी हैं जिन्हें शायद हमें पढ़ना चाहिए । यह बिलकुल अलग बात है कि आप-हम सबको नहीं पढ़ सकते । और हम अकसर स्वरूचि व्यंजन की तरह लेखकों को बड़ा या छोटा साबित करते रहते हैं । मैं यहाँ आपको खंडित करना नहीं चाह रहा । ऐसा मेरा किसी भी कोण से लक्ष्य नहीं है किन्तु कनकजी कदाचित् हम लेखकों के इतिहास लेखन की यही प्रवृत्ति अन्य माहिर-जाहिर लेखकों के मन में चूभती भी है । कहें कैसे ? छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो और भी ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें साहित्य के पवित्र मनवाले पाठकों को जानना चाहिए – जैसे डॉ. शोभाकांत झा, बख्शीजी के बाद ललित निबंध को संभाले हुए हैं। छः उत्कृष्ट किताबें दे चुके हैं हिन्दी के ललित संसार को । जैसे डॉ. बलदेव, ये न होते तो शायद मुकुटधर पांडेय का वैसा मूल्यांकन नहीं हुआ होता, जैसा कि हो सका । जैसे जगदलपुर के लाला जगदलपुरी बिलासपुर के पालेश्वर शर्मा और नंदकिशोर तिवारी। क्या उनके लोक-लेखन को एकबारगी बिसारा जा सकता है । जैसे हरि ठाकुर, नारायण लाल परमार, आनंदी सहाय शुक्ल, नरेन्द्र श्रीवास्तव, शंकर सक्सेना, डॉ. चित्तरंजन कर, डॉ. अजय पाठक गीत के लघु हस्ताक्षर तो हैं नहीं जिन्हें हिन्दीवालों को पढ़ना ही नहीं चाहिए । इन्होंने हिन्दी गीतों की युगीन प्रवृत्तियों को लाँघने की चेष्टा की है । शंकर सक्सेना तो नवगीत दशक के विश्वसनीय सर्जकों में आदरणीय हैं । बस्तीवासी अष्टभुजा शुक्ल के जिन पदों को हम कविता का नया शिल्प मान रहे हैं वैसा तो जाने कबसे आनंदीजी लिख गये हैं। मुस्तफ़ा, काविश हैदरी, मुमताज़, रज़ा हैदरी, नीलू मेघ, अब्दूल सलाम कौसर की ग़ज़लों के बारे में आप क्या कहेंगे? एकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, वंदना केंगरानी, वसंत त्रिपाठी, कमलेश्वर, विजय सिंह, रजत कृष्ण, मांझी अनंत, हरकिशोर दास, संजीव बख्शी, रमेश अनुपम, देवांशु पाल, बी.एल.पाल की कविता-कर्म को ‘वगैरह’ में नहीं रखा जाना चाहिए । जो गुरुदेव काश्यप चौबे की कविता के बारे में नहीं जानता वह छत्तीसगढ़ की कविता के बारे में आखिर कितना जानता है या जानना चाहता है । विभू खरे, देवेश दत्त मिश्र, अख्तर अली के नाटकों को कैसे भूला दिया जा सकता है ?

स्नेहलता मोहनीश, आनंद बहादुर सिंह, विनोद मिश्र, एस. अहमद भी टक्कर के कथाकार हैं यह कौन बतायेगा ? राम पटवा, हेमंत चावड़ा, सरोज मिश्र, डॉ. महेन्द्र ठाकुर, डॉ. राजेन्द्र सोनी की लघुकथाओं को शायद बड़े लोग नहीं पढ़ते । अजी, राम पटवा वही जिसकी लघुकथायें विष्णु प्रभाकर जैसे वंदनीय रचनाकार को जीवन के अंतिम क्षणों में आत्मकथा लिखते समय भी याद आती रहीं । महेन्द्र, राजेन्द्र और सरोज का मतलब कम लोग जानना चाहते हैं कि ये लघुकथा को हिन्दी में स्थापित करनेवाले कद्दावर रचनाकार हैं । विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुव पांडेय, गिरीश पंकज के व्यंग्य के बग़ैर परसाई, जोशी श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य-परंपरा आगे नहीं बढ़ती । यह भी हम नहीं जानते तो हमारा छत्तीसगढ़ के साहित्य के बारे में जानना अल्प जानना होगा ।
केवल कथा और कविता ही साहित्य की विधा और उसके रचनाकार ही रचनाकार नहीं कहलाते । सुधीर भाई केवल प्रकाशक का व्यवसायी दिल रखते तो यूँ ही देखते-देखते 300 किताबें नहीं छप जातीं । प्रभात त्रिपाठी बिलकुल ठीक ही कहते हैं – राष्ट्रीय स्तर-वस्तर कुछ नहीं होता । ख़ासकर तब जब आप ऐसी पत्रिकाओं में छपकर स्वयं को राष्ट्रीय हुआ देखने लगते हैं जो किसी किसी वाद, गुट, विचार और निजी कुंठाओं से परिचालित होती है । दिल्ली, मुंबई से छप जाना और वहीं के किसी कथित आलोचकों की याद में आ जाने से कोई बड़ा नहीं हो जाता, न मैं न तुम न और कोई । वह भी ऐसे दौर में जब साहित्य को चलानेवाले लोग बाज़ारवादी मन-बुद्धि से सोचते हों । छत्तीसगढ़ के कितने ऐसे लेखक हैं जिन्हें उनका पड़ोसी उन्हें एक लेखक के रूप में भी जानता है । अब तुम ही देखो – तुमने विश्वरंजन के पत्र को छत्तीसगढ़ के 500 लोगों तक पहुँचाया और उसमें से कितने लोगों ने प्रमोद जी पर आलेख दिये? कितनों ने उनके पत्र की फोटो काफी उपलब्ध कराया? कितने लोगों ने मूर्ख की तरह यह नहीं कहा कि ये प्रमोद वर्मा थे कौन ? तुम तो जान चुके हो कि जिसे तुमने बड़ा लेखक मानने का भ्रम पाले हुए थे उसी ने तुम्हें कह दिया कि वह प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में श्रोत्रा की हैसियत से आयेगा किन्तु प्रमोदजी पर साधिकार बोलने की दक्षता-संपन्न होने के बाद भी नहीं बोलेगा । क्यों नहीं बोलेगा भई ? उसकी मर्जी। मानस, तुम यह भी जानते हो कि जो ‘वगैरह’ होते हैं वे ही ऐसे बड़े आयोजनों को अमली जामा पहनाने में सबसे पहले आते हैं । तो केवल सूचीबद्ध बड़े साहित्यकारों को बड़े साहित्यकार कभी मत मानो। इसकी याद कराने की शायद ज़रूरत नही कि नाम बड़े और दर्शन छोटे । यह दीगर बात है कि वे “बड़े” साहित्यकार भी हो सकते हैं । सबको साथ लेकर चल सकते हैं। प्रमोद जी के साथ यही हुआ, उनके जाने के बार उन्हें बड़े साहित्यकारों ने इसलिए बिसार दिया क्योंकि उन्हें याद करने पर कोई रिटर्न नहीं आनेवाला । यानी हानि का व्यापार । तुम तो उनके शुक्रगुज़ार बनो जिन्होंने पहले ही पत्र पर प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शरीक होने की उत्साहवर्धक सहमति दे दी और जो प्रमोद जी के लिए सारा-धंधा पानी छोड़कर चले आ रहे हैं ।

प्रमोद वर्मा, विश्वरंजन और कुछ लोग

प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष

‘कुछ लोग’ प्रमोद वर्मा को नहीं जानते । ‘कुछ लोग’ यह भी नहीं जानते कि हर कोई प्रमोद वर्मा को नहीं जान सकता । वैसे ‘कुछ लोग’ स्वयं के बारे में भी नहीं जान पाते । बात ऐसे ‘कुछ लोगों’ की नहीं हो रही है । बात उनकी होनी चाहिए जो लोग प्रमोद वर्मा को कुछ-कुछ जानते हैं, उनके कुछ अनजाने को भी स्वयं और समूची दुनिया के लिए जानना ज़रूरी समझते हैं। विश्वरंजन उन कुछ लोगों में अव्वल हैं जो प्रमोदजी को जानने-समझने और समझाने के लिए मूर्खतापूर्ण आरोपों, कुढ़ों, फब्तियों की संभावना का आंकलन किये ब़गैर कठिन धर्मनिर्वहन में लगे हैं । निहायत संवेदनशील जो ठहरे ।

कठिन इसलिए कि कुछ लोगों के मुताबिक उन्हें सिर्फ़ पुलिस महानिदेशक होना चाहिए । आत्मावान् मनुष्य नहीं । विचारवान् नहीं । उन्हें संस्कृति-वंस्कृति से कोई लेना-देना नहीं चाहिए। मैं उनसे पूछता हूँ – हुजूर, मुझे क्यों धंसा दिया आपने समारोह के संयोजन में? जब आप जैसे बड़े आदमी को राज्य के पालनहार और जिम्मेदार क़िस्म के ‘कुछ लोग’ यहाँ तक कह देते हैं कि विश्वरंजन प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष नहीं बन सकते तो वे हमारे जैसे कीडे-मकोड़े (सामान्य आदमी)को किस तरह निपटाने की सोच रहे होंगे ? जैसे प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान उनकी अपनी सरकारी बपौती है जहाँ वे जिसे चाहे उसे बैठायें । प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान कोई राजनीतिक पद तो है नहीं कि उस पर शीर्षस्थ राजनेता के पिछलग्गू को ही बिठाया जाय । उन्हें कौन समझाये कि यह देश और राज्य के साहित्यकारों की साहित्यिक संस्था है जिसमें विश्वरंजन अपने सभी सदस्यों के आग्रह पर वह गैरराजनीतिक, गैरलाभकारी पद का गुरुत्तर भार स्वीकार किये हैं । शायद इसलिए कि वे प्रमोदजी को गुरुतुल्य मानते रहे हैं । शायद इसलिए कि उनमें फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर और स्वतंत्रताकामी सपूत का ख़ून भी दौड़ता है । शायद इसलिए भी कि वे राज्य को विचारवान, गुणवान और सुसंस्कृत बनाने का सपना भी देखते हैं । शायद इसलिए कि वे और अफसरों की तरह सिर्फ अपनी हेकड़ी में मरना नहीं चाहते । यह बिलकुल दीगर बात है कि ऐसे ‘कुछ लोग’ अक्सर किसी कुंठा का शिकार होकर उलजूलूल बकते रहते हैं और राजनीति में यह सब चलता भी रहता है ।

वैसे ऐसे ‘कुछ लोगों’ को अपने ही राज्य के नियम-क़ायदों का ज्ञान नहीं होता कि उनका कोई भी अधिकारी कला, साहित्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास से संबंधित वह सभी कार्य कर सकता है जो राज्य की संप्रभुता को चुनौती न देता हो । ‘कुछ लोग’ यहाँ तक कहते पाये जा सकते हैं कि आप अपनी ज़मीर को छोड़कर आयोजन के बहाने रुपया बटोर रहे हैं और कुछ हिस्सा मुझे भी दे रहे हैं । भई क्या बात है, जैसे जीवन-भर पुलिस विभाग में रहते हुए विश्वरंजन को कुछ नहीं मिला....तो चले साहित्य के बहाने पैसा कमाने । जैसे विश्वरंजन किसी भूखमर्रे किसिम के मेट्रिक पास नेता है जो बड़ा से बड़ा राजनीतिक पद पाजाने के बाद भी चंदा दलाली से ज्यादा नहीं सोच सकता । तौबा-तौबा। कुछ तो लिहाज़ करो फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर और संग्राम सेनानी के संस्कारवान नाती पर.....

विश्वरंजन कुछ नहीं कहते, सिर्फ मुस्काते देते हैं- जैसे उनकी मुस्कान में ये सारे भाव-उत्तर छुपे हुए हों कि मानस, ऐसे ‘कुछ लोग’ जो कम पढ़ लिखे होते हैं, जीवन-भर यही काम करते रहते हैं । और ऐसे लोग सिर्फ राजनीति में नहीं साहित्य में भी होते हैं । तुम और हम और बहुत सारे लोग भी ऐसे ‘कुछ लोगों’ जैसे नहीं होते । शायद इसलिए प्रमोदजी जैसे विभूतियों पर कुछ होने की पहल हो पाती है ।

प्रमोदजी ऐसे ‘कुछ लोग’ की चिंता नहीं किया करते थे । वे जानते थे कि समाज में ‘कुछ लोग’ ऐसे होते ही हैं जो वे कुछ करें तो ठीक । दूसरा कुछ करे तो गलत । ऐसे लोग जीवन भर विघ्नसंतोषी बने रहते हैं । दरअसल ऐसे लोग ऐसे मौकों पर अपनी विशेषज्ञता प्रतिपादित करने के लिए जुमले उछालते हैं । ताकि आप उन्हें मनायें तुलसीदास की पंक्ति को याद करते हुए – प्रथमहू बंदऊँ खल के चरना । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो बड़े बड़े लेख लिख सकते हैं परन्तु दिये गये विषय पर लिखने में उन्हें नानी याद आ जाती है । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जिन्हें लगता है कि वे प्रमोदजी जैसे छोटे साहित्यकार पर लिखकर अपने बडप्पन को छोटा करने का ख़तरा नहीं उठा सकते । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो आपके हर कामों में मीन-मेख निकालकर ऐसे आयोजनों में आपकी अस्थिपंजर एक कर देते हैं । कुछ नहीं मिला तो प्रूफ की ओर इशारा करके आपके निष्कलुष श्रम पर ऊँगलियाँ उठा देते हैं । ‘कुछ लोग’ ऐसे भी होते हैं जो भीतर से तो ऐसे पवित्र आयोजनों से जुड़े होते हैं किन्तु आपको पता ही नहीं लगता कि वे अपना मूल्य कब और कैसे आपसे वसूल लेते हैं ।

साहित्यवाले भी समाज से आते हैं । जैसा समाज वैसे ही उसके साहित्यकार । किस-किस पर रोयें ? किस किसकी कितनी परवाह करें । परवाह करेंगे तो राज्यहित में ऐसे काम नहीं कर सकते । चलिए... चलते-चलते भैया परदेशीराम वर्मा जी के उस आलेख की भी चर्चा कर लेते हैं जिसका देह संपूर्ण पवित्र है किन्तु उसमें धड़ लगा है वह निहायत अपवित्र है यानी उनके शब्दों में जी हाँ, वे प्रमोद वर्मा को नहीं जानते । केवल उनकी पूजा करते हैं । भई बिना जाने कोई किसी की पूजा भला क्योंकर करेंगा ? लेख में मेरा जिक्र करके उन्होंने कुछ पर्दादारी कर दी है । उसका रहस्य खोल देते हैं । हाँ, मुझे उन्होंने कहा था कि वे प्रमोद वर्मा को नहीं जानते पर उन पर केंद्रित इस आयोजन में ज़रूर आयेंगे । तब मैंने यह भी कहा था कि आप आ रहे हैं यही प्रमोद जी को जानना है । मैंने यह भी कहा था कि कुछ लोग आपको और कुछ लोग मुझे भी नहीं जानते जिसके लिए हम जिंदगी भर लगे रहते हैं कि लोग हमें जाने । उस समय संस्थान के अध्यक्ष भी विश्वरंजनजी भी साथ थे । बात तो हुई छत्तीसगढ़ी में पर विश्वरंजन जी सब समझ रहे थे । उन्होंने सहर्ष आयोजन में पधारने की स्वीकृति भी दी थी कि वे ज़रूर प्रमोदजी पर बोलेंगे । इसके पहले भी सुधीर शर्मा ने बताया था कि इस आयोजन को लेकर परदेशीराम वर्मा का कहना है कि उन्हें सिर्फ संवाद में रखा गया है जबकि उन्हें अच्छे आसंदी में रखे जाने की उम्मीद थी । मैंने मित्रों की चर्चा में बिना किसी पाप के अशोक सिंघई जी को कह दिया जो संस्थान के उपाध्यक्ष हैं कि वे उन्हें मनालें । तो उन्होंने उसी तरह परदेशीजी को हड़का दिया जैसे एक मित्र को दूसरा मित्र हड़का देता है और दोनों एक दूसरे को ऐसे तो कई बार हड़का चुके होंगे । इसके कुछ ही दिन बात मुझे परदेशीजी का पत्र मिल गया कि उन दिनों जब प्रमोद जी पर केंद्रित आयोजन हो रहा होगा वे अन्यत्र व्यस्त रहेंगे अतः अपनी शुभकामनायें ही भेज सकते हैं । अब मैं तय ही नहीं कर पा रहा हूँ कि ऐसी शुभकामनाओं का क्या उपयोग किया जाये ? आपमें से किसी को इसका दिव्यज्ञान तो कृपया मुझे अवश्य सूचित करें ।