Monday, July 06, 2009

“वग़ैरह” के भीतर और बाहर

प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह पर विशेष
हमारे बौद्धिक प्रवर कनक तिवारी जी का छत्तीसगढ़ में प्रकाशित लेख (29 जून, 2009) पढ़कर मुझे भी कुछ कहने का अवसर मिल रहा है । आपने प्रमोद वर्मा पर सोलह आने सच लिखा है कि हम सबने और सरकार ने भी उन्हें लगभग बिसार दिया था । उन पर आगामी 10-11 जून को होने वाला विशालकाय आयोजन विश्वरंजन के बग़ैर नहीं हो सकता आदि-आदि । उसके लिए आपको और विश्वरंजन दोनों को ही साधुवाद। आपको इसलिए क्योंकि आप बहुधा बड़ी ताक़त के गिरेबां में भी झाँकने का हौसला रखते हैं । इस लेख में आपने उन चरित्रों को धोया है जो साहित्य के अंतःपुर को संचालित करने का दंभ भरते हैं । विश्वरंजन को इसलिए कि वे सचमुच बिना लाभ-हानि के बड़ा काम करने का सपना देखते हैं । वह भी छत्तीसगढ़ का मूल निवासी हुए बिना । यह उनकी छत्तीसगढ़ के साहित्यिक बिरादरी के प्रति असीम स्नेह भी है । क्योंकि वे स्थानीयता को नहीं जीते, वे सदैव एक राष्ट्रीय मन से सोचते हैं । और यदि ऐसा वे सोचते हैं तो उसके पीछे उनके नाना फ़िराक़ और गुरुतुल्य प्रमोद जी का जीवन और पाठ भी होता है ।

मुझे विनम्र भाव से आज आपके “वग़ैरह” शब्द के बहाने कुछ कहना है। यह ‘वग़ैरह’ क्या बहुत ही सिमटा और सिकुड़ा हुआ नहीं है । इसे क्या विस्तारित करने की ज़रूरत नहीं है । प्रमोदजी सचमुच तेज़-तर्रार लेखक थे, इस हद तक कि लेखक होने के नाते अपने स्वाभाविक आकांक्षाओं और लाभों की परवाह भी नहीं किया करते थे। चिकनी चुपड़ी बातों से उन्हें साफ़ परहेज़ था । एक हद तक मुँहफट । शायद इसलिए भी कि वे उस सूची में स्वयं को समादृत होने का सपना नहीं पालते थे जो दो-चार बार देश की कथित बड़ी पत्रिकाओं में छप जाने के बाद स्वयं को बड़े लेखकों में शुमार किये जाने का मुगालता पाले रहते हैं । वे किसी लेखक के टूटपुँजिए आलोचकों के लेखे से सूचीबद्ध होने के सख़्त ख़िलाफ़ थे । वे स्वयं अत्यधिक आत्मसजग और आत्मसम्मानी थे किन्तु इस तरह नहीं कि लोग उनकी चर्चा संबंधित विधा, प्रवृत्ति, दृष्टि, भूगोल आदि के बहाने किया करें और वे अमरत्व प्राप्त कर लें । ऐसा अमूमन औसत दर्ज़े का लेखक सोचता है । यह दीग़र बात है कि नामों को शुमार करने-करानेवालों की मंडली साहित्य की दुनिया में सदैव उपस्थित रही है जो ‘तू मेरा पूँछ सँवार- मैं तेरा सँवारूँगा’ के एजेंडे पर काम करती हैं । ऐसी मंडली के लोग अन्य को ‘वग़ैरह’ के खाँचे में डालकर मुदित हुआ करते हैं। कि उन्होंने फलां को निपटा दिया । इस लेख में आपका आशय यह कदापि नहीं कि आप अपने पसंद के लेखकों के अलावा शेष को “वगैरह” की निकृष्ट कोटि में रखना चाहते हों । न ही आपका ऐसा स्वभाव रहा है । सच तो यह भी है कि लेख का मुद्दा छत्तीसगढ़ के साहित्येतिहास लेखन भी नहीं है । आप अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के बावजूद प्रमोदजी को लगातार याद कर रहे हैं यह प्रमोदजी की आत्मा के लिए भी बड़ी बात है । आप तो जानते हैं प्रमोद जी आत्मा और परमात्मा को भी मानते थे । वे वैसा मार्क्सवादी नहीं थे जो ईश्वर की मौत के बाद ही विचारों के गटर में पालथी मारके आसन जमाना चाहता है ।

चूँकि आपका लेख बहुत बड़ा है इसलिए उसमें ‘वग़ैरह’ के पहले और कुछ नामों को प्रवेश देने की गुंजाईश बनती थी । यह जो ‘वग़ैरह’ शब्द है अपनी बारी से पहले आ गया है । शायद अनाधिकृत चेष्टा करते हुए । कुछ शब्द होते ही हैं ऐसे जो बलात् प्रवेश कर जाते हैं हमारे जेहन में । ऐसे शब्द कईयों को चुभते हैं । मनुष्य जीवन-भर इस दर्द से उबर नहीं पाता । शायद प्रमोदजी को भी इसी तरह ‘वगैरह’ की परिधि में डाल दिया था कुछ हितनिष्ठों ने । आज भी उन्हें कुछ ऐसी नज़रों से देखते हैं । दूर क्यों जायें अपने छत्तीसगढ़ में ही । आप जब प्रसंगवश छत्तीसगढ़ के लेखक बिरादरी की चर्चा कर ही दिये हैं तो मैं इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उस ‘वगैरह’ शब्द को कुछ हद तक अनावृत करना चाहता हूँ जो मुझे नहीं पर उन लोगों को चुभ सकता है जो ‘वगैरह’ के भीतर नहीं बल्कि बड़े दमदारी से खड़े हैं । एकाध को उनकी ठोस शिनाख्तगी नहीं दिखाई देती तो उसके कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
तो कनक भैया, ‘वगैरह’ शब्द को साफ़ तौर पर खोलने की गुंजाइस 100 प्रतिशत हैं । हालाँकि यह ज़रूरी नहीं है किन्तु इस ‘वगैरह’ में वे भी हैं जिन्हें शायद हमें पढ़ना चाहिए । यह बिलकुल अलग बात है कि आप-हम सबको नहीं पढ़ सकते । और हम अकसर स्वरूचि व्यंजन की तरह लेखकों को बड़ा या छोटा साबित करते रहते हैं । मैं यहाँ आपको खंडित करना नहीं चाह रहा । ऐसा मेरा किसी भी कोण से लक्ष्य नहीं है किन्तु कनकजी कदाचित् हम लेखकों के इतिहास लेखन की यही प्रवृत्ति अन्य माहिर-जाहिर लेखकों के मन में चूभती भी है । कहें कैसे ? छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो और भी ऐसे रचनाकार हैं जिन्हें साहित्य के पवित्र मनवाले पाठकों को जानना चाहिए – जैसे डॉ. शोभाकांत झा, बख्शीजी के बाद ललित निबंध को संभाले हुए हैं। छः उत्कृष्ट किताबें दे चुके हैं हिन्दी के ललित संसार को । जैसे डॉ. बलदेव, ये न होते तो शायद मुकुटधर पांडेय का वैसा मूल्यांकन नहीं हुआ होता, जैसा कि हो सका । जैसे जगदलपुर के लाला जगदलपुरी बिलासपुर के पालेश्वर शर्मा और नंदकिशोर तिवारी। क्या उनके लोक-लेखन को एकबारगी बिसारा जा सकता है । जैसे हरि ठाकुर, नारायण लाल परमार, आनंदी सहाय शुक्ल, नरेन्द्र श्रीवास्तव, शंकर सक्सेना, डॉ. चित्तरंजन कर, डॉ. अजय पाठक गीत के लघु हस्ताक्षर तो हैं नहीं जिन्हें हिन्दीवालों को पढ़ना ही नहीं चाहिए । इन्होंने हिन्दी गीतों की युगीन प्रवृत्तियों को लाँघने की चेष्टा की है । शंकर सक्सेना तो नवगीत दशक के विश्वसनीय सर्जकों में आदरणीय हैं । बस्तीवासी अष्टभुजा शुक्ल के जिन पदों को हम कविता का नया शिल्प मान रहे हैं वैसा तो जाने कबसे आनंदीजी लिख गये हैं। मुस्तफ़ा, काविश हैदरी, मुमताज़, रज़ा हैदरी, नीलू मेघ, अब्दूल सलाम कौसर की ग़ज़लों के बारे में आप क्या कहेंगे? एकांत श्रीवास्तव, अशोक सिंघई, वंदना केंगरानी, वसंत त्रिपाठी, कमलेश्वर, विजय सिंह, रजत कृष्ण, मांझी अनंत, हरकिशोर दास, संजीव बख्शी, रमेश अनुपम, देवांशु पाल, बी.एल.पाल की कविता-कर्म को ‘वगैरह’ में नहीं रखा जाना चाहिए । जो गुरुदेव काश्यप चौबे की कविता के बारे में नहीं जानता वह छत्तीसगढ़ की कविता के बारे में आखिर कितना जानता है या जानना चाहता है । विभू खरे, देवेश दत्त मिश्र, अख्तर अली के नाटकों को कैसे भूला दिया जा सकता है ?

स्नेहलता मोहनीश, आनंद बहादुर सिंह, विनोद मिश्र, एस. अहमद भी टक्कर के कथाकार हैं यह कौन बतायेगा ? राम पटवा, हेमंत चावड़ा, सरोज मिश्र, डॉ. महेन्द्र ठाकुर, डॉ. राजेन्द्र सोनी की लघुकथाओं को शायद बड़े लोग नहीं पढ़ते । अजी, राम पटवा वही जिसकी लघुकथायें विष्णु प्रभाकर जैसे वंदनीय रचनाकार को जीवन के अंतिम क्षणों में आत्मकथा लिखते समय भी याद आती रहीं । महेन्द्र, राजेन्द्र और सरोज का मतलब कम लोग जानना चाहते हैं कि ये लघुकथा को हिन्दी में स्थापित करनेवाले कद्दावर रचनाकार हैं । विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुव पांडेय, गिरीश पंकज के व्यंग्य के बग़ैर परसाई, जोशी श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य-परंपरा आगे नहीं बढ़ती । यह भी हम नहीं जानते तो हमारा छत्तीसगढ़ के साहित्य के बारे में जानना अल्प जानना होगा ।
केवल कथा और कविता ही साहित्य की विधा और उसके रचनाकार ही रचनाकार नहीं कहलाते । सुधीर भाई केवल प्रकाशक का व्यवसायी दिल रखते तो यूँ ही देखते-देखते 300 किताबें नहीं छप जातीं । प्रभात त्रिपाठी बिलकुल ठीक ही कहते हैं – राष्ट्रीय स्तर-वस्तर कुछ नहीं होता । ख़ासकर तब जब आप ऐसी पत्रिकाओं में छपकर स्वयं को राष्ट्रीय हुआ देखने लगते हैं जो किसी किसी वाद, गुट, विचार और निजी कुंठाओं से परिचालित होती है । दिल्ली, मुंबई से छप जाना और वहीं के किसी कथित आलोचकों की याद में आ जाने से कोई बड़ा नहीं हो जाता, न मैं न तुम न और कोई । वह भी ऐसे दौर में जब साहित्य को चलानेवाले लोग बाज़ारवादी मन-बुद्धि से सोचते हों । छत्तीसगढ़ के कितने ऐसे लेखक हैं जिन्हें उनका पड़ोसी उन्हें एक लेखक के रूप में भी जानता है । अब तुम ही देखो – तुमने विश्वरंजन के पत्र को छत्तीसगढ़ के 500 लोगों तक पहुँचाया और उसमें से कितने लोगों ने प्रमोद जी पर आलेख दिये? कितनों ने उनके पत्र की फोटो काफी उपलब्ध कराया? कितने लोगों ने मूर्ख की तरह यह नहीं कहा कि ये प्रमोद वर्मा थे कौन ? तुम तो जान चुके हो कि जिसे तुमने बड़ा लेखक मानने का भ्रम पाले हुए थे उसी ने तुम्हें कह दिया कि वह प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में श्रोत्रा की हैसियत से आयेगा किन्तु प्रमोदजी पर साधिकार बोलने की दक्षता-संपन्न होने के बाद भी नहीं बोलेगा । क्यों नहीं बोलेगा भई ? उसकी मर्जी। मानस, तुम यह भी जानते हो कि जो ‘वगैरह’ होते हैं वे ही ऐसे बड़े आयोजनों को अमली जामा पहनाने में सबसे पहले आते हैं । तो केवल सूचीबद्ध बड़े साहित्यकारों को बड़े साहित्यकार कभी मत मानो। इसकी याद कराने की शायद ज़रूरत नही कि नाम बड़े और दर्शन छोटे । यह दीगर बात है कि वे “बड़े” साहित्यकार भी हो सकते हैं । सबको साथ लेकर चल सकते हैं। प्रमोद जी के साथ यही हुआ, उनके जाने के बार उन्हें बड़े साहित्यकारों ने इसलिए बिसार दिया क्योंकि उन्हें याद करने पर कोई रिटर्न नहीं आनेवाला । यानी हानि का व्यापार । तुम तो उनके शुक्रगुज़ार बनो जिन्होंने पहले ही पत्र पर प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में शरीक होने की उत्साहवर्धक सहमति दे दी और जो प्रमोद जी के लिए सारा-धंधा पानी छोड़कर चले आ रहे हैं ।

1 comment:

Swarna Jyothi said...

मानस जी प्रणाम
आप के ब्लॉग को देखा, पढा और समझने की कोशिश की थोडा बहुत समझा भी परन्तु मैं समझती हूँ कि मुझ में इतनी अर्हता नहीं है कि आप के इस उत्त्कृष्ट लेखन पर कोई टिप्पणी कर सकूँ। आप ने अनेकानेक सामग्रियों से इसे सुसज्जित किया है। बस एक बात कहनी है

जिन्दगी में जीना नहीं जीने का अंदाज जरूरी है
सीने में होचाहे बहुत दर्द चेहरे पर मुस्कान जरूरी है

आप का अंदाज आप के लेखन में स्पष्ट दिखता है
बधाई एक उत्तकृष्ट ब्लॉग के लिए
शेष शुभ
ज्योति