Friday, March 20, 2009

क्या नेशनल बुक ट्रस्ट में कुनबाबाद चलता है ?

( एक दिवसीय साहित्य महोत्सव पर निजी टिप्पणी )
हमें किसी पर ऐसी टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है, जब तक हम वैसी हरक़त करने की समस्त संभावनाओं से ख़ुद को मुक्त न कर लें । वैसे यह बड़ा जोख़िम भरा उद्यम है - एक साधना की तरह, यह हम बख़ूबी जानते हैं, फिर भी आज कुछ ऐसा हमारे समक्ष आ खड़ा हुआ है जिससे किसी बड़ी हस्ती पर भी अँगुली उठाने की सदाशयपूर्ण हिमाक़त का परहेज हम नहीं कर पा रहे हैं । और सच तो यह है कि ऐसा न करने से प्रायश्चित के किसी दलदल से भी हमें गुज़रना होगा, जैसा कि हम नहीं चाहते और शायद आप भी इन हालातों में ऐसा नहीं करना करना चाहेंगे और अपने चेतनात्मक ऊर्जा को प्रखऱ करना चाहेंगे । सो इसे आप अपनी संवेदना को हमारे साथ रखकर ही समझ सकते हैं ।

जी हाँ, नेशनल बुक ट्रस्ट नामक अखिल भारतीय संस्था का चरित्र भी कुछ-कुछ ऐसा ही परिवर्तित होता जा रहा है जिसे देखकर कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति कह सकता है कि उनकी चदरिया पर भी दाग़ दिखने लगा है । यह दाग़ सतर्कता के अभाव का है । यह दाग़ हड़बड़ी का है । यह दाग़ छत्तीसगढ़ को ज़रा आलसी और अनभिव्यक्त प्रवृति का मान लेने के कारण से है । आप के मन में जिज्ञासा हो सकती है कि आख़िर माज़रा क्या है ? क्या कर डाला दिल्ली के नेशनल बुक ट्रस्ट ने ।

तो जनाब, लीजिए आप भी जान लीजिए । नेशनल बुक ट्र्स्ट वाले यहाँ पधार रहे हैं । ‘वाले’ का मतलब नई दिल्ली स्थित इस ट्रस्ट के मुख्य संपादक और संयुक्त निदेशक डॉ. बलदेव सिंह मदान (और संभवतः उसके एक और कारिंदे लालित्य ललित) वैसे मैं इस दोनों को पढ़ चुका हूँ । बड़े ही सक्रिय रचनाधर्मी हैं । इनके ट्रस्ट में विराजने से देशभर में पाठकीय संस्कृति से जुड़ी ऐसी गतिविधियाँ तेज़ ही हुई हैं । तो ये महानुभाव अपने मुख्यालय, दिल्ली से साहित्यकारों की खेप लेकर रायपुर में एक दिवसीय साहित्य महोत्सव कर रहे हैं । यह महोत्सव है 22 मार्च, 2009 को । ‘विनीत’ बनकर कार्ड बाँट रहे हैं – ट्रस्ट के डॉ. बलदेव सिंह बद्दन औऱ छत्तीसगढ़ राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के मंत्री डॉ. सुधीर शर्मा ।

इस साहित्य महोत्सव के आमंत्रण-पत्र का सिंहावलोकन करें तो आपको नहीं लगेगा कि रायपुर या छत्तीसगढ़ में देश के वरिष्ठ साहित्यकार रहते हैं । वैसे यह निमंत्रण पत्र रायपुर से छापा गया है । दरअसल दिल्ली सदैव छोटी राजधानियों पर हावी होना चाहती है । दरअसल वह इसलिए अन्य प्रदेशों की राजधानी में दिल्ली वाले साहित्यकारों को लाकर ट्रस्ट की ओर से पुस्तक संस्कृति को विकसित करने का श्रम करती रहती है । वह जताना चाहता है कि दिल्ली के साहित्यकारों से बड़ा कोई नहीं है । सो, उन्हीं के दिशाबोध में पुस्तकों की अहमियत पर देश में चर्चा होगी । हाँ, मेरे जैसे कुछ छुटभैय्ये साहित्यकारों को ऐसी कार्यशालाओं - साहित्य महोत्सवों में अवश्य शामिल कर लिया जाता है जो चुपचाप उनकी बड़ी-बड़ी बातों को शिष्य-भाव से सुनने का धैर्य रखें । शायद इसलिए भी कि ऐसे साहित्यकारों की ट्रस्ट से जान-पहिचान है । शेष जायें रद्दी की टोकरी में । उन्हें पहचानने की जहमत क्यों उठाये ट्रस्ट । किन्तु क्या ऐसे स्थानीय आयोजकों या समन्वयक संस्थाओं को यह नहीं देखना चाहिए कि छोटी-छोटी जगहों पर भी ख्यातिनाम और बड़े-बड़े साहित्यकार रहते हैं ? और जिन्हें एकदम से ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए ।

ट्रस्ट को बकायदा अधिकार है कि वह ऐसे साहित्य महोत्सव में किसे अधिक वेटेज दे और उन्हें किस भूमिका में रखे पर उसे देश की राष्ट्रीय स्तर की बड़ी साहित्यिक नेतृत्वकर्ता होने के कारण क्या यह भी खयाल नहीं रखना चाहिए कि ऐसे अवसरों पर ऐसे जनपदों के वरिष्ठ रचनाकारों को भी याद किया जाय । इस आयोजन में छत्तीसगढ़ के समक्ष जिन्हें बड़े साहित्यकार के रूप में आमंत्रित किया गया है उनमें विष्णु नागर, रामशरण जोशी, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी, डॉ. हरीश नवल, राम दरश मिश्र, महीप सिंह, रमेश उपाध्याय, अमरेंद्र मिश्र, गंगाप्रसाद विमल आदि दिल्ली के हैं । देश के अन्य राजधानियों से जिन्हें विशेष ज्ञान प्रदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया है उनमें जयपुर से डॉ. के.के.रत्तू और भोपाल से ज्ञान चतुर्वेदी व जब्बार ढाँकवाला। इस संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में स्थानीय प्रदेश के होने के कारण जिन साहित्यकारों को सम्मिलित किया गया है उनमें जो भी हों, विनोद कुमार शुक्ल जैसा देश का महत्वपूर्ण कवि और उपन्यासकार गायब हैं । और इतना ही नहीं, स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, प्रभात त्रिपाठी, डॉ. रमेश चन्द्र मेहरोत्रा, गुरुदेव काश्यप, बच्चू जांजगिरी, रमाकांत श्रीवास्तव, राजेन्द्र मिश्र, ड़ॉ. बलदेव, ललित सुरजन, डॉ. सुशील त्रिवेदी, विश्वरंजन, चितरंजन खेतान, डॉ, इंदिरा मिश्र, प्रभाकर चौबे, कनक तिवारी, राजेश्वर दयाल सक्सेना, जया जादवानी, सुभाष मिश्र, आनंद हर्षुल, कैलाश वनवासी, महावीर अग्रवाल, रवि श्रीवास्तव, डॉ. उषा आठले, बबन मिश्र, सतीश जायसवाल, परितोष चक्रवर्ती, अशोक सिंघई, संजीव बख्शी, दिवाकर मुक्तिबोध, श्यामलाल चतुर्वेदी, डॉ. प्रेम दुबे, विनोद शंकर शुक्ल, त्रिभुवन पाडेय, मुमताज, डॉ. शोभाकांत झा, डॉ. श्यामसुंदर त्रिपाठी, राजकमल नायक, मिर्जा मसूद, काविश हैदरी, डॉ. विनय पाठक, डॉ. अजय पाठक, राजेश गनोदवाले, प्रभृति देश में छत्तीसगढ़ का विशेष औऱ उज्ज्वल प्रतिनिधित्व करने वाले नामी-गिरामी कवि, कथाकार, निबंधकार, व्यंग्यकार, आलोचक, नाटककार, भाषाविद्, समीक्षक एक सिरे से गायब हैं । ( यहाँ मेरा उद्देश्य नाम गिनाना नहीं है) यदि इन्हें ट्रस्ट से जोड़ने की कोशिश की हो तो यह बात यहीं समाप्त हो जाती है । यदि ट्रस्ट और स्थानीय संयोजकों के अनुसार मान भी लें जैसा कि ट्रस्ट ‘इलेक्ट्रानिक युग में पुस्तक की भूमिका’ पर चिंतित होकर उसमें छत्तीसगढ़ के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों, कलाकारों को अपने साथ लेकर देश को चिंतनशील बनाना चाहती है तो भी ऐसे मर्ज की यह आधाशीशी इलाज जैसा है क्योंकि विमर्श की विषय-वस्तु का दूसरा हिस्सा है – इलेक्ट्रानिक युग । अच्छा होता कि इसमें ट्रस्ट इलेक्ट्रानिकी युग से जुड़े अर्थात् टी.व्ही. फ़िल्म, फोटो पत्रकारिता, वेब मीडिया जैसे पोर्टल, वेबसाइट, ब्लॉग से जुड़े और उसके प्रभावों-दुष्प्रभावों के जानकारों को भी जोड़ते, जैसा कि नहीं किया गया है । वेबसाइटों, ब्लॉगों, सिटीजन जर्मलिज्म और संचार माध्यमों से जुड़े अन्य विशेषज्ञों को बुलाते । इसका आशय यह कदापि नहीं कि जो इस विमर्श पर वाद-विवाद-संवाद करने के लिए ट्रस्ट द्वारा आमंत्रित किये गये हैं वे निहायत अपरिचित और हमारे बैरी हैं । वे सारे-के-सारे ज्ञानी-ध्यानी हैं- अपने-अपने क्षेत्रो से मित्र-वर्ग से भी हैं फिर भी संगोष्ठी में मुद्रित नामों की सूची से ट्रस्ट के कुनवाई या अलाली चरित्र भी झलक मारने लगता है । कुनबाई इसलिए कि यहाँ वे ही विशेष भूमिका में बुलाये गये हैं जो इनकी मित्र मंडली से आते हैं या जिनकी किताबें ये छाप चुके हैं । अलाली इसलिए कि ट्रस्ट के पास समय नहीं है इतना कि वे मार्च में अपना बजट खर्चने से पहले बारीकी से राज्य के साहित्यकारों की सूची का परीक्षण कर सकें । सो स्थानीय मित्रों के सहारा लेना उनकी विवशता भी है । अब ऐसे में 3 परिवारों के 6 साहित्यमनीषियों को ट्रस्ट द्वारा विषय-विशेषज्ञ मान लेने के अलावा कोई शार्ट कट रास्ता उनके पास शायद नहीं बचता । इस निमंत्रण पत्र को ग़ौर से देखिये तो आपको पता चल जायेगा कि कैसे 3 साहित्यकारों के 6 सदस्य विशेष सूचीबद्ध हैं । यह दीगर बात है कि ये अपनी रचनात्मकता के लिए भी इधर जाने पहचाने जा रहे हैं । किन्तु क्या प्रजातांत्रिक तौर पर तय करके इनकी जगह तीन ऐसे लोगों को ट्रस्ट नहीं जोड़ सकता था जो किसी अन्य परिवारों से हों । जो भी हो ट्रस्ट को ऐसी हडबडियों से बचना चाहिए । क्योंकि छत्तीसगढ़ में अनेकों ऐसी संस्थायें हैं जो कुनबाई संस्कृति से मुक्त हैं और उनकी रचनात्मकता भी । ट्रस्ट द्वारा तैयार की गई सूची में यदि राज्य के सभी प्रकाशकों, साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाओं के संपादकों का नाम भी रहता तो बात दूसरी थी । न यहाँ पुस्तक प्रकाशन से जुड़े कुछ और लोगों को याद गया है न सांस्कृतिक हस्तक्षेप करने वाली पहचान यात्रा, अक्षर पर्व, नये पाठक, सापेक्ष, परस्पर, सूत्र, पाठ, सर्वनाम, नई दिशायें, नारी का संबल जैसी लघु पत्रिकाओं और सृजनगाथा, छत्तीसगढ़, रविवार, उदंती, जैसी इंटरनेटीय पत्रिकाओं के संपादकों औऱ अन्य किसी ब्लॉगर को भी । यदि ट्रस्ट के इस अभियानात्मक संगोष्ठियों को निरक्षरता उन्मूलन के कोण से भी देखें तो साक्षरता और सतत् शिक्षा के अभियान से जुड़े विशेषज्ञों को भी बिसारना नहीं था । पता नहीं, जिनके जीवन में पुस्तक की भूमिका है उन और वैसे संभावित कितने पाठकों को दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए ट्रस्ट ने बुलाया है ? और यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह ट्रस्ट को कम-से-कम नहीं फबता है कि वह सिर्फ़ कुछ साहित्यकारो को इकट्ठा करके ऐसी जुगाली करे । यह विमर्श चूँकि राजधानी के ठाठ-बाठ वाले होटल में हो रहा है, ऐसे में यह कम ही उम्मीद की जा सकती है कि वहाँ ऐसे बुद्धिजीवियो को सुनने कोई आम आदमी पहुँचेगा भी, जिसमें पाठक होने की चेतना संभावित है । और जिसके लिए यह सारा तामझाम हो रहा है । स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी तो कतई नहीं । फिर मार्च महीने में ऐसी राष्ट्रीय संगोष्ठियों का औचित्य खानापूर्ति मात्र है जिसके नाम पर निर्धारित बजट है और जिन्हें ट्रस्ट को खर्च करना ही है ।

मेरे एक साहित्यिक मित्र का कहना है कि यह तो सब जगह होता है । सारे साहित्यिक अनुष्ठानों में ऐसे कुनबेवाद का पताका फहराया जाता है । मित्र पर मैं तरस खाता हूँ और कहता हूँ कि कम-से-कम नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं को तो डेमोक्रेटिक और विश्वसनीय सोच विकसित करना चाहिए जिनके जिम्मे न केवल हिंदी अपितु भारतीय भाषाओं और उनके साहित्यिक प्रकाशन का गुरूत्तर उत्तरदायित्व है । वैसे स्थानीय संयोजकों विशेष कर गिरीश पंकज जी को धन्यवाद कि उन्होंने ट्रस्ट को छत्तीसगढ़ के राजधानी पहुँचने हेतु प्रेरित तो किया, भले ही इस आयोजन को पारिवारिक मोह से बचाने में वे सफल नहीं सके । अब मित्रश्रेष्ठ हैं, हितैषी हैं तो इतनी छूट दी ही जा सकती है । लेकिन यदि यह नाम स्वयं ट्रस्ट ने तय किया है तो ऐसे में देश में बौद्धिक विमर्शों के जरिये सामाजिक क्रांति लाने वालों की सिर्फ़ जय हो ही कही जा सकती है ।

2 comments:

Prakash said...

Bhai Ji, Aapne bilkul theek kahaa, main aapki baat se puri tarah sahmat hoon.
Appne chhatisgarh ke jin kaviyon ke naam ginaaye hain, Unmein se kaiyon ko to main sawayan jaanta hoon, aashcharya ki baat to yeh ki ek non-sahityik vayaktee(main) agar in kaviyon ko jaantaa hoon unke kaamon se to kya book trust waale inhein nahin jaante hongen.

prakash

गौतम राजऋषि said...

मैं तो दहल गया ये पढ़कर....आज की तारीख में जब मैं आपकी ये रपट पढ़ रहा हूँ तो उधर शायद ये कथित महोत्सव संपन्न हो चुका होगा....
तमाम नामों की लिस्ट हैरान करती है सचमुच और बार-बार न चाहते हुये भी ये मानने को विवश होना पड़ रहा है कि हिंदी-साहित्य को ये मठवाद और कुनबाइज्म अपना परचम लहराने नहीं देगा...आशा है कि आपके ये शब्द उन तक भी पहुँचे होंगे।
और कृपया हमारे प्रिय साहित्यकार के आगे ये छुट्भैया जैसे विशेषण न लगायें..."जयप्रकाश मान्स" के साहित्यिक कद की पहचान दिलाने के लिये कम-से-कम नेशनल बुक ट्रस्ट की ओछी हरकतों की दरकार तो निःसंदेह नहीं है...
आप अपनी सेवा यूं ही जारी रखें इन व्यर्थ के तुच्छ हरकतों को नजर अंदाज़ करते हुये..
शुभकामनायें !