Tuesday, July 08, 2008

थाईलैंड में समुद्र मंथन


भारतीय संस्कृति एकांगी और सीमित परिधि की संस्कृति नहीं है । वह असीमित है । उसकी धरातल वैश्विक है । उसका स्वदेश कहने को भारतीय उपमहाद्वीप है, परंतु सच तो यह भी है कि वह अनचीन्हें भूगोल में भी समुज्ज्वलित है । उसकी बेलें, उसकी महक सिर्फ़ अटक से कटक और काश्मीर से कन्याकुमारी तक ही नहीं है । उसकी जड़ों की भूमिगत पकड़ मात्र एशियाई ज़मीन बल्कि एशियेत्तर भूगोल में भी देखी जा सकती है । वस्तुतः वह किसी भी अर्थ में न केवल अतीत में, अपितु इक्कीसवीं सदी में भी वैश्विक संस्कृति है । रोम सभ्यता से किसी भी स्तर से कम नहीं साबित होने वाली भारतीय संस्कृति आज भी समूची दुनिया को अपनी शांति, सामंजस्य और उदात्तता के लिए अपनी इमेज़ में लपेट लेती है । पश्चिम का दर्शन कई बार घुटना टेक-टेक देता है । कालिदास को पढ़कर शेक्सपियर की आँखे विस्फारित होने लगती है । आइंस्टीन गाँधी के पडौस में आ जाते हैं । कितनी बात कहें यहाँ ? यह ‘वाह भारत’ जैसी आत्ममुग्धता मात्र नहीं है । यह भले ही अति बौद्धिकों को हलकी लगे, वस्तुतः यह आम भारतीयों के लिए निराशा, हताशा और हीनता के समय त्वरा को नया आयाम देने वाला विश्वास है ।


इतनी भूमिका के पीछे मेरा मतंव्य अधिक कुछ नहीं, सिर्फ़ इतना कि थाईलैंड के एयरपोर्ट में समुद्र मंथन का यह चित्र लाखों-करोड़ों विश्व नागरिकों की मनीषा को सोचने को विवश कर देती है कि क्या सचमुच कभी समुद्र मंथन जैसी अलौलिक परिघटना हुई थी ?


मैं आगे कुछ और आपसे बतियाऊँ, इससे पहले यह बता देना चाहता हूँ कि यह तस्वीर न मैंने अपने दैनिक डायरी लेखन के लिए सर्च इंजन से ढूँढ निकाली है, न ही मैं ऐसा करना चाहता था । इसे मेरे डैलास के मित्र आदित्य प्रकाश सिंह ने भेजी है । आदित्य मुझे पश्चिम और पूर्व के निचोड़ जैसे लगते हैं । उनके यहाँ पूर्व की भौतिकी की दृष्टि भी है और पश्चिमी की आध्यात्मिकी भी । वे एक अर्थ में सच्चे आधुनिक हैं । आधुनिक का मतलब केवल शारीरिक मतलबों में नहीं खुलता । आधुनिक वही होता जो अपने जड़ों से रस खींचते हुए सतत् गतिशील बना रहता है । क्योंकि सबकुछ न तो भौतिक होता है, और सबकुछ सुपरनैचुरल ही । इन दोनों का समन्वय ही वास्तविक प्रगति यानी सम्यक उत्थान कहलाता है । तो आदित्य पश्चिम में पूरब के राजदूत हैं । वैज्ञानिक होकर भी वे अपनी पारंपरिक अस्मिता को तजते नहीं हैं । मुझे उनके व्यक्तित्व के बारे सोचते हुए कई बार हमारे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल क़लाम जी की छवि दिखाई देती है । उनकी ही घटना लेते हैं । उन्हें श्री हरिकोटा से एक रॉकेट का परीक्षण करना था । जानते हैं – उन्होंने सबसे पहले क्या किया ? सच मानिए, वहाँ उनके आग्रह पर एक नारियल और कुछ अगरबत्ती पहले बुलाई गयी । विश्व के सबसे बड़े देवता को स्मरण के पश्चात ही उन्होंने उस रॉकेट को आकाश के नाम सौंपा । तो यह होती है सच्चे वैज्ञानिक का विश्वास । पश्चिम इसे भले ही ढ़कोसला माने । तर्कों की ग़ुलामी करे । पर सच तो यही है कि वह ऐसे समय ईसा के रूप में सबसे अधिक शक्तिवान् को कदापि नहीं बिसारना चाहता । फ़र्क केवल यही कि वे उसे अंतस में करते हैं और हम साकार रूप में । क्योंकि साकार ही निराकार का आधार है। हम दिखावा नहीं करते । सच्चे अर्थों में साकार के रास्ते में निराकार तक पहुँचते हैं ।


थाईलैंड शांति का देश है । थाईलैंड राम और बौद्ध का देश है । थाईलैंड में आज भी रामलीला होती है । वहाँ राम और बौद्ध के स्वरूपों की पूजा कोई नहीं बात नही है । पर यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई देश यदि किसी देश के मिथकों को अपने अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर प्रतिष्ठित करे तो उसका साफ़ अर्थ समझा जा सकता है कि वह उसपर संपूर्ण आस्था और विश्वास रखता है । इस रूप में वे हमसे अधिक अपने अतीत के इशारों पर चलना चाहते हैं । समुद्र मंथन हुआ या नहीं ? यह मन और बुद्धि के पार की चीज़ है । समुद्र मंथन की सिद्धि मन और बुद्धि से नहीं की जा सकती किन्तु है तो यह सत्य और असत्य की उत्पत्ति और शाश्वतता का प्रतीक । हम या कोई भी इन दोनों रूपों से बच नहीं सकता । यह इस बात का भी पाठ है कि सत्य देवत्व और असत्य दानवत्व का संकेत है और मनुष्य को सदैव मनुष्यत्व से देवत्व या ईश्वरत्व की ओर उन्मुख बने रहने की चेष्टा करते रहना चाहिए ।
यह तस्वीर यह भी कहानी बताती है कि थाईलैंड की मनीषा को मंथन पर अटूट विश्वास है । बिना मंथन के किसी दृष्टि, विचार और मत को अंतिम नहीं माना जाना चाहिए । प्रकारांतर से यह आत्मविवेचना के लिए सतत् चेतना और चेष्टा का प्रतीक है । यह केवल भारतीयता के प्रति श्रद्धा और आस्था का मामला नहीं, यह भारतीय दृष्टि की शाश्वतता के प्रति भी सम्मान है । मैं इस समय यह नही बता सकता कि वहाँ आज की तिथि में हिंदूओं या भारतीयों का प्रतिशत कितना है ? और इस समय यह बेमानी भी है कि मात्र हिंदूओं के प्रयासों के बदौलत ही थाईलैंड के एयरपोर्ट पर यह स्थापित हो सकी है । यह थाईलैंड के जीवन-दर्शन का भी बखान करता है । यह दीग़र बात है कि यदि यहाँ ऐसी कोई भी सांस्कृतिक विरासत को तवज़्ज़ो दें तो दूसरे दिन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग इसके हज़ारों निहितार्थ तलाश लेंगे और जीना दूभर कर देंगे देश का । ऐसे अस्मिताहीन और शुष्क बौद्धिक लोगों को कौन समझाये ? कौन समझाये इन्हें कि इतिहास को मारने पर मनुष्य का कुछ भी नहीं बच सकता । मनुष्य से सबकुछ छीना जा सकता है उसका अपना इतिहास कदापि नहीं ।


धन्यवाद आदित्य जी, आपके बहाने मुझे कम-से-कम थाईलैंड की दृष्टि और मान्यता के बारे में पता चला ।


और कुछ कहने से पहले मैं फ़िलहाल यही कहना चाहता हूँ कि जो थाईलैंड मौज़-मस्ती के नाम पर, सैंडविच मालिश और इसी बहाने देह सुख की आड़ में विदेशी बालाओं के क़रीब जाने की फ़िराक़ में हों वे समुद्र मंथन की कहानी को फिर से एक बार पढ़ सकते हैं...

Saturday, July 05, 2008

मातृभाषा-छत्तीसगढ़ी में भी समाचार प्रसारण होगा !

सबसे पहले युनिवार्ता को बधाई ।

बधाई इसलिए कि उसने हम छत्तीसगढ़ीभाषी 2 करोड़ों लोगों तक यह समाचार सबसे पहले पहुँचाया । बधाई इसलिए कि यह शुष्क समाचार नहीं । इसमें हमारी मुरझाती हुई अस्मिता को रससिक्त करने वाला जल भी है ।

राज्य बनने के बाद से छत्तीसगढ़ी को लेकर हर जागरुक इंसान सचेत था कि आम जनता का अधिकांश कार्य छत्तीसगढ़ी में हो । उसे राजकाज में अँगरेज़ी और कठिन हिंदी का सामना न करना पड़े । वह न्यायालयीन भाषा को समझ सके । वह सरकारी दफ्तर, कोर्ट-कचहरी में अपनी भावना और समस्या को अपनी भाषा में बोल सके और उसी लय में उसे सामनेवाला सुनने से परहेज या तौहीनी न करे । सरकारी स्कूलों, खासकर प्राथमिक स्कूलों में भी वह अपनी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी में पढ़ने-समझने का अवसर जुटा सके । यात्रा के दौरान अपनी भाषा में रेलवे और बसों के आने-जाने की जानकारी भी उसे अपनी भाषा में मिल सके । इसके लिए बकायदा बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और खासकर साहित्यकारों (तथाकथित बड़ी पत्रिकाओं में छपने वाले स्वनामधन्य हिंदी के कथाकार, उपन्यासकार, कवि कदापि नहीं) ने लंबा संघर्ष किया है । राज्य के प्रमुख राजनीतिक दलों ने भी समय की नज़ाकत को परखते हुए इसमें अपना योगदान दिया है । इसके लिए सभी मातृभाषा प्रेमियों को बधाई ।

यह भारत सरकार की ओर से 2 करोड़ छत्तीसगढ़ियों के लिए सुखद सौगात है । इसलिए उसे भी साधुवाद, कि आयद दुरुस्त आयद ।

मैंने प्रसार भारती आकाशवाणी के समाचार विस्तार की योजना (कल घोषित योजना के अनुसार - आगामी छह जुलाई से विभिन्न भाषाओं में 49 समाचार बुलेटिनों का प्रसारण होगा। आकाशवाणी से इस समय 87 भाषाओं और बोलियों में 511 समाचार बुलेटिनों का प्रसारण हो रहा है । जिन एफएम केन्द्रों से समाचार बुलेटिन प्रसार होंगे वे हैं जम्मू, श्रीनगर, नागपुर, आरंगाबाद, रांची, विजयवाड़ा, पोर्ट ब्लेयर, कोच्चि और पुडुचेरी। कारगिल के आकाशवाणी केन्द्र से पुरगी और बालटी भाषाओं में समाचार बुलेटिन के प्रसारण की व्यवस्था पूरी हो गई है। दिल्ली के एफ.एम.गोल्ड और डीटीएच चैनल पर भी समाचार आधारित कार्यक्रम का समय बढ़ाया जा रहा है। श्रीनगर और जम्मू के एफएम केन्द्रों पर समाचार प्रसारण का समय बढ़ाया जा रहा है तथा ‘रेडियों कश्मीर’ से उर्दू की एक और बुलेटिन प्रसारित की जाएगी। छत्तीसगढ़ में रायपुर केन्द्र से छत्तीसगढ़ी भाषा में तथा अरुणाचल प्रदेश में ईटानगर से अतिरिक्त समाचार बुलेटिनों का प्रसारण किया जाएगा।) की बारे में विभिन्न लोगों से बातचीत की । हमें जो टिप्पणी मिली उसे मैं अविकल बताना चाहता हूँ –

श्री विश्वरंजन, वरिष्ठ कवि एवं पुलिस महानिदेशक, छत्तीसगढ़
यह केवल प्रसारण का ही मामला नहीं, दूरस्थ अंचलों में चेतना के आत्मीय विस्तारण का भी ज़रिया बनेगा । चित-परिचित और निजी भाषा में लोगों को समाचार यानी देश-दुनिया में हो रही हलचलों की जानकारी मिलेगी । मातृभाषा में समाचार का प्रसारण क्षेत्रीय अस्मिता को भी बल देने जैसा है । सूचना-प्रौद्योगिकी के जिस दौर में हम ले जाये जा रहे हैं उस दौर में यदि हम हमारी ही भाषा में कुछ न जान सकें तो इससे बढ़कर और क्या विडंबना होगी । मैं समझता हूँ कि यह वैश्वीकरण के दौर में, जहाँ किसी एक ही भाषा में सबकुछ सिखाने-बताने-पढ़ाने का कारोबार चल रहा हो, आंचलिक भाषाओं को सरंक्षण देने का गंभीर प्रयास है ।

श्री सत्यनारायण शर्मा, पूर्व शिक्षा मंत्री, विधायक एवं कार्यकारी अध्यक्ष(छ.गढ़ प्रदेश कांग्रेस)
छत्तीसगढ़ी सहित आंचलिक या प्रादेशिक भाषाओं में समाचार का प्रसारण को लेकर कांग्रेस सदैव सचेत थी । आज भी राज्य में ऐसे लाखों लोग हैं जो ठीक से हिंदी नहीं समझ सकते । ऐसे लोगों के लिए छत्तीसगढ़ी में समाचार सुनना एक विश्वसनीय आस्वाद होगा । वे राज्य, देश, समाज की ख़बरे अपनी भाषा में सुन सकेंगे । इन समाचारों के समक्ष स्वयं की स्थिति का मूल्याँकन भी कर पायेंगे ।


श्री गिरीश पंकज, सदस्य, भारतीय साहित्य अकादमी व संपादक, ख़बरगढ़
आकाशवाणी रेडियो से स्थानीय भाषा में समाचार का प्रसारण छत्तीसगढ़ी अस्मिता के पक्ष में है और इस रूप में यह हिंदी के प्रति आंचलिक मनीषा को जोड़ने का भी नेक क़दम है । यह एक तरह से संविधान की अनुसूची में छत्तीसगढ़ी को रखे जाने की दिशा में भी उल्लेखनीय प्रवेश-द्वार की तरह काम करेगा ।

श्री संजय द्विवेदी, संपादक-इंपुट, जी-छत्तीसगढ़,न्यूज़ चैनल, रायपुर
मानस जी, हम जैसा कि आप जानते हीं है कि जी न्यूज के स्थानीय चैनल में भी छत्तीसगढ़ी में समाचार प्रसारण की सोंच रहे हैं । भारत सरकार द्वारा राज्य की भाषाओं में समाचार प्रसारण का अवसर देना भाषाओं और स्थानीय मन को तरजीह देने जैसा है । समाचार केवल हमें संसूचित नहीं करते, वे हमें आत्ममूल्यांकन के लिए तैयार भी करते हैं । वे विकास की नयी दिशाओं से भी लोगों को जोड़ते हैं । वे एक तरह से ग्रामीण दुनिया के लिए पाठ की तरह हैं । आज जब हम सभी जगह अख़बार और टी.व्ही नहीं पहुँचा पाये हैं, रेडियो ही वहाँ मनोरंजन के साथ समाचारों से जुड़ने का एकमात्र साधन है । यदि रेडियोवाले यानी कि प्रसार भारती देर से भी जागती है तो उसका स्वागत तो किया ही जाना चाहिए ।

श्री हसन खान, पूर्व केंद्र निदेशक, आकाशवाणी, रायपुर
प्रसार भारती का यह क़दम बहु-प्रतीक्षित था । राज्य के लिए हर्ष का विषय है । मैंने अपने कार्यकाल में ऐसे प्रश्नों का कई बार सामना किया है कि बाबू यदि आपके प्रसारण केंद्रों से हमारी भाषा में गीत, संगीत, कथा, कविता, खेती-बाड़ी आदि सभी विषयों का प्रसारण स्थानीय भाषा में होता है, पर समाचार क्यों नहीं ? प्रसार भारती और केंद्र सरकार का यह कार्य निश्चित रूप से परिणाममूलक और प्रसारण के मर्म को सिद्ध करने वाला है । यह एक तरह से आंचलिक भाषाओं के हाथ पर पीठ रखने जैसा भी है । वह इसलिए, क्योंकि अब राजकाज की बातें, सूचनायें, घटनाओं को जनपदों का श्रोता अपनी भाषा में सुन सकेगा । सुन सकेगा तो वह गुन भी सकेगा । यह सामाजिक परिवर्तन के लिए ज़रूरी टूल्स की तरह है और इसका मैं स्वागत करता हूँ ।

श्री मोहन लाल देवांगन,35 साल से 17 घंटे प्रतिदिन रेडियो सुनने वाले विशिष्ट श्रोता, रायपुर
मेरे मन में कई वर्षों से यह प्रश्न उठता था कि जब हम अँगरेज़ी, संस्कृत, उर्दू में समाचार सुना सकते हैं तो आख़िर करोड़ों लोगों की भाषा में क्यों नहीं । जाहिर है इस रूप में मेरे समक्ष छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, आदि भाषायें ही पहले दिखाई देती थीं । यदि भारत सरकार, प्रसार भारती यह भाषायी कार्य करने जा रही है तो उसका स्वागत मैं सबसे पहले करना चाहूँगा । यह छोटी-छोटी भाषाओं को बचाने की दिशा में उचित कार्य है ।

डॉ. सुधीर शर्मा, भाषाविद्, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर
भाषा ही जीवन है । भाषा ही अस्मिता है । भाषा के बगैर मनुष्य कुछ भी नहीं । छत्तीसगढ़ी में समाचार प्रसारण को सरकारी मान्यता देने से 2 करोड़ छत्तीसगढ़ियों के मन में नया उत्साह जागा है । केंद्र शासन इसके लिए बधाई की पात्र है । यदि भारत सरकार, जैसा कि कहा गया है आंचलिक और क्षेत्रीय भाषाओं में समाचार प्रसारण की सुविधा के लिए राजी हो गयी है और निकट भविष्य मे ही हम अपनी भाषा में समाचार सुन सकेंगे तो यह केवल राजकीय दृष्टि ही नहीं, इसमें आंचलिक उद्वेग को भी तरजीह देने की भी दृष्टि सम्मिलित है । यह राष्ट्रीय एकता और सदभाव की दिशा में भी केंद्र शासन की सकारात्मक पहल है ।

श्री बलराम मिश्रा, अध्यापक, प्राथमिक शाला छैडोरिया, जिला रायगढ़

मैं यदि निजी अनुभव बताऊँ तो यही कहूँगा कि जब हमें सरकार द्वारा रेडियो शिक्षा कार्यक्रम के तहत रेडियो दिया गया और उससे ज्ञानवाणी आदि कार्यक्रमों से विद्यार्थियों को जोड़ने को कहा गया तो मैने पाया कि वे कई बार हिंदी के शब्दों को नहीं समझ पाते थे और हमारी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते थे ।
मैं एक दूसरा उदाहरण देना चाहूँगा – आज भी दूरस्थ और पिछड़े गाँवों में समाचार का सबसे विश्वसनीय माध्यम रेडियो है जिसमें आकाशवाणी और बीबीसी प्रमुखतः विश्वसनीय हैं । ऐसे ग्रामीणों, आदिवासियों, किसानों के लिए अपनी भाषा में समाचारों से अवगत होने का स्वर्णिम अवसर बहुत ही कारगर सुविधा है और इसके लिए इसके योजनकारों को बधाई देना होगा ।

अंत में जब मैंने अपनी माँ से पूछा - माँ आप क्या सोचती हैं ? तो उन्होंने कहा - बेटा, यह भाषा को लेकर यदि सरकारें सोचतीं हैं तो यह उनके सुधरते जाने का परिचायक है । अब मैं जब गाँव जाऊँगी तो गाँव की सहेलियों को इसकी बात बताऊँगी । वे भी अब मानक छत्तीसगढ़ी में बात कहने, लिखने का प्रयास कर सकती हैं ।

मैं जो कहना चाहता था वह तो सबों ने कह दिया । अब मैं क्या कहूँ ।
बस्स आप ही कुछ कहें...

Friday, July 04, 2008

बस्तर में नक्सलवादी हैं ही नहीं

बस्तर नक्सलवाद नहीं माओवादियों के हिंसक आतंक का गढ़ बन चुका है । आज का समूचा बस्तर आंतकवाद के घटोटोप में जी रहा है । अब यह सिद्ध हो चुका है कि बस्तर के आंतकवादियों को नक्सलवादी कहना नक्सलवाद को गाली देना होगा । यदि नक्सलवाद की सैद्धांतिकी भी सत्यनिष्ठ होती तो भी बस्तर में अविकसित आदिवासी, दलित, गरीब, भूमिहीन किसान का उत्थान और उसकी बराबरी का क्रांतिकारी अभियान संचालित होता, स्वयं उन्हीं के ख़िलाफ़ नरसंहार का तांडव नहीं मचा रहता । वे स्वयं बस्तर के विनाश का सबसे खतरनाक और नया इतिहास नहीं रचते होते । बस्तर-विपदा की जड़ में आदिवासी-शोषण का तर्क भले ही लोक-लुभावना हो सकता है, परंतु वही अंतिम वास्तविकता नहीं है ।

यदि नक्सली बस्तर में प्रभु-वर्गों के सुनियोजित शोषण, दमन, अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ रहे होते तो बस्तर आज आदिवासियों की शिक्षा, चेतना, मानव अधिकार, सहित विकास का विश्वविद्यालय बन चुका होता । वहाँ दुनिया भर के समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री, और योजनाकार रिसर्च करने आते होते और नक्सलियों से जनता के सम्यक विकास का पाठ सिखते होते । बस्तर का नक्सलवाद सारी दुनिया में पूजा जाता । उसे प्रजातांत्रिक विकास का विकल्प माना जाता और मानवीय विकास का अंतिम लोकाग्रही मॉडल भी घोषित कर दिया जाता।

बस्तर के आंतकवादियों का सबसे बड़ा सच यही है कि वे अपनी हिंसक और अमानवीय हरकतों पर किसी भी सामाजिक, राजनीतिक और संवैधानिक नियंत्रण के सख्त विरूद्ध हैं । क्योंकि उनका एकमात्र लक्ष्य प्रजातंत्र को नेस्तनाबूत करके वहाँ माओवाद का विस्तार और साम्राज्य का स्थापना ही है, जो पूरी तरह भारतीय संविधान के विरूद्ध है । वर्तमान प्रजातंत्र की संवैधानिक व्यवस्थाओं की कोई भी दिशाबोध या अनुशासन उन्हें मंज़ूर नहीं है । आदिवासियों के विकास और उत्थान के नाम पर न वे कभी संवाद को राजी हुए, न ही वे प्रजात्रांतिक व्यवस्था के रास्ते, प्रजातांत्रिक विकास के लिए जनप्रतिनिधित्व के लिए तैयार हुए । यदि वे ग्राम, जनपद, जिला पंचायत साहित विधान सभा और संसद के रास्ते आगे आये होते तो भी बस्तर के विकास का उनका कथित सपना कब का पूरा हो चुका होता । वे और उनके कारिंदे ही आज बस्तर के जननायक होते । ऐसे में बस्तर का विकास भी कहीं अधिक तेज गति से होता। शांति और सुरक्षा के नाम पर देश-प्रदेश की अकूत दौलत यूँ ही नष्ट नहीं होती ।

बस्तर के पिछले तीन-चार दशकों के विकास-शास्त्र को पढ़ें तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि बस्तर का जितना शोषण अन्यों ने मिलकर किया है, उससे कहीं अधिक शोषण इन कथित नक्सलवादियों (मूलतः माओवादियों और वास्तव में आंतकवादियों) ने किया है । शक्तिशाली और नव हितनिष्ठ तो केवल आर्थिक या मानसिक शोषण करते रहे, माओवादियों ने तो विकास की जारी गति को ही बेअसर कर दिया, और सिर्फ इतना ही नहीं; उन्होंने अपनी पाशविक जिद्दी के लिए अमानवीय हत्या से भी कभी परहेज नहीं किया । सबसे ताज्जूब की बात तो यही कि इस दरमियान इनके आंतक का शिकार कोई प्रभुवर्ग का व्यक्ति नहीं हुआ । सिर्फ भोला-भाला, निहत्था, विकास की धीमी गति चाहने वाला आदिवासी ही मौत के घाट उतारा जाता रहा । यह कैसा द्वंद्व है विकासवादियों का ? सच तो यही है कि इन सालों में सारा बस्तर आतंकवादियों के ख़ूनी पंजों में फँस चुका था। उनकी सारी अस्मिता, सारी संस्कृति भी विकृति के कगार पर चली गई, इसके लिए कोई कोर-कसर भी इन माओवादियों ने नहीं छोड़ा । क्या आदिवासी नहीं जान चुके थे कि माओवादी का सारा आदिवासी प्रेम छद्म और राजनैतिक है । वे उसके हितचिंतक कभी नहीं रहे ।

ऐसे में माओवादी आंतकवाद से मुक्ति के लिए बस्तर की जनता जाग खड़ी होती है और शांति के लिए अग्रसर होती है वह माओवादियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन उठती है । जाहिर है उनका छद्म और पाखंड खंडित होने लगता है । उसे भय सताने लगता है कि कहीं उसके निरापद किले ही न ढ़ह जायें । जो लोग आदिवासियों की अग्रगामिता और आक्रोश से उपजे इस लोक-अभियान को सरकारी प्रयोग कहते हैं वे बिलकुल भूल जाते हैं कि आदिवासियों को उनके प्रतिरोध के लिए भी पहचाना जाता है। भूल यह भी कि जैसे आदिवासी विरोध करना जानता ही न हो ।

वे लोग, जो अपनी अमानवीय बुद्धिजीविता को सिद्ध करने के लिए ऐसे लोक-अभियानों से उपजी परिस्थितियों का तर्क देकर सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं, जानबूझकर यह भी भूल जाया करते हैं कि वे प्रकारांतर से आदिवासियों को चुप बैठने की सलाह भी देते हैं । और इस प्रकारांतर का निहितार्थ आदिवासियों को माओवाद से समझौता का मंत्र देना भी है जिस पर अब कोई भी आदिवासी या कोई भी प्रजातांत्रिक सरकार विश्वास नहीं कर सकता। ऐसे लोक अभियानों के विरोध का एक अर्थ माओवादियों के हिंसक माहौल को बनाये रखना भी है । ऐसे में यदि माओवादियों के हिंसक आतंकवाद के खिलाफ उठ खड़े होने वाले जन-समुदाय को प्रजातांत्रिक तौर पर सरकारी संबल देना गलत है तो माओवाद हिंसा के खिलाफ कुछ भी नहीं बोलना उससे कहीं अधिक ग़लत है । गांधी के शब्दों में यही पाप है । यही अन्याय है । आख़िर उन्होंने ही तो कहा था – ‘मेरा विश्वास है कि जब मेरे सामने केवल दो विकल्प रह जायेंगे – कायरता और हिंसा – तो मैं हिंसा के लिए सलाह दूँगा ।’ वे यह भी कहते रहे – ‘मेरा विश्वास है कि बुराई से असहयोग करना वैसा ही फ़र्ज है जैसा अच्छाई से सहयोग ।’

नक्सलवाद का रहस्यवाद अँगरेज़ी कानून में है या छत्तीसगढ़िया-गैरछत्तीसगढ़िया के द्वारा फैलाये गये शोषण तंत्र में ? उसे, (जिसे में केवल आंतकवाद कहना ही उचित समझता हूँ) सुलझाने के लिए क्या प्रयोग कब-कब हुए? किस-किसने संचालित किया और किस-किसने लाचारी दिखाई ? किसने आदिवासियों की चेतना को ऊष्मा दी और किसने उसकी ज़ड़ताओं को आँच बनाकर अपने बदन की सेंकाई की ? इस विपदा से किसने शुतुरमुर्ग की तरह रेत मे अपना सिर फँसाये रखा और किसने सच्चा विमर्श किया ? फिलहाल, इन प्रश्नों के उत्तरों की मीमांसा में किसी वकीली जिरह में उलझने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है संकटग्रस्त बस्तर का साथ देना । वह प्रतिरोध की संस्कृति का मतलब जान चुका है उसे पूर्णतः नैतिक समर्थन हर छत्तीसगढ़िया की नैतिकता भी होगी । यह वक्त आरपार का है।

सचमुच यह वक्त आरपार का है । हमारी परीक्षा की घड़ी का समय है । हमें तय करना ही होगा कि हम किसके साथ चलेंगे ? आंतकवादियों के साथ या आंतक से मुक्ति के लिए तरसता, जूझता, शहीद होता बस्तर के साथ ? यदि हम अपनी निजी कुंठाओं को बिसारकर, ईमानदारियों के साथ बस्तर के पक्ष में खड़े हों तो, उसे शांति और सत्ता तक पहुँचाने से कोई नहीं रोक सकता, पर नेपाल की तरह नहीं, बिलकुल भारतीय शैली में और जिसके लिए आंतक, हिंसा, अमानवीयता से जुझने वाले हर प्रजातांत्रिक शिल्प को किसी भी दलील, किसी भी न्यायालय में गैर वाज़िब नहीं ठहराया जा सकता ।