Wednesday, November 26, 2008

सिपाही क्यों नहीं लिख सकता कविता ?

भाग-
कई बार लगता है कि उन लोगों की कोई नोटिस नहीं लेना चाहिए जो ये नहीं समझते कि वे कह क्या रहें है ? कर क्या रहे हैं ? क्यों कह रहे हैं ? क्यों कर रहे हैं । उनके ऐसे करने का क्या अंजाम हो सकता है । ऐसे लोगों को कई बार मन और मनीषा दोनों ही नकार देती है कि कौन उलझे मूर्खों से । शास्त्रों में भी कहा गया है कि उपेक्षा सबसे बड़ा अपमान है । पर यहाँ प्रसंग अपमान का नहीं है । न ही किसी के अपमान या निंदा मेरा उद्देश्य भी । वैसे ऐसे लोग सर्वथा इतने अंहकारी होते हैं कि उन्हें ऐसा करने, कहने से नहीं रोका जा सकता । दरअसल वे ऐसा इसलिए नहीं करते, कहते या लिखते क्योंकि वे ऐसा कहने का अधिकार रखते हैं या उनमें इतनी नैतिक शक्ति होती है कि ऐसा वास्तविक में कर सके । ऐसे लोग दरअसल अपने मन की क्षुद्रताओं के शिकार होते हैं । सच कहें तो ऐसे लोगों के पास आईना ही नहीं होता, जिसे हम ज़मीर कहते हैं । जिस पर किसी दार्शनिक ने भी कहा है कि औरों के साथ वही करें, जो आप अपने लिए सह्य मान सकते हैं । और यह सब एक पढ़ा-लिखा आदमी, जिसे सभ्य, विचारवान, आदि संज्ञाओं से भी विभूषित कर सकते हैं, जानता भी है; पर अपने जीवन में उतारता भी नहीं है । तो आख़िर ऐसे लोगों को मूर्ख, अहंकारी, शैतान की श्रेणी में क्यों ना रखा जाये । वैसे अनौचित्य कहने, करने, लिखने और कुछ हद तक जीने वालों से यह दुनिया पटी पड़ी है ।

उडिया भाषा में एक कहावत चलता है – जाणू जाणू न जाणू रे अजणा । मतलब इसका यही है कि जानबूझकर भी नहीं जानना । शायद इन्हीं लोगों के लिए हमारी संस्कृति में पशु शब्द प्रयुक्ति की पंरपरा है । पशु के पास चेतना नहीं होती । अन्यथा वह सब कुछ होती है जो मनुष्य के पास होती है । चेतना के कारण ही मनुष्य पशु से भिन्न है ।

पर यहाँ तो प्रसंग कुछ अलग है । उसे बिना नोटिस लिये भी ठीक किया जा सकता है । उपेक्षा करके । पर उसकी उपेक्षा उस तरह की नहीं होगी जैसै हम कभी-कभी अपने किसी अल्पबुद्धि वाले भाई, बहुत छोटे बेटे या मूढ़ मित्र की उपेक्षा इसलिए कर देते हैं कि उसे मौक़ा देखकर कभी भी ठीक किया जा सकता है ।

तो आइये आपको प्रसंग के मूल में ले चलूँ जिसमें राज्य के किसी युवा नागरिक को किसी व्यक्ति की स्वीकृति कवि के रूप में नहीं चाहिए । उस नागरिक को सिर्फ़ एक सिपाही चाहिए । यानी कि कोई सिपाही है और कविता लिखता है तो उससे उसकी कोई दिलचस्पी नहीं । इतना ही नहीं उसे इतना अंहकार है कि वह उसकी कविता कर्म पर बड़े ही अपमान जनक ढंग से कवितायी (?) शिल्प में लिखता भी है कि वह उसे कवि के रूप में अपना नहीं सकता । वह एक सिपाही के बतौर ही उसे अपना सकता है ।

आप भी शायद ऐसे अनर्गल, बेबुनियाद पर बसर करने वाले वाक्-वीर जिसे अपनी अल्पज्ञता पर भी लाज न आये पर तरस खायें । यदि आप उन महानुभाव जैसे ही हों तो मुझे आपसे कोई अपेक्षा नहीं ।

पर मैं जानता हूँ कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति इतना अनपढ़ नहीं, इतना विवेकहीन नहीं जो यह कह दे कि सिपाही को कविता नहीं लिखना चाहिए । कविता के लिए व्यवसाय निर्धारण की यह कौन-सी मनुस्मृति है जो यह घोषित कर दे कि अमूक को कविता नहीं लिखना चाहिए और अमूक को लिखना चाहिए । दरअसल यह मध्यकालीन मानसिकता का परिचायक है जिससे हमारा अंतःकरण मुक्त ही नहीं हो सका है या नहीं होना चाहता है ।

ऐसा उद्-घोष करने वाला युवा चाहता है कि ऐसा सिपाही कितना बड़ा कवि क्यों ना हो, कितनी सार्थक रचना क्यों ना करता हो, मानवता की कितनी गंभीर लड़ाई लड़ता क्यों ना हो रचनात्मक स्तर पर, किन्तु ऐसे रूप में उसे समाज नहीं स्वीकार सकता । भई क्यों नहीं स्वीकार सकता ? क्या सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगाया है ? क्या आपके संविधान में उसकी मनाही है ? क्या उस सिपाही का मन नहीं है ? क्या कानून के पास हृदय ख़रीदने की औका़त है ? क्या उस सिपाही के चौबीसों घंटे सिर्फ़ और सिर्फ़ आप जैसे सिरफिरे और नासमझ युवाओं की हरकतों पर निगरानी रखने और उसे रोकने के लिए हैं ? और यदि ऐसा है तो फिर आप कब यह भी ना कह दें कि उस सिपाही को मुक्त हवा में साँस नहीं लेना चाहिए । स्वप्न नहीं देखना चाहिए । यथार्थ को चुपचाप आँखें बचाकर नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए या उसके विरूद्ध संघर्ष नहीं करना चाहिए । जैसे संघर्ष मन से नहीं केवल लाठी, बल्लम, भाला, त्रिशुल, बम, बारूद या तोप से ही किया जाना चाहिए.... । और यदि संघर्ष की यही परिभाषा सर्वमान्य है तो फिर आख़िर क्यों ऐसे अस्त्र-शस्त्र के रहते मानव संघर्ष पर विराम नहीं लगता, नहीं लग सका ?
आप सोच रहे होंगे कि आख़िर किसने कह दिया कि सिपाही नहीं लिख सकता कविता... फिलहाल तो इतने पर बात ख़तम करना चाहता हूँ बाक़ी अगली बार...
क्रमशः......

4 comments:

Mohinder56 said...

कविता लिखने के लिये पढना जरूरी नहीं... कढना जरूरी है और सिपाही से ज्यादा इस देश में कौन कढता है... इसलिये मेरा मानना है कि सिपाही बारूदी कविता लिख सकता है जो सब को हिला कर रख दे :)

seema gupta said...

सिपाही अगर कविता लिखने पर आएगा तो सबको स्तब्ध कर देगा .... घर से दूर रहने की पीढा , देश की सीमा की रक्षा के लिए बारूद के सामने सीना तान कर खडे रहने का हौंसला , दुश्मन की गोली के साये मे खोफनाक राते गुजारने की मज़बूरी , आंधी, तूफ़ान , मे भूखे प्यासे रहकर पहरा देने की जांबाजी और जरूरत पडे तो जान पर खेल जाने की ललक को जब वो शब्दों मे आकार देगा तो जो कविता बन पडेगी वो सबको स्तब्ध कर देगी ...."
Regards

दीपक said...

सिपाही कविता लिखे मगर क्या युद्ध भुमि पर बैठकर कविता लिखे? और ऐसे मे कोई जब जब उसके युद्ध कौशल पर सवाल उठाये तो कोई बार-बार चिल्ला चिल्ला कर कहे कि ये कवि के नाती है ये कवि के नाती है ?

ऐसे मे अगर किसी कि संवेदना अगर यह पुछे कि भाई पहले आप सिपाही बन जाईये कवि आप बाद मे बन जाइयेगा तो क्या गलत है?

जब आम आदमी का खुन यु ही बहता रहेगा और कोई उनके कवि और कविता का ही प्रचार करेगा तब कोई ना कोई अवश्य पुछेगा कि जनाब कविता ही करोगे या बंदुक भी उठाओगे !!जैसे अभी भारतवाशी पाटील जी से पुछ रहे है कि जनाब कांबिंग ही चलती रहेगी या देश के लिये भी कुछ सोचा है !!

गौतम राजऋषि said...

पूरे आलेख को पढ़ जाने के बाद फिर से दुबारा पढ़ा...फिर तीनों टिप्पणियाँ भी पढ़ी.कुछ समझ में नहीं आया.इस आलेख के पीछॆ कोई संदर्भ भी है क्या?
मैं सिपाही हूँ..अपने हिस्से की ढ़ेरों लड़ाईयां लड़ चुका हूँ...हिंदी से इश्क है,तो जब वक्त मिलता है तो लिख भी लेता हूँ.मेरे सैन्य पक्ष को जानने-समझने वालों को मेरे सैनिक होने पर कोई शक नहीं और कुछ लोग मेरी रचनाओं की यदा-कदा तारीफ भी कर देते हैं...
मगर इस आलेख से उलझन बढ़ गयी है...जरा स्पष्ट करें.