Tuesday, November 25, 2008

नक्सलवादी हथियार पाते कहाँ से हैं ?


हमारे एक मित्र हैं - चाँद शुक्ला । कोपेनहेगन, डेनमार्क में रहते हैं । वैसे वे कपूरथला के रहने वाले हैं । काम तो एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का करते हैं पर मैं उस चाँद शुक्ला की बात कर रहा हूँ जो हदियाबादी के नाम से लिखते-पढ़ते हैं । दरअसल वे नहीं चाहते कि लोग उन्हें एक व्यापारी के रूप में जाने । उनकी पहचान विश्व समाज को जोड़ने वाले एक संयोजक के रूप में है । अनकेता मे एकता को वे इंटरनेट के माध्यम से सिद्ध कर रहे हैं । वे रचनात्मकता को उसके आक्षरिक रूप में नहीं वरन् उसके ध्वनि रूपों के वैश्विक प्रचार और संस्थापना में संलग्न हैं – रेडियो संबरंग के माध्यम से । शायद इस विश्वास के साथ ही कि शब्द ध्वनिमयता के साथ ही अर्थवान है और यह एक हद तक सच भी है । लिखे हुए अक्षर निर्जीव होते हैं, निराकार होते हैं । उनका रूप, सौंदर्य और प्रभाव तभी स्पष्ट होता है जब वे उच्चरित होते हैं, ध्वनिमय होते हैं। क्योंकि शब्दों का किताबों, कागजों पर होना एक तरह से शब्दों का सुषुप्तावस्था में होना है । शब्द तभी जागते हैं जब वे व्यवहार में आते हैं । शब्दों का फूल ध्वनि का साथ पाकर ही फूलता है । आप भी उनके जाल स्थल से कभी गुज़रें हों । न गुज़रें तो अभी जा सकते हैं - www.radiosabrang.com/


मित्र के बारे मे और कुछ कहूँ तो यही कि वे सन्‌ १९९५ में डेनमार्क शांति संस्थान द्वारा सम्मानित किये जा चुके हैं । सन्‌ २००० में जर्मनी के रेडियो प्रसारक संस्था ने 'हेंस ग्रेट बेंच' नाम पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है उन्हें । शेरो-शायरी के शौक और जादुई आवाज़ होने के कारण पिछ्ले पन्द्रह वर्षों से स्वतंत्र प्रसार माध्यम 'रेडियो सबरंग' में मानद निदेशक के पद पर आसीन हैं। आल वर्ल्ड कम्युनिटी रेडियो ब्राडकास्टर कनाडा (AMARIK) के सदस्य हैं ।


तो शुक्ला जी बड़ी बेचैनी के साथ मुझे पूछ रहे थे – आख़िर छत्तीसगढ़ सहित देश भर में हिंसा का तांडव मचानेवाले नक्सलवाद हथियार पाते कहाँ से हैं ?


मैंने कहा – शुक्लाजी, इस पर मतभेद हो सकता है । मेरी बात पक्षधरों को हज़म नहीं हो सकती । कदाचित् कुछ इसे मानवाधिकार पर भी हमला घोषित कर दें । क्योंकि अब तक का जो इतिहास रहा है उससे साफ़ जाहिर है कि ये सैकड़ों मौतों पर आँसू बहाना तक नहीं जानते, पर नक्सली हिंसा से जूझने वाली व्यवस्था की जाने-अनजाने घटना पर सारी दुनिया में हो-हल्ला मचा देते हैं । दरअसल वे मानवाधिकारवादी हैं ही नहीं । वे मूलतः नक्सलवाद के छद्म प्रचारक और हितैषी भर हैं । यह दीगर बात है कि उन्हें प्रजातंत्र में भारी ख़ामी दिखाई देती है, और जो इतने बड़े देश में संभव नहीं कि सभी तरफ़ प्रजातंत्र के सारे अंग सुचारू रूप से काम करें ही । पर क्या प्रजातंत्र के ख़ात्मे की शर्त पर नक्सलवाद के पक्ष मे भी खड़ा हुआ जा सकता है, जो पता नहीं कितने वास्तविक नक्सलियों का संगठन है और कितने केवल हिंसक आंतक फैलाने वाले गुंडों का । चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने भी शायद यह कभी नहीं कहा था कि जिसके लिए नक्सलवाद है उन्हीं निर्दोषों को ही मौत के घाट उतार दिया जाय । जी, नहीं....


चारू मजूमदार का नाम लेते ही चाँद जी को वह घटना याद आ गई ।

उन्होंने बताया – यही कोई 70 वें दशक की बात होगी । उन दिनों हम सेल्समैनशीप का काम किया करते थे । स्कूलों, कालेजों को किताबें पहुँचाया करते थे । एक दफ़ा उधमपुर के काठिया या साम्बा नामक जगह पर हम ठहरे थे । किसी धर्मशाला में । हम जब धर्मशाला के भीतर बने मंदिर या पानी भरने के लिए या फिर प्रांगण में इधर-उधर आते-जाते तो हमें धर्मशाला मे ठहरे हुए और लोगों से बतियाने, उनसे जान-पहचान बनाने का मौक़ा मिल जाता था ।


यूँ ही एक दिन जनाब मिल गये । पतला छरहरा बदन । आँखों में चमक । व्यक्तित्व से बांग्ला कल्चर से अनुप्राणित । हमने हाय-हैलो की । उन्होंने पूछने पर बताया कि वे पटना के हैं । मेरी जिज्ञासा बढ़ गई – पर आप की भाषा तो बाँग्ला लगती है ? इस पर उन्होंने कहा – हाँ मुझे बाँग्ला भी थोड़ी-थोड़ी आती है । आप करते क्या हैं ? कुछ नहीं यूँ ही घूम-फिर रहे हैं । बात आयी गई हो गई । एक दिन धर्मशाला में अचानक सर्चिंग में पुलिस आ धमकी । मै और मेरे साथी भौचक्के रह गए थे । माज़रा क्या है ? सबसे पहले पुलिस ने मुझे ही तहकीकात के लिए धर लिया । मैंने उन्हें साफ़-साफ़ बताया – भाई साहब, हम ठहरे किताबों के सप्लायर । क्या जाने कि वो कौन थे, क्या करते थे, किससे मिलते थे ? हाँ एक बार उनसे यहीं हाय-हैलो हो गई थी, बस्स । किसी तरह पुलिस से पिंड छुड़ाया ।

दरअसल वे उसी जनाब को तलाश रहे थे जिससे हम मिल चुके थे । वो धर्मशाला के रजिस्टर मे नाम, पता बदलकर ठहरे हुए थे । बाद में पुलिस को पता चला कि दस्तखत और किसी का नहीं चारू मजूमदार का ही है । वे चारू मजूमदार थे ।


बहरहाल......चाँद जी बता रहे थे कि वे देखने से न खूँखार नज़र आते थे न ही मनुष्यता के विरूद्ध किसी अभियान को संचालित करने वाले की तरह । उनके आँखों में एक गहराई नज़र आती थी, कुछ सपने नज़र भी हों जैसे, दलित, दमित, ग़रीब और कमज़ोर लोगों के लिए । और आज जो इनके चेले भारत को ध्वस्त करने पर तुले हुए हैं...... विश्वास नहीं होता ।


तो चाँद जी के मूल प्रश्न पर आते हैं – आख़िर ये हथियार कहाँ से पाते हैं ?
अब मैं ठहरा अदना-सा लेखक । जो दिख जाता है । उसे देख लेते हैं, पर कभी-कभी उसे भी देखने की चेष्टा कर लेते हैं जो दिखाई नहीं दे रहा हो, पर वह ज़रूर हो कहीं न कहीं । आज का नक्सलवाद एक तरह का आंतकवाद है । उद्देश्य है इनका – सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली पर कब्जा करना। जैसे पिछले दिनों नेपाल की राजधानी में माओवादियों ने कब्जा किया । माओवाद हिंसक क्रांति के रास्ते पर चलकर व्यवस्था में तब्दीली लाने वाली कोई विचारधारा(?) है । तो भारत और ख़ासकर छत्तीसगढ़ में नक्सलवादियों को जो हथियार, धन और उन्नत प्रौद्योगिकी की उपलब्धता है वह कई रास्तों से मिल रहा है ।


नक्सली बड़े व्यापारियों, नेताओं, अफ़सरों से धन की उगाही करते हैं, बदले मे उनकी जान बख्सते हैं और उनके ऐसे क्षेत्रों में व्यापारिक आवाज़ाही को खुली छूट देते हैं । यानी कि भ्रष्टों की सहायता से ये शक्ति संचित करते हैं । यानी कि इन्हें प्रजातंत्र की सबसे बड़ी बुराई भ्रष्ट्राचार से तो घनघोर शिकायत है पर स्वयं ऐसा करने में कोई परहेज नहीं है । बस्तर में तेंदू पत्ते के व्यापारियों, जंगल ठेकेदारों, परिवहन मालिकों से यदा-कदा ऐसी शिकायतें मीडिया के माध्यम से आती ही रहती हैं । जहाँ तक इन क्षेत्रों के नेताओं के भयवश चंदा की बातें हैं वह भी दबी जुबां मे सुनी जा सकती है । पहले आंध्रप्रदेश में भी यही हुआ करता था । जान से बड़ी जनता प्यारी नहीं होती । चाहे वह जननेता ही क्यों न हो । वैसे यह कहकर मैं ऐसे जननायकों को समर्थन नहीं दे रहा, ऐसी हरक़तों को वाज़िब नहीं ठहरा रहा हूँ ।


नक्सलवाद भारत में आंतकवाद का घरेलू संस्करण है, जिसकी जड़ें देश-विदेश तक भी फैल चुकी हैं । यह ऐसे सिरफिरे लोगों तक आंतक पर विश्वास करने वाले लोग, संगठनों की पहुँच हो सकती है जिसे नकारा नहीं जा सकता है । अभी कुछ दिन पहले कश्मीर के मामले में नक्सलवादियों का बयान आया था कि वे वहाँ अपनी भूमिका के लिए तैयार हैं । यानी कि देश और समाज में अस्थिरता फैलाने वाले कई संगठनों के उद्देश्य और नक्सलवाद के उद्देश्यों में चूँकि अब साम्यता है तो जाहिर है इनके बीच आवाज़ाही भी हो ।


नेपाल से लेकर बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और अब तमिलनाडू और कर्नाटक में भी जो गतिविधियाँ देखी जा रही है उससे लगता है कि यह क्षेत्र नक्सलवाद यानी प्रजातंत्र विरोधियों का एक गलियारा जैसा बन चुका है जो धूर श्रीलंका तक चला जाता है । इसमे लिट्टे जैसे संगठनों की भूमिका को भी पृथक नहीं किया जा सकता । फिर नेपाल और चीन के बीच बढ़ते संबंधों को कैसे नकारा जा सकता है और क्या नेपाल में जो माओवादी सरकार की स्थापना हुई, हज़ारों निसहाय और निरपराध जनता की मौतों के बाद, उसमें क्या चीन की कोई भूमिका नहीं है ? ऐसे मे यह कहने से कोई गुरेज़ नहीं कि इन गलियारों के बीच ऐसे देशों और ऐसी शक्तियों के परस्पर समर्थन न मिल रहा हो ।


जहाँ तक छत्तीसगढ़ के बस्तर का परिदृश्य है वहाँ नक्सलवादियों द्वारा लूट-पाट, वसूली और हत्या आम बात हो गई है । पुलिस थाने पर भी जब-जब आक्रमण हुए हैं तब-तब ख़बर आई है कि वहाँ से बड़ी संख्या में हथियार लूटे लिये गये ।


प्रश्न यह उठता है कि इनके पास उन्नत हथियार कैसे पहुँच रहे हैं - जाहिर है जहाँ और जो इन हथियारों को उपयोग मे लाते हैं वे ही उसे इन तक पहुँचा रहे हैं या इन तक नक्सलियो की पहुँच बराबर बनी हुई है । कहीं ना कहीं प्रजातांत्रिक निष्ठा के अभाव में उन्हें नेताओं, नागरिकों, नौकरशाहों, पुलिस बल की कमी और कमजोरियों का सहारा मिल रहा हो ।


देश-विदेश के आंतकवादी और देश में अस्थिरता फैलानी वाली ताक़तों के साथ इनके संबंधों की पुख्ता सबूत भले ही न मिले हों, जिस तरह से भारतीय नक्सलवाद में उन्नत हथियारों, उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग होने लगा है उससे देखकर कहा जा सकता है कि बांग्लादेश, चीन, नेपाल, श्रीलंका और भी अन्य अंहकारी देशों की सहायता इन तक निश्चय ही पहुँच रही है । पिछले दिनो एक ख़बर आयी थी कि नक्सलवादियों के पास देश-विदेश के दो नम्बर की अकूत दौलत इकट्ठा हो चुकी है। इसमे कोई आश्चर्य की बात नहीं ।


ऐसे क्षेत्रों में अराजक भ्रष्ट्राचार, बेरोज़गारी, जननायकों की लापरवाही, प्रजातांत्रिक इकाइयों की लेकूना, सरकारी कर्मचारियों का आंतक, दमनात्मक कार्यवाही, शोषण तो बहाना है । दरअसल माओवादी कार्यवाहियों या नक्सलवादियों की ऐसी हिंसक गतिविधियों के मूल मे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रजातंत्र को जड़ से उखाड़ फेंकना है । ग़रीबों, आदिवासियों, अहसायों, शोषित किसानों के हित की बात या उनके विकास के नाम पर जनयुद्ध तो बहाना है, आड़ है ताकि ऐसे क्षेत्रों में अल्प शिक्षित, अशिक्षित, बेरोज़गार, किसानो, आदिवासियों के भीतर पैठ बनी रहे और वे उन्हें अपना हथियार बनाते रहें । यदि ऐसा नहीं होता तो कम से कम बस्तर में इनका कोई न कोई ऐसा कम्यून ज़रूर होता जहाँ आदिवासी बेहिचक आसरा पाता । उस पर आस्था जताता । विकसित होता । यदि ऐसा नहीं होता तो नक्सलवादी भोले-भाले आदिवासियों को मौत के घाट नहीं उतारा करते । यदि ऐसा नहीं होता तो इन्फ्रांस्ट्रक्चर को ही नेस्तनाबूद करके ये नक्सलवादी ख़ुश नहीं होते । यहाँ यह सबसे बड़ी चिंता की बात है कि ऐसे नक्सलवाद का शिकार मूलतः ग़रीब, आदिवासी, कमज़ोर और दलित व्यक्ति ही हो रहा है न कि भ्रष्ट नेता, भ्रष्ट उद्योगपति, शोषक ज़मींदार, निरंकुश नौकरशाह । इसका मतलब यह क्यों नहीं हो सकता कि नक्सलवाद को अपने मूल उद्देश्यो से कुछ भी नही लेना-देना है । इसका मतलब यही है कि नक्सलवाद सिर्फ़ आतंकवाद है जिसका लक्ष्य प्रजातांत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करना है । और कुछ नहीं..

7 comments:

Anil Pusadkar said...

बहुत बडा हो गया है लेख,दो किश्तो मे देते तो ठीक रहता.

Anonymous said...

SHRI CHAAND SHUKLA HADIABADI KE
BARE MEIN JAANKAR BAHUT ACHCHHA
LAGAA HAI.UNKE PRASHN KE UTTAR
MEIN AAPKA LEKH KAEE JAANKAARIAN
LIYA HUA HAI.BADHAAEE.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

जयप्रकाश जी,
नमस्ते -
आपने अपने क्षेत्र की सच्ची जानकारी सामने रख दी है -
भारत मेँ केन्द्रीय सरकार तब भी आँखेँ मीँचे, क्यूँ इसे
अनदेखा कर रही है ? क्या नक्सलवादीयोँ को रोका नहीँ जा सकता ?
और चाँद हदियाबादी जी का 'सबरँग" एक सफल प्रयोग है -
उन्हेँ बधाई और आप इस तरह के आलेख लिखते रहीये --
- लावण्या

महावीर said...

चांद शुक्ला 'हदियाबादी' साहेब के इस लेख में जो जानकारी दी गई है, सच्चाई सामने रखी है। मैं अनिल पुसदकर जी से सहमत हूं कि लेख दो किश्तों में होता तो अच्छा रहता। आजकल पाठकों के सामने पढ़ने के लिए इतने ब्लॉग हैं कि किसी भी एक ही लंबे लेख, कहानी या रचना के पढ़ने की इच्छा होते हुए भी समय नहीं मिलता। मेरे कुछ पाठकों ने मेरे लंबे लेख या कहानी आदि के विषय में भी ऐसे ही सुझाव की ओर ध्यान दिलाया है।

Dr. Sudha Om Dhingra said...

जयप्रकाश मानस जी,
नमस्कार!
चाँद शुक्ला ''हदियाबादी'' के प्रश्न पर लिखा गया लेख सारगर्भित एवं सत्य के कठोर धरातल पर लिखा गया है. इसने अतीत के कई पन्ने
मेरे सम्मुख उलट-पलट दिए, लिखने लगूँगी तो लेख बन जाएगा----
कभी आप के इसी लेख को अपना एक संस्मरण समर्पित करुँगी. अभी बस इतना ही---बेबाक कलम की धार पर चलने के लिए बहुत-बहुत बधाई.
सुधा ओम ढींगरा

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

यह प्रश्न ही गलत है - आजकल तो हतियार स्कूल के बच्चों के पास भि मिल जाते है और वे धडाघड स्कूल में ही बंदूक चला रहे है। रही बात नक्सलियों की, तो हमारे देश के भीतर और बाहर देश के जयचंद और मीर जाफर कहीं भी, किसी भी नुक्कड पर मिल जाएंगे।

सृजनगाथा said...

प्रश्न तो प्रश्न है भाई जी । और प्रश्न ग़लत नहीं होता । हाँ उसके उत्तर ग़लत ज़रूर हो सकते हैं ।