
भारतीय संस्कृति एकांगी और सीमित परिधि की संस्कृति नहीं है । वह असीमित है । उसकी धरातल वैश्विक है । उसका स्वदेश कहने को भारतीय उपमहाद्वीप है, परंतु सच तो यह भी है कि वह अनचीन्हें भूगोल में भी समुज्ज्वलित है । उसकी बेलें, उसकी महक सिर्फ़ अटक से कटक और काश्मीर से कन्याकुमारी तक ही नहीं है । उसकी जड़ों की भूमिगत पकड़ मात्र एशियाई ज़मीन बल्कि एशियेत्तर भूगोल में भी देखी जा सकती है । वस्तुतः वह किसी भी अर्थ में न केवल अतीत में, अपितु इक्कीसवीं सदी में भी वैश्विक संस्कृति है । रोम सभ्यता से किसी भी स्तर से कम नहीं साबित होने वाली भारतीय संस्कृति आज भी समूची दुनिया को अपनी शांति, सामंजस्य और उदात्तता के लिए अपनी इमेज़ में लपेट लेती है । पश्चिम का दर्शन कई बार घुटना टेक-टेक देता है । कालिदास को पढ़कर शेक्सपियर की आँखे विस्फारित होने लगती है । आइंस्टीन गाँधी के पडौस में आ जाते हैं । कितनी बात कहें यहाँ ? यह ‘वाह भारत’ जैसी आत्ममुग्धता मात्र नहीं है । यह भले ही अति बौद्धिकों को हलकी लगे, वस्तुतः यह आम भारतीयों के लिए निराशा, हताशा और हीनता के समय त्वरा को नया आयाम देने वाला विश्वास है ।
इतनी भूमिका के पीछे मेरा मतंव्य अधिक कुछ नहीं, सिर्फ़ इतना कि थाईलैंड के एयरपोर्ट में समुद्र मंथन का यह चित्र लाखों-करोड़ों विश्व नागरिकों की मनीषा को सोचने को विवश कर देती है कि क्या सचमुच कभी समुद्र मंथन जैसी अलौलिक परिघटना हुई थी ?
मैं आगे कुछ और आपसे बतियाऊँ, इससे पहले यह बता देना चाहता हूँ कि यह तस्वीर न मैंने अपने दैनिक डायरी लेखन के लिए सर्च इंजन से ढूँढ निकाली है, न ही मैं ऐसा करना चाहता था । इसे मेरे डैलास के मित्र आदित्य प्रकाश सिंह ने भेजी है । आदित्य मुझे पश्चिम और पूर्व के निचोड़ जैसे लगते हैं । उनके यहाँ पूर्व की भौतिकी की दृष्टि भी है और पश्चिमी की आध्यात्मिकी भी । वे एक अर्थ में सच्चे आधुनिक हैं । आधुनिक का मतलब केवल शारीरिक मतलबों में नहीं खुलता । आधुनिक वही होता जो अपने जड़ों से रस खींचते हुए सतत् गतिशील बना रहता है । क्योंकि सबकुछ न तो भौतिक होता है, और सबकुछ सुपरनैचुरल ही । इन दोनों का समन्वय ही वास्तविक प्रगति यानी सम्यक उत्थान कहलाता है । तो आदित्य पश्चिम में पूरब के राजदूत हैं । वैज्ञानिक होकर भी वे अपनी पारंपरिक अस्मिता को तजते नहीं हैं । मुझे उनके व्यक्तित्व के बारे सोचते हुए कई बार हमारे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल क़लाम जी की छवि दिखाई देती है । उनकी ही घटना लेते हैं । उन्हें श्री हरिकोटा से एक रॉकेट का परीक्षण करना था । जानते हैं – उन्होंने सबसे पहले क्या किया ? सच मानिए, वहाँ उनके आग्रह पर एक नारियल और कुछ अगरबत्ती पहले बुलाई गयी । विश्व के सबसे बड़े देवता को स्मरण के पश्चात ही उन्होंने उस रॉकेट को आकाश के नाम सौंपा । तो यह होती है सच्चे वैज्ञानिक का विश्वास । पश्चिम इसे भले ही ढ़कोसला माने । तर्कों की ग़ुलामी करे । पर सच तो यही है कि वह ऐसे समय ईसा के रूप में सबसे अधिक शक्तिवान् को कदापि नहीं बिसारना चाहता । फ़र्क केवल यही कि वे उसे अंतस में करते हैं और हम साकार रूप में । क्योंकि साकार ही निराकार का आधार है। हम दिखावा नहीं करते । सच्चे अर्थों में साकार के रास्ते में निराकार तक पहुँचते हैं ।
थाईलैंड शांति का देश है । थाईलैंड राम और बौद्ध का देश है । थाईलैंड में आज भी रामलीला होती है । वहाँ राम और बौद्ध के स्वरूपों की पूजा कोई नहीं बात नही है । पर यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई देश यदि किसी देश के मिथकों को अपने अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर प्रतिष्ठित करे तो उसका साफ़ अर्थ समझा जा सकता है कि वह उसपर संपूर्ण आस्था और विश्वास रखता है । इस रूप में वे हमसे अधिक अपने अतीत के इशारों पर चलना चाहते हैं । समुद्र मंथन हुआ या नहीं ? यह मन और बुद्धि के पार की चीज़ है । समुद्र मंथन की सिद्धि मन और बुद्धि से नहीं की जा सकती किन्तु है तो यह सत्य और असत्य की उत्पत्ति और शाश्वतता का प्रतीक । हम या कोई भी इन दोनों रूपों से बच नहीं सकता । यह इस बात का भी पाठ है कि सत्य देवत्व और असत्य दानवत्व का संकेत है और मनुष्य को सदैव मनुष्यत्व से देवत्व या ईश्वरत्व की ओर उन्मुख बने रहने की चेष्टा करते रहना चाहिए ।
यह तस्वीर यह भी कहानी बताती है कि थाईलैंड की मनीषा को मंथन पर अटूट विश्वास है । बिना मंथन के किसी दृष्टि, विचार और मत को अंतिम नहीं माना जाना चाहिए । प्रकारांतर से यह आत्मविवेचना के लिए सतत् चेतना और चेष्टा का प्रतीक है । यह केवल भारतीयता के प्रति श्रद्धा और आस्था का मामला नहीं, यह भारतीय दृष्टि की शाश्वतता के प्रति भी सम्मान है । मैं इस समय यह नही बता सकता कि वहाँ आज की तिथि में हिंदूओं या भारतीयों का प्रतिशत कितना है ? और इस समय यह बेमानी भी है कि मात्र हिंदूओं के प्रयासों के बदौलत ही थाईलैंड के एयरपोर्ट पर यह स्थापित हो सकी है । यह थाईलैंड के जीवन-दर्शन का भी बखान करता है । यह दीग़र बात है कि यदि यहाँ ऐसी कोई भी सांस्कृतिक विरासत को तवज़्ज़ो दें तो दूसरे दिन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग इसके हज़ारों निहितार्थ तलाश लेंगे और जीना दूभर कर देंगे देश का । ऐसे अस्मिताहीन और शुष्क बौद्धिक लोगों को कौन समझाये ? कौन समझाये इन्हें कि इतिहास को मारने पर मनुष्य का कुछ भी नहीं बच सकता । मनुष्य से सबकुछ छीना जा सकता है उसका अपना इतिहास कदापि नहीं ।
धन्यवाद आदित्य जी, आपके बहाने मुझे कम-से-कम थाईलैंड की दृष्टि और मान्यता के बारे में पता चला ।
और कुछ कहने से पहले मैं फ़िलहाल यही कहना चाहता हूँ कि जो थाईलैंड मौज़-मस्ती के नाम पर, सैंडविच मालिश और इसी बहाने देह सुख की आड़ में विदेशी बालाओं के क़रीब जाने की फ़िराक़ में हों वे समुद्र मंथन की कहानी को फिर से एक बार पढ़ सकते हैं...