न्यूयार्क में ताली बजाने की क़ीमतः डेढ़ लाख रुपये
हिंदी का 8 विश्वकुंभ अमेरिका के न्यूयार्क में 13 से 15 जुलाई तक होने जा रहा है । हिंदीसेवी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने अपने डेरों से प्रस्थान भी करने लगे हैं । बताया जा रहा है कि विश्व के 128 देशों से हिंदी सेवी शरीक होने वाले हैं पर पिछले दिनों जिस तरह की गतिविधियाँ नज़र आयी हैं उससे सम्मेलन की सफलताएं संदेहास्पद और संदिग्ध जान पड़ती हैं ।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस आयोजन को तौलें तो यह शहर एवं महानगर निवासी तथाकथित रचनाकारों का जमावड़ा मात्र सिद्ध होने वाला है । शायद ही दूरदराज के उन हिदीं सेवियों को इसमें जोड़ा गया है या उसे जोड़े जाने का वास्तविक उद्यम किया गया है जो अपनी मौन साधना से हिंदी को समृद्ध कर रहे हैं । विडम्बना कहिए कि किसी भी राज्य सरकारों ने हिंदी-प्रियता का परिचय देते हुए अपने स्तर पर इसका प्रचार-प्रसार नहीं किया जिससे सम्मेलन की बात गाँव-कस्बों के मौन साधकों तक पहुँच पाती । बात सिर्फ इतनी भी नहीं है, आयोजकों ने हिंदी के वरिष्ठ रचनाकारों, तकनीकी विशेषज्ञों, भाषाशास्त्रियों, फिल्मकारों, गायको, प्रकाशकों को जोड़ना उचित नहीं समझा जिनकी बदौलत हिंदी भारत से अन्यत्र पुष्पित-पल्लवित हो रही है ।
इस वैश्विक आयोजन में तलवे चाटने वाले हिंदी के भांड कवियों और मंच में मसखरी करने वालों को खास तवज्जो दिया है। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा कि न्यूयार्क में सम्मेलन के दौरान दैनिक कार्यवृति की रिपोर्टिंग चुटकुलेबाज कवि करने वाले हैं। हमने तो यही सुना है । होगा क्या हम नहीं कह सकते । क्या पत्रकारिता जगत के रिपोर्टरविहीन हो गया यह महादेश ? कितनी शर्म की बात है कि एक तथाकथित अखिल भारतीय मंचीय कवि के युवती पीए को सिर्फ इसलिए खर्च करके आयोजक ले जा रहे हैं कि वह डीटीपी कार्य जानती है और वह वहाँ अपने बॉस का हाथ बटायेगी । (ऐसा कार्य आपमें से और कोई जानते हों कृपया दुखी न होवें ।)आयोजकों के शायद इसी और ऐसी गैर गंभीर क्रियाकलापों और हरकतों के कारण नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, केदारनाथ सिंह और मंगलेश डबराल जैसे दिग्गज लेखकों ने विरोध स्वरूप सम्मेलन में हिस्सा लेने से साफ मना कर दिया है। हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, कमल कुमार जैसे बड़े रचनाकारों ने भी इसी तर्ज में स्वयं को अलग कर लिये हैं, जो लगातार कई सम्मेलनों में शरीक होते रहे हैं और जिन्होंने विदेशों में हिंदी का परचम फहराया है । इनमें हिन्दी के प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह का नाम भी है, जिन्होंने सम्मेलन को व्यर्थ बताते हुए इसमें भाग लेने से मना कर दिया है। केदारनाथ सिंह ने तो कहा है कि यह सम्मेलन व्यर्थ है और इसका कोई प्रयोजन नहीं है।
यह प्रमाणित तथ्य है कि विदेश मंत्रालय और अमेरिकन एंबेसी के मध्य कोई तालमेल नहीं रहा है । सच तो यह है कि भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से ऐसे कोई प्रयास ही किये ही नहीं गये जिससे पंजीकृत प्रतिभागियों को वांछित वीजा बनाने में सरलता और सुविधा होती । इससे सबसे बड़ी हानि यह हुई कि प्रख्यात लोग सम्मेलन में शरीक होने से वंचित हो गये हैं और पंचम-षष्ठम श्रेणी के उन शौकिया लेखकों को 10-10 साल तक का वीजा मिल गया है जिन्हें हिदीं से कोई खास लेना देना नहीं और जो सम्मेलन के बहाने न्यूयार्क मात्र घूमने-फिरने जा रहे हैं। ऐसे लोग अमेरिका के गुन गा रहे हैं – क्यों भी न गायें। इसी बहाने ‘अमेरिका रिटर्न’ कहलाने का मौका जो मिलेगा उन्हें । आयोजकों में अदूरदर्शिता और आयोजकीय व्यवस्था के अभाव के कारण आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए मुम्बई से जाने वाले प्रतिनिधिमंडल के 12 सदस्यों वीजा प्राप्त करने से वंचित रह गये हैं । उन्हें इस आधार पर वीजा देने से इनकार कर दिया है कि उन्होंने अमेरिका के बाहर सामाजिक,आर्थिक और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में पर्याप्त कार्य नहीं किया है। क्या यह मुंबई के साहित्यकारों और हिंदी सेवियों के लिए अपमानजनक नहीं है। इतना ही नहीं विश्वप्रसिद्ध टेक्नोक्रेट और युवा वैज्ञानिक जगदीप डांगी को भी अमेरिकन वीजा से वंचित कर दिया गया है जिसके द्वारा विकसित साफ्टवेयर खरीदने कभी अमेरिकन कंपनी माइक्रोसॉफ्ट भी स्वयं उनके दरवाजे तक जा पहुँची थी ।
विश्व हिदी सम्मेलन को अर्थशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो आयोजकों अर्थात् भारत सरकार ने जिस तरह से प्रतिभागिता का मापदंड़ निर्धारित किया है वह हिंदी के वास्तविक आराधकों और सेवकों के लिए दुष्कर है । एक से डेढ़ लाख खर्च किये बिना वहाँ जाने की कल्पना नहीं की सकती । यह अलग बात है कि आप पहुँच भी गये तो आपको केवल ताली ही बजानी है। क्योंकि विमर्श सत्र में आपको कुछ कहने की कोई अनुमति तो मिली नहीं है - आयोजकों की ओर से । इस बीच भारत सरकार ने राज्य सरकारों को लेखकों को सहयोग करने हेतु लिखकर छुट्टी कर ली है । अब राज्य सरकार की मर्जी कि वे अपने राज्य के हिंदी सेवियों को वहाँ हिंदी की आवाज़ बुलंद करने भेजें या नहीं । आप उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। कुछ राज्य सरकारें बकायदा अपने राज्य से प्रतिनिधि मंडल भेज रही हैं जिसमें सिर्फ उनके विचारधाराओं के पांप्लेट्स लिखने वाले ही सम्मिलित हैं । कुछ राज्य सरकारों में वहाँ के अधिकारियों की मूर्खता, तानाशाही और स्वयं अमेरिका यात्रा करने के अति लालच के कारण वहाँ साहित्यकार विश्व हिंदी सम्मेलन में जाने से वंचित रह गये हैं, उन्हें फूटी-कौड़ी तक नसीब नहीं हो सका है । इस वैश्विक आयोजन से कुछ राज्यों को तो कुछ भी नहीं लेना देना - हिदीं चाहे जहाँ जाये (भाड़ तो नहीं कह सकता ना) । अब आयोजकीय धर्म के निर्वहनकर्ताओं को कौन समझाये कि सच्चे और ईमानदार हिंदी सेवी और साहित्यकारों का अफसरानों या नेता-मंत्रियों से चोली-दामन का साथ तो होता नहीं जो ऐन-केन प्रकारेण विज्ञापन आदि से राशि जुटा ही लें । बात छोटी-सी है पर यही इस आयोजन के उद्देश्यों की विश्वसनीयता का संकट है । पर आयोजकों को इस बात के लिए दाद देनी होगी कि उन्होंने विश्व हिदीं सम्मेलन का दरवाजा सबके लिए खोल दिया । चाहे टेटकू राम जाये या फिर टेकचंद या फिर टी. रामाराम । इसे ही तो प्रजातांत्रिक मूल्य के लिए खुलापन कहते हैं ।
इन दिनों विश्व हिंदी सम्मेलन की जो सूचनात्मक वेबसाइट विश्व भर में दिखायी जा रही है उसमें सारी जानकारी है पर वहाँ इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि वहाँ किन महान हिंदी सेवकों(?) का सारा खर्च आयोजक (विशेषतः भारत सरकार या विदेश मंत्रालय)वहन कर रहे हैं जिन 60 रचनाकारों का न्यूयार्क के वैश्विक मंच में उनकी उल्लेखनीय सेवा के लिए प्रतीकात्मक सम्मान होने जा रहा है वे कौन लोग हैं ? उनका चयन किसने किया ? किस आधार पर चयन किया गया ? और तो और वहाँ कौन-कौन किस विषय पर आलेख पढ़ेगा? इसकी भी जानकारी अब तक नहीं दी जा सकी है । वैसे इन चीजों को वेबसाइट में भी अवश्य दिया जाना चाहिए ताकि आयोजन में खुलापन आ सके । नये लोग जान सकें कि आखिर वे पैरामीटर क्या होते जिनके बल पर रचनाकार को विश्वस्तर पर सम्मानित किया जाता है । तब जब हम भारतीय बड़े जोर-जोर से सूचना का अधिकार का डंका पीट रहे हैं इन सब बातों का उल्लेख अवश्य विश्व को बताया जाना था । ठीक उसी तरह जैसे अन्य सभी बातों को वेबसाइट में दिया गया है । जो भी हो, इस मौके पर बालेंदू दाधीच की तारीफ की जा सकती है कि उनके कारण कम से कम ब्लॉगरों जैसे दो कोड़ी के लेखकों को कम से कम भारत सरकार के वेबसाइट में तवज्जो तो दिया गया। उनमें से कोई न्यूयार्क सम्मेलन में नहीं बुलाये गये तो क्या !
जैसे कि सूचना मिल रही है ऐसे मौकों पर ग़ज़ल गायन और सितार वादन तो हो पर कबीर, तुलसी, रहीम, मीरा के पदों को गा-गाकर हिंदी का साम्राज्य विस्तार करने वाले कलाकारों की सुधि ही न रखी जाय। यह कहाँ का न्याय है ? जबकि आज भी सारे विश्व में यही हिंदी के नाम पर सर्वमान्य और प्रसिद्ध हैं । हिंदी को वैश्विक सिर्फ शाब्दिक ही नहीं बना रहे हैं या नहीं बना सकते, इसमें लोकगायकों, लोकनर्तकों, तकनीक सृजनकर्ताओं, शोधकर्ताओं आदि को भी याद किया जाना चाहिए जो अनेक माध्यमों से हिंदी को संसार भर में पहुँचा रहे हैं । हाँ, यह बात अलग है कि इसका जिक्र इस वेबसाइट में नहीं किया गया है और सभी बातों को जिक्र किया जाना वहाँ सम्भव भी नहीं है ।
यूँ तो इस वेबसाइट की सारी बातें पारदर्शी हैं पर जो नहीं हैं उसे लेकर विश्व भर में फैले हिंदी सेवियों के मन में कोई प्रश्न उठे तो उसका कोई जबाब यहाँ नहीं है । माना कि हिंदी को विश्व भाषा का दर्जा दिलाने के लिए व्यक्तिगत तौर पर हिंदी सेवी भी उत्तरदायी हैं और उनका विमर्श-सम्मेलन में स्वतःस्फूर्त होकर पहुँचना भी लाजिमी हो सकता है किन्तु क्या ऐसे लोगों तक ऐसी सूचना पहुँचाने का कोई व्यवहारिक प्रयास किया गया ? शायद नहीं। खासकर उन दूरदराज के हिंदी सेवियों, साहित्यकारों को इस आयोजन की कोई सूचना नहीं है जो संसाधन से लैश शहर से दूर किसी गाँव-कस्बों में बसते हैं और हिंदी के विकास में तिकड़मी साहित्यकारों से कहीं अधिक योगदान भी दे रहे हैं । कुल मिलाकर यह महानगरों के हिंदी विशेषज्ञों(?) और लखपति हिंदी सेवियों को न्यूयार्क में अधकचरा विमर्श करने या फिर बिना अवसर जाने करतल ध्वनि करने का त्यौहार जैसा लगता है ।
भारत सरकार को यदि छोड़ भी दें तो अमेरिका के आयोजकों, हिंदी सेवी संगठनों, हिंदी प्रेमी धनबली-प्रवासी भारतीयों में से किसी को भी हिंदी संस्कृति का मुख्य लक्षण यानी अतिथि देवो भवः का मूलमंत्र याद नहीं आ सका । यदि ऐसा होता तो वे कम से कम घर फूँक कर न्यूयार्क पहुँचने वाले दीवाने साहित्यकारों के सिर छुपाने के लिए कोई निःशुल्क छत जरूर ढूँढ लेते । तीन दिनों के दाना-पानी का पैसा भी पंजीयन के नाम पर पहले नहीं मांग लिया जाता । यानी कि प्रतिभागियों से भोजन पानी का पैसा भी वे बटोर चुके हैं । ऐसे में आम हिंदीभाषी कैसे विश्वास कर लें कि विदेशों में हिंदी के प्रति दीवानगी है, वहाँ हिंदी शिक्षण के प्रति आग्रह है, वे भी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में हिंदी को देखने में उत्सुक हैं ? हम मानते हैं कि वे भी हमसे पूछ सकते हैं कि क्या उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन का सारा खर्च करने का ठेका ले रखा है तो फिर प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों हिदीं के वास्तविक सेवक जो मूलतः मध्यम वित्तीय वाले होते हैं वहाँ गिरवी रखकर जायें । तर्क तो यह भी दिया जा सकता है कि आखिर किसने कहा कि ये वहाँ जायें ? तो भी साफ-साफ यह अर्थ निकलता है कि वहाँ विमर्श या चिंतन नहीं होना है । केवल मेला लगना है और मेले में वही घूमने जाता है जिसके पास पेट-पाट के बाद कुछ बच जाता है ।
ऐसे मौकों पर हिंदी सेवी मन सशंकित हो तो क्या यह अतिरिक्त है या एकतरफा ही है कि क्या ऐसे आयोजनों या आयोजकों के बल पर विश्व मानव परिवार की भावना सुदृढ़ हो सकेगी ? राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी की उपलब्धि पर सार्थक चर्चा संभव है ? विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना कब तक हो सकेगी ? विश्व भाषा हिदीं के उत्थान हेतु सचिवालय की स्थापना कैसे होगी ? विभिन्न देशों में हिंदी पीठों की स्थापना कौन करेगा ? विश्वव्यापी भारतवंशियों से हिंदी को संपर्क भाषा बनाने का अनुरोध कौन करेगा और उसे कौन मानेगा ? विभिन्न स्तरों पर हिंदी पठन-पाठन की व्यवस्था किसके बल पर होगी ? हिंदी के वैश्विक प्रचार-प्रसार, अनुप्रयोग तथा प्रयोजनों पर अनुसंधान करने कौन आगे आयेगा ? आदि-आदि। जो भी हो, यह सम्मेलन कोई विश्व उत्सव न बन जाये इस पर निगरानी जरुरी है। व्यक्तिगत तौर पर और आयोजकीय नैतिकता से भी ।
क्या इस 8 वे विश्व हिंदी सम्मेलन से उसके मूल उद्देश्यों यानी कि - अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिंदी की भूमिका को उजागर करना,विभिन्न देशों में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी के शिक्षण की स्थिति का आकलन करना और सुधार लाने के तौर-तरीकों का सुझाव देना, हिंदी भाषा और साहित्य में विदेशी विद्वानों के योगदान को मान्यता प्रदान करना, प्रवासी भारतीयों के बीच अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में हिंदी का विकास करना, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास और संचार के क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देना और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिंदी का विकास आदि की लेकर हो रहे वैश्विक आयोजन की सफलता संदिग्ध नहीं हो गई है ?
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12 comments:
आपने सही लिखा है.
कुछ ऐसे ही भावों युक्त टिप्पणी - हि्दी थिसॉरस के रचयिता श्री अरविंद जी ने भी फुरसतिया जी के एक चिट्ठे पर की थी.
बहुत खूब मानस जी!!
कड़वा सच ही लिखा है आपने!!
मानस जी
यह हिंदी जाति का चरित्र चित्रण उचित ही है किंतु असल में जो बॊयकॊट कर रहे हैं वे भी कोई दूध से धुले नहीं हैं,उन लोगों ने भी हिंदी का खूब चीरहरण किया है। सच यह है कि जब जिसका बस चले वह जैसा चाहे लाभ उठाने की ताक में रह्ता है। अत: दोनों ही ओर लूट मची है। इन तथाकथित आज के विरोधियों ने ही कौन सा भला कर दिया?असल काम करने वाले न इनका साथ देते रहे हैं ना उनका।
एक का विरोध करने का अर्थ है दूसरे का पक्ष लेना।
अत; ऐसे लोगों की ही सेवा से हिंदी फलेगी-फूलेगी जो सदा निर्लिप्त रहे।अपने लाभ के लिए गधे को भी प्रणाम कर लेने वाले दलों में बँटे दीखते तो हैं पर वह भी पूरा सत्य नहीं है।असल में ये सभी वही लोग हैं जो किसी न किसी प्रकार से लाभ उठाने की ताक में रहते हैं। अब जब जिसका बस चले वह पा जाता है ,बाकी माहिर हैं इस खेल में भी कि कैसे निर्लिप्तों की भी सहानुभूती बटोर ली जाए और चर्चा में रहा जाए,सच का पक्षधर बनने की नौटंकी कर के। अत; लब्बो लुआब यह कि इस आयोजन में लाभान्वित होने वाले और रह गये बड़े नामधारी आदि सभी प्रभुतासम्पन्न एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। हमें किसी के भी नाटक के बहकावे में नहीं आना है।
अपने आलेख के लिए बधाई लें।
~~डॊ. कविता वाचक्नवी (http://360.yahoo.com/kvachaknavee)
मानस जी शत-शत अभिनन्दन,
जो आपने एक कड़वे सच को उजागर किया. बड़े शर्म की बात है कि आज हमे हिन्दी को बड़ाने, बचाने के लिये एक सम्मेलन का अयोजन करना पड़ रहा है और वह भी एक एसे गैर हिन्दी भाषी राष्ट्र में जो कि हिन्दी भाषा तथा हिन्दी भाषाईयों से नफरत करता है. मैं इस सम्मेलन के आयोजकों से जानना चाहूँगा कि यह सम्मेलन उस भारत भूमि पर क्यों नहीं किया गया जिसके करोड़ों वासी उसे सलाम करते हैं. अगर यही सम्मेलन आज भारत में होता तो भारत तथा हिन्दी दोनों ही गौरान्वित होते किन्तु नोकर-शाही तथा चापलूसों के चलते यह सम्भव न हुआ क्योंकि उन्हें अपने वायोडाटा में अमेरिका रिटर्न जो लिखना था. हम उस देश से हिन्दी के विकास के लिये क्या उम्मीद करें जिसने भारत के उस युवा प्रतिभाशाली वैज्ञानिक श्री जगदीप डांगी का वीजा निरस्त कर दिया जिसने हिन्दी भाषा को तकनीकि में नये आयाम के साथ एक गौरव पूर्ण स्थिति में ला खड़ा किया है. इसमें कोई अनोखापन नहीं है यह स्वाभिमानी युवा पहले से ही भारत सरकार द्वारा सताया गया और अब अमेरिकन एम्बैसी द्वारा.
आज अगर आपके पास अच्छी एप्रोच, पैसा के साथ साथ अच्छी चापलूसी प्रवृत्ती है तो आप सरकारी खर्चे पर एसे सम्मेलनों में आसानी से जा सकते हैं. वास्तविक्ता में हिन्दी के प्रति समर्पित व्यक्तित्व तो कहीं किसी कोने में पड़े रहकर हिन्दी राग अलाप रहे होंगे. अगर भारत सरकार द्वारा भेजे गये प्रतिनिधियों के बारे में विस्तृत अध्ययन किया जाये तो उनके हिन्दी के प्रति योगदान एवं कार्य का दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा.
खैर भगवान बचाये हिन्दी को इन भारत सरकार द्वारा मनोनीत प्रतिनिधियों के अमूल्य योगदान से.
मानस जी शत-शत अभिनन्दन,
जो आपने एक कड़वे सच को उजागर किया. बड़े शर्म की बात है कि आज हमे हिन्दी को बड़ाने, बचाने के लिये एक सम्मेलन का अयोजन करना पड़ रहा है और वह भी एक एसे गैर हिन्दी भाषी राष्ट्र में जो कि हिन्दी भाषा तथा हिन्दी भाषाईयों से नफरत करता है. मैं इस सम्मेलन के आयोजकों से जानना चाहूँगा कि यह सम्मेलन उस भारत भूमि पर क्यों नहीं किया गया जिसके करोड़ों वासी उसे सलाम करते हैं. अगर यही सम्मेलन आज भारत में होता तो भारत तथा हिन्दी दोनों ही गौरान्वित होते किन्तु नोकर-शाही तथा चापलूसों के चलते यह सम्भव न हुआ क्योंकि उन्हें अपने वायोडाटा में अमेरिका रिटर्न जो लिखना था. हम उस देश से हिन्दी के विकास के लिये क्या उम्मीद करें जिसने भारत के उस युवा प्रतिभाशाली वैज्ञानिक श्री जगदीप डांगी का वीजा निरस्त कर दिया जिसने हिन्दी भाषा को तकनीकि में नये आयाम के साथ एक गौरव पूर्ण स्थिति में ला खड़ा किया है. इसमें कोई अनोखापन नहीं है यह स्वाभिमानी युवा पहले से ही भारत सरकार द्वारा सताया गया और अब अमेरिकन एम्बैसी द्वारा.
आज अगर आपके पास अच्छी एप्रोच, पैसा के साथ साथ अच्छी चापलूसी प्रवृत्ती है तो आप सरकारी खर्चे पर एसे सम्मेलनों में आसानी से जा सकते हैं. वास्तविक्ता में हिन्दी के प्रति समर्पित व्यक्तित्व तो कहीं किसी कोने में पड़े रहकर हिन्दी राग अलाप रहे होंगे. अगर भारत सरकार द्वारा भेजे गये प्रतिनिधियों के बारे में विस्तृत अध्ययन किया जाये तो उनके हिन्दी के प्रति योगदान एवं कार्य का दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा.
खैर भगवान बचाये हिन्दी को इन भारत सरकार द्वारा मनोनीत प्रतिनिधियों के अमूल्य योगदान से.
thnak you jaipraksh ji
you have done a very good job by raising this issue.jagdeep dangi is the the live example of victim of corruption. he is a very telented guy and a very deteminstic guy. inspite of his phyiscal problems he has done a job which should be appreciated. in stead of appreciation what he get. only problems. if indian bureucrats and the politician will working like this way, there will be no place of talent in india. nice jagdeep dangi, don't be discourage, keep it up. one day these bloody people will ashamed on their doing. may god help you and encourage you
आपका ये आलोचनात्मक लेख अपनी तरह से प्रशंसनीय है। मगर क्या होता आज जो आपको सरकार वीसा दे देती? क्या फिर भी ये लेख यहाँ होता? क्या आप शुरु से ही इस सम्मेलन का बाय काट कर रहे हैं? आना तो आप भी चाहते थे।
आप (यानी कि anonymous के रूप में जो भी हों)100 प्रतिशतः गलत कह रहे हैं कि मैं इस सम्मेलन का बायकाट कर रहा हूँ । यह बायकाट नहीं वस्तुस्थिति का जायजा लेना है । आप को किसने कह दिया कि मुझे सरकार ने वीसा नहीं दिया । भोले मानस, मुझे 10 साल का वीसा मिल चुका है । बोलें तो मेरा पासपोर्ट की कापी भेज दूँ । आपको यह भी कहाँ पता है कि मैंने यह बात विदेश मंत्रालय जाकर भी दिल्ली में अधिकारियों के समक्ष उठायी है । 24-25 जून 2007 को । उप सचिव के समक्ष । श्री अनिल शर्मा के समक्ष । समिति के प्रमुखों में से एक श्री रत्नाकर पांडेय जी के समक्ष, समिति के कार्यों से जुड़े श्री बालेंदू जी के समक्ष, हमारे क्षेत्र के वर्तमान सांसद और पूर्व सूचना मंत्री श्री रमेश वैस से दिल्ली में मिलकर भी मैंने यह बात पहुँचायी है जिसे सुधार किया जाना चाहिए था । कोई इतना मूर्ख नहीं हो सकता कि किसी चीज का शुरू से ही विरोध करे । बातें स्पष्ट होती हैं । होती जाती हैं उसकी कमियाँ भी उजागर होती जाती हैं और कमियों को उजागर करना बायकाट करना कदापि नहीं होता । हिंदी से प्रेम करने वाला, हिंदी के लिए दिन-रात लगा रहने वाला वह हर कोई ऐसे ऐतिहासिक सम्मेलनों का गवाह बनना चाहता है । यदि आपको अपनी दिव्य-चक्षुता से यह ज्ञात हो तो बतायें कि कौन शुरू से ही इस सम्मेलन का बायकाट कर रहा है ? और हाँ, कहीं जाने का मतलब उसकी प्रशंसा करना ही नहीं होता है । आप अपने मन से गलतफ़हमी इसी क्षण निकाल दें । आपको यह भी बता दूँ कि हमसे यानी कि www.srijangatha.com के संपादकीय परिवार के तीन सदस्य श्री गिरीश पंकज, डॉ. जे.आर.सोनी और डॉ. सुधीर शर्मा सम्मेलन में मौजूद हैं । जो और सारी कमजोरियों के साथ अच्छाईयों पर नज़र रखे हुए हैं ।
मैंने तो विडंबनाओं की ओर इशारा कर दिया बिंदास होकर पर आप क्यों अपना नाम छुपाना चाहते हैं । मित्रवर, सामने आकर बात करें । इसका क्या मतलब है ?
आपको यह भी कहाँ पता कि मेरे जैसे एक हिंदी पाठक ने ही नहीं बल्कि कई विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन से जुड़े प्रमुख सदस्य और वर्तमान सम्मेलन के आयोजन समिति से जुड़े श्री नारायण शर्मा ने भी इस आयोजन की कमजोरियों, हरकतों की ओर इशारा किया है । पढ़ना चाहते हैं तो दिल्ली से प्रकाशित साहित्य-अमृत के जुलाई2007, के पृष्ठ क्रमांक 10-16 का वाचन कर लें । वैसे आपका इसमें कोई दोष नहीं । आप तक यह पत्रिका अभी कहाँ पहुँची होगी । आपके अनुसार तो उन्हें भी वहां नहीं आना चाहिए । और तो और साहित्य-अमृत के संपादक श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को भी वहां नहीं जाना चाहिए । मित्रवर, शायद आपकी व्यक्तिगत शिकायत दूर हो चुकी होगी अब । और नहीं भी होगी तो मैं भला आपका क्या बिगाड़ सकता हूँ ।
स्पष्ट हो लें । मेरे जाने से और इस लेख से कोई अंतरसंबंध नहीं है । लौटकर आने पर और भी बातें जुड़ जाती ।
पर आपको किसने बता दिया कि मैं वहाँ नहीं हूँ ? इसका मतलब है कि आप जानबूझकर अपना नाम छुपा रहे हैं । मित्र सामने आइये ना ।
Kya baat hai aajkal prabha sakshi par har jagah Balendu sharma hi chaye hue hain aur aaj according to Prabha Sakshi Balendu Sharma Hindi ke Mahapurush ban gaye hain.
Manas Ji Bahut Bahut Dhanybad,
Aapne to anonymous ki bolti hi band kar di. Bachcha soch raha hoga ki samne bala anari hai kintu aapka reply padkar use chhathi ka doodh yaad aa gaya hoga. Aur definately voh apne bap ko yaad kar raha hoga aur kah raha hoga ki kis khalife se pqnga le liya.
Main us anonymous bande se is mail ke maadyam se kahana chahoonga ki agar usame himmat hai to voh samne aaye aur apna name open kar aapke reply ka answer de anytha voh chullu bhar paani main doob mare voh bhi gatter ke panee main.
कृपया इस वेबसाइट का अवलोकन करें
पत्रकारिता के कटु अनुभवों से त्रस्त होने के बाद स्वयं यह वेबसाइट विकसित की है. वेब डेवलपिंग से मेरा कोई नाता नहीं है. चाहता हूं कि इस प्रयास की समीक्षा की जाए. 17 साल से पत्रकारिता के पेशे में हूं अब स्थायित्व की तलाश है.
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धन्यवाद
संजय करीर, सागर मप्र
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