।। लिखने का मतलब होता है समय को रचना ।।
0समीक्षक- जयप्रकाश मानस
शुरु-शरु में ललित निबंध को स्वतंत्र विधा मानने पर काफी कोहराम मचा था। कुछ इसे निबंध का एक प्रकार या शैली मात्र घोषित करने पर तुले हुए थे तो कुछ इसे ‘विधाओं की खिचड़ी’ जैसी उलाहना देकर इसकी सांस्कृतिक सत्ता को ही नकारने के लिए ऐंड़ी-चोटी एक कर रक्खे थे । बाँये चलने वालों को इसकी जातीय प्रकृति पर ही आपत्ति थी। उन्हें यह हिन्दी नहीं बल्कि हिन्दू की विधा दिखाई देती थी। कई नामवरों द्वारा इसे ‘गद्यगीत’ करार देते हुए मुत्युभोज तक परोसने का उपक्रम भी रचा जा रहा था। ‘हंस’ पर सवार सरस्वती-पुत्रों ने ललित निबंधों को ‘नास्टेलजिक लोगों की रचना’ कह कर अपनी छद्म प्रगतिशीलता का परिचय देना शुरू कर दिया था । अब जबकी ललित निबंध की अस्मिता को हिन्दी की दुनिया में पूर्ण स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उसे एक स्वतंत्र विधा के रुप में स्वयं लोकमानस भी मान्यता दे चुका है । इतना ही नहीं स्वयं कभी प्रतिवादी रहे लेखक-समीक्षक भी आत्मसमर्पण करते हुए अपनी रचना को ललित निबंध, रम्य रचना, या व्यक्तिव्यंजक निबंध जैसे शीर्षक से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने में कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं। समग्रत: कहें तो हिन्दी में “ललित निबंध की सात्विक सत्ता’’ प्रतिष्ठित हो चुकी है, ऐसे उत्सवी माहौल में डॉ. शोभाकांत झा को छत्तीसगढ़ का प्रथम पूर्णकालिक ललित निबंधकार कहना अनुचित न होगा ।
कहने को तो बेशक आपत्ति की आँधी खड़ी की जा सकती है कि छत्तीसगढ़ से ही पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे प्रभृति निबंधकारों को यहाँ भुलाने का खेल खेला जा रहा है। हम स्वनामधन्य आलोचकों-इतिहासकारों को याद दिलाना चाहते कि उन्होंने या उनके जैसे अन्य निबंधकारों ने न कभी स्वयं को ललितनिबंधकार की छवि में देखा और न ही अपने निबंधों को ‘ललित निबंध’ कहा। यह दीगर बात है कि उनके यहाँ भी लालित्य की मोतियाँ भाषा, भाव, या शिल्प के स्तर पर यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। पर मात्र लालित्य के दो-चार शेड्स देखकर ही किसी को ललित निबंधकार तो नहीं कहा जा सकता है।वे निबंधकार जरूर हो सकते हैं । वे भावात्मक निबंधों के श्रेष्ठ निबंधकार भी कहे जा सकते हैं ।
कम-से-कम शोभाकांत झा जैसी जिद्दी एवं विधागत प्रतिबद्धता पुरानी पीढ़ी के कम लेखकों में दिखता है जो अल्पसंख्यक एवं अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत विधा का भी दामन तीन-चार दशकों तक थामे रखते हैं। अब तक डॉ.शोभाकांत झा के पाँच ललित निबंध संग्रह आ चुके हैं। मेरा उद्देश्य यहाँ ललित निबंधकारों का इतिहास-क्रम रेखांकित करना नहीं है फिर भी ऐसे दौर में, जब हम साहित्यकार पलक झपकते ही चकाचौंध की शीतल छाया में जा बिलमने के लिए सबंधित विधा का इतिहास लेखन प्रायोजित करने के विश्वासी हो चुके हैं या फिर हर विधा में अपना भाग्य आजमा रहें हैं; वह भी परिणामात्मक क्रियाशीलता की उपेक्षा एवं परिमाणात्मक क्रियाशीलता की अपेक्षा भाव लिये, ललित निबंध का प्रतिष्ठा अभियान के विनम्रशील योद्धाओं में एक डॉ.झा के मौन-योगदान को रेखांकित करना प्रासंगिक है । वह भी ठीक उस समय जब स्वयं ललित निबंधकार अपनी पाँचवी किताब पाठकों को सौंपने के समय अपनी सदाशयता को नहीं भूलता –
‘क्या हुआ कि कोई टुटपुँजिया लेखक है, आखिर अपने स्तर पर वह भी तो सारी शिद्दत से उठाता है । अपना भी अनुभव कोई अलग नहीं है । मीठे-खट्टे अहसास विश्वास बढ़ाते रहते हैं ।’
अपनी उम्र के दूसरे दौर से ललित निबंध विधा में अपने को अभिव्यक्त करने की साधना में प्रवेश करने वाले डॉ. झा चौथे दौर में जाकर जब अपने निबंध ‘होने का अर्थ’ में कहते होते हैं कि-
‘अपनी चेतना के प्रति उत्तरदायी होना ही नैतिक होना है, मनुष्य होना है, सृजनात्मकता को संभावनाओं की हद तक ले जाना है’
तो वे एक गंभीर लेखक होने को चरितार्थ करते हुए कदाचित् यह भी संकेतित करते होते हैं कि लेखक को भी अपनी चेतना के अनुकूल माध्यम या विधा के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए । विधा के प्रति निष्ठा का अभाव एक प्रकार से लेखक का पलायन है । सिर्फ भाव या अभिव्यक्ति-कौशल्य ही लेखक की प्रसिद्धि का सबक नहीं होता, विधा भी वह महत्वपूर्ण सांचा है जिसमें लेखक के शब्द अपने सबसे आकर्षक अर्थ के साथ रूपायित होते हैं । जटिल से जटिल भावों को आकार मिल जाता है । कहीं कोने में दुबका बैठा रस अपने सर्जक के हाथों चरम गति तक लोक-आनंद के लिए व्यक्त होने मचल-मचल उठता है । विधा को माध्यम या साधन मात्र समझने वाले आम लेखक ही उसके प्रति मोहभंग का शिकार हो जाया करते हैं । इसे क्या उस तरह का स्वार्थ न कहा जाय, जिस तरह अत्याधुनिक शहरी युवा प्रेमी अपनी प्रेयसी को रिझाने के लिए नित नये-नये वस्त्रों की फिराक में रहता है ।
यह दुर्भाग्य ही है कि हिन्दी की अनेक विधाओं यथा- रेखाचित्र, यात्रा-संस्मरण, रिपोतार्ज आदि महत्वपूर्ण विधाओं की समृद्धि लेखक की संपूर्ण विधाकेंद्रित आस्था के अभाव के कारण ही बाधित होती रही है। यह सुखद है कि ललित निबंध के प्रसंग में शायद ऐसा नहीं हुआ । जिन्होंने भी ललित निबंध को अपनी रचनात्मकता की प्रतिष्ठा का माध्यम बनाया उन्होंने विधा की रचनात्मकता की प्रतिष्ठा के लिए भी अपने संकल्प को निभाया है । इस निबाह में हजारी प्रसाद द्विवेदी, पं. विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, विवेकी राय, रामवृक्ष बेनीपुरी, अज्ञेय, श्रीकृष्णबिहारी मिश्र, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, धर्मवीर भारती, श्री रमेशचन्द्र शाह, डॉ. रामदरश मिश्र डॉ. युगेश्वर के बाद की परम्परा में डॉ. श्रीराम परिहार, श्री श्यामसुंदर दुबे, अष्टभुजा शुक्ल, महेश अनघ, कन्हैयालाल नंदन, श्रीकृष्णकुमार त्रिवेदी, नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के साथ-साथ अपने छत्तीसगढ़ से शोभाकांत की उपस्थिति भी देखी जा सकती है ।
शोभाकांत के निबंध संसार से गुजरना प्रकारांतर से अपनी सांस्कृतिक धरातल से विमुख और वायवी आकाश की ओर उड़ते मनुष्य की एक बार फिर से वापसी की रचनात्मक जद्दोजहद से गुजरना है । मन की जड़ताओँ को धो-पोंछ कर फिर से उस उमंग से जुड़ना है जो सनातन है, जो किसी भी प्रकार के कलुषता से मुक्त है । दरअसल यही ललित निबंध की गति है । इस गति को डॉ. शोभाकांत बखुबी चीन्हते हैं कि इस गति में ही मानवीय गरिमा का बोध है । इस गति में ही मनुष्य के होने का अर्थ है । यह जीवन की सहज गति है । सहजता ही जीवन की गति है । इसी सहजता का छंद आज से 600 वर्ष पूर्व कबीर भी गली-गली गाते-फिरते थे । एक निबंधकार अपने चार-चार संकलनों में चीजों, घटनाओं, परंपराओं, परिस्थितियों, जड़ताओं की पड़ताल तुलसी की दृष्टि से करता रहा है अचानक जब कबीर और कृष्ण के अंदाज के आसपास खड़ा दिखाई देता है तो इसमें उसका अनुभव विस्तार एवं स्पष्टता, वयस् प्रेरित आलोचकीय दृष्टि भी मुखरित होने लगती है ।
पिछले संग्रहों की अपेक्षा आलोच्य संग्रह में वे सांस्कृतिक एवं जीवन मूल्यों को उसके यथार्थ एवं साम्प्रतिक जटिल संघर्षों के बीच तटस्थ मूल्याँकन की भाषा में रखते हैं । यहाँ भारतीयता को उसकी शास्त्रीयता और लोक के मध्य फिर से स्थापित करने का भी तरल आग्रह है । तरल इसलिए कि निबंधकार भावुकता के शिखर पर चढ़कर भी भावी समय को बुद्धि के धरातल से देखना नहीं भूलता । जहाँ वह वर्तमान को एकबारगी नहीं नकारता वहाँ वह उसकी ठोस एवं उज्ज्वल पृष्ठभूमि को भी कहाँ बिसारना चाहता है ।
लोक-मन स्मृति का दूसरा नाम होता है । लोक वर्तमान को पूरी शिद्दत के साथ देखता-समझता है, आत्मसात करता है किन्तु अतीत के आलोक के साथ परखते हुए ही । इसलिए लोक में विद्यमान वैचारिक गत्यात्मकता ही उसकी अविरल यात्रा और चिरंजीविता का रहस्य है । लोक जिसे हम पिछले समय की चीज कह देते हैं । ऐसे वक्त हमारे जेहन में लोक के बासीपन का ही बिम्ब उभरता रहता है। दरअसल यह हमारी दृष्टिहीनता एवं आधुनिकता के प्रति अंधश्रद्धा का परिणाम है। सच तो यह है कि जिसे हम आधुनिक या उत्तरआधुनिक समय कहे जा रहे हैं वह लोक से परे नहीं है । लोक से परे कुछ भी नहीं होता । जो लोक में नहीं होता वह परलोक में होता है । समय या काल की हर इकाई में लोक ही विन्यस्त होता है । लोक हर समय अपने वर्तमान में व्याख्यायित होता है । लोक को अतीत कहना नासमझी है । लोक वर्तमान तो है ही आगत भी है । अब यह दीगर बात है कि आगत के किसी क्षण या इकाई में लोक का हिस्सा कितना होगा पर अंततः वह भी तो एक लोक ही होगा । ललित निबंधकार को जब लोक-आग्रही कहा जाता है तो उसका अर्थ ऐसा या ऐसा कुछ ही होता है । ललित निबंधकार श्री झा इस मायने में भी संपूर्णतः सतर्क हैं । इसलिए कृति ‘लिखने का मतलब’ को निबंधकार की पिछली कृतियों से आगे की कड़ी कह सकते हैं ।
विवेचित किताब में कुल मिलाकर 4-5 गोत्र की रम्य रचनाएँ हैं-
01.जीवनमूल्य आधृत- इस कोटि में अब भी, होने का अर्थ, नेह न बिषय विकार, फिर भी, सेवा धर्म, राजनीति और धर्म, व्यक्ति, झूठ और सच, अंतस संवाद, अपने पर हँसना, और अभाव का भाव को रख सकते हैं ।
02. भारतीय संस्कृति, परंपरा एवं अध्यात्म की विवेचना- क्षण-क्षण जीनेवाले कर्मयोगी कृष्ण, सर्वमंगल्ये मांगल्ये, सावन में कामर, तीरथराज प्रयाग में कुंभ, छत्तीसगढ़ की संस्कृति गंगा, भागवत के प्रश्न, अपवित्रो पवित्रो वा, तन्नो हनुमान प्रचोदयात, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात आदि
03. साहित्यिक कर्म, ग्रंथ और ग्रंथकार केन्द्रित- पश्य देवस्य काव्यम, कालिदास की सौंदर्य सृष्टि और प्रेम दृष्टि, पुनर्मूल्याँकन और विद्यापति
04. प्रकृति सौंदर्य – हरसिंगार और आषाढस्य प्रथम दिवसे
जैसा कि मैं अभी-अभी कह चुका हूँ कि इन ललित निबंधों का मूल स्वर संस्कृति का मूल्यांकन सह स्थापन है । लेकिन इसे अतीत राग जैसे कुछ उदासीन विशेषण देकर हाशिए में नहीं डाला जा सकता है । यदि भूलकर कोई पाठक ऐसा देखना भी चाह ले तो उसे निबंधकार की यह पंक्तियाँ बरबस रोक लेती हैं- ‘कुछ बातों को भूल जाना जरूरी है । आकुल, अशांत, अनपेक्षित और अशुभ परिणामी बातों को भूल जाना न केवल व्यक्ति के लिए बेहत्तर है, अपितु समष्टि के लिए भी । मन यदि कम्प्युटर है, तो उसे कचड़े और काँटे जैसे वायरसधर्मी बातों से बचायें ।’ वे कचड़े और काँटे जैसे जाने-पहचाने बिम्बों के माध्यम से मन को हर अटैक से बचाने ताकीद कराते चलते हैं ।
शोभाकांत जी की अधिकांश रचनाओं में स्थानीयता और स्थानीय बोध से सभी अभिकल्पों को ख़ारिज करने को उद्यत 21 वीं सदी के नये मनुष्य के लिए एक आगाह भी है। एक आग्रह भी कि प्रकृति और शाश्वत का नकार ही आधुनिकता नहीं है । विकास नहीं है । उत्थान तो कतई नहीं । आप भी सुनिए उनकी जुबां से –
‘वैश्वीकरण का असली तात्पर्य ‘स्व’ को विश्व बनाना है न कि विश्व को ‘स्व’ के लिए इस्तेमाल करना है । स्व की सीमा का इतना विस्तार करना है कि अन्य अपना बन जाय । अन्य के होने में अपना होना शामिल हो जाय । प्रत्येक के होने में अपना सहकार भी दर्ज न हो, तो विरोध तो कतई न हो ।’
ललित निबंध विधा का चरम सरोकार ‘भारतीयता की तलाश’ है । ‘भारतीयता’ यानी जड़ों के साथ पल्लवन-पुष्पन । यहाँ भारतीयता का अर्थ उस जातीय जीवन पद्दति से है जहाँ सभी संस्कृतियों के सार का समर्थन भी है । यह संकुचन नहीं हमारा विस्तारण है । यहाँ जब हम ‘भारतीयता’ शब्द पर विशेष जोर देते हैं तो इसे भूगोल के मन से नहीं अपितु मन के संपूर्ण भूगोल तक विचरण करके ही जाना जा सकता है । जो इसकी अर्थच्छवि तक हबर जाता है वह बरबस ही बोल उठता है – पश्चिम में भौतिकी है पर भ्रांतियाँ भी । वहाँ तकनीक है पर तन के लिए । बाजार है पर बजरू, बिजौरी और बटकरा ही गायब है । गति है पर गंतव्य अस्पष्ट है । पश्चिम में सब कुछ है पर मनुष्य लापता है । पूर्वात्य तन नहीं मन का गमगमाता बाग है । यहाँ भले ही भूख और भय है पर भजन भी है। मन प्रकृत है इसलिए वह विकृत नहीं हो पाता । भारतीयता, जिसमें समूची मानव जाति के लिए हर काल में स्पेस रहा है, को तुलनात्मक रूप से विश्लेषित करते हुए शोभाकांत लिखते हैं – ‘वह दर्शन ही क्या जो आचरण का हिस्सा न बन पाये । वह विचार ही क्या जो कमोवेश आचार में शामिल न हो पाये । सर्वेभवन्तु सुखिनः कह देने मात्र से सभी सुखी नहीं हो जाते, जब तक सभी लोग सबके सुख का ख्याल न रखें, वैसा आचरण न करें । तभी तो भारतीय जन ग्रह-नक्षत्र, गगन-पवन, अग्नि-आकाश, पृथ्वी-पानी सबको देव स्वरूप मानकर उन्हें अपने सुख-दुख में शामिल करते हैं ।’ वे आगे भारतीय जीवन दर्शन को स्पष्ट करते हुए यह भी कहते हैं कि पूजा भाव अभारतीय दर्शन-संस्कृति की दृष्टि से पिछड़ापन का सबूत हो सकता है, पर सच्चाई तो यह है कि भारतीय दार्शनिक विचार-धारा से ओतप्रोत अभिव्यक्ति है । इसमें प्रकृति पुरूष के सहभाव से विकसित सृष्टि को उसके मूल भाव में समझा जा सकता है ।
डॉ.शोभाकांत की रम्य रचनाएं उस भारतीय मन की संकुल संस्कृति की सांस्कारिक अभिव्यक्ति हैं जहाँ राम और कृष्ण तथा रामायण और गीता-महाभारत को कभी भी नहीं बिसारा नहीं जाता । बिसारा जा ही नहीं सकता । शायद इसलिए उनकी रचनाओं में इनसे जुड़ी अनुप्रसंगों का एक अंतर्धारा सतत् प्रवहमान है । इस प्रवाह में जकड़ नहीं निष्कर्ष की पकड़ है ।
वैयक्तिक संस्पर्श को लालित्य की ज़मीन कहा गया है और भावों की उन्मुक्त उड़ान को उसका आकाश । झा जी के यहाँ लालित्य की ठोस ज़मीन भी है और अपनी नीलिमा से आकर्षित करता आकाश भी । व्यक्तित्व एवं शैली को इस नजरिए से पर्यायवाची भी मान सकते हैं । आत्मीयता वह तत्व है जिससे ललित निबंध की लोकप्रियता सिर चढ़ कर बोलती है । ललित निबंध की लेखक की चित्तवृत्ति की वह क्रीड़ास्थली है जहाँ वह अपनी आदतों तथा अभिरूचियो का खुलकर हवाला देता है । इससे रोचकता की संभावना तो बढ़ ही जाती है, लेखक का आचार-व्यवहार भी खुलकर अभिव्यक्त होता है जिससे पाठक भी अनुभूति के चरम क्षणों में लेखक से तादात्म्य स्थापित करने लगता है । ऐसे निबंधों के गंभीर पाठकों को इस बात का कदापि आभास नहीं होता कि किस समय निबंधकार की विचारधारा कहाँ और किस ओर मुड़ जाएगी । श्री झा के निबंधों में रस की एक ऐसी जादूई झील बह रही है, जहाँ पहुँचते ही पाठक तैरने को उद्यत लगता है । कभी वह विचारों की मोतियों को एकटक निहारने लगता है तो कभी वह व्यंग्य के घोंघों को बटोरने लगता है । इस झील में उसे सर्वत्र आत्मीय एवं रंग-बिरंगी मछलियाँ झिलमिलाती नज़र आती हैं ।
डॉ. झा की रचनाओं की सबसे खास चमक है - शास्त्रीय बतरस । साधारणतः शास्त्र और लोकाभिकेंद्रित अनुरंजन को परस्पर विरोधी ध्रुव मान लिया जाता है । और यह सच भी है कि कभी-कभी शास्त्रीय विवेचन या कथा प्रसंगों में बतरस-सी उमंग चाह कर भी नहीं उमड़ती पर वे अपनी शैली के चमत्कार से यह प्रवीणता भी सिद्ध करते हैं । संग्रह में शायद ही कोई निबंध ऐसा हो जहाँ शास्त्र ओझल हुआ हो । उनके मानस में पैठा पंड़ित कहीं शास्त्रीय कथा बाँचता है, कहीं शास्त्रीय छंद दोहराता है तो कहीं शास्त्रीय उद्धरणों से अपनी बात मनवाते चलता है । पर ऐसा भी नहीं कि वे लोक से बिलकुल परे जाकर किसी मठाधीश या उलेमा के बंधक शागिर्द प्रवचनकार की तरह अपने कथ्य को लादते जाते हैं । सच्चे अर्थों में शास्त्रीयता लोकाभिमुख होती है, क्योंकि वह भी लोक स्वीकृति से ही शास्त्रीय है । पं. विद्यानिवास जैसे मनीषी उनकी इस लोकोन्मुख शास्त्रीय वृति से खुश हो उठते हैं-
‘सबसे बड़ी बात जो उनमें (डॉ. शोभाकांत झा) में हैं, वह शास्त्र निष्ठा । निष्ठा का अर्थ केवल स्वीकृति नहीं है, शास्त्र का जो अभिप्राय है, तात्पर्य है, संदेश है, उसकी निरंतर नई-नई व्याख्या करते रहना तथा उसे नव दृष्टि सृष्टि से संवहित करते रहना । मेरी समझ में निष्ठा का यही अभिप्राय है और यही अर्थ ठीक भी है ।’
अक्षत सहजता ललित निबंधों की वह पहचान है, जिसमें रम्यता मुखरित होती है । झा साहब इस मामले में कुछ अंश तक ठिठके हुए जान पड़ते हैं । पर सर्वत्र नहीं । संगह में हम कहीं-कहीं पाते हैं कि पांडित्य प्रदर्शन का व्यामोह भी है । झा जी का बहुभाषिक ज्ञान उन्हें स्थापत्य और कथ्य के स्तर पर कारगर तो बनाता ही है उसे भाषिक लालित्य गढ़ने का सहज और विविध अवसर भी मुहैया कराता चलता है । लोकभाषा मैथिली, राजभाषा हिन्दी और ज्ञानभाषा संस्कृत के शब्द-संस्कार निबंधकार की रचनात्मक विश्वसनीयता को और अधिक संपुष्ट करते चलते हैं । कहा भी गया है कि लोकभाषा में रमे बिना ललितनिबंधकार हो जाना या तो कलाबाजी है या कृत्रिम कलात्मकता । लोकभाषा का प्रयोग मात्र पाठकीय आकर्षण का मंत्र नहीं वह सरसता और कथ्य की सरलता का उत्कर्ष भी है । दरअसल लोकभाषा का मतलब यहाँ भाषा का उसकी संपूर्ण अस्मिता के साथ प्रतिष्ठापन है । यह नहीं कि लोकभाषा में जो भी कह वह ललित ही होगा । ललित भाषा नहीं शैली भी है, दृष्टि भी है, अर्थ भी है, अर्थ के बाद की अनुभूति भी है । ऐसी अनुभूति जो पाठक को ललित भाव-संसार तक ले पहुँचाये । नया कहना मात्र ही ललित नहीं ।
नये का मतलब पुराने का विसर्जन नहीं होता । निबंधकार श्री झा ने भी कुछ पुरातन विषयों को नये सिरे से इस संग्रह में देखने का ललित प्रयास किया है । यह विषय चयन का संकट नहीं, एक तरह से श्रेष्ठ-पुरातन का पुनर्सृजन ही है । माँ तो दुनिया का सबसे पुराना शब्द है तो इसका मतलब नहीं कि हम नये सिरे से उसके लिए कुछ दूसरा शब्द ही ढूंढ़ लें । इस सबके बावजूद जैसा कि हिन्दी के महत्वपूर्ण ललित निबंधकार रमेशचन्द्र शाह और अष्टभुजा शुक्ल ने अपने पत्र में मुझे कभी लिखा था कि ललित निबंध के आकाश में कुछ नये तारों को उगाने का समय हिन्दी में अब आ चुका है । तो मैं भी लगभग सहमत हुआ जाता हूँ कि कहीं न कहीं ताजे और टटके विषयों की ओर हम ललित निबंधकारों का ध्यान जाना ही चाहिए अन्यथा आने वाले 50-100 सालों तक कहीं कोई हजारी प्रसाद द्विवेदी से कुछ ऊधार लेता दिखता रहेगा तो कहीं कोई विद्यानिवास मिश्र से या फिर कुबेरनाथ राय से । तो ऐसे में कैसे ललित निबंध का सफर पूर्ण होगा ? जब मैं ऐसा सोचता रहता हूँ तो कभी-कभी मुझे नर्मदा प्रसाद उपाध्याय याद आ जाते हैं ।
उनके बोल गूँजने लगते हैं—
'जब आदमी अधूरा, जीवन अधूरा, दुनिया अधूरी तो इन सब पर लिखे जाने वाले निबंध कैसे पूर्ण मान लिये जाएँ ? आधे बखरे खेत, खलिहान में आधी उड़ी और आधी बिन उड़ी फसलें, हरियाते दीखते लेकिन फलहीन वृक्ष, आधे वसंत पार कर यौवन की दहलीज़ पर खड़ी जोगिया परिधान पहने जोगन, बिन पतवार के मँझधार में डोलती अधूरी नाव, अधूरे पाँव, अधूरे गीत, अधूरी तान, अधूरे स्वर, अधूरा सफर, जहाँ देखूँ वहीं अधूरा तो फिर निबंध कैसे पूरा हो ?
(नदी तुम बोलती क्यों हो, पृष्ठ-102)
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समीक्षित कृति- लिखने का अर्थ
ललितनिबंधकार-डॉ. शोभाकांत झा
मूल्य-350 रुपये
प्रकाशक-कला प्रकाशन, बी. एच. यू. , वाराणासी-5
ISBN NO.-81-87566-67-1
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1 comment:
श्रमसाध्य और सारगर्भित समीक्षा के लिए बधाइयाँ!
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