Wednesday, March 08, 2006
किताब समीक्षा
लोक राग का पाठ
जयप्रकाश मानस के दूसरे काव्य संग्रह ‘होना ही चाहिए आँगन’ में संग्रहीत कविताएँ मनुष्य के राग को लोक के राग के साथ जोड़ती संस्कृति के नए आयाम ढूढ़ती हैं । अपनी जगह तलाशती हैं । भूमंडलीकरण से उत्पन्न बाज़ारवाद की विभीषिका के बीच अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं ओर सपनों का संसार ढूंढ़ती हैं । मनुष्य के आदिम राग को अभिव्यक्ति देती है, जहाँ से मनुष्य ने जीवन प्रारंभ किया और उससे अलग कहीं दूर जाकर पुनः उन स्मरणों में पहुँच जाना होता है :
‘गूँज रही है चिकारे की लोकधुन
पेड़ के आसपास अभी भी
छांह बाकी है
जंगली जड़ी-बूटियों की महक ’
निश्चित रूप से इसे नास्टेलजिया कहा जा सकता है परंतु यह एक बड़े अर्थ में खोयी हुई धरती में अपनी धरती की तलाळ है । वह धरती जो कवि की मूलतः अपनी धरती है, जो प्रकारांतर से सबकी होती एक अनूठे संसार की रचना करती है उसकी ताप को बचाए रखने की कोशिश करती है- ‘छेना आग को बचाए रखता है बहुत समय तक ’ इस संग्रह की कविताओं में घर, आंगन, मां, पिता, भाई, बहिन, सब हैं पर उनके दायरे हैं जो कहीं बंद होते जा रहे हैं । जब कभी बंद से हो जायें हम / आकाश को निहार कर खुल-खुल जाएँ ।
सच ये है कि ये कविताएँ लोक राग का पाठ हमें भी पढ़ाती हैं ।
..............0000...............
कृति: होना ही चाहिए आंगन
रचनाकार जयप्रकाश मानस
मूल्य 100 रुपए
प्रकाशक वैभव प्रकाशन, रायपुर
समीक्षक
नंदकिशोर तिवारी
संपादक, लोकाक्षर
विप्र सहकारी मुद्रणालय मर्यादित
कुदुदण्ड, बिलासपुर (छत्तीसगढ)
(कुछ दिन और प्रतीक्षा करें आप । इस संग्रह की सभी कविताएँ आप आनलाइन पढ सकेंगे ।)
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
गूँज रही है चिकारे की लोकधुन
पेड़ के आसपास अभी भी
छांह बाकी है
जंगली जड़ी-बूटियों की महक
बहुत सुंदर. आगे पढने की उत्कंठा है
इन चंद सुंदर पंक्तियों ने पूरी किताब पढने की प्यास जगा दी है....बधाई.
समीर लाल
होना ही चाहिये आंगन,
गूंजती लोक्धुन
और जंगली बूटे, पेड,
इन सब की महक्ती सुरभी,
होगी बंधी कविताओं मे,
जो सि मट गई होंगी आपकी पुस्त्क में,
बस प्र्तीक्शा कर रहा है
साहित्य का प्रांग्ण
ढूढ़्ते हुए आपकी कविताओं का आंगन.-रेणु आहूजा
Post a Comment