Wednesday, April 07, 2010

क्या प्रजातांत्रिक संवेदना का अंत हो चुका है



सुकमा के चिंतलनार जंगल में जो जवान बर्बरतापूर्वक मारे गये - शोषक नहीं थे, बुर्जुआ नहीं थे, पूँजीवादी नहीं थे । जानलेवा संकट की संपूर्ण संभावना के बाद भी जानबूझकर सीआरपीएफ की नौकरी में थे । ताकि देश में शांति और अमनचैन की निरंतरता बनी रहे । ताकि ख़ुशहाली का वातावरण बना रहे । ताकि आम आदमी अपनी गणतांत्रिक अधिकारों का उपयोग कर सके । उन्होंने बंदूक और बारूद की नौकरी का वरण इसलिए भी किया था ताकि उनके ग़रीब माँ-बाप की माली हालत सुधर सके । घर बैठी जवान बहनों के हाथों मेंहदी रच सके । रतौंदी से ग्रस्त बीमार बूढ़ी दादी का ईलाज हो सके । पूरे परिवार को दो वक़्त की रोटी नसीब हो सके। ये जवान कुछ दिन पहले तक जाने कहाँ-कहाँ किस किस आपदा से जूझ रहे थे पर कुछ दिन से वे आदिवासी जनता को आततायी माओवादियों से मुक्त करने के लिए बस्तर के जंगल-नदी-पहाड़ में भटकते-भटकते दिन-रात एक किये हुए थे । सच यही है कि अब इन 76 जवानों की केवल लाशें ही उनके घरों को लौटेगीं । वे कभी अपने गाँव नहीं लौट पायेंगे । और साबित हो चुका सबसे बड़ा सच अब यही है कि वे सारे के सारे हमारे प्रदेश के आदिवासी अंचलों में खो चुकी खुशहाली को बहाल करने के लिए कटिबद्ध थे। फिर भी, हम हैं कि, खून से लथपथ जवानों के चेहरे और उनके परिजनों के दुख पर आदतन मसखरी कर रहे हैं ।

यह हमारी कैसी संवेदना है कि इस महाहमले को भी स्थानीय मुद्दा मानकर व्यक्तिगत कुंठाओं के शिकार होकर तंत्र की मीनमेख निकाल रहे हैं। नागरिक सुरक्षा तंत्र से जुड़ी सुनी-सुनायी बातों पर चुटकियाँ लेकर उनके हौसलों को खंरोचने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं । कोई कहता है कि राज्य और नागरिक सुरक्षा तंत्र के प्रमुख को इस्तीफ़ा दे दिया जाना चाहिए । जैसे कहनेवाला बस्तर के खूंखार परिस्थितियों से पूरी तरह वाक़िफ़ हैं । जैसे वह छापामार युद्धकला में प्रवीण है । धन्य है ऐसी मानसिकता को जो अपने आँगन से फूल चोरी रोक नहीं सकता और पुलिस पर सारा दोष मढ़ देता है, वह एकाएक गुरिल्ला युद्ध की सफलता और असफलता के बारे में जान गँवाने वाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के नाम पर वाक्-वीर बनकर सामरिक टिप्पणी करने लगता है । जैसे मुख्यमंत्री, गृहमंत्री या डीपीजी ने ही इस महाहत्या की साजिश रची हो । जैसे उनकी किसी निजी चूक से इस कायराना वारदात का अवसर नक्सलियों को मिल गया हो । कोई नहीं कहता - प्रजातंत्र के इन हत्यारों से स्थायी रूप से निपटने के लिए उसे क्या त्याग करना चाहिए ? क्या संकल्प लेना चाहिए ? यह जागरूक नागरिक होने की भूमिका से बचकर औरों को कीचड़ उछालने जैसा हरक़त नहीं तो और क्या है ? यह अनपढ़ प्रादेशिक चेतना का प्रमाण नहीं तो और क्या है ? इधऱ पड़ोस में 76 जवान बेटे मारे जाते हैं और उधर बुद्धिजीवी किताबी दुनिया में सिर खपाये रात गुज़ार देते हैं । पढ़े लिखे, वकील और न्यायप्रिय लोग इस घटना के टीव्ही फुटेज़ देखने को ही अपना परम कर्तव्य मान लेते हैं । उद्योगपति, व्यापारी, अफ़सर, चिकित्सक, अध्यापक, इंजीनियर आदि नक्सली वारदात की दुखदायी सूचना का दर्द ठड़ी बीयर्स के गिलास टकराकर मिटा देते हैं । सारी दुनिया को अपने सिर पर उठा लेनेवाले मानवाधिकारवादी ऐसे मौक़े पर तो गायब ही हो जाते हैं । किसी की आँखों में आँसू नहीं छलकता । देश की सुरक्षा के लिए जान पर खेल जानेवाले शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए हम एक मौमबत्ती भी जुटाना उचित नहीं समझते । शायद इसलिए कि मारे जाने वाले शहरी नहीं है । शायद ऐसा होता तो हममें से कुछ शहरी आयोजक 9-11 की तरह राजधानी के लोगों को जोड़कर श्रद्धांजलि देने से पहले फोटोग्राफर को ज़रूर याद कर लेते । मरा तो गाँव का बेटा है ना । मरा भी वह दंतेवाड़ा के जंगल में थोड़े ना है । गाँव जंगल से हमें क्या लेना-देना ?

क्या इतने अंसवेदन हो गये हैं हम ? कहीं हम मृतक के भूगोल के हिसाब से अपनी सहानुभुति तय तो नहीं करने लगे हैं ? हममें से कोई प्रश्न नहीं करता - आख़िर इन कायराने हमलों से डेमोक्रेसी को बचाने में वह क्या योगदान दे सकता है ? क्या सारी कुर्बानी नौकरी पेशा वाले जवान ही देंगे ? क्या सारे समाज को सुरक्षित रखने की अंतिम भूमिका पुलिस, सेना और पैरामिलेट्री फोर्स का ही है ? यदि हम ऐसा सोचते हैं तो हम तदर्थवादी सोच के शिकार हो चुके हैं । हम असरकारी लोग अपने घरों में बैठे-बैठे कोला-कोला की चुस्की लेते रहें और सरकारी सिपाही हमारे दुश्मनों से लड़ते-लड़ते अपनी जान गँवाता रहे ? क्या हम अपने नागरिक बोध से पल्ला झाड़ चुके हैं ? दंतेवाड़ा का हमला, सिर्फ़ हमारी पुलिस और अर्धसैनिक बलों को हतोत्साहित करने का संकेत नहीं, यह समूची भारतीयता, व्यवस्था और नागरिकता पर हमला है । यह हमला छत्तीसगढ़ के नक्सलविरोधी अभियानों को चुनौती नहीं, बल्कि उस देश को नेस्तनाबूद करने नापाक इरादों का परिणाम है, जो एक सुपरिभाषित जंनतंत्र को बचाने के लिए जूझ रहा है । यह नक्सलियों का सिपाहियों से मुठभेड़ नहीं, माओवाद का जनतंत्र से मुठभेड है।

ऐसे संकटकालीन समय में होना तो यह चाहिए कि लोग अपने एसी रूम छोड़कर निकल पड़ते । कोई घायल सिपाही की सेवा के लिए उद्यत रहता तो कोई उनके घर बार के लोगों को ढ़ाढस बंधाने के लिए । हर किसी के चेहरे पर हिंसावादियों के ख़िलाफ़ एक आक्रोश होता, और छाती तनी हुई और गलियों में ख़ूनी इरादों से लड़ने का संकल्प गूँज उठता । सभी एक दिन की कमाई का कुछ अंश ऐसे शहीद जवान के परिजनों के लिए स्वेच्छा से भेजने को लालायित हो उठता । हर जवान के सीने में नक्सलवादियों के द्वारा जनता, जनआस्था, जनतंत्र के विरूद्ध झेड़े गये युद्ध के विरूद्ध एक नैतिक गुस्सा फूट पड़ता । और यह गुस्सा तब तक नहीं थमता जब तक ऐसे विध्वंसक तत्वों से छत्तीसगढ़ मुक्त नहीं हो जाता, सारे नक्सलप्रभावित राज्य मुक्त नहीं हो जाते । आख़िर ऐसा क्यों नहीं होता है ? क्या अब हमारा समाज अब ऐसा नहीं रहा ? क्या हम सारे के सारे माओवादी और नक्सलवादियों से सहमत हैं । क्या प्रजातांत्रिक संवेदना का अंत हो चुका है हमारे प्रदेश से । क्या हम ऐसे ही भारतीय नागरिक हैं ?


12 comments:

Anonymous said...

शोषक नहीं थे, बुर्जुआ नहीं थे, पूँजीवादी नहीं थे ???????????/आम इन्सान ही थे मगर इनका तैनात किया हुआ जनसाधारण के विरुद्ध चलने वाला हथिचार तो थे। मारे गये इसका दुख है मगर गलत ही सही पूँजीवाद के खिलाफ यह संघर्ष आने वाले समय में और घातक होता जाएगा ऐसा लगता है, अगर सत्ता ने परिस्थितिया सुधारने के लिए कुछ नहीं किया तो!

Sanjeet Tripathi said...

sach, aur sirf sach!

ramkrushna hospital me ghayal jawan vikalp se baat hui, uske pair nahi rahe. use is baat ka afsos hai ki vo kyn jinda bach gaya jab uske sathi mare gaye.....

Prakash said...

Bhaiya!
Bahut achha likha.......
Pata nahin desh/kam se kam rajya ke log kab jagenge......
aisa hi kuchh nandgaon SP ke samay bhi hua tha......

Alpana Verma said...

हर नागरिक अपन सामाजिक दायित्व समझे तभी हम में ये संवेदनाएं जीवित रह सकेंगी.
आज कल के हलातोंको देख कर यह ही लग रहा है कि प्रजातान्त्रिक संवेदनाओं का ह्रास हुआ है.

विचारणीय और मर्मस्पर्शी लेख .

Dhirendra Giri said...

sir mujhe lagta hai ki wakai me prajatantrik vyavastha sahi roop me pesh nahi ho paa rahi hai......

drsatyajitsahu.blogspot.in said...

जानलेवा संकट की संपूर्ण संभावना के बाद भी जानबूझकर सीआरपीएफ की नौकरी में थे । ताकि देश में शांति और अमनचैन की निरंतरता बनी रहे । ताकि ख़ुशहाली का वातावरण बना रहे । ताकि आम आदमी अपनी गणतांत्रिक अधिकारों का उपयोग कर सके । उन्होंने बंदूक और बारूद की नौकरी का वरण इसलिए भी किया था ताकि उनके ग़रीब माँ-बाप की माली हालत सुधर सके ।
jai hind..................

खबरों की दुनियाँ said...

संवेदना तुम कहाँ हो ?

लोग तो कहते हैं कि तुम मर गई ,

क्या यह सच है कि तुम

अब नहीं रही ?

कहते हैं मानवता में तुम्हारा वास था ,

मर्यादा तुम्हारा लिबास था ।

हर सांस में वेदना का साथ था ,

जुबां पर तुम्हारी, दया-करूणा का वास था ।

हमें लगता है, तुम मरी नहीं, यहीं-कहीं हो ,

जहां कहीं भी हो आ जाओ ।

वेदना को तुम्हारी तलाश है ,

मर्यादा को तुम्हारे आने की आस है ।

तुम बिन दया - करूणा उदास है ,

मानवता को तुम्हीं से जीवन की आस है ।

- आशुतोष मिश्र

कडुवासच said...

...saarthak abhivyakti !!!

Anonymous said...

Found your posting truly when it wasneeded. Thank you very much. It's already been really valuable

Anonymous said...

Thanks for sharing. Very simple to use and straightforward to comprehend. Done well!

Pramit said...

namaste uncle
kuch hi samay pehle maine apna blog banaya hai.....
kripiya us par jake ke bataye ki kaisa hai ??
mera blog hai vibrantaura.blogspot.com

Dr Varsha Singh said...

सार्थक प्रस्तुति के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं !
जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं