Thursday, November 05, 2009

पापा ! नक्सली सचमुच बदमाश हैं




राज्योत्सव में टंगे कुछ चित्रों के बहाने

कई बार शब्दों का अपना जादू नहीं चल पाता । वे अपने भीतर समाये हुए अर्थों को भावक या मनुष्य के मस्तिष्क तक पहुँचा नहीं पाते । पूरी पंक्तियाँ साधारणीकरण की शिकार हो जाया करती हैं । विचार के गर्भ तक पहुँचते-पहुँचते हम बोर हो उठते हैं या फिर उन मुद्रित पृष्ठों या अंशों से पिंड ही छुडा लेते हैं । शाब्दिक संचार की अधिकांश विधायें और उनके रचयिता शायद इसीलिए हमें भोथरे और प्रभावहीन लगते हैं । शायद यह भी एक कारण है जिससे छपे हुए शब्दों का असर और वास्तविक असर पाठक या भावक तक संप्रेषित हो ही नहीं पाता । पर चित्र बहुधा यथार्थ की नींव और उसके समग्र परिसर तक एक ही दृष्टि में ले पहुँचाते हैं । चित्र मस्तिष्क की ग्रहणशीलता को भी बहुआयामी बना देते हैं । शायद यही कारण था जब मेरे छोटे बेटे जो 7वीं क्लास का छात्र है ने उस चित्र देखकर मुझसे कहा था – पापा, नक्सली सचमुच बुरे हैं ! मैंने देखा उसके चेहरे पर अजीब-सी उदासी और भय की लहरें उठ रही हैं ।

यूं तो समाचार पत्रों, टीव्ही एवं अन्य माध्यमों से संसूचित होती अपनी माँ के स्वर में स्वर मिलाते हुए वह भी मुझसे कहता रहता है – पापा, पुलिस की नौकरी में क्यों चले गये ? वह भी डीजीपी के स्टाफ़ में । कभी किसी नक्सली ने मार दिया तो ? तब मैं उन्हें समझाता कि पुलिस में मेरा काम बिलकुल अलग ढ़ग का है, मारने-मरने का नहीं, और वे निराश होकर लगभग चुप हो जाते हैं । ऐसा वे तब-तब कहते हैं, जब किसी माध्यम से उन्हें नक्सलियों के सबसे बड़े शत्रुओं की सूची में छत्तीसगढ़ के डीजीपी श्री विश्वरंजन का नाम पढ़ने को मिलता है या नक्सली मुठभेड में पुलिसवालों के मारे जाने की ख़बरें छपती हैं । पर आज वे दोनों मेरा हौसला बढ़ा रहे थे । उनके चेहरे के भावों से मुझे स्पष्ट लग रहा था जैसे वे मुझसे कह रहे हों – आप बहुत सही हैं । जैसे वे कह रहे हों कि नक्सलियों के खिलाफ़ नहीं जाना कम से कम एक लेखक के लिए तो बेईमानी है । फिर आपको तो सरकार शासकीय सेवा के लिए अच्छी खासी तनख्वाह और सुविधा भी देती है । क्या सचमुच ये चित्र इतने ताकतवर हैं ?

वाकई, ये तस्वीर बहुत ताकतवर हैं । राज्योत्सव में पुलिस विभाग के पंडाल पर लगे इन तस्वीरों को देखकर ऐसा कौन होगा जो करुणा और आक्रोश से न भर उठे । निहत्थों आदिवासियों की जघन्य हत्या से करुणा और गरीब, असहाय, कमज़ोर और दलित आदिवासियों की कथित हितनिष्ठता के नाम पर क्रांति की भ्रांति फैलाने वालों की असलियत जानकर यदि मन आक्रोश से भर उठता है यहाँ कलाकर्म की सार्थकता स्वयं सिद्ध हो जाती है । इन चित्रों में नक्सलवाद की दरिंदगी जीवंत हो उठती है । नक्सलियों के आदिवासी प्रेम और उनके हक़ के लिए कथित जद्दोजहद की पोल खुल जाती है । ये तस्वीरें चीख-चीख कर कह रही हैं कि नक्सली प्रजा और प्रजातंत्र के सबसे बड़े बैरी हैं। न इनके मन में आदिवासियों के प्रति रहम है, न उनके प्रति विश्वास और पक्षधऱता । ये तस्वीर गवाही देती हैं कि नक्सलियों का मानवीय मूल्यों से कोई सरोकार नहीं है । वे किसी भी कोण से बुनियादी सुविधाओं से वंचित आदिजनों के हितचंतक नहीं हैं । वे सिर्फ़ और सिर्फ़ दिग्भ्रमित हो चुके और रोमानी कल्पनाओं में डूबते उतराते ऐसे दिग्भ्रमित समूह हैं, जिनके जीवन में सिर्फ़ हिंसा ही सबसे कारगर साधन है । नक्सली यद्यपि अपने पक्ष में समर्थन बटोरने के लिए यथास्थितिवादी, यानी भ्रष्ट, निरंकुश व्यवस्थावादियों और उनके तंत्र की न्यूनता गिनाते हैं किन्तु वे मूलतः इन तत्वों से भी कहीं अधिक निर्मम और निरर्थक हैं । जिस विचारधारा में हिंसा प्रवाहित होती हो वह कहीं से भी सर्वनिष्ठ नहीं हो सकती । जिन विचारों की में जड़ों में हिंसा और आतंक का खाद डाला जाता हो उससे मीठे फल की प्राप्ति सर्वथा असंभव है । हिंसा से व्यक्तिगत स्वार्थ तो साधे जा सकते हैं सर्वहारा और समूचे समाज को उसका खोया हुआ वास्तविक हक नहीं दिलाया जा सकता है । हिंसक साधनों से अर्जित व्यवस्था अपने हितों के लिए भविष्य में सदैव अहिंसक बनी रहे, इसकी कोई गांरटी नहीं ले सकता है । स्वयं नक्सली भी नहीं, जिनका लक्ष्य ही फिलहाल हिंसात्मक वातावरण से निजी धनार्जन है ।

मुझे लगा कि शायद मैं अति भावुक हूँ, फिर इन दिनों पुलिस की चाकरी भी कर रहा हूँ । शायद जनता कुछ और सोचती हो । क्यों ना पूछ लिया जाये इन तस्वीरों से गुज़रनेवालों आम जनों से कि वे क्या सोचते हैं ? मैं अब दर्शकों की भीड़ के बीच हूँ, उनके रियेक्शन जानने की कोशिश में। सत्तर-पहचहत्तर साल की एक ग्रामीण महिला जो अपने पोते की अगूँली थामे इन तस्वीरों को निहार रही है, कहती है – आई ददा, अब्बर अलकरहा मारे हे रोगहा । रक्सा हो गीन हें रे मुरहा मन । दूर प्रदेश बिहार, पटना से आयी सुशिक्षित महिला प्रियंका दुबे अपने पति से कह रही है – जो केवल मारधाड़ कर सकते हैं उनकी सोच नहीं हो सकती । जिनकी सोच नहीं हो सकती, वे भला मानव कैसे हो सकते हैं । मेरे पास खड़े हैं अब रायपुर, डब्ल्यू आर एस कॉलोनी के सुदीप्तो चोटर्जी । उनके चेहरे की नाराजगी साफ-साफ पढ़ी जा सकती है – वे लगभग बड़बड़ा से उठे हैं – नक्सली माओवादी होंगे ऐसा कहीं से भी नहीं लगता । माओ ने कभी यह नहीं कहा था कि गरीबों को मारो । ये केवल अपराधी हैं । सीपत की अरुणा शास्त्री गुस्से में कहती हैं – धिक्कार है ऐसे मानवाधिकारवादियों को जो मारनेवालों के नाम पर रोटी का बंदोबस्त करते हैं और मरनेवालों के लिए उफ तक नहीं कह सकते । मानवाधिकार को भी जब बुद्धिजीवी रोजी-रोटी का ज़रिया बना लें तो भगवान ही बचाये ऐसे बुद्धिजीवियों से देश को। इन चित्रों के बीच जो स्लोगन लिखा गया है – वह सबसे ख़तरनाक प्रश्न है – यह सब आपके साथ भी हो सकता है । सचमुच ये चित्र सवाल कर रहे हैं कि वास्तव में हम किधर हैं - प्रजातंत्र की ओर या नक्सलवाद की ओर ?

नक्सलवाद बुद्धि की भ्रांति हैं । यह एक अमूर्त और असंभाव्य फैंटेसी के अलावा कुछ भी नही हैं। समानता और अधिकार के लिए इसे क्रांति कहना क्रांति की तौहीनी है । ये तस्वीर सिहरन पैदा करते हैं । कंपा देनेवाले ये तस्वीर कुछ प्रश्न भी छोड़ते हैं कि क्या समाज में संवेदनशीलता जगाने का काम भी पुलिस करेगी, सरकार करेगी ? क्या अब समाज में ऐसे लोग बिलकुल नहीं बचे जो सच को उजागर करें, जनता का मार्ग प्रशस्त करें । क्या सबकुछ भोथरे हो चुके राजनीतिज्ञों और राजनीतिक विचारों के आधार पर जनता की कथित सेवा करनेवाली पार्टियों के भरोसे छोड़ दिया जाये ? इन चित्रों में कई प्रश्न निहित हैं – आख़िर वह क्या कारण है जो मीडिया इन तस्वीरों को जनता या पाठक के सामने लाने से कतराती है ? यदि पुलिस द्वारा चलायी गयी गोली अनैतिक है तो नक्सलियों द्वारा चलायी गई गोली भी अनैतिक है । यदि कोई यह भी कहे कि बस्तर को पुलिस की कोई ज़रूरत नही है तो उसे यह भी कहना होगा कि बस्तर को किसी नक्सलियों की भी ज़रूरत नहीं ।
भय और जुगुप्सा जगानेवाली उन चित्रों को हमारे कलाकार कब तक अपना विषय नहीं बनायेंगे जो प्रजातंत्र को धीरे-धीरे गर्त की ओर ढकेल रहे हैं ? करुणा के बिंब कब उतारेंगे हमारे साहित्यकार तब जब बस्तर पर सारे आदिवासी मारे जा चुके होंगे ? जो भी हो, पुलिस विभाग और पुलिस मंहानिदेशक श्री विश्वरंजन को लेकर मुख्यमंत्री द्वारा की गई टिप्पणी फिर से सार्थक हो उठती है कि जी, वे शस्त्र से भी लडेंगे और शास्त्र से भी ।