‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है ।’ मेरे ऊपर एक साथ चिट्ठाकार न भड़कें । यह मेरी टिप्पणी नहीं है । यह टिप्पणी है देश के प्रख्यात वामपंथी आलोचक आदरणीय नामवर सिंह की । आप पूछेंगे – यह उन्होंने कब कहा ? भई कल ही कहा । कहाँ कहा ? छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की एक पत्रकार वार्ता में कहा । क्यों कहा ? यह आप भी पता कर सकते हैं अपने मन-मनीषा पर केंद्रित होकर । वैसे इसका जवाब मन नहीं दे सकेगा । मन से पूछेंगे तो वह शायद आपको उकसाने की स्थिति तक ले पहुँचाये । हिंदी ब्लॉग के दीवाने तो उग्र भी हो सकते हैं । कुछ इसे बुद्धि का अजीर्ण निरूपित कर सकते हैं या फिर कुछ अति उत्साही और नामवर सिंह जी के बारे में खास तौर पर नही जाननेवाले, यह भी कह सकते हैं कि सिरफ़िरे के मुँह कौन लगे ? हम तो अपनी छंद, लय और ताल में इसी तरह चिट्टाकारी का गुणानुवाद करते रहेंगे । अंतरजाल पर हिंदी की अभिव्यक्ति की नदी को लबालब बनाये रखेंगे । चाहे उसका पानी मटमैटा या खर-पतवार सहित ही क्यों न रहे !
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को गुरु माननेवाले और हिंदी भाषा की जीवंत आलोचना के लिए प्रसिद्ध नामवर सिंह जी इन दिनों रायपुर प्रवास पर हैं । केवल दो दिनों के लिए । यानी कल का दिन वे बीता चुके हैं और एक दिन यानी आज वे अपने समय के एक बड़े कवि मुक्तिबोध, गजानन माधव के बड़े चिरंजीव दिवाकर मुक्तिबोध (जो दैनिक भास्कर, रायपुर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं) की किताब (शायद टिप्पणी और आलेख संग्रह) को लोकार्पित करने का पवित्र और आशीर्वादात्मक कार्य संपन्न करेंगे ।
मैं नहीं जानता कि हमारे ब्लॉगर्स बंधु उन्हें कितना गभीर लेंगे ? पर उनके निहितार्थ को एकदम ख़ारिज़ भी नहीं किया जा सकता । मुझे लगता है, जब वे ऐसा सोचते हैं तो सारे भारत और उसके वर्तमान की स्थिति का मुआयना भी उनकी बुद्धि करती है । क्योंकि आलोचक मन से कम बुद्धि और तर्क से अधिक उवाचते हैं । और इस सोच या इस सोच से उत्पन निर्णय में हमारे देश के अनपढ़, अल्पपढ और ग़रीब, किसान, मज़दूर, कारीगर आदि आमजन भी उन्हें दिखाई देते हैं जिनमें से आधे लोग तो आज भी निरक्षर हैं । उनके गाँवों और कस्बों की हालत किसी से नहीं छिपी है । कहीं बिजली नहीं है, कहीं टेलिफ़ोन नहीं है । कहीं यह दोनों है तो उनके पास कंप्यूटर ख़रीदने की ताक़त ही नहीं है । यदि यह सब भी है तो उन्हें यह नही पता कि कंप्यूटर में वह ब्लॉग भी लिख सकता है । यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या ब्लॉग लेखन ज़रूरी है सबके लिए ? अभिव्यक्ति के साथ अनभिव्यक्ति भी बहुत ज़रूरी है । कम से कम अंतरजाल पर । आख़िर गोपनता भी कई बार लाज़िमी होती है । वैसे भी बड़ा से बड़ा अभिव्यक्तिवादी समाज सब कुछ कहना नहीं चाहता । ऐसे सभ्य (?) समाजों का भी इतिहास गवाह रहा है कि वहाँ कुछ ही लोग अभिव्यक्ति के अधिकार को बनाये रखते हैं या फिर उसे बहाल करने के लिए संघर्षरत रहते हैं । हर कोई बोलता नही है । हर कोई लिखता नही है । कुछ लोग बिना कहे भी देश को आगे बढ़ाते रहते हैं । मानव समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हैं ।
यूँ भी ब्लॉग लेखन पढ़े-लिखे और तकनीक से परिचित (और दक्ष भी ) तथा साधन संपन्न लोगों के वश की बात है, जिसके पास इतना समय भी हो कि वह ऐसा लिख सके । यदि उसके पास सारी योग्यतायें हैं तो भी क्या ज़रूरी कि उसकी अवस्था यानी कि आयु ऐसा करने में साथ दे । आख़िर जीने की दृष्टि और सृष्टि उम्र से भी तय होती है । फिर मानसिकता भी तो कोई चीज़ होती है मनुष्य के उद्यमों में । यह वास्तविकता है कि हमारी पुरानी पीढ़ी लेखन के नये तकनीक के बजाय पांरपरिक तरीकों पर अधिक विश्वास करती है । नामवर पुरानी पीढ़ी के दिग्गज हैं । वे प्रौढ़तम अवस्था मे है इन दिनों । तो वे अपने प्रौढ़तम विचार के लिए पूर्णतः स्वतंत्र हैं ।
देश के युवा ब्लॉगरों को तनिक भी दुखी नहीं होना चाहिए कि नामवर उनके सपनों पर तुषारापात करनेवाले हैं । या फिर वे युवा विरोधी हैं । यह उनकी कथनी का विरोधाभास नहीं जो वे स्वयं स्वीकारते हैं और इस स्वीकारोक्ति में उच्चारते हैं कि नई पीढ़ी पर उन्हें भरोसा है । वे इसी प्रसंग में जन-जन की आवाज़ के लिए हिंदी अख़बारों को ही सक्षम बताते हैं । उनकी माने तो हिंदी साहित्यकारों या अध्यापकों की बनाई भाषा नहीं है । यह अख़बारों की बनाई गई है । और अख़बारनवीसी को सुधारने के भरोसेमंद कार्यकर्ता के रूप में वे युवाओं की ओर
जिस इंटरनेट पर आज का युवा अधिक आश्रित और विश्वास करता है, वह युवा (और कुछ प्रौढ़ और कुछ बूढ़े-सयाने भी) ब्लॉग लेखन पर भी विश्वास करता नज़र आ रहा है । ब्लॉग इंटरनेट का उत्पाद है । वह उसका भूगोल भी है । भूगोल को विस्तारित करते रहने वाला अधियानकवादी ताक़त भी है । मुझे यह कहना यहाँ प्रांसगिक लगता है कि ब्लॉग एक तरह का पत्रकारिता भी है या बन रहा है । इंटरनेट आधारित पत्रकारिता । इंटरनेट और हिंदी पत्रकारिता पर चिंतित दिखाई देनेवाले नामवर सिंह यह भी कहते हैं कि अँगरेज़ी अख़बार और इंटरनेट की नकल ने पत्रकारों की नौकरी को ख़तरे में डाल दिया है । बात में काफ़ी दम है ।
नामवर जब पत्रकारों को संबोधते हैं कि क्षेत्रीय अख़बारों में आंचलिकता का रंग झलकना चाहिए तब आज के हिंदी चिट्ठाकारों को भी उस संबोधन के समक्ष स्वयं को खड़ा देखना चाहिए और उसे अपने लिए कारगर मानना चाहिए । आख़िर हिंदी के सारे चिट्ठाकार दिल्ली या मुंबई के तो हैं नहीं कि एक ही मुहावरा, एक ही भाषा में अपनी बात रखें । हिंदी तो कई अंचलों और कई बोलियों से मिलकर अपनी प्रवहमानता को निरंतर बनाती है । वही असली मानकता भी है कि एक जैसी हिंदी सर्वत्र संभव भी नहीं है । न भारत में न विश्न में । स्थानीयता का संपुट न हो तो आपका अपने कहने के लिए आपकी भाषा में नया क्या होता है ? भाषा बासी लगती है या फिर अनुदित या फिर रटी-रटायी । यही विविधता ही तो हिंदी और हिंदुस्तान का चरित्र है जो हम सबको तथाकथित वैश्वीकरण के सैकड़ो-हजारों वर्ष पहले से ही सच्ची वैश्किता का पाठ सिखाता रहा है, जिसे हम वधुधैव कुटुम्बकम् जैसे पवित्र मंत्रों के रूप में जानते-मानते रहे हैं ।
आज की वैश्वकिता ( उपनिवेशवादी, बाज़ारवादी, अधिनायकवादी) के समक्ष अपने होने को बचाये रखने के लिए आंचलिकता को बचाये रखना सबसे बड़ी चुनौती है । यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो हमारे होने पर ही संदेह उत्पन्न हो सकता है । हमारी पहचान गुम हो सकती है । हमारी भाषा की हत्या हो सकती है । हमारी संस्कृति को आत्महत्या करना पड़ सकता है । और इस हत्या और आत्महत्या में हिंदी के चिट्ठाकारों के लिए नामवर का यह संदेश या संकेत एक पवित्र पाठ भी हो सकता है । यानी कि यह हिंदी ब्लॉग की भाषा का बाईबिल हो सकता है ।
जो अपने ब्ल़ॉग लेखन को अपनी पत्रकारिता का हिस्सा मानते हैं उन्हें नामवर सिंह की इस बात पर गौर करना ही चाहिए कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा उस क्षेत्र के अनुसार होनी चाहिए, जो भाषा वहाँ बोली जाती है । जैसे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी की मिठास रहे, बुंदेलखंड में बुंदेलखंडी । यही हिंदी पत्रकारिता है । यह ऐतिहासिक सच है कि यही पत्रकारिता परतंत्रता से मुक्ति पाने के आंदोलन में आम जनता को राजनीति का प्रशिक्षण देती थी । आज भी जिस तरह से पश्चिमी दुनिया की धूर्तता वैश्वीकरण के बहाने भारतीयता को लीलने की फ़िराक मे है, आंचलिकता या स्थानीयता का संबल ही उसके प्रतिरोध का कारगर हथियार हो सकता है ।
अब मानना, नहीं मानना हम निरंकुश चिट्ठाकारों के ऊपर है ।
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40 comments:
अपने को तो एक बात बताएं, क्या नामवरजी को हमारे देश के अनपढ़, अल्पपढ और ग़रीब, किसान, मज़दूर, कारीगर आदि आमजन पढ़ते है?
फिर वे किसके लिए लिखते है?
नहीं संजयजी।।। नामवरजी लिखते नहीं हैं...उनका आखरी लेखन आए अरसा बीत चुका है..वे कभी लिखते थे, आजकल केवल बोलते हैं।
किंतु सिर्फ इससे उनकी बात खारिज करने लायक नहीं हो जाती, इसलिए भी कि वे खूब सोच विचारकर बोलते हैं तथा बेतहाशा पढ़ते हैं।
मानसजी हर ब्लॉगर एकसा नहीं है इसलिए हिन्दी ब्लॉगिंग मोनोलिथिक नहीं है अत: कोई कारण नहीं कि हम मान बैठें कि नामवरजी की राय सुनते ही हम हत्थे से उखड़ जाएंगे :)
अभी शायद उन्हें हिन्दी ब्लॉगिंग उपयुक्त न लगे पर कल लगेगी..उन्हें नहीं लगेगी तो अगली पीढ़ी के आलोचकों को लगेगी।
वैसे मैं केवल उम्मीद ही कर सकता हूँ कि ब्लॉगिंग से उनका नैराश्य उस प्रकरण से नहीं उपजा है जहॉं तबके एकदम नवेले ब्लॉगर विनीत ने सीधा उनकी शैली पर सवाल उठाया था और जनसत्त से लौटे लेख तक के बावजूद ब्लॉग भरोसे विनीत की बात पाठकों तक पहुँच ही गई थी। :))
भाई जो कोई भी कुछ भी बोले.. मुझे कोई फर्क नही परता है.. जब मैंने लिखना शुरू किया था तब मैं किसी हिन्दी ब्लौगर को नही जानता था.. मुझे बस अपने लिखी चीजों के लिए स्पेस चाहिए था सो मैंने लिखना शुरू किया.. मुझे ये भी पता था की मेरे लिखे के लिए किसी पत्रिका या अखबार में कोई जगह नही होगी सो ब्लौग ही मेरे लिए सबसे उपयुक्त है.. अब नामवर जी चाहें कुछ भी कहे या फिर प्रेमचंद जी की आत्मा इसे कोस कर जाए मैं लिखना नही छोरने वाला हूँ.. :)
कोई आश्चर्य की बात नहीं है. बरसों से जमे जमाये लोग परिवर्तन के विरोधी होते ही हैं. ब्लॉग एक नयी विधा है. कई नामवर उखड़ने वाले हैं अभी. ब्लॉग साहित्य नहीं है, पर साहित्य से कई गुना ताक़तवर माध्यम है.
आपके लेख का पेराग्राफ नंबर तीन अपनी समझ से बाहर गया. ग़रीब, किसान, मज़दूर, कारीगर का जिक्र आपने किया कि ये लोग ब्लॉग लिखने में समर्थ नहीं हैं. तो क्या कुछ और लिखने में हैं? इनके स्वर को अभिव्यक्ति अगर इनके आसपास से किसी ब्लॉगर के माध्यम से आयेगी तो ज्यादा समर्थ और विश्वसनीय होगी बजाये किसी प्रोफेशनल की कलम से निकलने के.
ब्लॉग लिखने वाले ऐसी आलोचनाओं को इतना महत्त्व देते हैं कि दुखी होंगे, ऐसा सोचना भी आपका भोलापन ही कह सकते हैं.
नामवर जी ने गलत क्या कहा उनके लिए बिल्कुल ही अनुपयुक्त है,न तो इसमें कमाई है न नेता गिरी,न ही पुरस्कारों की मारा मारी ,कुछ भी तो नहीं मिलता यहां.बंधुओ हिंदी मठाधीशों के चंगुल से मुक्त हो रही है,लगे रहो लिखते रहो
हिंदी मठाधीशों के चंगुल से मुक्त हो रही है...
इस बात में दम है.
नामवर सिंह जी की अपनी राय है जी. ब्लागिंग तो अभी शुरू ही हुई है. इसके ऊपर टीका-टिपण्णी करने के लिए इसे थोड़ा और समय दें. वैसे नामवर जी जैसे विद्वान् को ज्यादा समय की जरूरत भी नहीं है. वे जो कहेंगे कुछ सोच-विचार कर ही कहेंगे.
इतना ही कह सकते हैं. बाकी आपने अपनी पोस्ट में एक साथ इतने सारे विषय पर चर्चा कर दी है कि कुछ समझ में नहीं आया कि आप क्या कहना चाहते हैं.
नही लिख पा रहे तो ग़लत है...यहाँ आपको कोई पूछता नही इसलिए बिलबिलाये हुए है....ऐसा किसने कहा जो आप कहेंगे सदा ठीक भी होगा ......
तो इसका मतलब ये आपकी आख़िरी पोस्ट है.. आज की बाद आप ब्लॉग लेखन नही करेंगे. और कल यदि आपकी ब्लॉग पर कुछ लिखा मिलता है तो आपकी आज की पोस्ट की कोई मह्ता नही रहती.. शुरआत आप स्वयं से ही करे आज ही से ब्लॉग लिखना बंद कर दे.. हो सकता है आपको देखकर कोई और भी आपसे प्रेरणा ले.. और हा सही बात कहना आपको उग्र होना लगता है.. तो ये आपकी सोच है..
वैसे मैं 'घोस्ट बस टर' जी से सहमत हू.. बरसों से जमे जमाये लोग परिवर्तन के विरोधी होते ही हैं.. और साथ ही आपका पेराग्राफ नंबर तीन अपनी भी समझ से बाहर गया..
चलिए अंत में आपके ब्लॉग की आख़िरी पोस्ट को मेरा सलाम..
यह किसने कह दिया कि मैं लिखना छोड़ रहा हूँ । आपकी मंशा पूरी नहीं कर सकता हूँ । मैंने उनकी मंशा रखी है। मैंने उनके बहाने भाषा और इटरनेट की पत्रकारिता अर्थात् ब्लॉग पत्रकारिता पर टिप्पणी की है । विचार आप और हम सब को करना है ।
नामवरी आलोचना का मोहताज नहीं नहीं हिंदी ब्लॉग
नामवर जी आदरणीय हैं । हिदी आलोचना उनकी एहसानमंद है । परंतु वे अब दादाजी हो गई हैं । दादाजी घर में ही ज्यादा रहते हैं । बच्चों को अतीत की गौरव-गाथा सुनाते हैं । नई पीढ़ी को भटकी हुई पीढ़ी कहते हैं।
नामवर आलोचना के स्वयं के बनाये चक्रव्यूह से आसानी से नहीं निकल सकते । वे तो इस सदी में उतना भी नहीं सोच रहे हैं, जितना 100 साल पहले पं.माधवराव सप्रे सोचते थे । ब्लॉग आज की दुनिया का डायरी लेखन है, निजी संस्मरणों या विचारों की डायरी मात्र नहीं । दुनिया में परस्पर संवाद, संपादक की बेईमानी, प्रकाशकों की तानाशाही और पाठकों की लापरवाही से अलग । इस दुनिया में नामवर की क्या आवश्यकता है ? नामवरजी प्रणम्य हैं । उन्हें प्रणाम करते रहें । अपना ब्लॉग लिखते रहें । नामवरी मायानगरी और सेंसरबोर्ड के प्रपंचों से दूर । दादाजी आपकी ऊँगली के बजाय बच्चों ने की-बोर्ड पकड़ लिया है । निकल पड़े हैं दुनिया की सैर पर.....
आपने अपनी राय नहीं दी. क्या आप डरते हैं? आपने इससे बचने का प्रयास किया है. मैंने श्री नामवर सिंह का नाम बहुत सुना है पर उनकी कोई रचना पढ़ी हो ध्यान नहीं है. बाकी रहा ब्लॉग लिखने या न लिखने का सवाल तो यह सत्य है कि अगर अंतर्जाल की तकनीकी का अस्तित्व रहेगा तब तक लोग लिखेंगे. आप और मेरे कहने से कोई रुकने वाला नहीं है. ब्लॉग ऐसा ही है जैसे घर में लिखने के लिए रखा रजिस्टर. इस पर लिखो या उस पर फर्क क्या पड़ता है. हाँ यहाँ कई लेखक इनाम-विनाम की परवाह किए बिना लिखेंगे इसलिए कई ख्याति अर्जित करेंगे. यहाँ किसी को इनाम या सम्मान बड़ा नहीं बनाएगा बल्कि उसका लिखा ही बनाएगा. इसलिए कुछ लोगों को तकलीफ होगी. आपको अधिक नहीं जानता पर आपने अपनी राल नहीं रखी उससे लगता है कि आप शायद उनसे सहमत हैं.
दीपक भारतदीप
दीपक जी शायद आप मेरे लिखे हुई बातों का निहितार्थ समझ नहीं सके । मैं क्यों डरने लगूँ अंतराल पर ब्लॉग लेखन और समर्थन से.....
जनाब आलोचना साहित्य की एक विधा है यह स्वयं में एक भ्रमजाल है जो की वामपन्थिओं ने फैलाया है. समालोचना का एक महत्व हो सकता है उसी प्रकार जैसे वेदों के साथ उपनिषद का. परन्तु नामवर जी समालोचन के बजाये आलोचना में ही ज्यादा मगन दिखाई देते है. जो स्वयं सृजन नहीं कर सकता उसे दूसरे के भोंडे सृजन पर भी ऊँगली उठाने का कोई अधिकार नहीं. जो लिख नहीं सकते वे आलोचना करते हैं, पुरस्कार बांटते हैं.
नामवर महाराज कहते हैं की पन्त का आधे से ज्यादा साहित्य कूड़ा है. क्यों? क्योंकि वह श्रृंगारिक कवितायेँ हैं जिसमे रोटी, पसीना, गरीब, सर्वहारा, क्रांति, बुर्जुआ, मार्क्स-लेनिन, फोड़ा- मवाद जैसे शब्दों का अभाव है. नामवर जी, क्या गुलाब खिलना या खुशबू बिखेरना बंद कर दे सिर्फ इसलिए की संसार में एक गरीब भूखा सो रहा है ? क्या गरीबों की प्रेमिकाएं या पत्नियाँ नहीं होती या वे उनसे प्रेम नहीं करते ?
आप अगर गरीबों के इतने ही खैरख्वाह हैं तो बताईये कि अभी तक कितने गरीबो की आपने मदद की है ?(आखिर आप भी साधन संपन्न हैं और कार में घूमते हैं , A C में सोते हैं).
कलम घिसकर, घडियाली आंसू बहाकर, हिंदी साहित्य की मठाधीशी हासिल कर ली और अब "बैठे अपने आस पास की दूब नोच रहे हैं."
आशा है जयप्रकाश जी इस टिप्पणी को मिटाएँगे नहीं
ब्लॉग में बसी है जो विचारों की आग
बुझा नहीं पाए कोई कितना गाए राग
मैं अधिक नहीं बस इतना ही कहूंगा कि जैसे मोबाईल फोन के आने से इसका भी विरोध हुआ था, इसी प्रकार ब्लॉग लेखन या ब्लॉगकारिता का विरोध हो रहा है तो इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिए।
इसी प्रकार जिस तरह मोबाईल फोन सर्वग्राह्य हो गया है, उसी प्रकार ब्लॉग लेखन भी होने वाला है।
इंटरनेट का विरोध तो अभी तक हो रहा है, पर क्या किसी को लगता है कि इससे इंटरनेट का वजूद खतरे में पड़ सकता है, बिल्कुल नहीं।
इसी प्रकार मोबाईल और इंटरनेट के माफिक ब्लॉगलेखन और ब्लॉगकारिता परवान चढ़ेगी, इस में मुझे रंच मात्र भी संदेह नहीं है।
ब्लॉग में बसी है जो विचारों की आग
बुझा नहीं पाए कोई कितना गाए राग
मैं अधिक नहीं बस इतना ही कहूंगा कि जैसे मोबाईल फोन के आने से इसका भी विरोध हुआ था, इसी प्रकार ब्लॉग लेखन या ब्लॉगकारिता का विरोध हो रहा है तो इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिए।
इसी प्रकार जिस तरह मोबाईल फोन सर्वग्राह्य हो गया है, उसी प्रकार ब्लॉग लेखन भी होने वाला है।
इंटरनेट का विरोध तो अभी तक हो रहा है, पर क्या किसी को लगता है कि इससे इंटरनेट का वजूद खतरे में पड़ सकता है, बिल्कुल नहीं।
इसी प्रकार मोबाईल और इंटरनेट के माफिक ब्लॉगलेखन और ब्लॉगकारिता परवान चढ़ेगी, इस में मुझे रंच मात्र भी संदेह नहीं है।
- अविनाश वाचस्पति
पर उपदेश कुशल बहुतेरे । आप लोग किसी लफ्फाज हिंदी आलोचक के वाक्जाल में न फँसे । क्योंकि ये ही वे शातिर हैं जो वामपंथ के नाम पर अब देश के विकास की धारा को रोकने के लिए भी उद्दत हैं ।
ज्यादा दूर मत जाइये । स्वयं नामवर सिंह जैसे कथित पुरातनपंथी भी मोबाइल और फोन पर विश्वास करते हैं । फ्रीज में सुरक्षित दारू उडाते हैं । रेलयात्रा की जगह हवाई की यात्रा करते हैं । किसी आयोजक द्वारा ऐसी शर्तों को पूरा नही करने पर जाते ही नहीं । ये ही वे गरीब विरोधी है हैं जो कहते कुछ और हैं और करते कुछ हैं । ऐसे लोगों ने न केवल देश का सत्यानाश किया है बल्कि भाषा, साहित्य, हिंदी सहित अन्य प्रगतिशील चेतना की विधाओं को एक निश्चित खाके में या सांचे में रखकर ही देखने का जाल बिछाया है ।
यह दकियानुसी ही है जो नामवर जैसे लोग कथित वामपंथी होने के बावजूद भी एक समय में प्रगतिविरोधी बन जाते हैं ।
ब्लॉग ऐसे लोगों को भले ही रास नही आता हो । इससे हमारा क्या बिगड़ता है।
जयप्रकाश मानस जैसे युवा पहले व्यक्ति हैं जो ऐसे नामवरों की धज्जी बड़ी ही शालीनता से उड़ाते हैं । उनकी सारी बातें स्पष्ट हैं । हमे ऐसे युवा सचेतकों की प्रशंसा करनी चाहिए जो एक युवा साहित्यकार होने के बाद भी ऐसे नामवरी मोह में नहीं पडते हैं अपितु सच की वकालत करते हैं । एक तरह से वे हिंदी की सच्ची चिट्ठाकारी को मोड़ देने के मार्ग में दधीचि की तरह खड़े दिखाई देते हैं । मै तो कम से कम उनकी वंदना करना चाहता हूँ । मानस जी । हिंदी की यही भाषा होनी चाहिए जो आपने यहाँ लिखा है । साँप भी मार दो और लाठी की टूटने की आवाज़ तक नही आये ।
रामशरण टंड़न
संपादक, मिनीवार्ता मासिक
रायपुर, छत्तीसगढ़
मित्रों में यहाँ कुछ ऐसे वर्चस्ववादियों का उदाहरण देना चाहता हूँ जो नामवरी इशारों में मानवता की भी अनदेखी करते हैं ।
आप सभी जानते हैं कि बस्तर में हजारों लोग बेघरवार हो चुके हैं । हजारों लोग विकलांगता के शिकार है । सैकड़ो घर उजाड़ डाले गये । हर वर्ष 1 हजार करोड़ की हानि हो रही है और ये सिर्फ वामपंथ या उससे आगे के अनुयायी यानी कि माओवादी के स्वार्थ के कारण हो रहा है । आपको ताज्जूब होगा कि ऐसे हताश, निराश, पीडित, आदिवासियों के पक्ष में एक भी बात नामवर और नामवर के चेले नही करते । ये सिर्फ यही कहते हैं कि पुलिस मानवाधिकार का हनन कर रही है ।
आप पूछे इन कमीनों से कि क्या सिर्फ नक्सवादियों और वामपंथियों का या फिर माओवादियों का ही मानवाधिकार होता है । गरीबों का नहीं । आदिवासियों का नहीं । जंगली लोंगों का नहीं ।
वैसे ये सब निर्लज्ज होते हैं । इन पर कितना भी पानी डालिये । ये गीले नही होते हैं । ये होते है मूलतः व्यवस्था और प्रजातांत्रिक इलेमेंट विरोधी ।
अन्यथा नामवरी वाणी में चिट्ठाकारी के प्रति इतनी भद्दी बात नहीं निकलती । वैसे हम ऐसे लोगों की बात पर विश्वास करना छोड़ भी चुकें है । पर इतना तो कह ही सकते हैं कि नामवर जी आपका जमान लद चुका । जब आप हिंदी की दिशा तय करते थे । अपने शर्तों पर । अपनी भाषा में । अपने मुहावरों में ।
हम आपके चाकर नही जो आपकी बात माने । हम मान भी लेते जब आप प्रजातंत्र पर विश्वास करते । आपको नही पता कि गैर प्रजात्रांतिक उद्देश्यों के लिए आपके मित्र हमारी शांति भंग करने चले आते है मानवाधिकार के नाम पर ।
आपको किसने यह अधिकार दिया कि आप हमारे युवा और डेमोक्रेटिक बातों जिसमें मानवता, परस्पर विश्वास और प्रेम का संदेश है पर बाधा पहुँचायें । छत्तीसगढ को मूर्ख मानने की भूल ना करें भविष्य मे आप अब...
तपेश गोलझा
रायपुर
मित्रों में यहाँ कुछ ऐसे वर्चस्ववादियों का उदाहरण देना चाहता हूँ जो नामवरी इशारों में मानवता की भी अनदेखी करते हैं ।
आप सभी जानते हैं कि बस्तर में हजारों लोग बेघरवार हो चुके हैं । हजारों लोग विकलांगता के शिकार है । सैकड़ो घर उजाड़ डाले गये । हर वर्ष 1 हजार करोड़ की हानि हो रही है और ये सिर्फ वामपंथ या उससे आगे के अनुयायी यानी कि माओवादी के स्वार्थ के कारण हो रहा है । आपको ताज्जूब होगा कि ऐसे हताश, निराश, पीडित, आदिवासियों के पक्ष में एक भी बात नामवर और नामवर के चेले नही करते । ये सिर्फ यही कहते हैं कि पुलिस मानवाधिकार का हनन कर रही है ।
आप पूछे इन कमीनों से कि क्या सिर्फ नक्सवादियों और वामपंथियों का या फिर माओवादियों का ही मानवाधिकार होता है । गरीबों का नहीं । आदिवासियों का नहीं । जंगली लोंगों का नहीं ।
वैसे ये सब निर्लज्ज होते हैं । इन पर कितना भी पानी डालिये । ये गीले नही होते हैं । ये होते है मूलतः व्यवस्था और प्रजातांत्रिक इलेमेंट विरोधी ।
अन्यथा नामवरी वाणी में चिट्ठाकारी के प्रति इतनी भद्दी बात नहीं निकलती । वैसे हम ऐसे लोगों की बात पर विश्वास करना छोड़ भी चुकें है । पर इतना तो कह ही सकते हैं कि नामवर जी आपका जमान लद चुका । जब आप हिंदी की दिशा तय करते थे । अपने शर्तों पर । अपनी भाषा में । अपने मुहावरों में ।
हम आपके चाकर नही जो आपकी बात माने । हम मान भी लेते जब आप प्रजातंत्र पर विश्वास करते । आपको नही पता कि गैर प्रजात्रांतिक उद्देश्यों के लिए आपके मित्र हमारी शांति भंग करने चले आते है मानवाधिकार के नाम पर ।
आपको किसने यह अधिकार दिया कि आप हमारे युवा और डेमोक्रेटिक बातों जिसमें मानवता, परस्पर विश्वास और प्रेम का संदेश है पर बाधा पहुँचायें । छत्तीसगढ को मूर्ख मानने की भूल ना करें भविष्य मे आप अब...
तपेश गोलझा
रायपुर
मित्रो, आपने मेरे विचार से सहमति मे कुछ लिखा । यह मेरे लिए संबल है । मै आपका आभार मानता हूँ । सदैव में इसी राह मे लगा रहूँ । बस्स आपका विश्वास मेरे साथ रहेगा.... वैसे मैं नामवर जी की आलोचना का एक बड़ा फैन भी हूँ । उनका विरोध नही करता । यहाँ भी मैं प्रवृति के विरोध मे अपना प्रतिरोध कराया हूँ । बाकी कुछ नहीं...
http://mere--words.blogspot.com/
हमने देखी हैं
इन blogs की टपकती लारें
भूल से भी इन्हें
comments का इनाम न दो
सिर्फ़ बकवास हैं ये
दूर से ignore करो
blog को blog ही रहने दो
कोई नाम न दो
हमने देखी हैं …
blog कोई wiki नहीं
blog website नहीं
एक email है
आए दिन post हुआ करती है
न कोई लिखता है
न कोई पढ़ता है
न पढ़ी जाती है
एक chain mail है
जो forward हुआ करती है
सिर्फ़ बकवास हैं ये
दूर से ignore करो
blog को blog ही रहने दो
कोई नाम न दो
हमने देखी हैं …
sinister से remarks
छुपे रहते हैं
smileys में कहीं
spelling mistakes से
भरे रहते हैं
sentences कई
बात कुछ कहते नहीं
काम की या कमाल की मगर
journalism की डींग भरा करते हैं
सिर्फ़ बकवास हैं ये
दूर से ignore करो
blog को blog ही रहने दो
कोई नाम न दो
हमने देखी हैं …
(गुलज़ार से क्षमायाचना सहित)
कमाल कि बात है जयप्रकाश मानस जी के इस लेख पर इतनी प्रतिक्रिया !!
अरे नहीं भाई ! मैं टिपण्णी नहीं हूँ. मेरा तो बस यही कहना है कि मानस जी की यह पोस्त ही सही नहीं है. उन्होंने तो मात्र एक लाइन ( ‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है’ ) पर एक लेख लिख दिया और हम सभी बुद्धू टिपण्णी करने लगे.
मेरा पहला सवाल तो मानस जी से ही है कि किस सन्दर्भ में उन्होंने ऐसा कहा ?
क्या पता नामवर जी यह कहना चाहते हों कि
1. बिजली हर जगह नहीं पहुँची है इसलिए ‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है’.
2. सबको कंप्युटर सुलभ नहीं इसलिए ‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है’.
3. इन्टरनेट गाँव में नहीं पहुँचा है पर किताबें और अखबार की पहुँच तो हर छोटे से छोटे जिले देहात में है इसलिए ‘ब्लॉग लेखन अनुपयुक्त है’.
और भी कारण हो सकते हैं.
मानस जी तो बेवजह का युद्ध छिड़ा रहे हैं.
अरे प्रभू मानस जी ग़लतफ़हमी तो न पैदा करें.
संजय जी की बात ग़लत है नामवर जी को भले ही अनपढ़, अल्पपढ और ग़रीब, किसान, मज़दूर, कारीगर आदि आमजन नहीं पढ़ते हों पर क्या अनपढ़, अल्पपढ और ग़रीब, किसान, मज़दूर आदि आमजन ब्लॉग लिखते हैं ??
वैसे मैं मसिजीवी से सहमत हूँ कि अभी शायद उन्हें हिन्दी ब्लॉगिंग उपयुक्त न लगे पर कल लगेगी..उन्हें नहीं लगेगी तो अगली पीढ़ी के आलोचकों को लगेगी.
PD भाई ! आपको प्रेमचंद जी कभी भी रोकने नहीं आयेंगे पर आप प्रेमचंद जी को लेखन विरोधी न बताएं हालांकि आपने बस एक उपमा भर ही दी है पर सही आदमी को ग़लत रूप में चित्रित कर दिया है.
मिहिरभोज जी बिल्कुल सही लाइन पकड़ी आपने ( हिंदी मठाधीशों के चंगुल से मुक्त हो रही है...)
तपेश, दृष्टिकोण और निशाचर जी आप ने तो विरोध करते हुए अति कर दी है, सीमा पार कर गया है आप का विरोध. दुर्योधन की गर्जना और युधिष्ठिर का शांतिपूर्वक विरोध दोनों एक ही जैसे हैं पर कुछ अन्तर के साथ. शान्ति के विरोध को तो हर शत्रु सुनना पसंद करेगा. जैसे महात्मा गांधी द्वारा किया गया विरोध. यह जरूरी है कि हम बापू से यह गुण सीखें. फ़िर हम ब्लोग्गेर्स तो बौद्धिक प्राणी हैं, शालीनता पूर्वक लेखन तो हमारा गुण होना ही चाहिए.
नामावर जी प्रख्यात साहित्यकार हैं. हिंदी भाषा की उन्होंने हमेशा सेवा की है.
वे हिंदी का विरोध नहीं कर सकते. हिंदी ब्लोगिंग न उन्होंने कभी की है न ही स्वयं अनुभव की, उनकी इस टिपण्णी को मैं अतिशयोक्ति मानता हूँ...
पत्रकार जगत की महत्ता जरूर ब्लोगिंग से कुछ कम हुई है अब अमिताभ बच्चन और आमिर खान को पत्रकारों के सहारे नहीं रहना पड़ता जो मन मे है सीधा पाठकों तक पहुचता है उसमे तोड़ मरोड़ संभव नहीं.
हिंदी साहित्यकारों (जिनमे नामावर जी भी शामिल हैं) की रायल्टी लगातार कम हो रही है पाठक संख्या कम हो रही है उसपर अगर नए साहित्यकार नयी सोच और प्रभावी माध्यम (ब्लॉग) के साथ सहित्य जगत मे प्रवेश करेंगें तों पुस्तक खरीदने वालों की और कमी हो जायेगी, फिर नामवर सिंह जी को रायल्टी कहाँ से आयेगी.
पेट के लिए सब जायज़ है इस तर्ज़ पर नामवर जी ने ये वक्तव्य दिया है.
आप और हम लिखते रहें .........
नामावर जी का ये वक्तव्य हमें बताता है की हम सही राह पर हैं और मठाधीशों की चूले हिलने वाली हैं.
आपका ही
आलोचक
अवस्थी.एस
www.vidurneeti.blogspot.com
Rahul ji ki kavita ne sahi samay per vyang baan kasa aur to aur iss garam baat-chit mein thodi si rahat mili!!!
Mera maan na hai ke humein iss baat per garv hona chaiye ke blog ke sahare hee sahi Hindi bhasha mein likha ja raha lekh ya kavitayein….ismein koi buri baat nahi, kyunke aaj ka yug hee computer aur internet ka zamana hai aur aise mein jitni aasani se hum prekshakon tak pahunch sakte hein wohi koshish acchi rehati hai ….iss se Hindi parhne walon ko lekhan parhne ka mauka milta hai aur Bhasha ke zinda rehane aur oose rakhne mein mera maan na hai ke Aap sabhi jinhone bhi yahan tippani ki hai …oon sabhi ka sahayog prapta hua hai….asha hai aage bhi aap lekh likhenge ye hamari inteza hai
Khush rahein sada
sehar
http://pratahakaal.blogspot.com
नामवर सिंह केवल अपने विवादों के चलते नामवर बन पाये थे ।
सृजन सीमा से धकेल दिये जाने वाले , आलोचक नामधारी जीव
का चोला धारण कर लेते हैं । उनका कद बढ़ाते हैं चाटुकार लेखक ..
अब क्या कहें ? नामवर के तंग सोच को महिमामंडित कर आख़िर
आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं ?
समय ही इस बात का फैसला करेगा, अभी तो ये परिवर्तन की धीमी सी बयार भर है। अभी ढेर सारे नामवर उखडेंगे हमे उनकी आलोचना पर त्वरित प्रतिक्रिया ना व्यक्त करते हुए अपने लेखन के सुधार पर ध्यान देना चाहिए।
वैसे नामवर जी से मेरा यह् निवेदन है कि अपनी सोच का दायरा थोडा बडा करके देखें। ब्लागिंग ने लेखक और् पाठक के बीच की दूरी को घटाया है, एक सीधा संवाद् स्थापित किया है, किसी और विधा मे ऐसा सम्भव था क्या?
टंकण साभार इंडिक हैल्प br/>>
भई, मेरा तो ये मानना है कि ब्लॉग - नई रचना धर्मिता, नए-रचनाकारों को जन्म देगा. कई मामलों में जबरदस्त शुरूआत हो चुकी है. ब्लॉग के माध्यम से क्रांतिकारी, अति-मौलिक, प्रयोग-धर्मी साहित्य रचे जाएंगे. नामवरों की पूरी जमात (सिर्फ एक नहीं, :)) ब्लॉगों के माध्यम से पैदा होगी. ऊपरिलिखित टिप्पणियां भी कैपिटल और बोल्ड में ये बातें कह रही हैं...
- तो, ब्लॉग अनुपयुक्त सिर्फ उनके लिए है, जो इससे जुड़ना नहीं चाहते या ऐन-केन-प्रकारेण जुड़ नहीं सकते.
E-Guru Maya जी से मुझे नहीं सिखना कि सही पोस्त (सही शब्द पोस्ट) किसे कहते हैं । मेरे भाई !(मुझे नहीं पता कि आपकी नज़रों में आपके प्रति मेरा सही संबोधन क्या हो सकता है !) आप दूसरों को इतना बुद्धू क्यों समझते हैं जो किसी मनचाहे विषयों के चिट्ठों पर यदा-कदा टिप्पणी कर देते हैं । आपने भी तो वही किया है जो दूसरों ने किया है और जो आपकी नज़रों में बुद्धू हैं (वस्तुतः न आप, न ही कोई टिप्पणीबाज बुद्धू है - यहाँ ब्लॉग-जगत् में ) पहले यही ग़लतफ़हमी आप दूर करलें कृपया ।
आपने जो सवाल मुझसे कियें हैं, वे मेरे पोस्ट में पूरी तरह से संकेतित हैं । आप क्या मानते हैं, मुझे नही पता । पर मैं इतना तो अवश्य मानता हूँ कि हर अंतिम विचार के बाद भी एक विचार बचा रहता है । कृपया विचार करने से दुनिया को ना रोकें ! विचारों की अनुपस्थिति या उसकी हत्या का फ़रमान जारी करना मध्ययुगीन हरक़त कहला सकता है । आपने शायद मेरे पोस्ट को ठीक से नहीं पढ़ा जिसमें मैंने स्वयं प्रश्नांकित(आपके) संदर्भों यानी कि बिजली, कंप्यूटर, इंटरनेट, तकनीक, भूगोल आदि सभी कोणों को स्पर्श किया है ।
मित्र, किसी लेख या रचना को वजह और बेवजह होने का प्रमाण-पत्र संपादक देता है, आलोचक देता है । पर वह भी अंतिम नही हुआ करता । यह ब्लॉग की दुनिया है । यहाँ ऐसे सभी वर्चस्वों और अधिनायकवादियों की परवाह नहीं की जाती है । बल्कि स्वयं अनुशासन के साथ अभिव्यक्ति के नये सोपानों को तय किया जाता है किया जा रहा है। किया जाता रहेगा । वैसे आपके द्वारा किसी को वजह और बेवजह की कसौटी में रखना सिर्फ़ आपकी निजी मान्यता हो सकती है । इसे लेकर मुझे कोई आपत्ति भी नही है । इसे लेकर मैं क्यों चिंतित रहूँ । मित्र, मैं आपकी सोच पर तरस भी नहीं खाना चाहता जो आपको इतने स्वस्थ और शालीन तरीके से लिखे शब्दों और विचारों में बारूद, बम, मोर्टार, रॉकेट लांचर, एके-47 आदि दिखाई देते हैं । चर्चा करना युद्ध नही होता । विमर्श कोई आक्रमण या प्रत्याक्रमण नहीं होता। जब हर चीज़ पर चुप्पी साध ली जाती है वह समय चुक गया है । शायद इसीलिए आप भी यहाँ नहीं चुकना चाहते हैं और यह अच्छी परंपरा भी है ।
पूरी सदाशयता के साथ कहना चाहूँगा कि मैं किसी भी प्रचलित विचार को अंतिम नहीं मानता । हर श्रेष्ठ विचार के बाद भी नये विचार की संभावना और आवश्यकता सदैव बनी रहती है । कोई किसी विचार को अंतिम मानता है तो यह उसकी बला हो सकती है । आपका आदर्श भी हो सकता है । मेरा नहीं । मैं किसी भी विचार को सिर्फ़ इसीलिए अंतिम नहीं मान लेता क्योंकि वह किसी प्रभु व्यक्तित्व का है, और उसे नहीं मानना उसकी तौहीनी है । सच्चा विचारक अपने विरुद्ध उठने वाले सभी तर्कों का जवाब देने में सक्षम होता है और विनम्र भी ।
निश्चय ही महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा आदि के बाद नामवरजी हिंदी के एक बड़े आलोचक रहे हैं, और उनका हम सभी सम्मान भी करते हैं पर हम इसी अधिकार से उनकी बातों पर टिप्पणी करने का अवसर भी जुटाते हैं । पर वे हिंदी के अंतिम आलोचक भी नही हैं । और तो और वे किसी एक विचारधारा के आलोचक हैं । फिर साहित्य या विचार का संसार तो कहीं अधिक विस्तृत और संभावनाशील है । एक बात मैं आपके बहाने स्पष्ट कर दूँ कि न तो मैं वामपंथी हूँ ना दक्षिणपंथी । न ही और कोई पंथी-वंथी । आप के मन में किसी वाद को लेकर भी मेरे प्रति शंका हो तो कदाचित् वह व्यर्थ है । हम किसी दिये गये डब्बे में बंद किये जानेवाली चायपत्ती नहीं है कि जब चाहे कोई डब्बा खोले और उसमें से चायपत्ती निकाल चाय बनाले । हम उबाले जाने के लिए नहीं हैं । और यह हमारी सोच की विनम्रता ही है । एक तरह से हमारे होने का अर्थ इसी सोच में फलित होता है ।
हाँ पुनः विचार करके देखें कि विमर्श युद्ध नही होता । सिर्फ़ विमर्श होता है और विमर्श करने के अधिकार से आप तो क्या कोई भी वंचित नहीं कर सकता । फिर ब्लॉग तो विमर्श का, और आज तक ईजाद की गई सभी माध्यम-साधनों, कौशलों में सबसे अधिक प्रजातांत्रिक है ।
आपको कुछ ग़लतफ़हमी थी, शायद वह दूर हो गई होगी ।
आपने यद्यपि मुझसे नहीं पूछा है फिर भी मैं यह कहना चाहूँगा कि आज की पीढ़ी के आलोचकों को भी यह यानी कि चिट्ठाकारी उपयुक्त लगने लगी है । आप ज़रा समय निकाले, खंगालें इंटरनेट, एग्रीगेटर । आपको नयी पीढ़ी के दो-चार आलोचक वहाँ ज़रूर दिखाई देंगे, जो स्वयं ब्लॉग पर विश्वास करते हैं ।
सबसे बड़ी बात कि नामवरजी का वह वक्तव्य कई अर्थों में निहायत निजी भी है । क्योंकि हर विचार पहले निजी होता है फिर समाज के लिए । पर किसी निजी बात जो समाज से संबंधित होता है पर समाज के लोगों को सोचने-विचारने का मौका तो देना होगा ना हमे !
आग्रह है कि मेरी बातों को आप सिर्फ़ स्वस्थ तौर पर देखें.. । यह आपके साथ युद्ध का कोई बहाना भी नहीं । आपसे इसी बहाने जुड़ने का ज़रिया मात्र है ।
मानस जी , नामवर जी संभव हॆ अभी ब्लाग की दुनिया से पूर्ण परिचित न हों. मेरा परामर्श हॆ यदि उन्हें समय हो तो आप उन्हें इसके बारे में विस्तार से बताएं ताकि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस माध्यम से हिन्दी के विस्तार से परिचित हो सकें.
आपके ब्लाग पर नामवर की टिप्प्णी व आपकी विवेचना पढी।ब्लोगर अधिकांश ब्लागर भाषा व विचारों में अधकचरे हैं ,माना पर शुरूआत में तो आज के प्रतिष्टित आलोचक-साहित्यकार भी अधकचरे ही थे।समय एवं अभ्यास ने उन्हें यह ऊंचाई दी।ब्लागर भी पा रहें हैं,पा ही जायेंगे स्तर एक दिन।पत्रकार ? कहां हैं या तो सेठ मालिकों के हाथ की कठ्पुतलियां हैं।या सनसनी फ़ैलाकर टी.आर.पी के जुगाडू़ लोग ही तो हैं मीडिया कर्मी,ब्लागर अधकचरा हो ,नासिखिया हो ,अपरिपक्व हो वह मुखौटे नहीं औढता,उसे मुखौटे की जरूरत नहीं है।यहां इ=कविता को ही देख लें और बताएं संस्कृत कविता को संस्कृत न जानने वाले भी पढ़ रहें हैं,पसन्द कर रहे हैं,अच्छी व बुरी[छंद दृष्टि से] गज़ल आरही हैं,लोग ,कुछ लोग सीख भी रहे हैं,यह किस अखबार पत्रिका में संभव है,इतनी विपुल अभिव्यक्ती को फ़लक केवल आउर केवल नेट ही दे सकता है।समझो नामवर !
श्यामसखा‘श्याम’
डॉ. सिंह पर 'पूर्वाग्रह' का एक अंक आया था जिसमें उदयप्रकाश जी नें डॉ.सिंह के कुछ मन्तव्य छापे थे जिसे डॉ.सिंह नें बाद में सिरे से खारिज कर दिया था एवं किसी दूसरे मसले पर अपने स्वयं के 'पूर्वाग्रह की दृष्टि बदली' को भी स्वीकारा था ।
ब्लाग के संबंध में उनका यह कथन पूर्वाग्रह है जिसे बदलना ही है एक दिन । उन्हें प्रणम्य माने अगरबत्ती लगायें पर उनके वैचारिक आदर्शों का अनुसरण करें यह आवश्यक नहीं है ।
आपने ब्लाग मंथन किया जिसके लिये आभार । सभी के अपने अपने विचार पढने को जो मिला ।
अब नामवर सिंह जी के सामने हम क्या बोल सकते हैं. मगर इतना तो कहेंगे कि ब्लॉग भी अपने विचार कहने और वार्ता/संवाद का वैसा ही साधन है जैसे कोई चौपाल,गोष्ठी या मैत्रीपूर्ण बातचीत हो. इससे भी आगे चलें तो कई ब्लॉग सम्पादक के नाम पत्र जैसे भी हो सकते हैं और कुछ सम्पादकीय जैसे भी - जैसे कि आपका यह ब्लॉग.
यह संपादित नहीं है और सेंसर्ड तो कतई भी नहीं. साथ ही एक आम ब्लॉग के साहित्यिक होने की आशा करना भी व्यर्थ है. यह ब्लॉग लेखक की खुली डायरी हो सकते हैं पुस्तक होना कठिन है.
भविष्य से कोई जीत नहीं सकता है. हर अच्छी तकनीक पुराना कुछ ख़त्म करती है या उसके असर को कम करती है और इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि इससे पुरानी चीज़ बेहतर होती है. ताडपत्र से समाचारपत्र तक के सफर को देखें या समाचारपत्र से रेडियो या रेडियो से टीवी और अब उपग्रह रेडियो, इन्टरनेट रेडियो या वेब २.०. समाज की बेहतरी भविष्योन्मुख होने में ही है.
Future is bright, try to be a part of it.
धन्यवाद!
अच्छा. ओहो?
जयप्रकाश जी:
सच में कहूँ , लेख को कई बार पढा लेकिन ठीक से समझ में नहीं आया कि नामवरसिंह जी को आपत्ति या शिकायत किस बात से है । पता नहीं यह अस्प्ष्टता उन के कहने में है या आप को उन का कहा कागज़ पर उतारनें में ।
कुछ बिन्दुओं को छूना चाहूँगा :
>>> इस सोच से उत्पन निर्णय में हमारे देश के अनपढ़, अल्पपढ और ग़रीब, किसान, मज़दूर, कारीगर आदि आमजन भी उन्हें दिखाई देते हैं जिनमें से आधे लोग तो आज भी निरक्षर हैं >>
अब यह तो सीधी सी बात है कि निरक्षता का निवारण न तो परंपरागत पत्रकारिता कर सकती है न ही ब्लौग । ऐसा कोई निरक्षर नहीं होगा जो पत्र/किताब को पढ पायेगा लेकिन ब्लौग को नहीं ।
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>>>यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या ब्लॉग लेखन ज़रूरी है सबके लिए ? अभिव्यक्ति के साथ अनभिव्यक्ति भी बहुत ज़रूरी है । कम से कम अंतरजाल पर । आख़िर गोपनता भी कई बार लाज़िमी होती है । वैसे भी बड़ा से बड़ा अभिव्यक्तिवादी समाज सब कुछ कहना नहीं चाहता । ऐसे सभ्य (?) समाजों का भी इतिहास गवाह रहा है कि वहाँ कुछ ही लोग अभिव्यक्ति के अधिकार को बनाये रखते हैं या फिर उसे बहाल करने के लिए संघर्षरत रहते हैं । <<<<
अनभिव्यक्ति क्यों ज़रूरी है , कृपया स्पष्ट करें और यदि ज़रूरी है भी तो इस का दायित्व सिर्फ़ ’ब्लौग लेखकों’ पर ही क्यों ? शायद इसलिये कि अभिव्यक्ति पत्रकारिता में ’जीविका’ है और एक दिन की अनभिव्यक्ति का अर्थ एक दिन की आमदनी का कम होना होगा ।
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>>>यूँ भी ब्लॉग लेखन पढ़े-लिखे और तकनीक से परिचित (और दक्ष भी ) तथा साधन संपन्न लोगों के वश की बात है, जिसके पास इतना समय भी हो कि वह ऐसा लिख सके <<<<
यदि ब्लौग लेखन पर नज़र डालें तो काफ़ी ब्लौग १० रुपये प्रति घंटा की दर से ’सायबर कैफ़े’ में लिखे जाते हैं । ब्लौग लिखने के लिये सम्पन्न होना ज़रूरी नही है । हाँ पत्र में लिखनें के लिये ’कनेक्टेड’ होना ज़रूर ज़रूरी है । आप ही बताइये ’Barrier to Entry' किस में ज़्यादा है ?
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>>>इंटरनेट और हिंदी पत्रकारिता पर चिंतित दिखाई देनेवाले नामवर सिंह यह भी कहते हैं कि अँगरेज़ी अख़बार और इंटरनेट की नकल ने पत्रकारों की नौकरी को ख़तरे में डाल दिया है । बात में काफ़ी दम है । <<<<
बात समझ नहीं आई लेकिन इस कथन का लेख के शीर्षक "ब्लौग लेखन अनुपयुक्त है" से कोई ताल्लुक नज़र नहीं आता इसलिये नज़रअंदाज कर रहा हूँ । यदि ब्लौग लेखन नें पत्रकारों की नौकरी को खतरे में डाल दिया है तो उन्हें अपनी नौकरी बचाने के लिये खुद लड़ना होगा या कोई दूसरा व्यवसाय देखना होगा ।
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>>>"आंचलिकता को बनाये रखना ज़रूरी है"<<<<
इस बात से सहमत हूँ लेकिन वह ऐसा क्यों सोचते हैं कि ’ब्लौग लेखन’ में इस के प्रयास नहीं हो रहे हैं । कितनी ही नई लिखने की शैलियां , मुहावरे मिलते हैं पढने के लिये ।
अगर नामवर सिंह जी की बात को स्पष्ट शब्दों में ’बिन्दु बिन्दु विचार’ की तरह उदाहरणों के साथ लिखा जाये तो शायद बेहतर समझ में आये । आप के अपने विचार भी इस विषय में जानना चाहूँगा ।
स्नेह
अनूप भार्गव
यह तो सर्वथा सत्य है की हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. ब्लोगिंग की होंगी कुछ खामिया, पर अच्छइयां भी है ज़रूर. अब हर कोई पत्र पत्रिकाओं में छपवाने के लिए नहीं लिखता न? अपने विचारों को एक दूसरे के साथ बांटने में क्या उनुप्युक्त्ता हो सकती है भला? यह तो ऐसा ही है जैसे कोई गोष्ठी.
और सबसे बड़ी बात- आदरणीय नामवर जी का यह कथन मैंने ब्लॉग के द्बारा ही पढ़ा!!
यह तो सर्वथा सत्य है की हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. ब्लोगिंग की होंगी कुछ खामिया, पर अच्छइयां भी है ज़रूर. अब हर कोई पत्र पत्रिकाओं में छपवाने के लिए नहीं लिखता न? अपने विचारों को एक दूसरे के साथ बांटने में क्या उनुप्युक्त्ता हो सकती है भला? यह तो ऐसा ही है जैसे कोई गोष्ठी.
और सबसे बड़ी बात- आदरणीय नामवर जी का यह कथन मैंने ब्लॉग के द्बारा ही पढ़ा!!
जय प्रकाश ,
अपने तो ब्लागलेखन से नामवर सिंह की अच्छी फजीहत करा दी | ब्लाग ने हर एक को स्वतंत्र कहने-लिखने की एक स्लेट-पेंसिल तो दिया ही है '
कोई भी देश प्रगतिशील एवं सुखी तभी हो सकता है जब बोलने-लिखने की स्वतंत्रता हो |और विज्ञान का अनुसंधान भी इस बात को स्वीकारता है की जहाँ विविधता होगी वहाँ कुछ नया पनपने की सम्भावना है |
हर नयी विधा का स्वागत है पर दूर तक यात्रा सत्य की ही हो सकती है | मंगल कामनाओं के साथ ,
आदित्य प्रकाश
डैलास, युएसए
adityapsingh@aol.com
जयप्रकाश जी:
आप से अन्त में समीक्षा, टिप्पाणियों में उठाये गये प्रश्नो के उत्तर और आप के स्वयं के विचारों की अपेक्षा थी वरना तो यह सिर्फ़ सनसनी फ़ैलानें और पाठकों को ब्लौग तक लाने के लिये किया गया मज़ाक ही रहा ।
दुष्यन्त जी की पंक्तियां याद आ रही है:
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये ।
स्नेह
अनूप भार्गव
मानस जी आपने नामवार सिंह जी के विचारों को अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है | इनदिनों ब्लॉग मैं कुछ अच्छाइयों से साथ साथ ढेर सारा कूड़ा-करकट भी है | मेरे हिसाब से ब्लॉग ज्यादातर लोग अपनी संतुस्टी या अपनी पहचान स्तापित करने के लिए लिखते हैं | ब्लॉग पे यदि मैं अपने नए कार, एसी, लैपटॉप पे लिखूंगा तो कोई रोक भी नहीं सकता है और मैं कह सकता हूँ की ये मेरी मर्जी थी सो मैंने लिख दी |
यदि ब्लॉग मैं आंचलिकता का पुट देने का सुझाव नामवार सिंह जी से आता है तो इसमें बराइ क्या है ? कई blogger बंधू भड़क से गए हैं | नामवार सिंह वरिस्ट हैं, उनका सुझाव मानना न मानना आपके हाथ मैं है मुझे भड़कने वाली कोई बात नहीं दिखती |
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